मानव समाज में श्रम विभाजन की प्रारम्भिक अवस्था में एक तरफ जहां पुरुषों के जिम्मे शिकार करना, लड़ाई करना और बाहरी व्यवस्थाएं करना आया, वहीं दूसरी तरफ महिलाओं के हिस्से में बच्चों की देखभाल एवम पालन पोषण करना, खाना बनाना एवम गृहस्थी चलाने की जिम्मेदारी आई। तब से आज तक यही व्यवस्था चली आ रही है जिसमें खाना बनाने और खिलाने का कार्य महिलाओं के ऊपर होता है। यह कार्य आजीवन चलता रहता है। लेकिन काम की एकरूपता से महिलाएं ऊबती भी हैं, पुरुष यह सोच भी नहीं पाते। जीवन की एकरसता को तोड़ने के लिए वे अपना रूटीन तोड़ कर उस होटल में जाती हैं जहां स्वादिष्ट खाना मिलता है। 'उन्हें लगता है कम से कम एक दिन तो ऐसा मिले जब उन्हें परिवार के लिए खाना न बनाना पड़े - खाना न बनाना उनकी आज़ादी का एक पहलू है लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण या शायद उससे ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि खाते समय उन्हें परिवार वालों की नज़रों की निगरानी में न रहना पड़े।' एक नई विषयवस्तु को अपने कहानी का विषय बनाया है तमिल और अंग्रेजी में लिखने वाली लक्ष्मी कन्नन ने। विचारक यादवेन्द्र जी पहली बार पर सिलसिलेवार ढंग से हर महीने के पहले रविवार को समकालीन कहानियों पर 'जिन्दगी एक कहानी है' शृंखला के अन्तर्गत अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं। यादवेन्द्र जी ने इस शृंखला की दूसरी कड़ी में बातचीत के लिए चयन किया है लक्ष्मी कन्नन की कहानी जो उनके संग्रह 'गिल्ट ट्रिप एंड अदर स्टोरीज़' से ले गई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं इस कहानी पर आधारित यादवेन्द्र का आलेख 'आज़ादी का स्वाद एकदम अनूठा है''।
आज़ादी का स्वाद एकदम अनूठा है
यादवेन्द्र
लगभग तीस किताबों की लेखक लक्ष्मी कन्नन तमिल और अंग्रेजी में कविता कहानी और उपन्यास लिखती हैं। लिखने वाली वरिष्ठ लेखक हैं। वे तमिल और अंग्रेज़ी के बीच समान रूप से आवाजाही करने वाली साहित्यिक अनुवादक भी हैं। तमिल में वे कावेरी नाम से लिखती हैं।
अभी उनकी अंग्रेज़ी में लिखी कहानियों का नया संकलन गिल्ट ट्रिप एंड अदर स्टोरीज़ (नियोगी बुक्स) पढ़ रहा हूं जिसमें एक कहानी अपने कहन में मुझे बहुत विशिष्ट लगी। उसको फिर पढ़ा, फिर पढ़ा। इस कहानी का शीर्षक है 'अन्नपूर्णा भवन' जो मध्यवर्गीय भारतीय समाज में स्त्री की भूमिका, महत्व और अधिकार को एक अलग रोशनी में प्रस्तुत करता है।
इस कहानी की नायिका तारा नाम की एक अधेड़ तमिल स्त्री है जो अपनी किसी बीमार दोस्त से अस्पताल में मिलने दिल्ली से चल कर मद्रास जाती है। उससे मिलने का समय दोपहर के आस-पास है और उसके परिवार को यह स्वाभाविक चिंता है कि वह अस्पताल से निकल कर अपना लंच कहां ले। अगले काम से पहले उसके पास दो घंटे का समय है। वे सभी मिल कर उसके लिए निकटवर्ती, साफ़ सुथरी, सम्मानजनक और दक्षिण भारतीय खान-पान के लिए जाने जाने वाली किसी ऐसी जगह की तलाश में है जहां वह बगैर डर भय के अकेली जा कर खाना खा सके। वे उसके लिए तरह-तरह के विकल्प सुझाते हैं, अनेक सम्मानजनक विकल्पों के ठिकाने गूगल मैप पर साझा करते हैं पर उसकी स्वयं की बड़ी चिंता यह है कि जब परिवार के लोगों ने दोपहर में उसके खाने के बारे में सोचा तो यह क्यों नहीं सोचा कि जो पारिवारिक ड्राइवर उसे ले कर वहां जाएगा दोपहर का खाना वह कहां खाएगा।
वह खाने के लिए जब निकलती है तो ड्राइवर से कहती है कि जहां मैं खाऊंगी वहीं तुम भी खा लेना। लेकिन वर्ग-भेद को ध्यान में रखते हुए ड्राइवर सिरे से इस बात को खारिज कर देता है, उसे चिंता है कि उसका ऐसा करना जब मालिक को पता चलेगा तो वह उस पर बहुत नाराज़ होंगे। तारा उसे बहुत समझाती बुझाती और कन्विंस करने की कोशिश करती है लेकिन वह टस से मस नहीं होता। अंत में तारा इस बात पर अड़ जाती है कि खाएंगे तो हम दोनों साथ ही, यदि मेरी पसंद की जगह पर नहीं तो ड्राइवर जहां खाएगा वह भी वहीं खाएगी। ड्राइवर इस बात पर बहुत शर्मिंदा होता है, वह बार-बार तरह-तरह के तर्क दे कर उसे विमुख करने की कोशिश करता है - वह बहुत छोटा सा गरीबों का होटल है, बहुत साफ़ सुथरा नहीं है, आप जैसे बड़े लोग वहां नहीं जाते, परिवारों के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं है (पर उसका खाना बहुत स्वादिष्ट है।)
अम्मा मैं कैसे बताऊं कि मैं आपके साथ न्यू वुडलैंड्स में खाने क्यों नहीं जा सकता, आप समझ नहीं पाएंगी।
अच्छा, कारण बताओ तो।
अब यदि मैं कुछ पकवानों के बारे में आपको बताऊं जो उस छोटे से मामूली से होटल में मिल जाते हैं तो आप यकीन भी नहीं करेंगी ...हो सकता है उनमें से बहुतों के नाम भी आपको न मालूम हों।
तारा ने जब ज़िद की तो उसने एक साथ कई ऐसे पकवानों के नाम बता दिए जिसका ज़िक्र करते हुए उसके मुंह में पानी आ गया।
दोरई, मैं इनमें से एक-एक पकवान को जानती हूं। मैं इन्हीं के बीच पली बढ़ी हूं और मुझे अभी भी याद है कि मेरी मां कितने स्वादिष्ट पकवान बनाया करती थी। यह तो मेरे लिए खास खुशी का मौका है कि तुम मुझे ऐसी जगह ले कर जा रहे हो जहां एक साथ बरसों बाद इन सभी पकवानों का स्वाद मुझे मिल जाएगा।
ड्राइवर से उस होटल का वर्णन सुन कर तारा वहां जाने के लिए और उत्सुक हो जाती है और अन्ततः वहां पहुंच ही जाती है। सच बात यह है कि अन्नपूर्णा भवन एक ऐसी गली में था जिसके अंदर गाड़ी नहीं खड़ी की जा सकती और कुछ दूर भीड़ में पैदल चल कर ही वहां पहुंचा जा सकता था।
वहां पहुंचते ही खाने की सुगंध नाक में समाने लगती है। ड्राइवर घबराया हुआ है, वह मैनेजर से गुजारिश करता है कि मैडम के लिए फैमिली सेक्शन में एक साफ सुथरी टेबल दे दे लेकिन मैनेजर मजबूर है, कहता है कि कोई टेबल खाली नहीं है और कम से कम आधे घंटे इंतजार के बाद ही वह कोई व्यवस्था कर पाएगा। तारा कहती है कोई बात नहीं मैं जनरल सेक्शन में ही बैठ कर खा लूंगी लेकिन इस संभ्रांत ग्राहक को देख कर मैनेजर भी इस बात के लिए राजी नहीं होता।
वहां पहुंच कर बैठते ही तारा देखती है कि पहले से ढेर सारी औरतें रंग-बिरंगी साड़ियों में बैठी हैं, खूब मशगूल हो कर गप्पें मार रही हैं। उनके हंसी मज़ाक सब ओर गूंज रहे हैं और घर वालों से दूर होने के कारण बातचीत में कोई लगाम या अंकुश भी नहीं। तारा ने उनकी बातचीत से अनुमान लगाया कि सखियां सहेलियां पहले से आपस में बात कर के एक साथ वहां इकट्ठा हुई हैं।
उनके सामने केले के पत्तों पर बारी-बारी से व्यंजन परोसे जा रहे हैं, कोर्स बाय कोर्स। करी पत्ता, अदरक और नमक डाल कर छाछ से शुरुआत की जाती है, उसके बाद खाने की बारी आती है। खाना परोसने वाले वेटर और उन औरतों का मिला-जुला शोर तारा को बहुत अजीब लगता है, उसने ऐसा कभी देखा ही नहीं था। वहां बैठी हुई औरतें गप्पे मार रही थीं लेकिन इतनी सजग भी थीं कि उन्हें भरपूर ध्यान रहता था खाने का क्या व्यंजन मिला, क्या नहीं मिला। जो नहीं या कम मिलता उसके लिए वेटर को बुला कर पूरे अधिकार से वह उसे प्राप्त करतीं और विशेष बात यह कि वहां बैठ कर खाना खाती औरतों को सिर्फ अपने पत्तलों की चिंता नहीं थी बल्कि आसपास बैठी सखियों सहेलियों परिचितों के पत्तलों की फ़िक्र भी रहती थी। वह अपने लिए जब कोई व्यंजन मांगतीं तो वेटर को यह भी ध्यान दिलातीं कि फलां फलां पत्तल में यह सामान नहीं है, उनको भी दो। उन्हें देख कर ऐसा लगता था कि सब एक ही परिवार की औरतें हैं जबकि सच्चाई यह थी कि वे सब अलग-अलग परिवारों से अलग-अलग घरों से आई हुई औरतें थीं जो समय निकाल कर हफ़्ते दस दिन में आज़ादी से वहां खाना खाने आतीं। लेकिन उनके बीच एक खास तरह का अपनापा और अंतरंगता थी, यह अंतरंगता सिर्फ़ उनके बीच नहीं थी उनकी उस अंतरंग दुनिया या परिवार में खाना परोसने वाले वेटर भी उसी अधिकार से शामिल होते थे।
कुछ ऐसे पकवान होते जिनको पत्तल पर रख कर वेटर उनसे बीच में गड्ढा करने को कहता। फिर उसमें तिल का तेल या घी डालता तो औरतें उसके अंदर उंगली डाल कर नाक पर लगा कर सूंघतीं। इसे देख कर तारा ने अचरज से पूछा:
क्या सूंघ रही हैं?
