ओमप्रकाश वाल्मीकि





ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले के बरला में 30 जून 1950 को एक सामान्य दलित परिवार में हुआ। वाल्मीकि जी ने साहित्य के क्षेत्र में कविता, कहानी, आलोचना के क्षेत्र में काम किया। उनकी आत्मकथा 'जूठन' आज एक महत्वपूर्ण आत्मकथा मानी जाती है।
      

उनकी कुछ प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं - सदियों का संताप (1989), बस्स, बहुत हो चुका (1997), अब और नहीं (2009)
 

इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘जूठन’ (1997, आत्मकथा), सलाम (2000)¸ घुसपैठिए (2004) (दोनों कहानी-संग्रह), दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र (2001, आलोचना), सफ़ाई देवता (2009, वाल्मीकि समाज का इतिहास) जैसी उल्लेखनीय कृतियाँ भी हिन्दी साहित्य समाज को दीं। वाल्मीकि जी ने 'दो चेहरे' नामक एक नाटक भी लिखा

अपनी इन मौलिक कृतियों के अतिरिक्त वाल्मीकि जी ने कुछ रचनाओं के अनुवाद भी किये। ध्यातव्य है कि महाराष्ट्र के चंद्रपुर में रहते हुए वाल्मीकि जी ने मराठी भाषा को भी भलीभांति सीख लिया था और अर्जुन काले के मराठी काव्य संग्रह का 'साइरन का शहर' नाम से अनुवाद किया। कांचा इललैया की मशहूर किताब 'व्हाइ आई एम नाट अ हिंदू' का हिन्दी अनुवाद ' क्यों मैं हिंदू नहीं' के नाम से किया। यही नहीं वाल्मीकि जी ने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन सम्पादन के क्षेत्र में भी किया और 'प्रज्ञा साहित्य', 'दलित हस्तक्षेप', दलित दस्तक' और 'क़दम' पत्रिकाओं के अतिथि संपादक की भूमिका का निर्वाह किया। 'क़दम' के अतिथि संपादन का उत्तरदायित्व तो उन्होंने अपने कैंसर की बीमारी से जूझते हुए पूरा किया। 

वाल्मीकि जी को उनकी साहित्य सेवा के लिए  'कथाक्रम सम्मान', ' न्यू इंडिया बुक प्राइज़', ८ वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन सम्मान' न्यूयार्क, (अमेरिका), डॉ0 अम्बेडकर सम्मान (1993), परिवेश सम्मान (1995), और उत्तर प्रदेश सरकार के साहित्यभूषण पुरस्कार (2008-2009) से सम्मानित भी किया गया। 


इन दिनों वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो के रूप में कार्यरत थे।

17 नवम्बर 2013 को वाल्मीकि जी का निधन हो गया।

   
ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम जुबान पर आते ही हमारे सामने वह परिदृश्य नजर आता है जिसमें उन्होंने हिन्दी क्षेत्र के दलितों और वंचितों को अपनी आवाज प्रदान की। एक लेखक के लेखकीय जीवन की इससे बढ़ कर और सफलता क्या हो सकती है। ‘जूठन’ का नाम जब भी किसी परिप्रेक्ष्य में लिया जाता है हम आँख बंद कर ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम लेते हैं. मेरा तो यह मानना है कि वाल्मीकि जी की यह कृति न केवल एक दलित लेखक की अपितु हिन्दी की कुछ चुनिन्दा आत्मकथाओं में से एक है। अपने जीवन के जिन कटु अनुभवों को उन्होंने साहसपूर्वक और साफगोई से हमारे सामने रखा वह हजारों वर्षों से चली आ रही दलित जीवन की व्यथा कथा और हमारे समाज का कृष्ण पक्ष है। वाल्मीकि जी ने अपनी लेखनी से दलित लेखन को एक नया धार प्रदान किया। इस लिहाज से उनका योगदान युगांतकारी हैअपनी अनुभूतियों को वाल्मीकि जी ने बड़े सादगी और संयत तरीके से रचनाओ में ढाला है इसीलिए यहाँ पर शोरोगुल ढूँढने वालों को निराशा हाथ लगेगी वाल्मीकि जी का हिंदी साहित्य में यह अवदान महत्वपूर्ण है कि उन्होंने अपने लेखन से दलित लेखकों में स्वाभिमान का संचार करते हुए दलित लेखन की धारा को एक नया मोड़ दिया। बिना किसी भटकाव के वे यह काम आजीवन करते रहे।


इलाहाबाद में जब वे एक सेमीनार के सिलसिले में विश्वविद्यालय आये थे तब मेरी उनसे संक्षिप्त मुलाक़ात हुई थी। मैंने अपना परिचय देते हुए उनसे ‘कथा’ के लिए एक कहानी के लिए विनम्र आग्रह किया था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। यह अलग बात है कि वे अपनी व्यस्तताओं की वजह से हमें अपनी कहानी भेज नहीं पाए। 


कहना न होगा कि यह वर्ष हमें ऐसे अनेक घाव दे गया है जो टीस पैदा करते रहेंगे शिवकुमार मिश्र के निधन से आरम्भ हुआ यह सिलसिला निरंतर आगे ही बढ़ता चला गया। इसी क्रम में राजेन्द्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, हरिकृष्ण देवसरे, के. पी. सक्सेना, विजय दान देथा के बाद अब वाल्मीकि जी के निधन ने हमें भौंचक के साथ साथ हताश भी कर दिया है। हम उम्मीद करते हैं कि अब यह कड़ी यहीं पर थम जायेगी। 

वाल्मीकि जी को याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ चुनिन्दा कवितायें जिसमें उस वर्ग का आक्रोश सहज ही देखा जा सकता है जिसका वे प्रतिनिधित्व करते थे और जिसे हमने सदियों से जानवरों से भी न केवल बदतर समझा बल्कि बेशर्मी के साथ पेश भी आए हैं। उनके प्रति हम सबकी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अपनी मानसिकता में बदलाव ला कर अपने दलित भाईयों के साथ एक मनुष्य की तरह पेश आयें और उन्हें वही सम्मान प्रदान करें जो हम खुद दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। 
  
      


ठाकुर का कुआँ

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का ।

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।

कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या ?
गाँव ?
शहर ?
देश ?

(नवम्बर, 1981)


तब तुम क्या करोगे

यदि तुम्हें,
धकेल कर गांव से बाहर कर दिया जाय
पानी तक न लेने दिया जाय कुएं से
दुत्कारा फटकारा जाय चिल-चिलाती दोपहर में
कहा जाय तोड़ने को पत्थर
काम के बदले
दिया जाय खाने को जूठन
तब तुम क्या करोगे?
·          
    •  
यदि तुम्हें,
मरे जानवर को खींच कर
ले जाने के लिए कहा जाय
और
कहा जाय ढोने को
पूरे परिवार का मैला
पहनने को दी जाय उतरन
तब तुम क्या करोगे ?
 
·          
    •  
यदि तुम्हें,
पुस्तकों से दूर रखा जाय
जाने नहीं दिया जाय
विद्या मंदिर की चौखट तक
ढिबरी की मंद रोशनी में
काली पुती दीवारों पर
ईसा की तरह टांग दिया जाय
तब तुम क्या करोगे?
 
·          
    •  

यदि तुम्हें,
रहने को दिया जाय
फूस का कच्चा घर
वक्त-बे-वक्त फूंक कर जिसे
स्वाहा कर दिया जाय
बर्षा की रातों में
घुटने-घुटने पानी में
सोने को कहा जाय
तब तुम क्या करोगे?
 
·          
    •  
यदि तुम्हें,
नदी के तेज बहाव में
उल्टा बहना पड़े
दर्द का दरवाजा खोलकर
भूख से जूझना पड़े
भेजना पड़े नई नवेली दुल्हन को
पहली रात ठाकुर की हवेली
तब तुम क्या करोगे?
 
·          
    •  
यदि तुम्हें,
अपने ही देश में नकार दिया जाय
मानकर बंधुआ
छीन लिए जायं अधिकार सभी
जला दी जाय समूची सभ्यता तुम्हारी
नोच-नोच कर
फेंक दिए जाएं
गौरव में इतिहास के पृष्ठ तुम्हारे
तब तुम क्या करोगे?
 
·          
    •  
यदि तुम्हें,
वोट डालने से रोका जाय
कर दिया जाय लहू-लुहान
पीट-पीट कर लोकतंत्र के नाम पर
याद दिलाया जाय जाति का ओछापन
दुर्गन्ध भरा हो जीवन
हाथ में पड़ गये हों छाले
फिर भी कहा जाय
खोदो नदी नाले
तब तुम क्या करोगे?
 
·          
    •  
यदि तुम्हें ,
सरे आम बेइज्जत किया जाय
छीन ली जाय संपत्ति तुम्हारी
धर्म के नाम पर
कहा जाय बनने को देवदासी
तुम्हारी स्त्रियों को
कराई जाय उनसे वेश्यावृत्ति
तब तुम क्या करोगे?
 
·          
    •  
साफ सुथरा रंग तुम्हारा
झुलस कर सांवला पड़ जायेगा
खो जायेगा आंखों का सलोनापन
तब तुम कागज पर
नहीं लिख पाओगे
सत्यम, शिवम, सुन्दरम!
देवी-देवताओं के वंशज तुम
हो जाओगे लूले लंगड़े और अपाहिज
जो जीना पड़ जाय युगों-युगों तक
मेरी तरह?
तब तुम क्या करोगे?
 

शंबूक का कटा सिर


जब भी मैंने
किसी घने वृक्ष की छाँव में बैठकर
घड़ी भर सुस्‍ता लेना चाहा
मेरे कानों में
भयानक चीत्‍कारें गूँजने लगी
जैसे हर एक टहनी पर
लटकी हो लाखों लाशें
ज़मीन पर पड़ा हो शंबूक का कटा सिर ।

मैं उठकर भागना चाहता हूँ
शंबूक का सिर मेरा रास्‍ता रोक लेता है
चीख़-चीख़कर कहता है--
युगों-युगों से पेड़ पर लटका हूँ
बार-बार राम ने मेरी हत्‍या की है ।

मेरे शब्‍द पंख कटे पक्षी की तरह
तड़प उठते हैं--
तुम अकेले नहीं मारे गए तपस्‍वी
यहाँ तो हर रोज़ मारे जाते हैं असंख्‍य लोग;
जिनकी सिसकियाँ घुटकर रह जाती है
अँधेरे की काली पर्तों में

यहाँ गली-गली में
राम है
शंबूक है
द्रोण है
एकलव्‍य है
फिर भी सब ख़ामोश हैं
कहीं कुछ है
जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को
बाहर नहीं आने देता
कर देता है
रक्‍त से सनी उँगलियों को महिमा-मंडित।

शंबूक ! तुम्‍हारा रक्‍त ज़मीन के अंदर
समा गया है जो किसी भी दिन
फूटकर बाहर आएगा
ज्‍वालामुखी बन कर!

(सितंबर 1988)


युग-चेतना

मैंने दुख झेले
सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्‍पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

इतिहास यहाँ नकली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ ।

कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी संपत्ति पर ।

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूँ
प्रताडित हूँ ।

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

(अक्‍टूबर 1988)


वह मैं हूँ

वह मैं हूँ
मुँह-अँधेरे बुहारी गई सड़क में
जो चमक है--
वह मैं हूँ !

कुशल हाथों से तराशे
खिलौने देखकर
पुलकित होते हैं बच्चे
बच्चे के चेहरे पर जो पुलक है--
वह मैं हूँ !

खेत की माटी में
उगते अन्न की ख़ुशबू--
मैं हूँ !

जिसे झाड़-पोंछकर भेज देते हैं वे
उनके घरों में
भूलकर अपने घरों के
भूख से बिलबिलाते बच्चों का रुदन
रुदन में जो भूख है--
वह मैं हूँ !

प्रताड़ित-शोषित जनों के
क्षत-विक्षत चेहरों पर
घावों की तरह चिपके हैं
सन्ताप भरे दिन
उन चेहरों में शेष बची हैं
जो उम्मीदें अभी --
वह मैं हूँ !

पेड़ों में नदी का जल
धूप-हवा में
श्रमिक-शोणित गंध
बाढ़ में बह गई झोंपड़ी का दर्द
सूखे में दरकती धरती का बाँझपन
वह मैं हूँ

सिर्फ मैं हूँ !!!
 
चोट

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है
.
आग में तप कर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में ।

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता ।

(फ़रवरी, 1985)


शब्द झूठ नहीं बोलते

मेरा विश्वास है
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी
शब्द ज़िन्दा रहेंगे
समय की सीढ़ियों पर
अपने पाँव के निशान
गोदने के लिए
बदल देने के लिए
हवाओं का रुख

स्वर्णमंडित सिंहासन पर
आध्यात्मिक प्रवचनों में
या फिर संसद के गलियारॉं में
अख़बारों की बदलती प्रतिबद्धताओं में
टीवी और सिनेमा की कल्पनाओं में
कसमसाता शब्द
जब आएगा बाहर
मुक्त होकर
सुनाई पड़ेंगे असंख्य धमाके
विखण्डित होकर
फिर फिर जुड़ने के

बंद कमरों में भले ही
न सुनाई पड़े
शब्द के चारों ओर कसी
साँकल के टूटने की आवाज़

खेत खलिहान
कच्चे घर
बाढ़ में डूबती फ़सलें
आत्महत्या करते किसान
उत्पीडित जनों की सिसकियों में
फिर भी शब्द की चीख़
गूँजती रहती है हर वक़्त

गहरी नींद में सोए
अलसाए भी जाग जाते हैं
जब शब्द आग बनकर
उतरता है उनकी साँसों में

मौज़-मस्ती में डूबे लोग
सहम जाते हैं

थके-हारे मज़दूरों की फुसफुसाहटों में
बामन की दुत्कार सहते
दो घूँट पानी के लिए मिन्नतें करते
पीड़ितजनों की आह में
ज़िन्दा रहते हैं शब्द
जो कभी नहीं मरते
खड़े रहते हैं
सच को सच कहने के लिए

क्योंकि,
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते !

4 मई,2011 


जूता

हिकारत भरे शब्द चुभते हैं
त्वचा में
सुई की नोक की तरह
जब वे कहते हैं--
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
जल्दी-जल्दी

जबकि मेरे लिए क़दम बढ़ाना
पहाड़ पर चढ़ने जैसा है
मेरे पाँव ज़ख़्मी हैं
और जूता काट रहा है

वे फिर कहते हैं--
साथ चलना है तो क़दम बढ़ाओ
हमारे पीछे-पीछे आओ

मैं कहता हूँ--
पाँव में तकलीफ़ है
चलना दुश्वार है मेरे लिए
जूता काट रहा है

वे चीख़ते हैं--
भाड़ में जाओ
तुम और तुम्हारा जूता
मैं कहना चाहता हूँ --
मैं भाड़ में नहीं
नरक में जीता हूँ
पल-पल मरता हूँ
जूता मुझे काटता है
उसका दर्द भी मैं ही जानता हूँ

तुम्हारी महानता मेरे लिए स्याह अँधेरा है ।

वे चमचमाती नक्काशीदार छड़ी से
धकिया कर मुझे
आगे बढ़ जाते हैं

उनका रौद्र रूप-
सौम्यता के आवरण में लिपट कर
दार्शनिक मुद्रा में बदल जाता है
और, मेरा आर्तनाद
सिसकियों में

मैं जानता हूँ
मेरा दर्द तुम्हारे लिए चींटी जैसा
और तुम्हारा अपना दर्द पहाड़ जैसा

इसीलिए, मेरे और तुम्हारे बीच
एक फ़ासला है
जिसे लम्बाई में नहीं
समय से नापा जाएगा।

टिप्पणियाँ

  1. वाल्मीकि जी का रचना संसार अमर रहे विनम्र श्रद्धांजलि |
    हिंदी के तमाम ब्लॉग हैं लेकिन आपकी सक्रियता अद्भुत है |बधाई और शुभकामनाएँ |

    जवाब देंहटाएं
  2. santosh bhai aap behad mehnat aur tatprta ke sath blog pr samagri prstut krte hain , valmiki ji pr itni achi samagri ke liye dhanywad .yeh samagri aisi hai ki jisse pathk ko valmiki ji ke vistrit rachna sansar ki ek sakshipt magar pramanik jhalak mil skti hai .valmiki ji ki smriti ko mera naman .

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