मनोज शर्मा के काव्य कर्म पर कमलजीत चौधरी का आलेख 'मील पत्थर बुला रहा है :सामूहिक सपनों का माइलस्टोन'।
हिन्दी कविता की अनेक धाराएँ एक ही समय में प्रवहित और विकसित होती रही हैं। इनमें से एक धारा उस प्रगतिशील धारा से जुड़ी हुई है, जो नक्सलवाड़ी किसान आन्दोलन से और प्रखर हुई। इसने न केवल शासन सत्ता को चुनौती दी बल्कि आम आदमी के हको हुकूक की भी बात की। इसने दुनिया को तर्क और ज्ञान के आलोक में देखने समझने की तमीज विकसित की। मनोज शर्मा ऐसे ही महत्त्वपूर्ण कवि हैं जिनका अधिकांश समय जम्मू में बीता है। इनकी कविताओं का बीज और इनका काव्य संस्कार सामूहिक जन आंदोलनों के साथ विकसित हुआ है। कवि कमलजीत चौधरी ने मनोज शर्मा के कविता कर्म की आलोचनात्मक पड़ताल की है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मनोज शर्मा के काव्य कर्म पर कमलजीत चौधरी का आलेख 'मील पत्थर बुला रहा है :सामूहिक सपनों का माइलस्टोन'।
मील पत्थर बुला रहा है : सामूहिक सपनों का माइलस्टोन
कमल जीत चौधरी
हिन्दी कविता में अनेक धाराएँ हैं। इन धाराओं में एक परम्परा प्रतिरोध और वंचित जन के हक़ में खड़ी कविता की है। इसके बीज दुनिया की उन कौमों के गीतों में हैं, जिन्होंने जीवन की अँधेरी सुरंगों में मशालें जलाईं। स्त्रियों, गुलामों, वंचितों, शोषितों, किसानों, मज़दूरों और गरीबों का इतिहास जन कवियों ने लिखा है। जब कभी विश्व कविता का सच्चा इतिहास लिखा जाएगा, हिन्दी कविता की उस धारा को अलग से रेखांकित किया जाएगा, जो नक्सलवाड़ी किसान आंदोलन से और प्रखर हुई। इस कविता आंदोलन ने हिन्दी कविता को एक नया मोड़ दिया। इसने सत्ता को नई चुनौती दी। इसकी वैचारिकी व भाव भूमि पर लिखने वाले कम हैं, मगर यह कम नहीं है; कि वे हैं। इधर लेखन की दुनिया से अधिक रोज़मर्रा जीवन के लिए आलोचना की सख़्त ज़रूरत लगने लगी है। एक बटन के अधीन हो चुके जीवन के पन्नों में कवि, पाठक, संपादक, समीक्षक, आलोचक, प्रकाशक और पुरस्कार कितने प्रासंगिक हैं, इस पर और इनके अंतरसम्बन्धों पर बात होनी चाहिए। हर साल लाखों किताबें और हज़ारों समीक्षाएं छपती हैं यानी बहुत से पेड़ कटते हैं। यह पेड़ किसके हैं? ज़मीन के हैं। ज़मीन किसकी है? जल की है। जल जंगल और ज़मीन किसके हैं? मेहनतकश के हैं। स्पष्ट कह रहा हूँ कि आम आदमी कविताएं-कहानियाँ पढ़े या न पढ़े परन्तु इनमें इनकी आवाज़ मुखर रहनी चाहिए। इन्हें न्याय, समता, अधिकार और श्रेय दिए जाने का भाव इनकी पीठ पीछे भी बना रहना चाहिए।
उपरोक्त भूमिका के संदर्भ में मनोज शर्मा का नया कविता संकलन ‘मील पत्थर बुला रहा है’ और उनके अन्य कविता संग्रहों को देखा जाना चाहिए। 2020 में रश्मि प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित किताब 'मील पत्थर बुला रहा है' में कुल 42 कविताएं हैं, जो हाशियों पर बात करने के लिए और स्पेस बनाती हैं। बिग ब्रदर इज़ वॉचिंग यू के घातक समय में यह कविताएं सत्ता के सी सी टी वी को तोड़ती नज़र आती हैं। सच्चे अर्थों में इनके शब्द देस के हक़ में हेक लगा रहे हैं। इससे पहले मनोज शर्मा के चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने लेखन के अपने चार दशकों में से तीन दशक जम्मू में बिताए हैं। वे पंजाब के रहने वाले हैं और कुछ साल मुंबई में भी रहे हैं। इनके जीवन अनुभव व्यापक हैं क्योंकि वे सिर्फ कवि नहीं हैं, एक संस्कृतिकर्मी और स्वतंत्र पत्रकार भी हैं। इनकी कविताओं का बीज और इनका काव्य-संस्कार सामूहिक जन-आंदोलनों में देखा जा सकता है। वेणु गोपाल, शलभ श्रीराम, आलोक धन्वा, गोरख पाण्डेय, अवतार सिंह पाश, अमर जीत चन्दन, कुमारेन्द्र पारसनाथ, वीरेन डंगवाल, मान बहादुर सिंह, रमाशंकर यादव विद्रोही, शील, महेश्वर जैसे उन भारतीय कवियों की परम्परा में इनका मूल्यांकन होना चाहिए, जिनकी कविता के संवाद अथवा शिल्प की अपेक्षा धमनियों में अधिक ताप है। मनोज की कविताओं में कहीं-कहीं रघुवीर सहाय, केदार नाथ सिंह, मगलेश डबराल और राजेश जोशी की अंतर- ध्वनियाँ भी सुनाई देती हैं; लेकिन वे इस प्रकार के स्कूलों के कवि नहीं हैं।
हिन्दी कविता में अयोग्यताओं को स्थापित करने को जब भी रेखांकित किया जाएगा, मनोज काव्य गुरु और प्रिय शिष्य होने के असम्मान से सम्मानित कवि सिद्ध होंगे। मनोज कभी भी तथाकथित मुख्यधारा के कवि नहीं रहे, यह उपलब्धि से अधिक दायित्व की तरह पहचाना जाना चाहिए। वे उन कवियों से अलग ठहरते हैं जिन्होंने पाठकों से अधिक आलोचकों, संपादकों और प्रकाशकों को अभिभूत किया। इन्होंने आतंकवाद के घिनौनेपन, आदिवासियों के अधिकारों, कश्मीरी पंडितों के त्रासद विस्थापन, जम्मू के जन-नायकों, स्त्री जीवन की संवेदना, गरीबी, शोषण, बेरोज़गारी, दोस्ती, आवारगी, अकेलेपन आदि पर मार्मिक कविताएं लिखी हैं। इस संग्रह के बहाने मनोज शर्मा की कविताई पर थोड़ी सी बात चलाई है, इसे अग्रलिखित बिन्दुओं से विस्तार दे रहा हूँ-
1-मैं कविता लिख रहा हूँ:
आलोच्य पुस्तक में कवि ने आत्म वक्तव्य लिखा है, इसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। वे धूमिल के शब्दों में लिखते हैं-
‘कविता माँगती है
एक समूचा आदमी
अपनी खुराक में...’
और जोसेफ ब्राडस्की का हवाला देते हुए कहते हैं कि कोई जितना अधिक कविता पढ़ने लगता है, उतना ही उसके लिए किसी भी तरह की लफ़्फ़ाज़ी को सह पाना कठिन होने लगता है। दोनों बातें सच हैं। जैसे कहा भी जाता है कि कवि तो हुआ जा सकता है मगर कवि व्यक्तित्व प्राप्त करना आसान नहीं होता। किसी को कवि व्यक्तित्व प्राप्त हो, इसके लिए यह ज़रूरी है कि सत्ता की नहीं कविता की शर्तों पर जीवन जिया जाए। आज कम कवि हैं जो समूचे आदमी को प्राप्त हो कर कविता के लिए हाज़िर नाज़िर हैं; जिनके लिए पद, प्रलोभन, पुरस्कार, प्रशंसा और अनुशंसा व्यर्थ हो। मनोज शर्मा ने लेखन के अपने चार दशकों में प्रशंसा और अनुशंसा की कभी परवाह नहीं की। दो एक सरकारी पुरस्कार भले मिले हों, मगर उन्होंने किसी सत्ता से कभी हाथ नहीं मिलाया। वेणु गोपाल के शब्दों में कहें तो :
“यह हो रहा था, वह हो रहा था लेकिन मैं कविता लिख रहा था
यह हो रहा है, वह हो रहा है लेकिन मैं कविता लिख रहा हूँ
यह होता रहेगा, वह होता रहेगा लेकिन मैं कविता लिखता रहूँगा।”
जी हाँ, यह लिखना और लगातार लिखना बुर्जुआ-जनतांत्रिक काव्य-कर्म नहीं बल्कि विशुद्ध क्रांतिकारी हस्तक्षेप है। हिन्दी आलोचना द्वारा आठवें दशक के प्रगतिशील ठहरा दिए गए ज़्यादातर कवियों में किसी बड़े बदलाव का आह्वान या ताप नहीं है; जबकि इसके समानांतर और अदृश्य रेखा पर चलते मनोज ने अरेखांकित रहने को चुना है। उनकी काव्यपंक्तियाँ सिद्ध करती हैं-
“एक पूरी कल्पना है यहाँ
एक ठेठ समाज है
भरा-पूरा स्वराज है।” पृष्ठ- 20
और
“असहायों, अनपढ़ों, असंगतों के लिए
दर्ज़नों सुनहरे सपनों संग वह आता है
और दु:ख की घुप्प कोठरियों की खुलने लगती हैं सांकलें।” पृष्ठ- 19
उपरोक्त पंक्तियों में पूरी कल्पना, ठेठ समाज, भरा-पूरा स्वराज, असहायों, अनपढ़ों, असंगतों, दु:ख, घुप्प कोठरियों और साँकलों में मुक्तिबोध की ‘जन जन का चेहरा एक’ कविता याद आ रही है। यह पूरी यानी सही सही कल्पना है, जिसके यथार्थ बोध को झूठलाया नहीं जा सकता। इस कर्म में मिलती पीड़ा, प्रताड़ना और पराजय के आगे समता की ध्वजा फहरा रही है। इसी सपने को रेखांकित करते हुए हिन्दी के कवि आलोचक और संपादक शिरीष कुमार मौर्य लिखते हैं- ‘मील पत्थर बुला रहा है’ संग्रह की एक कविता में मौजूद कवि के इस बयान को उनकी कविताई की दिशा मान लिया जाए तो हर्ज़ नहीं होगा: ‘महोदय/ यदि यह कोई प्रतियोगिता है/ मैं इससे बाहर होता हूँ।’ – प्रतियोगिता से बाहर रह कर ही कविता में शामिल हुआ जा सकता है। उनके- ‘मैं कविता लिख रहा हूँ’ लिखने में; ‘मैं शामिल हूँ’ को पढ़ा, देखा और सुना जा सकता है।
2-एक शत्रु समय में:
इनकी कविताओं में समय, घड़ी, सूरज, चाँद जैसे पद आशा और निराशा के रूप में बार बार आते हैं। यह दोस्त हैं और चुगलखोर, जासूस और तानाशाह भी हैं। आलोच्य कवि समकाल को अभिव्यक्त करते हुए लिखता है –
‘कौन आया, कौन छोड़ गया, किसका ढहा चूल्हा
बिखरा किसका माल-असबाब
जो जहाँ है, अँधेरे में है
और घात लगाने की मज़बूरी में
दुबका हुआ है...’ पृष्ठ- 15
‘एक शत्रु समय में’ इनकी एक ज़रूरी कविता है। यह कविता सर्वव्यापक हो गए शत्रु से सचेत करती है। इस शत्रु को अचेत लोगों द्वारा समय-मित्र मान लिया गया है। और कहा यह भी जा रहा है कि इसका कोई विकल्प नहीं है। एक पंजाबी गीत के बोल याद आ रहे हैं- “छोटे छोटे बच्चे नी बरती दे।” पर हो तो यही रहा है। “शिशुओं को अपनी जीत के बखान सुनाता है...” और “जितने दु:ख, जितने संताप, जितनी हत्याएँ सब मनुष्य की बेहतरी शुभ कल के लिए हैं...” जैसी इनकी काव्य पंक्तियों में हृदयविदारक अशुभ की चरम सीमा व्यंजित है। “विश्वास का जंग लगे घंटे से लौट हमीं से टकराना” जैसी पंक्ति में दरअसल तथाकथित धर्मद्वार से हमारे ठगे जाने की आदिम-कथा है। इस कविता को पढ़ते हुए मंगलेश डबराल की ‘नए युग में शत्रु’ और कुमार अंबुज की ‘क्रूरता’ कवितायें भी याद आती हैं, आनी ही थीं। सच तो यह है कि दु:ख, पीड़ा, संत्रास, डर, अपमान, पलायन, मोहभंग, अकेलेपन, अजनबीपन के दौर में कहीं से भी मिले स्नेह और सामूहिकताएं याद आती ही हैं। क्रूर बना दिए जा रहे समय में आलोच्य कवि किसी होड़ में नहीं है, वह लोक के स्मृति-स्थलों पर विश्राम करता है और इतिहास की पगडंडियों पर नंगे पाँव चलता है। वह समय को सुनता और बोलता है। दृश्य विधान की पलकें उघाड़ता देखता है-
‘ कटे फटे जीवन पर बँधी
उम्मीद
किसी पुरानी टाट-पट्टी-सी उघड़ती जा रही है
दु:ख
घडुप-घडुप की ध्वनि निकालता
शाश्वत एकांत को तोड़ता है।’ पृष्ठ- 33
जिस समय में ‘दृश्य बदले न बदले/ रुझान बदल जाता है।’ उस समय में कवि का चेहरा अपने पिता और बेटे के चेहरे में बदल जाने का बिंब और भाव एक विरासत को दर्शाता है, यह विरासत उत्तराधिकारी नहीं उत्तरदायित्व की द्योतक है। कवि पल-प्रतिफल करवट लेते समय की तासीर देखता है। वह इसकी निर्ममता, हाहाकार, अट्टहास, चालाकी और विदारकता के सामने अपनी मार्मिकता, मुस्कान और मरहम लेकर खड़ा रहता है। वह किसी भी कविता में व्हाइट कालर जॉब नहीं करता है, अधिकतर समय में दो एक टूटे बटन, बिखरे बाल, कमीज़ कुछ अन्दर-बाहर के साथ आता है, आते ही कुछ पूछने-सोचने लगता है-
‘सोचता हूँ
पहली बार कब हँसा होगा
मनुष्य
हँसी ने क्या स्वयं चुने होंगे
पक्ष अपने, नियम और नटखटताएं
कोई कोशिश करके गुदगुदाता है तो भी
हँसी सहमत क्यों नहीं होती...’ पृष्ठ- 13
हँसी सहमत क्यों और किससे नहीं हो रही है? यह हम सबको सोचना होगा। हमारे सोचते-सोचते कवि एक मैले पड़ चुके समय में सामूहिक सपनों के साथियों से आह्वान करता है-
‘जहाँ वसंत लज्जित होने लगे
प्यार, खोए ख़त जितना भी ज़रूरी न रहे
वहाँ, खुद को फिर से ढूँढ़ना साथी...
बेशक हमारे मौसम, बे-मौसम हो जाएँ...
कुछ करना, कुछ करना
ऐसा कुछ तब भी करना
कि स्मृतियों का उदास पीला कमरा
उजास की अमर इच्छा से लहलहा उठे।’ पृष्ठ-58
उजास की अमर इच्छा रखने और अमर-कवि होने में फर्क है। यहाँ कवि स्मृतियों के उदास पीले कमरे को भी हरा-भरा देखना चाहता है। मैं बार-बार कहता, लिखता और बोलता हूँ कि यह समय अमर होने की इच्छा से ग्रस्त कवियों और शासकों का है। यहाँ देवी प्रसाद मिश्र जी की एक कविता से शाश्वत विचार और आलोच्य कवि के काव्य प्रयोजन पर पूरी बात संप्रेषित हो जाती है, देखें-
‘एक भुला दिया गया कवि
बहुत याद किए जाते शासक से बेहतर होता है
और अमरता की अनंतता
एक जीवन से बड़ी नहीं होती।’
एक शत्रु बना दिए गए समय में मनोज शर्मा इसी जीवन के पक्षधर कवि हैं। उनके लिए श्रीकांत वर्मा की यह पंक्तियाँ बिना किसी महानता रचने के उद्येश्य से कही जा सकती है-
‘चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा।’
‘मृत्युबोध’ में भी वे सामूहिक सपना नहीं त्यागते। वे लिखते हैं-
‘रुई के फाहे-सी
धुनी जाती देह में
अपना सपना धूनूंगा मैं भी
उड़ेंगे फाहे चारों ओर
बनाते रेखाएँ
आकाश में...’ पृष्ठ- 84
3-विचारों के केवल दाँत नज़र आ रहे हैं :
“चलते चलते लगा
अकारण नहीं रहा
दांडी-मार्च
ऐसा भी लगा
हो नहीं सकते हैं क्या
सत्य के और भी प्रयोग
या फिर ऐसी पसरी बर्फ को तोड़ते हैं
गोली दागते पोस्टर ही।” –पृष्ठ -18
यह काव्य पंक्तियाँ उस समय विशेष में ज़रूरी हो जाती हैं जब एक ही फूल को फूल और बाकियों को fool यानी मूर्ख बताया जाने लगे। और ‘विचारों के केवल दांत नज़र आ रहे हैं’ जैसी पंक्ति लिखने का आशय वर्तमान परिवेश में छ्दम विचारकों, लेखकों, संपादकों और राजनीतिक दलों की रक्त पिपासा को दर्शाना है। इन सबने मिल कर आम जनता के साथ छल किया है। यही कारण है कि मनोज जैसे कवि उन भावों के कवि हैं; जिनमें जनतांत्रिक विचार हवा, पानी और मिट्टी की तरह आते हैं।
कवि जब कहता है कि
‘चाहूँ न चाहूँ
धकेला ही जाऊँगा
एक अनाम सत्य की ओर
जिसके पूर्व में कभी नहीं उगता
सूरज।’ (पृष्ठ- 75)
तो वह एक विचार विशेष से दुनिया को संचालित होते हुए देखता है; उसके देखने में चन्द्रकांत देवताले की ‘यमराज की दिशा’ है, ‘बोल ही दूंगा’ नामक इस कविता में कवि सपनों और किताबों पर तानाशाहियों की क्रूरता व्यंजित करता है।
इनकी ‘आज’ शीर्षक कविता वैश्विक स्तर पर छद्म राष्ट्रवाद और जनतांत्रिक मूल्यों के विघटन को कुछ बेतरतीबी मगर प्रामाणिक बेचैनी से अभिव्यक्त करती है। बेशक जनता का इतिहास गौरवशाली है और सत्ता द्वारा प्रचारित अतीत-गौरव एक फ़रेब है। टी एस इलियट ने कहा था- अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है। यह बात आज एकदम सच साबित हो रही है। संभाषण कला को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। वर्तमान की साजिशें अतीत को धूमिल कर रही हैं, अतीत के पाठ का कुपाठ किया जा रहा है। ऐसे में वे अपना कायदा पढ़ते हुए विविधताओं का स्वागत व असहमतियों का सम्मान करते हैं और प्रतिरोध को निस्तेज नहीं होने देते। वे शहीदे आज़म भगत सिंह के कपास के साथ गांधी बाबा के चरखे को भी वे नहीं भूलते हैं।
