संवेदना रावत की कविताएं
संवेदना रावत |
संक्षिप्त परिचय
संवेदना रावत अमिताभ (संवेदना)
जन्म : 22 नवम्बर 1974, मैसूर, कर्नाटक
शिक्षा : स्नातकोत्तर, अंग्रेज़ी साहित्य (भोपाल)
स्कूली शिक्षा भोपाल से
हिन्दी कवि/ लेखक और स्टोरीटेलर
भोपाल में हिन्दी और अंग्रेज़ी पत्रकार (द टाइम्स ऑफ़ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, एम पी क्रानिकल, दैनिक भास्कर में बतौर फ़ीचर डेस्क प्रभारी) सन 1999-2004 (भोपाल)
सन् 2003-2004 तक ई टी वी मध्य प्रदेश में बतौर प्रोड्यूसर काम किया जहां “नारी सेल मध्य प्रदेश” की प्रभारी रहीं
पहला कविताओं का प्रकाशित सँकलन - ‘लड़कियाँ जो पुल होती हैं' 2007 में वागीश्वरी सम्मान मध्य प्रदेश से भोपाल में सम्मानित हुआ)
बचपन से हिन्दी की साहित्य पत्रिकाओं में कवितायें लगातार प्रकाशित होती रही हैं।
देश-विदेश में स्टोरीटेलिंग और शिक्षा पर कई अनुसंधान पत्र प्रस्तुत।
यूरोप – सिंत्रा, पुर्तगाल में दो वर्षों तक लगातार “थेरप्यूटिक स्टोरीटेलिंग” पर कार्यशाला का संचालन।
सम्प्रति
स्टोरीटेलिंग विधा को सृजनात्मक और नये-नये प्रयोगों के साथ शिक्षा और समाज में बच्चों से जुड़े हुए तमाम मुद्दों का सामना जागरूकता से कर पाने के लिए उस पर निरंतर काम।
पति अमिताभ बिश्नोई और 19 वर्षीय बेटी धानी के साथ मुंबई में विगत 17 वर्षों से निवास।
अभी तक एक सामान्य परिपाटी और सोच रही है कि औरतें घरेलू जिम्मेदारियां संभालते हुए सिर्फ उसी के बारे में सोचा करती हैं। जिम्मेदारी, ज्ञान और बुद्धि तो सिर्फ पुरुषों के पास ही होती है। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों की यह सोच स्वाभाविक भी है। लेकिन पुरुष यहीं पर चूक जाते हैं। बदलते समय के साथ महिलाओं की सोच भी तेजी से बदली है। समझ और जिम्मेदारियों का उनका आयाम निश्चित रूप से विस्तृत हुआ है। स्त्रियों ने खुद पहल कर दिमाग के उस ताले को खोलने में सफलता प्राप्त की है जिसे समय और समाज ने मजबूती के साथ लम्बे अरसे से बन्द कर दिया था। इतिहास के कुछ पन्ने फड़वा देने से हकीकत नहीं बदल जाती। संवेदना रावत ने अपनी कविता 'तुमने क्या सोचा था?' में बारीकी से इसे अपनी कविता का विषय बनाया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संवेदना रावत की कविताएं।
तुमने क्या सोचा था?
(शाहीन बाग़ की औरतों के लिए)
तुमने क्या सोचा था?
कि औरतें सिर्फ़ सब्ज़ी बनाने में मशगूल हैं?
तुमने क्या सोचा था कि औरतें
अपने बुर्के के बटन टांकने और क़सीदे काढ़ने में ही लगी हैं?
तुमने क्या सोचा था कि औरतें आपस में जब बात करती हैं तो
सिर्फ़ साड़ी–फॉल पीको की ही बात करती हैं?
तुमने क्या सोचा था?
कि औरतें हमेशा सिर्फ़ पहले अपने बच्चों की
फिर अपने बच्चों के बच्चों की
नाक ही पोंछती रहेंगी?
तुमने क्या सोचा था कि पढ़ कर लिख कर घर में दो पैसे ला कर
औरतें नमाज़ पढ़ कर
ईसू को याद कर के
कृष्ण और सीता-राम की आरती करने के बाद सो जायेंगी?
तुमने क्या सोचा था?
औरतें कार स्कूटर चलाएंगी
बैंकों, कोलेजों, दफ्तरों में काम करेंगी और
अपनी नाक–कान और दिमाग़ पर ताले लगा कर बैठ जायेंगी?
नहीं....दोस्त... असल में तो तुमने
पिछले कुछ समय से ऐसा सोचना छोड़ दिया है
तुम थोड़े लजाए हो
तुम थोड़े,
नहीं–नहीं
तुम तो बहुत ज़्यादा घबराए हो
तुम भयभीत हो
तुम लजाये हो
घबराए हो
पगलाए हो!
और इसीलिए करते हो अभद्र भाषा का प्रयोग
देते हो गालियाँ
डराते हो, धमकाते हो
औरतों के क़िरदार पर सवाल उठाते हो
उनकी बेबसी और लाचारी को बनाए रखना चाहते हो
तुमने क्या सोचा था?
कि तुम जब छिप कर
तिरंगा नहीं कोई और झंडा फहराते हो तो
कोई सलमा
कोई फरहीन
कोई लुबना
कोई शमीम
कोई मेरी
कोई इलियाना
कोई लक्ष्मी
कोई पार्वती
कोई सीता या कोई गीता
आपस में बातें नहीं करतीं?
एक दूसरे का हाथ नहीं थामतीं?
वो सब देखती हैं और समझती हैं!
क़ानून पढ़ने वाली
क़ानून का व्यापार भी
बख़ूबी समझती हैं!
तुमने क्या सोचा था?
इतिहास के कुछ पन्ने फड़वा देने से
तुम कुछ नया लिख दोगे?
और बाँटने की सियासत को अंजाम दे दोगे?
तुमने क्या सोचा था?
जो औरतें पढ़ाती हैं इतिहास, साहित्य, भूगोल और विज्ञान
वे क्या सचमुच अब तक कुछ सीख नहीं पाई हैं?
तुमने क्या सोचा था?
औरतें जब पढ़ती हैं तुलसीदास, अमीर ख़ुसरो,
रामायण, महाभारत, कुरान, बाइबिल,
या गुरु-नानक जी
कबीर वाणी का ज्ञान
तो क्या ख़ुद लिख नहीं सकतीं
अपनी ही एक नई कविता?
कोई अपनी कहानी?
कविता उनके अपने जीवन की
उसके आस-पास की
कहानी बहुत छोटी तो
कभी बेहद लम्बी
उनके समाज, उनके देश
उनके बच्चों के बड़े होने के परिवेश
इन सब के बारे में
जिसमें वे जी रही हैं
सुख और दुःख दोनों के साथ
जिसमें वे पी रही हैं
खून के दो घूँट
जिसमें वे सवालों के जवाब दे रही हैं दो टूक
नहीं.....
नहीं… शायद तुमने इतना तो नहीं ही सोचा था
इसीलिये तो तुम
हमेशा से थे ही भयभीत
लजाये, घबराए
और अब फिरते हो पगलाए?
अब भी वक़्त है....
सम्हाल जाओ
समझ जाओ!
क्यूँ कि क़ौमों को बांटते–बांटते तुमसे कुछ चूक हो गयी है
औरतों की क़ौम को समझने में
तुमसे ज़रा भूल हो गयी है!
दाल–सब्ज़ी के स्वादानुसार नमक को
सम्हालते उनका संतुलन कुछ तेज़ हो चला है –
ईमान की आवाज़ उन्हें दूसरों से ज़्यादा साफ़ सुनाई देती है ....
सोच कर
समझ कर
बोलना!
और जो भी करो अब!
तुम ज़रा यह सोच कर करना
क्यूँ कि हो सकता है
तुमने बहुत कुछ सोचा था
लेकिन जो तुमने नहीं सोचा कभी
वो तुम्हारे ही घर का एक कोना है
जहाँ ईमान बसता है
जहाँ इंसान रहता है
जहाँ हर रोज़ खाना पकता है
जिसके लिए बाज़ार से ख़रीदी जाती हैं सब्ज़ियाँ
और गहूँ पिसवाया जाता है
ऐसा कोना जहां
कोई भी
कैसी भी सियासत का क़ानून
नहीं चलता
वहाँ कभी भी सच्चाई
किसी भी वक़्त
चुपचाप आ कर बैठ जाएगी
तुमने क्या सोचा था?
कि सारी दुनिया-जहान की औरतें
जब सच्चाई की लड़ाई में
तेज़ आवाज़ लगाएँगी
तो तुम्हारे घर की खिड़कियाँ भी
क्या बिना खड़के ही रह जायेंगी?
तुम्हारे घर की ताक़त
कभी तो सच्चाई भाँप ही लेगी
और सबके साथ
मैदान में उतर ही जायेगी
तुमने क्या सोचा था?
तुम कौन हो
यह नहीं जानतीं अपनी या
आपकी भाषा में कहें तो
वे सब पराई औरतें?
तुमने क्या सोचा था?
कि रसोई से निकल कर
इतनी-इतनी जमा नहीं हो पाएँगी कभी भी औरतें?
कि
देश की गलियों में औरतों का सैलाब
उमड़ जाएगा
तुमने क्या सोचा था?
कि औरतों की आवाज़ में
इन्कलाब का नारा
कभी भी नहीं गूँज पायेगा?
सुनो!
तुम सोचना छोड़ दो
एक बड़ा आरामदायक वायुयान बनवाओ
और अपने भाई-बंध
और टीम के सदस्यों को ले कर
सारे विश्व के सबसे महंगे होटलों में ठहरो
और विश्व की कम से कम
दस बारह परिक्रमा तो कर ही आओ
क्या हुआ ...?
नहीं सोचा था?....ऐसा?!?!?
तुमने क्या सोचा था?
कोई औरत तुमसे कभी भी यह सब
नहीं कह पाएगी?
कभी नहीं पूछ पाएगी?
(26 जनवरी’2020, मुंबई)
ख़ुमार
बिना पतझड़
पत्ता कोई चट्ट से टूटा
और कान के पास
आ गिरा
रंग यहाँ से
वहाँ तक
किसी का ख़ुमार लिए
कुछ यूँ उड़ा
कुछ यूँ उड़ा
कि
मज़ा आया एक बार फिर
जीने में
तुमने दस साल पुरानी
शर्ट निकाल कर क्या पहनी
कोई ख़ुशबू
धीरे धीरे फिर
नई हो गई
पहले कमरे में
फिर घर में
फिर मेरे मन में
फिर अंतरात्मा से
होती हुई
मेरी पूरी क़ायनात में बिखर गई!
(मुंबई ‘2014)
परछाईयां
ज़िन्दगी की दोपहर आते-आते
परछाइयाँ छोटी नहीं हुईं
होती चली गयीं लम्बी
धूप का कोई टुकड़ा एक बार फिर सहेजा
और छाँव मान कर
भींच लिया अपनी मुट्ठी में
आँखें बंद कर
फूँक मारी बंद मुट्ठी पर
तो बूँद-बूँद पानी बन बिखर गया चेहरे पर
चौकन्ना था सूरज
नमी के साथ साथ सोख लिया उसने
चेहरे का पानी और भर दी ऊष्मा
इतनी
कि चटखते रहें आँखों के कोर
और भीगी पलकें
दूर से झिलमिलाते से दिखते भी रहें
दीवारों के सहारे चलते-चलते
पूरा हुआ था ज़िन्दगी का एक पहर
अपने होने को परछाइयों से पहचानना
किसी भी वक़्त में समा नहीं रहा था
न जाने कब धीरे–धीरे औंधी हो पलट गयी
लबालब भरी वो परांत
मन लुढ़क कर जा छुपा कहीं दूर
और परछाईयों ने आख़िर
छोड़ ही दी देह
सूरज के गुनगुनाते सुख
बादल के पीछे ढंके होने के दुःख
से परे परछाइयाँ
दीवारों पर एक ही आकार में छपी पड़ी रहीं
लम्बी–लम्बी होती जातीं
परछाइयाँ
रात के कंधे पर जब रखेंगी सर
तो रात
कुछ और सलेटी हो जाएगी
गाढ़े स्याह रंगों वाली रात से ज़्यादा
सलेटी धुंधलके वाली रातों में अच्छे लगते हैं तारे
आँखें जितना सह सकती हों
उतनी ही चमक सितारों की
सुलायेगी
किसी पंखुड़ी से भी ज़्यादा
हल्की-हल्की
ब्रह्माण्ड में
घटते -बढ़ते गुरुत्वाकर्षण में
तैरती हुई
आख़िरकार
सबसे प्यारी-सी वो
एक नींद।
(15 जून 2019, मुंबई)
दिन की *रोशनाई
सपनों में आने वाला वो घना ऊँचा पेड़
अब सपनों में नहीं आता
अब हर रोज़ याद आता रहता है दिन भर
और सपनों से भी ऊंचा नज़र आता है
उसके रंग देखने की कोशिश मैं आज भी कर रही हूँ
मुंदी आँखों से नहीं
खुली आँखों से देखती हूँ अब
मैं उसके गहराते हरे रंग के पत्ते
बाहें फैलाता पेड़
मेरे सपनों से न जाने कब बाहर आ गया?
सपनों में उसके तने का स्पर्श ज़्यादा खुरदुरा था
और अब दिन की रोशनाई से बना
यह पेड़ का एक स्केच है
जिसके चिकने वर्क़ पर मैं पीठ टिकाये बैठी हूँ
ख़ुशी के एक बुलबुले में सिमटा
यह सगुण-निर्गुण एक द्वय
खोज रहा है मेरे भीतर छिपी
आदि से अनादि तक ब्रह्माण्ड में खो जाने की
अपार संभावनाएं
और मैं
उसी खुरदुरेपन के एहसास की ज़िद लिए बैठी
घने पेड़ों की शाखों में खोती जा रही हूँ
बिना सोचे-विचारे
की यह अब सिर्फ सपना है या फिर
सपने के ख़त्म हो जाने का एक ज़रूरी एहसास
अंतहीन ब्रह्माण्ड ही सही
पर नश्वरता के सुख में डूबा
एक अनश्वर
स्वप्न-आलोकित
खुरदुरे तने वाला
घना झूमता सा पेड़
* रोशनाई = स्याही
(दिसंबर ' 2016, मुंबई)
मुंबई क़दम ताल
क़दम पड़ा नहीं मुंबई की
ज़मीं पर
कि
काली पीली नीली सफ़ेद
गाड़ियों ने
भीड़ ने
हर क़िस्म की
बदबू
ख़ुशबू
आवाज़ों ने किया
आपका
ख़ैर मकदम
हर दस मिनट के बाद
हर एक
या आधा किलोमीटर
के बाद
दिख ही जाती है
ट्रैफिक जैम में
फँसी
रास्ता देने की
भीख़ माँगती
कोई न कोई सफ़ेद एम्बुलैंस रास्ते पर
और
उसके आस-पास फँसी
कूदती-फांदती
इतनी जानों के बीच
हर एम्बुलैंस में फँसी
शायद एक और अधमरी जान
हर दो-तीन किलोमीटर के बाद
एक न एक श्मशान भूमि
तो कहीं क़ब्रिस्तान
और उनकी दीवारों से लगे
किसी बेहद ज़रूरी चीज़ की तरह
वड़ा पाव और चाय की दुकान
जनाज़ों के लिए जगह देते
अचानक रुक जाते भले लोग
और गाड़ियाँ
वहीं दूसरी तरफ़
मौत को मुँह चिढ़ाती
नन्हें स्कूली बच्चों की
हाथ में हाथ डाले
हँसती खेलती क़तारें
चमचमाती गाड़ियों में शायद
कहीं बैठे होंगे लोग और मैडम
जो इसी रास्ते पर होते हुए
पहुँचेंगी किसी और ही मंज़िल पर
लेकिन
इन सबके बीच पतली-दुबली
छरहरे बदन वाली
सस्ती सिंथेटिक साड़ियां पहनीं
अपने बच्चों का हाथ थामे
उन्हें स्कूल छोड़ने की हड़बड़ी में
यह औरतें
चंद मिनटों में अपनी झुग्गी बस्तियों से
निकल कर अपने बच्चों का स्कूल,
बाज़ार, श्मशान, गड्ढे, लम्बी छोटी बड़ी सड़क
करते हुए पार विद्युत गति से पहुँच जाएंगी
चमचमाती गाड़ियों वालों के घर
उनकी सिंथेटिक साड़ियों के
कोने जो खोंस रखे हैं उन्होंने अपनी कमर में
उसमें बँधा है
कोविड और स्वाइन फ्लू का डर
पति की मार
झाड़ू-खटके की गंध
पड़ौसी के झगड़े-टंटे
अपनी बच्ची को किसी भी तरह पढ़ा कर
कुछ बनाने का सपना
एक बार फिर
अपने गाँव की खुली ज़मीन पर
खेती करके इज़्ज़त से जीने की चाहत
अपने लगातार ख़ाली होते गाँव में
पीछे छूट गए अकेले बुज़ुर्ग माँ-बाप की चिंता
एक ही दिन में लगभग सदी की
परिक्रमा करतीं यह मेहनतकश युवतियाँ
जब कभी कभार मुँह खोल कर
कुछ बोलती हैं
तो ए सी घरों में
अपने नाख़ूनों, बालों और त्वचा को सँवारने में मगन
टी वी के सामने बैठी मैडमों के सामने
एक पैर पर सुबह से शाम खड़ी यह सुडौल सुंदरियाँ
जीवन जीती हुई
जीवन बचाती हुई
जीवन रचती हुई
साकार करती हैं
हमारे तुम्हारे और ख़ुद के भी
जिजीविषा के रँगों का इन्द्रधनुष!
सारी ब्यूटी शॉप्स
सौन्दर्य प्रसाधन
इनके क़दमों तले आ पड़ते हैं
और इनके
मटमैले ब्लाउज़ की आस्तीनों से आती
इनकी पसीने की महक क़ाफ़ी होती है
पूरी एक सदी के उतार-चढ़ाव के पौरुष को
आकृष्ट कर बेहतर बचाती हुई
बेहतरीन का सृजन करने के लिए
उन्मुख इन स्त्रियों का लालायित स्त्रीत्व!
इनसे ही तो जुड़ी है मेरे महानगर मुंबई!
तुम्हारी कभी न रुकने वाली अति चपल
मुंबई क़दम ताल!
वो एक बेहद ज़रूरी चीज़
वह एक बेहद ज़रूरी चीज़ है
वह जगत जननी
वह वसुंधरा
सब कुछ वह
मानव सभ्यता उसके गुण गाए
उसके बिना न घर
न परिवार न रिश्ते
न प्यार न सौहार्द्र
और शायद ना ही पुरुषों का अहंकार
हर प्रेम और लड़ाई का कारण वो!
उसमें लिप्त सब का और सब के साथ
उसका संसार
इसलिए तुम उठाते हो उसके जीवन को बड़े प्यार से
एक तस्वीर की तरह
झाड़ते फटकारते हो
सजाते संवारते हो
वक़्त बेवक़्त उस पर चार पैसे खरचते हो
उसके जंग खाए कलपुर्जों में तेल डलवाते हो
गोया के यह
कि हर वो ज़रूरी चीज़ करते हो
जो बेहद ज़रूरी चीज़ के लिए ज़रूरी हो
ऐसा करो उसे कुछ दिनों के लिए
सिर्फ एक बार कहीं रख कर भूल जाओ
पड़े रहने दो किसी पुरानी किताब के पन्ने में
काले-काले अक्षरों के बीच उसे जी भर कर
अटखेलियां करने दो
तितलियों के पंखों के रंग में समा जाने दो
अंतरिक्ष में बैठने दो उसे किसी सैटलाइट के पंख पर
मिल आने दो अंतरिक्ष में खोये कल्पना चावला के मन से
सुदूर अलास्का के किसी कबीले की टोपी का
फर बन जाने दो
घर में काम करने वाली
रात दिन अपने भविष्य को आँखों में संजोती
उस जवान लड़की के पर्स में थोड़ी देर बैठ जाने दो
न जाने कितने सपने
कितनी मुश्किलें छिपी हैं
उस छोटे से पच्चीस रुपये के पर्स में
उसे उसकी नन्हीं बिटिया के
नए नए बने दोस्तों के
मुँह से निकलती गरम हवा बन आने दो
नन्हीं बिटिया के उस कोमल मन में कुछ देर उतर आने दो
जहां अभी हाल में बने नये-नये दोस्तों की बातें
और छोटी-मोटी कहानियाँ रहने लगीं हैं
एक बेहद ग़ैर-ज़रूरी रद्दी काग़ज़ की तरह
पड़े रहने दो उसे कुछ दिन तक मेज़ के नीचे
किसी पेड़ की सब से घनी टहनी की
एक छिपी हुई कोमल पत्ती हो जाने दो
उसे इस बेहद ज़रूरी काम से जाने दो
उसे थोड़े दिन के लिए सब भूल जाओ
वह जगत जननी
वसुंधरा
वह एक स्त्री
स्त्री योनि बिना
कुछ दिनों के लिए बस एक ज़रूरी चीज़
होना चाहती है
उसके लौट लौट आने के लिए
उसे सिर्फ़ एक बार
एक ग़ैर-ज़रूरी चीज़ की तरह सब लोग
कहीं रख कर भूल जाओ!
(भोपाल, 2008)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क :
मोबाइल : 9820124082 (व्हाट्स ऐप भी)
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