शर्मिला जालान का संस्मरण 'गगन गिल : आत्मबल की आभा'
गगन गिल |
वर्ष 2024 का हिन्दी के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार चर्चित कवयित्री गगन गिल को उनके कविता संग्रह 'मैं जब तक आयी बाहर' के लिए प्रदान किया गया है। गगन गिल की कविताओं में वह स्त्री मन मिलता है जो स्वयं ही अपने लिए एक अनुशासन बना लेता है। यह अनुशासन उस दु:खबोध से निर्मित होता है, जो स्त्री जीवन की कथा व्यथा ही रही है। उनकी कविताओं में उदासी की एक परत दिखाई पड़ती है जो उनकी कविता की मुख्य आवाज बन जाती है। इस रूप में वे महादेवी वर्मा की परम्परा को आगे बढ़ाती नजर आती हैं। गगन गिल के अब तक पांच कविता संग्रह- 'एक दिन लौटेगी लड़की' (1989), 'अँधेरे में बुद्ध' (1996), 'यह आकांक्षा समय नहीं' (1998), 'थपक थपक दिल थपक थपक' (2003), 'मैं जब तक आयी बाहर' (2018) प्रकाशित हो चुके हैं ।उनकी चार गद्य पुस्तकें भी हैं - 'दिल्ली में उनींदे' (2000), 'अवाक्' (2008), 'देह की मुँडेर पर' (2018) और 'इत्यादि'। कथाकार और उपन्यासकार शर्मिला जालान ने बड़ी आत्मीयता से गगन गिल को अपने एक संस्मरण में याद किया है। पहली बार की तरफ से गगन जी को अकादमी पुरस्कार की बधाई एवम शुभकामनाएं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शर्मिला जालान का संस्मरण 'गगन गिल : आत्मबल की आभा'।
'गगन गिल : आत्मबल की आभा'
शर्मिला जालान
सुप्रसिद्ध कवि, गद्यकार गगन गिल से मेरी पहली संक्षिप्त सी मुलाक़ात शायद वर्ष 2012 में कोलकाता में, साठ के दशक के कथाकार अशोक सेकसरिया के निवास 16, लार्ड सिन्हा रोड में हुई। तब जब प्रयाग शुक्ल रामकुमार जी के रेखांकनओं की प्रदर्शनी (आकृति आर्ट गैलरी, कोलकाता) के अवसर पर कोलकाता आए थे। प्रदर्शनी प्रयाग शुक्ल ने क्यूरेट की थी और गगन गिल भी आयी थीं।
उस दिन उस मुलाक़ात में तीन पीढ़ी के लोग एक बैठक में थे। अशोक सेकसरिया, प्रयाग शुक्ल, गगन गिल, अलका सरावगी और मैं। पर एक व्यक्ति और हमारे बीच बैठे हुए थे। वे थे निर्मल वर्मा। अशोक जी के कमरे में गगन जी के प्रवेश करते ही यह बात तुरंत मन में आई कि वे अप्रतिम लेखक निर्मल वर्मा की जीवनसंगिनी हैं।
निर्मल जी के जरिए गगन जी अशोक जी के बारे में जानती होंगी और इसी संबंध सूत्र से बंधी वे मिलने आई होंगी, यह मैंने उन्हें देखते हुए सोचा। अशोक जी की निर्मल जी से भेंट साठ और सत्तर के दशक में दिल्ली में हो चुकी थी और उनकी भेंट एक अंतरंग परिचय और संबंध का रूप ले चुकी थी।
अशोक सेकसरिया सीताराम सेकसरिया के पुत्र रहे हैं। सीताराम सेकसरिया जिनका जीवन महात्मा गांधी, रवींद्र नाथ ठाकुर, सुभाष चंद्र बोस, काका कालेलकर, मैथिली शरण गुप्त, महादेवी वर्मा, कृष्ण दास और भागीरथ कानोरिया जैसे व्यक्तियों और रचनाकारों से जुड़ा था। अशोक सेकसरिया ने पिता की आज़ादी के लड़ाई के दिनों की डायरियों का ‘एक कार्यकर्ता की डायरी’ [ज्ञानपीठ से प्रकाशित] शीर्षक से दो खंडों में संपादन किया है। अशोक जी गांधी तत्व वाले व्यक्ति थे।
गगन जी ने कोलकाता में बहुतेरे लेखकों, कवियों से मिलने का मन बनाया होगा। उस बैठक में गगन जी के चेहरे पर कई पुरानी बातें थीं और हमें देखती हुईं और न देखती हुईं, हमसे और अपने से बोलती हुई निर्मल वर्मा से जुड़े कुछ संस्मरण सुनाती रहीं। अपने कठिन दिनों की कुछ बातें अलका सरावगी से उनके घर पर हुई मुलाक़ात में उन्होंने साझा कीं। निर्मल जी की बीमारी में जिस साहस से वे लगातार खड़ी रहीं और कठिन-कठोर दिनों और परिस्थितियों का मुकाबला किया, वह उनकी जिजीविषा का और इस बात का प्रमाण था कि जीवन की अनेक गुत्थियों को सुलझाने का हौसला उनमें है। वे एक साथ श्मशान और जीवन दोनों को साझा कर रही थीं।
उनके व्यक्तित्व में कोमल और कठोर का विरल मेल नज़र आया। उनको उस दिन सुन कर उनके धीर-साहसी और हिम्मती होने को देखा और समझा। अशोक जी और अलका जी से हुए उस संवाद में उनके जीवन के कई मोती निकलते रहे। उम्र में वे ज़्यादा बड़ी नहीं लग रही थीं पर चेहरे पर गुज़री हुई उम्र के असंख्य अनुभव थे।
गगन गिल उस यात्रा में टैगोर साहित्य के अप्रतिम विद्वान शंख घोष से मिलने वाली थीं, जो रवींद्र साहित्य के गहरे अध्येता रहे थे और रवींद्र नाथ के गीत और नाटक आदि पर उनकी पुस्तकें भी हैं। शंख घोष से मिलने के बाद उन्होंने उन पर अनूठा संस्मरण लिखा, जो ‘इत्यादि’ पुस्तक में संकलित है। शंख घोष से मिलने से पहले गगन जी ने उनकी हिंदी अनुवाद वाली कविताएँ फिर से पढ़ीं, जिसका अनुवाद बरसों पहले प्रयाग शुक्ल ने भारत भवन की किसी श्रृंखला के लिए किया था।
उस पुस्तक की भूमिका ने गगन जी को चकित किया और उन्हें लगा ही नहीं कि उन्होंने तीस वर्ष पहले वह लिखा होगा। वे कहती हैं – ‘एक कवि का गद्य, गिने-चुने शब्द, सधा तना वाक्य-विन्यास दूर से ही पहचान में आ जाता है। क्या शब्द ही मौन को नहीं रचते?’ सुबह से शंख घोष के इस वाक्य पर गगन जी अटकी हुई हैं। गगन जी यह भी बताती हैं कि उन्होंने शंख घोष से पूछा था, क्या गुरुदेव प्लैनचैट करते थे? रवींद्र नाथ की ‘परलोक चर्चा’ पुस्तक की भूमिका से पता चला कि टैगोर ने अपने जीवन में कोई दो-ढाई महीने प्लैनचैट किया था। अड़सठ, उनसठ वर्ष की आयु में। वर्ष 1929 में।
वह शाम याद आती है जब वे रामकुमार की चित्र प्रदर्शनी में थीं। आकृति आर्ट गैलरी में साड़ी के परिधान में उनके गरिमापूर्ण व्यक्तित्व को देख कर लगा, कुलीन संभ्रांत घराने की हैं। क्या शान है! रामकुमार की पेंटिंग पर उनके वक्तव्य को सुन कर ऐसा लगा कि कला को समझने की उनकी अपनी गहरी दृष्टि है।
