श्यामबिहारी श्यामल के उपन्यास 'कंथा' का 'भाव भेंट' शीर्षक से एक अंश।

 


जीवनीपरक उपन्यास लेखन की वह विधा है जिसमें लेखक अपने नायक के जीवन और परिवेश में उतर कर महसूस करने की कोशिश करता है और उसे शब्दबद्ध करता है। 'मानस का हंस', 'खंजन नयन' और 'कलम का सिपाही' जैसी कालजयी कृतियाँ इसका बेमिसाल उदाहरण हैं। वैसे यह परंपरा अत्यन्त समृद्ध है। हाल ही में इस कड़ी को आगे बढ़ाया है श्याम बिहारी श्यामल ने अपने उपन्यास 'कंथा' के जरिए। प्रख्यात रचनाकार जयशंकर प्रसाद के जीवन पर आधारित इस उपन्यास के लेखन का मैं शुरुआत से ही साक्षी रहा हूँ। नवनीत में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हो कर यह उपन्यास पहले ही लोकप्रियता अर्जित कर चुका है। अब यह उपन्यास राजकमल से प्रकाशित हो चुका है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं श्यामबिहारी श्यामल के उपन्यास 'कंथा' का 'भाव भेंट' शीर्षक से एक अंश।

 

 

 कंथा‘: उपन्यास: श्याम बिहारी श्यामल: राजकमल प्रकाशन: पेपरबैक संस्करण,  कुल पृष्ठ 544: मूल्य 599 रु, पुस्तक का अगस्त 2021 में प्रकाशन हुआ है!


 भाव-भेंट

 

 

श्याम बिहारी श्यामल

 

 

 

घाट की ओर से आती हवा छू रही है तो त्वचा छिल जाने जैसा अनुभव हो रहा है। तलवार की धार सटने की तरह। हर झोंका अचूक प्रहार सरीखा। ठिठुरन से भर देने वाला। चेहरा छनछना जा रहा है। पलकें मूंदते ही टपक कर गरम बूंदें गालों पर रेंगने लग जा रही हैं। प्रकम्पित हो रही है ठंड की यह सुबह! कभी तनिक तेज, तो कभी हल्के-हल्के। ओस से भरे भारी पत्ते की तरह! सिहरी और सहमी हुई-सी। धूप भी भीगी-भीगी। अलगनी पर हिलती हल्दी से रंगी टपकती पीली धोती जैसी। बाहर कुर्सी पर बैठे हैं रायकृष्ण दास। आसमान की ओर देखते हुए वह जैसे स्वयं से ही बोल पड़े, ‘‘ कोहरे ने सूर्य को कितना अशक्त बना दिया है... कई हाथ ऊपर चढ़ चुकने के बाद भी वह कैसा निस्तेज बना हुआ है! ...धूप भी कैसी लुटी- पिटी-सी ही...’’

‘‘प्रणाम!’’

सोच-क्रम टूट गया। दृष्टि सामने गयी। तेज कदमों से आते हुए दिखे शिवपूजन सहाय! चादर में लिपटे, जुड़े हुए हाथ बाहर निकाले, मुस्कुराते हुए।

 

 

हड़बड़ा कर उठ खड़े हुए दास, ‘‘ आइए... आइए शिव जी! ...सुबह-सुबह आपके जाने से तो सचमुच आनन्द गया... ’’ आगे बढ़ कर साग्रह हाथ पकड़ लिये। सामने की कुर्सी पर बिठाने लगे, ‘‘ आपको हरिताभ चादर में इस तरह छुपा देख कर अद्भुत अनुभूति हो रही है...! ’’

‘‘ अद्भुत अनुभूति ? ...भला, ऐसा क्या... ? ’’

‘‘ जैसे बिल्व पत्रों में लदे-छुपे अकस्मात् सामने गये हों बाबा विश्वनाथ!... ’’

 

 

