स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' का अन्तिम और दसवाँ खण्ड।
विभिन्न तकनीकों के चलते सिनेमा भी अपना रूप बदल रहा था। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में सिनेमाहाल की जगह मल्टीप्लेक्स लेने लगे थे। हिन्दी सिनेमा पर अब पूंजीपतियों और कारपोरेटों का आधिपत्य स्थापित होने लगा था। अब फिल्मों के नाम ही नहीं उनके वर्ण्य विषय भी बदलने लगे थे। आम आदमी, उसकी समस्याएं और उसके दुःख सुख सिनेमा से गायब होने लगे थे। सिनेमाहाल बन्द होने से चवन्निया दर्शक भी गायब होने लगे थे। सैकड़ो रुपये खर्च कर सिनेमा देखना इनके ही नहीं बल्कि निम्न माध्यम वर्ग के लिए भी बूते के बाहर था। कोरोना महामारी ने सिनेमाहालों का एक तरह से वारा न्यारा ही कर दिया। विकल्प की खोज ओ टी टी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म की खोज के साथ हुई। अब नई फिल्में इसी प्लेटफॉर्म पर रिलीज होने लगीं। यह एक वैश्विक प्लेटफॉर्म है जिस तक आम आदमी की पहुँच मुश्किल है। सिनेमा पूरी तरह अपना रूप बदल चुका है। सिनेमा का ऐसा अवसान हमारी कल्पना के परे था। आज पहली बार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' का अन्तिम और दसवाँ खण्ड।
एक सिनेमाबाज की कहानी - 10
॥चौंतीस॥
फैज़ाबाद मेरे नौकरी के जीवन का आखिरी स्टेशन था, उसके आगे जीवन की रेल नहीं जाती थी। अयोध्या उसका उपनगर था। जबसे बाबरी मस्जिद शहीद की गयी, वह विश्वविख्यात हो चुका था। दोनो समुदाय के लोगों का वह शरणस्थल बना, राजनीति के साथ वहां अन्य गतिविधियां होती थीं। कुछ लोग तो रातो-रात समृद्ध हो गये, उन्होंने समाज में अपनी हैसियत बना ली। ये चतुर–सुजान लोग थे, कोई न कोई संस्था बना कर अपना उल्लू सीधा करते थे, उनका धर्म या मजहब से कोई रिश्ता नहीं था।
अयोध्या के बारे में मैं सिर्फ यही जानता था कि राम यहीं पैदा हुए थे और जब राजा बनने के योग्य हुए, एक षडयंत्र के तहत उन्हें चौदह साल का वनवास दे दिया गया लेकिन अति धार्मिक किस्म के लोग इसकी व्याख्या दूसरी तरह से करते है, उन्हें वे मनुष्य नहीं ईश्वर समझते थे। रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास की यही प्रस्थापना थी। इन सारी मान्यताओं के ऊपर वे हमारे लोकनायक थे, अवध प्रदेश के अलावा देश के विभिन्न इलाकों में वे पूज्यनीय थे। विभाग के कामकाज के अलावा मुझे फैज़ाबाद के बारे में जानने की दिलचस्पी थी। अयोध्या के तमाम मंदिर देख डाले लेकिन पंडों की हरकत देख कर मन खिन्न हो गया – जिस मंदिर में जाओ, वे हमें बंदरों की तरह घेर लेते थे। हम तो किसी तरह बच जाते थे लेकिन जो गांव या देश के सुदूर इलाकों से आते थे, उनकी तो खैर नहीं। कर्मकांड के नाम पर उनकी जेब खाली हो जाती थी।
अयोध्या की दो जगहें मुझे अब भी प्रिय है – एक है गुप्तार–घाट और दूसरा अयोध्या का सरयू-तट। सुबह हो या शाम दोनो समय ये जगहें अच्छी लगती थीं– डूबती हुई शाम में नांवों का आना-जाना और उसके बाद की खामोशी दिल मोह लेती थी। लेकिन अयोध्या आने हुक्मरानों का आना-जाना बढ़ गया था, वे प्राय: छुट्टियों के दिन डेरा डालते थे और धार्मिक जगहों को देखते थे। सर्किट हाउस या किसी होटल में उनके ठहरने की व्यवस्था करनी पड़ती थी, हमारी तो जेब कट जाती थी। जाते समय वे धन्यवाद का एक वाक्य नहीं बोल पाते थे। इस व्यस्तता में मैं फैज़ाबाद के बारे में कुछ ठीक से नहीं जान पाया था
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फैज़ाबाद का इतिहास बहुत रोचक था। इस शहर को अवध के पहले नबाब सआदत अली खान ने 1730 में बसाया था और उसे अपने रियासत की राजधानी बनाया था। तीसरे नबाब शुजाउद्दौला ने इस शहर में बहुत निर्माण कार्य किये थे। बहू बेगम का मकबरा, गुलाबबाड़ी यहाँ की मशहूर जगहों में शुमार है। यहाँ के बाग–बगीचे को देखने के लिए लोग दूर–दूर से आते थे। अंगूरी बाग, नहर बाग, मोतीबाग अब भी फैज़ाबाद के मुहल्लों के नाम हैं। शुजादुल्ला के कार्यकाल में फैज़ाबाद का खूब विकास हुआ। उनके बेगम के नाम पर बहू बेगम का मकबरा स्थापत्य का अदभुत नमूना है। मोती महल यहाँ का यादगार स्मारक है जहां से सूबे के राज-काज का संचालन किया जाता था। यहाँ पर दरबार–ए-खास और दरबार– ए-आम नाम की जगहें थी। यह जगह अफीम कोठी के नाम से जानी जाती है, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है, उसकी तरफ न पुरातत्व विभाग कोई ध्यान नहीं देता और न नागरिक समाज ही अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है।
फैज़ाबाद का जिक्र हो और मिर्जा मुहम्मद सौदा जैसे शायर का नाम लब पर जरूर आयेगा, वे अवध नबाब के दरबार के अनुपम रत्न थे। वे मशहूर शायर मीर तकी मीर के समकालीन थे लेकिन उन्हें उर्दू के अदब में बहुत कम जगह मिली थी। वे फरूखाबाद से आ कर यहाँ बस गये थे। जब अवध के नबाबों की राजधानी लखनऊ स्थानांतरित हुई, वे उनके साथ वहां चले गये। लखनऊ में ही उनका इंतकाल हुआ। उनका एक शेर अक्सर याद आता है –
सावन के बादलों की तरह भरे हुए हैं
ये वे नयन हैं जिनसे कि जंगल हरे हुए हैं..।
उस दौर के इतिहास के बारे में मौलवी अब्दुल हमीद शरर की किताब तफ्सील से बयान करती हैं। आसफ–उद-औला ने अवध की राजधानी लखनऊ बनायी, इस तरह फैज़ाबाद का इतिहास बदल गया। वर्तमान समय ये स्मारक वीरानी में दफ्न हो गए हैं, बस केवल इतिहास के पन्नों में दर्ज हो कर रह गए हैं। 13 नवम्बर 2018 में फैज़ाबाद जनपद का नाम फैज़ाबाद से बदल कर अयोध्या कर दिया गया है। फैज़ाबाद शहर केवल राजनीति और संस्कृति का केन्द्र रहा हैं।
फैज़ाबाद उमराव जान अदा की सरजमीन रही है। उर्दू के प्रसिद्ध अफसानानिगार मिर्जा हादी रूसवा ने उमराव जान अदा जैसा उपन्यास लिख कर उन्हें साहित्य में अमर कर दिया। उमराव जान का असली नाम अमीरन था। अमीरन से उमराव जान अदा का सफर बेहद दिलचस्प और संघर्षपूर्ण रहा है, उसे कई मरहलों से गुजरना पडा था – इसी के बीच उसकी शायरी ने जन्म लिया। उनका एक शेर अक्सर याद आता है -
किसको सुनाएँ हाल–ए–दिल जोर ऐ अदा
आवारगी में हमने जमाने की सैर की..।
मुजफ्फर अली ने उमराव जान फिल्म बना कर सिनेमा दर्शकों को एक नायाब तोहफा दिया था – इस फिल्म के सारे गीत बेहद मकबूल हुए थे। इस फिल्म के गीत मशहूर शायर शहरयार ने लिखे थे।
जुस्तजू जिसकी की, उसको तो ना पाया हमने
इसी बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने
या
दिल क्या चीज है आप मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए।
इन गीतों और फिल्मों के जरिए फैज़ाबाद के अतीत की यादें ताजा हो जाती हैं।
इसी तरह की एक शख्सियत थी बेगम अख्तर जिनकी गज़लों में बला का दर्द था। वे इस जनपद के एक नामालूम कस्बे भदरसा में 07 अक्टूबर 1914 को पैदा हुई थी, वह एक तवाइफ की औलाद थी, उनके बचपन का नाम बिम्बी था – बिम्बी से वह अख्तरी बाई हुई – फिर वक्त और हालात नें उन्हें गजलों की मलिका बना दिया। उन्होंने गालिब, फैज, शकील बदायूनी और सुदर्शन फाकिर की गज़लों को डूब कर गाया है। ठुमरी और दादरा को वे जिस मनोयोग से गाती थी कि उसकी धुन कलेजे को छू जाती थी। गज़ल–अदायगी का यह हुनर उन्हें आसानी से हासिल नहीं हुआ है, जिन्दगी में उन्हें इसकी कीमत अदा करनी पड़ी है। उनकी आवाज में कशिश और दर्द है, वह किसी दूसरी गज़ल–गायिका में नजर नहीं आता। कुछ लोग कंठ से गाते हैं लेकिन बेगम अख्तर दिल से गाती थी – उनकी आवाज में जादू था।
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अविभाजित फैज़ाबाद में दो शख्सियतें थी जिन्होने भारतीय राजनीति को गहरे प्रभावित किया था – पहले बुद्धिजीवी नेता थे राममनोहर लोहिया और दूसरे आचार्य नरेंद्र देव। वे 1889 में सीतापुर में पैदा हुए थे और फैज़ाबाद में वकालत की शुरूआत की थी। वे राजनेता के साथ शिक्षाविद भी थे, बौद्ध दर्शन पर उन्होंने महत्व का काम किया है। उन्होंने आजादी की लड़ाई और आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई है। लोहिया, नरेंद्र देव और जयप्रकाश नारायण ने भारत में समाजवादी आंदोलन का सूत्रपात किया है। 1934 में अपने उपर्युक्त साथियों के साथ मिल कर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की थी। उन्हें मार्क्सवादी समाजवादी कहा जाता था। यह बिडम्बना ही है कि इस विभूतियों की यथोचित चर्चा नहीं होती, बस कुछ संस्थाओं का नामकरण इनके नाम पर कर दिया गया है लेकिन इनकी विरासत को आगे बढ़ाए जाने का काम नहीं हुआ है।
कुल मिला कर फैज़ाबाद का परिक्षेत्र राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बेहद सम्पन्न रहा है लेकिन उसे विकसित करने का काम अभी भी बाकी है। इस अवध –क्षेत्र प्रचंड प्रतिभाओं का कार्यक्षेत्र रहा है लेकिन इस निजाम के केन्द्र में अयोध्या हैं। रामायणकालीन संस्कृति का उपयोग राजनीति को ध्यान में रख कर किया जा रहा है जिसमें व्यापकता की जगह एक संकीर्णता है। कितना अच्छा होता कि राम की संस्कृति के साथ बौद्ध और जैन संस्कृति को इस अभियान में सम्मिलित किया जाता।
॥पैतीस॥
किसी मशहूर जगह पर होने के फायदे और नुकसान अलग–अलग होते हैं। फैज़ाबाद में पहुंच कर मुझे चैन नहीं मिला। वैसे भी नौकरी में कोई जगह राहत की जगह नहीं होती – हमारे शासक हमें चैन से रहने नहीं देते, वे हमें कोई न कोई हुक्म देते रहते हैं जैसे कोई मालिक अपने गुलाम को देता रहता है। जैसे हम चाकरी में आते हैं गुलामी हमारी तकदीर में लिख दी जाती है। फैज़ाबाद आने के बाद आला अफसरों का अमला अक्सर कैम्प करता रहता था, हमें उनके नखरे उठाने पड़ते थे। अधिकांश अफसर धार्मिक प्रवृति के होते थे, उनके भीतर अंधविश्वास भरा रहता था, वे पूजा का ढोंग करते रहते थे। उनके साथ मठ–मंदिर घूमना पड़ता था। मैं नास्तिक नहीं था, ईश्वर के बारे में मेरी अवधारणा अलग थी। मंदिरों में किस तरह के साधु–संत रहते हैं, यह तथ्य मुझसे छिपा नहीं था। बहुतेरों की पृष्ठभूमि अपराधिक होती थी, वे अपनी जिंदगी और अपराध से भाग कर मठों में छिप जाते थे। दाढ़ी मूंछ बढ़ा कर साधु बन जाते थे। मठों–मंदिरों में हुई हत्याओं में यह तथ्य हमारे सामने आया है लेकिन वे बहुत ठाट से रहते थे, बड़े–बड़े अधिकारी और व्यवसायी उनके पांव छूते रहते थे। प्राकारांतर से वे अपने भक्त अधिकारियों की ट्रांसफर और पोस्टिंग में मदद करते रहते थे और उसके बदले मंदिर के लिए दान लेते रहते थे।
