बलभद्र की मां पर केन्द्रित कविताएं

 




मां और उसकी सन्तान का रिश्ता दुनिया में सबसे अनन्य होता है। दुनिया की कोई भी मां अपने सन्तान का जीवन संवारने निखारने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझती है। इस क्रम में वह खुद का अस्तित्व भी मिटा डालती है। खुद को घर की चारदीवारी में आजीवन के लिए सीमित कर वह अपने परिवार के लिए असीम आसमान उपलब्ध कराती है। मां पर कवियों ने तमाम कविताएं लिखी हैं और आज भी लगातार लिखी जा रही है। बलभद्र हिन्दी और भोजपुरी के समादृत कवि एवम आलोचक हैं। मां पर उन्होंने मूल भोजपुरी में कुछ महत्त्वपूर्ण कविताएं लिखी हैं। इन कविताओं का हिन्दी अनुवाद खुद कर कवि ने पहली बार को उपलब्ध कराया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं बलभद्र की मां पर केन्द्रित कविताएं।



मां पर केन्द्रित कविताएं


बलभद्र



अपनेपन को जीने की तरह


कभी बेटे की तरफ

कभी पतोह की तरफ

कभी बेटी कभी दमाद की तरफ

बोलती हो तुम

बेटा-पतोह की तरफ जितना

उससे तनिक भी कम नहीं बेटी-दमाद की तरफ


पिता जिस दिन उतरे-उतरे

दिखाई देते हैं थके-थहराये

अथवा कम जिस दिन खाते हैं

हिर-फिर उनसे पूछती हो तुम

लेकिन बोलना जब होता है तो

बहुत ही कम बोलती हो उनकी तरफ


तुम्हारे बोलने के लिए जगह की नहीं है कोई कमी

तुम रसोई घर से बोल लेती हो

बोल लेती हो भंडार घर से

आँगन-दुआर

किसी कोने किसी अंतरे से

तुम जहाँ से भी बोलती हो चाहे जिस तरह

तुम्हारी भाषा में नहीं पड़ता खास कोई फर्क

बोलती हो तो जरूरी भी नहीं कि

पास तुम्हारे हो ही कोई


तुम बतिया लेती हो चूल्हा से

तावा चौकी बेलन से

सूप से, चलनी से

बहुत साफ भाषा में बतिया लेती हो झाड़ू से

अनाज के बोरे से फटे-पुराने झोले से

अपनी चुप्पी और चरफरी को भी

नहीं जाने देती बिना बतियाये


बरस-बरस की अरजन यह तुम्हारी

तुम्हारा बोलना-बतियाना कभी लड़ने जैसा लगता है

कभी गीत कोई गाने जैसा

जेठ की दुपहरी में

ओरियानी तले एक सुर में बोलते हैं पंडुक

काम के पल्ले छटका कर सुस्ताते हैं मजूर

सुस्ताती हो तुम भी

सुई-धागा के हर टोप पर

मतलब छोड़ती चीजों को नया एक मतलब देती

अपने को भी मतलब से जोड़ती हर टोप पर


तीज-त्योहार के मौके पर कोई

या ऐसे भी बीच करके शुक या सोमार

घरर-घरर ताल अपना ठोकता है जांत

किसी न किसी की उचट जाती नींद

जांता को उखाड़ने की चली जब भी बात

उखड़ जाती हो तुम

जैसे तुमको ही उखाड़ रहा हो कोई


गाँव में आंटा-चक्की की अब नहीं है कोई कमी

घर-दुआर चूल्हा-चौका बदल गए बहुत

बहुत ही बदल गए बात-व्यवहार

पर नहीं रुका है तुम्हारा यह जांत

नहीं रुकी हो तुम

खूब हैं तुम्हारे पास बात

खूब हैं जगह और जरूरत

खूब हैं खीस-पीत

खूब है अपनापन

तुम बोलती हो इस अपनेपन की तरफ

इस अपनेपन को जीने की तरह है

तुम्हारा बोलना-डोलना

           




मां


(एक)


मां को कुछ कहना है

जैसे कल कहा था किरासन तेल

और आज -  नमक-मसाला

छोटू रो रहा है चप्पल के लिए


मां को पता नहीं

समय के किस मोड़ पर

झुंझला उठा है पिता का मूड

उसे कहना है जैसे कहती है रोज

जैसे रोज रोज कटती है सब्जी



(दो)


पिता को

वर्षों से जानती है मां

और मां को पिता

कि देह को देह नहीं जानती

नाचती है एक गोड़ पर

नाचता है आंगन का भूगोल


जब कभी नाराज होती है मां

निपटा कर ही मानती है सारा काम

गिर कर झनझनाते बरतनों को तुरत संभालती

हाथ-मुंह धोती है बेरा चढ़े

नाराज है मां


मां की नाराजगी

पिता के लिए मजाक का मामला है

और पिता के लिए ही कैसे!