‘‘ रोमांचित हो गया हूं मैं बाबा का नाम सुन कर...’’ शिवपजन ने आंखें मूंद ली। हाथ जोड़े-जोडे़ आकाश की ओर सिर उचकाया। चादर के नीचे कंधे फड़कने लगे। सिहरन जैसी तरल भावप्रवणता की अभिव्यक्ति। शब्द-शब्द श्रद्धासिक्त, ‘‘...मेरे भीतर तो वह विराज ही रहे हैं सदा-सदा... लेकिन आपके मुख से ऐसा जीवंत रूपक सुन उनका चंद्रशेखर-रूप अचानक आंखों के सामने गया है! सर्पबद्ध-नीलकंठ जटाजूट वाली चिरंतन छवि! बाबा की यही जीवंत उपस्थिति-अनुभूति पाने के लिए तो सब कुछ छोड़-छाड कर मैं काशी में पड़ा हुआ हूं... यहां के अलावा और कहीं मन ही नहीं लगता मेरा... अपने बिहार क्षेत्र में कहीं और... जब-जब कहीं और जमने की कोशिश की है, इसमें विफल रहा... यहां से अलग जब कभी जहां कहीं भी रहा, बार-बार यही लगता रहा कि मैं काशी को स्वीकार्य नहीं हूं तभी तो यहां रहना पड़़ रहा है... हमेशा विवशता का भाव सालता रहा... इसलिए अंततः दृढ़ संकल्प लिया और काशी की कीमत पर कुछ भी नहीं स्वीकारने की प्रतिज्ञा कर ली... अब देखिए, बाबा की कृपा हुई और अंततः इस भूमि पर मेरा भी स्थान नियत हो ही गया!...’’ ध्वनि जैसे सीधे हृदय से निकल रही हो।

 

‘‘ ...यह तो रचना-भूमि है ही! वेदव्यास-तुलसी-कबीर-रैदास से ले कर भारतेन्दु बाबू की साधना-स्थली! आप जैसे साहित्य-साधक को तो काशी-नगरी अपने सीने से लगा कर रखेगी ही! एकदम जम कर रहिए... त्रिशूल को यहीं खोंस दीजिए... कमंडल स्थापित कर लीजिए... तबीयत से डमरु को डमडमाते रहिए ! ...आप तो यों भी शिव हैं... नाम से भी, कृति-प्रकृति से भी... आपका निवास तो काशी में ही होना भी चाहिए...’’ दास ने मुस्कुराते हुए आगे पूछा, ‘‘...और क्या हाल है? ...क्या चल रहा है?... हमारे धनपत राय जी तो ठीक-ठाक हैं... ? ’’

 

 

‘‘हां... उनका अपना काम अपनी गति से अपनी ही तरह अबाध चल रहा है... वह भी खूब हैं... अपनी धुन में लगे रहते हैं... ’’

‘‘हां, वो तो है ही... किंतु ... ’’

‘‘किंतु... ? ’’

‘‘मुझे उनके सारे लेखन-प्रयास सर्वथा एक जैसे लगते हैं... जैसे अपने प्रसाद के पास कविता का सुरम्य आंगन है तो नाटकों का एक समूचा चहचहाता संसार... और कथाओं की एक अपनी ही जमीनी दुनिया भी...! ऐसी विविधता धनपत राय के यहां कहां दिखती है...? ... ’’

 

 

‘‘नहीं! इस तरह से बात नहीं की जा सकती! विविधता की तलाश या पहचान ऐसे स्थूल ढंग से कदापि नहीं की जा सकती... यह ऐसी चीज है भी नहीं... ’’

‘‘मतलब ? ... ’’

 

 

‘‘वैविध्य तो देखिए कितनी बारीक चीज है... किसी भी एक व्यक्ति और उसके मुकाबले किसी भी दूसरे को गौर से देख लीजिए... जीवविज्ञान की दृष्टि से दोनों में सम्पूर्ण सैद्धान्तिक साम्य है... किंतु इस संसार के लाखों-लाख इन्सानों में क्या कोई भी दो व्यक्ति एकदम समान हैं? सबको हैं दो हाथ, दो पांव, एक नाक, दो आंखें, एक मुंह आदि-आदि... लेकिन हर व्यक्ति एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न...! ...चेहरों के अन्तर को सही-सही रेखांकित करना मुश्किल लेकिन हर चेहरा सर्वथा अलग... - तो इसे कहते हैं वैविध्य! धनपत राय उर्फ प्रेमचन्द चाहे भले केवल गद्य विधाओं में लिख रहे हों, उनकी हर रचना ऐसे ही अलग-अलग व्यक्तित्व से सम्पन्न है... यही हाल प्रसाद के साथ भी है... दोनों हमारी भाषा के बड़े रचनाकार के रूप में हमारे सामने हैं... मैं तो यहां तक कहूंगा कि वह दोनों ही नहीं, हिन्दी साहित्य-परिवार के अन्य अनेक सदस्य रचनाकार देखने में चाहे अलग-अलग और भिन्न-भिन्न स्थानों पर दिख रहे हों, समग्रता में वह सब कुल मिला कर एक ही काम कर रहे हैं- अपने समय-समाज की सकारात्मक पड़ताल और हिन्दी भाषा-साहित्य की श्रीवृद्धि का कार्य!... ’’ बहुत विनम्रता के साथ उन्होंने प्रसंग को सौहार्द्रपूर्ण ढंग से पूरा किया।

