पद्मनाभ गौतम की कविताएं
पद्मनाभ गौतम |
परिचय
छत्तीसगढ़ राज्य के सुदूर उत्तर में स्थित आदिवासी जिले – कोरिया के पिछड़े नगर बैकुंठपुर में जन्म व हायर सेकेंडरी तक शिक्षा।
सागर विश्वविद्यालय से व्यावहारिक भूगर्भशास्त्र में एम. टेक. की उपाधि।
वर्तमान में दिल्ली में ‘वरिष्ठ अभियांत्रिकी भूवैज्ञानिक’ के पद पर निजी क्षेत्र में सेवारत।
घुमक्कड़ी का शौक।
साहित्य में मूलतः लोक को चित्रित करती कविताएँ, ग़ज़लें, यात्रा-वृत्तांत और संस्मरण लेखन. समकालीन साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं यथा - कृति 'ओर', सर्वनाम, आकंठ, काव्यम, अक्षर पर्व, प्रगतिशील वसुधा, दुनिया इन दिनों, कथाक्रम, सिताब दियारा, पहली बार, देशबंधु, शैक्षिक-दखल इत्यादि में कविताएँ, संस्मरण, कहानियाँ इत्यादि प्रकाशित।
वर्ष 2004 में ग़ज़ल संग्रह 'कुछ विषम सा' का प्रकाशन.
कविता संग्रह ‘तितली की मृत्यु का प्रातःकाल‘ प्रेस में।
कवि अपने समकालीन कवियों पर कविता लिखने से आज प्रायः कतराते हैं। लेकिन हमारी एक पीढ़ी ऐसी भी रहीं है जिसने अपने समकालीन कवियों पर खुल कर लिखा है। पद्मनाभ गौतम ने अपने समकालीन कवि मोहन नागर के लिए एक खूबसूरत कविता लिखी है। कोविड काल में मोहन अपने चिकित्सकीय धर्म का निर्वहन करते हुए खुद कोरोना के शिकार हो गए जिसकी कीमत उन्हें जान दे कर चुकानी पड़ी। जैसा कि खुद कवि पद्मनाभ गौतम ने लिखा है कि मोहन नागर अगर चाहते तो अपनी जान बचा सकते थे। यह उनके लिए आसान बात थी। लेकिन उनके अन्दर के कवि ने उन्हें चैन से बैठने नहीं दिया। मोहन केवल चिकित्सक ही नहीं बल्कि एक सरल सहज इंसान और प्यारे कवि थे। और यह मनुष्य ही तो है जो किसी अन्य मनुष्य के लिए, देश, दुनिया और पूरे समाज के लिए अपने संकीर्ण स्वार्थों को छोड़ कर अपना प्राण उत्सर्ग करने के लिए आगे आ जाता है। यही बात मनुष्य को अन्य जीवधारियों से पूरी तरह अलग कर देती है। पद्मनाभ पहली बार के शुरुआती रचनाकारों में रहे हैं। बीच में एक अंतराल के पश्चात हुए फिर लेखन की तरफ लौटे है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि खुद को और अधिक परिमार्जित कर लौटे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कभी पद्मनाभ गौतम की कुछ नई कविताएं।
पद्मनाभ गौतम की कविताएं
धुएँ की सीढ़ी
साउथ दिल्ली का
एक क़तरा कटवरिया सराय
कटवरिया के एक कोने में
मिथिला टी-स्टॉल,
टी स्टॉल पर हाथों में वेप और सिगरेट लिए,
डेढ़ जी. बी. डाटा से उत्स्रुत आज़ादी में
आकंठ डूबे कमसिन लड़के और लड़कियाँ,
नुमाइंदे एक निहायत बेपरवाह दुनिया के
और उसके ही समानान्तर समय में,
स्टॉल के कोने में धकियाया हुआ
कम शक्कर की चाय में डूबा
मेरा अस्तित्व,
'हैरी पॉटर' के ज़ादूगर और मगलुओं की तरह
हम हैं एक-दूसरे से अनभिज्ञ
आज़ाद ख़याल लड़कियों ने
पहन रखे हैं कम से कमतर वस्त्र
और लड़कों ने अंतर्वस्त्रों से नीचे
खिसकती जींस
लड़कियाँ हैं पूरी तरह आज़ाद,
पतली सी लेडीज़ सिगरेट के
उड़ते धुएँ की सीढ़ी पर चढ़ कर
छू लेना चाहती हैं आसमान
लड़के उतने ही लक्ष्यविहीन
एक लड़की मुझे देखती है,
फिर देखती है पलट कर दोबारा
अनायास करती है
एक अदृश्य आघात,
कि हो जाऊँ मैं
उसकी आज़ाद ख़याली से आहत,
फिर ढूँढने लग पड़ती है
अपने ढब के लिए तारीफ़,
और हार कर,
उसकी आँखों में उतरती है झेंप,
देख ली हो जैसे उसने मेरे चेहरे पर
अपने निराश पिता की छाया, अकस्मात्।
पिता जो इन दिनों होता है
अक्सर ही थका और हताश!
एकबारगी करता है मन
कि बतलाऊँ जा कर उन्हें आज़ादी का मतलब
आज़ादी इसकी,
कि खोज सको तुम अपना मॉक-थीटा फंक्शन
रोज की झंझटों से दूर,
विचरती दिन-रात अपने ही स्वप्नलोक में,
बस कोई तुम्हें हल्के से हिला कर
जब-तब रख जाए एक कप
कम शक्कर-कड़ी पत्ती की चाय,
आज़ादी यूँ कि
घने जंगलों में अकेली फिरती अभया,
खोज सको तुम वन-कुसुमों में छिपे
'फिबोनाची पैटर्न' निर्बाध,
और उस समय,
जब तुमको राँधना होता है भात,
भर सको कैनवस पर वह रंग
जो परे रहे आए हुसैन की कल्पनाओं से,
राजा रवि वर्मा की भी पहुँच से दूर,
आज़ादी, जैसे कि रात के तीसरे पहर
खोज सको तुम वह स्वर
जो गायब रहा था अब तक
बेगम अख़्तर की ठुमरी से,
और बेसाख़्ता खोज लो एक नयी तान,
जो गायी जाएगी सदियों तुम्हारे नाम से,
आज़ादी कुछ यूँ कि
घूरती घटिया निगाहों को रखतीं जूती की नोंक पर,
पहने मिनी स्कर्ट, खेल सको वह शॉट,
जिसे खेलना कभी
सानिया मिर्जा के लिए भी नहीं था आसान
यक़ीनन तुम्हारी खुली टांगें भी हैं
अपने तईं आज़ादी ही,
भले ही लगती हों मुझ जजमेंटल को,
आज़ादख़याल गुलामी,
या तमाम खूबसूरत आज़ादियों के बीच
एक गुरुत्वहीन आज़ादी,
लगभग उतनी ही जितना कि तुम्हारा
वह सस्ता हॉट-पैण्ट और झीना टॉप,
बुरा न मानना यदि मैं कहीं लिख जाऊँ उसे
डेढ़ जीबी डाटा का ख़ुमार भी
कौन सुनेगा मेरी बात
उसकी,
जो अब लगभग हो चुका है व्यतीत?
घड़ी में हैं ग्यारह बीस,
और चल पड़ा हूँ मैं दफ़्तर की ओर बेज़ार
अपनी गुलामी की ओर,
छोड़ कर उस बेहिस आज़ादी को
मिथिला टी-स्टॉल पर।
मोहन नागर के लिए
वह शायद गलती से
भटक कर आ गया था
एण्ड्रोमेडा या किसी और गैलेक्सी से
आकाशगंगा में
और उसके बाद
कविता खींच लाई उसे
धरती पर, काल सुरंग के रास्ते
भटकते हुए ही एक रोज़ उससे टकरा गये हम
आभासी दुनिया के अंतर्जाल में
अनूठा था वह,
जिसे न सीखा जा सकता था
न ही सिखाया जा सकता था
उससे या तो किया जा सकता था प्रेम
या फिर डाह,
उससे, और उसकी कविताओं से भी
वह प्रेम करने पर भी गरियाता
और डाह करने पर भी लड़ियाता
अक्सर, सिगरेट के कश के साथ
कर देता धुँआ-धुआँ माहौल
माहौल और आदमी दोनों
दोस्तों के दिलों में लफ़्ज़ों के बरमे से
करता सुराख़ और ज़ख्म दे कर भी
जा बैठता कहीं गहरे इश्क़िया,
खासकर अपने हमप्याला दोस्तों के
कलेजों में।
वह मैटर और एण्टीमैटर को
साथ मिला कर बना जीव था
वह कविता लिखता नहीं था
जब जी चाहता कविताओं का,
कि पहनें शब्दों के ख़ूबसूरत कपड़े ,
उतर कर सियाही में ख़ुद ही जा बिखरतीं
उसकी कलम की पगडण्डी में
प्रेम, घृणा, दर्द, उल्लास, गांव, शहर, जंगल,
आदमी, चिड़िया, पेड़, अतीत, वर्तमान
सब के लिए उसकी कलम थी
जादू की छड़ी,
जिस पर फेर दे
नाचने लगते थे एक इशारे पर
उसके गुलाम
आधी उम्र लगा कर रची कविताओं की
पेन ड्राइव खोने पर
हँसता बिना अफ़सोस के,
जैसे हँस रहा हो कविता का ‘निकोला टेस्ला’,
जैसे जानता हो कि
कुछ भी खो सकता है जहान में,
वह खुद भी, कभी भी
निश्चेतना का विशेषज्ञ डॉक्टर
बनता जा रहा था
विलक्षण चेतना का कवि
कविताई करते
एक दिन अलग हो गये हमारे रास्ते,
मैं ऊब रहा था कविता से,
और वह एक ऊबे हुए कवि से
ज़ुदा हो कर भी
आता रहा अक्सर सामने,
उसे पता था कब आना है सामने अचानक
एक दिन आया ले कर
दादा हरिशंकर अग्रवाल की मृत्यु का संदेश
जानता था किस बात पर छूना है किसको,
और कितनी गहराई तक
बरसों बाद एक दिन
अपने अतीत की चादर ओढ़े
पहुँचा उसके दरवाज़े,
तो दरवाज़े ने दिया उसी की तरह
बिना झिझके जवाब –
‘जा चुका है वह अपनी दुनिया में’
कोविड के मरीजों को बचाते,
कोविद चला गया वापस अपनी गैलेक्सी में,
और छोड़ गया पीछे अपना बाज़दफा ख़ैराती अस्पताल
दोस्तों ने बताया, चाहता तो बंद कर अस्पताल
बचा लेता अपने-आप को
पर वह कब था हमारी आकाशगंगा का आदमी!
जाते हुए छोड़ गया
अपनी कविताओं की नायिका डॉक्टरनी
जो समेटते-समेटते
उसका तमाम बोहेमियापा,
एक दिन सथियाने को मज़बूर हो गयी
उसकी यादें भी
'छूटे गाँव की चिरैया'*
उड़ गयी फुर्र से फिर एक बार
बस उसकी कविताओं के घर की मुंडेर पर
बैठी हैं उस की खूबसूरत कविताएँ, अवाक्
वह जहाँ कहीं भी है
जानता है,
कि मैं लिख रहा होऊँगा
ठीक यही कविता उसके लिए
बैठा दूर, अपनी गैलेक्सी में।
