बसन्त त्रिपाठी का आलेख 'लगातार सुंदर होती जा रही कविता से एक जिरह'
बसन्त त्रिपाठी |
कविता क्यों और किसलिए? हरेक कवि अपने जीवन में कभी ना कभी इन प्रश्नों से दो चार होता है। कविता जीवन और सुन्दरता के पक्ष में हमेशा खड़ी रहती है। यही इसका औचित्य भी है। यह दुनिया में सर्वाधिक लिखी जाने वाली विधा है। हर समय में हजारों कवि एक साथ विविध विषयों पर कविता लिख रहे होते हैं लेकिन आगे चल कर इनमें से कुछ कवियों की रचनाएं ही याद रखी जाती हैं। कविता के आधिक्य को देखते हुए कभी कभी ऐसा लगता है कि क्या कविता महज फैशन के लिए लिखी जा रही है। ऐसी कविताओं का वास्तविक जीवन के साथ कोई जुड़ाव नहीं होता। ये कविताएं दूर का रास्ता तय नहीं कर पातीं। इन्हीं सब सवालों से जूझने का प्रयास किया है कवि बसन्त त्रिपाठी ने। अपने आलेख में बसन्त ने व्यंग्यात्मक लहजा भी अपनाया है जिससे यह और धारदार बन पड़ा है। इसी क्रम में कई जगह कवि ने कुछ महत्त्वपूर्ण सवाल भी उठाए हैं। इसी क्रम में वे लिखते हैं : 'मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि समय के भयानक कुचक्र में फँसी सभ्यता के संकट को कुछ कवि अपने समूचे कवि-जीवन में कैसे देख नहीं पाते। या शायद देख कर अनदेखा करते हैं। अनदेखा करने के कई-कई तरीके इधर विकसित कर लिए गए हैं। उसमें से एक तरीका लगातार सुन्दर पंक्तियाँ रचने की कला भी है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं बसन्त त्रिपाठी का सुविचारित आलेख 'लगातार सुंदर होती जा रही कविता से एक जिरह'।
'लगातार सुंदर होती जा रही कविता से एक जिरह'
बसंत त्रिपाठी
पत्तियों की सरसराहट से बाँबियाँ थिरकीं
उदास चाँद ने अपनी रौशनी की सलवटें स्मृतियों की बारिश को सौंप दी
दोपहर उदास था
और शामें रंगीन
धूल के लिए पूरा इतिहास दीमकों द्वारा छोड़े गए पन्ने की तरह था
और तुम्हारा प्यार जैसे नमक के सपनों पर फैली
संतूर छिड़ी रागिनी
कविता की शक्ल लिए हुए जब कुछ पंक्तियाँ लिखा गईं तो मैं चौंका। हर तरफ से उलट-पलट कर पढ़ा। बहुत देर तक मुग्ध भी रहा कि क्या नायाब सूझ गया। आजकल ऐसी कविताओं की बाढ़ भी तो आई हुई है। ऐसे में हम भी बहें तो क्या परेशानी? इनके भी नए कद्रदान बाज़ार में दिखने लगे हैं। बिल्कुल मँहगी कलाकृतियों के नासमझ लेकिन अपने प्रभामण्डल के विस्तार के लिए उभरे खरीददारों की तरह। लेकिन थोड़ी ही देर में सारी मुग्धता की हवा निकल गई जब खुद को इस सवाल के सामने खड़ा पाया कि आखिर इन पंक्तियों के मार्फत मैं कहना क्या चाहता हूँ? इसे भी आजकल कविता ही कहा जा रहा है। बेशक केवल इसे ही नहीं, जेनुइन कविता भी कविता कहला रही है। लेकिन उनके साथ इन्हें भी कहा तो जा ही रहा है! क्या ऊपर कविता के नाम पर जो लिखा गया है वह कविता है? नहीं है। क्यों नहीं है कविता? क्योंकि उसमें कुछ भी नहीं कहा गया है। सोच-सोच कर पंक्तियों की तह बिठाई गई है। जिसे मैंने नायाब सूझ गया कहा, दरअसल वह सोच-सोच कर करीने से लिखी गई पंक्तियों की लड़ी है। एब्स्ट्रैक्ट में भी एक तरह की अन्विति होती है. वह कैनवस पर पान की पीक नहीं है। कविता भी सुंदर पंक्तियों का थूकना नहीं है। यहीं से एक सवाल भी पैदा होता है कि क्या यह ज़रूरी है कि हर कविता कुछ कहे ही? कुछ सार्थक? ठीक है, न कहे। फिर वह लिखी ही क्यों जाती है? क्या वह टुकड़े-टुकड़े, धज्जी-धज्जी कुछ कहने का-सा भ्रम लिए अपनी ही राह निकल पड़ी है? क्या उसकी राहों के नक्शे हवा की अदीठ परतों पर दर्ज हो रहे हैं?
ऐसी कवितानुमा पंक्तियों की सजावट अपनी पहली दिखत में काफी सुंदर लगती है। और सुंदरता पर तो दुनिया मेहरबान है। लेकिन सुंदर का कोई उपक्रम असुंदर के प्रति चुप्पी का बायस भी हो सकता है, क्या इस पर सोचने की ज़रूरत नहीं है? कविता का लगातार सुंदर होना और उसका असुंदर होती दुनिया के खिलाफ सुंदर के आग्रह के साथ खड़ा होना, एक जैसी बात लगते हुए भी दरअसल एक नहीं है। सुंदर कविता लिखने का चुनाव असुंदर दुनिया को रचने वाले लोगों के खिलाफ एक तयशुदा चुप्पी भी हो सकती है। मैं जानता और मानता हूँ कि कविता का कोई एक रंग नहीं होता। कविता जीवन से जुड़ी हुई है और जीवन की तरह ही विविध-रूपा है। जीवन के जितने भी रंग और रूप हैं उन सबको एक या अलग-अलग कविता में दर्ज करने की आकांक्षा कवि के भीतर होती ही है। लेकिन क्या कवि अपनी वास्तविक आकांक्षाओं और अपने वास्तविक दुःस्वप्नों की फुसफुसाहटों को ध्यान से सुन रहा है? या उसे अनसुनी करके किसी और ही गुंताड़े में लगा हुआ है? और यदि ऐसा नहीं है तो केवल सुंदर वाक्यों के रचे जाने के उसके प्रण को सही तर्कों के परिप्रेक्ष्य में देखना-समझना होगा।
सुंदर एक सापेक्षिक शब्द है। सापेक्षिक इस रूप में कि वह सार्वभौम सुंदर की राह में पैदा हुए अवरोधों को हर बार नए सिरे से उद्घाटित करने का प्रयास करता है। जाहिर है कि सुंदरता की राह में आए अवरोधों की प्रकृति एक जैसी नहीं होती। कविता एक ओर यदि सार्वभौम सुंदर की पहचान में खुद को झोंके रखती है तो दूसरी ओर समय-समय पर जन्मी और विकसित हो रही असुंदरता को समझने और समझाने की दिशा में क्रियाशील भी रहती है। लेकिन उन कवियों और उनकी कविताओं का क्या किया जाए जो अपनी कविता को सुंदर और चमकदार वाक्य का पूरक बनाने में अपनी समस्त रचनात्मकता गर्क किए हुए हैं? मुझे अब हर कवि से, बल्कि दुनिया में हर किसी से पूछने का मन करता है और खुद से तो और भी ज्यादा, कि ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ साथ ही यह भी कि अपनी पॉलिटिक्स के चलते कहीं खुद पर सेंसर तो नहीं लगा रहे हो? लेकिन इसके साथ ही यह भी पूछने का मन करता है कि अपनी पॉलिटिक्स को, अपने और अपने समय के जीवन और जगत संबंधी समझ के द्वन्द्व में अर्जित किया है या किसी परिचित-अपरिचित, किंतु फायदा पहुँचाने वाली विचारधारा का पिछलग्गू बन कर सफलता की चोटी पर जल्द से जल्द पहुँच जाना चाहते हो?
ज़रूरी नहीं कि हर कविता राजनीतिक विषयों या घटनाक्रमों पर ही हो और उसमें पक्षधरता का कोई उथला मुहावरा विज्ञापन की तरह दिखाई पड़े। ऊपरी तौर पर रोमेंटिक लगने वाली कविता भी घोर राजनीतिक हो सकती है। दरअसल राजनीतिक कविता का सीधा अर्थ है वह हमारे समय की किसी तकलीफ या संकट के बरअक्स कवि का बयान हो, जो बेशक, बयान की शक्ल में नहीं भी हो सकता है। मुझे कई बार आश्चर्य होता है कि समय के भयानक कुचक्र में फँसी सभ्यता के संकट को कुछ कवि अपने समूचे कवि-जीवन में कैसे देख नहीं पाते। या शायद देख कर अनदेखा करते हैं। अनदेखा करने के कई-कई तरीके इधर विकसित कर लिए गए हैं। उसमें से एक तरीका लगातार सुन्दर पंक्तियाँ रचने की कला भी है।
ऐसी खूबसूरत कविताओं में न प्रेम, प्रेम की तरह उल्लसित या उदास करता है न कविता में व्यक्त ख़ौफ से डर लगता है। सारे मानवीय क्रिया-व्यापार जैसे किसी वायवीय सुंदर पंक्ति के रचाव में खुद को गर्क किए रहते हैं। सुंदर या असुंदर पंक्तियाँ, छौंक की तरह कविता में उतराती रहती हैं। आप मुग्ध होते हैं कि देखिए कवि ने क्या नायाब कल्पनाएँ कविता के भीतर की हैं। आप चमत्कृत हो कर भूल जाते हैं कि क्या इस सुंदर पंक्तियों के सँवार से इतर भी इस कविता ने अपनी कोई उपस्थिति दर्ज की? कहने को ऐसी कविताओं की राजनीति भूल, अँधेरे, कबीले, आसमान, नमक की नदी, उदास पेड़, जँगली झरने, पैरों की थकन, रात की उजली बारिश, पत्तों की थिरकन या चुप्पी, चाँदनी का बिस्तर, बुद्धत्व, शून्य का प्रेमपत्र जैसे नायाब लेकिन संदर्भ-च्युत चीजों से चमकती रहती हैं। लेकिन इसमें किसी को छूने या तड़पाने की ताकत नहीं होती। कई बार तो खीझ कर यह कहने का मन होता है कि यूरोप से वाक्यों की करिश्माई कला के उधार का दिखावा हैं ऐसी कविताएँ। ठीक भी है। जब पूरा देश कर्ज में डूबा हुआ हो और फिर भी मुग्ध हो, तो बेचारी कविता ने कौन-सा अपराध किया है। उसे भी उधार में फलने-फूलने का पूरा अधिकार है। यह ऐसा कर्ज़ है जिसमें आत्महत्या का कोई खतरा नहीं। कोई महाजन वसूली के लिए अपने कारिंदे नहीं भेजेगा। बस कवि उधार पर फलता-फूलता रहेगा और अपने जुगाड़ किए गए या अनायास मिल गए अनुवादकों के दम पर इतराता फिरेगा। उधार पर ऐसी नायाब कविता लिखने की तकनीक काफी आसान है। बेशक इस उधार पर इतराने का साहस हो आपमें।
असंबद्धता कविता का कोई दुर्गुण नहीं है। बशर्ते वह किसी तर्क की डोर से लिपट कर आए। एक भाव को अनवरत और अंतहीन वक्तव्यों से साधा जा सकता है. लेकिन असंबद्धता वहाँ पर कविता के लिहाज से खटकने लगती है जहाँ उसे आवेग की असंबद्ध श्रृंखला की तरह नहीं बल्कि चालाकी से चमकदार और राजनीति-विहीन बना कर अपने समय की चोटों से परे ले जाया जाता है। कविता केवल कवि का निजी प्रलाप नहीं है। यदि वह प्रलाप की तरह आए भी तो उसमें प्रलाप के सामाजिक-राजनीतिक कारणों की झलक होनी चाहिए। वैसे फिर भी मैं जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि कविता कवि का निजी प्रलाप नहीं है। वह कवि और पाठक के बीच का अनुबन्ध भी है। वह कवि और उसके समय के बीच का अनुबन्ध भी है। इन दोनों अनुबन्धों की शर्तें चाहे जिस स्याही से लिखी जाए चाहे, चाहे जिस पन्ने पर, और कवि ने दस्तखत न भी किया हो। लेकिन जब वह लिखने की दुनिया में आता है तो ये अनुबन्ध उस पर अपने आप लागू हो जाता है। रचाव और पढ़त के बीच ये अनुबन्ध होता ही है। उक्त अनुबन्धों से मुक्त होने का मतलब है खुद को कवि मानने से इनकार करना।
आज हम समय के जिस मोड़ पर खड़े हैं वहाँ ‘कला कला के लिए’ और ‘कला समाज के लिए’ जैसी बहसों ने अपना चरित्र खो दिया है। दोनों ही तरह की बहसों ने अब अपनी बहसों के लिबास उतार दिए हैं। लोगों को याद होगा कि जब ये बहसें चरम पर थीं, कितना हंगामा बरपाया था। अब सब कुछ शांत है। गुज़रे दिनों जनवाद और प्रगतिशील कहलाने से परे कलावादी कहलाने में कुछ लोग ऊपरी तौर पर भले खीझें लेकिन अंदरुनी तौर पर फख्र महसूस करते थे। क्योंकि उनकी कला का सरकारी मूल्य था। उनमें सार्वभौम कहलाने की बौद्धिक आकांक्षा उछाल मारती रहती थी। लेकिन दिक्कत सिर्फ इसी धड़े की नहीं थी। तमाम तरह के लेखक संगठनों द्वारा ढकेली गई कविताएँ भी पर्याप्त फल-फूल रही थी। बहुत सारे सच्चे और जागरूक कवि तक अपनी काव्यात्मक मेधा के साथ इस एक या दोनों ही तरह के धड़े के कुशल प्रबन्धक थे। जाति, भाषा और क्षेत्र के गुट तो खैर हमेशा की तरह लाज़वाब और प्रश्नरहित थे। लेकिन जब दोनों बहसें साथ-साथ हँसने खेलने लगी थीं तभी उनके जिस्म पर एक साथ कोड़े फटकारे गए। जैसे-जैसे कला की दुनिया बदलती राजनीति के कारण बेदखल होने लगी वैसे-वैसे लोगों ने अपनी पहचान बदली। खासकर इसी दुनिया में अपनी रचनात्मकता को अर्जित की हुई पीढ़ी ने। वे लेखक संगठनों से दूरी के साथ-साथ कुछ नायाब दिखने वाली कलात्मकता की ओर जाने लगी. कविता के पुराने मूल्य स्थगित कर दिए गए। सुंदर कविताओं की बाढ़ का एक कारण कहीं ये भी तो नहीं है? कविता की दुनिया में इसे बीमारी कहा जाना चाहिए। यह बीमारी इक्कीसवीं सदी की कविता में कुछ अधिक मात्रा में दिखाई पड़ रही है। हिन्दी कविता के क्षैतिज विस्तार से भला कौन इनकार कर सकता है. लेकिन इस विस्तार में कुछ ऐसे तत्त्व भी शामिल हो कर स्वीकृत हो चुके हैं जिन्हें कविता कहने में ज़रा शक-सा होता है। बहुत पहले बिम्ब-प्रधानता के दौर में एक मानीखेज बिम्ब को कविता की उपलब्धि कहा जाता रहा। बाद में वक्तव्यों की बाढ़-सी आ गयी. और अब एक चमकदार स्मार्ट वाक्य। रही-सही कसर प्रयोगशीलता की अतिशयता ने पूरी कर दी।
प्रयोग के पक्ष में गुज़रे दिनों दिए गए तर्कों को भला कौन भूल सकता है यदि उसने सिलसिलेवार पढ़ा हो तो। हालाँकि सोशल मीडिया के उफान के इस दौर में सिलसिलेवार पढ़ने का चलन अब स्थगित हो चुका है। फिर भी, चलो मान लें कि, सिलसिलेवार पढ़ा गया है। तो फिर प्रयोग के कारणों की पड़ताल फिर से कर ली जाए? कहने की राह जब अवरुद्ध हो जाती है, या इसे ठीक तरीके से कहें, सच को कहने की राहें जब अवरुद्ध हो जाती है या पुराने तरीके से पिटी-पिटाई लगने लगती है तो कवि नए राहों की खोज करता है। लेकिन केवल इतना ही नहीं, कई बार वह अपना सिक्का चलवाने की इच्छा में भी नए या नायाब लगते-से राहों की तलाश करता है। हमारे समय की प्रयोगशीलता में दोनों ही तरह की इच्छाएँ मौजूद हैं। फिर भी मैं समय की विद्रूपता को नए ढंग से कहने का जोखिम उठाने वाली प्रयोगशीलता का समर्थक हूँ। क्योंकि इसकी पॉलिटिक्स स्पष्ट है। ऐसी प्रयोगशीलता ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’ प्रश्न के आगे मिमियाती नहीं। वह व्यवस्था के सामने चुनौती की तरह खड़ी होती है। अनसुने रह जाने या ध्यान न दिए जाने का जोखिम उठा कर भी ऐसी कविताएँ लिखी जाती हैं। लेकिन यही बात दूसरी तरह की प्रयोगशीलता, जिसमें चौंकाने की अंतहीन आकांक्षाएँ छिपी हों, पर लागू नहीं होती।
जब प्रयोगशीलता का वायवीय दुर्ग लगातार चमकदार होता जा रहा हो तब वह पुराना सवाल फिर से उठाने की इच्छा होती है कि कला क्या है और उसका औचित्य क्या है? भले ही आप उसे परिवर्तन और निर्माण के अकेले सूत्रधार के रूप में न मानें। लेकिन कला वस्तुतः जन-जीवन की बहु-स्तरीयता का प्रकटीकरण है। जन-जीवन का अर्थ जन का संघर्ष, पराभव, उल्लास, रोमान, असंतोष सब कुछ है। मैं उसे केवल सर्वहारा की दृष्टि से ही नहीं देख रहा हूँ, मनुष्य की तरह देख रहा हूँ। उसमें व्यक्ति की वायवीय कल्पना और उसके स्वप्न के लिए भी जगह हो सकती है। लेकिन उसकी कल्पनाएँ और उसके सपने, सबकी कल्पना और सबके सपने की तरह दिखाई पड़ें। ठोस और अक्खड़ निजता को सामूहिकता में रूपांतरित करने की अनवरत जद्दोजहद ही वास्तव में कलाकार का कलात्मक संघर्ष है। कवि भी इस दिशा में सक्रिय रहता है। या कि उसे होना चाहिए। हमारा समय आक्रामक मनुष्य-विरोधी राजनीति के लगातार भयानक और क्रूर होते जाने का समय है। धीरे-धीरे इस राजनीति ने तर्क और तथ्य को अपदस्थ कर दिया है। मनुष्य होने की परिभाषा लगातार बदलती जा रही है। लोकतांत्रिकता के तमाम चिह्नों को एकाधिकार के घेरे में कैद किया जा रहा है। प्रदर्शनप्रियता ने ईमानदारी और सहजता को धकिया कर किनारे कर दिया है। क्या इन विद्रूप स्थितियों से टकराने का काम कविता का नहीं है? यह कौन नहीं जानता कि फूल भी रोज़ खिलते हैं और इनसान भी रोज़ मारे जाते हैं। क्या फूल खिलने का उत्सव मनाने की धुन में इनसानी मौत को नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए? इससे उलट भी कोई पूछ सकता है। कवि की नज़र दोनों पर रहती है. वह इनसान की प्रशस्ति के गीत भी गाता है और उसके पराभव का शोक भी मनाता है। इसके लिए वह भिन्न-भिन्न तरह के भाषायी और कलात्मक प्रयोगों से गुज़रता है। वह संवेदना और जज़्बे के लगातार पिछड़ने