मेरा एक सहायक मुझे बताता था कि ये मठाधीश अव्वल दर्जे के सूदखोर होते थे, प्रतिमाह 10% ब्याज लेते थे। पैसा देने के पहले उनकी माली हालत का मूल्यांकन किया जाता था, उसके पास ऋण दिया जाता था, उसके लिए शर्तों का पालन आवश्यक होता था। समय से ब्याज न देने पर उनके गुर्गों की सेना उनके घर धमकाने जाती थी। जो भी उनके चंगुल में फंस जाता था, वह उबर नहीं पाता था। मेरे सहायक को लोन से मोटरसायकिल लेनी थी लेकिन महकमे से उतनी रकम नहीं मिली जितने की जरूरत थी, उसकी भरपाई उसने महराज जी से लोन दे कर की। उसने प्राथमिकता के आधार पर उधार लौटाया इसलिए उसे कोई संकट नहीं उठाना पड़ा, लेकिन कम लोग ऐसा कर पाते थे। आदमी की मजबूरियां क्या–क्या न कराए।
इसी तरह एक आला अधिकारी अयोध्या के एक मठ की शरण में पहुंच गये , वे किसी बड़े केस में फंसे हुए थे। मठाधीश की रूचि ज्योतिष और कर्मकांड में थी – उन्हें महाराज जी ने बताया कि उनकी इस समस्या का निदान ज्योतिष द्वारा किया जा सकता है। उसके लिए तांत्रिक कार्यवाही करनी पड़ेगी। वे राजी हो गये, उनका मठ में आना–जाना शुरू हो गया लेकिन नजला तो हमारे ऊपर ही गिरता था। उन्हें ठहराना उनके लिए मनचाहे व्यंजन की व्यवस्था करना – दिन भर उनकी परिक्रमा करना मेरे लिए ऊबाऊ और थकाऊं दोनों था। सबसे ज्यादा चिंताजनक थी उनकी मूर्खता – जो बात एक आम आदमी आसानी से समझ सकता था, वह उनकी समझ से बाहर था। कई बार मैंने अपनी बात विनम्रता से कहने की कोशिश करता तो उल्टे मुझे ही आंख दिखाने लगते थे और उसे जस्टीफाई करने की कोशिश करने लगते। क्या मूर्खताओं का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है? दरअसल ये नौकरशाह अपने कुकर्मो से डरे हुए होते है जिसका फायदा राजनेता और मठ के साधु–संत उठाते हैं।
एक बार मुख्यालय बुला कर मुझे चेक दिया और कहा कि यह चेक मैं स्वामी जी को दे दूं । मैंने उड़ती नजर से देखा कि चेक पच्चीस हजार का था – इस चेक को देख कर मुझे अच्छा नहीं लगा, यह पैसा तो व्यर्थ में खर्च हो रहा है। दफ्तर पहुंच कर मैंने एकाउन्टेंट से कहा कि वह इस पच्चीस हजार के चेक का फोटोस्टेट कर के रख ले। एकाउटेंट ने मुस्कराते हुए मुझसे कहा – सर मुझे मालूम है कि आपकी गणित कमजोर है – क्या इतनी है कि ढ़ाई लाख को पच्चीस हजार पढ़े। उसकी इस बात से मैं झेंप गया- हिसाब–किताब में मैं शुरू से फिसड्डी रहा हूं, यह बात सचमुच हैरान करने वाली थी कि बास इतनी बड़ी रकम महराज को दे रहे थे।
मठ के महराज जी देखने में अदभुत लगते थे, गौर वर्ण, लम्बा ललाट और उस पर चंदन का बड़ा चमकता हुआ टीका। वे सफेद ड्रेस में सुसज्जित थे – मामूली से मामूली भक्त उनके गोड़ पर सौ रूपये का नोट धर कर उनसे आशीर्वाद हासिल करता था और कृतज्ञता से भर जाता था, उसे वे अपने बलिष्ट बाहों में उठा कर स्नेहासिक्त कर देते थे। मैं ही ऐसा नराधम था कि इस औपचारिकता का निर्वाह नहीं कर पाता था। बड़े भक्त उनके अन्त:पुर में डेरा डाले रहते थे, ओहदों के हिसाब से उनके तोहफे कीमती रहते थे। वे किसी न किसी विभाग के बड़े अधिकारी होते थे या बड़े पूंजीपति। प्राय: दिल और दिमाग से कमजोर लोग ऐसे बाबाओं के शिकार बनते है। साधु–महात्माओं को ऐसे लोगों के मनोविज्ञान का पता होता है, वे उड़ती चिडिया का पंख पहचान लेते हैं।
जब मैंने यह चेक दिया तो उनका चेहरा खिल उठा, वे मुझे अपने अन्त :पुर में ले गये और लोगों से मेरा परिचय कराया। उनके बीच में जिस तरह की बातचीत हो रही थी, उससे मेरा दम घुट रहा था। थोड़ी देर बाद मुझे एक कोठरी में ले गये जो मिठाई के डिब्बे से भरी हुई थी, उस कमरे से मुझे हलवाई के दुकान की गंध आ रही थी।
