प्रज्ञा के उपन्यास पर अरुण होता की समीक्षा 'अप्रतिरोध्य संघर्षशीलता और अदम्य जिजीविषा :काँधों पर घर'
प्रज्ञा |
'अप्रतिरोध्य संघर्षशीलता और अदम्य जिजीविषा : काँधों पर घर'
अरुण होता
विगत पचीस वर्षों में हिंदी कथा-साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा गया है। चार पीढ़ियों के कथा-सृजन से हिंदी कथा साहित्य का आयतन समृद्ध हुआ है। कहानी और उपन्यास विधाएँ जितनी तेज गति से प्रकाशित हो रही हैं, उतनी ही धीमी गति से कथा आलोचना सामने आ रही है। चार पीढ़ियों में से पहली की दो पीढ़ियों की कथा-दुनिया की भले ही नोटिस ली जा रही है, लेकिन, परवर्ती पीढ़ियों की रचनाशीलता पर आलोचना नहीं के बराबर हो रही है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कुछ कथाकारों ने पिछले लगभग एक दशक से अधिक अवधि में कथा-सृजन के माध्यम से अपनी विश्वसनीय पहचान बनाई है। इनमें से प्रज्ञा का नाम महत्वपूर्ण है। विगत दो दशकों से प्रज्ञा कथा-सृजन से जुड़ी हुई हैं। उनके लेखन में निरंतरता, सरोकार, चिंता और चेतना में अभिनवता उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है। उन्हें अपनी पीढ़ी के कथाकारों में महत्वपूर्ण बनाती है। उनके अब तक प्रकाशित चार कहानी संग्रह और दो उपन्यास उपर्युक्त कथन के द्योतक हैं। अभी हाल ही में प्रज्ञा का तीसरा उपन्यास ‘काँधों पर घर’ लोकभारती से प्रकाशित हुआ है। इसकी अपेक्षित चर्चा हो रही है। ध्यान देने की बात है कि ‘गूदड़ बस्ती’ हो या ‘धर्मपुर लॉज’ अथवा ‘काँधो पर घर’ तीनों की पृष्ठभूमि दिल्ली है। लेकिन उनके अब तक अंतिम उपन्यास दिल्ली में रहने वाली एक दूसरी दिल्ली पर केंद्रित। इस अलक्षित और अवहेलित बस्ती, यहाँ के उपेक्षित और पीड़ित लोगों की उम्मीदों, संघर्ष और स्वप्नों को रूपायित करने में प्रज्ञा का कथाकार रमता हुआ दिखाई देता है। उपन्यासकार के शब्दों में—“यह उपन्यास त्रयी वास्तव में मेरे महबूब शहर दिल्ली की गलियों, मोहल्लों, बस्तियों में बसे जीवन की कहानी कहती है। यह कहानी हमारे विकास के मॉडल और उसकी दिशा पर मानवीय दृष्टि से सवाल उठाती है।” सच है कि जिस रचना से गुजर कर पाठक का मन प्रश्नाकुल होता है, वह रचना सफल होती है। इस उपन्यास की परिधि भी व्यापक है। बड़े फलक को आधार बना कर भारत के विविध संदर्भों और परिप्रेक्ष्यों को उपन्यास में जिस कथा के धागे से गुँथा गया है, वह कथाकार की प्रतिभा का परिचायक है। ‘कांधों पर घर’ में लगभग तीन दशकों की घटनाओं, परिघटनाओं और परिस्थितियों के बदलते भारतीय परिदृश्य में मेहनतकश तथा श्रमजीवी जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को कथा-सूत्रों में पिरोया गया है। इस उपन्यास में परिलक्षित होती हैं।
उपन्यास और मध्य वर्ग का अटूट संबंध है। उपन्यास के विकास में मध्य वर्ग की भूमिका भुलाई नहीं जा सकती है। मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओ तथा उसकी सामर्थ्य और सीमाओं को हिंदी कथाकारों ने उसके उद्भव से ले कर आज तक सर्वाधिक स्थान दिया है। लेकिन, प्रज्ञा ने अपने इस उपन्यास में मध्यवर्गीय जीवन से इतर हाशिए के समाज को चुन कर अपनी कथा-दृष्टि का परिचय दिया है। प्रज्ञा एक प्रतिबद्ध कथाकार हैं। उनकी अब तक प्रकाशित रचनाओं से उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट झलकती है। ‘कांधों पर घर’ में यमुना के पुश्ते में रहने वाले मज़दूर, दिहाड़ी, ठेलेवाले, दूसरों के घर में काम करने वाले मेहनतकश लोगों को केंद्र में स्थापित किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि मध्य वर्ग और अभिजन को उपन्यासकार ने स्थानित नहीं किया है। वे भी हैं। उनके बिना दिल्ली के यमुना किनारे पर बसी कच्ची बस्तियों में कामगारों और श्रमशीलों के जीवन-संघर्ष के चित्र असंपूर्ण रह जाते। उच्च मध्य वर्ग हो या उच्च वर्ग, वे सत्ता और व्यवस्था के प्रतीक बन कर उपन्यास में चित्रित हैं। वे प्रतिनायक हैं। श्रमशील और सर्वहारा वर्ग के सपनों को कुचलना उनका कर्तव्य और धर्म है। सत्ता और व्यवस्था के प्रतीक नेता-मंत्री हों अथवा लालफ़ीताशाह की अमानवीय सोच और समझ के चलते बस्ती के बाशिंदों का जीवन किस हद तक शोचनीय हो जाता है, इसे भी कथाकार ने अपने इस उपन्यास में संजोया है। अतः यहाँ सत्ता और व्यवस्था ही ‘विलेन’ हैं।
देश-दुनिया के तमाम शहरों के निर्माण में आम जन की भूमिका को अक़्सर भुला दिया जाता है। वे अपनी रोज़ी-रोटी की खोज में देश के विभिन्न हिस्सों से आ कर किसी नदी के किनारे अथवा फूटपाथ पर बस जाते हैं। दूसरों का घर चमकानेवालों के लिए न तो उनके पाँव तले अपनी ज़मीन होती है और न ही सिर पर आसमान का एक टुकड़ा। इनकी झोपड़ी तोड़ी या जलाई जाती है तो उनके सपने तोड़े जाते हैं। वे लोग बार-बार तोड़े जाते हैं, कुचले जाते हैं, अपनी जगहों से खदेड़े जाते हैं। अपने को सभ्य कहलाने वाला समाज उन्हें पग-पग पर अपमानित करता है। वह भुला देता है कि उनका भी आत्मसम्मान है, स्वाभिमान है। लांछित, अपमानित और पीड़ित जीवन जीते हुए भी हाशिए के लोग न तो अपनी संघर्ष चेतना को खो बैठते है और न ही अन्याय और अत्याचार का विरोध किए बिना चुप्पी साधे बैठ जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि वे अपने सपनों से कभी अलहदा नहीं रहते हैं। उनका सपना है कि उनके अपने घर हों। वे चाहते हैं घर, मकान नहीं। घर यानी प्रेम, सौहार्द्र, सद्भाव और संबंधों की ऊष्मा। अपने सपनों को पूरा करने के लिए वे दिन-रात एक करते हैं। अपने मज़बूत कांधों पर वे सपने रूपी घर को लादे रहते हैं।
‘काँधों पर घर’ उपन्यास में यमुना पुस्ता की बस्तियों के बाशिंदे पूनम, सूरज, नेचू, गुड़िया, फरीदा, मुनमुन, सलीम, परवेज़, अमित जैसे तमाम लोग बिना किसी जाति और धर्म के बंधन को माने एक साथ मिल कर रहते हैं। इसलिए इन बस्तियों में मंदिर हैं तो मस्जिद भी। इसके बाशिंदों में वैमनस्य का भाव नहीं है। शांतिपूर्ण सहावस्थान है। हिंदू, मुस्लिम, दलित, अघाडी-पिछड़ी जातियों के सभी एक-दूसरे की ज़रूरत पर खड़े मिलते हैं। इसे कथाकार की ‘विशफ़ुल थिंकिंग’ की तरह न समझा जाए। यहाँ के बाशिंदे गरीब हैं, लेकिन उनमें ज़िंदादिली भरपूर हैं। मुसीबत की घड़ी में एक-दूसरे का साथ देना नहीं छोड़ते। संबंधों को बनाए और बचाए रखने में उनकी प्रबल आस्था है। अथक संघर्षों में भी वे अपनी हिम्मत नहीं हारते। उनके सपनों और अदम्य जिजीविषा को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ उपन्यासकार ने अंकित किया है। ये फिनिक्स की तरह अपनी ही राख से उठ खड़े होने की हिम्मत रखते हैं। अपने साहस और संघर्ष के आधार पर वे अपने सपनों को बचाये रखने में पूरा विश्वास करते हैं। अतः उपर्युक्त कारणों से यह उपन्यास इधर के उपन्यासों में विशिष्ट कहलाने का अधिकारी है।
इस उपन्यास के पात्र महानगर में रहते हुए भी उनमें गाँव जीवित है। यह रचनाकार की रचना-दृष्टि तो है ही, साथ ही उसकी जीवन-दृष्टि भी। आर्थिक रूप से कमजोर और मेहनत मज़दूरी करके अपने पेट पालने वाले लोगों के अंतर्मन से वैमनस्य का भाव नहीं फूटता है। यह तो भाषा, जाति, धर्म और संप्रदाय को आधार बना कर समाज को बाँटने वाले और अपनी रोटी सेंकने वाले लोगों के दिमाग़ की उपज है। इस उपन्यास की कथा के ज़रिए देश में विकास का चेहरा साफ़ दिखता है। राजनीति का असली चेहरा खुलता है। निरपराध और मासूम लोगों पर पुलिसिया बर्बरता के चित्रण से पाठकों का मन उद्वेलित होता है। पुलिस किस तरह अमानवीय व्यवहार करती है यह हम परवेज के साथ हुए अत्याचार और मृत्यु से समझ सकते हैं। खुद पुलिस अपना अपराध छिपाने के लिए चौकी में आग लगा देती है और इल्जाम बस्ती की भीड़ के सिर पर मढ़ देती है। इस झूठे मामले में बस्ती के इकत्तीस लोगों को बड़ी मुश्किल से ज़मानत मिलती है। लोकतंत्र का चौथा खंभा मीडिया का पूँजी के हाथों में पुतला बनना बड़ी चिंता का विषय है। अल्पसंख्यकों के प्रति पुलिस और पूँजी द्वारा संचालित मीडिया की संकीर्ण, सांप्रदायिक और घृण्य मानसिकता समाज के कई स्तरों तक व्याप्त हो रही है। इससे समाज का स्वस्थ संतुलन बाधित हो रहा है। इतना ही नहीं, लंबी न्याय प्रक्रिया से पीड़ित आम जन की व्यथा-कथा भी उज्जीवित होती है। कहने का आशय यह है कि पिछले तीन दशकों के समय और समाज की शिनाख्त करने में ‘काँधों पर घर’ प्रभावी रहा है। विडंबना यह है कि पिछले तीस वर्षों की भारतीय स्थितियाँ आज भी बरकरार हैं। बल्कि उनका विकट रूप हमारे सामने खुलता है। एशियाई खेल, मंडल कमीशन से ले कर राष्ट्रमंडल खेल, उपभोक्ता संस्कृति तथा ‘शाइनिंग इंडिया’ तक के दौर का सटीक मूल्यांकन किया गया है। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि शासन, प्रशासन, सत्ता और राजनीति के छल-छद्म, प्रपंच, अंतर्विरोधों और अत्याचारों को उद्घाटित करता ‘काँधो पर घर’ बड़े कैनवास का उपन्यास है। मनुष्य की अप्रतिरोध्य संघर्षशीलता और अदम्य जिजीविषा ‘काँधों पर घर’ का जीवद्रव्य है।
यह उपन्यास विस्थापन, पलायन, अतिक्रमण, पुनर्वासन के स्याह पक्ष को भी उजागर करता है। उचित-अनुचित, वैध-अवैध, आदि के तर्क प्रस्तुत करने वाली सत्ता और व्यवस्था के बीच जो पक्ष बिल्कुल ग़ायब हो जाता है वह है मानव और मानवता का पक्ष। सुनंदा, उमा, निशांत मीणा, हरगोबिंद आदि इसी पक्ष के समर्थन में खड़े हैं। उमा अनीश से कहती है— “समस्या विकास की नहीं, समस्या विस्थापन की भी नहीं है। उससे कहीं बड़ी है। देश का चेहरा ऐसा तो हो जहां ऐसी नीतियाँ बनाई जाएँ जो मानवीय हों। ऐसी नहीं जहां आम लोगों की जिंदगियाँ सूअरों के बाड़े में तब्दील कर दी जाएँ।" ‘शाइनिंग इंडिया’ के तहत शहर का कायाकल्प आमूलचूल बदलना तो ठीक है, लेकिन “सवाल सिर्फ यह नहीं कि हम अपने शहर को कैसे देखना चाहते हैं. कितना आधुनिक, कितना सुन्दर देखना चाहते हैं. सवाल इससे कहीं बड़ा है कि हम इस देश में उन लोगों को देखना चाहते हैं कि नहीं, जो इस देश की जनता है?" एक तो यमुना के किनारे रहने वाले लोगों से पानी, बिजली आदि के लिए टैक्स लिए जा रहे हैं, ज़मीन का मालिकाना दिया जा रहा है, दूसरी ओर उन्हें अनधिकार प्रवेश करने वाले ट्रेसपैसर घोषित किया जा रहा है। देश का यह कैसा क़ानून कि यमुना के किनारे की ज़मीन पर मज़दूर, कामगारों, दिहाड़ी मज़दूरों द्वारा अपने लिए झोपड़ी बना लेने पर अतिक्रमण तो समझा जाता है, लेकिन, महानगर के तमाम इलाक़ों में अमीरों और सत्ता के चहेतों द्वारा हथियाई गई ज़मीन अतिक्रमण नहीं है। अगर अतिक्रमण समझा भी गया तो कोई कार्यवाई नहीं होती है। कुलभूषण, हेमंत अहलवात आदि की क़ानूनी लड़ाई में मानवाधिकार के साथ-साथ मनुष्यता को भी तबज्जो देते हैं। यमुना पुश्ता के लोगों की अस्मिता को सत्ता ठुकराने में लगी है। अपने होने को सिद्ध करने के लिए वे लंबी लड़ाई लड़ते हैं। हरगोविंद की पीड़ा के बारे में कथाकार कहती है—“जिस देश को आज़ाद कराने के सपने उसने कभी देखे थे, उसके लिए लड़ा था आज उस आज़ाद देश में वह फिर एक ग़ुलाम की तरह अपने जीवन की लड़ाई लड़ने को मजबूर है।"
‘काँधों पर घर’ उपन्यास का कथा-विन्यास असरदार है। इसकी कथा द्रुत ताल में नहीं चलती। पाठक के समक्ष किसी फ़िल्म के दृश्यों की तरह प्रस्तुत होती है। दृश्यचित्रों के माध्यम से कथाक्रम विकसित होता है। इसकी कथा न तो इकहरी है और न एकरैखिक़। पाठक कथा के साथ सहयात्री बन कर चलता है। कहीं कथा उसके अंतर्मन को झकझोरती है तो कहीं बेचैन करती है। पाठक कहीं दुःखी होता है तो कहीं अंधेरे में भी उम्मीद और संभावना की किरण ढूँढ लेता है। उपन्यास में दुःख हो या संघर्ष, उम्मीद हो या सपना इकहरा नहीं है। यथार्थ की परत-दर-परत खुलती जाती है। यहाँ भी वैविध्य है। कथा अपने सहज, अबाध, विश्वसनीय और स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ती है। कहीं से भी आरोपित प्रतीत नहीं होती है। न ही कपोलकल्पित। ज़िंदगी की राह, नए सिक्के, गति, सपना, परवाज़, नई बयार, सपने, क्रूरताएँ, साँप-सीढ़ी का खेल, चमक और संघर्ष शीर्षकों में विभाजित यह उपन्यास पाठक को शुरू से अंत तक बांधे रखने में समर्थ है। और भी, यह फ़ार्मूलेबद्ध नहीं है। यदि ऐसा होता तो नेचू दिल्ली छोड़ कर गाँव नहीं लौटता। वह भी अन्य पात्रों की तरह दिल्ली में रह जाता। पूनम महानगर निगम की नेत्री बना दी गई होती। अनीश का हृदय परिवर्तन करा दिया गया होता। यानी आदर्श की स्थितियाँ उत्पन्न करके यथार्थ के मुंह मोड़ लिया गया होता। बहरहाल, कथा सघन है, कहीं बिखरी अथवा उलझी हुई नहीं लगती। इस उपन्यास में रामवती, पूनम, सूरज, पंकज, नेचू, रफ़ीकुद्दीन, सुगंधा, अनीश, परवेज, आसिफ़, उमा, मुनमुन, फ़रीदा, दिलशाद, आयशा, राधा, सुनीता, गुड़िया, अमित, महावीर सिंह, रामपाल, इमाम साहब, सलीम, समीर प्रताप, निशांत मीणा, हेमंत अहलावत, प्रियभूषण आदि दर्जनों पात्र हैं। ये पात्र विविध समुदायों और विभिन्न स्थानों के हैं। इसलिए चारित्रिक वैविध्य है। इससे कथा में रोचकता बनी रहती है। इन पात्रों में से पूनम, उमा, सुगंधा सहित सूरज, नेचू जैसे पात्र लंबे अरसे तक याद किए जाएँगे। नेचू हो या अन्य कई पात्रों के चारित्रिक विकास के साथ उनके मनोविज्ञान को बड़ी गहराई से उपन्यास में अंकित किया गया है। अपने बेटे को खोने के बाद नेचू की मन:स्थितियों से परिचित कराने के क्रम में ‘साइको थेरपी’ का सुंदर प्रयोग किया गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति की चपेट में उच्च वर्ग और मध्य वर्ग ही नहीं, निम्नवर्ग भी आ चुका है। नेचू के माध्यम से उपन्यासकार ने नेचू के बाप से जो कहलवाया है, वह अत्यंत शोचनीय है— “यह नहीं कि दो बात बेटे से कर ले, बाप से कर ले पर नहीं। यह टी वी न हुआ बाप हो गया इसका।" उपभोक्तावाद पहले संवादहीनता की स्थिति पैदा करता है और फिर धीरे-धीरे मनुष्य की आत्मीयता, विवेकशीलता और मनुष्यता को लीलने लगता है।
पूनम उपन्यास की केंद्रीय पात्र है। लड़कियों की तस्करी का विरोध, दिलशाद द्वारा पत्नी आयशा का घोर शारीरिक निर्यातन, पुलिसिया अत्याचार, सत्ता का दमन आदि का प्रबल विरोध करने वाली पूनम अपने बलबूते पर बच्चों को शिक्षा देने के लिए स्कूल चलाना उसके डायनैमिक चरित्र के संकेत हैं। वह कई स्तरों पर संघर्ष करती है। उसका व्यक्तिगत संघर्ष और स्वप्न सामाजिक रूप लेकर उपन्यास को नई अर्थवत्ता प्रदान करते हैं। इस उपन्यास में बेहतर समाज और मनुष्य का स्वप्न पूनम के माध्यम से रूपायित किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि उपन्यासकार पूनम के साथ-साथ यात्रा कर रही है।
पिछले कुछ वर्षों से यह परिलक्षित होता आ रहा है कि मीडिया सत्ता से सवाल करना भुला चुका है और उसकी आलोचना ग़ायब है। मीडिया हाउस राजनेताओं का प्रवक्ता बन कर रह गया है। दिन-रात सत्ता का संकीर्तन करना उसका परम कर्तव्य हो गया है। इतना ही नहीं, एक धर्म विशेष के लोगों के विरुद्ध नफ़रत फैलाना, अफ़वाह फैला कर समाज को दिग्भ्रमित करना और ध्रुवीकरण की राजनीति को प्रोमोट करना पत्रकारों का काम बन जाए तो समय और समाज की पतनोन्मुखता का अनुमान लगाना कठिन नहीं होता है। इस उपन्यास में अनीश का चरित्र उपर्युक्त तथ्यों का उदाहरण है। पाठक पूछ सकता है कि सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सुनंदा का पुत्र अनीश अपनी माँ की सोच के विरुद्ध क्यों है? वह हमेशा अपनी माँ के विपरीत क्यों चलता है? ऐसा होना बिल्कुल नॉर्मल है। बचपन से पिता के साथ रहने वाला अनीश का अपनी माँ के प्रति बर्ताव हमारे उस समाज की हक़ीक़त का बयाँ है जहां किसी अनबन के कारण माँ-पिता अलग-अलग रहते हैं। बचपन से माँ के विरुद्ध ऐसी भावनाएँ भर दी जाती हैं कि बेटा उसके विरुद्ध आचरण कर बदला लेने का भ्रम पालता रहता है। इसलिए अनीश और माँ सुनंदा के विचार भिन्न-भिन्न होना स्वाभाविक है।
यद्यपि इस उपन्यास में दिल्ली के यमुना किनारे के बाशिंदों की कथा है, लेकिन इस उपन्यास को दिल्ली के भूगोल तक सीमित करना कथाकार के सरोकारों को सीमित करना है। भारत के तमाम शहरों और महानगरों की फूटपाथ, झोपड़ियों, गंदी बस्तियों में रहने वाले मज़दूरों और मेहनतकशों तक इसके सरोकार व्याप्त है। इसलिए, ‘काँधों पर घर’ दिल्ली की मलिन बस्तियों की कथा के रूप में पढ़ा न जाए, बल्कि यह एक संकेत है। वृहत्तर संदर्भों और परिप्रेक्ष्य में इसकी कथा को डीकोड करने की आवश्यकता है।
‘काँधों पर घर’, कथा की सघनता, पठनीयता, प्रश्नाकूलता, संवेदनात्मक सांद्रता, बहुपरती यथार्थ, व्यापक जीवनदृष्टि, स्वप्नों को रूपायित करने वाली जीवन-संघर्ष की गहराई और कलात्मक ऊँचाई के चलते, इधर प्रकाशित उपन्यासों में से एक महत्वपूर्ण और कालजयी उपन्यास है।
काँधों पर घर (उपन्यास) - प्रज्ञा, लोकभारती पेपरबैक्स, प्रयागराज, पहला संस्करण: 2024, मूल्य : 350/ रुपए
संपर्क :
2, एफ, धर्मतल्ला रोड, क़स्बा,
कोलकाता 700042,
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सुंदर समीक्षा
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