सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य में प्रतिरोध कम स्वांग की मात्रा ज़्यादा हो रही है'
सेवाराम त्रिपाठी |
जिस समय प्रतिरोध की सर्वाधिक आवश्यकता है, उस समय वह लगभग गायब दिखाई पड़ रहा है। पहले सड़क पर उतर कर प्रतिरोध करने की परम्परा थी। लोकतन्त्र में जब जब सत्ता निरंकुश, बेलगाम और अहंकारी होती चली जाती है तब तब इस प्रतिरोध की अहमियत बढ़ जाती है। सत्ताएं वैसे भी प्रतिरोध के खिलाफ होती हैं। व्यंग्य लेखन वही कर सकता है जो प्रतिरोध करने का माद्दा रखता हो। बिना प्रतिरोध के व्यंग्य बिना प्राण के शरीर जैसा होता है। उसकी कोई अहमियत नहीं होती। हो सकता है कि वह थोड़े समय के लिए गुदगुदी पैदा करे लेकिन इससे ज्यादा कुछ कर पाने की उसकी स्थिति नहीं होती। व्यंग्य तो कबीर का वह मार्ग है जो अपना ही घर जारने की हिम्मत रखता है। आलोचक सेवाराम त्रिपाठी व्यंग्य की हालिया स्थिति से अपनी चिन्ता दर्शाते हुए इसे उचित ही स्वांग कहना ज्यादा मुनासिब समझते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'व्यंग्य में प्रतिरोध कम स्वांग की मात्रा ज़्यादा हो रही है'।
'व्यंग्य में प्रतिरोध कम स्वांग की मात्रा ज़्यादा हो रही है'
सेवाराम त्रिपाठी
पहली बार किसी व्यक्ति ने एक विमर्श में व्यंग्य के संदर्भ में उसके प्रतिरोध का बहुत गंभीर, संजीदा और बेहद ज़रूरी मुद्दा उठाया है। यूं कहें कि प्रश्न उठाया। व्यंग्य कभी भी रस्म अदायगी का संसार नहीं हो सकता है। ज़ाहिर है कि व्यंग्य लेखन न तो सुविधा की दुनिया है और न किसी प्रकार के चमक-दमक का। वह एक विशेष प्रकार के चमक या 'चमकउल' में फंसा है। विसंगति, विडंबना और अंतर्विरोध व्यंग्य लेखन का जीवंत और जागृत संसार है। लेकिन हो यह रहा है कि प्रशंसाओं की धुरी पर वह घूमने लगा है। व्यंग्य लेखन कैसा भी हो उसकी मालाओं का निरंतर जाप करने से कोई निस्तार नहीं हो पाएगा। कबीर की उक्ति याद आ रही है कि 'चली कुलबोरन गंगा नहाय के'। व्यंग्य एक बेहद ताक़तवर और संभावनाशील ऐसी दुनिया है जहाँ आगत के और अनंत संभावनाओं के न जाने कितने क्षितिज खुलते हैं या उद्घाटित होते हैं। तथ्य यह है कि साहस के बिना व्यंग्य की तरफ़ झाँका भी नहीं जा सकता है। व्यंग्य लेखन किसी भी प्रकार की लीपापोती हो ही नहीं सकता। ज़मीर, प्रतिबद्धता और साफ़-सुथरी दृष्टि के बिना व्यंग्य की वास्तविकता को न तो ग्रहण किया जा सकता और न वहाँ घड़ी भर के लिए ठहरा जा सकता। हां, वहाँ केवल 'लाई-लुप्प' भर किया जा सकता है। जैसा आज की फिज़ाओं में विस्तार से हो रहा है। व्यंग्य लेखन किसी तरह की गोदा-गादी भी नहीं है। उसकी एक दिशा है, दृष्टि है और दृष्टि-बोध भी। इधर उसकी जनसंबद्धताएं कम हुई हैं और मारक क्षमतायें भी। व्यंग्य लेखन मात्र संभावनाओं के खेल से संभव भी नहीं हो सकता। उसके लिए जोख़िम भी उठाना पड़ता है। व्यंग्य लेखन कल्पना की दुनिया नहीं है बल्कि वह ज़िंदगी का ठोस यथार्थ है। व्यंग्य की डोर सामाजिक विषमता को अभिव्यक्त करने में है और हर हाल में ज़िंदगी के हाहाकार के प्रकटीकरण में ही संभव होती है। इसे किसी भी सूरत में नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
व्यंग्य लेखन की दुनिया और दृष्टि द्वंद्वात्मक होती है। व्यंग्य लेखन तो छद्म से ही लगातार संघर्ष करता है और प्रतिरोध भी। धीरे-धीरे उससे रचनात्मक पीड़ा और उत्तेजना कम से कमतर होती जा रही है। हां, टिपुर्रबाजी ज़्यादा बढ़ गई है। व्यंग्य लेखन को भ्रमवश नकारात्मकता की कोटि में देखा जाता है जबकि वह सकारात्मक है। वहाँ हम उसके दृष्टि-बोध को ही लें तभी उसकी व्याप्ति हर जगह संभव हो पाएगी।
एक विशेष स्थिति है कि न जाने हम कितने प्रकार के नेपथ्यों के बीच हैं। क्षरण अच्छे नागरिकों भर का नहीं है बल्कि अच्छे और जागरूक लेखकों का भी है। हर जगह कृतज्ञता का भाव तिरोहित होता जा रहा है। लेखन से जब प्रतिरोध कम होने लगता है तो बच बच कर चुपचाप निकल जाने की स्थितियां निर्मित होने लगती हैं तो व्यंग्य लेखन का 'अरण्यरोदन' के अलावा कुछ नहीं बचता। ताज्जुब है कि अब हम व्यंग्य के अरण्यरोदन में लपेट दिए गए हैं। कुछ हैं जो उसका मुस्तैदी से इस्तेमाल और व्यवहार कर रहे हैं। अन्यथा व्यंग्य की वास्तविकता या लुटिया ही डूब जाती। अनुज लुगुन की पंक्तियाँ हैं-
“वह कौन दैत्य है
जो लोहा खा जाता है
कौन साधु है
जिसके कमंडल में जा कर कोयला राख हो जाता है।”
इसकी बहुत साफ़गोई से पहचान करनी होगी। उसके 'मिशन' को व्यापक रूप में रेखांकित करना होगा। अन्यथा वो व्यंग्य को 'जलती होरी' में तापतूप लेगा।
व्यंग्य लेखन में ही प्रतिरोध से बचने के तरीक़े खोजे जा रहे हैं। बहुतों को लगता है कि व्यंग्य लेखन में प्रतिरोध की भूमिका किसी छुट्टा साँड की तरह है। जो सबको हुरपेट देगा। इसलिए वे प्रतिरोध से बचने की कोशिश कर रहे हैं या भाग रहे हैं। प्रतिरोध में खड़े होने से ही कमज़ोर के पक्ष में या साथ में खड़े हो सकते हैं और अन्याय का, विसंगतियों, अंतर्विरोधों, पाखंडों, विकृतियों और विरूपताओं का सक्षम मुक़ाबला कर सकते हैं। ढंग से प्रतिकार कर सकते हैं। अन्यथा तालाब में लहरें उठने को देख सकते हैं लेकिन कर कुछ नहीं सकते।
प्रतिरोध को हमनें बहुत हल्की चीज़ समझ लिया है। बदली हुई परिस्थिति में हम उससे बचने की कोशिश कर रहे हैं। जो ठीक ढंग से कमज़ोर के पक्ष में खड़ा नहीं हो सकता है। वह व्यंग्य लेखन का केवल नाटक कर सकता है किसी भी सूरत में निर्वाह नहीं। प्रतिरोध की जीती जागती संस्कृति होती है। यही मेरी समझ में व्यंग्य लेखन का असली संकट है। एक शातिर दिमाग़ उससे बचने की सूरत तलाश रहा है। असल तथ्य यह है कि प्रतिरोध हमारे जीवन, समाज, समय और राजनीतिक फिज़ाओं से लगातार गायब होता जा रहा है। इसलिए वहाँ एक विशेष प्रकार का 'बासीपन' और' ठंडापना' काबिज़ हो रहा है। दुर्भाग्य से प्रतिरोध साहित्य संस्कृति और कलाओं से लगभग ख़त्म हो रहा है। जो हम सभी के लिए विशेष चिंता की बात है। यहाँ तक कि हमारी अस्मिता, आकांक्षा, जिजीविषा