महराज जी का अतीत बहुत दिव्य था, उनके ऊपर फौजदारी के कई मुकदमे चल रहे थे। किसी तरह वे आश्रम में पहुंचे और अपने ही गुरू को निरर्थक कर दिया था, खुद गद्दी पर काबिज हो गये थे। गुरू जी आश्रम के किसी अंधेरे कमरे में राम – नाम जप रहे थे।
प्रसिद्ध कथाकार दूध नाथ सिंह ने अयोध्या पर लिखे अपने उपन्यास – ‘आखिरी कलाम’ में मठ–मंदिरों के भीतर हो रहे अनाचार की चर्चा की है। ये साधु–संत संसार से भागे हुए लोग नहीं हैं – परमपद पाने के लिए कोई साधना ही की है। वे बाकायदे दाम्पत्य जीवन जीते हैं, जो दाम्पत्य में नहीं रहते, वे देह के सुख से वंचित नहीं है। यहाँ कुछ भी अखंड नहीं है, लोभ और लालच ने उन्हें असाधु बना दिया है।
मेरे कवि मित्र एक बार फैज़ाबाद आये तो उन्होंने बताया कि उनका एक बेरोजगार मित्र स्वामी बन चुका है और मौज की जिंदगी गुजार रहा है। मठ में आने के बाद जातक के मूल नाम बदल दिये जाते हैं। दिनेश को दोनों नाम याद थे लेकिन उन्होंने उसके मूल नाम को ले कर कहा-कहां हैं स्वामी जी। इतना कहना ही था कि भक्तों की भृकुटि तन गयी। आग्रह करने पर बताया कि वे इन दिनों अज्ञातवास में है। साधु–समाज में अज्ञातवास अमूर्त शब्द है – इस अवधि में सांसारिक काम किये जाते हैं। साधु का चोला उतार कर असाधु होने की कोशिश की जाती हैं – यह राज मुझे कई साधु-मित्रों ने बताया। साधु–संतों की दुनिया निराली और रहस्यमयी है।
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सिनेमा में जब से डिजिटल सिस्टम प्राथमिक हुआ था और मल्टीप्लेक्स की शुरूआत हुई थी तब से सिनेमा की दुनिया में नये परिवर्तन दिखने लगे थे। छोटे शहर और कस्बों के सिनेमाहाल लगातार बंद हो रहे थे, दूसरी तरफ केबुल के विस्तार के कारण सिनेमाहालों में हाजिरी कम होने लगी थी। सैकड़ों चैनल चल रहे थे और दर्शक उस तरफ आकर्षित हो रहे थे। सरकार यह चाहती थी कि बंद सिनेमाहालों से टैक्स से जो हानि हो रही थी उसकी भरपाई केबुल से टैक्स वसूल कर की जाय। केबुल के नियम और कानून इतने लचर थे कि उससे कोई ठोस समाधान नहीं मिल पा रहा था। कई तरह के कानून और शासनादेश जारी किये जाते थे लेकिन नतीजा सिफर में निकलता था। बड़े शहरों की केबुल लाबी लगातार ताकतवर होती जा रही थी, इस पेशे में जरायम लोग सामने आ रहे थे – सरकार में इनका अच्छा रसूख था। विभाग में उन्हें मदद देने वाले कम नहीं थे। अन्य कर– करेत्तर महकमों में इस तरह की प्रतिकूल स्थिति नहीं थी। वाणिज्य विभाग हो या आबकारी महकमा या रजिस्ट्री डिपार्टमेंट, उसके स्रोत सूखे नहीं थे बल्कि उनका विस्तार हो रहा था। इन सारे विभागों में यह सबसे छोटा विभाग था। लक्ष्य पूर्ति का दबाव शिखर से चलता था और उसका खामियाजा विभाग के अधिकारियों को उठाना पड़ता - कोई टैक्स के कम होने के वाजिब कारण को सुनना नहीं चाहता था। हां, दंडात्मक कार्यवाही उदारता के साथ की जा रही थी।
जनपद और मण्डल स्तर के अलावा मुख्यालय में धुआंधार बैठक होती थी - यह मीटिंग नहीं एक तरह का हारर शो था। कभी–कभी यह मीटिंग कोर्ट मार्शल का रूप ग्रहण कर लेती थी।
