अरुण आशीष

अरुण आशीष



अरुण आशीष का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चिलिकहर नामक गाँव में १ जुलाई १९८४ में हुआ. बचपन की पढ़ाई जवाहर नवोदय विद्यालय मऊ में पूरी करने के बाद आजकल कानपुर मेडिकल कालेज से एम बी बी एस (अंतिम वर्ष) की पढ़ाई कर रहे हैं. बचपन से ही कविताएँ लिखने का शौक.

इनकी कविताएँ पहली बार कहीं प्रकाशित हो रही हैं.


समय निरंतर प्रवाहमान है. हर बदलाव में एक ताजगी होती है जो अपने समय को बयां करती है. अक्सर यह बदलाव अटपटा लगता है और इसीलिए सहज ग्राह्य नहीं होता. बदलावों की इस बयार से प्यार और रिश्ते भी अछूते नहीं हैं. हाथों की रेखा यानी वक्र भी बदल जाता है. हमारे इस बिलकुल नवोदित कवि अरुण आशीष की इन बदलावों पर पैनी नजर है. वह हर तरह के बदलावो को देखता महसूस करता है और इसे अपनी कविता में बेबाकी से दर्ज करता है.

 
बदलाव का यह कवि उतनी ही बेबाकी से अपने बचपन की गलियों में घूम आता है. जिसमें तमाम स्मृतियाँ टकी हुई हैं. ये वे स्मृतियाँ हैं जो दो भिन्न समयों और दो भिन्न हृदयों को जोड़ने का काम करती हैं. ये स्मृतियाँ अतीत की गलतियों से सीख लेने और अपने आप को समय के मुताबिक बदलने के लिए कहीं न कहीं प्रेरित करती हैं. और यह सुखद है कि यह नवोदित कवि इसके लिए सजग और सचेत संभावनाओं के साथ हमारे सामने है.


संपर्क- बी एच ४, रूम नंबर-११६
गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय, कानपुर (उत्तर प्रदेश)


मोबाइल- ०९४५०७७९३१६







बदलते देखा है




समय के चक्र को, हाथो के वक्र को बदलते देखा है
दिल के ग़मो को आखो के शिकन को बदलते देखा है
ये क्या हुआ कि भृकुटी तन गयी
मन-सरोवर मे एक अग्नि रेखा बन गयी
चंचल चपल चतुर वाक्य,कुछ ऐसा ही कर गयी
अब घात क्या प्रतिघात क्या,आत्मसात दिल को कर गयी
नदी के नीर को, सागर समीर को,बदलते देखा है
लोगो के ज़मीर को, सुंदर शरीर को बदलते देखा है

सहसा ऐसा भी किया जाता है
सहारा दे छोड़ा भी जाता है
असीमित जब सीमित हो जाता है
आग लगती है सैलाब पिघल जाता है
विश्वास के दामन को, घर के आँगन को बदलते देखा है
रिश्तों के सावन को, प्यार के मौसम को बदलते देखा है
समय के चक्र को, हाथों के वक्र को बदलते देखा है






बचपन




अल्हड अटखेलियो से होती थी
सुहानी सुबह की वो शुरूआत
किसी को आदाब किसी को सलाम क़र
चल देते थे पाठशाला
बौराए भौरों से चढ़ जाना टेहरी पर
झूल जाना कभी बरगद की लताओं से

डर के दुबक जाना कभी
मास्टर जी के डंडे से
और उनका नितांत भाव
जैसे मन को दे असीम स्पर्श हौले से
लौटना घर बना टोली साथियो की
करते हुये मंत्रणा
कुछ सुनी-सुनाई कुछ अनसुनी
लाख बचाने पर भी
हो ही जाती थी वो गलतियाँ
गन्ना तोड़ कर भागने की
चिरइया को चिढाने की
और करना अप्रिय संबोधनों का प्रयोग
अक्सर याद करता हूँ मै
उन बीते हुए लम्हों को
जो दे जाते है आज भी
ठंडक मेरे ज़ेहन को
आज भी मेरा बचपन
जोड़ता है परस्पर
दो भिन्न हृदयों को
तमाम परिवर्तनों के बावजूद

 ###    ###    ###

टिप्पणियाँ

  1. Vishwa Bhushan Mishra sundar likha hai... Sahityik dambh se itar bhole komal bhavon ki sahaj abhivyakti... Dono hi kavitayen sundar ban padi hain... Sadhuwad...

    जवाब देंहटाएं
  2. O.p. Singh: Dono kavitao me bhasa evam bhav ka bahut sunder samanvay hai. saadhuvad,

    जवाब देंहटाएं
  3. Jyoti Chawla बहुत अच्‍छी कविताएं हैं arunji और संतोष जी को बधाईा

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर प्रयास भाई बधाई और शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  5. Bharat Prasad- Arun ki dusari kavita-'BACHPAN' aankho ki kor ko gila karne main samarth hai. yahi kavita arun ke bhitar ankurit hote kavi ke prati aashawsta karti hai. apne vishay main aaughar ki tarah ramne se hi bakamal ki kavitayen phutati hain. bachapan ke praudha hone ki agrim subhkamnayen.

    जवाब देंहटाएं
  6. अरूण आशीष की कविताएं पढ़कर ऐसा नहीं लगता है कि ये कहीं छपने वाली पहिलौठी कविताएं हैं। बचपन कविता में कवि ने मानो मेरी ही सारी गतिविधियों को दर्ज कर दिया है । वैसे भी परिवर्तन चाहे जितना हो जाए हम अपनी जड़ों से कटकर बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकते। कवि से आगे और भी बेहतर कविताओं की अपेक्षा के साथ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं