वसंत सकरगाए की कविताएँ
वसंत सकरगाए |
दो पैरों पर चलने के अभ्यास ने मनुष्य के हाथों को न केवल मुक्त किया बल्कि उसे कुछ अभिनव प्रयोग करने के लिए भी सहूलियत प्रदान की। पहिए की खोज ने तकनीकी नजरिए से मानव के जीवन को क्रांतिकारी मोड़ प्रदान कर दिया। पहिए की खोज से मानव श्रम में काफी बचत हुई। पहिए की खोज के बावजूद मनुष्य अनवरत धरती को पैदल नापता रहा। इस क्रम में कई महाद्वीपों, द्वीपों, देशों, पहाड़ों, पठारों, नदियों की खोज होती गयी। समय के साथ पहिए की भूमिका बढ़ती गयी इसके बावजूद यह मनुष्य के पाँव थे, जो एक बार चल दिए तो फिर थके थमें नहीं। वैज्ञानिक उपलब्धियों ने मनुष्य की पहिए पर निर्भरता बढ़ा दी। आज आलम यह है कि मनुष्य थोड़ा बहुत टहलता है तो डॉक्टर की सलाह पर। हाल ही में कोरोना की दूसरी लहर के समय जब पहिए थम गए तब मजदूरों ने अपने पाँवों पर यकीन किया। वसंत सकरगाए हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। अपनी कविता 'पैदल चलता हुआ आदमी' में इसको शिद्दत से रेखांकित किया है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं वसंत सकरगाए की कविताएँ।
वसंत सकरगाए की कविताएँ
पृथ्वी के सेवादार
ये जो असंख्य पंछी उड़ रहे हैं आसमान में
पृथ्वी के सेवादार हैं ये सभी
ये नहीं होते तो उमस-तपन से हलकान
कब की डूब गई होती
पृथ्वी अपने ही पसीने में
महाप्रलय ! महाप्रलय !! महाप्रलय !!!
आग़-ही-आग़ होती खाक़ हो गयी होती पृथ्वी
अनादिकाल से पृथ्वी के ये सेवादार
हौले-हौले
बहुत हौले-हौले
अपने पंखों से पृथ्वी को झल रहे हैं पंखा
ये जो आसमान में उड़ रहे हैं पृथ्वी के सेवादार
एक-एककर पंख फड़फड़ा रहे हैं
पृथ्वी को झल रहे हैं पंखा
आख़िरी बार.....!
आज के दिन जन्मा बालक
आज इस बालक का जन्मदिन है
और उस बालक का भी
मैं देख रहा हूँ अलग-अलग आँखें
अलग-अलग नापें पाँव की छापें अलग-अलग
सुन रहा हूँ पदचापें अलग-अलग
आज के दिन की
आज इस बालक का जन्म दिन है
आज सुबह जब जागेगा गुदड़ी का यह लाल
कोई धूल मलेगा इस बालक के मुँह पर
कोई उठा कर पटकेगा पानी के गड्डे में
हरी घास पर बच्चे खाएँगे कुलाटियाँ
नाचेंगे गाएँगे-
हेप्पी बरथ डे टू यू... हेप्पी बरथ डे टू यू...
बड़ी धूमधाम से मनाया जाएगा इस बालक का जन्मदिन
आज सवा सेर गुड़ फोड़ेगी इस बालक की माँ
झुग्गी-बस्ती के बच्चों में बाँटेगी एक-एक टुकड़ा
बलैया लेगी माथे पर चटकाएगी आठों उँगलियाँ
अनामिका पर पोंछेगी तवे की कालिख़
लाल के भाल पर लगाएगी काला टीका
इस बालक को नहीं मिलेगा जन्मदिन का कोई तोहफ़ा
आज उस बालक का भी है जन्म दिन
सुबह-सुबह माँ हटाएगी लिहाफ़
और कहेगी; "विश यू वेरी-वेरी हैप्पी बर्थडे माय डियर सन"
इसे दोहराएंगे पिता नाश्ते के वक़्त डायनिंग टेबल पर
शाम किसी आलीशान होटल के हॉल में
बड़ी धूमधाम से मनाया जाएगा उस बालक का जन्मदिन
उस बालक के चेहरे पर मला जाएगा केक का मख्खन सारा
जैसे ही फूटेगा ग्लीटर बम उतरेंगे चाँद-सितारे
छूटते ही स्नो-स्प्रे खड़ी होंगी सफ़ेद झाग की पर्वत-श्रृंखलाएँ
फूट-फूटकर बधाइयाँ देंगे रंग-बिरंगें गुब्बारें
शहर के किसी तोपचंद के गिफ्ट-पैक में होगी छोटी-सी तोप जिस पर लिखा होगा जय जवान और बैठा होगा वर्दी पहन कर
यह तोप घर भर में दौड़ेगी सेना के बेड़े में नहीं होगी शामिल
एक कुख्यात अपराधी देगा खिलौना बंदूक का तोहफ़ा
अल्पबचत अधिकारी के हाथों में होगी महंगी धातु की गुल्लक
कोई नन्हे ख्बाबों में भरेगा रिमोट-कंट्रोल ऐरोप्लेन की उड़ान
और नज़राना कारों की तो इतनी होगी तादाद
पिता की कार की डिग्गी में रिक्ति नहीं होगी कारें रखने की
छप्पन पकवानों की महक से तृप्त होंगी हवाएँ
आज के अख़बार में पढ़ रहा हूँ
आज के दिन जनमे बालक का भविष्यफल
छपा है कि आज ही के दिन जन्मे थे शेक्सपियर
एक बड़ा अभिनेता एक बड़ा क्रिकेटर
मिल्खा सिंह और कल्पना चावला ने
जन्म लिया था आज ही के दिन
ज्योतिष ने लेक़िन यह कहीं नहीं लिखा
कि आज के दिन की
आँखें होती हैं अलग-अलग
पाँव की छापें नापें अलग-अलग
पदचापें सुनाई देती हैं अलग-अलग
आज इस बालक का जन्मदिन है
और उस बालक का भी!
बुरा एक सपना देखा
रात बुरा एक सपना देखा
सूखी नदी के घाट को देखा
पाट सटी टूटी नाव को देखा
तिथिहीन पतवार को देखा
नाविक के अंत:घाव को देखा
रात बुरा-बुरा एक सपना देखा
सूखी नदी को सड़क बनते देखा
सरपट भगती मोटर कार को देखा
घाट को बस-स्टॉप में बदलते देखा
पतवार को खाक़ी लिबास होते देखा
नाविक को बस-ड्राइवर बनते देखा
बुरा स्वप्न बनारस में साकार देखा
असि-अस्थियों की सड़क को देखा
नदी के रक्त-कणों को धूल उड़ते देखा
'रेत में आकृतियाँ' की हर उकेर को देखा
श्रीप्रकाश शुक्ल की आँखों में मर्म को देखा
कि असि* को अस्सी घाट उतरते न देखा!
(असि एक विलुप्त नदी है। बनारस में गंगा में मिलती थी। असि के नाम से ही अस्सी घाट है)
लोहा न हो लोहा
आज़ मैंने देखा
एक सूखा नलकूप
आज़ ही मैंने देखी
पालक मुरझायी हुई
और देखा एक केला
रखा-रखा पिचक गया था
देखा कि भीतर पानी न हो
और न हो छुअन पानीदार
जंग खा ही जाता है
भीतर चाहे जितना हो
लोहा !
ओ शिव!
ओ, एकांतवासी
शिव शांतिप्रिय !
सच-सच बताना कि जब तुम गए थे गौरा को बिहाने
लेकर बारात हो कर नंदी पर सवार
क्या श्रंगी-भृंगी ने किया था
इतना ही अशास्त्रीय अश्लील नृत्य
जपते-गाते ऊँ नमः शिवाय
भूत-पिशाच, दानव-मानव
हाथियों की चिंगाड़, सिंहों की दहाड़
और क्या फुँफकारते साँप-अजगरों ने
इतना ही मचाया था शोरगुल हो-हल्ला
कि डरकर चीख़ पड़े थे शिशु और हृदय रोगी
बुजुर्गों को हुआ था हृदयाघात
कानफोड़ू डीजे पर निकल रही है जैसे
मेरे शहर में आज तुम्हारी बारात
ओ, सत्यप्रिय
सच-सच बताना
मुनाफ़ाखोर और काँटामार व्यापारियों ने
क्या तब भी
पूरी सड़क घेर कर लगाया था टेंट
भाँग की कचौरियों-पकौड़ियों
भाँग की ठंडाई का किया था वितरण
धर्मार्थ!
ओ, मदनांतक
क्या तुम्हारी बारात में
किसी मनचले ने
किसी लड़की की छाती पर फेरा था हाथ
अगर नहीं हुआ था यह सब
तो आज क्यों इतना काइंया, उद्दंड और अराजक हो गया है धर्म
सच-सच बाताना
ओ प्रजापति
ओ नृत्य-प्रवर्तक
ओ तत्पुरुष
शिव भोलेनाथ !
पहाड़ के हाड़
बँद कर दो पहाड़ के हाड़ निकालना
पहाड़ की छाती पर खड़े हो कर
जब-जब तुमने लगाये हैं विकास के नारे
थर्राने चरमराने लगे पहाड़ के हाड़
पहाड़ ने हिलकर डाँवाडोल हो कर
कइयों बार ताकीद किया है तुम्हें
ताकीद किया है कि पहाड़ की अस्थियों से
कसा हुआ है धरती का तानाबाना
अगर पेपरवेट की तरह
धरती को दबा कर न रखा होता पहाड़ों ने
कब की उड़ गई होती आकाश में
काग़ज की मानिंद
तुमने कभी महसूस किया है अपनी किसी
हड्डी का टूटना
माँस-मज्जा का फटना दरकना
शरीर से रक्त का सैलाब निकलना
जब टूटता है किसी पहाड़ का कोई हाड़़
तब सुनाई देती है उसकी दहाड़
गुस्साए पहाड़ की दुखती दाढ़, थूथनों और मुँह से
थूक का झाग नहीं
रक्त का सैलाब निकलता है
पैदल चलता हुआ आदमी
युगों-शताब्दियों से पैदल चलता हुआ आदमी
जैसे ही पहिए के समय पर पहुँचा
बहुत ख़ुश हुआ, कि चलो आराम हुआ!
पहले-पहल पहिए के पीछे
फिर साथ-साथ
फिर पहिए के आगे-आगे
चलने लगा आदमी
फिर धीरे-धीरे ग़ायब होने लगा
पैदल चलता हुआ आदमी
अब अकसर दिखता है
पहिए के नीचे कुचलता हुआ
अथवा पहिए से जान बचाता
इधर-उधर भागता हुआ
आदमी
इस दौड़ते-भागते महानगर में
पहिए से छुप कर
अब सिर्फ़ डॉक्टर की सलाह पर
पैदल चलता है
युगों-शताब्दियों से पैदल चलता हुआ आदमी
तालाबंदी के दौरान
जब आपदा को अवसर में
बदलने के अपराध में लिप्त थी सरकार
और तमाम पहियों पर लगा दी गई थी लगाम
तब, भूखा-प्यासा, मरता-खपता अपने गाँव-जवार
बड़ी तादाद में लौटता हुआ दिखा था
जैसे, युगों-शताब्दियों से पैदल चलता हुआ आदमी!
इससे तो बेहतर मैं रस्सी होता
क्या हुआ जो पैदा हुआ मनुष्य की देह धरे
क्या होगा मेरे इस पार्थिव शरीर का
इससे तो बेहतर होता
नारियल का पेड़ अथवा जूट बन जाता
फिर इनकी मैं रस्सी बन जाता
मेरे एक सिरे पर बाँध कर बाल्टी कोई कुएँ से पानी हेंचता
कितने कण्ठ की प्यास बुझाता
खेत की फसल पकाता
मेरे जीवन के दोनों सिरों से उम्मीद बँधती दो बाँसों पर
मुझ पर चल कर कोई नट करतब दिखाता
रूखी-सूखी जैसी भी हो मिलती मगर
घर-कुटुम्ब का पेट पालता
मुझसे बाँध कर चामण फाटता
बुझती आग को कोई लोहार हवा झालता
कुछ नया ढालता आँच से मुझको हरदम बचाता
मुझसे बाँध कर बैलों को
कोई किसान हल जोतता
मैं अनुशासन की रास होता
कस कर कोई मुझे थामता
होने को अपने जन्म मैं बहुत रोता
कोई किसान मुझमें गाँठ बाँध गर्दन नापता
किसी पेड़ से लटक जाता
पर जैसा भी होता इससे तो बेहतर होता
मेरी पार्थिव देह को रेशा-रेशा सहेजती एक स्त्री
कूचा बनाती माँजती बासन
झर जाता गल जाता बल जाता
पर मेरी ख़ुद्दारी का बल न जाता!
मेरे कुएँ का पानी धरती पी जाती थी
बचपन में जितनी बिसात थी उतनी ही मेरी साध थी
चम्मच की टाँड से या छोटे किसी औजार से
खोदता था अपने लिए
छोटा सा एक कुआँ
बार-बार झाँकता था मगर नहीं दिखता था
कोई कल्ला फूटता हुआ
आप खोदे कुएँ का मैं ही बादल था
डालता रहा लोटा भर-भर पानी
तब धरती इतनी प्यासी हुआ करती थी कि पी जाती थी
मेरे कुएँ का पूरा पानी
बहरहाल,मैंने खोदा नहीं दूसरों के लिए कुँआ
कि गिर जाऊँ अपने ही कुएँ में मैं एक दिन
बचपन में जितनी बिसात थी
उतनी ही मेरी साध थी!
भ्रम
एक दिन अचानक
उफान पर आएँगे गहरे और अँधे कुँए
और सारे मेंढ़क बाहर निकल आएँगे
कुछ देर टर्राएँगे कहीं बैठ कर
फिर फुदक-फुदक कर जाएँगे
ताल
नदी
समन्दर
किनारे
हाय! इतना विस्तृत संसार
और लगाएँगे जीवन की पहली लम्बी छलाँग
यह मेंढ़कों से अधिक
अँधे और गहरे कुँओं का
भ्रम
टूटने का दिन होगा।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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