 

 

नौकर ने ला कर पीत्तल के जग में जल रखा और सामने खड़ा हो गया। दास ने उसे समझाया, ‘‘ नाश्ता दो थाल में जाये तो अच्छा रहेगा... घर में बता दो कि शिवपूजन जी आये हैं... बस लोग समझ जायेंगे... सबको इनके स्वाद की सीमा और ग्रहणशीलता की चौहद्दी का भली-भांति अता-पता है... ’’

 

शिवपूजन सहाय

 

 

वह मुस्कुराता हुआ चला गया। शिवपूजन बोले, ‘‘ चूंकि आपके यहां मेरे इनकार की कोई अहमियत नहीं इसलिए मैं चाह कर भी अभी तक यह निवेदन नहीं कर सका हूं कि अभी-अभी मैं अपने कमरे से रात की रखी दो चपातियां और गूड़ का भरपूर नाश्ता करके ही चला हूं... ’’

‘‘हां! खान-पान में इनकार को नकार देना ही मैं अपना धर्म समझता हूं...’’

‘‘बस, यही जरा-सा है जो यह बता देता है कि आप कला-प्रेमी और साहित्यानुरागी के अलावा जमींदार भी हैं... ’’

दास ठठा कर हंस पड़े। रूके तो बोले, ‘‘ और मेरा यह ठहाका? ... ’’

‘‘इसमें कोई जमींदारी जैसी बू नहीं! इससे ज्यादा तेज और कड़ाकेदार तो हमारे मुंशी जी लगाते हैं... तमाम कड़की और अभावों की धूल-राख उड़ाते हुए...! ’’

 

 

‘‘बिल्कुल! बिल्कुल! धनपत जी का ठहाका मैंने कई बार पास से गौर से सुना है... उनके ठहाके से ही मुझे पता चला कि उनके पास हृदय बहुत समृद्ध है... जहां करुणा का अभाव नहीं होगा वहां प्रसन्नता की भी कोई कमी कभी नहीं हो सकती... जमींदारी और धन ही ठहाके के लिए काफी नहीं... धन तो मूर्ख को परेशान ही करता है... क्योंकि मूर्ख चारों ओर से बन्द कुण्ड की तरह हो जाता है जिसके जल का गंदला होना या सड़ना तय है... जबकि समझदार अपनी प्रवहमान-प्रकृति के चलते धन आते ही नदी बन जाता है... बह चलता है... दिग-दिगन्त में बढ़ता-फैलता हुआ... इसीलिए तो बहती नदी की हंसी-खिलखिलाहटें और खुले ठहाके सबने देखे-सुने हैं... किंतु जमाखोर कुण्ड को क्या किसी ने कभी होंठ हिलाते-डुलाते भी देखा है? ’’

 

 

‘‘क्या खूब कहा आपने! बहुत सटीक! ... सार्थक और समीचीन ! देखिए हमारे जितने भी रचनाकार हैं इसीलिए सभी खुलकर हंसते-बोलते हैं... क्या प्रेमचन्द... क्या प्रसाद... क्या मैथिलीशरण... क्या निराला... सभी! ’’

नौकर ने दो थाल ला कर सामने टेबुल पर रख दी। दास ने एक उठा कर शिवपूजन की ओर बढ़ा दी। उन्होंने विनम्रता से इसे ग्रहण कर लिया।

 

 

दोनों खाने लगे। मुंह चलाते हुए दास ने कुछ स्मरण किया, ‘‘ देखिए, बातें कहां से शुरु हो कर कहां पहुंच जायें, कोई नहीं जानता! ...इसलिए मैं भी कहीं यह बताना भूल जाऊं! इसलिए पहले यह बता ही दूं...’’