वे यह परख रही हैं कि असली है या नकली? उन्हें कोई धोखा नहीं दे सकता। यदि कोई नकली चीज़ हम उन्हें दे दें तो वे हमारी गर्दन पकड़ लेंगी। इसकी वजह यह है कि यह सभी औरतें खुद बहुत बढ़िया खाना बनाती हैं, यहां वे केवल चेंज के लिए आती हैं अपनी रूटीन दिनचर्या से मुक्ति पा कर एक बदलाव के लिए आती हैं। उन्हें लगता है कम से कम एक दिन तो ऐसा मिले जब उन्हें परिवार के लिए खाना न बनाना पड़े - खाना न बनाना उनकी आज़ादी का एक पहलू है लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण या शायद उससे ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि खाते समय उन्हें परिवार वालों की नज़रों की निगरानी में न रहना पड़े।
वे औरतें आपस में बोल बतिया रही थीं : यहां आकर लगता है हम अपनी मां के घर आई हैं। जितना चाहें उतना खाएं, कोई कुछ बोलने टोकने वाला नहीं है न कोई ननद, न चाची न सास किसी की थी नज़र मेरे खाने पर नहीं है... कोई मुझे खाते देख कर त्योरियां नहीं चढ़ा रहा है। उन सबको लगता है कि हम औरतों को भरपेट नहीं खाना चाहिए, भरपेट खाना औरतों के लिए बहुत अधम और गंदा काम है।
उनमें से कोई औरत बोली : लोगों को देखने से लगता होगा कि हम कितनी शालीन और भद्र औरत हैं हालांकि उन्हें खाना परोसने वाले वेटर जानते थे कि वह कितनी बेशर्मी के साथ घर परिवार की बातें करती हैं और बेहिसाब खाना खाती हैं।
उन सब का वेटरों के साथ बहुत हंसी मज़ाक का रिश्ता था। एक औरत ने चुहलबाज़ी करते हुए शरारती अंदाज़ में वेटर से पूछा: तुम जब घर पर रहते हो तो खाना बनाने में क्या अपनी पत्नी की मदद करते हो?
धत, यह भी भला कोई सवाल हुआ? घर अलग जगह है और यह अलग जगह...।
बात टालते देख एक औरत उससे पूछ ही देती है : तुम्हारी पत्नी तो बहुत किस्मत वाली है जिसको अच्छा स्वादिष्ट खाना जी भर के खिलाने वाला घर में ही है।
अब मज़ाक मत करो... वैसे वह भाग्यशाली तो है ही। फिर भी घर यहां से अलग जगह है।
यह बहुत शातिर बंदा है, साफ़-साफ़ जवाब नहीं दे रहा है... मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि घर पर यह बिल्कुल अलग व्यक्ति होगा... उसकी पत्नी ही उसको परोसती खिलाती होगी, यह तो अपना हाथ भी नहीं हिलाता होगा।, दूसरी औरत ने भरपूर उकसावे के साथ चुटकी ली। फिर भी उसके कानों पर जूं नहीं रेंगी, वह टालू अंदाज़ में बातों की दिशा इधर-उधर मोड़ने की कोशिश करता रहा।
तारा यह सब विस्मय के साथ देखती रही और भरपूर स्वाद ले कर एक एक व्यंजन खाती रही... बचपन के इतने सालों बाद उसे यह सब फिर से खाने को मिला था।
जहां आने न देने के लिए उसके ड्राइवर ने एंड़ी चोटी का जोर लगा दिया था और उसका संभ्रांत परिवार उसके वैसे मामूली होटल में खाना खाने की कल्पना नहीं कर सकता था वहां के खाने का स्वाद बचपन के बिल्कुल घर के खाने जैसा था, और वहां का माहौल ऐसा लगता था जैसे साक्षात अन्नपूर्णा देवी प्रकट हो गई हों और वही वहां बैठ कर खाने वालों को बड़े प्यार से मां की तरह खाना परोसती और खिला रही हों।
तारा बड़ी दिलचस्पी के साथ यह सब देखती सुनती रही - अघा कर खाना खाने वाली औरतें कितनी संतुष्ट और खुश दिख रही हैं, पर उन्हें हँसी ठठ्ठा करते हुए खिलाने वाले वेटर भी किसी तरह से कम संतुष्ट नहीं थे। सब के चेहरों पर थकान के कोई निशान नहीं थे बल्कि काम ठीक ढंग से कर पाने की मुस्कान व्याप्त थी।
खाने के अंत में लेखक ने जिस तरह से समापन सामग्री के रूप में पके हुए कटहल के अंदर शहद डाल कर परोसने का ज़िक्र किया है वह किसी भी रसप्रेमी पाठक को शब्दों से पार ले जा कर एक खास तरह की सुखानुभूति का आनंद देती है।
यह खाते हुए तारा को एक पल को भी ऐसा नहीं लगता है कि शहद की कोई बूंद छलक कर यदि उसके साफ़ सुथरी साड़ी पर गिर जाएगी तो भद्द पिटेगी। उसके पास या वहां टेबल पर भी कहीं कोई टिशू पेपर नहीं था। बगैर आगे पीछे सोचे उसने अपने पर्स से रुमाल बाहर निकाला और यह परवाह नहीं की कि उस पर चिपचिपा शहद चिपक जाएगा तो क्या होगा।
खाना खा कर होटल से बाहर निकलते हुए तारा ने महसूस किया कि उसके कंधों पर बरसों बरस से रखा हुआ बोझ अचानक से फिसल कर कहीं दूर जा गिरा... उसे अपने पैरों के ऊपर एक रोशनी दिखाई दी। अपने बचपन को किसी ऐसी अप्रत्याशित जगह पर फिर से जी लेने का सुख अवर्णनीय था। उसे लगा जैसे उसके सीने के अंदर दुबक कर बैठा हुआ पक्षी अपने पंख फड़फड़ा कर वहां से चला और मुक्त आकाश में उड़ गया।
लक्ष्मी कन्नन क़िताब की भूमिका में इस कहानी के बारे में लिखती हैं : मुझे लगता है कि पकवानों को लेकर सदियों से जो एक खास तरह का विमर्श बनाया गया है उसे आसानी से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। जो लोग किसी स्त्री की शख्सियत को उसके बनाए पकवानों और स्वाद से अनिवार्य रूप से जोड़ कर देखते हैं वह न तो यह देख पाते हैं और न ही देखना चाहते हैं कि औरतों को भी भूख लगती है, कि उनकी ख्वाहिश भी अच्छा सुस्वादु भोजन करने की होती है। औरतें हाड़ मांस और भावनाओं की निर्मिति होती हैं कोई निर्भाव शिला नहीं होतीं - अच्छे पकवान उन्हें भी वैसे ही और उतने ही प्रिय होते हैं जितने पुरुषों को होते हैं। मर्द इस पूरी सच्चाई पर पर्दा डाले रहते हैं, उसकी पूरी तरह से अनदेखी कर देते हैं इसलिए मैंने सायास पर पूरी सहज विश्वसनीयता के साथ इस पूरे परिदृश्य को 'अन्नपूर्णा भवन' में बदलने ही नहीं बल्कि पलटने की कोशिश की है ताकि दकियानूस और अड़ियल भारतीय समाज में औरतों की जो अवास्तविक छवि गढ़ी गई है उस पर आघात किया जा सके। यह कहानी मध्य और निम्न वर्गीय औरतों के माध्यम से वह रास्ता दिखती है जिसमें क्रूर सामाजिक ढांचे को धता बताया जा सकता है... ये मामूली औरतें अपने लिए आजादी के जश्न की तरह कुछ घंटे का वैसा समय निकाल कर घर से बाहर निकलती हैं जहां परिवार का कोई सदस्य उनके ऊपर नियंत्रणकारी नज़र नहीं रख सकता और वे उन्मुक्त भाव से वह सब कुछ करती हैं जिनका उनके दिल में ख्याल आता है। मुझे उम्मीद है कि ज़िंदगी के उद्दाम आवेग से भरपूर ये औरतें बगैर लाउड हुए सहज ढंग से अपने अधिकारों का जिस तरह प्रदर्शन करती हैं उससे पारंपरिक समाज में बदलाव की नई बयार बहने के रास्ते खुलेंगे।
सम्पर्क
मोबाइल : 9411100294
शानदार लेख। फूडी n होने के बावजूद कैसी भोजन के प्रति कैसी अनचीन्ही सी भूख जगा दी इस लेख ने। अद्भुत
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