और चिंता-धारा से भी परे जा रहा है। व्यंग्य लेखन के एजेंडे में ही प्रतिरोध है। सिद्धांत में तो है लेकिन व्यवहार क्षेत्र में नहीं। हम विरुद्धताओं से बाहर खिसकते जा रहे हैं। केवल एक विशेष प्रकार के संयोजन में जुटे हैं। सत्ता व्यवस्था और बाज़ार ने हमें सभी ओर से घेर लिया है। सुविख्यात तथ्य है कि विचार और जीवन उत्पादित नहीं किया जा सकता। वह हमारे आंतरिक लोक का वैभव है। हम उन्हें अपनी अवधारणाओं से भी बाहर करते जा रहे हैं। हां, एक विशेष प्रकार की निर्लज्जतापूर्वक मनमानी व्याख्याएं भी करते जा रहे हैं और लोगों को बार-बार छका रहे हैं।
लगातार बचने की वजह से हम निरंतर लघु से लघुतर या दिन रात लुगदी होते चले जा रहे हैं। हम अपने आपको देख नहीं रहे और न झांक पा रहे हैं। अच्छे विचारों की हत्या हमारा शगल होता जा रहा है। प्रो. रवीन्द्र कुमार का कहा स्मरण कर रहा हूं कि “हमें सच्चाई तथा आदर्श ढाँचे दोनों का अध्ययन करना होगा।” (सोशल थ्योरी एंड द हिस्टोरिकल परसेप्शन" नामक आलेख)
ज़ाहिर है कि हमारे सोच विचार और चिंतन में कुछ 'जार्गंस’' छा गए हैं। हमारी जीभ भी फट गई है और विचार भी। एक विशेष प्रकार के 'झूठ का छायायुद्ध' लड़ा जा रहा है। इस युद्ध में लेखक भी शामिल हैं। व्यंग्य लेखन को भी मिथक में तब्दील किया जा रहा है। यह एक विशेष किस्म का मायावी युद्ध है। कहते हैं जब लेखन में हड़बोंग चलने लगे और व्यंग्य लेखन एक फिनॉमिना में बदल दिया जाए। तब यही तो होना है। प्रतिरोध का कोई एक रूप नहीं हो सकता। ज़ाहिर है कि दुनिया के अनेक समाजों में प्रतीक में प्रतिरोध होता है और प्रतीक से प्रतिरोध की प्रवृत्ति पनपती हुई देखी जा सकती है। एक विशेष स्थिति यह पैदा की जा रही है कि लोक में पैदा होने वाले प्रतिरोध को ही कुचल दिया जाए। यह 'स्वतःस्फूर्तता' लोक से ख़त्म कर दी जाएगी तो बड़ी आसानी से लेखन और व्यंग्य लेखन से स्वाहा की जा सकती है। मिलान कुंदेरा ने सच ही कहा है- “शक्ति के विरुद्ध आदमी का संघर्ष वस्तुतः विस्मृति के विरुद्ध स्मृति का संघर्ष है।”
इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में हमें सोचना विचारना होगा कि हमारे समय में व्यंग्य लेखन की हैसियत और स्थिति क्या है? तथ्य यह है कि व्यंग्य लेखन कोई शांतिपाठ नहीं है और न ही कोई मुंह दिखाई। उसमें प्रतिरोध की ताक़त दिन-ब-दिन क्षरित होती जा रही है। जनसंबद्धता, सरोकर और उसके निश्चित आयामों में कमी महसूस की जा रही है। ऐसे हालात में वह स्वांग के रूप में विकसित होता हुआ जान पड़ रहा है। केवल उसका तुर्रा चढ़ा हुआ है। व्यंग्य लेखन की दुनिया लगातार सिमट और सिकुड़ रही है। काश! मैं ग़लत हो सकूं। अंत में परसाई का यह अंश ध्यान देने लायक है - “अपने पैर में जो जूता फिट न बैठे। उसे कोई जूता ही नहीं मानता। वे भूल जाते हैं कि कुछ जूते सिर के नाप के भी बनाए जाते हैं।”
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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