शिवपूजन हाथ-मुंह रोक कर जिज्ञासा से उनकी ओर ताकने लगे। वह आगे बोले, ‘‘ ...कि अगले सप्ताह ही आदरणीय महावीर प्रसाद द्विवेदी जी काशी पधार रहे हैं... ’’

 

 

‘‘ अच्छा! यह तो बहुत प्रसन्नता की बात है... अहोभाग्य! ...काशी में क्या-क्या कार्यक्रम हैं आचार्य के? ’’

‘‘ ठहरेंगे तो मेरे ही यहां... छह दिनों तक यहीं रामघाट पर प्रतिदिन गंगा-स्नान करेंगे और भोला-भूमि का दुर्लभ प्रवास-आनन्द लेंगे... मूल कार्यक्रम नागरी प्रचारिणी सभा में प्रस्तावित है... उन्हें एक मानपत्र अर्पित किया जायेगा... ’’

 

 

‘‘ यह तो बहुत अच्छी बात है! इसका अर्थ यह कि आचार्य का छह दिनों का दुर्लभ साथ -संसर्ग हमें सुलभ हो सकेगा... ’’

‘‘ हां! हां! क्यों नहीं! हम लोग मिल कर उनका स्वागत-सत्कार करेंगे! उन्हें काशी के तमाम प्रकार के अखाड़े घूमाएंगे... शारीरिक भी, साहित्यिक भी और धार्मिक आदि भी! इतने किसिम-किसिम के अखाड़े देख उन्हें भी आनन्द ही आयेगा... ’’

 

 

शिवपूजन ने खाली हो चुकी थाल को नीचे रख दिया। हाथ-मुंह धोये। पानी पी कर मुंह पोंछने लगे, ‘‘ अभी-अभी एक विचार मेरे दिमाग में रहा है... ’’

‘‘क्या?’’ दास भी हाथ-मुंह धोने लगे।

‘‘आदरणीय द्विवेदी जी की षष्ठिपूर्ति का वर्ष है यह! उनकी गौरव-गरिमा से परिपूर्ण महान सेवाएं और महादेव जी जैसा विराट् व्यक्तित्व देखते हुए मात्र मानपत्र दिया जाना क्या पर्याप्त होगा..!’’

‘‘आपका तात्पर्य? कहना क्या चाहते हैं...?’’

‘‘मेरे विचार से यह अपर्याप्त होगा...’’

‘‘भई, यह तो सभा का आयोजन है... आप तो जानते ही हैं सभा से उनके सम्बन्ध हाल ही में सुधरे हैं... काफी समय तक बहुत कटुता रही... खैर, अब वह अध्याय समाप्त हुआ... सभा ने उनका सम्मान करने का निर्णय लिया... इससे हमें तो बहुत प्रसन्नता हुई...’’

 

Mahavir Prasad Dwivedi

 

 

‘‘मेरा आशय यह है कि आचार्य जी को इस षष्ठिपूर्ति के उपलक्ष्य में एक समृद्धतम अभिनन्दन ग्रंथ अर्पित किया जाना चाहिए... ’’

 

‘‘एकदम सही! ... आप यदि इसे तैयार करने का भार लेने का वचन दें तो मैं इसके लिए जी-जान से लग जाऊं! हिन्दी भाषा और साहित्य के सबसे ज्येष्ठ आचार्य का उनकी गरिमा के अनुरूप यदि सम्मान-अभिनंदन हो तो इससे सबको आत्मिक प्रसन्नता का अनुभव होगा... इससे ज्यादा अच्छी बात भला दूसरी क्या हो सकती है!...’’

 

शिवपूजन भाव-विभोर हो उठे, ‘‘...यह कार्य यदि सचमुच मैं अपने हाथों सफलतापूर्वक पूरा कर सका तो इसे अपने जीवन की एक बड़ी उपलब्धि मानूंगा...’’

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आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी काशी आए हैं। पूरा साहित्यिक समाज नयी चेतना और अपरिमित उत्साह से भर उठा है। रामघाट पर साहित्यानुरागियों का तांता लगा रह रहा है। वह सबसे सहज-सहज मिलजुल रहे हैं। स्नेहपूर्वक। अपने ज्येष्ठ अभिभावक-संरक्षक से साक्षात्कार कर लोग गदगद।

 

सुबह-सुबह घोड़ा गाड़ी से दास उन्हें परिभ्रमण कराने निकले। साथ में शिवपूजन सहाय, विनोद शंकर व्यास भी। गली से बढ़ कर गाड़ी सड़क पर निकली। हाथ जोड़े दास विनत हो गये, ‘‘आचार्यप्रवर, आप कहां-कहां चलना चाहेंगे?’’

