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सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'हरिशंकर परसाई : लेखक भी बड़े हैं और संकट भी'

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  हरिशंकर परसाई लिखने का काम आसान नहीं होता बल्कि यह तमाम तरह की चुनौतियों से भरा होता है। जो सही मायनों में लेखक होता है, उसे प्रायः सत्ता के कोपभाजन का शिकार भी बनना पड़ता है। क्योंकि वास्तविक लेखक आम आदमी की आवाज को बुलन्द करता है। सत्ता आम आदमी की आवाज को कुंद करना चाहती है। इसी क्रम में उसका सत्ता से टकराव होता है। यानी लेखक आमतौर पर सत्ता के लिए संकट खड़ा करता है। हरिशंकर परसाई ऐसे ही ईमानदार लेखक थे जिनका लेखन, बकौल सेवाराम त्रिपाठी "तलछटों, दलितों और वंचितों की पुख़्ता आवाज़ है। उनका रिश्ता रिक्शा चलाने वालों और छोटे मोटे काम करने वाले लोगों से रहा है। मज़दूरों और कुचले हुए लोगों से रहा है। जो उनकी रचनात्मक सक्रियता के साथ उजागर हुआ है। तथ्य यह है कि उनका लेखन मनुष्यता की पक्षधरता का लेखन है। इस आवाज़ में कबीर और प्रेमचंद की विरासत है।" आज  हरिशंकर परसाई का जन्मदिन है। पहली बार की तरफ से हम उनकी स्मृति को नमन करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं सेवा राम त्रिपाठी का आलेख  'हरिशंकर परसाई  : लेखक भी बड़े हैं और संकट भी'। 'हरिशंकर परसाई  : लेखक  भी बड़े ह...

नात टिएन की कहानी “खाकी कोट”, हिन्दी अनुवाद : श्रीविलास सिंह

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    नात टिएन नात तिएन का परिचय नात तिएन वियतनाम के बेहतरीन लेखकों में हैं। उनका जन्म 1936 में हनोई में हुआ था। उनका लालन पालन उत्तर में हुआ किंतु जब जेनेवा समझौते के अंतर्गत देश का बंटवारा 1954 में हुआ तो वे दक्षिण में चले आए। उन्होंने रसायन शास्त्र का अध्यापन  और साहित्य लेखन किया। उन्होंने 1975 में एक शरणार्थी के रूप में (जिन्हें बोट पीपुल कहा जाता है) वियतनाम छोड़ दिया और  अमेरिका चले आए। प्रस्तुत कहानी उनके 1983 में प्रकाशित संग्रह “तिएंगे केन” (तुरही की आवाज) से ली गई है। उनके 10 उपन्यास और 11 कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। उनकी मृत्यु 2020 में हो गई।    युद्ध हमेशा अपने साथ तबाही लाता है। युद्ध के बाद की परिस्थितियां वहां के लोगों के लिए और दिक्कततलब होती हैं। वियतनाम भी उन राष्ट्रों में से एक है जिसने युद्ध के साथ साथ विभाजन की विभीषिका को भी एक समय में झेला। वियतनामी कहानीकार  नात टिएन की कहानी “खाकी कोट”  युद्ध के बाद उपजी जीवन जीने के अमानवीय परिस्थितियों का आइना है साथ ही राजनैतिक मान्यताओं पर सटीक व्यंग्य भी है। इस कहानी को हमने ' परि...

यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आंच' की आनन्द गुप्ता द्वारा की गई समीक्षा

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  यतीश कुमार  संघर्ष का ही दूसरा नाम जिन्दगी है। कहा भी जाता है कि कुंदन में तप कर ही लोहा अपना स्वरूप प्राप्त करता है।  जिंदगी जो इतनी खूबसूरत दिखाई पड़ती है उसके ये आयाम बताते हैं कि वह सतत परिवर्तनशील है। संस्मरण वह विधा है जिसमें आम तौर पर लेखक से ईमानदारी की अपेक्षा की जाती है। अपने संस्मरण की किताब 'बोरसी भर आंच' में यतीश कुमार इस प्रतिमान पर खरे उतरते हैं। इस किताब की समीक्षा लिखते हुए आनन्द गुप्ता लिखते हैं ' संस्मरण की किताब 'बोरसी भर आंच' को पढ़ते हुए चीकू (लेखक यतीश कुमार के बचपन का नाम) कब आपके साथ हो लेता है, पता ही नहीं चलता। चीकू के दुख दर्द और शरारतों को पढ़ते हुए अपने जीवन की घटनाएं स्मृति फलक पर तैरने लगती हैं। चीकू भारतीय निम्न-मध्यम वर्गीय बच्चों का एक प्रतिनिधि चरित्र बन कर हमारे सामने आता है। चीकू का संघर्ष लाखों करोड़ों बच्चों के जीवन संघर्ष के साथ जुड़ता चला जाता है। बोरसी भर आंच के चीकू के बड़े रेलवे अधिकारी यतीश कुमार बनने की यात्रा के उन  उपादानों  से हमारा परिचय कराती है जिसमें कोमल मिट्टी तप कर एक मजबूत बर्तन का रूप लेता है।' आज यतीश...

सुशील सुमन का आलेख ‘धरती’ का कवि त्रिलोचन

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  त्रिलोचन प्रगतिशील काव्य परंपरा में त्रिलोचन का नाम अग्रणी कवियों में शामिल है। हिन्दी में सोनेट परम्परा के एक मात्र सशक्त कवि त्रिलोचन ही हैं। अपने आस पास के विषयों को जिस तरह वे अपने  सानेट्स  में साधते हैं वह दुर्लभ है। इलाहाबाद के महाकुम्भ 1954 पर उनके द्वारा लिखे गए सानेट्स एक दस्तावेज की तरह हैं। युवा आलोचक सुशील सुमन लिखते हैं " त्रिलोचन के यहाँ  सानेट्स को  साकार होते देखना और पढ़ते हुए स्वयं भी उसे जीना, एक बेहतरीन अनुभव था। 'तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी' या 'ग़ालिब गैर नहीं हैं, अपनों से भी अपने हैं' जैसे इनके सॉनेट्स प्रथम पाठ में ही मन में उसी तरह से बस गए, जैसे 'चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती' कविता। धीरे-धीरे उनकी और कविताओं तक भी हमारी पहुँच जैसे-जैसे बनती गयी, कवि त्रिलोचन से हमारा प्यार और गाढ़ा होता गया।" आज त्रिलोचन के जन्मदिन पर हम उन्हें उनकी स्मृति को नमन करते हैं। आइए इस अवसर पर हम पढ़ते हैं सुशील सुमन का आलेख   ‘धरती’ का कवि त्रिलोचन। ‘धरती’ का कवि त्रिलोचन   सुशील सुमन   जहाँ तक मुझे याद आता है कि ...

हरियश राय का आलेख 'आकांक्षाओं, सपनों और अपेक्षाओं से लबरेज़ अमरकांत की कहानियां'

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  अमरकांत  आजादी के बाद आम आदमी की बेहतरी के जो सपने देखे गए थे वे एक एक कर टूटते चले गए। भ्रष्टाचार की जो विरासत हमें अंग्रेजों से मिली थी, वह आजादी के बाद भी बदस्तूर जारी रही। युवाओं के सपने में प्रायः वे पद होते थे ऊंची नौकरशाही से जुड़े होते थे। जाहिर तौर पर इस तरह के पदों को प्राप्त करने के पश्चात व्यक्ति की आर्थिक और सामाजिक हैसियत, मन सम्मान और प्रतिष्ठा काफी बढ़ जाती थी। लेकिन इसका एक स्याह पक्ष यह भी था कि इन पदों पर रहते हुए भ्रष्ट तरीके से कमाई की बहुत संभावनाएं होती थीं। इन पदों को हासिल करने के चक्कर में बेरोजगार युवा अपना दिन रात एक कर देते। परिवार भी इनसे अपनी बड़ी बड़ी उम्मीदें पाल लेता। लेकिन असफलता न केवल उस युवा बल्कि पूरे परिवार के सपनों को चकनाचूर कर देती। अपनी कहानी 'डिप्टी कलेक्टरी' में अमरकांत इस कथा व्यथा को करीने से व्यक्त करते हैं। अमरकांत अपनी कहानियों में कोई निर्णय नहीं देते बल्कि उस मोड़ पर ले जा कर छोड़ देते हैं जहां जा कर पाठक खुद को हतप्रभ महसूस करता है। यह वर्ष अमरकांत का जन्म शताब्दी वर्ष है। इस के अन्तर्गत हम आज पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे ...