सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का आलेख 'नेहरू जी से दो बातें'

 

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 



मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है 'साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि राजनीति के आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है'। लेकिन राजनीतिज्ञों के लिए इस सच्चाई को स्वीकार कर पाना कठिन होता है। आजकल तो राजनीति उलटी धारा बहाने में लगी हुई है। साहित्यकारों को भी राजनीतिज्ञों के पीछे पीछे चलने में अब कोई गुरेज नहीं। पुरस्कार, पद, प्रतिष्ठा पाने की हसरत जो न करा दे। बहरहाल सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला अपने अक्खड़पन के लिए विख्यात रहे हैं। एक बार ट्रेन में ही उनकी मुलाकात उस समय के ख्यात लोकप्रिय नेता जवाहर लाल नेहरू से हुई। हिन्दी भाषा और साहित्य पर बातचीत के क्रम में निराला जी ने पण्डित नेहरू को काशी में दिए गए उनके इस बयान की याद दिलाई कि 'हिन्दी में दरबारी ढंग की कविता प्रचलित हैं।' और बेबाकी से इसका प्रतिवाद करते हुए कहा, "पण्डित जी, यह मामूली अफ़सोस की बात नही कि आप-जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्य भाषा हिन्दी से प्रायः अनभिज्ञ है। किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् 1930 के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र गाते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गाँधी के लिए कहा जाता है कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। रवीन्द्र नाथ ठाकुर बंगला का अनुवाद अंग्रेजी में देते हैं। हमारे यहाँ आपकी तरह के व्यक्ति होते हुए भी साहित्य में नहीं हैं। हिन्दी, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अब पद्य-साहित्य में बड़ी-से-बड़ी जबानों का मुकाबिला करती है- अपने ब्रज-भाषा-साहित्य में तो वह लासानी है। बनारस के जिन साहित्यिकों की मण्डली में आपने दरबारी कवियों का उल्लेख किया था, उनमे से तीन को मैं जानता हूँ। तीनों अपने-अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं। प्रसाद जी काव्य और नाटक साहित्य के, प्रेमचन्द जी कथा-साहित्य के और रामचन्द्र जी शुक्ल आलोचना-साहित्य के। आप ही समझिए कि इनके बीच आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है।" नेहरू में सुनने का धैर्य था। लिखने पढ़ने के संस्कार के चलते ही उनके बारे में यह कहा जाता है कि अगर वे राजनीतिज्ञ न होते तो एक बड़े साहित्यकार होते। 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया', 'ग्लिंपसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' और 'ऑटोबायोग्राफी' जैसी उत्कृष्ट किताबें उनकी रचनात्मकता की गवाही देती हैं। आज नेहरू जी पर तरह तरह के आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। लेकिन इससे उनके कद पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का आलेख 'नेहरू जी से दो बातें'। इस आलेख का रचना काल 1939 ई. का है जो उनकी पुस्तक 'प्रबन्ध-प्रतिमा' में संकलित है। आलेख की प्रस्तुति हमारे समय के उम्दा इतिहासकार पंकज मोहन की है।



'नेहरू जी से दो बातें'


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 

प्रस्तुति : पंकज मोहन


देहरा-एक्सप्रेस से रवाना हुआ, लखनऊ-स्टेशन से। इण्टर का टिकट। जाड़े के दिन। पंजाबी कुरते पर पूरी बांह वाली रुई की बण्डी पहने हुए। जगह की तलाश में डब्बे देख रहा था कि एक साथ लखनऊ के परिचित बहुत से एम. एल. ए. देख पडे। मैंने सोचा, कोई आ-जा रहे होंगे। ज्यादा ध्यान नहीं दिया। एक कमरा खाली देख कर उसमें बैठा। गाड़ी चल दी। बाराबंकी पार कर फैजाबाद की हद मे गाड़ी पहुँची तो किसी स्टेशन पर तिरंगा झण्डा लिये झुण्ड-के-झुण्ड गँवैये लोग "महात्मा गाँधी की जय, जवाहर लाल नेहरू की जय" बोलते हुए, एक खास डब्बे की तरफ़ फूल फेंकते, माला पहनाते हुए नजर आये। मैं समझा, कोई बड़े नेता इस गाड़ी से जा रहे है। फैजाबाद स्टेशन पर भी ऐसी ही भीड़ थी। उतर कर मैने देखा, एक ड्योढे दर्जे के दरवाजे पर पण्डित जवाहर लाल नेहरू खड़े हुए हे और स्टेशन और गाड़ी की छत पर आते-जाते हुए बन्दरों को देख रहे हैं। गाड़ी की छत पर बैठे बन्दरों के बारे में उन्होने पूछा, "क्या ये इसी तरह यहाँ से अयोध्या तक जाते है?"


बन्दरों वाली बात का व्यंग्य मुझे बडा अच्छा लगा। देखा, जवाहर लाल जी ड्योढ़े दर्जे में ही थे। मैंने जवाहर लाल जी से कभी बातचीत नहीं की। उनके ऐसे प्रसंग हिन्दी-साहित्य के बारे मे बहुत से उठे है जिनके लिए अखबारों में लिखा-पढी या मिल कर उनसे बातचीत की जाय। लेकिन चुप रह कर जो कुछ लिखते बने, लिखना ज्यादा अच्छा लगा। पर इस वक्त लोभ न सँभाला गया। मैं उनके डब्बे के भीतर चला। पण्डित जी जरा बगल हो गये। फिर उसी तरह दरवाजे पर खड़े हो गये। गाड़ी छूटने तक स्वागत के लिए सम्मान में खड़े रह‌ने के इरादे से, उन्हे विदा करने के लिए।


भीतर डब्बे में आर. एस. पण्डित महाशय थे, चढ़े फूलों से खेलते हुए। एक और सज्जन गम्भीर भाव से बैठे थे। मुमकिन है, पण्डित जी के मित्र रहे हों। मैं एक बर्थ पर एक बगल बैठ गया। वह पूरी खाली थी। गाड़ी छूटने पर नमस्कार करते हुए लोगों को नमस्कार करते हुए विदा कर पण्डित जवाहर लाल जी उसी बर्थ पर आ कर बैठे। एक मिनट तक वह मुझे देखते रहे। मैं चुपचाप बैठा रहा। मेरे सिर पर एक टोप था, जिसे मंकी-कैंप कहते हैं। बचपन में ऐसे पहनावे से मुझे भी हँसी आती थी। मुझे मोहम्मद साहब की बात याद आयी, "पहाड़ मेरे पास नहीं आता तो मैं पहाड़ के पास जाऊँगा।"


पण्डित जी की तरफ मुँह कर के मैने कहा, "आपसे कुछ बातें करने की गरज से अपनी जगह से यहाँ आया हुआ हूँ।"


पण्डित जी ने सिर्फ मेरी तरफ देखा। मुझे मालूम दिया, निगाह में प्रश्न है "तुम कौन हो?" मालूम कर, अखबारों में और हिन्दी के इतिहासों में आयी तारीफ का उल्लेख नाम के साथ करते हुए मैंने कहा, "यह सिर्फ थोड़ी-सी जानकारी के लिए कह रहा हूँ। प्रसिद्धि के विचार से आप खुद समझेंगे कि मैं जानता हूँ कि मैं किनसे बातें कर रहा हूँ।"


पण्डित जी मेरी बात से जैसे बहुत खुश हुए। मैने कहा, "इधर हिन्दुस्तानी के सम्बन्ध में आपके विचार देख कर आपसे बातें करने की इच्छा हुई। आप उच्च-शिक्षित है। हर तरह की शिक्षा की परिणति उच्चता है, न कि साधारणता। आपका देशव्यापी और विश्वव्यापी बड़प्पन भी उच्चता ही है। जबान जब अपने भावों के व्यक्तीकरण में समर्थ-से-समर्थ होती चलती है, तब वह साधारण-से-साधारण हो या न हो, उच्च-से-उच्च जरूर होती है। भाषा-जन्य बहुत-सी कठिनाइयाँ सामने आती है जो हिन्दुस्तानी जबान को मद्देनजर रखते हुए दूर नहीं की जा सकतीं। आदमी के जीवन में साधारण-सी बातें भी हैं, उनके साथ सूक्ष्मतम, साधारण जनों के मस्तिष्क से दूर असाधारण तत्त्व भी हैं। भाषा जब साहित्य का रूप पाती है, तब वह दोनों को लिये हुए चलती है। प्रायः अधिकांश जनों को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी जुबान का प्रचार करें, यह और बात है, लेकिन भाषागत और भावगत चारुता के उदाहरण उपस्थित करते हुए, उनका हिन्दुस्तानी-रूप कैसा होगा, अगर आपसे पूछा जाय, तो क्या आप बता सकेंगे?"


