अनु चक्रवर्ती की कविताएं
अनु चक्रवर्ती |
नदियां केवल जल का स्रोत ही नहीं मनुष्य के शुरुआती जीवन के सभ्यताओं की गवाह भी रही हैं। इसी क्रम में दुनिया के तमाम प्रख्यात नगर नदियों के किनारे ही बसे। मनुष्य के रहन सहन और जीवन को निर्धारित करने में परोक्ष रूप से इन नदियों का भी हाथ रहा। मानव समाज के कई एक व्यवसाय आज भी नदियों के साथ नाभिनालबद्ध हैं। आज भी व्यापार का एक बड़ा हिस्सा पानी के जरिए ही सम्पन्न होता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना कर पाना असम्भव है। रहीम ने लिखा भी है 'बिन पानी सब सून'। नदियों के साथ मनुष्य का जुड़ाव आज भी बना हुआ है। कहीं न कहीं सामूहिक स्नान की परम्परा नदियों को सम्मान देने के क्रम में ही शुरू हुई होगी। इस तरह मनुष्य की सामाजिकता को पुष्ट करने में भी नदियों का बड़ा हाथ रहा है। बड़ी नदियां कई सहायक नदियों से जुडती हुई आगे बढ़ती हैं और अंततः समुद्र के साथ मिल कर एकरूप हो जाती हैं। नदियों की स्मृति में कवि अनु चक्रवर्ती बहती हैं और अपने आस पास बहने वाली महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी की बहती धारा का के पवित्र त्रिवेणी संगम को याद करती हैं। और पाती हैं कि 'अंततः जल की विपुल राशि में समाहित हो कर ही/ हमारे स्पर्श एवं संचेतना का/ निस्तार संभव है...'। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अनु चक्रवर्ती की कविताएं।
अनु चक्रवर्ती की कविताएं
नायिका
दुःख कतार में खड़ा
तन की शिराओं को टूटते हुए
अचंभित-सा देख रहा था
मधुरिम सवेरे का उजास
नायिका के मुख मंडल में व्याप्त
आभा की किरणों से
दिन के सारे उपक्रम की योजनाएं
तय करने में रमा हुआ था
नव कथाओं की संभावनाओं के
अनंत द्वार खुल रहे थे
अंतर्दृष्टि की दिव्य चेतना
हद और अनहद के नाद
गुनगुना रही थी
और ठीक उसी समय
नायिका मुस्कुरा रही थी।
नायिका
झिरझिराते संत्रास के
सघन परिदृश्यों के मध्य
रचनात्कमता की ऊँगली थामे
यश-अपयश की सूचनाओं से विरक्त
वो इन दिनों तनिक बादल-सी हो गई
एक टुकड़ा सुख!
ज्यूँ ही संतृप्त करने उसके निकट आता
दुःख की हज़ार बिजलियों की कौंध से वह मुस्कुराती
कारवी का फूल बन गई।
नायिका
चिर प्रशांति के उस प्राप्य के पश्चात
अनुरागी से दूरस्थ की गुंजाईश अब
नहीं थी कहीं
कितनी आतुरता और आवेगों को समेट कर
बनता है एक मन !
डूबता है कितने ही भावों को ले कर
एक ही समय में जाने कितनी बार
तुम उसकी पीठ पर
यूँ खुली आँखों से न देख पाओगे कभी
बेबसी की रूखी पपड़ियां
अभी-अभी उसने सीखी है कला
रक्तिम चक्षुओं के साथ मुस्कुराने की।
रंजनाओं का दम्भ
बारूद के ढेर के नीचे
दबी होती है
ठीक उतनी ही नमी
जिससे आतिश बुझ के भी
सुलगती रहे धीमे-धीमे
नितांत अकेलेपन में
उचट जाती है
अक्सर नींद
पसीजने लगता है
रंजनाओं का दम्भ
महुए की सुगंध से भी
ज़्यादा मादक होती है
कल्पनाएं गीले मन की
जो परोसती है
प्रेम की थाल में प्रतीक्षा
जाते हुए पिता
मैंने अंतिम यात्रा में जाते हुए अपने पिता के चेहरे को
उस दिन
बहुत देर तक
ठीक उसी तरह से निहारा
जैसे निहारती है कोई मां!
परदेश गमन करते हुए
अपने ही जिगर के टुकड़े को
कई बार चुमती रही उनका माथा
जैसे कभी,
ठोकर खा कर गिर जाने पर
हम चुम लिया करते हैं
अपने ही किसी अभीष्ट को
उनके हाथों की गर्माहट को समेटना चाहा
बार-बार ऐसे
जैसे विराम लेती हुई
आंगन की धूप को,
बाज़दफ़े हम भर लेना
चाहते हैं
अपने ही अंक में
उस दिन मैं पिता के कानों में लगातार फुसफुसाती रही
छोटे-छोटे अंतराल के दौरान
ठीक उसी तरह
जैसे किसी पादरी के समक्ष
याचक खोल कर रख देता है
अपने अंर्तमन में चल रहे
सारे संवाद
पिता के सीने से लिपट कर
लेटी रही कुछ पल ऐसे
जैसे शांत शीतल जल में
पड़ी हो
कोई परछाई
उनके तलवों के स्पर्श को महसूसती रही कुछ यूँ
कि - जैसे
खरगोश के मुलायम फरों पर हाथ फेरता हो कोई शिशु!
अपने दुपट्टे को रह-रह कर फेरती रही
पिता के बदन पर ऐसे
कि -जैसे,
मेहनतकश भाई के सर को सहलाया करती हैं बहनें अक्सर
मुक्तिधाम के पुराने
नीम पेड़ के चबूतरे में
उनके पार्थिव शरीर पर
पंडित के निर्देशानुसार,
घी और चंदन को मलती
रही ऐसे कि - जैसे
उबटन मल- मल कर
दमकाती हैं माएँ
अपने राजदुलारे की सम्पूर्ण काया
इन सब के बीच
चहल-पहल से दूर मेरे पिता
चिरनिद्रा में लीन
सोते रहे कुछ ऐसे कि -
जैसे अंतर्ध्यान में
अभी-अभी रमा हो कोई योगी!
विदा के अंतिम क्षणों में पिता ने
मां से नहीं मांगी जाने की अनुमति
न ही एकांत में छोड़ा अपने
किसी प्रिय के नाम कोई संदेश!
पिता के अवसान का वह
शोक संतप्त दृश्य
गहरे मेरे हृदय में जीवनपर्यंत धंसा रहेगा ऐसे कि -जैसे
बेलपत्र तोड़ते हुए हाथों में
चुभ जाता है
अक्सर कोई-न-कोई कांटा
हरि बोल!
हरि बोल की,
गुंजायमान ध्वनि के मध्य
स्तब्ध
भावशून्य रह गई थी मैं !
उस पल ऐसे कि -
जैसे
ओला वृष्टि के पश्चात पंछी चुपचाप निहारते हैं
अपने ही उजड़े नीड़ को
बाबा!
पंचतत्व में प्रसन्न मन से समाहित हुए उस रोज़
अंततः ऐसे कि -जैसे
लौट रहा हो प्रवासी कोई पक्षी
ऊंची-ऊंची
उड़ान भरते हुए अपने ही देश
तंग दिल
वो पिछले बीस बरस से दिल वालों के शहर दिल्ली में रहती है
सुना है अच्छी है,
अब भी अपनी खनकती आवाज़ में
कोई सुमधुर गीत गुनगुनाती है
लेकिन घर की सफ़ाई,
और बच्चे की परवरिश में लीन
अब वो अपने सलेटी ऐनक की दीवार के पार
बीते पलों के शिगाफ़ से पल -पल दरकते
दिली रिश्तों को कुछ इस तरह से देखने की आदी बन चुकी है
जहां तस्वीर का मात्र एक ही पहलू उसे बार-बार नज़र आता है
दूसरे सिरे को न तो वह देखना चाहती है
और न ही कभी उसकी तलाश में घर से बाहर निकलती है
उसके चुप रहने के हज़ार मतलब हैं
कोई परेशान होता है,
कोई फ़िक्र करता है
कोई उसकी राह तकता है
मगर उसे इन सब अहसासों से
भला क्या गरज़
वो तो बस अपनी ही धुन में रमी होती है
हम सबसे अधिक निर्धन शायद!
तब होते हैं
जब अपने ही प्यार और ईमान वाले लोगों को
पहचानने से इंकार करते हैं
या कि हममें उस मेधा का अभाव होता है
जिसके आश्रय तले
हम मित्रता की ऊष्मा को भी
किंचित महसूस करने से चूक जाते हैं
महज़ एक ग़लतफ़हमी न जाने
कितने ही पुराने और मज़बूत संबंधों को
जला कर राख़ कर देती है
इंसान अपनी बेजा ज़िद्द और अकड़ के
आगे सब कुछ गंवा देने को आमादा हुआ जाता है
आख़िर कोई तो बताये
ये दौर... ये तौर..