(तीन)


उम्र का यह पड़ाव

उदास है मां

कुछ सोच रही है

हालांकि निष्कर्ष तक पहुंचना कठिन है


वह सोच रही है

जैसे सोचती है फ़ुटहे तसले के बारे में

जैसे सोचती है फटी साड़ियों के बारे में


मां की उदासी

बहू-बेटियों के लिए चिंता का विषय है

और बहू-बेटियों के लिए ही कैसे!

         


गांव जाना चाहती थी मां


मां बीमार थी

सांस लेने में उसे भारी तकलीफ थी

आठ महीने से बनारस में थी

दस कदम भी नहीं चल पाती थी

दम फूलने लगता था

ऑक्सीजन के सहारे वह हंस-बोल रही थी

नित्य कर्म भी इसी ऑक्सीजन के सहारे

फिर भी वह गांव जाना चाहती थी

उसके पास हम सब थे

घर के लोग भी आ ही जाते थे

फिर भी वह गांव जाना चाहती थी

रोने लगती थी बच्चे की तरह


वह गांव जाना चाहती थी

वहां जाना चाहती थी

जहां उतरी थी डोली से

वह जाना चाहती थी उस घर-आंगन में

जहां गुजरे उसके पचास-पचपन साल

घूंघट की ओट से देखा था पति को

सास-ससुर के जहां छुए थे पांव

जहां किए थे तीज, छठ, इतवार

जिस आंगन में सुनी थी जिउतिया की कथा

ढेंका-जाँत, किया चूल्हा-चौका

पिता के परदेस से आने का जहां किया इंतजार

जहां उसका बक्सा था

सिले हुए लेवाथे


जहां पूरे उत्साह के साथ किया बेटे-बेटी का विवाह

गाए सोहर, खेलौना और झूमर

बीड़ियां बांटी थी

बतासे, लड्डू और रसगुल्ले

हुलस कर छुए थे बड़े-बुजुर्गों के पांव

दुल्हन से बनी मां

मां से दादी-नानी

वह वहां जाना चाहती थी

जहां बतियाती थी जमाने भर की बातें


जिस घर-आंगन को लीपा-पोता अनगिनत बार

धरती को आंचल से स्पर्श कर माथे लगाया

किया नैहर-सासुर

डट कर खड़ी 

हुई हिस्सा-बख़रा के लिए

जहां उसके होने का अपना एक मतलब था

जहां से जुड़ी थीं स्मृतियां तमाम

जीवन के शेष दिनों में

वह वहां रहना चाहती थी

वह वहां जाना चाहती थी

जहां चप्पे-चप्पे पर दर्ज थी उसकी पहचान


                     




बींड़ी और मां


बींड़ी भी क्या चीज थी मां तुम्हारे लिए

गजब की दिलकश

नैहर-ससुराल हो या हित-नात का घर

कहीं तुमने छोड़ा नहीं उसको

वह भी आ ही जाती रही उछल के

कि लो धराओ, खींचो

जैसे उसका भी तुम्हारे बिना जी नहीं लगता

पिता की नौकरियों से प्राप्त बतकहियों भर सुख

और अकेलेपन की सच्ची राजदार थी

राजदार थी कि तुमने जितना कुछ कहा-गाया

उससे अधिक तो रह गया अनकहा-अनगाया


दो अंगुलियों की स्नेहिल पकड़ बीच

तुम्हारी हर खींच भर चिनगीमय लहक लुटाती

जब तक खींचने की शक्ति थी

सलामत रही यह संगति

बींड़ी और तुमको अलग-अलग याद करना

शायद नाइंसाफी होगी

        



तुम ओ मां!


