महेश चंद्र पुनेठा का आलेख 'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी'


महेश चन्द्र पुनेठा 



पहली बार का आर्काइव देखते हुए कुछ ऐसी सामग्री मिली जिसका हम अपरिहार्य कारणों से तत्काल प्रकाशित नहीं कर पाए थे। आगे से हम हर महीने आर्काइव की कोई एक सामग्री आपके समक्ष प्रस्तुत करेंगे। इस कड़ी की शुरुआत हम कर रहे हैं महेश चन्द्र पुनेठा की इस पोस्ट से।

महेश चन्द्र पुनेठा न केवल एक बेहतर कवि हैं बल्कि वे एक बेहतर आलोचक भी हैं। इधर महेश ने कई महत्वपूर्ण आलेख लिख कर इस तथ्य को सच साबित किया है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है महेश का कबीर पर यह सारगर्भित आलेख - तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी। जिसमें इन्होने अपने तर्कों द्वारा यह बात रखी है कि कबीर क्यों हमारे लिए आज भी जरूरी  हैं। 
 
 

'तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आँखिन की देखी'


महेश चन्द्र पुनेठा

    
छः सौ साल से अधिक व्यतीत हो चुके  हैं पर आज भी कबीर  जिंदा हैं। न केवल किताबों में बल्कि लोकमन में भी। उनकी ऐेसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो पढ़े-लिखे लोगों के ही नहीं बल्कि निरक्षरों के मुँह से भी सुनी जा सकती हैं। इसका कारण कबीर का अनेकरूपा होना मान जा सकता है। उनके यहाँ हर व्यक्ति को उसके पसंद की कोई न कोई बात मिल ही जाती है-लौकिक को लोक की बातें, लोकोत्तर को परलोक की, प्रेमी को प्रेम की बातें, ज्ञानी को ज्ञान की, भक्त को भगवान की बातें और सामाजिक को समाज की। चर्चित पुस्तक ’अकथ कथा प्रेम की’ के लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में कहें,’’ कुछ लोग समाज की उपेक्षा कर प्रेम के एकांत में डूब जाते हैं, तो कुछ लोग प्रेम की उपेक्षा कर सामाजिक क्रांति में लग जाते हैं। ऐसी स्थिति में कहना ही पड़ जाता है -’’मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग’’ लेकिन कबीर कहीं नहीं कहते कि पहले धर्म सत्ता या जाति व्यवस्था को ध्वस्त कर लें प्रेम बाद में देखा जाएगा। वे सामजिक सत्ता से जिरह को प्रेमानुभूति के निहितार्थ तक भी नहीं छोड़ देते। वे प्रेम को संज्ञात्मक कर्म बनाते हैं -"इस संज्ञान में कामभावना, रामभावना और समाज-भावना के बीच सतत निरंतरता का संबंध है। यह पहले व पीछे वाला प्राथमिकता क्रम नहीं, अपने प्रिय राम से संवाद कबीर प्रेमानुभूति के पलों में भी करते हैं, सामाजिक आलोचना के पलों में भी।’’  


कबीर विचारक-साधक-आलोचक-सुधारक एक साथ हैं। उन्हें शास्त्र  का भ्रम और लोक का भय दोनों  ही नहीं है। वे जीवन सत्यों से स्वयं संवाद करते हैं  और पाठको को संवाद के लिए  आमंत्रित करते हैं। उनके यहाँ परम्परा भी है और आधुनिकता भी। कुछ संदर्भों में  वे मध्यकालीन हैं तो कुछ  में समकालीन। उनकी कविता तथा उनका दर्शन आज भी कमजोर, उपेक्षित, असहाय, शोषित-उत्पीड़ित लोगों को लड़ने की ताकत देता है। उनमें अपने समय की भौतिक पीड़ा और त्रास का गहरा संचरण है। कबीर ने सामान्य जन को छली-कपटी-पाखंडी लोगों से सावधान किया। भेद-बुद्धि से अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों पर प्रहार किया है। उनके खिलाफ जागरण किया। अपने समय और समाज से उनकी नजर कभी ओझल नहीं हुई। कबीर संसार को छोड़ने की नहीं बल्कि उससे भिड़ने की बात कहते हैं। 