जब रज़ा न्यास के कार्यक्रम ‘युवा’ में सन दो हज़ार अठारह में शिरकत करने मेरा दिल्ली जाना हुआ, तब उनसे मिलने उनके घर गई थी। उनसे मिल कर लगा, पिछले कई-कई सालों से गहमागहमी वाली दिल्ली को छोड़ एक एकांतिक जीवन जीने वाली स्थिर और धीर गगन गिल के व्यक्तित्व में आत्मीय आभा है। वे अति संवेदनशील हैं और स्वभाव में छलछलाता हुआ प्रेम और गरिमा है। उनके अंदर उनका अपना एक अर्जित आत्म-बल है। और इस आत्मबल का दीया उनके चेहरे पर जलता रहता है और आलोक बिखेरता रहता है। उनके पास बैठते ही ऐसा लगा मानो उन्हें वर्षों से जानती हूँ। उनसे दूसरी बार साक्षात मिलना और उनके साथ कुछ देर रहने का अनुभव गहरा और घना है। इस मुलाक़ात में गगन जी धीरे-धीरे वे बातें कर रही थीं जिनके संदर्भ और प्रसंग मैं समझ सकूं। उनके अंदर गहरी सूक्ष्म दृष्टि है।
उनके घर में, उनके साथ कुछ देर उनकी बगीची में बैठना हुआ। वहाँ पर फूल-पौधों और प्रकृति से उनके लगाव को देख कर बहुत कुछ सीखा और समझा। मैं कम बोल रही थी। उनसे किस बात पर चर्चा करूं यह संकोच मेरे मन में बना हुआ था।
अपने लिखने-पढ़ने की रुचि के बारे में उन्होंने कहा कि वे फ़िल्में बहुत देखती हैं। फिर कहा, बहुत पढ़ने से ज़्यादा जो पढ़ा उसे गुनना ज़रूरी है।
उस मुलाक़ात में मुझे यह समझ में आ गया कि उन्होंने बहुत यात्राएँ की हैं — देश-विदेश की। उनसे विविध अंचलों और शहरों पर बातें करने का अलग आनंद होता, लेकिन मेरी यात्राएँ बहुत कम हैं इसलिए मैं मौन ही रही। गगन जी बोल रही थीं और जब कभी चुप्पी के वक्फ़े आते, तब भी ऐसा लगता कि संवाद चल रहा है।
बाद के वर्षों में उन्होंने अपने तिब्बती गुरु रिनपोछे के बारे में कई बातें साझा कीं। उनके टॉक के कई लिंक भेजे। ‘इत्यादि’ पुस्तक में रिनपोछे पर लिखे लंबे लेख में कहती हैं — ‘मैंने रिनपोछे को जो भी जाना है, अपनी भावना से जाना है। दुख अनित्य कैसे है? वह तो हमेशा साथ लगा रहता है।’ यह प्रश्न उन्होंने रिनपोछे से किया था। वे लिखती हैं — ‘रिनपोछे से मिल कर साहित्य से मेरा संबंध बदल गया और मुझे पता भी नहीं चला। भाषा में मौन ही उसका सबसे ज़रूरी अंग है। अपने नपे-तुले शब्दों से उन्होंने समझा दिया था। रचना शब्द कौशल से नहीं, लिखने वाले के आंतरिक जीवन से रची जाती है, यह मैं स्वयं ही जान गई धीरे-धीरे।’
एक जगह लिखती हैं — ‘अपनी आस्था और संशय का रास्ता अकेले पार करना होता है — बाहर भी, भीतर भी।’
रिनपोछे कहते हैं — ‘व्यक्ति अपने भीतर से कैसे बदले, इसके लिए आपको यत्न करना होगा। व्यक्तियों को स्वयं का परिष्कार करने में जीवन लग जाता है।’
उस मुलाक़ात में बहुत प्रेम और लगाव से उन्होंने मेरे लिए भोजन बनवाया था और उनके बार-बार आग्रह करने पर भी मैं उतना नहीं खा पाई।
उस भेंट में मुझे इस बात का पता चला कि वह जीवन-जगत में न्याय-अन्याय को खुली आँखों से देखने वाली हैं।
उन्होंने निर्मल जी की टेबल, उनकी किताबें दिखाई। सुरुचि और सौंदर्य उनसे सीखने की कला है। वाणी प्रकाशन से निर्मल जी की पुस्तकों को जिस तरह से पुनः निकाला गया उसमें उनकी सुरुचि और सूझ-बूझ दिखाई देती है। वे दानिशमंद किरदार हैं। किसी चीज़ को कैसे करना है, आने वाले व्यक्ति को क्या देना है, यह भी उस थोड़ी सी मुलाक़ात में मुझे समझ में आ गया।
जाते-जाते उन्होंने एक बहुत क़ीमती कलम का सैट मुझे उपहार में दिया।
उनके मन में सभी व्यक्तियों और संबंधों के लिए एक अलग कोना है, उस कोने में बस वह होती हैं और उस कोने से संबंधित व्यक्ति।
यह मुझे बहुत बाद में पता चला कि मेरे पहले उपन्यास ‘शादी से पेशतर’ (जो 2001 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था) की पांडुलिपि गगन जी ने पढ़ी थी और उस पर जो टिप्पणी प्रकाशक की तरफ़ से मुझे भेजी गयी थी वह गगन जी की थी। उसमें उपन्यास की सीमाओं की ओर संकेत किया था और क्या अच्छा लगा था, इसकी चर्चा की थी। कहा गया था कि इस टिप्पणी के आलोक में उपन्यास को ठीक कर के भेजें।
उस छोटी समीक्षा को मैं कृतज्ञतापूर्वक याद करती हूँ और यह याद करती हूँ कि गगन जी ने मेरे पहले उपन्यास की पांडुलिपि देखी और पढ़ी थी।
21 जुलाई, 2001 को मैंने गगन जी को प्रेमचंद के नाती (दौहित्र) अमृत राय के भाँजे लेखक, एंथ्रोपोलॉजिस्ट प्रबोध कुमार (जिन्होंने बेबी हालदार को आत्मकथा लिखने की प्रेरणा दी) पर लिखा संस्मरण, जो ‘वागर्थ’ पत्रिका और ‘समता मार्ग’ पोर्टल में प्रकाशित हुआ था, भेजा। तब गगन जी ने सराहना करते हुए टिप्पणी व्हाट्सएप की थी।
पिछले वर्ष गगन जी कोलकाता आई थी अलका जी की छत पर उनसे हुई मुलाकात की एक तस्वीर |
गगन जी के लेखन की यात्रा को यदि देखा और समझा जाए तो यह बात समझ में आती है कि अच्छे-बुरे वक्त में रचना न केवल संभव है, बल्कि अपने शर्तों पर भी संभव है। दबाव चाहे किसी विशेष तरह की राइटिंग का क्यों न रहा हो, उनके सामने उनका लेखन अडिग है। उनका कविता और भाषा पर गहरा भरोसा है। उनकी कविता भीतर से जन्म लेती है। अंदर से कोई प्रतिध्वनि आती है। उनकी कविताओं की दुनिया का आशय व्यापक है।
उनकी कविता और गद्य साहित्य में आंतरिक जीवन और बाहरी जीवन के सोच-विचार, कल्पना-स्मृति, और उड़ान है। छोटे-छोटे विवरण, प्रसंग, संदर्भों और घटनाओं से वे अर्थवान भाव-संसार गद्य में पिरोती हैं। जीवन के कई संदर्भ और कहानियाँ हैं, प्रकृति के उपकरण हैं, जीवन मर्म है। उनका गद्य आत्मीय, सुगठित, प्रांजल और भाव भरा है। वे मूलतः कवि हैं। उनकी कविताओं को पढ़ती रही हूँ, उनके लेखों को भी।
गगन जी की तीन पुस्तकें लगभग 14 साल बाद आई हैं। काव्य-संग्रह- ‘मैं जब तक आई बाहर’ (2018), गद्य-कृतियाँ ‘देह की मुँडेर पर’ (2018) और ‘इत्यादि’ (2018)। इससे यह पता चलता है कि उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा, बल्कि प्रक्रिया अंदर लगातार चलती रही है।
अपना एक स्त्री मन है, उसका पूरा एक संस्कार और निर्मिति है। गगन जी का अपना मुक़ाम है। जब हम उनकी गद्य पुस्तक ‘इत्यादि’ पढ़ते हैं तो समझ में आता है — ये हैं गगन गिल। इस पुस्तक में रहस्य और विस्मय का आलोक है।
कविता हो या लेख या कोई संस्मरण, गगन गिल उसमें संदर्भ, परिवेश और पड़ोस सामने रखती हैं और उसी में बुनती जाती हैं अपना निजी और व्यक्तिक लगने वाला निर्वैयक्तिक-सा संसार, जिसके प्रति हम लगाव महसूस करने लगते हैं और उसमें जो उन्मेष और ‘करुणा’ तत्व है, उससे जुड़ जाते हैं।
उनकी अपनी विशिष्ट भाषा है, गद्य में कविता लाने की साध, विशिष्ट चिताएँ, प्रश्नाकुलताएँ, जिज्ञासाएँ, समृद्ध यथार्थ चेतना और स्मृति का अनुभव संसार।
‘दिल्ली में उनींदे’ और ‘अवाक्’ के बाद दो गद्य की पुस्तकें – ‘देह की मुंडेर पर’ और ‘इत्यादि’ (वाणी प्रकाशन) से लगभग दशक बाद आईं।
अपने अनुपम यात्रा-वृत्तांत ‘अवाक्’ में उन्होंने जैसे एक नया गद्य रचा था, वैसा ही स्वाद इन दो नयी पुस्तकों में भी हमें मिलता है। यहाँ छोटे-छोटे वाक्यों के पैराग्राफ हैं और पारदर्शी ताज़गी भरी भाषा जो आर-पार देखने में मदद करती है।
“आपको मालूम है, आपके पास सबसे सुन्दर चीज़ क्या है? आपका मन। जानती हैं, यह एक दुधारी तलवार है? यह जीने के काम भी आ सकती है, मरने के भी। अभी आप इसे जीने के काम में लायें। मरा तो कभी भी जा सकता है। नहीं?” (एक छोटी सी दिलासा)
‘इत्यादि’ एक ऐसी किताब है जिसमें समय-समय पर लिखे संस्मरणात्मक लेखों को शृंखलागत रूप दिया गया है। ये स्मृति-आख्यान एक रेखकीय नहीं हैं। कभी हम सुदूर अतीत में चले जाते हैं तो कभी वर्षों आगे के समय में।
वे भूमिका में लिखती हैं-
“ये मेरे जीवन के ठहरे हुए समय हैं, ठहरी हुई मैं हूँ।”
“बहुत सारे समयों का, स्मृतियों का घाल-मेल। कभी मैं ये सब हूँ, कभी इनमें से एक भी नहीं। यह तारों की छाँव में चलने जैसा है। बीते गए जीवन का पुण्य स्मरण। एक लेखक के आंतरिक जीवन का एडवेंचर।”
यहाँ कथ्य और आत्मकथ्य आपस में गुंथा हुआ है। आत्मकथ्यात्मक और कथ्यात्मक दोनों के बीच के ये लेख संस्मरण की तरह नहीं लिखे गए हैं। घटे ये अतीत में ही हैं और गगन गिल उन्हें अतीत में जा कर ही देखती हैं लेकिन पारंपरिक विधा को तोड़ते हुए। कभी बीच में निबंध शुरू हो जाता है तो कभी कहानी आ जाती है। कई बार उनके छोटे-छोटे वाक्यों और वर्णनों को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि लेख का यह टुकड़ा किसी कथाकार द्वारा लिखा गया है, जिसमें अनेक व्यक्ति आते-जाते हैं, उनकी छवियाँ, उक्तियाँ, संवाद, भंगिमाएँ और क्रियाएँ, प्रतिक्रियाएँ बेहद संवेदनशीलता से रचित हैं अपनी पूरी चित्रमयता में।
