बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी के दस कवि'

बलभद्र



दुनिया की हर भाषा हर बोली अपना अलग सौन्दर्य होता है। हर बोली अपने लहजे के साथ जीती है। भोजपुरी भाषा ऐसी ही रागात्मक भाषा है, जिसका लहजा सहज ही आकर्षित करता है। लेकिन विद्रूपताओं और विडंबनाओं के ऊपर जब हमला करना हो तो इसकी तल्खी देखते ही बनती है। भोजपुरी के रचनाकार इस मामले में काफी जागरूक हैं। संयोगवश यह भोजपुरी क्षेत्र राजनीतिक जागरूकता का भी क्षेत्र रहा है जिसका प्रभाव भोजपुरी कविताओं में सहज ही दिखाई पड़ता है। बलभद्र भोजपुरी के जाने माने कवि और आलोचक हैं। भोजपुरी की नब्ज पर इनकी सूक्ष्म दृष्टि रहती है। बलभद्र ने इधर भोजपुरी के उन दस कवियों पर बातचीत की है जो उम्दा लिखने के बावजूद चर्चा से प्रायः बाहर ही रहे हैं। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी के दस कवि'।



भोजपुरी के दस कवि 


बलभद्र



तनी अरज सुनीं मोरे भइया हो


भोजपुरी कविता प जब बात होई त भोजपुर के भोजपुरी कविता प जरूर बात होई भा होखे के चाहीं। भोजपुर के जमीन भोजपुरी कविता खातिर काफी उपज के जमीन ह। भोजपुर के भोजपुरी कविता के एगो महत्वपूर्ण पक्ष ह ओकर जनधर्मी मिजाज। सत्ता से असहमति आ जन आ जन आंदोलन से सीधा संवाद।


रमाकांत द्विवेदी रमता, विजेंद्र अनिल, दुर्गेंद्र अकारी एही जमीन के खास कवि हवें। कृष्ण कुमार निर्मोही के नांव भी एह जमीन से जुड़ल बा। एह बीचे जितेंद्र कुमार के भी कविता सोसल मीडिया प लगातार पढ़े के मिल रहल बा। जितेंद्र कुमार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी- मार्क्सवादी लेनिनवादी से जुड़ल बाड़न। ई पूर्णकालिक कार्यकर्ता हवें। भोजपुर जिला कार्यालय के प्रभारी। जाहिर बात बा कि रोज रोज इनका अनेक तरह के लोग से भेंट मुलकात होत रहेला। किसान से, मजदूर से, छात्र से, नौजवान से, महिला से। अनेक तरह के सवालन से रोज रोज पाला पड़त रहेला। कई कई मोरचा प काम करे वाला लोग से भी इनकर रोज के भेंट ह। एह सबसे हासिल ज्ञान आ अनुभव के अभिव्यक्ति इनका गीतन में हो रहल बा।


जितेंद्र कुमार खुद निम्नमध्यवर्गीय गंवई परिवार के हवें। पार्टी ऑफिस में रहे के चलते इनका रमता जी, अकारी जी जइसन अनेक कार्यकर्ता कवि लोग के देखे सुने के मोका मिलल बा। ओह लोग से बहुत कुछ सुने आ समझे के भी। जनता के दुख दरद आ ओकर जुझारूपन के बोध के बीचे इनकर कवि आ कविता आकार ले रहल बा। बिना कवनो शोर शराबा के।


भाकपा माले के कार्यक्रम, ओकर राजनीतिक एजेंडा के कविता के विषय बनावे के कला ई अकारी जी से लेत लउकत बाड़न।

 

 

जितेंद्र कुमार


इनकर एगो गीत ह -"भोंभा लेके विकास गुन गावल करीं।" भोंभा के मतलब हर भोजपुरिया जानत बा। बहुत पहिले से ही लाउडस्पीकर के लोग भोंभा कहेला। आजकल सरकार बहुते जोरशोर से आपन काम के परचार करे में लागल बिया। ओकरा हाथ में मीडिया बा, गोदी मीडिया। ई सब सरकारी भोंभा ह। सरकार अब एही भोंभा के जरिए आपन छवि चमकाऊ परचार में लागल बिया। बिहार के मौजूदा सरकार होखे भा केंद्र के। विकास विकास खूब गवा रहल बा। बाकी कवि कुछ दोसर बात कह रहल बा। बिहार सरकार के नल जल योजना के हकीकत बता रहल बा। आकासे टंगाइल बिना जल के टंकी के ओर इशारा करत बा।


"खलिहा टंकी आकासे देखावल करीं

भोंभा लेके विकास गुन गावल करीं।"


कुछ बात बा जेके ठीक से समझे के होई। गीत में चापाकल आ इनार के सुखाए के बात बा। का एह के हलुके में लेवे के चाहीं!


"नल जल के जबसे दिहलीं पाइप पसार

चापाकल बन भइल, गंउवा के इनार।"


एकरा बाद बा खाली टंकी। ठीक अइसहीं जइसे गैस सिलिंडर बांटे के जोजना चलल। आ फेर हजार रोपया से ऊपर हो गइल सिलिंडर के दाम।


भरोसामंद सहारा जे रहे से ठप हो गइल आ जेकर सपना देखावल गइल ऊ फेल भ गइल भा पहुंच के बहरी।

 

एह गीत में एगो अउर बात बा। ऊ बात बा कि सरकार खूब जोर शोर से खुशहाली के परचार करा रहल बिया। आ एने गरीबन के हांडी लेवन लागे के जुगुत नइखे बनत। लेवन हांडी के पेनी में लागेला। जे हांडी के पेनी देखे के दृष्टि वाला बा, जाने के चाही कि ऊ समाज के सबसे निचिलका पावदान के आदमी के माली हालत देखे के दृष्टि वाला बा। ऊ देख रहल बा कि जीए के जद्दोजहद में लोग गांव छोड़ रहल बा, कवनो सवख में ना। 


महंगाई आज चरम से चरम प बा। आम आदमी के जियल मुहाल बा। हर दौर में  महंगाई प भोजपुरी में गीत लिखाइल बा। अटल बिहारी वाजपेयी के सरकार के समय अकारी जी लिखलें - 'महंगइया हो बड़का भइया बढ़ल बेशुमार।' इंदिरा गांधी के समय खइनी के बढ़ल दाम प अकारी जी गीत लिखलें। खइनी बींडी प महंगी के मार भोजपुरिए कविता गीत के विषय हो सकेला। जितेंद्र के भी एगो गीत बा - 


"डेढ़ा सवइया रोज बढ़े महंगइया मोरे भइया हो

मजधार में जिनगी के नइया मोरे भइया हो।"


हम एह बात प गौर करे प मजबूर बानी कि बेशुमार बढ़त महंगाई प गीत लिखत समय अकसरहां मोरे भइया, बड़का भइया जस टेक अदबद काहे आवेला! बुझाला जे ई टेक आपरूपे आ जाला। बात अपना लोग से कहे सुने के क्रम में। गीत के अगिला कड़ी देखीं।


"करुआ तेल के बोली रोज भइल जाता टांठ हो

आग लाग जाता देख गैसवा के ठाठ हो

दामवा बढ़े शान झरेला दवाइया, मोरे भइया हो।

रोज रोज बढ़े दाम डीजल पेट्रोल के

नाचवा देखावे महंगी लाता कपड़ा खोल के

नइखे बुझात कहवां घुसत बा कमइया, मोरे भइया हो।"


"नाचवा देखावे महंगी लाता कपड़ा खोल के" प गौर जरूर करे के चाहीं।


ई सामान्य कथन ना ह। ई करारा व्यंग्य ह, मार ह, बलुक सबसे कारगर। एह व्यंग्य से मौजूदा सरकार लंगटे हो जात बिया। ओकर सजल धजल ठाट के धज्जी धज्जी उड़ जाता।


जितेंद्र कुमार के पासे स्मृति के खजाना जे बा, उहो कविता के धज में जगह ले रहल बा। जाड़ा के कड़ा शासन में कउड़ा के सहारा बा इनका स्मृति के खजाना में। पुअरा पेटाढ़ी के अलम बा। 


इनका लगे एगो जिद बा, समझ बा, भरोसा बा कि "बीती रात अन्हरिया आई नयका भोर हो।" रमता जी कहत बानी कि "फाटी कुहेस सब घरी अन्हार ना रही।" जितेंद्र जी भोजपुर के भोजपुरी कवि हवें। 

    


रउवा कइसन लागित जी!