 

 

‘‘सबसे पहले तो मैं लहरतारा चलना चाहूंगा...’’ आचार्य द्विवेदी ने आंखें मूंद कर दोनों हाथ आसमान की ओर लहराए, ‘‘...सद्गुरु कबीर से शुरु कीजिए... आगे बढ़ते हुए महात्मा रैदास और अपने बाबा तुलसीदास से जुड़े स्मृति-स्थल मुझे दिखाइए...  देखना चाहूंगा! ...आज की यह यात्रा सम्पन्न करना चाहूंगा भारतेन्दु बाबू की ड्योढ़ी तक पहुंच कर! आप इसी योजना-दृष्टि से यथोचित परिक्रमा-पथ निर्धारित कर लीजिए... इन महान रचनाकारों से जुड़े स्मरण-स्थल मुझे दिखाइए, ताकि सचमुच मेरी आत्मा जुड़ा जाए!’’

 

 

लहरतारा! अनन्त आकाश को सीने में समेटे-सहलाता प्रशान्त जाग्रत तालाब। धड़कता हुआ जल! हिलते तरल तल के सामने खड़े हैं आचार्य द्विवेदी। छाती पर दोनों हाथ बांधे! पास ही पीछे वह तीनों भी। सभी चुप। गाढ़ी निःशब्दता! जल-स्पंदन को एकटक निहार- पढ़ रहे हैं आचार्य। मग्न-मौन। मन जैसे अपनी ही दृष्टि-डोर पकड़ कर जल में उतरता चला  जा रहा हो! साक्षात् कबीर और साखी समय की ओर सरकता-बढ़ता हुआ! जल में रह-रह कर जाग रही हैं लघु-लघु लक्षणा लहरें। फैलती धन्य-ध्वन्य अभिव्यंजना तरंगों से सम्पन्न।  अभिकाव्य के रस-मर्म की तरह। शांत जल पर जैसे खिंच-खिंच जा रही हो कबीर की प्रतिध्वनित अमर बानी-

 

कबिरा संगत साधु की हरै और की व्याधि...

संगत बुरी असाधु की आठो पहर उपाधि!

 

सीरगोवर्द्धन। लंका क्षेत्र में रैदास स्मृति स्थल। आचार्य द्विवेदी खड़े निहार रहे हैं। मुग्ध -दुग्ध मौन में तैरते हुए-से। इस मतांतर से कोई अंतर नहीं महसूस हो रहा कि संत कवि का वास्तविक जन्म-स्थान यही है अथवा लहरतारा क्षेत्र का कोई स्थल!

 

अनुभूति बोल रही है- सम्प्रति यहां की माटी में त्वरा-तृप्ति तो सचमुच विरल है! हवा के सारंगी-स्वर में सतत् चिन्तना, अद्भुत, अनाहत! छोटा-सा परिसर किंतु महिमा-बोध कैसा प्रखर! निःशब्द-निर्ध्वनित रह कर भी कितने सुस्पष्ट गूंज रहे हैं अद्भुत अध्यात्म-सिद्धान्त! शास्त्रज नहीं, प्रज्ज्वलित अनुभव से जन्मे हुए: -एकांत संन्यास के समानांतर सतत् कर्म का कैसा सिद्ध विन्यास! जीवन-जगत् के सहज व्यवहार में ही परम-प्राप्ति! पूजा-पाठ और पौरोहित्य कर्मकाण्ड में नहीं, निर्विकार प्रेम-पथ में कर्मण्य भक्ति-मार्ग का वरेण्य निरुपण! स्वविचरण-आत्मविलयन से नहीं, परहित-परोपकार से परमका सांगोपांग साक्षात्कार!

 

 

शिवपूजन चुप हैं। दास मौन। व्यास भी। आचार्य द्विवेदी किसी से कुछ कह-पूछ नहीं रहे, किंतु उनका आत्म-संवाद जैसे सबको सुनाई-दिखाई पड़ रहा हो। लगभग स्पष्ट।

 

 

अस्सीघाट। बहती गंगा पर है आचार्य द्विवेदी की मनन-खनन दृष्टि। टँकी-टिकी हुई- सी। डोलती धारा में वह देख रहे हैं काशी नगरी का जल-बिम्ब। सम्पूर्ण-सजीव। महिमान्वित भूगोल की झलकती-झिलमिलाती वह समग्र भाव-छवि भी, जिसमें घुली हैं इतिहास की सरपट स्याही और सरसराती सफेदी। साथ ही सभ्यता-संस्कृति के खिले हुए सप्तरंग! घाट का स्थापत्य ध्यान खींच रहा है। पत्थर की अडोल-अविचल सीढ़ियां। नीचे डोल रहे तरल-तल तक जाती हुईं! कहीं चकता-चौकोर तो कहीं लम्बी। कहीं हल्की लाली तो कहीं धूसर-मटमैली किंतु सर्वत्र शिलित मौन में लिपटीं। कभी गहरे अन्तर्मन में उतरने तो कभी उत्तुंग चेतना-शिखर पर चढ़ने को उकसाती-जगाती हुईं।

 

 

फिर बहती गंगधार पर लौट आयी है आचार्य द्विवेदी की दमकती दृष्टि। लम्बी मूंछों वाले रोबीले मुखमण्डल पर भी उमड़ती हुई रेखांकित-भावखंचित फेनिल भाव-धार। ऐसी ही रजताभ! विद्युत्गति विचार-प्रवाह। जैसे, अनुभूति-गंगा बनकर फूट रही हो तन्वंगी विष्णुपदी! हिमरंजित स्फटिक-चमचम गोमुख-चोटी से। नव्य-नवजात, धवल! आंखों के सामने झूलने लगे हैं ताजा घूमे-देखे हुए काशी के प्रसिद्ध तुलसी स्मृति-सुरभित जागृत स्थल। तुलसीघाट, दशाष्वमेधघाट, संकटमोचन मंदिर, गोपाल मंदिर और विश्वनाथ गली। बाबा तुलसी का काशी का रचना-रमण, रामलीला का परम्परा-सृजन और नाहक ही प्रतिद्वन्द्विता पाल बैठने वाले धर्मधिक्कारुओं का आक्रामक प्रतिरोध। अपनी पाण्डित्य-त्ता और तीर्थ-अध्यवसाय पर अस्तित्व-संकट देख लेने वाले संगठित पुरोहित समाज द्वारा उत्पन्न भीषण संघर्ष! इतिहास के फूटते बुलबुलों से रह-रह कर निकल-फैल रहा है वह कलंकित असत्-असंत शोर, जो संत-कवि को नकारने और काशी-च्युत करने के लिए खड़ा किया गया था! शास्त्र-आभिजात्य भंग करने और शास्त्रार्थ का षड्यंत्र रचने के दोहरे अभियोग के साथ। शताब्दियां लांघ जलधार से निकलती, विचलित कर देने वाली प्रतिध्वनियां। हमलों की बर्बरता और असहिश्णुता का दारुण दृश्य रचती हुईं। कितना-कितना अत्याचार सहना पड़ा होगा उस निष्छल महाकवि को! जिसके लिए उन्होंने शास्त्र को सहज-सरल और सार्व किया, भगवान श्रीराम की कथा को लीलान्तरित कर लोकार्पित किया, उस लोक ने अपना दाय सर्वांश भुगतान करके दिखाया! लोकमंगल के लोकनायक महाकवि को आखिर इसी लोकजीवन ने स्वयं खड़ा हो कर बचाया!

 

 

भारतेन्दु-भवन में आचार्य द्विवेदी। भावपूर्ण क्षण। आंगन की धूलि उठाकर मस्तक से लगा रहे हैं, ‘‘ रजकणो, तुम सब तो वही हो! तुमने हमारे भाषा-जनक की काया को तो खूब छुआ होगा... असंख्य-असंख्य बार हिया जुड़ाया होगा... उनके जीवन का हिस्सा बनने का सौभाग्य खूब लूटा होगा... छक कर पीया होगा सबकुछ देखने का सुख... अबोध बचपन, सुबोध यौवन, प्रबोध साहित्य-साधना और महाबोधि सृजन-समाधि! तुम्हारे भीतर उनका जीवनांश अवश्य ही अब भी विद्यमान होगा... जीवंत स्पर्श-स्मृति रूपों में! तुम्हारी धमनियों में तो तैर रही होगी हमारी भाषा खड़ी बोलीके बचपन की भी किलकारी... उसके कोमल नन्हे पांवों की डगमगाहट, सम्भलाहट और पदक्षेप- सबकी छुअन... बुदबुदाहट, तुतलाहट और पदचाप- सारी मृदुल-मंजुल ध्वनियां-छवियां! ’’

 

 

व्रज चन्द्र ने आ कर चरण-स्पर्ष किया। आचार्य द्विवेदी ने सिर हिला कर आशीष दिया। दृष्टि डाली और पहचानने का उपक्रम करने लगे। दास निकट आये, ‘‘ आचार्यप्रवर, यह हैं भारतेन्दु बाबू के भतीजे व्रज चन्द्र जी... साहित्य में गहरी रूचि रखते हैं... ’’

 

 

आचार्य द्विवेदी ने गले लगा लिया, ‘‘... हां... हां... मैं समझ गया... तो भारतेन्दुपत्रिका के सम्पादन मण्डल में सम्मिलित रहने वाले व्रज चन्द्र जी यही हैं...’’

व्रज चन्द्र ने ससंकोच मुंह खोला, ‘‘... झारखण्डी का मैं सहाध्यायी भी रहा हूं... ’’

 

 

आचार्य द्विवेदी झारखण्डीनाम को स्मारित करने लगे तो दास ने जोड़ा, ‘‘...झारखण्डी यानि अपने जयशंकर प्रसाद... यह उन्हीं का घरेलू पुकारु नाम है... असल में यह उनके बचपन के संगाती हैं ... इसीलिए हठात् यही नाम... ’’

 

 

‘‘...वाह! वाह! ...यह जान कर तो और अच्छा लगा कि यह जयशंकर जी के संगतिया हैं...  वह तो प्रतिभाशाली रचनाकार के रूप में सामने रहे हैं... ’’ आचार्य द्विवेदी ने सिर हिलाया।

 

 

‘‘ आचार्यप्रवर, अब आप कक्ष में चलकर बैठिए... कुछ जलपान स्वीकार कर हमें अनुगृहीत कीजिए...’’ व्रज चन्द्र ने हाथ उठा कर संकेत किया, ‘‘... यह वही कमरा है जो श्रद्धेय चाचा जी का बैठका रहा... भारतेन्दु मण्डल की ज्यादातर बैठकी यहीं जमता रही...’’

 

जयशंकर प्रसाद

 

 

‘‘...चलिए ...चलिए ...वह स्थान देखूं... जलपान क्या, यहां तो जो कुछ प्राप्त होगा वह भारतेन्दु पीठ का प्रसाद होगा... ’’ लगभग दौड़ते हुए आगे-आगे वह और पीछे-पीछे मुस्कुराते बढ़ते सभी। वह आगे बोले, ‘‘...वैसे पहले मुझे यह पूरा भवन पहले दिखाइए, इसके बाद ही मैं बैठूंगा... यह स्थान तो हमारे लिए तीर्थस्थल है ! ’’

 

 

कक्ष में खड़े आचार्य द्विवेदी भारतेन्दु की लगी बड़ी-सी तस्वीर को एकटक निहार रहे हैं। देर तक ऐसे ही। जैसे सचमुच वह आत्म-संवाद करने लगे हों। सभी चुप। एक-दूसरे की ओर ताकते हुए सबके चेहरों पर उनके प्रति आदरप्रदर्शक मुस्कान और भावनात्मकता के लिए सम्मान के भाव। उनकी दृष्टि अब दीवारों पर रेंग रही हैं। खाली हिस्सों पर भी जैसे उन्हें बहुत कुछ सूझ रहा हो। यह क्रम भी लम्बा खिंचा। उनकी दृष्टि जैसे चप्पे-चप्पे को चूम रही हो।

 

 

दास ने धीमे स्वर में ध्यान खींचा, ‘‘आचार्यप्रवर, सीढ़ियों की ओर चलिए... दूसरे तल पर भारतेन्दु बाबू की वह गवाक्ष देखिए... जिसके सामने बैठ कर वह जग का मुजरा लेते थे...’’

 

 

निकल कर सभी बाहरी बरामदे में गये। सीढ़ियों पर कदम बढाने से पहले रूक गये हैं आचार्य द्विवेदी, ‘‘...प्रवेश करते समय ही मेरा ध्यान खिंचा था ...सीढ़ियों की बनावट और मेहराबें देखिए, कितनी कलात्मक हैं! ...’’