पण्डित जी देखते रहे।


मैंने अपना भाव और सीधे शब्दों में स्पष्ट किया "मैं हिन्दी के कुछ वाक्य आपको दूंगा जिनका अनुवाद आप हिन्दुस्तानी जबान में कर देंगे, मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। इस वक्त आपको समय नहीं। पण्डित जी युक्त प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन का सभापतित्व करने जा रहे थे, अगला स्टेशन अयोध्या-स्टेशन था। अगर इलाहाबाद में आप मुझे आज्ञा करें तो किसी वक्त मिल कर मैं आपसे उन पंक्तियों के अनुवाद के लिए निवेदन करूँ।"


जवाहर लाल जी गम्भीर सारल्य से मेरी ओर देखने लगे। उनका बोलने का इरादा नही समझ कर मैंने सोचा, दूसरा प्रसंग छेड़ूं। कहा, "जिस समाज में हमारा जनसमूह है, वह पुराना समाज है, पुरानी रूढ़ियों का गुलाम। नये विचार, नये परिवर्तन, नया उत्कर्ष जब तक नही होगा, अच्छे नाटक और उपन्यास लिखे नही जा सकेंगे।"


"क्यों-क्यों?" अपनी स्वाभाविक तेजी से पण्डित जी ने कहा, "रूस-रूस में कैसे हुआ?"


मैं सोचने लगा, पण्डित जी के मुताल्लिक मेरी पहली धारणा सही है। मुझे विचार करता देख पण्डित जी ने सोचा, मै शक्की हूँ, उनके निश्चय पर। बोले, 'आज का रूस नहीं, पहले का।"


मैंने कहा, "जी हाँ, मैं समझा, आपका मतलब पुश्किन से टाल्सटाय तक है - प्राग्रेसिव रूस से।"


पण्डित जी ने कहा, "हाँ।"


मैंने पण्डित जी को देखते हुए कहा, "लेकिन क्या हिन्दुस्तान की दशा वैसी ही समझते हैं? संस्कृति, हिन्दू-मुसलिम मनोवृत्तियाँ- क्या वैसे ही वर्ग-युद्ध से दुरुस्त होगी?"


जवाहर लाल नेहरू 



आर. एस. पण्डित मेरी बात से आगे बढ़े। मैंने कहा, "यहाँ के ऐतिहासिक विवर्तन देखने पर मालूम देता है, यहाँ के मन की दूसरी परिस्थिति है। यहाँ सुधार ज्ञान से हुआ है। एक हिन्दू-मुसलिम समस्या को ही लीजिए। मै समझता हैं, इसका हल हिन्दी के नये साहित्य में जितना सही पाया जाएगा, राजनीतिक साहित्य में नहीं। इसका कारण है, राजनीति प्रभावित है पश्चिम मे; साहित्य मौलिकता मे पनपा है। ब्रह्म..." 


पण्डित जी, "ब्रह्म क्या?"


"ब्रह्म शब्द से नफरत की कोई बात नहीं हो सकती। ब्रह्म का मतलब सिर्फ बड़ा है, जिससे बड़ा और नही। किसी को ब्रह्म देखने के अर्थ है, उसके भौतिक रूप में ही नहीं- सूक्ष्मतम आध्यात्मिक, दार्शनिक, बृहत्तर रूप में भी देखने वाले की दृष्टि प्ररित है। पण्डित जी, मै अगर आपको ब्रह्म देखूं तो आप मेरी दृष्टि मे बड़े होगे या बहत्तर दफा नेशनल कांग्रेस प्रिज़ाइड करने पर?"


पण्डित जी चुप। आर. एस. पण्डित गौर से मुझे देखते हुए।


मैं कहता गया, "यही दृष्टि जरूरी है। यही दृष्टि पतित का सार्वभौम सुधार कर सकती है। गुलाम की बेड़ियां काट सकती है। हिन्दू-मुस्लिम को मिला सकती है - यह निगाह आज तक की तमाम रूढियों से जुदा है। इस निगाह में भिन्न मतों का लगा जंग नहीं- जो जंग इधर लगा है, जो मत इधर चले हैं; यह निगाह पूरब और पच्छिम को अच्छी तरह पहचानती है; यह निगाह ब्राह्मण और शूद्र नहीं मानती।"


पण्डित जी केवल देखते रहे। मुझे एकाएक उनकी आत्मकथा की याद आयी। साथ ही उसका वह अंश जिसको ले कर कुछ साल पहले हिन्दा में लिखा-पढ़ी हो चुकी थी यानि प्रसाद जी, प्रेमचन्द जी, शुक्ल जी वगैरह काशी के सुप्रसिद्ध साहित्यिकों ने काशी मे पण्डित जी को बुला कर सम्मानित किया था। उस अवसर पर पण्डित जी न कहा था, हिन्दी में दरबारी ढंग की कविता प्रचलित हैं। मैंने कहा, "पण्डित जी, यह मामूली अफ़सोस की बात नही कि आप-जैसे सुप्रसिद्ध व्यक्ति इस प्रान्त में होते हुए भी इस प्रान्त की मुख्य भाषा हिन्दी से प्रायः अनभिज्ञ है। किसी दूसरे प्रान्त का राजनीतिक व्यक्ति ऐसा नहीं। सन् 1930 के लगभग श्री सुभाष बोस ने लाहौर के विद्यार्थियों के बीच भाषण करते हुए कहा था कि बंगाल के कवि पंजाब के वीरों के चरित्र गाते हैं। उन्हें अपनी भाषा का ज्ञान और गर्व है। महात्मा गाँधी के लिए कहा जाता है कि गुजराती को उन्होंने नया जीवन दिया है। रवीन्द्र नाथ ठाकुर बंगला का अनुवाद अंग्रेजी में देते हैं। हमारे यहाँ आपकी तरह के व्यक्ति होते हुए भी साहित्य में नहीं हैं। हिन्दी, मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अब पद्य-साहित्य में बड़ी-से-बड़ी जबानों का मुकाबिला करती है- अपने ब्रज-भाषा-साहित्य में तो वह लासानी है। बनारस के जिन साहित्यिकों की मण्डली में आपने दरबारी कवियों का उल्लेख किया था, उनमे से तीन को मैं जानता हूँ। तीनों अपने-अपने विषय के हिन्दी के प्रवर्तक हैं। प्रसाद जी काव्य और नाटक साहित्य के, प्रेमचन्द जी कथा-साहित्य के और रामचन्द्र जी शुक्ल आलोचना-साहित्य के। आप ही समझिए कि इनके बीच आपका दरबारी कवियों का उल्लेख कितना हास्यास्पद हो सकता है। इन्होंने आपके सम्मान के लिए आपको बुलाया था, इसलिए आपके विरोध में कुछ नहीं कहा। आप जिस दरबारीपने का उल्लेख कर चुके हैं, वह हिन्दी-साहित्य से बीसियों साल से दूर है। खड़ी बोली की प्रतिष्ठा के बाद जो काव्य मैदान में पैर रखता और आगे बढता है, उसके साथ दरबानीपन का कोई सम्बन्ध नहीं, आज बंगला को छोड कर शायद ही दूसरी भाषा खड़ी बोली के उस काव्य से हाथ मिला सके। उसके प्रसार, कल्पना, उदारता आदि के कारण उसमे अंग्रेजी के छन्द तो हैं ही, अंग्रेजी का 'वर्स-लिव्र' (मुक्तछन्द) तक मौजूद है। उर्दू ये चीजें अभी दे नहीं सकती, जब भी उसे इकबाल पैदा करने का गर्व है। अगर हिन्दी की सच्ची जानकारी, उसकी कमजोरी और शहजोरी दोनों की आपको होती, अगर आप भी हिन्दी के साहित्यिकों में एक शुमार किये जाते तो उस भाषा को कितना बड़ा बल प्राप्त होता। एक तो हिन्दी के साहित्यिक साधारण श्रेणी के लोग है एक हाथ से वार झेलते, दूसरे से लिखते हुए; दूसरे आप जैसे बड़े-बड़े व्यक्तियों को मैदान से वे मुखालिफत करते देखते है। अगर आप या आपकी तरह के व्यक्ति एक भिन्न दृष्टिकोण ले कर दूसरे तौर-तरीके अख्तियार करते हुए आवाज उठायें तो स्वभावत. बीसियों साल की मारें सह कर एक चीज तैयार करने वाले आदमी जनता को साथ लेने की जगह उसके हाथ से छूट जाते हैं। जनता समझती है कि जनता की तरफदारी करने वाले आप उसके सच्चे साहित्यिक है और बीस साल से साहित्य के मैदान में आया हुआ साहित्यिक उसका गैर। हमने जब काम शुरू किया था. हमारी मुखालिफ़त हुई थी; अब जब हम कुछ प्रतिष्ठित हुए, अपने विरोधियों से लड़ते, साहित्य की सृष्टि करते हुए, तब किसी मानी में हम आपको मुखालिफत करते देखते हैं। यह कम दुर्भाग्य की बात नहीं, साहित्य और साहित्यिक के लिए। हमने जो नया पौधा लगाया, उसे हवा-पानी, जाड़े और ओले से बचाया, वह अब, कलियाँ लेते वक्त, ऊंटों और हाथियों के झुण्ड से घिर रहा है। जनता की जबान जो आज जनता की साल बाद भी शायद न रहेगी जो जबान कहलाती है यह हजार साल पहले जनता की जुबान न थी।  आज भी प्रान्त-प्रान्त, यहाँ तक कि जिले-जिले के हिन्दी-भाषा-भाषी की जबान भी जुदा-जुदा है। अगर कोई नयी जबान तय्यार की जायगी और उस पर चोट पड़ती रहेगी तो खुद-ब-खुद इस तय्यार जबान को धक्का पहुँचेगा। 


यह तो बताइए, जहाँ सुभाष बाबू, अगर मैं भूलता नहीं, अपने सभापति के अभिभाषण मे शरत चन्द्र के निधन का जिक्र करते है, वहाँ क्या वजह है, जो आपकी जुबान पर प्रसाद का नाम नहीं आता- मैं समझता हूँ, आपसे छोटे नेता भी सुभाष बाबू के जोड़ के शब्दों मे, कांग्रेस में प्रसाद जी पर शोक-प्रस्ताव पास नही कराते। क्या आप जानते है कि हिन्दी के महत्व की दृष्टि में प्रसाद कितने महान है ?"


जवाहर लाल एकटक मुझे देखते हुए।


मुझे प्रेमचन्द जी की याद आयी। मैंने कहा, "प्रेमचन्द जी पर भी वैसा प्रस्ताव पास नहीं हुआ जैसा शरत चन्द्र पर।"


पण्डित जवाहर लाल जी ने आग्रहपूर्वक कहा, "नहीं, जहाँ तक मुझे स्मरण है, प्रेमचन्द जी पर तो एक शोक प्रस्ताव पास किया गया था।"


मैंने कहा, "जी हाँ, यह मैं जानता हूँ, लेकिन उसकी वैसी महत्ता नहीं जैसी शरत चन्द्र वाले की है।"


इसी समय अयोध्या-स्टेशन आ गया। मैंने कहा, "पण्डित जी, अगर मौका मिला तो आपसे मिल कर फिर साहित्यिक प्रश्न निवेदित करूँगा।"


मैं उठा, पण्डित जवाहर लाल कुछ ताअज्जुब से जैसे मेरा आकार-प्रकार देखने लगे, फिर जैसे कुछ सोचने लगे। मैने कहा, "पण्डित जी!" आवाज गम्भीर, भ्रम समझने वाले के लिए कुछ हेकड़ी-सी लिये हुए। जवाहर लाल ने दृप्त हो कर देखा। मेरी निगाह आर. एस. पण्डित की तरफ थी। उन्होने निगाह उठायी। मैं नमस्कार कर, दरवाजा खोल, बाहर निकल आया।



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