आशीष कुमार का आलेख 'हर मौत को चाहिए कफ़न, हर जिन्दगी को आबरु'





सिनेमा आधुनिक युग का एक ऐसा सशक्त माध्यम है जिसके जरिए हम समय और समाज की स्थिति, सोच विचार नजरिए का अध्ययन कर सकते हैं। हमारे यहाँ हिन्दी में मसालेदार सिनेमा जिसे पढ़े लिखे लोग कामर्शियल सिनेमा कहते हैं, के समानांतर कलात्मक (जिसे हम गम्भीर सिनेमा कहते हैं) सिनेमा की भी दुनिया है, जिसमें जीवन की वास्तविकता से रु ब रु हुआ जा सकता है। युवा आलोचक आशीष कुमार ने इस कलात्मक सिनेमा की आज के युवा निर्देशकों के हवाले से एक गंभीर पड़ताल की है। आज पहली बार प्रस्तुत है युवा आलोचक आशीष कुमार का आलेख 'हर मौत को चाहिए कफ़न, हर जिन्दगी को आबरु'



हर मौत को चाहिए कफन, हर जिंदगी को आबरु



आशीष कुमार



अक्सर जिंदगी के तहखानों में बंद अक्स अफसानो का जामा पहन कर किरदारों के शक्ल अख्तियार करते है। हर किरदार की अपनी एक खासियत होती है। वैसे, किसी भी कलाकार के लिए 'सृजन' का समय खासा महत्वपूर्ण होता है। सृजनअर्थात स्वयं का अन्वेषण। लिखते हुए मन के कोने-अतरों में आत्मसाक्षात्कार की स्थिति होती है। अदब की दुनिया में यह कोई नयी बात नहीं है। कला और सिनेमा में विचार और तथ्य को गहराई से प्रकट करना चुनौतीपूर्ण है।



कामर्शियल और गंभीर सिनेमा में यह अंतर बखूबी देखने को मिलता है। भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी सिनेमा को मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम मानता है। जाहिरा तौर पर सिनेमा सिर्फ 'एंटरटेनमेन्टनहीं है। संवेदनशील, सामाजिक और उद्देश्यपूर्ण सिनेमा का सबसे बड़ा दायित्व यह है कि वह दर्शकों के सोचने, समझने और चिंतन की क्षमता में इजाफा करे। लेकिन क्या आज के सिनेमा में ऐसी कोई जमीन बनती नजर आती है? हैरत में हूँ कि नीरज धेंवन, अनुराग कश्यप, विशाल भाऱ़द्वाज, इम्तियाज अली, दिबाकर बैनर्जी, जोया अख्तर जैसे फिल्मकारों और पटकथा लेखकों को किस फ्रेम में फिट करूं? यहाँ हर निर्देशक की अपनी अलग सोच हैं। एक नए रास्ते पर राह बनाने का हौसला और दमखम मौजूद है। जैसे, इम्तियाज अली की हर फिल्म एक यात्रा है। अनुराग कश्यप के फिल्मों का सच इतना कड़वा है कि एक बार तो खुली आंखों पर भी यकीन नहीं होता है। सदियों पुराने शेक्सपीयर को मकबूल औरओमकाराजैसे, ठेठ हिन्दुस्तानी परिवेश में ढालने का काम सिर्फ विशाल भारद्वाज ही कर सकते थे। दिबाकर बैनर्जी मध्य वर्ग की विडम्बनाओं को अपनी फिल्मों में पेश करते हैं। सिनेमा में ये नाम प्रयोगधर्मिता की नयी छाप हैं। ये हिन्दी सिनेमा की ऐसी कड़ी हैं, जो नये और पुराने के बीच जुगलबंदी करते नजर आते हैं। इनके द्वारा निर्देशित फिल्मों में परम्परा और आधुनिकता का कन्ट्रास्टनजर आता है। हाल ही के दिनों में उलझी हुई कहानियों के खुले सिरे को जोड़ कर कहानी कहने की नयी कला, संवेदना को जब्त कर चेहरे पर भाव लाने की कवायद और किरदार के द्वारा आत्मान्वेषण जैसी प्रकिया को रोशन ख्याल निर्देशक नीरज धेवन की फिल्मों में देखने का मौका मिला। पेशे से इंजीनियर और कारपोरेट लाइफ की चमकती दुनिया में इनका मन नहीं लगा और कुछ रचनात्मक करने की बेचैनी ने सिनेमा तक सफर तय करवाया। कुछ दिनों तक अनुराग कश्यप के सहायक निर्देशक भी रहे। प्यासा’, ‘ब्लैक फ्राईडेऔर थ्री कलर्स आफ ब्लूजैसे फिल्मों के दीवाने नीरज धेवन ने दो-तीन शार्ट फिल्मों को भी निर्देशित किया है। जिनमें मशान’, ‘जूस’, ‘शोरऔर एपिफैनीके नाम शुमार है। पैशन फार सिनेमाब्लागर से लेकर नामचीन निर्देशक बनने तक इन्होंने अपनी फिल्मों में प्रस्तुतिकरण के नये फलसफे को अपनाया। इनकी फिल्में गंभीर कहानियों के साथ दर्शकों के मन पर अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं। यहाँ उनके द्वारा निर्देशित बहुप्रशंसित फिल्म मसान’, जूसऔर शोरके जरिए हम उन विचारधाराओं को समझने की कोशिश करेंगे, जिन्होंने भारतीय जनमानस की जड़ता, वैमनस्य, पूर्वाग्रह और कुंठित मानसिकता को नए परिप्रेक्ष्यों और आयामों में व्यक्त किया है।




मसान छू कर देखा फकत एक कागज का फूल था...


जीवन और मृत्यु की अवधारणा क्या है? चौरासी लाख योनियों का जिक्र करते हुए मनुष्य स्वयं को कहाँ पाता है? समय को अपनी मुट्ठी में बंद करने का आकांक्षी मनुष्य क्या बेहतर समाज की संकल्पना कर पाता है? और व्यक्ति केवलनामतो होता नहीं, फिर उसका जन्म क्यों हुआ है? उसके नामकी सार्थकता क्या है? पाप-पुण्य, नैतिकता अनैतिकता, धर्म-अधर्म जैसे कई प्रश्न उसे बेतरह परेशान करते हैं। रोटी, कपड़ा और मकान के जद्दोजहद में फंसे इंसान को ऐसे सवाल तब तंग करते है, जब मौत की आहट नजदीक आती सुनायी देती है या वह अपने किसी सगे-संबंधी, नाते-रिश्तेदार या करीबी मित्र के अंत्येष्टि में शरीक होते है। जहाँ उसे संसार की नश्वरता का बोध होता है और जन्म एवं मृत्यु का सही सच दिखायी देता है। मैं नीरज धेवन निर्देशित 'मसानदेख रहा हूँ। मेरे कानों में राम नाम सत्य हैकी आवाज गूंज रही है। जलते हुए लाशों की चिरांध गंध, सकरी और तंग गलियां। मैं बनारस में हूँ या बनारस मेरे भीतर है। सच है कि सृष्टि की समस्त प्रक्रियाएं जीवन, जगत, प्रेम और मृत्यु के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती हैं। जीवन, और मृत्यु के बीच टंगा हुआ एक शब्द प्रेमभी तो है। प्रेम की समस्त शास्त्रीय व्याख्याओं को दरकिनार करती मसानही वह फिल्म है, जिसने भारतीय सिनेमा के लिए कान महोत्सव को अविस्मरणीय बना दिया था। एक लम्बे अरसे बाद भारतीय सिनेमा को कान के दर्शकों का स्टैडिंग ओवेसन स्वीकार करने का गौरव प्राप्त हुआ था। इस फिल्म को कान में प्रोमिसिंग फ्यूचर अवार्ड और फिल्म आलोचकों के अंतरराष्ट्रीय महासंघ एफ आइ पी आर इ एस सी आइ (FIPRESCI) के द्वारा सम्मानित किया गया। मसानका शाब्दिक अर्थ श्मशानहोता है। इस फिल्म में काशी के श्मशान घाटों का चित्रण है। जहाँ बहुतायत में लाशों को जलाया जाता है।  फिल्म की कहानी आम फिल्मों से अलग है। कथा में किरदारों की संख्या भी अधिक नहीं है। कुल जमा चार लोगों की जिंदगी और गंगा के घाटों पर केन्द्रित है। यह वही काशी है जहाँ मृत्यु एक उत्सव है और सदियों से काशी लोगो को मोक्ष हेतु आकर्षित करती रही है। जहाँ आज भी रांड, सांड, सीढी, सन्यासी, इनसे बचे तो सेवे काशीकी अवधारणा चरितार्थ होती है।




फिल्म की शुरुआत एक अंतरंग दृश्य से होती है, जहाँ देवी पाठक (रिचा चड्ढा) अपने प्रेमी पीयूष अग्रवाल से होटल में मिलती है। दोनो शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने लगते हैं तभी वहां पुलिस की रेड पडती है और देवी का एम एम एस पुलिस बना लेती है। पुलिस से बचने के लिए पीयूष आत्महत्या कर लेता है। पुलिस देवी के पिता से मामला सुलझाने के लिए तीन लाख रुपये मांगती है। देवी के पिता विधाधर, जो संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक हैं और घाट पर पूजन सामग्री बेचते है, पैसा किश्तों में चुकाने की बात स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ भी व्यवस्था का विकृत रुप देखा जा सकता है अर्थात् भ्रष्टाचार का एक और शर्मनाक चेहरा। दूसरी तरफ एक दलित युवक (विकी कौशल) है, जो जाति से डोम है। जिसका पूरा परिवार शवों को जलाने का काम करता है। जिसके घर का चूल्हा भी श्मशान से आग ला कर जलाया जाता है। दीपक पढा-लिखा है। वह इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहा है। फेसबुक से उसकी मुलाकात शालू (श्वेता त्रिपाठी) से होती है। शालू सवर्ण जाति की है। वह 'राग दरबारी' पढती है। वह मिर्जा गालिब, निदा फाजली, बशीर बद्र और बृजनारायण 'चकबस्त' की प्रशंसक है। दीपक और शालू का प्रेम परवान चढता है, तभी एक हादसे में शालू की मौत हो जाती है। दीपक को स्वयं उसकी लाश जलानी पड़ती है। प्रेम में दुःख की अपार पराकाष्ठा को इस फिल्म में देखा जा सकता है। 'अज्ञेय' के शब्दों में


"दुःख सबको मांजता है
और चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने
किन्तु जिनको
मांजता है
उन्हें वह सीख देता है कि सबको मुक्त रखे।"


निर्देशक ने घाट एवं गंगा का इस्तेमाल 'मेटाफर' की तरह किया है। उधर विद्याघर टुकड़ों-टुकड़ों मे रिश्वत की रकम चुकाते हैं। कहानी आगे बढ़ती है, देवी रेलवे में नौकरी करती है तथा दीपक की नौकरी भी इलाहाबाद में लग जाती है। देवी पीयूष के परिवार से मिलने जाती है, जहाँ उसे जलील किया जाता है। संगम के तट पर देवी और दीपक मिलते है और नए सफर पर आगे बढ़ जाते हैं। यानी दुःख का एक कोना हर व्यक्ति के भीतर मौजूद है। देवी की जिंदगी का खालीपन और दीपक के जीवन की रिक्तता एक सूत्र में बंध जाते हैं। कहानी पेश करने की इस कला से वरुण ग्रोवर की लेखकीय क्षमता का पता चलता है। यह निर्देशकीय दृष्टि का सबूत है कि फिल्म की कहानी अलग-अलग पात्रों से शुरु हो कर अंत में एक ही बिन्दु पर जुड़ जाती है। कहा भी गया है कि, 'अन्त भला तो सब भला'। बिना मसालों के भी कोई फिल्म रोचक बन सकती हैं, 'मसान' इसका उदाहरण है। फिल्म में नायिका के किरदार को आजादख्याल रुप में प्रस्तुत किया गया है। वह खुदमुख्तार है और वैचारिक रुप से परिपक्व भी। उसे शारीरिक संबंध बनाने का कोई अफसोस नहीं है। वह स्वीकार करती है कि संबंध बनाने में उसके प्रेमी की सहभागिता भी उतनी ही है, जितनी की उसकी है। उसकी भी शारीरिक जरुरतें हैं और उसने कोई अपराध नहीं किया है। अपने मृत प्रेमी के माता-पिता से मिल कर सारी सच्चाई बता कर उसे श्रद्धाजंलि अर्पित करती है। इन अर्थो में वह साहसी और निर्भीक है।



निर्देशक ने बनारस के घाटों पर दाह संस्कार करने वाले परिवारों की दशा और दिशा दिखाया है। कहते हैं, बनारस में दो राजा हैं, एक काशी नरेश और दूसरे डोम राजा। परन्तु उनकी स्थिति क्या है? 'डोम राजा' का तमगा होने के बावजूद घाट पर लाश जलाने के लिए 'पारी' की व्यवस्था का वर्णन है। अर्थात् वहाँ भी सब कुछ ठीक नही चल रहा है। आज भी विकास के तमाम वादों के बावजूद प्रधानमंत्री के इस संसदीय क्षेत्र में जातीय, आर्थिक और लैंगिक स्तर पर उत्पीडन जारी है। 'मसान' इसकी एक बानगी है। जहाँ श्मशान घाटों पर स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है। हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद प्रचलित एक मान्यता कि, 'कपाल पर मारिए पांच बार, आत्मा को मुक्ति मिलेगी।' या 'जिसने खीर नहीं खाई उसने मनुष्य योनि में पैदा होने का पूरा फायदा नही उठाया' का उल्लेख भी इस फिल्म में किया गया है। दुष्यन्त कुमार की पंक्तियां


'तूं किसी रेल सी गुजरती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।


पूरी फिल्म को काव्यमयी बना देती है। लगभग बयार के एक झोंके की तरह। घाट पर जलते हुए शव मृत्यु और नश्वरता के बीच जिन्दगी की वास्तविकता का आभास कराते हैं। दरअसल, इनके भीतर भी अव्यक्त दर्शन छिपा हुआ है। 'मसान' स्वयं में एक दर्शन है। जीवन और मृत्यु के कशमकश में प्रेम का दर्शन। घोर कटु यथार्थवादी फिल्म होते हुए भी 'मसान' हमारे मन को कविता की तरह छूती है।




'जूस : जहीन औरतें बर्दाश्त नही मर्दो को'


घर के बैठकखाने में गेट-टू-गेदर पार्टी चल रही है। यहाँ पुरुषों की जमात है। व्हिस्की के पेग हैं, सिगरेट के छल्ले हैं बतकही के किस्से हैं। इन किस्सों में सम्राट अकबर, हिलेरी क्लिंटन, डोनाल्ड ट्रम्प और देश के तमाम नेताओं के जिक्र शामिल हैं। औरतें रसोईघर में मशगूल हैं। जहाँ चिपचपी गर्मी, दमघोटू उमस और बंद कमरे की घुटन है। यहाँ कचैरी का आटा गूंथा जा रहा है, दाल में छौंक लगायी जा रही है और बैगन का भरता पकाया जा रहा है। ये दृश्य है नीरज धेवन द्वारा निर्देशित शार्ट फिल्म 'जूस' का। मेजबान की भूमिका में मंजू (शेफाली शाह) तल्लीनता के साथ चखने के प्लेट को साफ कर रही है। कमरे में ठंडक को बरकरार रखने के लिए कूलर में पानी भर रही है। पसीने से गंधाती इन स्त्रियों में ज्यादातर पढी-लिखी और अपने कैरियर को ले कर जागरुक हैं। जानता हूँ कि घर-परिवार के बीच नौकरीपेशा औरतों की जिम्मेदारी दोहरी हो जाती है। परिवार और नौकरी में संतुलन के लिए किसी एक विकल्प को चुनना वाकई मुश्किल है। तो क्या विकल्पों का चयन सिर्फ स्त्री के हिस्से में आता है? क्या आज भी औरत के हर फैसले लेने का अधिकार मर्द के पास सुरक्षित है? क्या पितृसत्ता का सबसे बडा आब्जेक्ट 'रसोईघर' हैं? जहाँ दुनिया भर की औरतें अपने जीवन का एक-तिहाई भाग बिता देती हैं। गम-बे-गम में खुद को न्योछावर करती एक स्त्री को इसके बदले क्या मिलता है? एकबारगी ये प्रश्न जेहन में घूमने लगते हैं। जिस तरह एक अच्छी कविता अवाक् कर जाती है, ठीक वैसे ही उद्देश्यपूर्ण सामाजिक सिनेमा हमें सन्नाटे में छोड़ देता है। 'जूस' महत्वपूर्ण मुद्दों पर खामोशी के साथ आवाज उठाती है, बहुत लाउड हो कर नहीं। महज 'लिविग रुम' और 'किचेन' के बीच फिल्माए गए दृश्य बेहद स्वाभाविक और अपनापन लिए हुए महसूस होते हैं। कंटेन्ट की बात करें तो मध्यवर्गीय परिवार का पूरा ढांचा यहाँ मौजूद है। पितृसत्ता की गमक, स्त्री शोषण और स्त्री-द्वेषी प्रवृत्ति को बखूबी देखा जा सकता है। बशर्ते आपके पास चेहरों को पहचानने और अपने आसपास की हलचलों पर निगाह रखने की क्षमता होनी चाहिए। फिल्म का आरम्भ आफिस में नियुक्त एक नयी महिला कर्मचारी की उपयोगिता से जुडे प्रश्नों से शुरु होती है।



पार्टी में आए पुरुषों की सामंती सोच का पता इस बात से चलता है कि वे उसे स्वीकार करने की बजाय स्त्री की शारीरिक संरचना पर चर्चा कर लुफ्त उठाना ज्यादा पसंद करते है। इस दृष्टि से देखा जाए तो फिल्म के सारे पुरुष पात्र खासकर मंजू के पति (मनीष चौधरी) स्त्री को देह और मन दो भागों में बांट कर देखने के हिमायती हैं। वे पूर्वाग्रह से ग्रसित नजर आते हैं। सिमोन द बोउवार के इस कथन को पुष्ट करते कि, 'पहले उनके पंख काट दिए जाते हैं, फिर उन पर ये आरोप लगाया जाता है कि वे उड़ना नहीं जानती।' दूसरी ओर औरतों की अपनी निजी जिंदगी है। जिसमें उनकी अपनी समस्याएं, तेज भागती सरपट दुनिया से लय-ताल मिलाने की जद्दोजहद, बच्चे पैदा करने और उसे पालने तक की जहमत और कैरियर को ले कर तमाम बहस-मुबाहिसें शामिल हैं। परत-दर-परत पितृसत्तात्मक समाज के भेद खोलती इन घरेलू औरतों की बातें विमर्श की नयी जमीन तलाशती हैं। मातृत्व का प्रश्न एवं उससे जुडे मुद्दे प्रमुख हैं। औरतों की इस बातचीत में सबसे गौरतलब है बच्चे पालने और कैरियर में एक साथ तालमेल का सामन्जस्य। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि फिल्म की नायिका (वैसे मैं इन्हें नायक कहना ही ज्यादा पसंद करूंगा) का यह संवाद कि - 'ये कौन सी किताब में लिखा गया है कि बच्चे पालने के लिए नौकरी छोड़ना जरुरी है?' जिस पशोपेश से मौजूदा समय की स्त्री गुजर रही है, उस दौर में यह टिप्पणी प्रासंगिक भी है और ज्वलन्त भी। पुरुषवादी समाज की गझिन बनावट एवं बुनावट के परत को हटाती और स्त्री के नए मुहावरे को गढ़ती ये स्त्रियां प्रगतिशीलता के साथ स्त्री प्रश्नों पर विचार करती नजर आती हैं। लेकिन एक खास दृष्टिकोण से इनका 'डिस्कशन' किसी खास नतीजे पर नही पहुंचता है। इसी तरह फिल्म के एक दृश्य में महिलाएं नौकरानी को अपने साथ एक ही कप में चाय पिलाना पसंद नहीं करती हैं, जबकि ये महिलाएँ प्रगतिशील अवधारणाओं पर चर्चा करती हैं। आखिर क्यों औरत और औरत के बीच विद्वेष की खाई चौड़ी ही होती जा रही है? नवउदारवाद के इस युग में, 'स्त्री ही स्त्री की दुश्मन है' जैसे आप्तवचन का पोषण करती ये स्त्रियां फिल्म की सहयोगी पात्र हैं। परबतिया (नौकरानी) के प्रति इनका रवैया स्त्री-द्वेषी प्रवृत्ति को उजागर करता हैं। न जाने क्यों स्वयं इनके बीच काम करते हुए भी स्त्रियों का एक एक खास समुदाय आज भी कामगार औरतो को 'मनुष्य' स्वीकार करने से इंकार करता रहा है। मैत्रेयी पुष्पा यूँ ही नहीं कहतीं : 'तालीम भी औरतों को नहीं बचा पा रही है।' (गुड़िया भीतर गुड़िया, आत्मकथा से) अंततः पार्टी में पुरुष पात्रों द्वारा फरमाइशों का दौर चलता रहता है। पति के सामंती रुख से ऊबी मंजू फ्रिज से एक गिलास जूस निकालती है। कुर्सी खींच कर पुरुषों के बीच पार्टी में अपने पति के सामने कूलर को अपनी तरफ कर के जूस को पीती है। इस दृश्य की विशेषता यह है कि आप शेफाली शाह के चेहरे पर प्रतिरोध के भाव को आसानी से पढ़ सकते हैं। खासकर आंखों के मार्फत विद्रोह को कैसे अभिव्यक्त किया जाता है, इसे बखूबी यहाँ समझा जा सकता है। यह अभिनय का चरम है। एक तरफ जहाँ शेफाली शाह ने आंखों से भावों को अभिव्यक्त किया है, वहीं दूसरी तरफ पति मनीष चौधरी की आँखें खुली रह जाती हैं। कहीं इस्मत आपा ने भी लिखा है कि, 'जहीन औरतें बर्दाश्त नही मर्दो को।' एक स्त्री के दुःख और गुस्से को कैमरे की निगाह से देखना विस्मित करता है। फिल्म का यह दृश्य प्रभावोत्पादक और सराहनीय है। चुप्पी के माध्यम से प्रतिरोध को प्रदर्शित करना भी एक कला है। 'जूस' में इसे देख कर भावों एवं भावनाओं की नयी समझ पनपती है। कई गंभीर मुद्दों पर बड़ी संजीदगी से बात करती यह शार्ट फिल्म स्त्री मुक्ति एवं सशक्तिकरण के कई आयामों को छूती है। मसलन, विवाह संस्था की अवधारणा, बेटे और बेटी में फर्क (जेंडर-बायस) और शोषक एवं शोषण पर प्रश्नचिन्ह अपने भीतर के अंधेरे से उजास की ओर प्रस्थान है।


'शोरः जहाँ घुला है जीवन का मृत्यु-राग'


यह कहानी उन तमाम चेहरों की है, जो अपने सपनों की ललक को जिन्दा रखने के लिए शहरों का दामन पकड़ते हैं। मकबूल शायर शहरयार कहते हैं :


'सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यूं है
इस शहर का हर शख्स परेशां सा क्यूं है?' 


दरअसल, कोई भी शहर हमारा नही होता, हम शहर के होते हैं। लगभग किराएदार के मानिंद। फिल्म 'मिर्च-मसाला' की नायिका सोनबाई (स्मिता पाटिल) भी अपने पति (राज बब्बर) को शहर जाने से रोकते हुए कहती है- 'शहर सब को खा जाता है।' लेकिन देखे हुए ख्वाब संघर्ष की जमीन को पुख्ता करते हैं और फिर असली सच्चाई से वाकिफ तो हमें समय करा ही देता है। यह उत्तर-भारत के उन बाशिन्दों की असमाप्त कथा है, जो कमाने-खाने के लिए मुम्बई जाते हैं और शहर की भीड में अपनी पहचान खो देते हैं। ये पात्र कोई भी बन सकता है, शायद हम-आप और बनारस -इलाहाबाद जैसे छोटे कस्बों और शहरों के लोग भी, पर हर किसी की जिन्दगी मीना (रत्नाबाली भट्टाचार्य) की तरह नही होती है। नीरज धेवन निर्देशित 'शोर' (NOISE) की कथा भी कुछ इन्हीं सच्चाईयों पर आधरित है। केवल समस्याएं और संदर्भ अलग हैं। ये मुम्बई के स्लम्स-एरिया में रहते हैं। जहाँ टिन शेड की दीवारें और छतें है। घर मे तानाशाही और चिड़चिडी सास है। कम्पनी से नौकरी छूटी बेरोजगार और जलकुक्कड पति लल्लन (विनीत सिंह) और पाच साल का एक लड़का है। फिल्म के केन्द्र में है मीना और लल्लन का वैवाहिक जीवन। बनारस से आया यह जोड़ा अब अपनी तकलीफों के साथ पेट पालने के लिए विवश है। इसलिए मीना को कपडे सिलने की एक फैक्ट्री में काम करना पडता है। दिन-रात यानी ओवरटाइम। झगडालू सास और कानभेदी तानों के बावजूद तेजरफ्तार जिंदगी में बहुत कुछ कर गुजरने का जज्बा मीना के भीतर है। सच है कि स्त्री के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा घर और पति के इर्द-गिर्द ही घूमता है। घर स्त्री के लिए सबसे मजबूत आधारस्तम्भ होता है। समर्पण, प्रेम और विश्वास के बल पर घर चलाने की जिम्मेदारी स्त्री और पुरुष दोनों की होती है। सरल-सपाट भाषा में कहा जाय तो 'घर' स्त्री और पुरुष की साझी-दुनिया का स्वप्न है। देखने को मिलता है कि जिंदगी में जब 'पति' साथी की भूमिका छोड कर 'मालिक' में तब्दील होने लगता है, तो फिर वहीं 'तब्दील निगाहें' (स्त्री-विमर्श की एक खास किताब का नाम) स्त्री -देह की नयी परिभाषा रचती हैं। शस्त्र और शास्त्र दोनों ने अपने तरीके से इसमें कारगर योगदान दिया है। जन्म से ले कर मृत्यु तक स्त्री का संघर्ष अभी तक जारी है। दुनिया की आधी-आबादी आज भी अपने अस्तित्व को लेकर संकट में है। एक पत्नी, मां और स्त्री होने के द्वन्द्व को मीना के किरदार में बखूबी देखा जा सकता है। पति और सास का संदेही और सामंती रवैया (जो अमूमन उत्तर-भारत के हर तीसरे व्यक्ति में पाया जाता हैं।) यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती है। मीना का अपने काम के सिलसिले में 'कलाइंट' से मिलना उनके लिए घिनौनी और नीच हरकत है। परिवारवाद का समर्थन करती सास अपनी बडी बहुओं की दुहाई देती है, जिन्होंने आज तक अपने घर की दहलीज से बाहर कदम नहीं निकाले, दूसरी तरफ मीना के लिए ये संवाद कि "ये भोरे-भोरे बन-ठन कर, नया-नया कपडा पहन कर चल देती है काम पर, न जाने किस काम पर जाती है?" इतना कहना मात्र ही स्त्री के चऱित्र पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर जाता है। वैसे भी, औरत के लिए सवालो की दुनिया कोई नयी बात नहीं है। कठघरे में खड़े अहं से मुखातिब लल्लन को 'हेनपैक्ड' (स्त्री दास) कहलाना मंजूर नही, लेकिन औरत की कमाई से घर चले और उसके 'पीने' का इंतजाम भी हो, इस पर कोई एतराज नही। जीवन में आर्थिक तंगी, वैवाहिक जीवन की रिक्तता, कटुता और शक्की प्रवृत्ति के चलते मीना और लल्लन में आए दिन झगड़े होते रहते है। इसी क्रम में लोकल ट्रेन में यात्रा करती मीना को रेलवे-ट्रैक पार करते समय लल्लन फोन कर के गन्दी-गलीज बातें करता है और दुर्भाग्य से ट्रैक के बीच उसका पैर फॅस जाता है। यह दृश्य फिल्म का टर्निग-प्वाइंट है। मौत को नजदीक देख कर लल्लन के सुर बदल जाते हैं। जहाँ वह पहले संदेह और तलाक की बात करता है, अब वही अचानक जीवन के नए अर्थो से रुबरु होता हैं। संयोग से ट्रेन आने से पहले उसका पैर ट्रैक से बाहर निकल जाता है। यहाँ वह जीवन और मृत्यु को बेहद नजदीक से देखता हैं। क्या यह स्वयं में उलटबांसी है? मृत्युबोघ का प्रश्न जीवन की निरन्तरता को बाधित नहीं करता है। राजेन्द्र यादव भी कहते है- 'मृत्यु जीवन को परिभाषित करती है।'



गौरतलब है कि जहां 'मसान' में नीरज धेवन 'शालू' और 'दीपक' के प्रेम को दिखाते नजर आते हैं, वही 'शोर' में 'मीना' और 'लल्लन' के द्वारा जीवन के यथार्थ को करीने से व्यक्त करते है। कटु पर सच्चाई है कि जीवन को चलाने के लिए सिर्फ 'प्रेम' ही नही, 'अर्थ' की जरुरत भी होती है। बकौल मृदुला गर्ग, 'प्रेम' चुक जाता है। (उसके हिस्से की धूप, से) इन सब के बावजूद 'शोर' एक कोलाज रचती है। जिसमें मृत्यु-बोध की खामोशी के साथ जीवन की वास्तविकता और समाज में प्रचलित स्त्री-छवि को नए ढंग से तोड़ने एवं गढने का संकल्प है। सिनेमाई भाषा, कहानी कहने के नए अंदाज और गुम होती इंसानियत को चीन्हने के लिए इस शार्ट फिल्म को देखा जाना चाहिए। मुख्तसर यह कि, नीरज धेवन का अंदाज कबीराना है। उन्हे सच पर कोई आवरण पसंद नहीं है। वे ढोल पीट-पीट कर सच की मुनादी करते है। 'घूँघट के पट खोल तोहे पिउ मिलेगे' के अर्थ में। उनकी निर्देशकीय क्षमता व्यापक है, बहुमुखी है। भिन्न-भिन्न कहानियों के 'प्लॉट' को फिल्मों में उठाना जोखिम भरा काम होता है, लेकिन निर्देशक को इससे कोई गुरेज नहीं। हम देखते हैं कि इन फिल्मों के किरदार दुश्वारियों से लड़ कर जगह बनाते नजर आते हैं। लगता है, हर पात्र में स्वयं की तलाश है। मनोवृत्तियो के फिल्मांकन में भी नीरज धेवन को कोई अधीरता नही है। 'प्रेम' और 'त्याग' जैसी मनोवृत्तियों को सहजता से पेश करते हैं। वैसे, इन मनोवृत्तियों का टेकस्चर हमेशा एक सा नही होता है। 'रीयल लोकेशन' और 'लार्जर दैन लाइफ' उभर कर फिल्मों में निरुपित हुआ है। यह निर्देशकीय क्षमता का कमाल है। कहते है, एक साथ बजते साजो में किसी एक राग को पहचानना खासा मुश्किल होता है, लेकिन जब सिर्फ एक ही धुन बज रही हो, तब सब कुछ आसान हो जाता है। भीतर-बाहर के द्वन्द्व में अंदर की आवाज को समझने का सलीका ये फिल्में हमें सिखाती हैं।



'जिंदगी को जियो नहीं, उसी के हो लो' की तर्ज़ पर तासीर घुमक्कड़ी और आवारगी की। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से तालीम हासिल कर अदब की दुनिया के बाशिंदे हो गए। सिनेमा में विशेष दिलचस्पी, फिल्मो को सिर्फ देखा नही, जिया है। इन दिनों सिनेमा से संबंधित किताब पर काम। काशी के रहवासी।






मोः 09415863412
08787228949


टिप्पणियाँ

  1. वाह ! बधाई ! आलेख पहले भी पढ़ा था, दोबारा पढ़ने मे भी मजा आया। सिनेमा पार एक अगंभीर और सार्थक लेख। पुस्तक की सूचना देने के लिए पुन: बधाई।

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  2. अद्भुत। चन्द शेरों ने लेख की तासीर उम्दा कर दी है। विषय, शीर्षक व वस्तु सबकुछ सारगर्भित।
    रविरंजन

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  3. Just gone through the content.... an honest and complete .....to be precise..a true projection of these movies by...Neeraj Dhewan

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  4. इतनी खूबसूरत और सघन टिप्पणी पढ़कर बस एक चुप्पी घेरकर खड़ी हो गई है। ये चुप्पी मायूसी या हताशा की नहीं जीवन की है। वो जीवन जो 'मसान', 'जूस' और 'शोर' जैसी फिल्मों में अलग-अलग रंगों में अभिव्यक्त हुआ है। लेख पढ़कर एक अलग ही नज़रिया और तासीर प्राप्त होता है पाठक को। आशीष जी की लेखन शैली, बीच-बीच में शेर व किसी कविता की पंक्तियों से संदर्भ को रिलेट करना बहुत खूबसूरत जान पड़ता है। बधाई और शुभकामनाएं आपको मित्र ।

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