4-रौ और लौ :
मनोज शर्मा की कविताएं पैदल चलने पर विश्वास की कविताएं हैं। इनके पैदल चलने में एक रौ है, एक गति; जैसे मेड़ों पर चलता कोई किसान हो या शांति-जलूस में चलता कोई देहाती। यह संग्रह इसी पैदल यात्रा को आगे बढ़ाता है। वे लेखन के दौड़ाक नहीं हैं।
‘किट्टू के जन्मदिन पर’ इनकी एक सुन्दर कविता है। बेटे पर इन्होंने और भी कविताएं लिखी हैं। ऐसी कविताओं को पढ़ते हुए केदार नाथ सिंह की ‘कुछ सूत्र जो एक किसान पिता ने बेटे को दिए’ जैसी कुछ कविताएं याद आती हैं। प्रसंगवश बताता चलूँ इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए युवा कवि कविता कादंबरी जी की एक कविता अभी अभी प्रकाश में आई है। केदार जी से पहले भी ऐसी कविताएं लिखी गई हैं और कविता जी के बाद भी ऐसी कविताएं लिखी जाती रहेंगी। ऐसी कविताओं में लोक-लय तारी रहती है। मनोज की कुछ कविताओं में पारम्परिक तुकबंदियाँ या कह लें नुक्कड़ लहजे हैं जैसे ‘राजा जी राजा जी’; इन्हें पढ़ते-पढ़ते कब विष्णु नागर और नागार्जुन की दो एक कविताताएं भी पाठ में जुड़ जाती हैं; पता नहीं चलता। दूसरी ओर इनकी कुछ कविताओं में गज़ब की गेयता व संगीतात्मकता है। यह पंक्तियाँ देखें-
‘मैं तो आखिर
बाप हूँ तेरा
कितना सोचूँ, कितना छोड़ूँ
कितनी तुमको दूँ दुआएँ
मुझको तो बस यह लगता है
मुँह-अँधेरे
कोई जब भी तान लगाए
जाग मुसाफिर
ऐसा गाए
बस यह सोचो
तूने किसको क्या दिया है...
रात को कितना काटा तुमने ...
दिन को कितना बड़ा किया है... ’ पृष्ठ – 29
इसे संगीतबद्ध किया जाए, किसी लोकधुन पर गाया जाए तो हिन्दी कविता की एक अलग ताकत व सामर्थ्य को देखा जा सकता है। यह रौ लौ की तरफ ले जाती है।
‘कुशल है कोयल’ शीर्षक से इनकी एक अलग तरह की कविता है। पाठक इस पढ़त के बहाने नियति के अनुष्ठान को सम्पन्न होते देख रहा है। यहाँ एक विनम्र आदेश, मानवतावादी विचार और शून्य की गणना और कर्णप्रिय संगीत है। यहाँ नागार्जुन के शब्दों में ‘जली शाख पर गई कोकिला कूक’ तो चरितार्थ हो ही रहा है, उससे भी आगे इस पाठ में एक कोयल इनकी कविताओं का कुशल पाठ कर रही है। कविता के अंत में विस्मय बोधक एक विश्वस्त सूचक है कि कोयल गाएगी ही। यह कविता इस समय को किसी अवसर या रोमांस के रूप में ठुकराती है। कोरे निर्णयों और नीतियों को तकिया बनाने से साफ इनकार करती है। भूख और सगे संबंधियों की बेबस पड़ी राख़ में छुपा अवसाद इस समय का साक्षी बन रहा है।
‘यह रास्ता किधर जाता है’, ‘जब फूल खिलते हैं ढलान पर’, ‘जादू’ जैसी कविताओं में लोक आख्यानिक बिंब हैं, यह भी चलने की कविताएं हैं। यह समय जन-आंदोलनों का है, बदलाव का है, लगातार चलने का है। विश्वास और आशा कवि की निधि है। कवि कहता है कि उसने पहला विश्वास हवा पर किया, यह बचपन की बात है; और देखते देखते विश्वास पर घात होने शुरू हुए, पर कवि के आँगन में विश्वास का चंदा अभी भी बेखौफ उतरता है। इनकी यात्रा की रौ में एक मशालची की लौ देखी जा सकती है।
5-यह रास्ता किधर जाता है:
आज जम्मू कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक राष्ट्रमार्गों पर एक से ढाबे, एक सा खाना, एक सी भाषा और एक सा पहनावा दिखने लगा है। इस बात की तस्दीक मनोज शर्मा भी करते हैं। यह सच है कि राजमार्गों से दूर संस्कृतियाँ बच-बचाई जा रही हैं; जैसे इस बीच हिन्दी कविता को सीमांतों की कविता ने विविधता दी। 1990 के बाद मनोज शर्मा की कविताएं एक तरफ अखिल भारतीय हिन्दी कविता में अपना मताधिकार प्राप्त करती हैं, मतदान करती चली जाती है; बिना यह परवाह किए कि बहुमत किसका बनता है। और साथी कवियों से मिल कर जम्मू-कश्मीर की हिन्दी कविता में एक निर्णायक मोड़ लाती है। 1990 के बाद जम्मू कश्मीर की हिन्दी कविता में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की हृदयविदारक पीड़ा और आतंकवाद का घिनौना चेहरा प्रमुख रूप से अभिव्यक्त हुआ। विस्थापन की कविता के सामने अन्य काव्य प्रवृत्तियाँ गौण हो गईं। 2003 में शाया हुए शेख मोहम्म्द कल्याण के कविता संग्रह ‘समय के धागे’ ने जम्मू कश्मीर की हिन्दी कविता में कुछ नई काव्य प्रवृत्तियों के बीज बोए। 1984, 1987, 1992, 2002, 2008, 2014 और 2020 यह जम्मू कश्मीर समेत पूरे भारत के लिए सिर्फ साल नहीं हैं, हिन्दी कविता और वर्तमान परिदृश्य के मूल्यांकन की कसौटी भी हैं। यह तीन दशक धर्म, आतंकवाद, दंगों, सांप्रदायिकता, नक्सलवाद, पूंजी, सत्ता और तथाकथित राष्ट्रवाद को हमारे परिवेश के केंद्र में लेकर आते हैं। इन्हें बिना केंद्र में रखे ही हाशियों की जनता, कविता, कला और पत्रकारिता से इनके सम्बन्धों को परखना बौद्धिक चालाकी या भावुक मूर्खता होगी। जिन्होंने मनोज को कविता के बाहर भी; जैसे दैनिक कश्मीर टाइम्स के ‘फिलहाल’ जैसे स्तम्भ और अन्य जगह पढ़ा या सुना है; वे उपरोक्त संदर्भित परिवेश में मनोज की कविताई पर की गई स्थापनाओं से सहज ही सहमत होंगे। इन रेखांकित सालों में झूठे रचे जाते नायकत्व और उन्माद के बरक्स वे उस रास्ते और उन पगडंडियों की निशानदेही करते हैं; जिन पर हिन्दी साहित्य के पटवारी कोई फर्द नहीं काट सकते।
6-दु:ख, प्रेम, साथी और स्त्री के प्रति :
आँसू और करुणा किसी भी कवि के भाव संसार को सघन करते हैं। हम यंत्रवत एक ग्लोबल सत्ता के गुलाम हुए जा रहे हैं। हमारी संवेदनाएं कुंद की जाने के उपक्रम हो रहे हैं। एक वर्चुअल बनाए जा रहे विश्व की आहट को अनसुना करके हम ऑनलाइन बोले जा रहे हैं। ऐसा बोलना किसके हक़ में घटित हो रहा है? यह किसका प्रकाश है जिसका अँधेरा कम लोग देख पा रहे हैं। अभी आँसू और करुणा हमारी इंद्रियों की कसौटी बने हुए हैं, जहाँ भी यह नहीं हैं; वहाँ शगल और प्रसिद्धि हो सकती है; जीवन कदापि नहीं हो सकता।
अपने एक साक्षात्कार में पंजाबी कवि शिव कुमार बटलवी ने कहा था कि जो भी बौद्धिक होगा; उसके साथ यह त्रासदी रहेगी कि वह तिल तिल मरेगा। यह मरना क्या है? यह सत्ता का दिया दु:ख है। मनोज दु;ख को आत्मा की झुर्री कहते हैं हुए लिखते हैं-
‘दु:ख, जंगलों का क्रंदन है
हमारे समय का कैसा विकराल सच है
कि आम है आजकल
दुआ-सलाम की जगह कहना, सुनना
मैं दु:ख में हूँ! पृष्ठ- 96
किसी विद्वान ने कहा है कि सच्चे सुख या सच्चे दु:ख को प्राप्त करना आसान नहीं है। जैसे कबीर भी कह गए हैं-
‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।
सीस उतारि भूईं धरे फिर पैठे घर माहिं॥‘
मनोज ने सच्चे दु;ख की यात्रा को चुना है। इस चुनाव को उनकी कविताओं से बाहर भी देखा जा सकता है। दोस्त, साथी कवि और अन्य रिश्ते इनके सहयात्री हैं। वे कहते हैं-
‘अधूरी ही रहती मानव की विकास यात्रा
यदि न होते मित्र
न रचे जाते सूक्त, श्लोक, वेद
न घटित हो पाते महास्वप्न, दर्शन, क्रांतियाँ महान
यहाँ तक कि मानव को आता ही नहीं चैन से सोना
तथा डूब-डूब कर करना
प्रेम अनंत...’ पृष्ठ- 22
स्त्री इन रिश्तों के मूल में है। ‘स्त्री विलाप कर रही है’, ‘बार गर्ल’ जैसी सघन कविताएं इनकी हस्ताक्षर कविताएं मानी जाती हैं। इनकी ऐसी कविताओं ने इस संग्रह में भी जगह पाई है। ‘रुदन’, ‘तुम मेरी नदी हो’ आदि कविताएं आधी आबादी के दु:ख व करुणा में शामिल होकर लिखी कविताएं हैं। उनका शामिलपन देखें-
‘तुम दोस्ती का ऐसा मानक हो
जिसे पुस्तकों में दोहरया जाएगा
तुम होती हो जहाँ भी
माटी प्रामाणिक हो जाती है।’ पृष्ठ- 79
और
‘यहाँ एक आलाप है
दूध है यहाँ
यहाँ एक ढाल रही हमेशा।’ पृष्ठ- 39
‘राख होने तथा बह जाने के बाद भी
पसरी हो मुझमें
सदा-सदा के लिए
ऐ माँ! ’ पृष्ठ- 40
स्त्रियाँ हमें मनुष्यता देती हैं। यह अकारण नहीं है कि हिन्दी कवि गीत चतुर्वेदी लिखते हैं-
‘मैं क्यों करूँ घृणा और रक्तपात का समर्थन
मुझे प्यार व ममता से भरी एक माँ ने पाला है।’
हिन्दी के अन्य कवि अशोक कुमार पाण्डेय की एक काव्य पंक्ति है- ‘मेरा होना उसके जीवन में डर का होना है।’ इस पंक्ति के सामने गोरख पाण्डेय की काव्य पंक्ति- ‘इस दुनिया को जितनी जल्दी हो सके बदल देना चाहिए’ को रख कर कहूँगा कि अशोक की पंक्ति अप्रासंगिक हो जाए। इस अप्रासंगिक होने के सपने में मनोज का स्त्री संसार है।
7-मील पत्थर बुला रहा है :
हमारे देश में अंग्रेजों के समय से आवेदन में Yours faithfuly लिखा जाता है। त्रासदी यह है कि हिन्दी में बड़ी संख्या में कविताओं में यही वफादारी लिखी जा रही है। इसके विपरीत मनोज के काव्य परम्परा में भरोसे, अधिकार और कर्तव्य का भाव है। मनोज को RTI और याचिका का कवि भी कह सकते हैं। उसमें साहस है, और वह ‘मैं दास नहीं हूँ’, ‘हूँ, अभी भी’ जैसी कविताएं लिख कर इनकार को उदात्त जीवन मूल्य के रूप में व्यंजित करता है। एक जगह मनोज ‘प्रतिरोध एक गूढ़ रहस्य है’ कह कर चौंकाते से दिखते हैं मगर इसे मुक्ति-सूक्ति की तरह लेना चाहिए। यह रहस्य सबको नहीं पता, इसका स्वाद सबने नहीं चखा। इसी प्रतिरोध के संबल को इन भावों में देखा जा सकता है-
‘पता नहीं क्यों उमड़ी हैरानी
कि, नष्ट नहीं हुआ हूँ अभी भी
हालांकि ध्वस्त किए जा रहे हैं
पठार, पहाड़, नदियों तक के पछाड़...’ कोई मनुष्य
अपनी भाषा, अपने मौसम, अपने आकार, दमखम में अपने बचा हुआ हो यूं...