इन परिपक्व लेखों में अपने वक्त के असाधारण लोग — मनीषियों : दलाई लामा, दया कृष्ण, रिनपोछे, कृष्ण नाथ, शंख घोष, लोठार लुत्से, पॉल एंगल — के रेखाचित्र इस तरह हमारे सामने आते हैं कि वे पाठक को सहज सरल आत्मीय जान पड़ते हैं। उनकी असाधारण बातों का ही ज़िक्र नहीं करतीं, उन्हें हमारे लिए सहज सरल आत्मीय बना देती हैं। इन असाधारण लोगों के साथ-संग ने किस तरह उनकी मनीषा का निर्माण किया यह भी हम जान पाते हैं।
हम जानते हैं कि तिब्बती धर्म-संस्कृति, दर्शन और बौद्ध धर्म के चिंतक सामदोंग रिनपोछे का मिलारेपा की परम्परा में आत्मज्ञान, त्याग, और सम्यक दृष्टि से भरा-पूरा गरिमामय व्यक्तित्व है। उनमें दर्शन और काव्य का अपूर्व संगम है। उन्होंने ‘धम्मपद’ की देशना दी है, ‘हिन्द स्वराज’ का मंथन। उनके दिए गए व्याख्यान और लेखन में शास्त्रीय दुरुहता और दार्शनिक शुष्कता के स्थान पर सहज स्फूर्त वेग है, जो मनुष्य को निरंतर उसके अंतर्लोक में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करता है। धर्म की प्राणोद्बोधक व्याख्याओं के माध्यम से उन्होंने अखिल विश्व में अपनी अनूठी पहचान बनाई है।
गगन गिल के लेख के माध्यम से रिनपोछे के आत्मीय स्वरूप और व्यक्तित्व का पता चलता है।
उनका गद्य अपने कहन के ढंग में, अपनी प्रवृत्ति में अलग है — धीर, शांत, चिंतनपरक। जहाँ पीड़ा और करुणा का भाव है, वहाँ सांत्वना और आश्वस्ति भी। वहाँ आंतरिकता से संवाद है जो एकालाप में बदल जाता है। साथ ही उनका वह विनोदी भाव भी जो आह्लादित करता है। विनोदी स्वभाव का आनंद हम रिनपोछे से हुए लेखक के संवाद से जान पाते हैं कि लेखक के घर में कुमुद खिला है, कमल नहीं।
“रात एक बजे। कम्प्यूटर पर काम कर रही थी। खिड़की से देखा, चाँदनी में कमल खिला पड़ा है। मैं तुरंत बाहर गयी।
बोले, कुमुद है।
क्या?
आपका फूल कमल नहीं, कुमुद है। कमल दिन में खिलता है, कुमुद रात को। आपको नहीं पता था? अमरकोश में देख लीजिये।
अगले दिन मैंने अमरकोश मँगवाया अर्जेंट। फूल कुमुद ही था।
इतने दिन मैं देवी को रिझाने के लिए बैठी रही, आखिर फूल खिला और कमबख्त कमल नहीं, कुमुद निकला!” (रिनपोछे)
इन सघन लेखों में एकसूत्रता भी है और गहरा चिंतन-मनन भी। हर लेख में डुबकी लगाने से ही उसकी गहराई का अंदाज़ लग सकता है। वे अपने लेखों में पौराणिक मिथकों का ज़िक्र करती हैं जो विरल है। ‘दीक्षा पर्व’ में मिथकों से संवाद के साथ गहरी निजी जिज्ञासाएँ और प्रश्नाकुलताएँ हैं, बौद्ध धर्म पर चिंतन-मनन है तो अपने धर्मान्तरण पर शंकाएँ और द्वन्द्व भी।
“जिज्ञासा अच्छी चीज़ है। किसी धर्म के बारे में जानना चाहते हैं, ज़रूर जानें। लेकिन धर्मान्तरण? यह एक नाज़ुक विषय है। इससे जीवन में घनघोर उथल-पुथल हो सकती है।”
“..मैं भीष्म पितामह के पास बैठी रहती हूँ। शर शैया पर वह लेटे हैं।”
“श्रीकृष्ण के विश्व-रूप की, द्रौपदी का चीर-वस्त्र संभालने की चर्चा होती है, लेकिन उनके हाथ के विराट रूप पर कर्ण की चिता की कभी नहीं।
जाने क्यों?”
“और राजकुमार सिद्धार्थ।
आधी रात को महल में से निकलते हुए नहीं, भिक्षा-पात्र के पास बैठे हुए दिखते हैं।” बुद्ध-कथा इस प्रसंग पर ठिठकती भी नहीं, मैं रात-दिन वहाँ खड़ी रहती हूँ, सिद्धार्थ की कठौती के पास। उस अप्रिय अन्न के पास।
वह इसे कहा लेंगे?” (दीक्षा पर्व)
‘चिनिले न आमारे कि?’ में वे कहती हैं कि बुद्ध से ज़्यादा लगाव रवीन्द्र नाथ से है। रवीन्द्र नाथ जहाँ उत्कट चाहना की बात करते हैं, वहीं एकाकीपन की भी।
“अपना फड़फड़ाता हुआ दिल सीने में ले कर अकेले चले जाते गुरुदेव।” – वे इस निबंध में कहती हैं कि “मैत्रेयी देवी के संस्मरण ‘टैगोर बाय द फ़ायरसाइड’ में थोड़ी-सी झलक रवीन्द्र नाथ के इस अकेलेपन की मिलती है।”
1984 के दंगों से बच निकली एक युवा लड़की के अनुभव पर लिखा गया मार्मिक लेख – ‘स्मृति और दंश’ पढ़ कर मन व्याकुल हो जाता है। एक जगह लिखती हैं –
“हम तीसरी मंज़िल की स्टडी में छिपे बैठे रहे। पाँच ऐन फ्रैंक और एक माँ”
“चेख़व के किसी संतप्त, पीड़ित चरित्र की तरह।”
“माँ सन 1984 के दंगों में घिरीं तो उन्हें सन 1947 याद आया। मैं सन 2002 का गुजरात देख रही हूँ तो सन 84 नहीं भूलता।”
“क्या स्मृति का दंश से इतना गहरा सम्बन्ध होता है?” (स्मृति और दंश)
इस तरह इस पुस्तक में संकलित नौ लेख वे नौ खिड़कियाँ हैं जो एक ठोस वस्तुगत संसार के भीतर और बाहर को, अंतर्यात्राओं को दिखाती हैं।
सिखों के दंगों, यात्राओं का अनुभव हो, या दीक्षा लेने का अनुभव, सब को ले कर गगन गिल के अंदर जिज्ञासाएँ हैं और प्रश्नाकुलताएँ भी।
कभी 1984 के सिख दंगों के भीतर के तनावों, दबावों और दंश से हम विचलित होते हैं तो कभी गर्दन से नीचे विकलांग महिला से हो रहे संवाद से व्यथित और व्याकुल।
हम इन लेखों में कृष्ण नाथ, शंख घोष को देख पाते हैं तो कभी लोठार लुत्से और पॉल एंगल को।
अतीत, वर्तमान और भविष्य में आवाजाही करते इन लेखों में कथा का प्रवाह और कविता की सघन आत्मीयता है। इन लेखों में अनेक व्यक्ति साधारण और असाधारण आते-जाते रहते हैं। उनकी छवियाँ, क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ, भंगिमाएँ, उक्तियाँ, संवाद गहरे अनुभव व संवेदनशीलता, राग-विराग और लालसा के साथ लिखे गए हैं। इन लेखों की घटनाएँ और दृश्य हमें भावनाओं और अनुभव के ऐसे संसार में ले जाते हैं जहाँ मनुष्य होने के रहस्य और विस्मय का आलोक फैला हुआ है।
गगन जी उस दौर की हैं जिसमें उन्होंने बड़े साहित्यकारों का पूरा एक समय देखा है। आज उदारीकरण के बाद जिस तरह से जीवन बदला है, साहित्यकारों का जीवन बदला है, हिंदी की जगह सिकुड़ी है, उसमें फेसबुक पर न हो कर भी उनकी शोहरत में कोई कमी नहीं है। उनकी प्रासंगिकता बनी हुई है।
शानदार आलेख
जवाब देंहटाएंछोटे से आलेख में कितना कुछ बड़ी मार्मिकता से लिख डाला शर्मिला ने ।
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