एक बार पटना में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर प लइकियन के टीम एगो गीत प्रस्तुत कइले रहे। ओह गीत में कुछ सवाल रहे। सवाल मरद आ मेहरारुन के जीवन आ रहन सहन के बीच के अंतर प रहे। पुरुष नियंता काहे आ स्त्री उनका अधीन काहे? काहे स्त्री हर बात खातिर पुरुष के मुंह ताके प मजबूर बाड़ी। गीत शुरू एह तरे रहे -  


"जब हम आपन हक पा जइतीं

बइठल रवे नियन फरमइतीं

रउवा हाथ जोड़ घिघियइतीं

रउवा कइसन लागित जी?" 


आगे रहे -


"एगो दोहर हम सियवइतीं 

ओह के गर्मी में ओढ़वइतीं 

झांकत चार लात लतियइतीं 

रउवा कइसन लागित जी?"


गीत में कवन बात प जोर देल गइल बा, कहे के जरूरत नइखे। ओह समय पूरा हॉल तालियन से गूंज उठल रहे। बाद में ई गीत ऐपवा (ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन एसोसिएशन) के मुखपत्र 'आधी जमीन' में छपल रहे। 


एह प्रसंग के बाद के बात कम दिलचस्प नइखे। कुछे महीना बाद जब महेंद्र गोस्वामी के एगो गीत सोझा आइल, हम चिहा उठलीं। कंटेंट एकदम लइकियन के गीत अस, धुन उहे। बाकी फरक ई कि ऊ लइकिन के तरफ से रहे। सवाल लइकिन के रहे। आ एह गीत में सवाल गरीब जन के तरफ से बा, मजूरा के तरफ से। ओह में पुरुषसत्ता से सवाल रहे, एह में मालिक लोग के सत्ता से सवाल बा, सामंती व्यवस्था से सवाल बा। सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी आ सामंती शोषण- उत्पीड़न प सवाल बा।मलिकार लोग मेहनत करेवाला के मजूरी समय प ना देके, मजूरी के मांग करेवाला के गारी फजीहत करे में तनिको कमी ना करेला। गरीब के मेहर बेटी सबसे सेवा टहल करावेला। कई पुहुत तक। ई कवनो काल्पनिक बात ना ह। बलुक एगो कठोर सांच रहल बा। महेंद्र गोस्वामी ओह पूरा सांच के गीत के विषय बनवले बाड़न।


सवाल बड़ा विनम्र शैली में बा आ बहुते बेधक बा। सवाल आदरसूचक संबोधन  'रउवा' से शुरू होत बा। 'तू तड़ाक' शैली में ना। बस एगो बात बा कि मालिक (सामंत) के जगह प चुपके से मजूर (उत्पीड़ित) के बइठा के बात शुरू होत बा। तब खेल एकदम पलट जात बा। कि अब तक जवन जवन जुलुम भइल बा गरीब प, तवने जुलुम मालिक लोग प होखे लागी त का अनुभव रही मालिक लोग के। बहुते बेधक अंदाज में, बिना कवनो हड़बड़ी के बात कहल गइल बा। मालिके लोग से, उनके लोग के एकेक करनी करतूत कहल गइल बा। ओह लोग के मजाक बना देल गइल बा। पूरा गीत देखल जाए-


"हमहूं बड़का जब बनि जइतीं

रवे नीयन तरनइतीं

सनमुख कबो ना बतियइतीं

रउवा कइसन लागित जी!


गांव से बरियारी बेलवइतीं

मेहरी से गोबर पथवइतीं

अइसन मालिक जब बनि जइतीं

रउवा कइसन लागित जी!


तोहके लूके लहर खटइतीं

अपने कोठी में ठंढइतीं

संझिया खलिहे हाथ पेठइतीं

रउवा कइसन लागित जी!


सेवा घर भर से करवइतीं

लंउड़ी मेहर बेटी बनइतीं

सूद प बन्हकी देह रखइतीं

रउवा कइसन लागित जी!


सालो खटत खटत बित जाइत

पाई रहे न एको पाइत

बेटी बिन बियाहाल रह जाइत

रउवा कइसन लागित जी!


बाले बच्चे मिल कमाइत

पाई रहे न एको पाइत

लोलहा बोलहा सब ठुनुकाइत

रउवा कइसन लागित जी!



आसिफ रोहतासवी




धुआंला ना जेकर चुहानी ए बाबू


आसिफ रोहतासवी के नांव भोजपुरी गजल लिखे वाला ओह लोग में शामिल बा, जे गजल के व्याकरण के भी खूब जानकार बा। उनकर रचनाशीलता के पूरा निचोड़ गजल ह, खास क के भोजपुरी गजल।


खाली भाषा से ही ना, पूरा मन मिजाज से ऊ भोजपुरी के गजलकार हवें।


भोजपुरी के लोकधर्मी गजलकार कहे में हमरा कवनो उलझन नइखे। काहे कि उनकर गजल जवना चीज से बनल बा, जवना दरब से (ई शब्द हम अपना बाबा से सुनले रहीं। ऊ पइसा- कउड़ी के अर्थ में प्रयोग करत रहलें। इहां द्रव्य के अर्थ में प्रयोग भइल बा।), ऊ लोक के ह। ऊ लोक खेत,फसल, खेती के साज सामान, घर, आंगन, चुल्हा चउका, झाड़ू बुहारू, आदमी जन, हिस्सा बखरा के संगे संगे अपना समय के राजनीति आ राजनीतिक घटना क्रम से हमेशा बोलत बतियावत लोक ह। ऊ थथमल लोक ना ह। एहिजा खरहरा से दुआर बहारत बाबूजी त मिलिए जइहें, आजी के स्मृति के संजोवे के जर्बदस्त तड़पो मिली-


"आजो मन में साध रहेला देखीं चेहरा आजी के

तनिको नाहीं याद परेला हमरा चेहरा आजी के।"


बहुत ईमानदार तड़प के अभिव्यक्ति बा एह में। आसिफ जी बता रहल बाड़न कि उनका छुटपने में उनकर आजी गुजर गइल रहली। उनकर कवनो तसवीर उनका मेमोरी में नइखे, सिवाय घर के लोग के बात बतकही में आजी के जिकिर के। उनका अफसोस एह बात के बा कि उनकर एगो फोटो तक नइखे। ऊ घर के लोग के बतकही आ अपना बाबूजी के सकल सूरत में अपना आजी के उटकेरे के आपन बेचैनी के गजल के विषय बनावत बाड़न। ई भावुकता ना कहाई, कहल बेलकुल ठीक ना होई। सब भुला देवे के एह कुकाठ काल में एह तरे अपना आजी के, पुरखिन के स्मृति के परिजनन के बात बतकहियन से चुन चुन के संजोवल आ एगो मुकम्मल सूरत गढ़े के कोशिश आदमी के आदमी भइला के पहचान ह।