कि जैसे हो कोई
गूढ़ रहस्य!’ पृष्ठ- 91
और
‘जैसे बहुत सारा झाड़-झंखाड़ है
और धरती है
जैसे बहुत-सी प्यास है
और मीठा जल भी है, यहाँ-वहाँ
जैसे आकाश है फैला हुआ
और एक मोची
पूरे मनोयोग से जूता सी रहा है।’ पृष्ठ- 86
इस जूते में अलहदा यात्रा सी जा रही है। जब यह दुनिया Pied piper of Hamelin के पीछे जाते चूहों की तरह घृणा की नदी में कूद रही है, तब आलोच्य कवि एक मील पत्थर द्वारा बुलाने की बात कर रहा है। यह मील पत्थर ‘दुनिया जैसी होनी चाहिए’ की अपार सम्भावना अभिव्यक्त कर रहा है। इस आदिम स्वछंद आवाज़ को साफ सुना जा सकता है। यहाँ मील पत्थर मुक्तिबोध कृत ‘दूर तारा’ कविता याद दिलाता है। मुक्तिबोध के शब्दों में- ‘जिस का पथ विराट- वह छुपा प्रत्येक उर में। क्या कभी पेड़ अपनी जड़ों से नाराज़ होते हैं? नहीं होते न। अमलतास की ललक लाने वालों के कारण ही यह कभी नाराज़ नहीं होते। संग्रह की शीर्षक कविता के पाठ का सरलीकरण हो जाए तो अंत तक आते आते यह कविता छायावाद के रहस्यवाद से जोड़ दी जाएगी, जबकि यह सामूहिक सपनों के सनातन लोक की कविता है। यह घातक है कि कविता, संपादक, प्रकाशक और आलोचक के आकाश में एक ही ध्रुव तारा बताया जा रहा है, जबकि इसी आकाश तले मनोज जैसा कवि जल, हवा, पेड़ और चिड़िया से रास्ता पूछ रहा है। वह जानता है कि मसीहाई कहाँ है। वह दिशाभ्रमित नहीं है। इनके ‘माथे पर सजा सूरज’ इनके जीवन सौंदर्य को दर्शाता है। यह इनकी जीवन-यात्रा को प्रामाणिक, प्रकाशित और सुन्दर बना रहा है।
8-कलम, नाव और बांसुरी:
मनोज की अब तक की कविताएं बताती हैं कि अगर लिखी जाए तो इनकी आत्मकथा में ‘प्रेम और दोस्त’ कथ्य होंगे, इनके ‘शब्द’ इसके चरित्र होंगे, इनकी ‘कविताएं’ इसका संवाद होंगी, इनका ‘लोक’ इसका देशकाल वातावरण होगा, इनके ‘सामूहिक सपने’ इसका उद्देश्य होंगे और पंजाबी सरदारी लिए इनका ‘काव्य-मुहावरा’ इस आत्मकथा की शैली होगा।
वे लोक और मंगलकामनाओं के कवि हैं, बुज़ुर्गों के आशीष की तरह। एक हद तक आलोच्य कवि की कविताओं का मूल स्वर एकरसता और दोहराव का शिकार लग सकता है; लेकिन यह एक रास्ता और अभ्यास की पैरवी है। यह पैरवी क्यों है? इसका उत्तर देते हुए कवि कहता है-
‘अब अकारण कुछ नहीं होता घटित बस संधान होते हैं’ सत्ता के संधान से बचने के लिए वह सतत अपने चुने और परखे हुए रास्ते पर चलते हैं और अभ्यासरत रहते हैं।
कहीं-कहीं वे उपदेशक की भांति भी लगते हैं। इनकी कविताओं में सत्ता द्वारा दर्शाया जाने वाला असुन्दर अतीत गौरव नहीं बल्कि सुन्दर स्मृतियाँ हैं। इनकी कल्पना; इनके यथार्थ को पैना बनाती है। वे आत्मस्वीकार के कवि हैं। ‘मेरी गर्मी का बिगाड़ क्या लेगी कोई ठंड’ और ‘मैं दास नहीं हूँ’, ‘मैं दृश्य से कुछ अधिक हूँ’ जैसी काव्य- पंक्तियाँ उनका हासिल और परिष्कृति का प्रमाण हैं। इस संग्रह के बहाने यह भी कहना ज़रूरी है कि प्रकाशन का कार्य है प्रकाश में लाना। क्या हिन्दी के बड़े प्रकाशक ऐसा कर रहे हैं? नहीं, वे सिर्फ धंधा कर रहे हैं। वे समूह जैसे शब्दों की परिभाषा बदल रहे हैं। ऐसे में हाशियों के लेखन को समानांतर प्रकाशकों, संपादकों के साथ-साथ हाशियों के पाठकों की तलाश करनी चाहिए।
अंत में इतना ही कहूँगा कि मनोज को पढ़ते हुए पाठकों को कटा हुआ पेड़ नहीं; पुरूष की कलम, औरत की नाव और बच्चे की बांसुरी याद आएगी।
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सम्पर्क:
कमल जीत चौधरी
गाँव व डाक-काली बड़ी,
तहसील व जिला- साम्बा – 184121
जम्मू-कश्मीर
दूरभाष- 9419274404
Kamal jit bhai aapne ek zaroori Hindi kavi ka ek mehetwapurn alekh likha hai iske liye abhaar aur dhanyvad
जवाब देंहटाएंमीत जी, हार्दिक धन्यवाद।
हटाएंआदरनीय कमलजीत चौधरी जी,प्रणाम।आपकी दृष्टि से आदरनीय मनोज शर्मा जी की कविताओं को पढ़कर स्वयं को धन्य महसूस कर रहा हुँ।आपको पढ़ना मेरा सौभाग्य तथा समझना एक प्रयास है।जैसे आपने पंक्तियों के बीच मेंसे शब्द निकाले हैं सो मेरे मस्तिष्क को भी समझने के नये आयाम मिले हैं।कविता को इस तरह से भी पढ़ा और समझा जा सकता है यह आपके इस लेख से समझ में आया।इस लेख को सार्वजनिक करने हेतु आपका अति आभारी हूँ।आपका छोटा
जवाब देंहटाएंबाबू भट्टी।
प्रणाम! धन्यवाद मित्र।
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