उनकी स्पष्ट मान्यता है-

ना हरि रीझैं जप-तप कीन्हे, ना काया के जारे।/ 
ना हरि रीझैं धोती छाँड़े, ना पाँचों के मारे।। 

उनके बारे में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कहना बिल्कुल सही है, ’’कबीर ने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया।’’अपने समय में सामाजिक वैषम्यता से पैदा पीड़ा उनके दर्शन के मूल में हैं। जातिवाद और सांप्रदायिकता के विरोध में आज भी उनकी वाणी हमारा मार्गदर्शन करती है।





   
धर्म-जाति के  नाम पर होने वाले भेदभावों  के संदर्भ में कबीर  आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने आज से छः सौ  साल पहले। कबीर किसी धर्म विशेष के नहीं  बल्कि संगठित धर्म की  धारणा मात्र के आलोचक हैं।उन्होंने ’लोकधर्म’ की प्रतिष्ठा की जिसके बारे में वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह अपनी पुस्तक ’शब्द और संस्कृति’ में लिखते हैं, ’’लोकधर्म’ का मलतब किसी बाहरी काल्पनिक, आदर्श, एवं मिथकीय नायक द्वारा अत्याचारों और संकटों से ही लोक की रक्षा का उपाय करना नहीं है, बल्कि मनुष्य के भीतर का, जो अदृश्य किंतु कुटिल अनाचार है, उस की खोज करके उस शत्रु से संघर्ष करना भी ’लोकधर्म’ है। कबीर ने अपने समय में सत्य को उद्घाटित कर इसी, भीतर के लोकधर्म की प्रतिष्ठा की है। इस भीतर को जाने-समझे बिना बाहर का जानना एकांगी, अधूरा एवं मात्र मन बहलाव का साधन बन सकता है।’’ उनके लोकधर्म में उस समय प्रचलित शास्त्रीय धर्म की आलोचना और उस युग के किसानों-दस्तकारों की पीड़ा की अभिव्यक्ति और दमनकारी समाजिक व्यवस्था-मूल्यों के विरुद्ध विद्रोह है। प्रेम जैसे मानवीय भावों को लोकधर्म का आधार बना कर समाज में मनुष्यत्व की स्थापना करना चाहते हैं। वह प्रेम को कितना महत्व देते हैं इन पंक्तियों से समझा जा जा सकता है-

कबीर यहु घर प्रेम  का खाला घर नाहिं
शीश उतारे भुंई धरे, सो पैठे घर मांहि।
प्रेम न खेतौं निपजै, प्रेम न हाटि बिकाई
राजा प्रजा जिस रुचै सिर दे सो ले जाई।

उनका समस्त मानवों की आत्मिक एकरूपता पर  गहरा विश्वास है। वह व्यक्ति-व्यक्ति के बीच  किसी तरह का भेद नहीं करते हैं-


एक ज्योति थैं  सब उत्पन्ना को बाभन को सूदा। 

उनकी मान्यता  है-

माटी एक एकल संसारा, बहु विधि भाँडे, गड़ै कुम्हारा। 

 वह हमसे विचार करने को कहते हैं- 

साधो, एक रूप सब माहीं
अपने मनहिं विचारि के देखौ और दूसरे नाही
एकै त्वचा रुधिर पुनि एकै विप्र सूद्र के माहीं।’ 

जो लोग जातिगत व्यवस्था को दैवीय और जायज ठहराते हैं, उनसे कबीर का यह प्रश्न बहुत तर्कसंगत है-

जो तू बाभन जाया, आन बाट है क्यों न आया।......
जो तू तुरुक तुरुकिनी जाया, पेटे सुन्नत क्यों न कराया।’ 

कबीर की दृष्टि में बाह्याडंबरों या कर्मकांडों से किसी का भला नहीं होने वाला असली बात तो मन के सुधार की है। वह हिंदू-मुस्लिमो के विभिन्न रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और कर्मकांडों पर जो आज भी हमारे समाज में बनी हुई हैं, तीखी चोट करते हैं। उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। उनका व्यंग्य तिलमिलाने को विवश कर देता है। उनके व्यंग्य की धार के कुछ उदाहरण देखिए-

अरे इन दोहुन राह न पाई 
 हिंदू अपनी करे बढ़ाई, गागर छूअन न देई
वैश्या के पाँव तले सोए
 ये देखो हिंदुआई
 मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा मुर्गी खाई
 खाला केरी बेटी ब्याहैं, घरहि में करें सगाई। .........


जारि बारि करि आवै देहा। मूवाँ पीछै गीति स्नेहा।। 
जीवत पित्र मारहि डंगा। मूँवा पित्र ले घालैं गंगा।। 
जीवत पित्र कूँ अन न ख्वावैं। मूँवा पाछै प्यंड भरावैं।। 
जीवत पित्रा कूँ बोलैं अपराध। मूवाँ पीछैं देहि सराध।। 
कहि कबीर मोहि अचिरत आवै। कऊवा खाई पित्र क्यूं पावै।। .......
यह सब झूठी वंदनी, वरिया पंच निवाज
दिन को रोजा रहत है, रात हनत है गाय
यह खून वह बंदगी, कहूँ क्यों खुशी खुदाय। 


कबीर की खासियत है कि वह शेखों-पंडितों के औजारों से ही उन पर हमला करते हैं। उनके ही तर्कों पर सवाल खड़े करते हैं। ’सब घटि देखै रामा’ कहने वाले वेद पाठी पंडितों से यह पूछने से नहीं हिचकते हैं कि यदि सभी घटों में तुम्हें राम दिखाई देते हैं तो फिर ऊँच-नीच कैसे मान पाते हो?




    

कबीर बहुत  साहसी कवि हैं। ऐसा  साहस विरलों में ही  दिखाई देता है। वह अपने समय में पंडितों और  शेखों से एक साथ लड़े। एक दकियानूसी समाज में  जो बहुत कठिन था। आज लोकतंत्र के दौर में  भी ऐसा साहस बहुत कम रचनाकारों में देखने  को मिलता है।इससे कबीर  के अपूर्व आत्मविश्वास  का पता चलता है।ईश्वरीय  सत्ता के अलावा उन्होंने  किसी सत्ता के सामने  समर्पण नहीं किया। उनके  बारे में आचार्य हजारी प्रसाद  द्विवेदी का यह कहना  बिल्कुल सही प्रतीत होता  है- वे मनुष्य बुद्धि को व्याहत करने वाली सभी वस्तुओं को अस्वीकार करने का अपार साहस ले कर अवतीर्ण हुए थे।


उनकी सरलता और स्पष्टवादिता अनुकरणीय है।कबीर सहज सत्य को सहज ढंग से व्यक्त करते हैं।वे उन निरर्थक आचारों को व्यर्थ समझते  हैं जो असली बातों को ढक देते हैं। बाह्याडंबरों  और मनुष्य के व्यवहार  पर कबीर का यह अवलोकन  आज भी उतना ही मारक है जितना उनके समय में- 


संतो देखत जग बौराना
सांच कहौं तो मारन धावै। झूठे जग पतियाना।।
नेमि देखा धर्मी  देखा प्रातः करे अस्नान।।
आतममारि पखानहि पूजै।  उनमें कछु नहीं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया। पढै़ किताब कुराना।।
कै मुरीद तदबीर  बतावै। उनमें उहै जो ज्ञाना।।
आसन माने डिंभ घरि  बैठै। मन में बहुत गुमाना।।
पीतर पाथर पूजन लागे।  तीरथ गर्व भुलाना।।
टोपी पहरै माला पहरे।  छाप तिलक अनुमाना।।
साखी सबदी गावत भूलै।  आतम खबरी नहीं जाना।।

हिंदु कहै मोहि राम  प्यारा। तुर्क कहै रहिमाना।।
आपस मे दोउ लरि मुये।  मर्म ना काहू जाने।।
घर घर मंत्र फिरत है । महिमा के अभिमाना ।।
गुरु के सहित शिष्य  सब बूड़े अंतकाल र्पिछताना।।

इस तरह की पंक्तियाँ  कबीर को एक कालजयी रचनाकार  सिद्ध करती हैं। उनका दर्शन  आज भी जीवन की जटिलताओं से जूझने में हमारी मदद करता है। उनको जीवन की ऊँचाई नहीं विस्तार और गहराई अधिक प्रभावित करती है इसलिए वह कहते हैं-

‘ऊँचा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर। 

ऐसी ऊँचाई का उनके लिए कोई महत्व नहीं जो केवल अपने लिए ही हो। जिसका लाभ अन्य तक नहीं पहुँच  पाए उसे व्यर्थ मानते  थे। उनका विश्वास ऊँची करनी पर है तभी तो कहते है-

ऊँचे कुल क्या जन्मियाँ जे करनी ऊँच न होय।
 सोवन कलस सुरा भरिया साधु निंदा सोय। 

कबीर आचरण पर बल देते थे। कथनी-करनी के अंतर को समाप्त करने की बात करते हैं।





   

कबीर की एक बड़ी विशेषता यह है कि वह  कर्म सम्पन्न जिंदगी को महत्व देते हुए गर्हित  समझे जाने वाले कामों को प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। उनकी काव्य-लोक  जुलाहा जीवन के यथार्थ  और आशा-आकांक्षाओं से भरा है।उन्होंने इस जीवन की तमाम वस्तुओं  और क्रियाओं को अपनी  रचना के रूपक व प्रतीकों  के रूप में प्रयुक्त  किया। सूत, चरखा, चादर, रहँटा, ढेकुली, घड़ा, चाक, कुँआ जैसी दैनिक प्रयोग में लाई जाने वाली वस्तुओं के माध्यम से भक्ति, योग, प्रेम, आध्यात्म, और तत्वज्ञान की गहरी बातें कहीं। उन्होंने कर्म को ही भक्ति का माध्यम बनाया। यह भक्ति की लोकप्रतिष्ठा है। उनके लिए आँख मूँद  कर ध्यान में बैठ जाना भक्ति नहीं थी जैसा कि आज उनके समर्थक करने लगे हैं। उनके लिए कर्ममय जीवन ही साधना और उपासना है। वह दैनिक क्रियाकलाप में ही अपने परमात्मा के दर्शन कर लेते हैं। कर्म को पूजा मानते हैं -

कहूँ सो नाम, सुनूँ सो सुमिरन, जो कछु करूँ सो पूजा।
गिरह-उद्यान एक सम देखूँ, भाव मिटाऊँ दूजा।।
जहँ-जहँ जाऊँ सो परिकरमा, जो कछु करूँ सो सेवा
जब सोऊँ सब करूँ दंडवत, पूजूँ और न देवा।

कबीर धन के संग्रह के भी खिलाफ हैं। वे  खुद के लिए भी केवल इतना चाहते थे जिससे  खुद का और परिवार जनों  को गुजारा हो जाय-

साई इतना दीजिए जामै कुटुंब समाय।
 मैं भी भूखा ना रहूँ साधू ना भूखा जाय।।

अधिक ऐशोआराम की जिंदगी को वह पाप का कारण मानते हैं-

आधी अरु रूखी भली  सारी सो संताप
जो चाहेगा चूपड़ी  बहुत करेगा पाप।






कबीर की भूमिका अपने समाज में एक सांस्कृतिकर्मी की थी। उन्होंने लोगों को जगाने का काम किया। वह एक शिक्षक की भूमिका में रहे। ऐसे शिक्षक जो शास्त्रों की अपेक्षा अनुभव को अधिक महत्व देता है। वह वेद पुराणों को नहीं बल्कि लोकानुभव को प्रमाण मानते हैं। इसलिए उनके यहाँ ’सुनो’ शब्द अधिक आता है। वह ’पढ़ो’ नही ‘सुनो’ कहते हैं। सुनना पढ़ने से पहले की दक्षता है। समझने की प्रक्रिया में सुनना पहले आता है। इस सुनने में कहीं ना कहीं ’शास्त्र’ का प्रतिकार भी छुपा है। वे वेद नहीं लोक की बात करते हैं। वे व्यवहार से सिद्धांत की ओर जाते हैं। जो सीखने की एक सही पद्धति है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि ज्ञान पोथियों में नहीं प्रत्यक्ष जीवन के अनुभव में है। ज्ञान को अनुभव से जोड़ने का प्रयास किया। उनका कहना है-

‘आँख न मूँदूँ, काम न रूँधूँ, काया करूँ न धारूँ। 
खुले नैन में हँस-हँस देखूँ, सुंदर रूप निहारूँ।।

प्रेम भी अनुभव की ही चीज है जिसे वह जीवन के लिए जरूरी मानते हैं। उनके लिए यही ज्ञान की असली कसौटी भी है। तभी  तो वह कहते है-

पोथी पढ़-पढ़कर जग मुया पंडित भया न कोय/
ढाई  अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।

लेकिन यह सत्य है कि लोक ने जितना  कबीर का भक्त रूप स्वीकार किया उतना उनका सुधारक  या आलोचक रूप नहीं। इसी का परिणाम है कि  जिस कबीर ने जीवन भर यथास्थिति के ध्वंस और  परिवर्तन के लिए धक्का लगाया आज उसके भक्तों  ने उसके चिंतन को भजनों  तक सीमित कर लोगों को  भक्ति और आस्था की चासनी  में डूबो यथास्थितिवादी  बना दिया है। कबीरपंथियों ने अपने आसपास  की विसंगतियों, विडंबनाओं, पाखंडों, अंधविश्वासों और सामंती जकड़नों की ओर से अपनी आँखें मूँद कर कबीर के भजनों में खुद को भुला दिया है। जिस कबीर ने जीवन भर ’आँखन देखी’ पर बल दिया उसे आज ’कागद की लेखी’ बना दिया गया है। उनका चिंतन पाठ्यपुस्तकों या ब्रहमानंद की भजनमाला में सीमित हो कर रह गया है। उनके दोहों को सुरीले कंठ में संगीतबद्ध कर बाजार में बेचा जा रहा है। उनकी वाणी का प्रयोग कर आधुनिक ’सद्गुरू’ देश-विदेश में यश और धन कमा रहे हैं। वाह्याचार की निरर्थक और संस्कारों की विचारहीन जिस गुलामी के खिलाफ कबीर जीवन भर लड़ते रहे- मूर्तिपूजा, कर्मकांडों, अंधविश्वासों, रूढ़ियों का विरोध करते रहे, आज उनके भक्तों और अनुनायियों ने उन्हें उन्हीं बाह्याचारों और संस्कारों में कैद करके रख दिया है।

’कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ,
जो घर फूँके आपनो चले हमारे साथ’ 






कहने वाले संत को बाजार की वस्तु बना दिया है। सुन्दर और महंगी मूर्तियों के सामने बैठ कर उनके भजन गाए जाते हैं। कबीर की जयंती वर्ष में एक ब्लॉग पर उनके एक भक्त की यह अभिव्यक्ति हतप्रभ करती है -प्रातः वेला में मैंने परमवंदनीय कबीरदास का स्मरण किया ,कमरे में टंगे चित्र पर श्रद्धासुमन अर्पित किए और चल पड़ा गंगा नहाने। ’पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार’ और ’गंगा नाहिन जमुना नाहिन नौ मन मैल बिहिन चढ़ाय’ कहने वाले कबीर का इससे बढ़ा अपमान क्या हो सकता है।

 उनकी इस बात  को भुला कर कि-

मोको कहाँ तू ढूँढत रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में
ना मैं मंदिर ना मै मस्जिद, ना काबे कैलास में
ना मैं जप में ना मैं तप में, ना मैं बरत उपास में
ना मैं क्रिया कर्म में रहता, नहीं योग संन्यास में
नहीं प्राण में नहीं पिंड में, ना ब्रह्माण्ड आकाश में
ना मैं भृकटी भंवर गुफा में, सब श्वासन की श्वास में।

उनके अनुयायी मंदिर-मस्जिद बनाने, मूर्ति स्थापित करने, तीरथ जाने, जप-तप करने, ’बरत-उपास’ रखने में लगे हुए हैं।

इन सब कारणों से अपने चिंतन के साथ कबीर आज और अधिक प्रासंगिक हो चुके हैं। कबीर को आत्मसात करने की जरूरत है। आज जातिवाद, साम्प्रदायिकता, उपभोक्तावाद और बाजारवाद के बढ़ते दौर में उनके दर्शन की अधिक जरूरत है। हमारे सीखने के लिए कबीर के पास बहुत कुछ है। पर इसके बावजूद कबीर में सब कुछ स्वीकार्य नहीं है बहुत कुछ ऐसा है जिसे हमें छोड़ना पड़ेगा। बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे काम का नहीं है। उनके आत्मा-परमात्मा, ब्रह्म, पूर्वजन्म-पुनर्जन्म, हठयोग, भाग्य-नियति पर विश्वास संबंधी विचार हमें कहीं नहीं ले जाते हैं। इसी तरह उनके स्त्री संबंधी विचार भी बहुत प्रतिगामी हैं, जिन पर उस युग का गहरा प्रभाव है। ऐसे विचारों का समर्थन नहीं किया जा सकता है-


एक कनक अरू कामिनी, विष्फल किए उपाई
देखैं ही थैं विष चढ़ै, खाएं सूँ मरि जाए।


 मानवीय गरिमा का ध्यान रखने वाले एक चिंतक के स्त्री को लेकर इस तरह के विचार हतप्रभ करते हैं। वह नारी की घोर निंदा करते हैं। एक ओर वह नारी के नारीत्व को  साधना में बाधक मानते थे और दूसरी ओर खुद को परमात्मा के सामने नारी के प्रस्तुत करते हैं। अपने राम के साथ केवल मन से ही नहीं तन से भी एकमेक होने की बात करते हैं- एकमेक ह्वै सेज न सोवे तब लागि कैसा नेह रे। यह विरोधाभास कुछ कम समझ में आने वाला है। इसलिए कबीर को जैसे का तैसा नहीं स्वीकारा जा सकता है। उनके यहाँ ’सार’ भी है और ’थोथा’ भी। उन्हीं के शब्द उधार ले कर कहना चाहूंगा-

सार सार को गहै रहे,थोथा देय उड़ाय’ 

की नीति अपनानी होगी। खुद कबीर ने अपने समय में ऐसा ही किया। कौन सी बात है जो उन्हें हमारे समय से जोड़ती है, यह देखना पड़ेगा।




(आलेख में प्रयुक्त सभी चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)



संपर्कः 


 मोबाइल- 09411707470





टिप्पणियाँ

  1. कबीर की बानी और कथन का पुनेठा जी ने अत्यंत अर्थपूर्ण विवेचन सरल और बोधगम्य भाषा में किया है।साधुवाद

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  2. Congratulations Respected Mahesh Chandra ji.
    There is no doubt that Kabir ji was the most straight forward writer,who had guts to challenge the social system.
    In my childhood I found him to be the toughest Poet,who was there with a different language.But with growing age came to know that he was the most revolutionary Poet, he was above all caste and Religions.
    His Teachings are so appropriate for the present system and society.
    Thanks Beta Mahesh for this Wonderful write up.
    Congratulations.
    Best wishes

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