जिस दिन सचिवालय में मीटिंग होनी होती थी, हमारे होश उड़े रहते थे। ग्यारह बजे की मीटिंग के लिए सुबह साढ़े नौ बजे से लाइन लग जाती थी, सबके फोटो खीचे जाते थे। हम विशाल सभा कक्ष में ऐसे जाते थे कि जैसे हमें किसी बध-स्थल पर ले जाया जा रहा हो। सभा कक्ष को स्प्रे से सुगंधित किया जाता था, मंत्री जी और बड़े हाकिमों के लिए पुष्प गुच्छ की व्यवस्था की जाती थी। उनके लिए गद्देदार कुर्सियों का इंतजाम किया जाता था। प्रदेश के हर जनपद के अधिकारी सांस थाम कर बैठे रहते थे, वे मेमनों की तरह निरीह लगते थे जबकि शासन का शिष्टमंडल हमें खूंखार दिखता था। हमें पता नहीं चलता था कि हमसे कौन सा सवाल पूछा जायेगा। जिनके लक्ष्य कम रहते थे उनकी तो खैर नहीं थी – लक्ष्य क्यों पूरा नहीं हुआ उसके ठोस कारणों को नहीं सुना जाता था – सीधे सम्बंधित जनपद के अधिकारी से बात की जाती थी। उनका रवैया हमारे प्रति सहानुभूतिपरक नहीं होता था – वे अपने वर्ग़ की तरफदारी करते थे।
इन बैठकों से कुछ हासिल नहीं होता था, जबाबतलबी और ट्रांसफर और अटैचमेंट की कार्यवाही प्रस्तावित कर दी जाती थी। हमारे बास भी हमारे खिलाफ खड़े हो जाते थे। इन सबका प्रभाव हमारी सेहत पर पड़ता था – हमारे में से कई लोग बल्डप्रेशर और मधुमेह के मरीज बन चुके होते थे। मैं स्वयम डिप्रेशन का भयंकर शिकार हो गया था, विभाग हमें नए–नए ढंग से प्रताड़ित करता था। इन कार्यवाहियों से भला कैसे टैक्स में वृद्धि हो पाती थी- सच सभी जानते थे लेकिन उस पर भरोसा नहीं करते थे।
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21वीं सदी के पहले दशक में सिनेमाहालों की विदाई हो रही थी। जब हम लोगों ने इस विभाग में प्रवेश किया था, उस समय पूरे सूबे में सिनेमाहालों की संख्या दो हजार के आसपास थी – अब उसकी संख्या पांच सौ के करीब रह गयी थी। उनकी उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी। बड़े शहरों में मल्टीप्लेक्स खुल रहे थे। लोग अपने भव्य सिनेमाहालों को तोड़वा कर मल्टीपलेक्स बनवा रहे थे। गोरखपुर के दो-तीन सिनेमाहाल जो हमारे लिए स्मारक की तरह थे, उसे उसके मालिकों ने बेदर्दी से ढ़हा देने के बाद मल्टीपलेक्स का स्वरूप दे रहे थे। यह व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए तकलीफदेह बात थी – इन सिनेमाहालों में हम लुक-छिप कर फिल्म देखते थे। इन्हीं सिनेमाहालों के एक कमरे को हमने बार–रूम बना लिया था, हर शाम यहाँ हमारी मजलिसें जमती थीं। अब वे हमारे सामने नेस्तानाबूद हो रही थी। सरकार उन्हें हर तरह की सहूलियत दे रही थी, वैसे वे स्वयम ही सक्षम लोग थे। छोटे शहरों के सिनेमाहालों के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं थी – कुछ साल तक नुकसान उठा कर चलाने के बाद उसे बंद कर देते थे। मैंने इन सिनेमाहालों के मालिकों के दुख देखे थे, वे मेरे सामने जार–जार रोते थे। इस उम्र में वे जीवन यापन के लिए कौन सा धंधा करेंगे।
बड़े शहर के सिनेमा मालिक आबाद हो रहे थे और छोटे शहरों में लगातार बरबादी कायम थी। सरकार की नीतियां उनके पक्ष में थी, मल्टीपलेक्स में बहुत से राजनेताओं और कारपोरेटों का पैसा लगा हुआ था – उन्ही के मन –मुताबिक नियम–कानून बनते थे।
॥छत्तीस॥
तकनीक से केवल समाज नहीं बदलता, संस्कृतियां भी बदलती हैं – नायक और खलनायक बदलते हैं। हमारे जीवन–मूल्यों में तब्दीली होती है – उदारीकरण और बाबरी मस्जिद के पतन के बाद जो परिवर्तन दिखाई दिया था, उसे हम आज देख रहे हैं, वह नये–नये रूप में हमारे सामने है। 21वीं शताब्दी ने तकनीक की दुनिया में एक लम्बी छलांग लगायी है। हिन्दी सिनेमा अब पूंजीपतियों और कारपोरेटों के हाथ में आ चुका था– जो फिल्में बन रही थी, वे उनके जीवन–मूल्यों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं। फिल्मों के हीरो और हीरोइन उन्हीं के जीवन से आते थे – मध्यवर्गीय समाज में जो चीजें वर्जित, वह उच्चवर्गीय जीवन में स्वीकार्य थे। पाप–पुण्य, नैतिक–अनैतिक, अच्छे-बुरे की विभाजक रेखाएँ मिट चुकी थीं। इस वर्ग के लिए भोग भी एक तपस्या थी – वे जी भर और छक कर जीते थे – हर तरह का भौतिक सुख हासिल करते थे। उनके पास अपार क्रय–शक्ति थी। दुनिया के हर मुल्क में उनके ऐशगाह, उनकी शामों को खुशगवार बनाने वाली स्त्रियां थी। आज की फिल्मों को देखिए तो ये दृश्य आसानी से देखने को मिल जाएंगे। पेज थ्री, फैशन, कारपोरेट जैसी फिल्में देख कर हमें पता लग सकता है कि आज की फिल्मों के वर्ण्य विषय कौन हैं।
अगर हमारी फिल्में अपराध की कथाओं पर आधारित होती हैं तो इसके पीछे सिनेमाकारों का चुनाव है। ‘बंटी और बबली’, सरकार, धूम जैसी फिल्में के कई संस्करण बन चुके हैं। फिल्मों की आउटडोर शूटिंग बढ़ चुकी थी, अब फिल्म स्टूडियो की कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। यह शूटिंग दुनिया के विभिन्न इलाकों में होती थी – चूंकि सिनेमा वैश्विक हो चुका था और सिनेमा के दर्शक हर इलाकों में होते थे, उन्हें संतुष्ट करना होता था। दिल वाले दुल्हिनिया ले जाएंगे, चोरी–चोरी चुपके–चुपके, कहीं खुशी कहीं गम, कभी अलविदा न कहना – जैसी अनेक फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं जिनकी शूटिंग विदेशों में हुई है। हिन्दी फिल्मों में विदेशी फिल्मों की कम नकलबाज़ी नहीं हुई है। ऐसी फिल्मों के दर्शक अभिजात वर्ग के लोग हैं, टिकटों के बड़े दाम होने के कारण इन फिल्मों को आम आदमी नहीं देख सकता। जब इन फिल्मों का रस निचोड़ लिया जाता था तो इन्हें भरपूर विज्ञापन के साथ टी. वी. चैनलों पर दिखाया जाता है।
धीरे–धीरे मनोरंजन कर विभाग का शीराजा बिखर रहा था, इस महकमे के गठन में हमारे पूर्वज अधिकारियों ने, इस विभाग के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना की थी और उसके लिए संघर्ष किया था, वह टूट रहा था। विभाग में जो भी आला अफसर आये उन्होंने इस विभाग की संरचना की तरफ ध्यान नहीं दिया – मुख्यालय के अधिकारियों की अपनी राजनीति थी, वे जिस डाल पर बैठे हुए थे, उसी को काट रहे थे। पेड़ को आंधियां उतनी नुकसान नहीं पहुंचाती लेकिन घुन उसे खोखला कर देते हैं। विभाग के अधिकारियों के संगठन तो थे ही लेकिन उनकी कोई सक्रिय भूमिका नहीं थी – बाहर के तूफान से ज्यादा भीतर के तूफानों से विभागीय स्थापत्य बिखर रहा था।
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केद्रीय सरकार ने 01 जुलाई 2017 को आर्थिक सुधार की घोषणा की – इसे जी. एस. टी. अर्थात् वस्तु और सेवाकर अधिनियम के रूप में जाना गया। टैक्स को केंद्रीयकृत कर दिया गया था, अब व्यापारियों को विभिन्न स्तरों पर कर अदायगी न कर के एक जगह कर भुगतान की सुविधा दी गयी थी। इस अधिनियम से विभाग का पूरा ढ़ाचा ही खत्म हो गया – सिनेमा, केबुल और वीडियो लाइब्रेरी जी. एस. टी. के अन्तर्गत आ चुकी थी – उसमें विभाग का कोई हस्तक्षेप नहीं रह गया था। इस विभाग का विलय वाणिज्य कर विभाग में कर दिया गया था – इस तरह यह विभाग वाणिज्य कर विभाग का मातहत हो गया था, उसकी सत्ता खत्म हो गयी थी। वाणिज्य कर विभाग बड़ा विभाग था, उसका अधिकार क्षेत्र विस्तृत था इसलिए इस छोटे से विभाग पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। एक तरह से यह महकमा लावारिस हो गया था। एक समय में इस विभाग का जलवा था – वह अकेले ही मनोरंजन का साधन था लेकिन अब उसकी हैसियत जीरो हो गयी थी। हमने अपने जीवन–काल में इस विभाग के स्वर्णिम दिन देखे थे, अब उसका पतन देख रहे थे। इस वाकये पर कितने भी शोकगीत लिखे जाय, वे कम ही होंगे। विभाग के तमाम अधिकारियों के पास अपने समय के किस्से थे, अब वे इतिहास के बाहर हो चुके थे।
2019 में कोविड ने तो सिनेमाहालों को जमींदोज कर दिया था – सिनेमाहाल बंद कर दिये गये, समाज की गतिविधियां स्थगित हो गयी थी। प्राय: होली, दीवाली, ईद, रमजान के अवसर पर फिल्में रिलीज होती थी, सिनेमाहाल दर्शकों से भर जाते थे – अब यह बीती हुई घटना हो गयी एथीं। आपातकाल में भी व्यवसायी अपने लिए अवसर निकाल लेते हैं – चाहे नोटबंदी या जी. एस. टी का समय रहा हो या कोविड का प्रलय काल, पूंजीपति उसे स्वर्णिम काल में बदल देते है। उनकी सम्पत्ति बढ़ती ही रहती है, इस आयोजन में सत्ता भी उनका साथ देती है – अर्थशास्त्र का पहिया उनके ही दम से चलता हैं।
सिनेमाहाल बंद होने के कारण ओ.टी.टी. प्लेटफार्म की खोज की गयी। ओ.टी.टी. का मतलब ओवर दि टाप – यह सिनेमाहाल का नया विकल्प था। इस प्रणाली के जरिये इस प्लेटफार्म पर नयी फिल्में रिलीज की जाती थी – इस क्षेत्र में नेटफ्लिक्स , हाटस्टार और अमेज़न प्राइम टाइम जैसी अन्तरराष्ट्रीय सक्रिय है। इस प्लेटफार्म पर फिल्म देखने के अलग–अलग चार्ज हैं, फिल्मों के अलावा टी.वी. सीरियल भी इस माध्यम पर दिखाये जाते हैं। इनका बाजार वैश्विक है – वे किसी एक मुल्क तक सीमित नहीं हैं। अमेज़न जैसी कम्पनी की ताकत और विस्तार से हम परिचित ही हैं। सवाल फिर घूम–फिर कर उठता है – क्या आम आदमी की पहुंच इन माध्यमों तक पहुंच सकता है? आम आदमी की बात छोडिए, मध्य वर्ग के लिए फिल्म देखना मंहगा सौदा है। अगर एक मध्यवर्गीय परिवार पति–पत्नी और दो बच्चों के साथ फिल्म देखना चाहता तो उसका खर्च हजारों में होगा। कोविड ने वैसे भी आम आदमी की क्रय शक्ति को कमजोर कर दिया है, उसका दैनिक जीवन मुश्किल से चलता है। जो मजदूर वर्ग अपनी जेब की छोटी–छोटी रकम से फिल्मी अभिनेताओं को करोड़पति और अरबपति बनाता था – वह गरीबी रेखा के बहुत नीचे आ चुका है।
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जिस सिनेमा को पुष्पित पल्लवित करने में दादा फाल्के, विमल राय, देविका रानी, शांताराम, के आसिफ, महबूब, गुरूदत्त, सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, ऋषीकेश मुकर्जी, श्याम बेनेगल, गुलजार, बासु चटर्जी ने निर्णायक भूमिका निभायी थी – सिनेमा को सामाजिक सरोकारों से जोड़ा था। संगीत की अद्वीतीय ध्वनियां दी थी – क्लासिक रचनाओं पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाया था- वह सिनेमा अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है। सिनेमा जगत में ऐसे लोगों का आगमन हुआ जिसके लिए सिनेमा मात्र एक व्यवसाय था। संगीत शोर में बदल चुका था, अभिनय सिर्फ देह प्रदर्शन था। फिल्मों के विषय अपराध कथाओं, सेक्स और भोड़े नृत्य तक सीमित रह गये थे। धीरे–धीरे सिनेमा वास्तविक सिनेमाकारों के हाथ से धनिकों के पालें में चले गये थे। सिनेमा के डिजिटल और मल्टिपलेक्स होने के कारण उनके टिकट दर महंगे हो गये थे – वे आम आदमी की पहुंच के बाहर हो गये थे। इस दौर के फिल्मों का नायक आम आदमी नहीं होता है – वे अपने वर्ग के शक्तिशाली महानायक होते हैं, वे केवल अपने वर्ग–हित को ध्यान में रखते हैं।
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स्वप्निल श्रीवास्तव
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