 

 

‘‘ हां! क्यों नहीं! इसे बनवाने वाले आखिर पुरखे किसके थे! भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के पूर्वज!! बंगाल से आने के बाद पुरखों ने बनारस में पहला मकान रामकटोरा पर और तत्पश्चात गंगतीर पर यहां इस चौखंबा क्षेत्र में यह कोठी बनवायी थी... भारतेन्दु बाबू अपने पूर्वज सेठ अमीचंद के नाम पर दर्ज ऐतिहासिक कलंक से बहुत विचलित थे... कहा जाता है, इसे धोने के लिए ही उन्होंने अपनी पैतृक सम्पत्ति को गंगधार में बदल दिया और मुक्तगति प्रवहमान बना दिया... ’’ दास ने संक्षेप में बताया।

 

 

‘‘ उन्होंने अपनी सम्पत्ति को चाहे भले बहा दिया हो, हमारे सांस्कृतिक-साहित्यिक भण्डार  को तो कुबेर का कुनबा बना दिया! किसी भी देश के इतिहास का निर्माण ऐसे ही तो होता  है... महापुरुष ऐसे ही होते हैं! ’’ बोलते हुए आचार्य द्विवेदी पीछे मुड़ कर दरवाजे के बगल में रखी पालकी और तामझाम को देख रहे हैं। दास ने सिर हिलाकर इशारा किया, ‘‘...यह उन्हीं की स्मृति कराती है! इसीलिए घर के लोगों ने इसे प्रवेश-द्वार के एकदम सामने सजा कर रखा हुआ है...’’

 

 

आचार्य द्विवेदी ने मुदित हो कर सिर हिलाया। सीढ़ियों की ओर बढे़। सभी पीछे-पीछे। झरोखा दिखाते हुए व्रज चन्द्र ने बताया, ‘‘...कहते हैं, चाचा जी जब अकेले होते थे तो चिन्तन- मनन की मनःस्थिति में अक्सर यहीं बैठते थे... और यहां... ’’ दूसरे तल्ले के बरामदे में पंहुचते ही संकेत किया, ‘‘ ..यहीं होती थीं तदीय समाज की बैठकें...’’

 

 

‘‘ यहीं?...’’ सुखद आश्चर्य से भर रूक गये हैं आचार्य द्विवेदी। अंग-अंग पुलकित। रोम- रोम से जैसे झर्-झर् अभिव्यक्ति छलकने लगी हो। मुखर और मुदित। स्वर पुलकित, शब्द-शब्द श्रद्धा-सिंचित, ‘‘...अहा! तब तो यह अनोखा पावन संकल्प-स्थल है! ’’ सभी उन्हीं की ओर ताक रहे हैं।

 

    

वह बोलते चले जा रहे हैं, ‘‘ ...तदीय समाज! अद्भुत कल्पना-संकल्पना थी भारतेन्दु बाबू की यह! तदीयका तात्पर्य आपलोग समझ ही रहे होंगे! ’’ सबने जिज्ञासापूर्वक उनकी ओर ताका। वह आगे बोलते चले गये, ‘‘...‘तद्अर्थात् वहयानि स्वयं ईश्वर... और इसी तद्से बना तदीय’... तो इसका अर्थ ठहरा उसी का’! अब देखिए, उनकी आस्था की विराटता और भक्ति में समर्पण की पूर्णता कि तदीय समाज में प्रार्थना और ईश-स्मरण तो होता था किंतु उसके संकल्प में ही यह सम्मिलित था कि भगवान से कुछ मांगा नहीं जायेगा... मैं तो बहुत मगज-मंथन के बाद भी आज तक यह नहीं समझ सका कि जीवन के मंच पर वह इतनी भिन्न- भिन्न भूमिकाएं आखिर सम्भव कैसे कर पाते थे! धुंआधार लेखन, पत्रकारिता, पत्र का सम्पादन-प्रकाशन, विशिष्ट सामाजिक व्यवहार-पहल, नाटक-मंचन, मित्र-मंडली का निर्वहन-संचालन और यात्राएं... अवश्य ही इतना कुछ वही साध सकता है जो सच्चा साधक हो... ’’

 


 

 

 

सम्पर्क

 

मोबाइल 7311192852

 

 


 


 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही महत्वपूर्ण अंश…सहित्यानुरागियों को यह पाठ अवश्य भाएगा।

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हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं