हरियश राय की कहानी 'भँवर में...'

हरियश राय


'दुनिया इन दिनों' की साहित्य वार्षिकी-1 में हरियश राय की एक कहानी छपी है - 'भँवर में...'। कहना न होगा कि यह कहानी वर्तमान सन्दर्भों में भी काफी सामयिक है। तो आइए पढ़ते हैं हरियश राय की यह ताजातरीन कहानी।   
भँवर में ...
हरियश राय

चाहता तो वह गूगल के जनक सरगै ब्रिन की तरह बनना जिसकी वजह से गूगल दुनिया भर में मशहूर हो गया और जिसकी वजह से क्लास का हर बच्चा ‘’गूगल करो’’ या ‘’गूगल कर लेना’’ या ‘’गूगल में देख कर बताता हूं‘’ कहता रहता था और जब एक दिन क्लास के मास्टर जी ने उसे यह बताया कि सरगै ब्रिन ने ही गूगल के लिए एक ऐसा सर्च इंजन बनाया है जो दुनिया भर की तमाम वेबसाइटों में से छांट कर व्यक्ति की अपनी जरूरत की वेबसाइट को उसके कम्‍यूटर स्‍क्रीन पर दिखा देता है, तो उसकी हैरानी की सीमा न रही और इसी वजह से गूगल गूगल बना। कमाल का दिमाग रहा होगा सरगे ब्रिन का। उसने सोचा। फिर उसने यह भी पढ़ा था कि दिमाग तो हरेक के पास होता है लेकिन उसका पूरा उपयोग किये बिना ही लोग मर जाते है। पर वह अपने साथ ऐसा नहीं होने देगा। वह अपने दिमाग का पूरा उपयोग करेगा  और कुछ ऐसा करेगा कि वह सरगै ब्रिन से बढ़कर न सही। तो कुछ तो ऐसा करे जिससे  लोग उसे भी जाने और उसका नाम और काम भी दुनिया में मशहूर हो।

फरदीन नाम था उसका। पाँचवी क्लास में पढ़ता था गुजरात के कच्छ जिले के मांडवी शहर में उसका घर था। घर क्या था रेलवे लाइन के पास कच्चा-पक्का घर था। काफी समय पहले जब मोरवी का डैम टूट गया तो उसका परिवार तबाह हो गया उस समय उसके पिता  ने मांडवी में आ कर रहना शुरू किया। करीब चालीस साल की उम्र रही होगी उनकी। कच्छ में ठीक-ठाक काम चल रहा था उसका। गुज़ारे लायक पैसे इस पुश्तैनी काम से मिल जाते थे यहां आ कर उसके पिता ने टेरिकोटा की खिलौने बनाने का काम शुरू किया। यह उनका पुश्तैनी काम था। मांडवी में यह काम वे अपने छोटे से घर में ही करते थे। शहर के किसी एहसान साहब से उनके ताल्लुक़ात थे जो खिलौने के बड़े व्यापारी थी और जो उसके बनाये हुए खिलौने को खरीद लेते थे। कभी जहीर ऊँट, हाथी, घोड़े तरह-तरह के पक्षी बनाता, तो कभी घरों में रखे जाने वाले सजावटी दीपक और फूलदान। जब कभी एहसान भाई कहते तो  हुक्‍का या चिलम भी बना लिया करता था। उसके अपने घर में खिलौने बनाने के साँचे, बालू, पत्थर, छोटी-छोटी लकडियों का अम्‍बार लगा रहता था। घर के बाहर एक बहुत बड़ी भट्टी थी जिसमें खिलौने पक कर निकलते थे, कभी लाल तो कभी काले। जहीर खिलौनों को भट्टी में पकाने के बाद बालू से ढक देता था। कुछ दिन बाद वे खिलौने बाजार में बिकने के लिये तैयार हो जाते थे। महीने में एक बार एहसान भाई का कोई आदमी  शहर से आ कर उन सारे खिलौनों को ले जाता था और उसके बदले में कुछ पैसे उसे मिल जाते थे। मिट्टी को नय रंग और रूप देने उसकी बीबी फातिमा भी मदद करती। जहीर चाहता था कि फरदीन भी उसके इस काम में हाथ बढ़ाये लेकिन फरदीन के दिमाग में सरगे ब्रिन ही चलता रहता था। फरदीन की इच्छा यह सब करने की नहीं थी वह तो सरगै बिन जैसा कुछ बनना चाहता था। फिर फातिमा भी चाहती थी कि अभी लड़के को पढ़ने दो। अभी इस काम में मदद करने के लिए उसकी उम्र बहुत छोटी है।
क्लास में लड़के फरदीन का मजाक उड़ाते कहते, ’’पैदल क्‍यों स्‍कूल में आता है? घोड़े पर आया कर तेरे घर से रोज घोड़े बन कर बाजार में बिकने आते है।’’
कोई  कहता, ’’घोड़े में नहीं आ सकता तो ऊंट में आ जाया कर। हम भी ऊंट की सैर कर लिया लेंगे।’’
कभी कोई कहता तो ‘’तू पढ़ लिख कर क्या करेगा। बनाने तो तुझे ऊँट और घोड़े ही है।’’
इस तरह की बातें फरदीन को नागवार गुज़रती। लेकिन वह कुछ कहता नहीं। मन मसोस कर रह जाता
एक दिन क्लास में मास्टर जी ने सब बच्चों से पूछा कि वे बड़े हो कर क्या बनना चाहते हैं तो एक ने कहा कि, ‘’वह डाक्टर बनना चाहता है तो दूसरे ने कहा वह ‘’ठेकेदार बनना चाहता है’’ तो किसी ने कहा कि ‘’वह दूकान खेलना चाहता है। जब फरदीन  से पूछा कि तुम क्या बनना चाहते हो तो इससे पहले वह बताता कि वह सरगै ब्रिन बनना चाहता है उसका दोस्त रमेश‍ बोल उठा, ’’यह क्या बनेगा सर। यह अपने पिता के साथ मिट्टी के खिलौने बनाया करेगा।’’ उसके इस हस्तक्षेप से पूरी क्लास एक साथ हंस पड़ी। पर फरदीन क्या बनना चाहता है यह बताने की आस उसके मन में ही रह गई। उसने अपने आप को उस दिन अपमानित भी महसूस किया। 
एक दिन पिता जहीर  ने फरदीन  से कहा, ’’बहुत हो गई पढ़ाई –लिखाई; अब कल से भट्टी गर्म किया कर’’
‘’यह मुझसे नहीं होगा।’’ फरदीन  ने डरते-डरते कहा
‘’क्‍यों नहीं होगा। जहीर ने डाँटते हुए पूछा
‘’मुझे भट्टी से डर लगता है। फरदीन ने कहा।
‘’ इसमें डर किस बात का कुम्हार के घर पैदा हुआ है तो कुम्हारी का काम तो सीखना ही पड़ेगा। भट्टी से जल थोड़े ही न जायेगा।’’
‘’पर मुझे सवेरे-सवेरे स्‍कूल जाना होता है।’’ उसने तर्क दिया
‘’अब स्‍कूल जा कर क्या करेगा। पढ़ लिख कर कोई कलक्टरी थोड़ी ही तुझे मिल जायेगी।’’ जहीर  ने डांटने के अंदाज में कहा
‘’कलक्टरी न भी मिले पर मुझे यह काम नहीं करना।’’ फरदीन ने प्रतिवाद किया।
उसे पता था कि यदि वह एक बार इस काम में फंस गया तो अपने बाप जैसा ही कुछ बन कर रह जायेगा और इस काम में हाथ डालने का मतलब था कि सरगै ब्रिन जैसा बनने का उसका सपना उसके अपनी घर की भट्टी में भस्म हो जायेगा जिसे वह किसी भी हॉलत में नहीं होने देना चाहता था।

फरदीन के इस जवाब से जहीर पहले तो नाराज हुआ फिर समझाने के मूड़ में आ गया। कहा, ’’हाँ देख बेटा, मैंने बहुत मुश्किलें उठाकर यह काम शुरू किया। अब यह काम ठीक-ठाक चल निकला। तो इससे मुंह मत मोड़। इसी काम से हमारे परिवार का गुजारा हो रहा है और आगे भी होता रहेगा। यह हमारा पुश्तैनी काम है।’’
लेकिन फरदीन को अपने इस पुश्तैनी काम में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो चाहता था कि उसका पिता कभी उससे पूछे कि सूर्य की किरणें जमीन पर कितने समय में पहुँचती है या आवाज से पहले रोशनी क्‍यों दिखाई देती है या मछली पानी से बाहर निकलते ही क्‍यों तड़पने लगती है तो वह इन सवालों का जवाब फौरन दे दे। लेकिन जहीर के जेहन में इस तरह के सवाल कभी आये ही नहीं और न ही उन्हें ऐसे सवालों से कोई मतलब था। उसका काम तो टेरिकोटा के खिलौने बनाना था और उन्हें एहसान भाई की दूकान में बेच देना था।

