कैलाश बनवासी के उपन्यास ‘लौटना नहीं है' पर विनोद तिवारी की समीक्षा ‘समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है’

कैलाश बनवासी


कैलाश बनवासी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास आया है ‘लौटना नहीं है। यह उपन्यास इस मायने में अहम् है कि आज के निम्नमध्यम वर्गीय स्त्री जीवन की पड़ताल करने के साथ-साथ इन स्त्रियों में अपने जीवन के प्रति आयी चेतना को भी बखूबी सामने रखा है। जिस पल उपन्यास की नायिका गौरी यह निश्चय कर लेती है कि उसे अपनी बदहालियों की तरफ नहीं लौटना है भले ही उस पर सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक तोहमतें लगायी जाएँ, उसी पल उसका एक वह चेहरा उभर कर सामने आता है जिसे आम तौर पर स्त्री चरित्र के अनुकूल नहीं समझा जाता। कैलाश की रचनात्मक प्रतिबद्धता यहीं पर दिखायी पड़ती है। और साहित्य भी तो वही होता है जो सामयिक चेतना और बोध को स्पष्ट तौर पर सामने रखने का साहस कर सके। इस उपन्यास के बहाने आलोचक विनोद तिवारी ने हिन्दी उपन्यास की अंतर्यात्रा की पड़ताल करने की एक कोशिश की है। विनोद को हाल ही में आलोचना के लिए पहला बनमाली सम्मान प्रदान किया गया है। उन्हें इस सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह समीक्षा। तो आइए पढ़ते हैं विनोद तिवारी की यह समीक्षा ‘समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है।’  
      
समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है

(‘सेवासदन’ से ‘बालग्राम’ तक हिंदी उपन्यास की अंतर्यात्रा)

विनोद तिवारी


अपनी रचना में लेखक अपना घर बसाता है। जिसका कोई घर नहीं होता
उसके लिए  रचना ही वह जगह है, जहाँ वह जी सके।  -थियोडोर अडोर्नो

कैलाश बनवासी हिंदी कथा की समकालीन पीढ़ी के रचनाकारों में एक चर्चित और भरोसे का नाम है। अपनी कहानियों से कैलाश बनवासी ने इस भरोसे को बरकरार रखा है, उस जमीन को और पुख्ता किया है। ‘बाजार में रामधन’, ‘सुराख’, ‘खतरे के निशान से ऊपर’, ‘दृश्य कथा’ आदि कहानियाँ बतौर उदहारण पेश की जा सकती हैं। निम्नमध्यम-वर्ग के जमीनी यथार्थ और सामाजिक-संरचनाओं की पाखंडी विद्रूपताओं को जिस गहरी स्थानिक संपृक्तता के साथ, हाहाहूती और सर्वग्रासी बाजारवाद की अर्थ-संरचना और मायाजाल को जिस देसीवाद की साफ़ समझ के साथ कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में जिस तरह से उद्घाटित करते हैं  वह उनकी रचनात्मक क्षमता का प्रमाण है। ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘बाज़ार में रामधन’ और ‘पीले कागज़ की उजली इबारत’ जैसे कहानी संग्रहों के बाद कैलाश बनवासी का उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ आया है। यह उनका पहला उपन्यास है। समकालीन कथा साहित्य में इधर एक प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ी है। दो-चार कहानियाँ लिख लेने वाला कहानीकार भी यह कहता हुआ मिल जाएगा कि, वह इन दिनों एक उपन्यास पर काम कर रहा है गोया कहानी लिखना हेठी का काम है। बिना उपन्यास लिखे वह शायद महानता की दौड़ में पिछड़ न जाय। अब कौन कहे? कि, जो अच्छी कहानी नहीं लिख सकता वह ‘कहानियाँ’ कैसे लिख सकता है। उपन्यास एक-वचनात्मक और एकवाची कहानी-रूप नहीं है वरन वह मानवीय-सभ्यता के सामजिक और ऐतिहासिक प्रगति और अंतर्विरोधों का सांस्कृतिक सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर अनेकवाची विधा है। वह समाज और व्यक्ति के रिश्तों, विरोधों और अंतर्द्वंद्वों को सम्पूर्णता के साथ पकड़ने की कोशिश करता है। मनुष्य के मानसिक और सामाजिक जीवन के विविध व्यापारों को जिस ढंग से उपन्यास में निबद्ध किया जा सकता है, वह इसे अन्य विधाओं की तुलना में एक विशिष्ट आयाम प्रदान करता है।

वस्तुतः उपन्यास अपने समय-समाज की एक सांस्कृतिक अन्तःप्रक्रिया का अनुभवात्मक आत्मवृतान्त होने के साथ-साथ सामूहिक-चेतना का (और जड़ता का भी) प्रातिनिधिक बयान  होता है । जहाँ एक ओर अपने समय-यथार्थ को बदल-बदल कर व्यक्त करने का कथारूप है, वहीं दूसरी ओर धर्म, समाज, जाति, व्यवस्था, आदि के शोषण, पाखण्ड, झूठ, स्वांग और मुखौटों वाली सभ्यता-संरचना को वह उजागर करता है, उसका एक प्रत्याख्यान रचता है। ‘लौटना नहीं है’ एक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें उपन्यासकार खुद ही राजेश के रूप में नैरेटर की भूमिका का निर्वाह करता है । यह उपन्यास छतीसगढ़ के गरीब, श्रमजीवी, निम्न-मध्यवर्गीय स्त्री-जीवन के सामाजिक-यथार्थ का एक ऐसा अनुभवात्मक आत्म-वृत्तांत है जिसमें एक बहन की पीड़ा को, उसके विवश जीवन को उसी के छोटे भाई द्वारा नैरेट किया गया है।

राजेश (नैरेटर) का एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार है। इस परिवार में माँ, पिता, काकी, काका, बड़ी बहन गौरी, छोटी बहन और खुद राजेश। यह परिवार दुर्ग (छ.ग.) में संतराबाड़ी के बुनकर संघ के पीछे से लगे नाले के पास रहता है। इसी ‘लोकेल’ को, उसकी सामाजिकता को, इस बस्ती में जीवन-यापन कर रहे अति सामान्य और साधारण लोगों के जीवन-यथार्थ को यह उपन्यास अपनी यथार्थवादी रचनात्मकता में प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार खुद ही उपन्यास में एक जगह अपने उपन्यास के बारे में लिखता है -“साधारण लोगों की साधारण कहानी और उतना ही साधारण अंत। ऐसी कहानी कोई लेखक नहीं लिखता। अगर लिख भी ले तो छपेगी नहीं। कथा पत्रिकाओं के दिल्ले के नामी-गिरामी  संपादक इसे यह कह कर लौटा देंगे कि इसके पात्र बहुत कमजोर हैं, कहानी में भी दम नहीं है और तो और इसका अंत भी बहुत फुसफुसा है। इसलिए, लेखक गण दमदार लोगों की दमदार कहानी लिखते हैं, जिनके अंत भी दमदार होते हैं जिन्हें पाठक गण भी बहुत पसंद करते हैं, ‘भाई वाह, क्या कहानी है।’ प्रश्न फिर भी बचा रह जाता है –जिनके जीवन में ऐसा कोई धमाका नहीं होता, क्या उनका जीवन इतना ही सतही या निरर्थक होता है जितना हम समझते आ रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे हम सच्ची कहानी समझ रहे हैं, वह महज ‘कहानी’ ही है –कहने-सुनने की कहानी? हमारा यथार्थ जीवन नहीं।” (p. 81)

निश्चित ही, उपन्यासकार की यह साफगोई उपन्यास को किसी बड़े दावे और महत्व के दबाव से मुक्त करती है। फिर भी, यह उपन्यास जिस विषय को अपनी रचनात्मक उपलब्धि के साथ सामने ले आता है और उसमें समाज और इतिहास की दृष्टि से जिस तरह अति सामान्य भारतीय स्त्री के जीवन–यथार्थ की उस शाश्वत छवि को प्रश्नांकित करता है, महत्वपूर्ण बन जाता है।  यह प्रश्नांकन ही इस उपन्यास की रचनात्मक सचाई को प्रामाणिक बनाती है। उपन्यास एक ऐसा शिल्प है जिसमें, गल्प-तत्व की, आख्यान-परकता की जरूरत पड़ती है। ‘यथार्थ’ के वास्तविक को रचने के लिए कई बार उस यथार्थ को उसकी परवशता और निराशा के साथ रचना पड़ता है। उसे बिना कल्पनाजन्य किसी घटना और पात्र के वास्तविक परिस्थितियों और घटनात्मकता में अपनी मूल रहन में प्रस्तुत करना पड़ता है। अनुभव की निजता के सहारे कहन को उपन्यासकार ‘फिक्शनल’ रूप और आकार देता है । दरअसल, इसे ही औपन्यासिक कला कहा जाता है। ‘रियलिस्टिक सिचुएशंस’ को ‘फिक्शनल-रियलिटी’ में उपन्यासकार कैसे परिणत कर पाता है, इसी में उसकी सफलता है। गौरी वास्तविक होते हुए भी इसीलिए ‘फिक्शनल’ चरित्र है और उपन्यास में आकर अपनी सामजिक और ऐतिहासिक नियति में वह उस स्त्री-वर्ग  का प्रातिनिधिक चरित्र बन जाती है जिसे तरह-तरह की सामजिक-धार्मिक परम्पराओं, रुढियों, घेरेबंदियों से मुक्ति नहीं। इसी घेरेबंदी को तोड़ने के अपने प्रयासों में वह एक नहीं कई-कई बार टूटती है, हिम्मत कसती है फिर भी यह ढांचा अपनी जड़ों में इतना मजबूत है कि वह हार जाती है। निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों की हालत और उन हालातों में उन घरों की लड़कियों और महिलाओं की अवश, मजबूर जीवन जीते और हारते, पिछड़ते, छोड़ते अपने को होम कर देने की विवश पीड़ा का जीवन-यथार्थ इस उपन्यास का कथ्य है। क्या ‘बालग्राम’ गौरी का स्वैच्छिक चयन है? क्या वहीं रह जाने और वहाँ से न लौटने का निर्णय उसकी खुशी-ख़ुशी का निर्णय है । “निषाद, चौरे, गुप्ता, राजेश सब बालग्राम की असलियत जान लेने के बाद भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या वे अपनी लड़कियों, बहनों या भतीजियों को यहाँ छोड़ेंगे। गुप्ता के पूछने पर कि, ‘राजेश तुम क्या अपनी बहन गौरी को यहाँ छोड़ोगे?’ राजेश का उत्तर है, “ हाँ, अगर उसे यहाँ रहना पसंद है तो। आखिर वहाँ भी रहेगी तो उसका जीवन कुछ बदलने वाला नहीं बल्कि ये जगह उसके लिए घर से ठीक है।... कहते हुए मेरे सामने गौरी का चेहरा था।... अपने समाज को तो आप जानते हो। नहीं शायद हम लोग उसे उतने अछे से नहीं जानते जितनी ऐसी लडकियां! वरना क्या कारण है कि, लड़कियां यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी रहने को राजी हैं, इतने कष्टों को जानने के बाद भी, ऐसा जेलखाना होने के बाद भी।” (p. 238)  