के चित्र भी खींचता है और उसके वस्तुगत कारणों की गुफाओं में दूर तक धँसता भी है। बस, दिक्कत वहाँ पैदा होती है जब वह अपने ही किसी पूर्वाग्रह के कारण उसे कहने से बचता है। मैंने ऐसे कई लोगों को प्रत्यक्षतः कहते हुए पाया कि यह समय घनघोर एकाधिकार का है। लेकिन सार्वजनिक तौर पर इसे कहने से बचते हुए भी पाया है. भय और लोभ-लाभ दोनों इसके कारण हैं। लेकिन कवि जब भय और लोभ-लाभ पर ज्यादा निर्भर रहने लगे तो समझिए कि उसने कला के औचित्य और उसकी जिम्मेदारी से खुद को अलग कर लिया है। यदि उसने अपनी भाषा की मुलायमियत पर खुद को समर्पित कर दिया है तो वह चमकदार कवियों की पंक्ति में भले बैठ जाए, कला के जोखिम को केवल कहने तक में सीमित कर दिया है। क्या और क्यों कहा जाए जैसी चिंताओं से उसका कोई सरोकार नहीं रह गया।
मैं जोर दे कर कहना चाहूँगा कि राजनीति कला का हाशिया नहीं है। और यह भी, कि पक्षधरता कोई क्लीशे नहीं है। लेकिन राजनीतिक या जन-जीवन की पक्षधरता या कवि का कहन ज़रूरत से ज्यादा कलात्मक, रसीला और अलौकिक हो जाए तब ऐसी कला को जीवन-रहित कला कहना चाहिए। कविता का वैभव उसके अर्थ में ही है। अर्थ-ग्रहण के असंख्य रास्ते हो सकते हैं। लेकिन उसमें निरर्थकता का आग्रह नहीं हो सकता। जैसे बहुत रोशनी से आँखें चुँधिया जाती है और कुछ भी देखा जाना असंभव हो जाता है वैसे ही बहुत अधिक कलात्मकता अर्थ को अपदस्थ कर देती है।
कविता में जीवन, अनगिन वस्तुओं या कार्य-व्यापारों की उपस्थिति में नहीं, उसकी संगति में है. बिखरा हुआ जीवन भी कविता में अपनी तरह की संगति लिए हुए होता है। पूरी कविता में एक प्रसंग या कई-कई प्रसंगों का कोलाज भी बेहतर हो सकता है यदि उसका संबंध किसी एक भाव-संवेदना से हो। इसके लिए संपादन की ज़रूरत होती है। और अपनी कविता को ईमानदार तटस्थता से देखने की ज़रूरत भी। हर कविता कड़ाई से किए गए संपादन की अपेक्षा रखती है। लेकिन क्या कवि कविता की इस अपेक्षा को सुन पा रहा है? सुंदर पक्तियों से निःसृत कविता न पूर्णता है न अपूर्णता। वह ‘वाह’ की आकांक्षा में अपनी पहचान खो चुकी कविता का बायस है। रघुवीर सहाय ने जिन्हें निराश हो कर घर जाने के लिए कह दिया था वे लौट आए हैं। अब वे श्रोता नहीं है सर्जक हैं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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बेहद शानदार आलेख, इस विषय की ऐसी भी मीमांसा हो सकती है यह मेरी कल्पना के परे था
जवाब देंहटाएंआज़ कल की कवियों के यथार्थ और सटीक विश्लेषण के लिए आपको धन्यवाद ।इस प्रकार के विचारों का प्रचार प्रसार ज्यादा से ज्यादा होते रहना भी एक जरूरी साहित्यिक जबाब देही है। इसके लिए आपको बहुत बहुत हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंसमकालीन कविता में कविता के चौतरफा दृष्टि को उजागर करता हुआ लेख ।
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