पर पिछले कुछ दिनों से पता नहीं क्या हुआ एहसान का आदमी खिलौने और मूर्तिया लेने उसके घर नहीं आया। एक महीना गुजर गया। पर एहसान की दुकान से कोई नहीं आया दूसरा महीना भी  गुजर गया तब भी कोई नहीं आया इसी तरह तीसरा और चौथा महीना भी गुजर गया तब भी कोई  वह नहीं आया। काफी सारी खिलौने बन कर तैयार हो गये थे। एहसान के आदमी के न आने से जहीर की चिंता बढ़ती जा रही थी क्योंकि घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। कुछ पैसे इधर- उधर से ले कर जहीर ने चार महीनों तक अपना काम चलाया।
एक दिन फरदीन की बीबी फातिमा ने कहा,’’ एहसान भाई ने अपनी दूकान तो नहीं बद कर दी। चौथा महीना हो गया उनका कोई आदमी खिलौने लेने  नहीं आया।’’
उसका मन आशंकाओं के समंदर में डूबने लगा था
‘’नहीं कैसी बातें करती हो। दुकान कैसे बंद हो सकती है। बहुत बड़ा कारोबार है उनका।‘’ शायद एकाध रोज में किसी को भेजते होंगे।’’ जहीर ने उसकी आशंका को दूर करने की कोशिश की।
‘’क्‍यों न खुद ही जा कर उनसे मिल आओ। असलियत कापता चल जायेगा।’’ फातिमा का डर बरकरार था।
जहीर उसकी बात सुन कर कुछ लमहे  चुप रहा फिर बोला,’’ ठीक है। कल ही जाकर पता करता हूं कि बात क्या है। पर तुम फिक्र न करो।

अगले दिन जहीर शहर के बाजार में पहुंच गया जहां एहसान भाई की दुकान थी। बहुत संकरा सा बाजार था।  तरह-तरह की दुकानें  एहसान की दुकान के पास पहुंच कर जहीर ने देखा एहसान भाई अपनी दुकान पर बैठे ग्राहकों से घिरे हए था। एहसान ने जहीर को देख कर आंखों ही आंखें में दूकान के बाहर बैंच पर बैठने का इशारा किया और ग्राहकों से बात करने में मशग़ूल हो गये। 


जहीर ने सोचा कि पास ही में उसके दोस्त इकबाल की तस्वीरों पर फ्रेम मढ़ने की दुकान है तब तक उससे मिल आऊं। वह धीरे धीरे चलता-चलता उसकी दुकान पर पहुंचा। दूकान में कुरान की आयतों की अनेक फ्रेम की हुई तस्वीरें लगी थी। पूरी दुकान में कुरान की आयतें की फ्रेम लगी हुई थी। जो शायद ग्राहकों की थी। इकबाल की दुकान में दो महिलाएँ खडी थीं शायद वह कुछ तस्वीरें फ्रेम करवाने के लिए आई थी। इकबाल कुछ देर उनसे बात करता रहा। उसने उन दो महिलाओं में से एक महिला से इकबाल ने कुछ पैसे लिये और कुरान की आयतों के फ्रेम वाली तस्वीरों के पीछे से एक फ्रेम की हुई तस्वीर निकाली। उस फ्रेम को अख़बार में लपेट कर इकबाल ने महिला को दिया। गोया कोई उस तस्वीर को देख न लें
 
जहीर ने यह नजारा बहुत गोर से देखा पर उसकी समझ में  नहीं पाया कि इकबाल ने फ्रेम को अख़बार में लपेट कर इस तरह चुपके से क्‍यों दिया।
जब इकबाल अपने ग्राहकों से फारिग हुआ तो उसने जहीर की तरफ देखते हुए पूछा, ‘’आज इधर कैसे आना हुआ जहीर भाई।’’
‘’बस जरा एहसान भाई की दुकान तक आया था सोचा तुम से भी मिलता चलूं।
"अच्‍छा किया।’’ इकबाल ने कहा और पूछा,’’ सब खैरियत तो है।’’
हां, सब खैरियत है एहसान भाई ने कई दिनों से अपना सामान लेने के लिए किसी को नहीं भेजा।’’ जहीर ने अपना दुःख इकबाल के सामने रख दिया
‘’नहीं भेज पाये होंगे। आजकल बाजार बहुत मंदा हो गया है। शायद इसलिए नहीं भेज पाये होंगे। ‘’इकबाल ने बताया।
‘’मंदा...’’ जहीर ने हैरानी व्यक्त की 
हां भाई, बहुत ही मंदा है। मेरी ही दूकान में जहां पहले पर दस बारह ग्राहक आते थे, अब मुश्किल से दो या तीन ही आ पाते है। दुकान का खर्चा निकालना उसके लिए मुश्किल हो रहा है।‘’
इकबाल ने अपनी पीड़ा बयान की। जहीर समझ नहीं पाया कि इकबाल क्या कह रहा है। उसने सोचा धंधा कम होने की शिकायत हर दुकानदार करता है शायद इकबाल भी ऐसा ही कुछ शिकायत कर रहा होगा। 
‘’तुमने अख़बार में लपेट कर उस महिला को क्या दिया।‘’ जहीर ने तीर जैसा सवाल  इकबाल से किया।
जहीर के मन में  शंका ने जन्म लिया जिसका समाधान वह कर लेना चाहता था।
‘’अब तुमसे क्या छिपाना। दरअसल अब मैं कुरान की आयतों के साथ साथ शिव, पार्वती, वेष्‍णों देवी, गणेश राम और सीता की तस्वीरों को भी फ्रेम में मढ़ कर देने लगा हूं। अब केवल कुरान की आयतों  को फ्रेम में मढ़ने से ही तो दूकान नहीं चल सकती। इन देवी देवताओं की तस्वीरों को फ्रेम करवाने बहुत लोग आने लगे है।’’
इकबाल ने यह रहस्य जहीर को इस तरह बताया जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अपराध किया हो।
‘’वो तो ठीक है पर फ्रेम को इस तरह दिया अख़बार में लपेट कर क्‍यों दिया।’’ जहीर ने दूसरा सवाल किया।
‘’अब खामखाह लोगों को पता चले कि मैंने इस तरह का काम भी शुरू कर दिया तो भाई लोग बावेला भी खड़ा कर सकते है। इससे बचने के लिए ही यह तरीका निकाला है।’’ इकबाल ने मुस्कराते हुए कहा
 
जहीर को समझते देर नहीं लगी कि माहौल बदल रहा है। ऐसे माहौल में यह करना जायज है। बाजार से गुजरते वक्त उसने देखा था कि बाजार में जहां उस्‍मान की बेकरी थी। अब उसकी जगह भगवती शो रूम खुल गया था। सलीम ड्राई क्‍लीनर्स ने अपनी दुकान का नाम बदल कर एडवर्ड ड्राई क्‍लीनर्स रख दिया था। उसके एक ओर दोस्त इम्तियाज़ ने अपनी दर्ज़ी की दूकान बंद करके कैम्ब्रिज कंपनी की डीलरशिप ले ली थी और रेडीमेड कपड़े बेचने लगा था। जहीर ने  बाजार में यह भी देखा था पहले इस बाजार में तंग मोरी का पायजामा और सर पर गोल-गोल टोपिया पहन बहुत सारे लोग दिखाई देते थे, अब बहुत कम लोग ऐसे लिबास में दिखाई दे रहे थे। जहीर इस बदलाव को देख कर थोड़ा हैरान भी हुआ और परेशान भी।
"ठीक है भाई वक्त के हिसाब से बदलना पड़ता है।’’ जहीर ने इकबाल के काम का समर्थन सा किया
कुछ देर बाद जहीर जब एहसान की दूकान पर पहुंचे तो देखा कि दुकान में कोई ग्राहक न था एहसान भाई दुकान में अकेले थे
जहीर को देखते हुए एहसान ने उनका स्वागत करते हुए कहा, ‘’आओ जहीर भाई, कैसे आना हुआ।’’
‘’बस यूं ही ।कई दिनों से आपने किसी को भेजा नहीं तो मैंने सोचा कि मैं ही हाल-चाल पूछ आऊं। जहीर के स्वर में निरीहता का भाव था।
उसके मन में इकबाल द्वारा बताई हुई मंदी की बातें गूंज रही थी। पता नहीं उसे कुछ गलत होने की आशंका हो रही थी।
‘’बस यू हीं नहीं भेजा किसी को। आजकल धंधा एकदम ठप्प हो गया है।’’ एहसान भाई ने कहा
सुनते ही जहीर का कलेजा कांप सा गया। उसकी आशंका सच होती दिखाई दे रही थी
‘’हां, इकबाल भाई भी यही कह रहे थे।’’ जहीर ने उसकी बात का समर्थन किया।
‘’पूरा बाजार ही मंदा है। ग्राहक पता नहीं कहां चले गये।’’ एहसान भाई ने कुछ अनमने मन से कहा
‘’आपका सामान बहुत बन कर तैयार हो गया है। भिजवा दूं उनको। जहीर ने संयत स्वर में अपने मन की बात कही और एहसान भाई का मुंह देखने लगा। उसे लग रहा था कि एहसान भाई  सामान भिजवाने के लिए कहेंगे लेकिन एहसान भाई कुछ नहीं बोले। जहीर की बात सुन कर चुप रहे।


उसे चुप रहते देख जहीर ने फिर कहा,’’ हर महीने आप का आदमी आता था। बरसों से हमारा और आपका लेन-देन चल रहा है। आपका आदमी आता ही होगा, यही सोच कर मैंने बहुत सारा सामान आपके लिए बना लिया है।’’
जहीर के स्वर में एक याचना थी।
‘’वो तो ठीक है। पर अब टेरिकोटा के खिलौनों को लोग पसंद नहीं कर रहें है। पहले का काफी सामान भी अभी अनबिका पढ़ा है।’’ एहसान भाई ने जहीर को हकीकत से रू-ब-रू करवाया।
सुनकर जहीर घबरा सा गया। यदि इकबाल  भाई ने उसका सामान नहीं लिया तो वह बहुत बड़ी मुसीबत में फंस जायेगा। 
-
‘’ऐसा न कहें एहसान भाई। ग्राहक तो सब तरह के आते हैं।’’ जहीर की बात में बेचारगी टपक रही थी। 
‘’आजकल उस तरह के खिलौनों को ग्राहक पसंद नहीं करते। अब प्‍लास्टिक के बहुत से खिलौने बाजार में आ गये है। चीन के खिलौने सस्ते दामों  पर बिक रहे हैं। अब आजकल आपके बनाये हुए खिलौनों को अब कोई नहीं ख़रीदता।’’ एहसान भाई ने दो टूक शब्‍दों में कहा
एहसान भाई की बातें सुनकर जहीर का दिल बैठ सा गया। अब यदि उसके टेरिकोटा के खिलौने नहीं बिकेंगे तो उसका क्या होगा। उसके परिवार का क्या होगा। कैसे वह अपने परिवार का पेट पालेगा। उसकी आंखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा था।
‘’मैं क्या करुँ????’’ जहीर की आवाज में दयनीयता थी।
‘’मैं क्या बताऊं। इस मंदी में तो हम लोगों का जीना भी मुश्किल हो रहा है। मैं आपको क्या बताऊं। हम लोग खुद ही भँवर में फंस गये है एहसान भाई ने कहा।
एहसान भाई की बातें सुन कर जहीर चुप हो गया। एहसान भाई भी चुप हो गये। जहीर की समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह और क्या बात करे। उसे लगा कि एहसान भाई के साथ-साथ वह भी भँवर में फंस गया है’’
‘’ एक काम करो आप।’’ अचानक एहसान भाई ने कहा
‘’जहीर खुश हो गया।  लगा कि एहसान भाई उसे भँवर से निकलने का रास्ता बताने वाले हैं बोला,’’ कहिए...
‘’आप टेरिकोटा के खिलौने बनाना बंद कर दीजिए।’’ एहसान भाई ने बेधड़क होकर कहा
 