किस मनहूस ज़माने ने हमें सिखलाया है
हम क्यों आपसी मरहलों को सुलझाया नहीं करते
फूँक देते हैं बेखौफ़ उन मुहब्बत भरे लम्हात को भी
अपनी झूठी अना की ख़ातिर
जिसे संजोया था कभी
अपनी जान के सदक़े उठा कर
दोस्ती में दिल हमेशा
खुले और बड़े रखने चाहिए
तंग दिल वाले दोस्त भला क्या जाने
कि - वो अचानक किसी रोज़
दूर जाते हुए अपने पीछे
न जाने कितने तो सवालात छोड़ जाते हैं
जो बेइंतेहा चाहने वाले किसी निरीह को
इस हद तक तोड़ सकते हैं
जिससे संसार के हर एक भरोसे से भरोसा उठने लगता है
जीवन की आपाधापी से ग़र समय मिले
तो ज़रा इस तरह भी सोच कर देखना
सच! हमारी दुनिया कितनी ख़ूबसूरत हो सकती थी
अगर दिल्ली में रहती पलती तुम
काश! अपने दिल की बातें
किसी रोज़ किसी तरह साझा कर लेती
खुल कर कहती,
रूठने की कोई तो वजह बताती
पीठ पर धप्पा जमाती, आँखें तरेरती
और कहती जा अब से तुझे हर हफ़्ते
याद से फ़ोन किया करूंगी..
शिवरीनारायण का वह तट
मेरे निवास स्थल से,
लंबी दूरी पर स्थित है
शिवरीनारायण का वह तट!
हाँ मगर,
इतना भी दूर नहीं कि -
दिन के ढलने से पहले
अपने ही ठिया पर
लौट भी न सकूँ...
यूँ ही कितनी धीरता के साथ
महानदी, जोंक और शिवनाथ नदी की
बहती धारा का वह पवित्र त्रिवेणी संगम
युग-युगान्तर तक साक्षी बना रहेगा...
उस अंतिम विदा का,
जिसे मैंने अश्रुपूरित दृष्टि
और विपन्न होते हृदय से उस रोज़
माँ-बाबा की जैविक स्मृतियों सहित
न जाने कैसे
गहराते जल में सौंपा ...
मैं नहीं जा सकी वाराणसी!
और न ही अब तलक
कभी जा सकी प्रयागराज!
सूतक के दिनों में भी
समेटती रही दुनिया भर के झमेले
और कनखियों से चरितार्थ होते
चुपचाप देखती रही
बुजुर्गों के उस कहन को कि -
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता
छत्तीसगढ़ में जगन्नाथपुरी के नाम से विख्यात इस जगह का
ऐतिहासिक महत्व
हमारे प्रान्त विशेष के समृद्धशाली
वैभव का वह नगीना है-
जिसके आलोक में यहां बरसों से
पुरखे भी सद्गति को प्राप्त होते रहे
सूत्र बतलाते हैं कि - रामायण काल के
निर्णायक मोड़ के दौरान
दण्डकारण्य में भटकते राम और लक्ष्मण ने
इसी गांव में शबरी की कुटिया में
कुछ समय तक विश्राम किया,
माता के हाथों से
उनके जूठे बेरों का
अमृततुल्य स्वाद चखा
तब कहीं जा कर
आगे की ओर प्रस्थान किया
सच! नदियां अपने बहाव में न जाने
कितनी ही
सहायक नदियों को साथ लिए बहती हैं
तभी तो सिहावा से निर्बाध गति से
बहती महानदी!
जब अपने उरुज के साथ
बंगाल की खाड़ी में समाती है
तब अनगिनत स्मृतियाँ,
अनगिनत संस्कार,
और अनगिनत प्रार्थनाएं,
अपनी मौज की भुजाओं में
साथ लिए आती है
ताकि धरती पर बना रहे यह विश्वास!
कि अंततः जल की विपुल राशि में समाहित हो कर ही
हमारे स्पर्श एवं संचेतना का
निस्तार संभव है...
भावपूर्ण रचना। नेपाल से शुभकामनाएं
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