आशुतोष दुबे की किताब ‘‘प्रारम्भिक शिक्षा-व्यक्तित्व विकास के विविध चरण’’ पर अलका प्रमोद की समीक्षा ‘प्राथमिक शिक्षा प्रणाली पर एक प्रामाणिक विचारपरक कृति’।

 


 

 

शिक्षा मनुष्य को इंसान बनाती है। इससे मनुष्य न केवल सामाजिकता से जुडता है अपितु वह अपने समय के अधुनातन ज्ञान एवम प्रविधियों से परिचित होता है।   वैसे भी प्राथमिक शिक्षा किसी भी देश की शिक्षा की रीढ होती है। इसके बावजूद प्राथमिक शिक्षा को प्रायः उपेक्षित किया जाता है। आशुतोष दुबे न केवल शिक्षाविद हैं बल्कि प्राथमिक शिक्षा के आला अधिकारी हैं। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में कुछ अभिनव प्रयोग किए हैं और उन्हें लागू करने का प्रयास भी किया है। उन्होंने अपने अनुभवों को शब्दबद्ध किया है। ये अनुभव एक किताब के रुप में संग्रहित किए गए हैं। यह किताब हाल ही में लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुई है। आइए आज पहली बार पर पढते हैं आशुतोष दुबे की किताब ‘‘प्रारम्भिक शिक्षा-व्यक्तित्व विकास के विविध चरण’’ पर चर्चित कथाकार अलका प्रमोद की समीक्षा प्राथमिक शिक्षा प्रणाली पर एक प्रामाणिक विचारपरक कृति      

   

 

 

प्राथमिक शिक्षा प्रणाली पर एक प्रामाणिक विचारपरक कृति   

 

                                         

अलका प्रमोद

   

 

 

भारत के भावी नागरिकों  के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करने वाली इस कृति ‘‘प्रारम्भिक शिक्षा-व्यक्तित्व विकास के विविध चरण’’ के लेखक हैं, राज्य शिक्षा संस्थान के प्राचार्य आशुतोष दुबे। 12 अध्यायों के इस संग्रह में लेखक ने बच्चों की घरेलू स्तर पर प्रारम्भ होने वाली शिक्षा और उनके व्यक्त्त्वि के विकास से ले कर उनकी शिक्षा प्रणाली निर्धारण हेतु किये जाने वाले शोधों के महत्व तक, सभी आवश्यक बिन्दुओं को इस कृति में समाहित करने का श्लाघनीय प्रयास किया है। 

   

 

इस कृति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है कि इसमे केवल सामान्य बच्चों की शिक्षा के प्रति सरोकार हैं वरन् मानसिक मन्दता एवं आधिगमिक दुर्बलता से ग्रस्त बच्चों की शिक्षा के प्रति लेखक की चिन्ता निश्चय ही बच्चों, समाज, देश और मानवीय हित के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण है तथा एक भावी स्वस्थ समाज के प्रति आशा जगाती है।

     

 

इस कृति का प्रथम लेख ‘‘बच्चे का व्यक्तित्व निर्माण : घरेलू परिवेश तथा प्रारम्भिक विद्यालय’’ में लेखक ने व्यक्तित्व को परिभाषित करते हुए व्यक्तित्व के सर्जक और नियन्ता पर प्रकाश डाला है। लेखक का मानना है ‘‘आनुवांशिकता और पर्यावरण व्यक्तित्व का नियमन और सर्जन करते हैं।’’ लेखक लिखते हैं ‘‘अभिभावक, घरेलू वातावरण, प्रातिवेशिक वातावरण, समुदाय तथा विद्यालय, व्यक्तित्व को केवल पोषण प्रदान करते हैं; प्रत्युत उसके स्वरूप को भी निर्धारित करते हैं। इनमें भी विद्यालय की भूमिका अन्यतम होती है। व्यक्तित्व के निर्माण में इस संस्था के अवदान का कोई सानी नहीं।......’’