एक पल के लिये तो जहीर यह सुन कर हैरान रह गया। यह एहसान भाई क्या कह रहे हैं। टेरिकोटा के खिलौने बनाना तो उसका पुश्तैनी काम है। इस काम को वह कैसे बंद कर सकता है। 
‘’वो तो मेरा पुश्तैनी काम है। उसे बंद कर दूं तो फिर क्या करुँ।’’ उसके मन में सवालों का भँवर उमड़ने लगा था
‘’ पुश्तैनी काम है वो तो ठीक है पर अब पुश्तैनी काम के सहारे ही जिन्दगी नहीं चल सकती। अब आपको भी बदलना होगा । एहसान भाई ने नसीहत देते हुए कहा
‘’ मुझे भी...  मतलब... जहीर ने पूछा?
‘’हां आपको भी... आपको बाजार से अंदाजा मिल गया होगा। सब बदल गये है। आपको भी बदलना होगा। यह बदलाव ही आपको इस भँवर से निकालेगा।’’ एहसान भाई ने उसे समझाते हुए कहा   
‘’तो क्या करना होगा मुझे।’’ उसने जानना चाहा
  
‘’आप घरों में रखने वाले छोटे मंदिर बनायें। हर साइज के मंदिर। आज कल इनकी मांग बहुत बढ़ गई है। हर घर में पूजा घर होने लगा है। लोग देवी देवताओं की मूर्तियां अपने घर के पूजा घर में रखने लगे है।’’
एहसान भाई ने जहीर को बदलते समय की नब्ज से वाकिफ करवा दिया
एक पल के लिये तो छोटी सी खुशी का भाव उसके मन में समा गया। पता नहीं यह खुशी  टेरिकोटा के खिलौने का काम बंद करने की थी या आमदनी के नये तरीकों को खोजने की थी। 
‘’मंदिर... उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं
‘’हां मंदिर। छोटे-  छोटे मंदिर... आज कल लोग अपने घरों में मंदिर रखने लगे हैं। जैसा घर वैसा मंदिर। घर छोटा तो छोटा मंदिर, घर बड़ा तो बड़ा मंदिर। आप मंदिर बनाइए और दस दिन बाद पचास मंदिर लेने के लिए मैं अपने आदमी को आपके पास भेज दूंगा। आप चाहें तो मैं आपको कुछ पेशगी भी दे सकता हूं।’’ एहसान भाई ने ज़मीर के सामने भविष्य का नक्शा सा रख दिया। 
जहीर समझ नहीं पाया कि एहसान भाई क्या कह रहे है। यानी अब वह टेरिकोटा के खिलौने बनाने का अपना पुश्तैनी काम छोड़ कर मंदिर बनाये। उसकी आंखों के सामने इकबाल का अखबार में लपेट कर फ्रेम देने का दृश्य कौंध सा गया। उसे सारा माजरा समझते देर नहीं लगी। उसकी समझ में अच्छी तरह आ गया कि इस बदले माहौल में जिन्‍दा रहना है तो टेरिकोटा के खिलौने बनाने का अपना पुश्तैनी काम छोड़ना होगा।
‘’ठीक है भाई, जैसा आप कहें।’’ ज़हीर ने उसके आगे हथियार डाल दिये।
‘’देखो जहीर भाई, समय बहुत कम है। यदि तुम वाकई मंदिर बना सकते हो तो यह काम लो। वरना रहने दो। शहर के बड़े व्यापारी से मेरी डील हो चुकी है।’’ एहसान भाई का स्वर कुछ नरम हो गया
‘’आप बिल्‍कूल फिक्र न करे। समय से पहले आपको पचास मंदिर बने हुए मिलेंगे। आप दस दिन बाद अपना आदमी भेज दीजिये। ‘’जहीर ने कहा
उसने एहसान भाई से कुछ पैसे भी लिये  दुकान से उतर आया ।

घर में जब जहीर ने कदम रखा तो फातिमा ने उसके बुझे चेहरे को देख कर पहचान लिया कि कुछ अनहोनी हुई है।
‘’क्या हुआ, सब खैरियत तो है।’’ उसने घबराते हुए पूछा
 उसके मन में चिंताओं का पहाड़ आकार लेने लगा था।
‘’हां सब खैरियत है। जहीर ने संयत स्वर में कहा।
‘’तो फिर चेहरा क्‍यों लटका रखा है।’’ फातिमा ने जहीर से पूछा
‘’अब हमें टेरिकोटा के खिलौने बनाने का काम बंद करना पड़ेगा।’’ उसने फातिमा से कहा,
‘’क्‍यों ... बंद क्‍यों?? 
फातिमा का डर एकाएक सामने आ गया।
‘’एहसान भाई कह रहें थे अब इस तरह के खिलौने नहीं बिकते। हमारा पहले का काफी सामान अनबिका पढ़ा है।‘’ जहीर ने बताया
‘’हम यह काम बंद कर देंगे तो करेंगे क्या खायेंगे क्या;’’ उसका डर लगातार बड़ा हो रहा था
जहीर फातिमा के सामने कुछ देर निरुत्तर सा खड़ा रहा फिर कहा   
‘’एहसान भाई ने कहा कि हमें मंदिर बनाने चाहिएं। पूजा घरों में रखने वाले मंदिर।
फातिमा यह सुन कर हैरान रह गई। अब जहीर, फातिमा मिल कर मंदिर बनायेंगे।
‘’ऐसा क्‍यों‘’ उसने जानना चाहा।
‘’आजकल जमाना बदल गया है। एहसान भाई कह रहे थे कि अब टेरिकोटा के खिलौनों के खरीददार नहीं रहे। अब घरों के पूजा घरों में रखने वाले मंदिर की मांग होने लगी है।
हैरान रह गई फातिमा, जहीर से यह सब सुन कर।
‘’क्या बच्चों ने खेलना बंद कर दिया या लोगों ने अपने घर में सजावटी सामान रखना बंद कर दिया।’’ उसने जहीर से सवाल किया।
‘’वो तो मुझे पता नहीं।  पर अब हमें पचास मंदिर दस दिन में बना कर देने है। जहीर ने कहा
‘’इतनी जल्दी कैसे बनाओंगे पचास मंदिर।’’ उसने सवाल किया
‘’वह सब हो जायेगा। कल से हम सब मिलकर यह काम करेंगे। फरदीन को इस काम में शामिल होना होगा। ‘’जहीर ने पुलकित स्वर में कहा

अगले दिन फरदीन जब स्‍कूल जाने लगा तो जहीर ने उसे स्‍कूल जाने से मना कर दिया कहा, ’’बेटा आज से तुम्हारा कुछ दिनों के लिए स्‍कूल जाना बंद।"
फरदीन अपने में ही मगन था। पिता से यह सुन कर हैरान रह गया। यह अचानक उसके पिता को क्या हुआ जो उसे स्‍कूल जाने से मना कर रहे है
‘’क्‍यों...’’ उसने अपने पिता को अजीब सी आंखों से घूरते हुए पूछा?
‘’तुम हमेशा कुछ नया करने के लिए कहते थे न। तो आज मैं तुमको नया काम सिखाउंगा।’’
‘’नया काम... कौन सा नया काम।’’ फरदीन हैरान रह गया
‘’नया काम आज से तुम मेरे साथ मंदिर बनाओगे। छोटे-छोटे मंदिर जिसे लोग अपने घरों के पूजा घर में रखतेहैं
  
‘’पर मेरा स्‍कूल... फरदीन एकदम घबरा सा गया। ‘’वह तुम बाद में चले जाना।’’ जहीर ने फरमान सा दिया
‘’पर अगले हफते मेरे सालाना इम्‍तेहान है।’’ फरदीन के स्वर में बेचारगी थी
‘’इम्‍तेहान अगले साल दे देना। एक साल रूक जाओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा पर यदि दस दिन में पचास मंदिर न बने तो हम सबक़ों फर्क पड़ेगा। अब ज्यादा बहस नहीं करो आज स्‍कूल मत जाओ  मेरे साथ बाजार चलो। मंदिर बनाने का सामान लेकर आना है। जहीर ने बिना पल गंवाए फरदीन को डाँटते हुए कहा। 
फरदीन भौचक्का हो कर अपने पिता को देखने लगा। वह तो सरगे ब्रिन जैसा कुछ बनना चाहता है पर अब मंदिर बनाना...
उसके मन में सवाल उठने लगे कि क्या वह सरगे ब्रिन जैसा नहीं बन पायेगा। क्या वह सारी जिन्दगी मंदिर बनाने का ही काम करता रहेगा।

सम्पर्क -
हरियश राय
73, मनोचा एपार्टमैंट
एफ ब्‍लाक, विकासपुरी
नयी दिल्ली– 110018
मो :  09873225505
ई मेल : hariyashrai|@gmailcom

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'।

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'