मेरे पेट में दर्द होता था

तुम सहला देती थी और दर्द छू मंतर हो जाता था

सिर दुखता था

तुम सिर पर फेर देती हाथ और मैं सो जाता था

टूट जाती थी मेरी कमीज की बटन

तुम टांक देती थी खड़े-खड़े

और मैं स्कूल चला जाता था

गर्मियों में सरसों के तेल की शीशी को

पानी भरे घड़े में छोड़ देती थी रात भर

सुबह उसी से चिकना देती थी हाथ-मुंह

और मैं चमक उठता था

मांगता दस- बीस पैसे

तुम रख देती थी हथेली पर

और मैं दुकान की ओर दौड़ पड़ता था


बड़ा हुआ कुछ तो रख दिया गया हॉस्टल में

घर से जाने का मन नहीं करता था

गर्मी की दुपहरी में तुम्हारे पास बैठ कर रोया करता था

तुम समझाती हुई कहती - 

'जा जिनगी बन जाई '

और मैं छू कर तेरे पांव

जिंदगी बनाने सिसकते हुए निकल पड़ता था

              



देर-सबेर चिट्ठी


चुल्हा-चौका, घर-आंगन

संभाले नहीं संभलता तुम्हारे बिना

तुम हो तो वक्त पर सँझवत है

जांत है जंतसार है

बोरा-टाट, हंड़िया-पतुकी तक की

अपनी मरजाद है


आज भी, उम्र की इस ढलान पर भी

एक किए रहती हो भीतर-बाहर

खाना मांगते ही

आंचल तुम्हारा बढ़ कर आप रूप

झट पोंछने लगता है थाली

आज भी जब पाती हो कोई चिट्ठी

भुलाती-भटकती अपने नाम

क्या मजाल जो छूट जाए उस चिट्ठी की जान

बिना सुने बार-बार

और बाँचने वाले की बिना टोकाये


लेकिन ऐसे अवसर ही कितने!

लिखता ही कौन तुम्हारे नाम

मउसी आ बुचिया को छोड़


मौसम ने कई बार बदला अपना मिजाज

कोयल ने बदली अपनी बोली

तुम्हारी कथा की सोनचिरैया आई-गई कई बार

कहां-कहां नहीं मैं रहा

न जाने कहां-कहां छिछियाया*¹

फिर भी नहीं लिखी एक भी चिट्ठी

तुम्हारे नाम

बकुलवा टांग अक्षरों में महज अपना नाम भर लिख पाने वाली

ओ माई!


हां, पिता के नाम लिखी चिट्ठियों में

टांक दिए दो शब्द तुम्हारे लिए भी

आखिर में


तुम्हारे भेजे ठेकुवे-खजूर के

स्वाद जस के तस हैं अभी

लेकिन, वर्ष भर दूर लग रही हो तुम

इतनी भरी-पूरी

पर खाली, कितनी-कितनी चीजों से

तुम्हारे ठेकुवे-खजूर

मेरे एक एक शब्द घेर रहे हैं मुझे

ओ माई, कबूल करो यह कविता

देर-सबेर यह चिट्ठी


*1.  भटकना


        


मधुर राग में


खाने से अधिक खिलाने का सुख

दिन की फिक्र, दुनिया भर की

सो रहती सिरहाना सहेज


चूल्हे ने दमक दी

तसले की भाप ने ठंढक

उनके सबसे पंखदार दिन

चौखठ के पाठ से टकरा के गुजरे


जब से मैंने होश संभाला

घिरती घटाओं को

आकर्षित करने से अधिक सचेत करते पाया

उनके ललाट की रेखाओं से पूछा

पूछा आंगन के माथे पर मड़राते हुए मेघों से


उम्र क्या थका पाई उनको !

थका दिया घुटने के दरद ने

उनके दरद के बारे में सोचता हूं

तो याद आती है दवंरी*¹ 

दवंरी में नधे मुंह जाबे महादेव*²


जब सभी नींद में होते हैं

बीच में टूटे मनभावन सपनों को

जोड़ने की कोशिश में कोई-कोई

नीम के पत्तों के बीच बैठे भुचंगे

भोर का आगमन भांप

उधर शिव-शिव गोहराते हैं

इधर मधुर राग में गाती है माई -

"आमवा लगवलीं टिकोरवा के आसा

बह गइलें पुरवा चुअन लागे लासा। "*³


और भोर की झुलफुल चादर ओढ़

सिरहाने से उठा लेती

सहेज कर रखी अपनी चीजें मनगंवे

उनकी खटर-पटर के संग

पसर जाती है दिन की दुध मुंह मुस्कान

दुनिया भर की।


1. दवनी  

2. बैल 

3. आम लगाया टिकोरा की आशा पर। पुरवा हवा क्या चली,  मधुआ रोग लग गया।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


      

सम्पर्क 


बलभद्र

ओक -607, आपनो घर, 

पो.- के. जी. आश्रम, 

धनबाद -828109, झारखंड


मोबाइल : 9801326311

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