 

 

कृति का दूसरा लेख है ‘‘जीवन कौशल के विकास में शिक्षक की भूमिका’’। इस अध्याय का प्रारम्भ वास्तविक सुख को परिभाषित करते हुए वह अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य को स्थापित करते हैं कि जीवन में सुख जीवन में भैातिक संसाधनों पर नहीं अपितु मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है। उनका मानना है कि ‘‘एतदर्थ बचपन से ही उनमें धैर्य तथा तार्किक चिन्तन के संस्कार का आधान किया जाना चाहिए।’’

     

 

इस संदर्भ में शिक्षक की भूमिका को आवश्यक मानते हुए राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं कि बच्चे को उसकी आयु ,परिवेश, क्षमता तथा स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। प्रशिक्षित तथा व्यवसायिक क्षमता सम्पन्न शिक्षक द्वारा ही इस कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न किया जाना संभव है। आयु के भिन्न सोपानों पर बच्चों की मानसिकता एवं क्षमता के दृष्टिगत ही शिक्षण की रूपरेखा तैयार किया जाना अवश्यम्भावी होना चाहिए।    

 

 

‘‘प्रारंभिक शिक्षा तथा व्यक्तित्व विकास के विविध चरण’’ नामानुरूप छात्र के सर्वांगीण विकास के लिये वांछित महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर आधारित है। लेखक ने लिखा है ‘‘शिक्षक का दायित्व बच्चों का सर्वांगीण विकास करना होता है। वह उन्हें समाज के अन्य व्यक्तियों से आत्मीयता स्थापित करने, प्रेम करने, यथा समय विरोध करने, समाज द्वारा स्वीकृत आचारों एवं मूल्यों को अपनाने, अमान्य आचरणों को अस्वीकारने की शिक्षा देता है। वह बच्चों को सुनने, बोलने, पढ़ने, अभिव्यक्त करने, लिखने और बोल कर तथा लिख कर अन्यों को बताने की कला तथा क्षमता से युक्त करता है। इस अध्याय में लेखक ने विभिन्न आयु वर्ग में दी जाने वाली शिक्षा को विभिन्न स्तरों पर वर्गीकृत किया है तथा मुखकामावस्था, गुदकामावस्था, प्रजनन कामावस्था गुप्तकामावस्था, किशोरावस्था, पूर्व प्रौढ़ावस्था, मध्य प्रौढा़वस्था, उत्तर प्रौढा़वस्था एवं वार्धक्य में मानव के सम्पूर्ण जीवन चक्र और तदानुसार उसके मनोविज्ञान का विश्लेषण करते हुए शिक्षक के दायित्व को इंगित किया है कि उन्हें बच्चों की मनोवृत्तियों के अनुसार उनमें समाज में समायोजित होने की क्षमता विकसित करनी चाहिए।   

 

 

‘‘प्रारम्भिक विद्यालयीय शिक्षण तथा उसकी विषयवस्तु’’ शीर्षक के अध्याय में  लेखक ने अजीम फांउडेशन की इस उक्ति को संदर्भित किया है अगर एक शिक्षक यह मानता है कि उचित हस्तक्षेप से सभी छात्र सीख सकते हैं, भले ही वह भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमियों से आते हैं तो इसका शिक्षण कर्म पर सकारात्मक असर पर पड़ता है। दूसरी तरफ, अगर एक शिक्षक यह मानता है कि किसी छात्र में सीखने की क्षमता कम है तो इसका सीधा नकारात्मक असर वास्तविक शिक्षण पर पड़ता है।’’ लेखक ने इस अध्याय में शिक्षा हेतु निर्धारित किये जाने वाले पाठ्यक्रम के संदर्भ में भी चर्चा की है। उदाहरणार्थ छोटे बच्चों को खिलौनों, खेलों आदि के माध्यम से सिखाना चाहिए।

   

 

लेखक ने आयु के अनुसार मुहावरों, लोकोक्ति के प्रयोग, नाट्य कथाओं तथा श्रुत लेख आदि की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। लेख के अंत में लिखा है,  ‘‘इस प्रकार अद्यावधिक शिक्षा नीति तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि दोनों ही चित्रात्मक शैली, गेय पद और प्रेरणास्पद तथा जीवन कौशल से समन्वित कहानियों के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षण पद्धति का पोषण करती हैं।’’

 

 

आशुतोष दुबे

 

‘‘प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में मूल्यांकन तथा परीक्षा का औचित्य’’ शीर्षक के लेख में  लेखक ने छात्रों के मूल्यांकन तथा परीक्षा के सन्दर्भ में विभिन्न मतों को उद्धृत किया है जिसमें कुछ के अनुसार परीक्षा छात्रों के विकास के लिये आवश्यक है तो कुछ के अनुसार परीक्षा, जिन छात्रों के अंक कम आते हैं उन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। परीक्षा होने तथा होने के सभी पक्षों को प्रस्तुत करते हुए लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परीक्षा होनी चाहिए; लेकिन सतर्कता के साथ बच्चों की वयोजन्य मनोवैज्ञानिक विशेषताओं को दृष्टिगत करते हुए परीक्षण-विधि एवं शैली को अपनाते हुए जिससे बच्चों की आत्म मूल्यांकन की क्षमता बढ़ सके और उन्हें अपनी योग्यता सिद्ध करने का अवसर मिल सके।’’ 

 

 

‘‘शिक्षक और उसका बहुआयामी व्यक्तित्व’’ में बहुत ही महत्वपूर्ण बिन्दु है कि शिक्षक का एक अच्छा मनोवैज्ञानिक होना अत्यंत आवश्यक है। इस अध्याय में ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त शिक्षकों के अभाव को भी इंगित करते हुए लिखा है कि इस शैक्षिक व्यवस्था के कारण शिक्षकों के बहु-कक्षा-शिक्षण में प्रवीण होने की तथा निरीक्षक के सक्षम होने की आवश्यकता है। शिक्षक के बहुआयामी व्यक्तित्व पर ही बच्चों की बहुमुखी विकास का आधार है। अतः अपेक्षित है कि शिक्षक केवल पाठ्यक्रम की शिक्षा दें अपितु अपने आचरण एवं शिक्षा से बच्चों को सदाचार का पाठ भी पढ़ायें।

 

 

‘‘मानसिक मन्दता : लक्षण तथा निदान’’ अध्याय, शीर्षक के अनुरूप मानसिक रूप से मन्द बच्चों की शिक्षा के प्रति सरोकार है। सामान्य बच्चों की शिक्षा तो एक विचारणीय प्रश्न है ही परन्तु उसके अतिरिक्त समाज में अनेक बच्चे अपेक्षाकृत मानसिक रूप से अल्प विकसित होते हैं, स्वाभाविक है कि उनकी ग्राह्य क्षमता भी कम होती है। इस अध्याय में उनकी शिक्षा की दृष्टि से उनको सौम्य, मध्यम, गम्भीर तथा अति गम्भीर मानसिक मन्दता की श्रेणी में वर्गीकृत करते हुए उनके निदान के सन्दर्भ में अवगत कराया गया है। निदान में उनके विभिन्न श्रेणी के चिकित्सीय परीक्षण तथा प्रक्षेपी प्रविधियों के आधार पर उनकी मानसिक समस्याओं का निदान खोजा जाता है जिसमें सामाजिक कार्यकर्ताओं का विशेष योगदान होता है।  

   

 

आधिगमिक क्षमता भिन्न होने के कारण निश्चय ही शिक्षक का सभी बच्चों के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास का दायित्व बढ़ जाता है। इसके विषय में लेखक ने, ‘‘आधिगमिक दुर्बलता तथा प्राथमिक शिक्षक के कर्तव्य’’ अध्याय में लिखा है, ‘‘यह तभी सम्भव है जब वह अपने छात्रों की मानसिक और सामाजिक समस्याओं को जानता हो। इसके लिये शिक्षक में मानवीय करुणा और सहयोग की भावना विद्यमान होनी चाहिए।’’

   

 

लेखक ने समय-समय पर इस सन्दर्भ में शिक्षकों के प्रशिक्षण को भी आवश्यक बताया है।

‘‘पूर्व प्राथमिक शिक्षाःमहत्व तथा कार्यान्वयन’’ शीर्षक के लेख में अवगत कराया गया है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुसार 3 वर्ष से 18 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिये 5+3+3+4 अर्थात 5 वर्ष से पूर्व प्रारम्भिक से कक्षा 2 तक की, तत्पश्चात कक्षा 3 से 5 तक की शिक्षा और उसके पश्चात कक्षा 6 से 8 तक की शिक्षा व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। इसमें कक्षा पूर्व शिक्षण योजना बच्चों का विद्यालय हेतु तत्पर करने के उद्देश्य से कृत व्यवस्था है।  इसके लिये शिक्षकों को बालमनोविज्ञान तथा शारीरिक स्वास्थ्य विषयक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है।

 

 

‘‘पूर्व प्राथमिक शिक्षा तथा आधिगमिक दुर्बलता’’ जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है विद्यालय आने से पूर्व, आधिगमिक दुर्बल बच्चों प्रति शिक्षक के कर्तव्य एवं दायित्वों के संदर्भ में है। इस अध्याय में बल दिया गया है कि इन बच्चों को शिक्षा देने वाले शिक्षकों का बच्चों के प्रति दायित्व अत्यन्त संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण है और इसके लिये मनोविज्ञान की समझ रखने वाले प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता तो है ही, शिक्षकों का समय-समय पर प्रशिक्षण भी होना चाहिए।

 

 

‘‘सेवारत प्रशिक्षण: आवश्यकता तथा उपादेयता’’ अध्याय में भी लेखक ने शिक्षण से पूर्व के प्रशिक्षण के साथ ही कार्यरत शिक्षकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षित करने की आवश्कता को स्थापित किया है। इस लेख में इंगित किया गया है कि कुछ लोग यदि शिक्षा दे रहे शिक्षकों के पुनः प्रशिक्षण के पक्षधर है तो कुछ के अनुसार यह व्यर्थ है। परन्तु लेखक ने अपने तर्कों से समय-समय पर शिक्षकों के प्रशिक्षण को नितान्त आवश्यक सिद्ध किया है।

   

 

अंतिम अध्याय का शीर्षक है ‘‘शोध तथा विद्यालयीय शिक्षा’’ जो लेखक के अनुसार अति आवश्यक है। विद्यालीयीय शिक्षा में वयोनुरूप पाठ्यक्रम के निर्धारण, क्षेत्रीय तथा जातीय वंश परम्परागत ज्ञान के सदुपयोग, सामुदायिक संगठन, शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्यवर्धन और एतदर्थ अभिभावकों एवं शिक्षकों के अभिप्रेरण के लिये शैक्षिक शोध अति महत्वपूर्ण होते हैं।

     

 

सारांश यह है कि लेखक ने प्राथमिक शिक्षा के लिये आवश्यक सभी पक्षों पर लेख, अपनी इस कृति  में संग्रहित किये हैं तथा बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा से ले कर विद्यालीय शिक्षा हेतु शिक्षकों के कर्तव्य, दायित्व, नीति, पाठ्यक्रम, एवं मन्दित तथा आधिगमिक बच्चों तक की समस्या का निदान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है जिससे यह पुस्तक प्राथमिक शिक्षा के लिये अत्यंत उपयोगी हो गयी है। इस कृति में लेखक ने सभी प्रायः अंग्रेजी में प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों के अनुवाद करके हिन्दी शब्द प्रयोग किये हैं, साथ ही अंत में हिन्दी अंग्रेजी-पर्याय में हिन्दी शब्दों के लिये अंग्रेजी शब्द की सूची दे कर पाठकों के लिये पढ़ना सुलभ कर दिया है। एक श्रम साध्य शोधपरक कार्य हेतु निश्चय ही लेखक प्रशंसा के पात्र हैं। लेखक ने जगह-जगह पर आवश्यकतानुसार विभिन्न संदर्भों एवं उद्धरणों से अपने तथ्यों को सिद्ध करने का प्रयास किया है जो कृति की प्रामाणिकता एवं विश्वसनीयता को बढ़ाते हैं।

 

 

कृति का नाम : प्रारम्भिक शिक्षा- व्यक्तित्व विकास के विविध चरण”

लेखकः  डा. आशुतोष दुबे

पृष्ठ : 128

मूल्यः  रु. 395/-

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन

महात्मा गांधी मार्ग, प्रयागराज-211001

 

 

अलका प्रमोद

 

सम्पर्क –

 

अलका प्रमोद

मोबाईल – 9839022552

 

टिप्पणियाँ

  1. पुस्तक विषयक टिप्पणी निश्चितरूप से पुस्तक तथा समीक्षक दोनों की संवेदनशीलता को स्पष्ट करते हैं ।इसे अपने ब्लॉग पर उपलब्ध कराने के लिए आप भी निस्संदेह साधुवाद के पात्र हैं ।
    डाॅ0 निर्मला, इन्दिरानगर, लखनऊ ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'