प्रतुल जोशी की कविताएँ



प्रतुल जोशी
अपनों का साथ हमेशा सुखद होता है लेकिन जीवन तो वही होता है जो गतिमय होता है इंसान भी इस गति को बनाए रख कर अपने को जीवंत बनाये रखता है लेकिन यहाँ भी एक दिक्कत यह आती है कि जैसे ही वह कहीं दूसरी जगह जाता है, अपने को प्रवासी महसूस करने लगता है प्रतुल जोशी ने इन मनोभावों को अपनी कविता में सफलतापूर्वक उकेरा है प्रतुल की एक और अपेक्षाकृत लम्बी कविता दिलदारनगर भी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है जिसमें कई जगहों पर चाहते हुए भी न जा पाने की पीड़ा उभर कर सामने आती है तो आइए पढ़ते हैं प्रतुल जोशी की ये कविताएँ 
 
प्रतुल जोशी की कविताएँ 

आधुनिक प्रवासी 

घिरा नहीं हूँ यारों से 
घिरा हुआ हूँ तारों से 
छूटा घर औ छूटे साथी 
दूर देश में हुआ प्रवासी 

भुला दिया है मुझको सबने 
कहने को हैँ यूँ  सब अपने 
सन्नाटा ही एकांत में साथी 
दूर देश में हुआ प्रवासी 

मोबाइल का अब सहारा 
इंटरनेट ने मुझे उबारा 
फेसबुक पर करके चैटिंग
जुड़ता हूँ फिर मैं सबसे 

घर के हर कमरे में तार 
बन गए हैं मेरे वह यार 
पा कर इन यारों का प्यार 
करता मैं सबको नमस्कार 


कभी गया नहीं मैं दिलदारनगर

हाँ, लेकिन गुज़रा हूँ कई बार
उस रास्ते से

पड़ता है जहां दिलदारनगर

मुगलसराय से बस थोडा आगे

बक्सर से कुछ पहले

जमनिया के आस-पास

गाजीपुर
  का एक कस्बा है दिलदारनगर
दिल्ली हावङा रेल लाइन पर

मिल जाता था हर बार

जब भी गया मैं पटना
, आरा
कलकत्ता या फिर गुवाहाटी
रेल के डिब्बे से

जितना दिख पाता

उतना ही देख पाया हूँ

अब तक मैं दिलदारनगर

जब भी गुजरा मैं

दिलदारनगर के रास्ते
हमेशा सोचता रहा
कि क्या बहुत दरियादिल होते
हैं
दिलदारनगर के वासी?
आखिर क्यूँ पड़ा
नाम इसका
दिलदारनगर?
कुछ और भी तो हो सकता था

जैसे होते हैं बहुत से अबूझ
नाम
सेवईत
, हथिगहा, भदरी
या फिर फाफामऊ

कोई तो कारण रहा होगा
जो हुआ यह दिलदारनगर
जीवन के झंझावातों में

भूल गया था मैं दिलदारनगर


फिर एक दिन

कई वर्षों बाद

टकरा गया एक युवक दिलदारनगर
का                                                 
सुनाई उसने कहानियां बहुत सी दिलदारनगर की
एक मित्र ने भी बताया

कि हो आया है वह

हाल ही में दो -चार बार दिलदारनगर
रह रह कर याद आने लगा

फिर से दिलदारनगर

फिर से याद आया
ट्रेन रूट वह
मुगलसराय से बस थोडा आगे
जमनिया से सटा हुआ दिलदारनगर
फिर घुमड़ने लगे
एक दो नहीं सैकड़ो दिलदारनगर
मेरे भीतर

सैकड़ो
, हज़ारों दिलदारनगर
अलग-अलग ट्रेन रूट पर

स्थित हैं जो
                                                 
 (जिन तक कभी पहुंच नहीं पाया मैं ट्रेन की खिड़की से ही देखा जिनको)
मन हुआ कई बार

कि छोड़ अपना गंतव्य

उतर जाऊं ट्रेन से

ऐसे ही किसी

छोटे-मोटे दिलदारनगर पर

कुछ देर घूमूं

मिलूँ लोगों से

किसी पान की दुकान पर बैठ

फूकूँ एक-आध सिगरेट

पूछूं
, कहाँ तक जाता है
दिख रहा है

सामने जो रास्ता

या फिर

क्या भाव है

मछली का

इस कस्बे में
?
लेकिन

आज तक उतरा नहीं कभी ट्रेन से

बैठा रहा बस चुपचाप

अपनी सीट पर

संतोष कर लिया देख कर

खिड़की से ही

जितना दिख गया

दिलदारनगर

सम्पर्क-
मोबाईल- 09452739500
ई-मेल : pratul.air@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'