(डॉक्टर मोहन कुमार नागर, पिपरिया, मध्य प्रदेश के रहने वाले विलक्षण चेतना के कवि थे, जिन्हें कोविड ने असमय हमसे छीन लिया। मोहन अपने अस्पताल में सेवाएँ दे रहे थे। संक्रमित होने के कारण उनका असमय स्वर्गवास हो गया।)
* ‘छूटे गाँव की चिरैय्या’ - कवि मोहन नगर का चर्चित प्रथम कविता संग्रह।
जगत रास
मुँह अंधेरे उठती है वह
और उसके पैरों की आहट से
हड़बड़ा कर जागा कलगीदार मुर्गा
बाँग दे कर बन जाता है
सूरज का झंडाबरदार
तेज-तेज डग भर कर आता सूरज
हार जाता है हर रोज़
उससे पहले नहा लेने की होड़ में
झाड़ू की गुदगुदी से
कुनमुना कर जाग उठी
अलसाई धरती को
फंसा कर अपनी उँगलियों में
घुमा देती है वह एक लट्टू की तरह
और इस तरह हो जाता है शुरू
आलंग की छोटी सी दुनिया का
एक और दिन
चल पड़ती है वह
इसके बाद खींचने खेतों के कान
और रंगने लोअर मार्केट को
लाही पत्ते की हरियाली से
मापता है समय
उसके चलने से अपनी गति
और उसके रुकने पर सुस्ताती हैं
घड़ी की सुइयाँ भी
इस बीच
बाट जोह रहे होते हैं उसकी वापसी की,
एक उदास चांगघर,
स्कूल से लौटे बच्चे
और निकम्मे पत्तेबाज़ों की महफ़िल,
दिन ढले घर पहुँच कर
गिराती है वह खिड़कियों के परदे
और तब उसकी लालटेन जलाती
दिया-सलाई के इशारे पर
आँख खोलता है साँझ का पहला तारा
थक कर उसके आँख मूँद लेने पर
गहरा जाती है रात
और पास बहती योम्बू की गति
हो जाती है कुछ और मंथर
आख़िरकार वह सो जातीसीहै
इस बात से कतई अनजान
कि उसके ही जादू से चला है
यह रात-दिन का जगत-रास
आलंग - अरुणाचल के पश्चिमी सियांग जिले का मुख्यालय,
लाही-पत्ता - सरसों के जैसी भाजी,
चांग-घर = पेड़ के तनों व टोको पत्ता (बड़े पत्तों वाली झाड़ी) की छाजन से बना पारम्परिक अरुणाचली घर,
योम्बू - सियोम नदी
एक जोड़ी भावहीन आँखें
चाह कर भी नहीं कर सकता
जिस घड़ी प्रतिरोध,
बदल जाता हूँ मैं,
निर्लिप्त, भावहीन आँखों की जोड़ी में
मुझे देख कर चीखता है
हड़ताली मजदूर,
गूँजता है आसमान में
”प्रबंधन के दलालों को
जूता मारो सालों को” का शोर
तब एक जोड़ा झपकती हुई
आँखों के सिवा
और क्या हो सकता हूँ मैं
जिस वक्त नशेड़ची बेटे,
बदचलन बेटी या पुंसत्वहीनता का
अवसाद भुगतता अफसर,
होता है स्खलित
रौंदकर पैरों तले मेरा अस्तित्व,
तब भी एक जोड़ा भावहीन
आँखें ही तो होता हूँ मैं
एक सुबह
सर पर तलवार सी टंगी रहने वाली “पिंक स्लिप”
धर दी जाती है हथेली पर बेरहमी के साथ ,
और कठुआ कर हो जाता हूँ तब्दील
आँखों की भावहीन जोड़ी में
इन आँखों के हक़-हिस्से नहीं
विरोध में एक साथ उठती
हजारों मुटिठयों की ताकत
तब भी होता हूँ मैं एक जोड़ी
झपकती हुई आँखें ही,
जब नामकरण करते हो तुम मेरा
खाया-पिया-अघाया कवि
झुककर देखती हैं आँखें,
सुरक्षा की हजारों-हजार सीढ़ियों में
कदमों तले के दो कमज़ोर पायदान
और ठीक नीचे जबड़े फैलाए उस गर्त को
जिसे पाट न सकीं मिलकर
समूचे वंशवृक्ष की अस्थियां भी
एक जोड़ी आँखें हूँ मैं
जो झपक कर रह जाती हैं
इस ज़िद पर कि बेटा नहीं मनाएगा
जन्मदिन उनके बगैर
झपकती हैं जो उदास बेटी के सवाल पर,
आखिर उसके पिता ही
क्यों रहते हैं उससे दूर
पढ़ते हुए मासूम का राज़ीनामा,
कि जरूरी है रहना पिता का
स्कूल की फीस के लिए घर से दूर,
बस एक जोड़ा झपकती हुई आँखे
रह जाता हूँ मैं
एक जोड़ी आँखें हूँ मैं
जो बस झपक कर रह जाती हैं
जब कि चाहता हूँ चीखूँ पूरी ताकत से
या फिर फूट-फूट कर रोऊँ मैं
और तब, जब कि
एकतरफा घोषित कर दिया है तुमने मुझे
दुनिया पर शब्द जाल फेंकता धूर्त बहेलिया,
क्या विकल्प है मेरे पास
कि बदल नहीं जाऊँ मैं
एक जोड़ी भावहीन आँखों में
यह महज झपकना नहीं है आँखों का
पूरी ताकत से मेरे चीखने की आवाज़ है
ध्यान से सुनो,
चीखने के साथ-साथ
यह मेरे रोने की भी आवाज़ है।
तुम्हारे बग़ैर
कह पाना मश्किल है कि फ़र्क है कितना
चल तो जाती है ज़िन्दगी तुम्हारे बग़ैर
सुबह की चाय के बिना
उतनी बुरी भी नहीं दुनिया और
खुल जाती है नींद घड़ी के अलार्म से
तुम्हारी डाँट से खुली नींद सी
ख़ुशगवार नहीं
पर हो तो जाती है सुबह रोज़ ही
तुम्हारे बिना यूँ तो बहुत मुश्किल है
तोड़ पाना इस घर का तिलिस्म
पर अब याद रह जाती हैं वे जगहें
जहाँ रखे होते थे तुमने ज़रुरत के सामान
तुम्हारे न होने पर इस्तेमाल की जा सकती है
मेरी याददाश्त भी
हालाँकि, तुम्हारी तरह याद नहीं मुझको
कि कितने और किन रंगों के
कपड़े हैं मेरे पास,
बन जाती हैं खोज-बीन कर
ज़रुरत भर की जोड़ियाँ
कपड़ों की सलवटों पर
अक्सर ही दिख जाता है
तुम्हारा इस्तरी करता हाथ
अब भी घर से दफ़्तर,
दफ़्तर से घर ही है ज़िन्दगी
और घंटी के बजने के पहले ही
अब नहीं खुलता दरवाजा,
फिर भी लौट आता हूँ घर
उसी पुराने वक़्त पर
तुम्हें पता है
वक़्त पर क्यों घर लौटता हूँ मैं
तय रखे हैं मैंने शेव बनाने के दिन
आज भी तुम्हारे हिसाब से,
गुस्साता तो हूँ पर छूता नहीं
बाल और नाखून
मंगल, गुरु और शनिवार को
और अब नहीं रह गया रविवार
मेरा सबसे प्यारा दिन
फ़ुर्सत हमेशा ज़रूरी तो नहीं
सुनो, कहते हैं कि
चलता जाता है वक़्त का सफ़र
कोई साथ हो, न हो,
पर मैंने अब भी थाम रखा है इसे वहीं पर
जहाँ छोड़ा था तुमने इसे जाते हुए दूर
अब भी वहीं कहीं पर ठहरा हुआ है वक़्त
और घूम रहा हूँ मैं
एक वृत्त में।
ओ प्रियंवदा
ओ प्रियंवदा,
साल वनों में, उस निर्जन,
सुनसान सड़क पर,
झूले होंगे अमलतास अब
और पास के विरल वनों में
सुआ पाँख अवगुंठन ओढ़े,
दहक रहे होंगे पलाश अब
दूर-दूर तक उसी सड़क पर
फैली होगी महक बौर की,
चटख धूप की नर्मतपन में
बोझिल होगी अब दुपहर भी
वही दुपहरी, जिसमें हम-तुम,
ख़ामोशी की चादर ओढ़े
मीलों दूर चले जाते थे,
जहाँ मौन में गूँजा करते
गझिन नेह के गीत अबोले
आज हमारे बिना अकेली
होगी वहाँ स्वयं नीरवता
ढूँढ रही होगी हमको भी
खुद चुप्पी वह, ओ प्रियंवदा।
दुःख मत करना, रख देना इस
कठिन समय को बक्से में तुम
और सजा देना आले पर
सब अतीत के सुंदर पल-छिन
इन्हीं पलों में तो प्रत्याशा
है अतीत वापस पाने की
समय सदा ही नहीं भागता
कभी-कभी रुक भी जाता है,
एक घड़ी भी मिल जाए तो
एक सदी वह बन जाता है,
तब, जब भी वह कृष्ण-विवर के
तम-गह्वर में फंस जाता है,
समय निगोड़ा
बेबस हो कर पूर्ण शिथिल तब
पड़ जाता है,
कातर-अरझा समय घमंडी
सुनो वहीं तब मिल बैठेंगे,
नीरवता को खूब जियेंगे
विगत समय में जो कुछ खोया
जिसने बरसों तुम्हें रुलाया
क्षण भर के उस अंतराल में
सब-कुछ वापस पा लेंगे हम
और चिढ़ाएंगे हँस-हँस कर
थके समय को हम प्रियंवदा
सुनो-सुनो, जब भी तुम आना
'मिष्टीदोई' भी ले आना
और हाथ में लिए क्रोशिया
बुन लेना तुम समय डोर से
झीना-झीना एक दुशाला
जिसे ओढ़ कर बैठेंगे हम,
कृष्ण-विवर की उस चुप्पी में
अपने छीने गये पलों की,
कर लेंगे जी भर भरपाई,
हम फिर से इक बार जिएंगे
वह नीरवता ओ प्रियंवदा
समझ रही हो ना, प्रियंवदा!
बुंटी
कौन सा शब्द होगा
सबसे ज्यादा उपयुक्त उनके लिए
निपाक*, बुंटी**, या कांची या फिर कुछ और?
सब कुछ है जायज़ उन जुड़वाँ बहनों के लिए
क्योंकि उन्होंने जाना ही नहीं
कोई शब्द,
जो बन पाता उनके लिए
हुलस कर निहारने का कारण
अगर वे कुछ जानती हैं अच्छी तरह से
तो बस लोगों की निगाहों का मतलब
क्योंकि उन निगाहों में ही देखे हैं उन्होंने
अपने होने के कई माने
होश संभालने पर लोगों से सुना
कि वे हैं अँगूठा लगवा कर गोद ली गई बच्चियाँ
पर बिना किसी के बताए
सीख लिया उन्होंने
वे बेटियाँ नहीं बल्कि हैं एक कीमत,
चुकाई गयीं किसी मज़बूरी में लिए क़र्ज़ के एवज़
तरुणाई आते-आते जान लिया उन्होंने
कि बुंटियों के लिए नहीं होती उनके हिस्से की हँसी,
मेचुखा से ले कर लिकाबाली तक
दुनिया के जितने विस्तार की
गवाही दे सकती है उनकी आँखें,
उनमें कहीं नहीं है उनके हिस्से की ज़मीन
और न ही उन के हिस्से की उड़ान
तब एक दिन सीख लिया उन्होंने ओढ़ना
एक खोखली सूखी हँसी
अपने कांतिहीन चेहरों पर
करती हैं वे जिसे
हँसने के लिए उकसाने पर इस्तेमाल
उनकी आँखों में नहीं है कोई प्रतीक्षा
जैसे कि उनके लिए
दुनिया के सारे रास्ते
ले जाते हैं लोगों को उनसे दूर,
उनके माँ-बाप की तरह
कुछ भी पुकार लो उन्हें
निपाक, बुंटी, ए लड़की या कांची
या माला और सीता, उनके नाम
वे पूछ लेंगी प्रश्नवाचक निगाहों से तुम्हारा मतलब,
चेहरे पर कोई रंग लाए बगैर
आखिरी बार देखा था दोनों को
एकांत में पकड़े एक-दूसरे का हाथ
और खिलखिलाते किसी बात पर,
लगा कि शायद यह स्पर्श ही है
उनकी जीवनी-शक्ति का स्रोत
जिसके सहारे काट रही हैं
ये अभागिनें अपना दासत्व
यह भी, कि कभी-कभी
बुंटियाँ भी हँसती हैं खिलखिला कर,
लड़कियों की तरह अकेले में
*निपाक - मैदान से आये आदमी के लिए अपमानजनक सम्बोधन
**बुंटी - मैदान से आया बंधुआ, दास
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क :
मोबाइल - 9425580020,
ईमेल – pmishrageo@gmail.com
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