"गोदी बइठल घर ले दुअरा दुअरा ले फिर अगना में

खूब नचावत रहुवीं का दो खींचत अंचरा आजी के।"


दुसरकी लाइन में 'का दो'  जवन बा, तवना से समुझल आसान हो जात बा कि घर के लोग से सुनलके ऊ सुना रहल बाड़न, ई सुनलके उनका के आजी के खोज के तरफ झुकवले बा।


"उंचा नाक रहल होई गोरो होइहें इनके जइसन

बाबूजी में उटकेरीले अक्सर चेहरा आजी के।"


बाबूजी में आजी के उटकेरल, आजी के देखल भोजपुरी गजल में ई मानवोचित काम आसिफ जी ही कइले बाड़न। एह तरह के अनेक प्रसंग आसिफ जी के गजलन में देखल जा सकेला।


आसिफ जी के गजल गांव,घर, परिवार, देश, दुनिया तक के बात अपना जद में लेके चलेले। दिल्ली, पटना, बाथे, बथानी, सिंगूर, नंदीग्राम तक अपना के ले गइल बिया। देखल जाय -


"सहल खूब पत्थर आ पानी, ए बाबू

बखरिया के झांझर पलानी, ए बाबू।

बहुत आग ओकरा करेजा में तवंके

धुआंला ना जेकर चुहानी, ए बाबू।

सुनीं ओकरो कुछ, बहुत जीयले बा

जे मउअत नियन जिंदगानी, ए बाबू।

नेवाइल कहां बा, अबो टीसते बा

करेजा में नगवा बथानी ए बाबू।"


चुहानी के आज किचेन पढ़ल जा सकेला। चुहानी के ना धुंआए के मतलब अभाव में चुल्हा उपास परल ह। जेकर चुल्हा में आग ना जरे, बेशक ओकरा करेजा में आग दवंकल करेला।


एह में 'नगवा' आ 'बथानी' के जिकिर बा। जाने के चाहीं कि ई दूनो बिहार के दूगो गांव ह जवन सामंती सेना के कुकृत्य जनसंहार के गवाह बा। शेर में बा कि एह दूनो जनसंहार के दर्द ना कम भइल बा आ ना भुलावल जा सकेला। शासन सत्ता आ न्यायपालिका जेके भुला देल चाहल, भोजपुरी गजल ओह के अपना हिरदया में टांक के राख लेलस।


आसिफ जी के गजल सांचो भोजपुरी मिजाज के गजल ह। भोजपुरी के अनेक एह तरह के शब्द मिलिहें स जेके लोग अब भुलाइल जा रहल बा। ऊ अपना अर्थ आ नया-नया संदर्भ के साथे उनका गजलन में आइल बाड़न स। 



धनवा-मुलुक जनि बिआह हो रामा


भोजपुरी कविता में महिला कवि लोग के उपस्थिति आ ओह लोग के कविता पर विचार, आज के तारीख में एगो गंभीर आ चुनौतीपूर्ण काम बा। एह पर अब टाल-मटोल वाला रवैया ठीक ना मानल जाई। भोजपुरी के लोकगीत वाला पक्ष हमरा नजर में जरूर बा। लोकगीत के अधिकांश महिला लोग के रचना ह, भले केहू के नांव ओह में होखे भा ना होखे। एहिजा लोकगीतन के चरचा हमार मकसद नइखे। भोजपुरी कविता के जवन उपलब्ध भा अनुपलब्ध बिखरल इतिहास बा, ओह के गहन-गंभीर अध्ययन के जरिए ही एह विषय प विचार संभव बा। 


बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना से छपल दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह के प्रसिद्ध ग्रंथ 'भोजपुरी के कवि और काव्य' के एह लिहाजे जब पलटलीं त एह में जमा-जमा पांच गो महिला कवि के नांव हम देख पवलीं। कुल 194 - 195 गो कवियन में महिला कवि बस पांच गो। पहिल कवि सुवचन दासी (पृष्ठ 116) बाड़ी। एकरा बाद 'सुंदर' (पृष्ठ 152)। दुर्गा बाबू सुंदर के नांव के lसंगे कोष्ठक में 'वेश्या' लिखले बाड़न आ उनकर खूब लोकप्रिय कजरी 'नागर नइया जाला काला पनिया ए हरी ' पूरा के पूरा उद्धृत कइले बाड़न। ई बहुत प्रसिद्ध कजरी ह। एकरे बाद राजकुमारी सखी (पृष्ठ 215), विमला देवी रमा (पृष्ठ 242) आ विंध्यवासिनी देवी (पृष्ठ 246) के नांव बा। सुवचन दासी आ सुंदर के उल्लेख 'चौदहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी' वाला कालखंड में बा, जबकि बाकी तीन लोग के जिक्र 'बीसवीं सदी और आधुनिक काल' वाला कालखंड में। सुंदर के नांव के संगे कोष्ठके में सही, जवन वेश्या लिखल गइल बा, ऊ ठीक नइखे। एह के ख्याल करत 'समकालीन भोजपुरी साहित्य' के कविता अंक में (अंक -16, 2001) उनकर 'सुंदर' नांव ही लिखल गइल बा। दुर्गाशंकर जी वाली एह किताब के पहिलका संस्करण 1958 आ दुसरका 2001 में छपल बा।


'समकालीन भोजपुरी साहित्य' के कविता अंक में कुल 178 कवियन में महज छव गो महिला कवि के कविता बा। ऊ नांव ई ह - सुवचन दासी, राधिका देवी श्रीवास्तव, विंध्यवासिनी देवी, उषा वर्मा, सविता सौरभ आ सुभद्रा वीरेंद्र। ई सचमुच भोजपुरी साहित्य प विचार करेवाला लोग खातिर चिंता आ चिंतन के विषय बा। सोचे के बात बा कि का सचमुच इहे कुछ नांव बा महिला कवि लोग में? आ कि हो सकेला कि अउर लोग होई जे कविता-गीत लिखत होई, जेकर नांव प्रकाश में आवे से रह गइल होई। हमरा समझ से बेशक कुछ अउर नांव बा। एह नयकी पीढ़ी में जइसे कि


दीप्ति, संध्या सिन्हा, गरिमा बंधु के नांव शामिल बा। 'सूझ बूझ' (संपादक : कृपाशंकर प्रसाद) के तीसरा अंक में गोरखपुर के अंजू शर्मा के गीत बा। 'पाती' में ऋचा के कविता देखे के मिल जाई। दीप्ति आ संध्या सिन्हा के त संग्रहो छप चुकल बा। दीप्ति के संग्रह ह 'मन' आ संध्या सिन्हा के 'दोहमच'। बेशक कुछ अउर नांव बा।


ऋता शुक्ल, शारदा पांडे, उमा वर्मा, कुमारी प्रतिभा, सरिता शिवम, गजल झा, गीता श्रीवास्तव के नांव 'भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका' के संदर्भ विशेषांक में बा।


पहिले त भोजपुरी कविता में महिला कवि लोग के उपस्थिति प बात जरूरी बा। तवना के साथे भा बाद में, कविता के विषय, विचार आ कलात्मक पहलू प भी बात होय के चाहीं। ई काम बहुते जरूरी बा।


एह बात के साथे एहिजा राजकुमारी सखी के एगो गीत साझा कइल चाहत बानी। ई गीत 'भोजपुरी के कवि और काव्य' में संकलित बा। एही ग्रंथ में इनका बारे में बतावल गइल बा कि ऊ शाहाबाद (पुराना जिला) के रही। उनकर समय अंदाजन बीसवीं सदी के अधपहिला (पूर्वार्द्ध) रहे।


एह गीत में स्त्री जीवन के एगो खास स्वर सुनाई देता। एगो बेटी अपना बाप से धान के देस में बियाह ना करे के निहोरा करत बिया। धान के देस में मेहरारुन के जिम्मे काम के बेहिसाब भीर होला। धान फुलावे, सुखावे से लेके कूटे आ फंटके तक के भीर। खायक पानी (किचेन के काम) के काम त रोज रहबे करेला। ताऊपर धान के समय ऊपर से भीर अउर बढ़ जाला। जाने के बात बा कि धान के पानी में भिंजावल, उसिनल, भरकावल, फेर सुखावल, फेर बटोरल, ढेंका में कूटल-छांटल, फटकल आसान ना होला। सुखावे में कम झंझट ना रहत रहे। बेर-बेर हाथ से चलावे परत रहे। चलावत समय धान के नोक चुभियो जाला। अतना कइला के बादो रोज ठोनहच के अगरासन। ई कुलि बात एह गीत में बहुते मार्मिक अंदाज में प्रस्तुत बा:


"गोड़ तोही लागिले बाबा हो बढ़इता से आहो रामा

धनवा-मुलुक जनि बियाह हो रामा।

सासु मोरा मरिहें गोतिनि गरिअइहें से आहो रामा

लहरि ननदिया ताना मरिहें हो रामा।

राति फुलइहें रामा दिन उसिनइहें से आहो रामा

धनवा चलावत घामे तलफबि हो रामा।

चार महिना बाबा एहि तरे बितिहें से आहो रामा

खाये के माड़गिल भतवा हो रामा।

राजकुमारी सखी कहि समझावे आहो रामा

बिना सहुरे सब दुखवा हो रामा।"


एह गीत प विचार कइल जाए त पता चली कि धान के मुलुक (क्षेत्र) में जब गांवागाईं ढेंकी से धान कुटात रहे, तब का हाल होत रहे मेहरारुन के।


धान सुखवे आ कूटे के सज्जी काम मेहरारुन के जिम्मे होत रहे। आ इहो बेबुझइले ना रही कि खानपान के का तौर-तरीका रहे। कवना तरीका के जीवन रहे। धान कूटत सुखावत चार महीना बीत जात रहे, आ ओह टाइम मड़गिला भात ही दूनो जून के मुख्य भोजन होत रहे। जमींदार लोग के छोड़ देल जाए त देखे के मिलत रहे कि मिडिल क्लास के किसान के घर के इहे दशा रहे। गरीब-गुरबा लोग के हालत त बहुते खराब रहे। जइसे खेती सरग आसरे रहे असहीं गरीब लोग, मेहनत करे वाला, मालिक आसरे। रोज काटs, रोज कूटs तब जाके खा। एह गीत में धनहर इलाका के मध्यवर्गीय परिवेश के निकट अतीत के एगो खास पक्ष दिख जात बा।

 

 

सुमन कुमार सिंह


टिकुरी से बहावल अंखिए बर रहल बा


रामजियावन दास बावला  के एगो गीत राह चलते इयाद आवेला आ मन ओह गीत के गुनगुनाए लागेला। ऊ गीत ह  -


"हरियर बनवा कटाला हो कुछ कहलो ना जाला।" 


आगे के लाइन ह -


"दिनवा अजब चनराला हो, कुछ कहलो ना जाला।" 


हरियर बन के कटाइल एगो मामिला बा जवन रोज देखे में आवत बा। रोज हरियर गांछ-बिरिछ विकास के नांव प कटा रहल बा। बन उजड़ रहल बा। जंगल प माफिया आ कॉरपोरेट जगत के दबाव बढ़त जा रहल बा। ई सब हो रहल बा आ बावला जइसन कवि, जे किसान जगत के कवि रहल बा, किसान कवि, ऊ एह सब से दुखी आ चिंतित होत बा आ ऊ आगे आवे वाला संकट के भांप रहल बा आ जवन भांप रहल बा, तवने के गाइयो रहल बा -

'दिनवा अजब चनराला हो।'


एहिजा 'चनराइल' शब्द प जरूर सोचे के चाहीं। 'भविष्य-भांपन' के अर्थ में एह शब्द के प्रयोग होला। ठीक एही तरे हमरा सुमन कुमार सिंह के गीत के ई लाइन बारंबार गुनगुनावे के मन करेला आ हम गुनगुनाइबो करीला, ऊ लाइन ह - 

"हमरा बाबा के बगइचा रात दिने कट रहल बा।" 

हम सोचिला कि ई कवन बगइचा ह भाई जे रोजे कट रहल बा आ कवि एकरा के बहुत धीम अंदाज में गा रहल बा। बगइचा आ बाबा के जब बात चलल त एगो कजरी इयाद आ रहल बा - "हमरा ही बाबा के दुअरा प निमिया कि सब सखी लावेली हिलोरवा।" बाबा आ नीम आ बगइचा के भोजपुरी लोकगीतन में खूब उल्लेख बा आ ई असहीं नइखे। सुमन जवन बगइचा के बात करत बाड़न ऊ दू अर्थ में बा। एगो त गांछ-बिरिछ वाला ह आ एगो आदमी-जन के परिवार वाला ह। लोग अकसरहां बात बात में परिवार के फुलवारी भा बगइचा कहबो करेला। ऊ दूनो बगइचा अब कटत जा रहल बा। पेड़ कट रहल बा, आदमी से आदमी कट रहल बा। हर-हथियार अब खेलौना बन गइल बा। लोहा के खेलौना से पेड़ आ मानुस दूनो हतल जा रहल बा। अब त जेसीबी आ गइल बा जवन पेड़न के सीधे उखाड़ देला। सुमन एह गीत में बर, पीपर प संकट के साथे साथ हारिल के ऊ डर भी देखत बाड़न जवना के चलते ओकर जोड़ा अब चैन से कतो बइठ नइखे पावत -"काव में हारिल के जोड़ा डर से ना उतरे कबो।" काव माने ताल-पोखर के किनारा। हारिल के डर के संगे इहो बात बा कि "गाँव-गंवई के आबादी लोर पी के रह रहल बा।" बाबा के बगइचा के कटे से लेके आदमी आ चिरई-चुरुंग के संकट के साथे साथ ई बात गौर करे जोग बा कि आदमी जनमे से बेबस आ लाचार ना होला, बलुक ओकरा के बेबस लाचार बना देल जाला, परथकू बना देल जाला। ट्रेजडी अइसन कि आपन सपना आ कल्पना से ओह के बेलाग कके ओकरे साधन से ओकरे सोझा विकास के नारा देल जा रहल बा, मॉडल के बात हो रहल बा - "जनमे से आन्हर ना रहलीं हम भिखारी ना रहीं, आंख टिकुरी से बहा के सभके बिजुरी बर रहल बा।"  टिकुरी से बहावल अंखिए बिजुरी के बल्ब अस बर रहल बा। एहिजा ई जिकिर कइल चाहब कि अइसन बात पहिले कहत रहे लोग कि मुअल आदमी के अंखिए जोन्ही बन आकाश में सारीरात बरेला। जवान आदमी के आंख चटक बरे वाली जोन्ही बनेला। सुमन एह के नया अर्थ आ संदर्भ देत बाड़न। 


एहिजा रमता जी के किसान कविता के ऊ बात इयाद आवत बा कि किसान अपने कान्हा प आपन लाश ढोवे प मजबूर बाड़न। समय के एह त्रासद सांच के देखल-देखावल बहुत जरूरी बा।


सुमन के एगो अउर रचना खूब जमेला। ओह में एगो माई बाड़ी, घर गिरहती संभारे वाली। मन त हो रहल बा कि पूरा बात कथा अस कहि जाईं। सचो एह में एगो मेहरारू के कथे कहल गइल बा। एह के 'स्मृति बिम्ब' कहल ठीक होई। माई के हाथ के रेखा एहमे गोइंठा तक में देखल गइल बा। गोइंठा पाथत जे देखले होई ओकरा खातिर ई अचरज के विषय ना होई। गोइंठा पाथल जाला खायक बनावे खातिर। खाना दूनो जून बनेला। गोइंठा के धुंआ दूनो बखत ऊपर उठेला। नागार्जुन के कविता 'अकाल और उसके बाद' में बा कि 'धुंआ उठा आंगन के ऊपर।'


सुमन एह धुंआ के संगे माई के हस्तरेखा के छापो आकासे उड़त देखत बाड़न। अपना 'स्मृतिशेष' माई के। ई बेलकुल नया अंदाज बा।


 "माई तोहरा हाथ के रेखा, गोइंथा में उभरल देखलीं

 जब उड़े आकाश में धुंआ, रोजे जात सरग देखलीं।"


 

माई प भोजपुरी में कविता खूब मिली। भोजपुरिए नाहीं, हिंदियों में, आ अउरियो भाषा में। सुमन के कविता भी ओह कतार में बिया। एह में जवन माई बाड़ी ऊ मतारी के संगेसंग बापो के भूमिका बाड़ी। हक हिस्सा खातिर आपन आवाज बुलंद करत-


 "हक-हिस्सा प गोतिया-नइया, जब-जब दीठ गड़वलें

 पूरे ना देलू साध केहू के, बन के बाप लड़त देखलीं।"


 

साड़ी के एक खूंट के आंचर आ एगो खूंट गेंठ परले माई ताजिनगी आस के बले खटत रहली। बाकी का कि 


 "सुने में आवे घर के बहुरिया, पहिल-पहिल जब अइलू 

 अनजा से घर भरल रहे अस, कबहूं भरल ना घर देखलीं।"


माई के बहुरिया बन आवे के समय के सुनल-सुनावल बात से लेके माई के अपने आंखी देखल-महसूसल बात तक एह में बा। ओह माई के बात बा जे अने-धने भरल पूरल घर ना देखली। भरे-पूरे खातिर जिनगी भर जूझत रहली।


सुमन हिंदी आ भोजपुरी में बराबर सक्रिय बाड़न। कविता आ कहानी के संगेसंग आलोचनो लिखलें। इनकर एगो हिंदी कविता के किताबो छपल बा जेकर नांव ह 'महज बिम्ब भर मैं'। भोजपुरी के नयकी पीढ़ी के ई एगो महत्वपूर्ण लेखक बाड़न।

     

 

जितेंद्र कुमार

 


मामा के हरजाई सपना आ उनकर सुख आ बिछोह


बिहार के 'आरा' में दूगो जितेंद्र कुमार हउवन। दूनो जना के उमिर में अंतर बा, बाकी कुछ बात अइसन बा जे दूनो लोग में कॉमन बा। जइसे कि दूनो जना कवि हउवन आ दूनो जना वाम विचारधारा के हउवन। दूनो में जे उमिर में जेठ बा, ऊ जितेंद्र कुमार डाक विभाग में लंबा समय तक काम क के 'असिस्टेंट डायरेक्टर, पोस्टल सर्विसेज' पद से रिटायर हउवन आ जे तनी कम उमिर के जितेंद्र कुमार हउवन ऊ भाकपा माले के भोजपुर जिला  कार्यालय के प्रभारी हउवन। त जे डाक विभाग वाला हउवन, ऊ हिंदी आ भोजपुरी दूनो भाषा में लिखेलन। कविता, कहानी, समीक्षा आ संस्मरण लिखेलन। 


एह जितेंद्र कुमार के हिंदी आ भोजपुरी के कुछ किताबो छपल बा, जेकर चर्चा लोग करत रहेला। एह जितेंद्र जी के भोजपुरी कहानी के एगो किताब ह 'गुलाब के कांट'। ओह में एगो कहानी बा 'कलिकाल'। 'कलिकाल' के बारे में लोक में अनेक रकम के बात चलत रहेला। कुछ लोग 'कलयुग' कहेला। कुछ लोग 'कलऊ' कहेला। जब नीति-अनीति के बात होला, झगड़ा के, झंझट के, भाई-भाई के बीच विभेद के, रसम-रेवाज के टुटला के, त लोग कहेला कि 'कलिकाल' ह भाई। एह में इहे सब होई। कुछ नीमनो काम जे होय आ लोक के मानता के अनुकूल ना होय, तबो लोग 'कलिकाल' के उचार करेला। जितेंद्र जी के ई कहानी हमनी के समाज में समिलात परिवार में ऊपर-ऊपर प्रेम के जवन प्रदर्शन होला, ओकर खूब सघन आ व्यवहारिक अध्ययन पेश करत बिया आ एह तरह के दिखावा के फिजूल सिद्ध करत बिया। हम जितेंद्र जी के एह कहानी के पढ़े के कहल चाहत बानी।


जितेंद्र जी के एगो भोजपुरी के कविता ह 'काल्हु वाला चेहरा'। ई कविता 'समकालीन भोजपुरी साहित्य'-18 में छपल बा। कविता छोटहन काया में बड़हन बात ई कहत बिया कि एह तरह के सांच देखे में आ रहल बा कि आदमी के आज के बात आ काल्हु के बात में भारी अंतर देखे के मिल रहल बा। आज आ काल्हु के भाषा, भाव आ व्यवहार में भारी फरक बा। एगो आदमी अब दूगो चेहरा के कहो अनेक चेहरा रख रहल बा। रकम- रकम के मुखौटा। जे सदाचारी लउकल, दुराचारी साबित भइल। राजनीति से लेके धरम-करम के गलियारा में ई साँच खूब देखे के मिल रहल बा। समझे के बात बा कि जइसे हर अब चीज बाजार में बा, वइसहीं चेहरवो बाजार में बा। कवि इशारा करत बा कि बाजारवाद के बढ़त वर्चस्व के समय में सब कुछ बेंच-बेसाह के दायरा में बा -


"ना जाने काहे खातिर

रोज रोज नया नया चेहरा

कीनेले बाजार से


सांझ खानि जवन चेहरा पहिन के

बइठल रहन दरबार में

सबेरे गइलीं त पइलीं

सांझवाला चेहरा उतार के

राखि देले बाड़े ताखा पर।"


देखे के बात बा कि एहिजा कवि 'दरबार' लिखत बा। 'दरबार' के खास अर्थ में प्रयोग बा। कवनो प्रभुता वाला आदमी के तरफ संकेत बा। काहे कि साधारण आदमी दरबार में हाजिर हो सकेला, दरबार लगा ना सके। त साफ बात बा कि प्रभुता वाला आदमी ही अनेक चेहरा राखे के बाजार बना बढ़ा रहल बा। अब त सत्ता के शीर्ष प विराजमान जे बा, ऊ मुखौटा के राजनीति के बढ़ावा दे रहल बा। मुखौटा बिकवा रहल बा। 


साहिर लुधियानवी के गीत जवन 'दाग' सिनेमा में बा आ जेके लता जी गवले बाड़ी, इयाद आ रहल बा -


"जब भी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग

एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग।"


जितेंद्र जी के अउर कविता ह "मामा के सपनवा हरजाई"। ई "कविता" पत्रिका के अक्टूबर 2002 वाला अंक में छपल बा। जरूर पढ़े के चाहीं।


हरजाई शब्द प ध्यान चल जात बा। एकरा के लोग हरजाही भी कहेला। इयाद आवत बा- "चुप रहु, चुप रहु बेटी हरजाही..।" एहिजा त मामा के 'सपना' के हरजाई कहल जाता बा।  का सपना बा मामा के? कि सपना में बैलन के घुघुर घंटी के टुनटुन उनका कान में पड़त बा। पंजाब से कीनल दुदंता दूगो बाछा के जोड़ी आखिरी जोड़ी ह उनका दुआर के। नाद, खूंटा सब खाली हो जात बा। सब सून। ट्रेक्टर के गांव में अवाई आ बैलन के उड़ास लाग जाता। मामा एह बदलाव के कबूल नइखन कर पावत। पशुप्रेमी मन उनकर उदास रहत बा। खेती किसानी में जब नया नया एह सब चीजन के प्रवेश होत बा, पारंपरिक कुलि चीज बदले लागत बा। मामा जस अनेक लोग एह बदलाव के झट ना समझ पावत बा आ ना संकार पावत बा। समय आ मन के एही दोहमच के ह ई कविता। जइसे राधा के कान में किसन के बंसी के धुन बजेला, वइसहीं मामा के कान में बैलन के घंटी। आ इहो बात बा कि जइसे दुअरिका गइल किसना जी मथुरा ना लौट पावेलन, अइसहीं अब बैलो ना अइहें स फेर मामा के दुआर पर। बाकी मामा के मन में एगो हाहाकार उठ रहल बा।


"मामा जब सपनालें

उनका कान में बैलन के घंटी टुनटुनाला।"


एह कविता से ई बात समझे के चाहीं, आ समझे के खूब जगह बा कि जितेंद्र जी के पासे एह किसान जगत के नीक बूझ समुझ बा। एह कविता में 'बैलन के गरदन के लोर' छुवे के बात बा। मामा खातिर सबसे बड़ सुख रहे खा के बइठल बैलन के सींघ सुहुरावल आ ओकनी के गरदन के लोर छुअल। ई कवनो भावुकतापूर्ण वर्णन ना ह। एह दुनिया के जे जानकार बा, ऊ खूब महसूस कर सकत बा। 'बैलन के गरदन के लोर' प जब ध्यान गइल त बुझाइल कि कवि के मन खूब रमल बा एह में। एहिजा लोर के मतलब आंसू ना ह। बैलन के गरदन के नीचे जवन चाम झुलत रहेला, ओकरे के 'लोर' कहल जाला। एह शब्द के प्रयोग खातिर भी ई कविता इयाद राखे के चाहीं। देखल जाए-


"खाइ के बइठिहे स बैल

मामा ओहनी के सींघ सुहुरइहें

ओकनी के गरदन के लोर छुअल

उनुका जिनगी के सब से बड़ सुख रहे

आज उहे बैलन के खूंटा उदास बा।"


बैलन के 'गरदन के लोर के'  जगह आज कुछो रखीं, आदमी के लोर, मनुष्यता के लोर। कतना जरूरी बा ई छुअन। मामा के सपना में जवन घंटी बाजत बा, ऊ कवनो ना कवनो रूप में हमनी सब के सपना में बाजत बा। आसान ना होला कवनो चीज के विदा कहल। हमनी के पीढ़ी के कवि केशव तिवारी के एगो कविता-संग्रह के नांव ह 'आसान नहीं विदा कहना।'



सुनील कुमार पाठक


     

बबुनी के सींझत सपना के लखत


सुनील कुमार पाठक के हाइकू संग्रह नेवान के चरचा सुनले बानी। पाठक के एगो बहुते बढ़िया किताब ह छवि और छाप। भोजपुरी साहित्य जगत के अनेक  कवि लेखक लोग के बारे में एह किताब में चरचा बा। बहुत काम लायक बा ई किताब। पूरा किताब हिंदी में बा। हिंदी में भइला के चलते भोजपुरी के कुछ खुर्राट लेखक लोग एह किताब के महत्व के कमतर बूझेला। 


सुनील जी हाइकू के साथे साथ गजल, गीत, छंदमुक्त कविता में भी दिलचस्पी राखेलें। कुछ कवि लेखक लोग खाली लिखेला, लिखत जाला। पढ़ल पसन ना ह। कुछ लोग पढ़ी त बस अपने लोग के पढ़ी। भोजपुरी में ई प्रवृति हम महसूस कर रहल बानी। अउरो कुलि भाषा में कमबेसी ई प्रवृत्ति होई, बड़लो बा, बाकी भोजपुरी में ई तनी बढ़िए चढ़ के देखात बा। सुनील जी जतने लिखेलें, ओतने पढेलें। कवनो लेखक खातिर पढल कतना जरूरी बा, ई समझल जरूरी बा।


सुनील जी के एगो गजल के एगो शेर आज खूब इयाद पर रहल बा। ऊ ह - 


"मन रमे ना रमे राम के काम में 

राम के नांव खाली भंजावल गइल।"

एगो अउर देखीं 

"अब घिरे ना घटा चाह के, छोह के

आग सावन में इहवां लगावल गइल।"


राम के काम के का अर्थ हो सकेला? एह काम के का गाँधी जी के परिकल्पना से जोड़ के देखल ठीक ना होई? हमरा समझ से बिल्कुल ठीक होई। भारत के लोकमानस में राम जवना रूप आ अर्थ में विराजेलन, ठीक ओकरा उल्टा काम हो रहल बा। राम के आक्रामक हिंदुत्व के प्रतीक में बदले के राजनीतिक प्रक्रिया चिंताजनक बा। राम अब घर आ मन के बजाए सड़क, भीड़ आ उन्माद के हिस्सा बनावल जा रहल बाड़न।


सुनील कुमार पाठक के एगो गजल में बेटी के बात बा। ऊ बेटी बिया जवन भर भर तसला भात पसावे के जगह भर भर तसला लोर पसावत बिया। सुनील जी जवन कहल चाहत बाड़न तवन बहुते साफ बा। दूनो टाइम भात पसावे के जगह लोर पसावे में जवन संकेत बा तवन समाज में लइकी आ मेहरारुन के दुरदसा के ओर बा। बबुनी बहुत दुलार में केहू अपना बेटी के कहेला। ओह बेटी के जब कुलि सपना चूल्ही प चढ़ जाए, सींझे लागे, त एह से त्रासद स्थिति का हो सकेला। गोरख पांडेय तबे त लिखलें कि 


"ये आंखें हैं तुम्हारी

तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर

इस दुनिया को जितना जल्दी हो

बदल देना चाहिए।" 


सुनील लिखत बाड़न -


"सपना आपन रोज सिंझावेले बबुनी

भर भर तसला लोर पसावेले बबुनी।"


बाबा नागार्जुन के एगो कविता में मछरी भुंजत मेहरारु अइसे आइल बिया जइसे ऊ खुदे के भुंजत होखे।


बबुनी दुनिया भर के रिश्ता नाता के बीच अस घेराइल कि ओकर पूरा जीवन अजब कहानी बन के रह जाला। ओकर आपन बहुत कुछ एह के बीचे हेरा जाला।


"सास, जेठानी, पूत, ननद से रिश्ता जोड़

गजब कहानी बनि रहि जाले अब बबुनी।"


सुनील जी ई बात उठावतो बाड़न कि आपन सब कुछ सब के देके का बांचल अपना पासे  -'जीवन केतना?' जइसे कि 'घोघा रानी कतना पानी!' भोजपुरी कविता के 'प्रश्नाकुल मिजाज' के एहिजो से समझे के होई। 


एगो बबुनी के जीवन में जब अपना खातिर, अपना सपना आ विचार खातिर जब स्पेस ना रह जाई, तबे ऊ भीतरे भीतर कुहुकी, रोई। उजबुजाई। 


अजब ई दौर बा। प्रेम के बेदखल क के नफरत के काबिज करे के अभियान तेज बा, आज के हालात प टिप्पणी के बतौर एह शेर के देखीं-


"नेह के नाव नदिया में डगमग करे

बैर के ऊ बयरिया बहावल गइल।"



शशि प्रेमदेव



मोथा आ मूंज के जिद आ धार के गजल


भोजपुरी के कवि शशि प्रेमदेव के दूगो गजल भोजपुरी के पत्रिका 'पाती' के अलग अलग अंक में जब पढ़लीं त ई महसूस भइल कि एह कवि के ठीक से पढ़े के चाहीं। ई कवि आज के समय के कटु सत्य के अपना गीत- गजल के विषय बना रहल बा। ऊ समय के सांच के कहे में नइखे हिचकत। सांच कहल आज कतना कठिन भ गइल बा, ई हमनी के बूझ- समुझ रहल बानी जा। हमनी के जाने के चाहीं कि हर थाना में चकुदार (चौकीदार) होलें। उनकर काम रहत रहे रात-बिरात पहरा देल। पुलिस विभाग के आखिरी कर्मी ऊ होलें। कम तनखाह, कम सुविधा। पता ना अब ई पोस्ट बा कि खतम कर देल गइल। एह बीचे ई शब्द बड़ा जोर शोर से राजनीतिक गलियारा में उछलल। सत्ता के शीर्ष प विराजमान आदमी अपना के चौकीदार घोषित कइलस। पुलिस विभाग के अदना-सा कर्मचारी वाला पद के देश के सत्तापक्षी राजनीतिक गलियारा में बड़ा उछाल मिलल। आ एही बीचे कतने बड़- बड़ पूंजीपति आ कारोबारी ना जाने कतने हजार करोड़ रुपया के घपला क के देश छोड़ देलें। थाना के चकुदार पहरा देत रहल आ चोरी होत रहल। सत्तासीन चौकीदार ताल ठोकत रहल, आ फरार होखे वाला फरार हो गइल। कवनो कवि जब एह बात के विषय बनाई त ओकरा लगे ई सुविधा रही कि ऊ चौकीदार के पहरेदार कहे आ एह सांच के अपना अंदाज में कहे -


"अजबे नूं अबरी के पहरेदार भेंटाइल बा

पहरा देता बाकी दूनो आंखि मुनाइल बा!"


ई लाइन हम 'पाती' (मार्च-जून 2018) से लेले बानी। ई गजल एह तरे शुरू होत बा-


"अंखियन में ना जे कइसन दो चान समाइल बा

पछिले फागुन से नद्दी कs नीन हेराइल बा।"


 

नदी के नीन हेराइल के खास अर्थ बा। नीन पिछिले फागुन से हेराइल बा। फागुन में नदी के नीन हेराना मतलब सुहाना समय में एह बात के चिंता कि आगे के समय सुकून वाला नइखे। ओकर पानी आ रवानी खतरा में पड़े वाला बा। ठीक एही के बाद बा पहरेदार वाली लाइन। 'पहरेदार' एह सबसे वाकिफ बा आ आंख मुनले बा। बलुक ई कि जे एह के लेके चिंतित बा,ओही प ऊ रंज बा।

 

एगो गजल में शशि प्रेमदेव मोथा के जिकिर करत बाड़न।  ऊ गजल 'पाती' सितम्बर 2014 में छपल बा। मोथा के आन्ही से कुछ ना बिगड़ी।

 

बर - पीपर के जरूर कुछ बिगड़ सकेला। निराला जी के कविता 'बादल राग' इयाद आवत बिया। खूब बूनी परी त घास के का बिगड़ी। महल अटारी प जरूर खतरा रही। जेकरा के कवि निराला जी आतंक महल कहत बाड़न। बहुते कवि दूब के जिकिर कइले बाड़न। दूब के जिजीविषा के। कवि केदार नाथ सिंह दूब प खूब बात कइले बाड़न। मोंथा प बहुते कम कवि लिखले बाड़न। मोंथा एगो खास तरह के घास ह, जवन अपना जगह से जाए के नांव ना लेला। जहां होई ऊहां जम के रही। कतनो केहू उखाड़ो। एकर सोर बहुते नीचे गड़ल रहेला। गिरह अस होला। खेत लाख जोत - कोड़ के राखे केहू, ई बेजमले ना रही। बहुते जिद्दी होला एकर जर - जरोह। गजल में बा कि आन्ही एकर का बिगाड़ी! ई आन्ही कवन आन्ही ह? का ई प्रतीक बा कुछ के? विचार करे के चाहीं। मोथो के समझे के चाहीं कि ऊ अदम्य जीवनशक्ति वाला आम मेहनतकश के प्रतीक बा। मोथा एगो सांस्कृतिक प्रतीक भी हो सकेला, जवना के बुनियाद अतना गहिर बा कि अपसंस्कृति के आन्ही- तूफान झट डिगा नइखे सकत। 


 "मोथा कs, का खाक बिगारी?

 आन्ही पीपर- बsर उखारी!"


 

पाती, मार्च-जून, 2018 वाला गजल में, जवना के हम शुरू में चर्चा कइले बानी, मूँजि के जिकिर बा। मूंज के सरपत कहल जाला। हिंदी के प्रसिद्ध कहानीकार मार्कण्डेय के कहानी 'गुलरा के बाबा' में सरपत के बारे में खूब बात बा। मूँज बहुत उपयोगी चीज ह। मड़ई छावे में खूब कामे आवेला। एकरा के लोग पतलो भी कहेला। बेटी के बियाह में माड़ो छवाला। पतलो मूंज के पतई के ही नांव ह। ई बहुते धारदार होला। उघारे निघारे केहू जाए ओकरी राह से, गतरे गतर चिरा जाई। हाथ में चिरा लाग जाई। शशि जी लिखत बाड़न-


 "मूँजि कहल जाला केकरा के - तूं कइसे जनबs

 का कबो पतलो से तहरो देंहि चिराइल बा?"


 

भोजपुरी गजल में मोथा आ मूंज के अवाई एह बात के सुखद सबूत बा कि भोजपुरी गजल अपना भाषा - भूगोल के प्रकृति आ संस्कृति से नया मन-मिजाज के साथे संवाद बना रहल बिया। एही में एगो लाइन बा -


 "हाड़ गला के आपन, रसगर ऊखि उगवलीं हम

 हमरे बखरा में पंछुच्छुर पुलुई आइल बा।"


 

ऊख के खेती बहुत कठिन होला। बाकी रस बहुत मीठ। शशि एह बात के बहुत सुंदर तरीका से कहत बाड़न कि बहुत मेहनत से उपजावल ऊख के सबसे मीठ भाग मेहनत करे वाला के भाग्य में नइखे। ओकरा भाग्य में ऊख के सबसे ऊपर के हिस्सा परेला, गेल्हा के करीब वाला। जहां आवत-आवत रस पंछुच्छुर हो जाला। मेहनतकश के बदहाली के ई अभिव्यक्ति बिलकुल नया बा। बात कहे के अंदाज नया बा।

  

ई अपना गजल में समाज में लइकी आ मेहरारू के हालतो के वर्णन कइले बाड़न। आज हालत अइसन हो गइल बा कि लइकी आ मेहरारून के जान आ इज्जत खतरा में बा। शशि अपना गजल में 'संत शिरोमणि' लोग के भी जिकिर करत बाड़न। संत आ महंथ लोग के कुकृत्य प गजल लिखल, जरूरी एगो मुद्दा प बात कइल बा।

 

 

  

मय सिवान के चोली-चूनर धानी लेके

 

ए. बी. हॉस्टल, कमच्छा, वाराणसी में रहत समय अकसरहां सांझ के कवनो ना कवनो टॉपिक प चरचा छिड़िए जात रहे। सारंग भाई (स्व. सुरेंद्र कुमार सारंग) एह चरचा के सूत्रधार होत रहलें। एही तरे एक दिन चरचा होये लागल भोजपुरी के कवि जगदीश पंथी के एगो गीत प। ऊ गीत रहे- 'रुनुक झुनुक पायलिया बाजे तोरे पंउवा/ बड़ा नीक लागे ननद तोरे गंउवा।' सारंग भाई ऊ गीत सुनवलें आ ओकर तारीफ कइलें। सारंग खुद बढ़िया गीत लिखत रहलें। जगदीश पंथी के नांव पहिल बेर हम ओहिजे सुनलें रहीं। गीत में गांव के लोग आ प्रकृति के सहज निष्कलुष जीवन के वर्णन बा।


 बाद में, जगदीश पंथी के एगो गीत 'भोजपुरी सम्मेलन पत्रिका' के एगो अंक में पढ़े के मिलल, पुरान अंक देखत समय। इयाद नइखे आवत कि ऊ कवन अंक रहे। ऊ गीत बहुत नीक लागल। गीत एह तरे शुरू होत बा - 


"गंउवा हमरो बादर आइल पानी लेके

 मय सिवान के चोली-चूनर धानी लेके।"


 

बदरा से बरिसे के निहोरा त खूब देखे सुने के मिलेला, बदरा के अइला के खबर सगरो सुनावे के बात एह में बा, आ इहे खास बा। किसान के हथजोरी सुन बादर आ गइल, आके बरस गइल। खेत मेड़, परती धरती सब हरियर हो उठल। बदरा जइसे कि बहरवांसू होखे, आ आइल त 'चोली-चूनर धानी' लेके आइल। बादर धरती के पुकार सुन लेले बा।

 

बादर आइल, जीवन में हरियरी के पुरहर संभावना लेके। बादर के आवते किसान मनई के मन जाग उठेला। सक्रिय हो जालें। केहू हर फार ठीक करत बा, केहू खेत में सालभर बटोराइल घूर डाले के उतजोग करत बा।


केहू बइठल नइखे। बादर अतना तत्परता लेके आवत बा। ई बात एह गीत में देखे के मिलत बा।


अब ई साइते कतो देखे के मिली। झारखंड के धरती प अबहियो ई तत्परता देखे के मिल जात बा। नइखे कहल जा सकत कि कब तक देखे के मिली। काहे कि सब कुछ बदल गइल बा। बूनी पड़ते धान के बीया डाले के तत्परता, रहर, मंडुआ, मूंग, भिरंगी बोए के शुरू हो जात रहे। अब त बीया राखे के सिस्टम खतम बा, हर-बैल गायब बा। बीया कीन के ले आवल जात बा। बेहिसाब महंगा। बीया अइसन कि दुबारा नइखे बोअल जा सकत। घूर के त बाते खतम बा। एकरे जगह प खूब महंगा रासायनिक खाद अंधाधुंध डला रहल बा। पेस्टीसाइड के बेहिसाब इस्तेमाल से पर्यावरण प खतरा बढ़त जा रहल बा।


ई गीत हमनी के खेती किसानी के निकट अतीत के प्रकाश में ले आ रहल बा। गांव,बादर आ सिवान के आपसी रिश्ता के व्याख्या करत बा।

 

 

ओम धीरज

 


ओम धीरज के एगो गीत


ई नवगीत ओम धीरज जी के भोजपुरी गीत संग्रह 'रेता पड़ल हिया में' संकलित बा। ओम जी हिंदी आ भोजपुरी में गीत लेखन में सक्रिय बाड़न।


ऊ उत्तर प्रदेश शासन के वरिष्ठ पीसीएस अधिकारी रहलें। सेवामुक्त होके बनारस में रह रहल बाड़न। 


बचपन के खेलगीत 'ओक्का बोक्का तीन तड़ोका' के तर्ज प रचल एह गीत में ऊ का कहल चाहत बाड़न, बूझे के जरूरत बा। खेलगीत के राजारानी अब नइखन आवे वाला। उनकर समय बीत गइल। ओम जी कहत बाड़न कि 'कब तक खेलब खेल!' बात बहुत इशारा इशारा में कहल गइल बा। केहू के छुट्टा सांढ अस विचरे के आजादी आ केहू के नाक में नथेल जइसन स्थिति आज देखे के मिल रहल बा।


विजेंद्र अनिल आ हरीन्द्र हिमकर भी खेलगीत के तर्ज प गीत लिखले बाड़न।

ओम जी प बात होई आगे। अबहीं ई गीत देखल जाए।


तीन तलक्का


ओक्का बोक्का

तीन तलक्का

कब तक खेलबा खेल!


सुना पंच क बात खलीफा

मत डांटा खरभान,

उहैं झंखी जेकर बाटे

धुर खाले खरिहान

लइया लाची

चन्नन काटी

कब तक पेरबा तेल!


अब ना अइहैं राजा रानी

पोखर नाहिं खोदइहैं

नाहीं ओकरी आरी पासी

इमली पेड़ लगइहैं

कब तक फेंकबा

राम क डंडा

लेके हाथ गुलाल!


अक्कड़ बक्कड़ छोड़ तमाशा

सीधे बंबे बोल

बंद केवाड़ी सोलह आना

तब्बो खिड़की खोल

केहु के छुट्टा सांढ बनइबा

केहु के नाथ नकेल!

कब तक खेलबा खेल!


       

सम्पर्क


मोबाइल : 09801326311


टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4560 में दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

    जवाब देंहटाएं
  2. सुनील कुमार पाठक22 सितंबर 2022 को 10:28 am बजे

    साफ-साफ लिखने-बोलने में माहिर बलभद्र जी का गंभीर और विश्लेषणपर्क बढ़िया आलेख है।प्रस्तुति भी शानदार है।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही गहिराह आ बेहतरीन ! ओम धीरज जी के हम पहिला हाली पढ रहल बानी । बलभद्र भइया के लेखनी अइसने चोख आ धाराप्रवाह बनल रहे । बहुत खुब !

    जवाब देंहटाएं
  4. जबर्दस्त लिखल भाई बलभद्र जी।भोजपुरी कवितन गीतन के बहुत गहिड़ व्याख्या बा।धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बढ़िया लिखले बानीं। बढ़े त बढ़ाईं कि कुछ अउर नया-पुरान पढ़ेके मिले !

    जवाब देंहटाएं
  6. बिल्कुल आवश्यक और जरूरी आलेख... भोजपुरी कविता की विदग्धता किसी भी अन्य भाषा की तुलना में कम नहीं बल्कि अधिक है को प्रमाणित करता हुआ आलेख। बादल राग से बिल्कुल समकालीन यथार्थ की बनक मौजूद है भोजपुरी कविता में, नॉस्टैल्जिया एवं ग्रामीण सम्वेदना तो है ही किन्तु मानवीय राग की मजबूत जमीन भी है। यह आलेख इन्हें प्रमाणित करता है। आदरणीय बलभद्र भैया का यह काम हमारी चेतना को जाग्रत करने वाला है। बहुत बधाई उन्हें। काश कि इस आलेख के साथ संदर्भित कविताएँ भी होती।

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