यह उपन्यास गौरी और उस जैसी अनेकों लड़कियों के इसी विवश और हारे हुए निर्णय के पीछे की उस सामाजिक और धार्मिक संरचना को बेपर्द करता है जिसे परम्परा और संस्कार के नाम पर वैध ठहराया जाता है। गौरी, जिस समाज में रह रही है उस समाज में लड़की एक बोझ की तरह होती है। माँ-बाप के लिए एक ऐसा बोझ जिससे मुक्ति जितनी जल्दी हो ब्याह में ही होती है। सत्रह साल की अपनी छोटी सी उम्र में ही गौरी ने दुख और संत्रास का जैसे पूरा जीवन भोग लिया हो। पढने-लिखने, बात-व्यवहार सबमें जहीन और सलीके वाली लड़की को 8वीं पास करने के बाद और आगे पढने से मना कर दिया जाता है। ऐसे समाज में ‘‘लडकी का ज्यादा पढना-लिखना अच्छी बात नहीं मानी जाती। ज्यादा पढ़-लिख लेने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं।... बाबा यानी दादा का तो एकदम साफ़ कहना था कि, ‘और ज्यादा पढ़ कर क्या करेगी? लडकी जात कितना ही पढ़-लिख ले उसको तो आखिर चूल्हा ही फूंकना है।’ इधर माँ, काकी का कहना था, ‘ बेटियों को तो सयानी होते ही घर के काम-काज में चंट हो जाना चाहिए नहीं तो ससुराल में जाने पर मायके वालों की नाक कटेगी?” (p. 17-18). हमारे समाजों ने यह ‘नाक’ बनी रहे बची रहे इसी की संरचना तैयार की है। गौरी अब सयानी हो गयी है सोलह की उसकी उम्र हो गयी है। अब उसे साड़ी ही पहननी चाहिए सलवार-सूट की उसकी उम्र चली गयी। साड़ी पहनने के लिए सबसे अधिक दबाव माँ का ही है।  वह तर्क देती है, प्रतिवाद करती है पर नहीं। ‘जब  आपका चीजों पर बस नहीं चलता तो आप चुपचाप अपनी हार मान लेते हैं।’ (p.22). अब वह माँ-बाप के लिए चिंता का कारण है। उसकी शादी अब जितनी जल्दी हो जाय अच्छा होगा । घर मोहल्ले सब जगह गौरी की शादी की चिंता। घर तो घर सयानी लड़कियों की शादी की चिंता जैसे मोहल्ले वालों की साझा जिम्मेदारी हो।  शादी के लिए वर की तलाश शुरू हो जाती है। लडकी देखने के लिए ‘सगा’ (लडकी देखने आने वाले लोग) लोगों का घर पर आना शुरू हो जाता है। यह क्रम न जाने कितनी बार चलता है। अंततः रायपुर से भी आगे बिरतेरा गाँव के एक नवयुवक राज कुमार चौधरी से उसकी शादी पक्की कर दी जाती है। गौरी, का मन ही मन में कमल के प्रति जो प्यार अँखुआ रहा था वह सामजिक भय के भयानक दबाव के चलते सिर ही नहीं उठा सका। ‘सबकी हाँ में उसकी भी हाँ मान ली जाती है।’ खुद राजेश और उर्मिला एक दूसरे से प्यार करते हैं। उर्मिला दूसरी लड़कियों से भिन्न है। पूरे मोहल्ले में जिसे लड़के उसकी तेजतर्रार स्वभाव और तेवर के चलते लड़का-टाईप लड़की कहते हैं, क्या घर-परिवार के विरुद्ध जा कर, घर से भाग कर अपनी मर्जी की शादी कर पाती है? राजेश खुद ही नहीं इसके लिए तैयार है। पर, इस तरह की इक्का-दुक्का शुरुआत होने लगी है। अब लड़के-लडकियाँ घर से भागकर शादी कर रहे हैं। समय में बदलाव के संकेत मिलने लगते हैं। यह आठवें-नवें दशक का समय है जब सिनेमा धीरे- धीरे इस वर्ग में भी अपनी जगह बना रहा था और इस वर्ग के लड़के-लडकियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि भीतर भी बदलाव महसूस कर रहे थे। फिल्म के परदे पर नायक-नायिका भाग रहे थे और इधर लड़के-लड़कियां भागने के मंसूबे बना रहे थे। इन दिनों हर किशोर लड़का-लडकी किसी न किसी के साथ भागने की तैयारी कर रहा था। “वे प्रेमी जोड़ों के अपने घरों से भागने के दिन थे। उनके भागने का आदर्श मौसम। इसमें सबसे ज्यादा उनकी मदद कर रहा था हमारे मनोरंजन का सबसे सस्ता और महान साधन सिनेमा। ... प्रेमियों के प्रेम को परवान चढ़ा रहा था सिनेमा। पाकेट बुक्स के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘अजनबी’ के हीरो-हीरो इन राजेश खन्ना और जीनत अमान परदे घर से भागते हुए गा रहे थे – ‘हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले, जीवन की हम सारी रस्में तोड़ चले।’ गुलशन नंदा के ही उपन्यास पर बनी यश चोपड़ा की फिल्म ‘दाग’ में राजेश खन्ना शर्मीला टैगोर का हाथ पकड़ कर गा रहे थे –‘अब चाहे माँ रूठे या बाबा यारा मैंने तो हाँ कर ली।’ इन्हीं दिनों भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे बड़े शो-मैन राजकपूर की किशोर प्रेम पर आधारित फिल्म ‘बॅाबी’ सुपर हिट हो चुकी थी।... फिल्म में किशोर ऋषि कपूर कमसिन डिम्पल कपाडिया को मोटर-सायकिल पर बिठा के भगा ले जाता है ।” (p. 53)

परंतु, परदे का यह सिनेमाई सच वास्तविक जीवन का सच नहीं था। गौरी भी और उर्मिला भी ब्याह कर चली जाती हैं । पूरा परिवार यह जानते हुए भी कि गौरी का पति राजकुमार, अव्वल दर्जे का शराबी-कबाबी है, इस भरोसे के साथ और गौरी के भाग्य और नियति के साथ उसे ब्याह दिया जाता है कि, शादी के बाद सभी लड़के सुधर जाते हैं और गौरी जैसी लड़की उसे ठीक कर लेगी। और फिर सरकारी नौकरी में है। सब कुछ धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा। सरकारी नौकरी, दरअसल राजकुमार के बारे में उसके घर वाले बताते हैं कि वह फारेस्ट विभाग में फारेस्ट गार्ड की नौकरी करता है। पर, शादी के बाद यह झूठ सबके सामने खुलता है। “गौरी का घर से शादी के बाद विदा होना बेटी का हँसी-ख़ुशी वाला विदा होना नहीं था। वह गहरे संशय से भरी विदाई थी जिसमें भविष्य के नाम पर केवल अँधेरा दीखता था।” (p. 111-12).  इस अँधेरे जीवन का वास्तविक पता तब चलता है जब तीज का त्यौहार आता है। “तीजा! कोई जानना चाहेगा कि छतीसगढ़ का सबसे बड़ा त्यौहार क्या है तो उत्तर होगा –तीजा। भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को मनाये जाने वाले इस त्यौहार का महिलायें साल भर इंतज़ार करती हैं। सबसे ज्यादा प्रतीक्षित और मन की खुशी देने वाला। यह त्यौहार सुहागिनें अपने मायके में मानती हैं। बाप या भाई उन्हें लिवाने आते हैं। वह मायके आती हैं – अपने पुराने घर जहाँ उनका बचपन और किशोर दिन बीते।” (p. 120). गौरी की तो यह पहली तीज है उसे लिवाने राजेश और उसके पिता दोनों जाते हैं। वहाँ पहुंच कर घर की हालत और दशा देख कर ‘कहीं से नहीं लगता था यह नौकरीपेशा व्यक्ति की गृहस्थी है। राजेश पेशाब करने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने के लिए घर से बहार निकल कर एक दिशा में चल देता है। तभी उसे एहसास होता है कि, एक बुढ़िया औरत मेरे पीछे-पीछे चली आ रही है मुझसे कुछ कहना चाहती है, मैं रुक गया। गौरी की पड़ोस में रहने वाली उस मराठी वृद्धा ने जो सचाई बताई वह कितना भयंकर है – “...बेटा तेरी बहेन भौत सीधी है, अच्छे आदत व्यवहार की है पर तेरा जीजा, वो भौतिच हरामी है बेटा। तुम लोगों ने उसकी शादी कैसे नीच आदमी के साथ कर दी। दुनिया में लड़कों की कोई कमी थी क्या? हे भगवान् इत्ती सुन्दर लडकी । अभी उम्र ही क्या थी। तेरा जीजा तेरी दीदी को भौत तांगता है, रोज दारू पीकर आता है, मारपीट करता है।...वो लडकी सच्ची में भौत बरदास करती है। पर वो हरामी तो एकदम राक्षस! मारता-पीटता है! कहाँ है तेरा दादा? मैं उससे पूछती हूँ, तेरी आँख नई थी क्या? बेटी को ऐसे गलत आदमी के साथ बांध दिए। घर में बेटी भारी पड़ती थी क्या, दो जून रोटी खिलाने में। इसको ले जाओ बेटा इस नरक से। तेरी बहन को इधर कोई सुख नहीं है।” (p.126). राजेश इस विदारक सचाई को सुन कर सुन्न हो जाता है। अन्दर ही अन्दर वह चीख-चीख कर रो रहा था – ‘मेरी दीदी को बचा लो कोई, मेरी दीदी को बचा लो कोई।’

बाप-बेटे गौरी को घर ले आते हैं। गौरी की सचाई से सब अवगत होते हैं। सब सुन लेते हैं। माँ, काकी, फूफू, मौसी सब उसे समझाती हैं, अपनी उम्र और भोगे हुए जीवन-अनुभव का हवाला देकर उसे उपदेशित करती हैं कि, ब्याहता लड़की की ससुराल ही उसका असली घर है। अगर ससुराल में कुछ ऊँच-नीच हो जाए तो बेतितों को सह लेना चाहिए। बेटियों को तो बहुत कुछ सहना पड़ता है। वही सनातन अवश पीड़ा का न खत्म होने वाला ढाढ़स जो एक पीढ़ी की स्त्री अपने से अगली पीढ़ी को देती चली आयी है। उनके द्वारा दिए जाने वाले इस झूठे ढाढ़स को वह भी जानती हैं पर क्या करें? भाग्य, नियति आदि के सहारे जीवन काट दती हैं। अपनी परवशता, दुःख और कष्टों से जूझने का लम्बा और लगातार अनुभव, जिसे कोई किताब नहीं सिर्फ उनका जीवन ही  सिखाता है। इस समझाने की प्रक्रिया में ही सभी स्त्रियाँ एक छोटे से कमरे में एकत्र हैं। इन गरीब, श्रमजीवी, निम्न-मध्यवर्गीय स्त्रियों का जीवन-यथार्थ कैसा होता है इसे कैलाश बनवासी ने जिस चित्रात्मक भाषा में अभिव्यक्त किया है वह उनकी कथाभाषा का बहुत ही वास्तविक और संवेदी पक्ष है। “घर के छोटे से कमरे के एक कोने में चालीस वाट बल्ब की कमजोर, पीली और धुँआई रोशनी के बीच गौरी को घेरे बैठीं वे बूढ़ी साँवली औरतें, जिनका रंग अब तक धरती पर बिताई उनकी उम्र और उसके अनुभव ने काफी गहरा कर दिया है। गुड़ी-मुड़ी गठरी सी, पुरानी बदरंग साड़ियों में सिर तक लिपटी हुई, गहन गंभीर बहुत धीरे-धीरे बात करतीं...मानों जीवन और प्रकृति का कोई अबूझ रहस्य समझाती हुईं। इस दृश्य के पूरे बैकग्राउंड में मटमैला, धूसर और स्याह रंग फैला हुआ था। शायद इन्हीं दिनों या बाद के किसी  दिन में म्युनिसिपल लाईब्रेरी की किसी पत्रिका में अमृता शेरगिल के कुछ चित्र देखे थे। उन्हें देखते हुए बेसाख्ता यही दृश्य याद आया था और लगा था कि ये वही हैं, वैसे ही धुंधले आलोक में गोल घिरी बैठी औरतें... बहुत गम्भीर और बहुत उदास और चुप...अपने अनगिनत दुखों और छायायों से घिरी हुई ।” (p. 135). जीवन के इस धुंधले स्याह रंग को वे पहचानती हैं, इसीलिए वे गौरी को भी वही सिखा रही हैं समझा रही हैं पर, गौरी दृढ़ है कि, “मैं वहाँ नहीं जाऊँगी! किसी हालत में नहीं जाऊँगी। आवाज में निर्णय था। साफ़, ठोस। कोई रिरियाहट, हकलाहट नहीं। सोच-समझ कर लिया गया फैसला।” (p. 131) पर उन स्त्रियों के लिए यह कि, ‘ससुराल से अलग रह कर भी कोई लड़की अपना जीवन जी सकती है’, स्वीकार ही नहीं। राजेश मन ही मन खीझता है ,सोचता है कि, “‘माँ को ऐसा किसने गढ़ दिया। इतना पारम्परिक और इतना धर्मभीरु? इतना जड़ कि नयी बात, नयी सोच कहीं से घुस ही न सके। माँ के भीतर जैसे कई सदियों की स्त्रियाँ जमा थीं जो सिर्फ सहना ही जानती थीं, क्योंकि यही स्त्री का ‘धरम’ था। बोलना, विरोध करना या परंपरा के खिलाफ जाना – धर्म विरुद्ध।...बताया जा रहा था कि, शादी के बाद पति को छोड़ कर  रहना दोष होता है, बहुत बड़ा पाप है, कि इससे समाज बिगड़ता है, जब कि वह कह चुकी थी कि मैं यहाँ तुम लोगों पर बोझ नहीं बनूंगी सिलाई-कढ़ाई करके जिन्दगी चला लूँगी । पर, माँ को यह भी मंजूर नहीं था।... उसकी सहायता के लिए कोई भी नहीं था। सब यही चाहते कि एकबार वह वहाँ जाए। गौरी टूट गयी। सबके अच्छे के लिए वह वहाँ जाने के लिए तैयार हो गयी । बोली, ठीक है इस बार मैं चली जाती हूँ लेकिन अगर कुछ हुआ तो इसके लिए तुम लोग जिम्मेदार रहोगे।” (p. 134-35)

गौरी घर-परिवार, समाज सबकी ख़ातिर एक बार पुनः उसी नरक में लौटने को राजी हो जाती है, ‘जाती है फिर नसीम उसी रहगुज़ार को’। पर, प्रताड़ना और पीड़ा का वह क्रूर सिलसिला भला कहाँ थमने वाला था। जब हद भी हद से बढ़ जाता है तो गौरी अपने मायके एक चिट्ठी भेजती है –

पूज्य बाबू जी,
सादर प्रणाम!

आशा है कि सब वहाँ कुशलता से होंगे। बाबूजी, अब मैं इस आदमी के साथ नहीं रह सकती। आपने जिस आदमी को मेरा हाथ पकड़ाया है वह शराबी तो है ही, रोज-रोज मुझसे मारपीट करता है और जान से मारने के धमकी देता है।  अगर आप लोग मुझे ज़रा भी चाहते हैं तो मुझे इस नरक से निकाल लो, नहीं तो मैं कुछ भी कर लूँगी। मैं आपको विशवास दिलाती हूँ कि बाकी जीवन मैं आपलोगों पर बोझ नहीं बनूंगी। मैं आपसे हाथ जोड़कर अनुरोध करती हूँ कि मुझे इस दलदल से निकाल लीजिये।
घर में सबको यथायोग्य प्रणाम और आशीर्वाद।

आपकी बेटी
     गौरी

गौरी की दुर्दशा को पढ़ कर पूरा घर उसके पति राजकुमार को भला-बुरा कहता है। उसे मायके ले आने के बारे में सब सोच-विचार करते हैं कि किस बहाने से उसे लाया जाय क्योंकि, राजकुमार यूँ ही उसे विदा नहीं करेगा। काका शिवचरण कहते हैं कि,किसी परीक्षा का बहना बनाकर उसे बुलाया जाय। पर सब कहते हैं कि, इस पर उसका पति विश्वास नहीं करेगा। पड़ोस के गोपाल काका ने सुझाव दिया कि, उसको पिछले साल की छात्रवृत्ति का रुका हुआ पैसा मिलने वाला है यह कह कर बुलाया जाय और उसके स्कूल की मैडम उसके दस्तखत पर ही रूपया देंगी’ तो राजकुमार अपने पीने के जुगाड़ में पैसों के लिए तैयार हो जाएगा। यही बात तय होती है । गौरी को दो लोग जा कर ले आते हैं । गौरी वह नरक छोड़ कर चली आयी है। उसने “अपना फैसला कर लिया था। सत्रह साल की गौरी। पता नहीं अभी वह अपने जीवन को कितना आगे तक देख पा रही थी। आगे जीवन की कठिनाईयाँ चाहे जो हों, इस समय वह उस व्यक्ति से मुक्त होना चाहती थी जिससे उसे पति के नाम पर जोड़ दिया गया था।” (p. 150).

पर, क्या इतनी आसानी से मालिक अपनी मिल्कियत छोड़ देगा? कुछ ही दिनों में राजकुमार उसे ले जाने के लिए आता है। शराब के नशे में खूब हो-हल्ला करता है। पर सबकी कल्पना के विपरीत गौरी बड़े ही दृढ़ स्वर में कहती है – “ मैं अब नहीं जाऊंगी आपके साथ। आप यहाँ से चले जाईये। मैं नहीं रह सकती आपके साथ। बस्सऽऽऽ....।” (p. 151). पंचायत बैठती है पर पंचायत भी गौरी के आगे झुक जाते है। यही तय होता है कि, गौरी तभी जायेगे जब उसका पति अपनी आदतों में सुधार कर के दिखाए। फिर, शुरू होता है गौरी का वह जीवन जिसे समाज अच्छा नहीं मानता। पर गौरी बहुत ही धुनी लडकी है। वह किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती। वह सिलाई-कढ़ाई करती है, घर के काम-काज में सबका हाथ बंटाती है और अपने भविष्य के लिए भी सोचती है। उसे पता है कि, उसका अपना घर, गाँव, समाज बहुत दिनों तक उसी समय पर उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करने वाला है। जहाँ से उसकी पढ़ाई छूट गयी थी उसे वह पुनः शुरू करना चाहती है कि कम से कम हाईस्कूल पास कर ले तो कहीं एक छोटी सी नौकरी कर सके। प्राईवेट फार्म भरकर वह हाईस्कूल की परीक्षा पास करती है और नौकरी की तलाश करती है। कवर्धा के प्राईमरी स्कूल में पढ़ाने के लिए आवेदन करती है। अपने किसी परिचय के सहारे राजेश उसे लेकर कवर्धा जाता है, वहाँ के शिक्षाधिकारी से मिल कर सिफारिश कर के आता है कि गौरी को नौकरी की कितनी जरूरत है। जब वे लौट कर घर आते हैं तो दूसरा ही माहौल है। दुःख और गमी का वातावरण। राजेश के बहुत पूछने पर काकी कहती हैं कि, ‘’ गौरी के घर वाले ख़त्म हो गे।... वह रायपुर रेलवे स्टेशन पर किसी ट्रेन में चढ़ रहा था, पता नहीं भीड़ के कारण या नशे के कारण उसका पैर फिसल गया और वह नीचे आ गिरा ट्रेन उसके ऊपर से चली गयी।” (p. 181). पता नहीं गौरी के अन्दर इस खबर ने क्या भाव पैदा किया। पर वह समाज की नजर में अब एक विधवा थी। दुर्भाग्य, हिकारत और दया का पात्र। एक दुखियारी स्त्री। बार-बार गौरी को इस सच का एहसास कराता वह समाज। गौरी जैसे बिलकुल ही बदल गयी थी। वह इस गाँव-घर, समाज से छूट कर कहीं बहुत दूर चली जाना चाहती थी। इसी बीच फरीदाबाद से इंटरव्यू के लिए उसका बुलावा आता है। ‘बालग्राम’ नामक एक एन.जी.ओ. में ‘माँ’ के पोस्ट के लिए इंटरव्यू का बुलावा। राजेश उसे इंटरव्यू दिलाने के लिए ले जाता है। उपन्यास यहीं से शुरू होता है और यहीं से लौटने के साथ ख़त्म होता है। छतीसगढ़ एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए दोनों भाई-बहन रवाना होते हैं। राजेश और गौरी दोनों ही अलग-अलग  ख्यालों में गुमसुम हैं। धीरे-धीरे ट्रेन आगे सरकती जाती है और ट्रेन के साधारण डिब्बे के अन्दर की दुनिया भी। साधारण डिब्बे में यात्रा करने वाले लोग वे लोग होते हैं जो सुख-दुःख बाँटने में परस्पर बातचीत करने में विश्वास रखते हैं। राजेश से भी उसके साथ बैठे लोग बातचीत शुरू कर देता हैं। राजेश की नजर उन भोले और सहज ग्रामीण लगों के साजो-सामान पर पड़ती है - “चार प्लास्टिक की खादी वाली सफ़ेद बोरियां, जिनमें दो में चावल हैं, बाकी दो में उनकी गृहस्थी का सामान। गंजी, कड़ाही, थालियाँ, लोटा, गिलास आदि से ले कर एक स्टोव और मिट्टी तेल की एक प्लास्टिक केन। दो पुराने टिन के बक्से हैं जिन पर पेंट किये चटखीले फूल बदरंग हो कर जंग खाए धूसर रंग में घुल-मिल गए हैं। एक बक्से में ताला लगा है जब कि, दूसरे की कुंडी में तार का टुकडा बंधा है। इनमें शायद इनके कपडे-लत्ते होंगे । यही इनकी छोटी, बेपर्द गृहस्थी। मोबाइल गृहस्थी।” (p. 11) यह उनके जीवन और गृहस्थी का बेबस खुलासा है। जिस परिवार से राजेश की बातचीत हो रही थी उसी परिवार की स्त्रियों के साथ गौरी भी घुल-मिल जाती है। बातचीत में ही समय कब गुजर गया किसी को पता नहीं चला। रेल यात्रा में सहयात्रियों से हुए हेल-मेल और बातचीत, और कुछ ही क्षणों में पनपे अपनापन तब सालने लगा जब रेल दिल्ली पहुँच गयी। “बूढ़ी माँ और उसकी दोनों बहुएं बहुत जल्दी दीदी से घुल-मिल गए थे । खुद गौरी भी। वे कह रहे हैं दीदी से बहुत आत्मीयता से, जाथन बेटी! दुरुग आबे त हमरे गाँव आबे! दया-मया धरे रहिबे। ... हौ, तुहू मन आहू हमर घर दुरुग में। दीदी भी उनसे हंस कर वैसी ही सरलता से कह रही थी। इस बात को बिलकुल भूले हुए कि अभी कुछ ही देर में ये दुनिया की भीड़ में न जाने कहाँ खो जायेंगे, शायद हमेशा-हमेशा के लिए। कभी न मिलने के लिए, सिर्फ भूले-भटके कभी याद आ जाने के लिए। ...अब मुझे लगा कि, छतीसगढ़ हमसे बिछड़ रहा है। छतीसगढ़ एक्सप्रेस से हमारे साथ आया एक गाँव, उसकी सहज-सरल गँवई संस्कृति हमसे बिछड़ रही है, आपनी आत्मीयता से हमें विभोर किये हुए। ... मैंने दीदी को देखा, वह उन्हें तब तक देखती रही जब तक वे गेट के बाहर नहीं चले गए। दिली को वह बिलकुल भूल चुकी थी इस समय। ...एक पल के लिए सूझा कि उसे याद दिलाऊं कि वह दिल्ली में है, पर लगा दिल्ली की याद दिलाना अभी उसको आहत करना होगा, एक अन्याय होगा। ऐसे समय में दिल्ली को दूर रखना ही ठीक है। दिल्ली को हर समय अपने साथ रखना एक बहुत बड़ी बीमारी है, कई छोटी बड़ी बीमारियों से मिल कर बनी एक बड़ी और खतरनाक बीमारी, जिसका ठीक होना मुश्किल होता है।” (p. 11-12)

सचमुच, गौरी को अब एक ऐसी दुनिया में कदम रखना है जो अपने झूठ और छद्म में और खतरनाक है। उसका इंटरव्यू होता है। वह ‘माँ’ कि पोस्ट के लिए चुन ली जाती है। अनाथ बच्चों के पालन-पोषण के लिए अब ‘माँ’ की नौकरी करेगी गौरी। पर जिस ‘बालग्राम’ के लिए वह चुनी जाती है उसके अन्दर की दुनिया और उसकी असलियत कुछ और ही है। राजेश के साथ और भी दूसरे गार्जियन और लडकियां आस-पास घूम कर, थोड़ी-बहुत तफ्तीश कर के यह जान लेते हैं कि इस दुनिया में तो अँधेरा ही अँधेरा है। अनगिनत बंदिशें हैं। निषाद, चौरे, गुप्ता, राजेश सब बालग्राम की असलियत जान लेने के बाद भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या वे अपनी लड़कियों, बहनों या भतीजियों को यहाँ छोड़ेंगे। गुप्ता के पूछने पर कि, ‘राजेश तुम क्या अपनी बहन गौरी को यहाँ छोड़ोगे?’ राजेश का उत्तर है, “हाँ, अगर उसे यहाँ रहना पसंद है तो। आखिर वहाँ भी रहेगी तो उसका जीवन कुछ बदलने वाला नहीं बल्कि ये जगह उसके लिए घर से ठीक है।... कहते हुए मेरे सामने गौरी का चेहरा था।... अपने समाज को तो आप जानते हो। नहीं शायद हमलोग उसे उतने अछे से नहीं जानते जितनी ऐसी लडकियां! वरना क्या कारण है कि, लड़कियां यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी रहने को तैयार राजी हैं, इतने कष्टों को जानने के बाद भी, ऐसा जेलखाना होने के बाद भी।” (p. 238) गौरी ‘बालग्राम’ में रुकने का निर्णय लेती है। अब उसे यहं से कहीं नहीं लौटना है। कहीं लौटना नहीं है।  राजेश अकेले अपने गाँव लौट रहा है। ख़ुशी, हताशा, दुःख, आशा, निराशा, पीड़ा या आनंद या और कुछ...। पता नहीं उसे कि वह क्या महसूस कर रहा है। रो रहा है, गा रहा है, गाते-गाते रो रहा है, रोते-रोते गा रहा है– 

‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाऽऽऽईऽऽऽऽऽऽ
तूने काहें को दुनिया बनाईऽऽ...तूने काहें को दुनिया बनाईऽऽ...’

है कहाँ तमन्ना का दूसरा कदम या रब
हमने दस्ते-इम्काँ को एक नक़्शे-पा पाया।

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विनोद तिवारी



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