अमरेन्द्र पाण्डेय का समीक्षात्मक आलेख 'प्रतिरोधी काव्य चेतना की विवेकवान आलोचना'।

 


 

दलित लेखन आज जिस मुकाम पर दिखाई पड़ता है, उसमें उसकी प्रतिरोधी चेतना की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। आज इसका फलक काफी विस्तृत हो गया है। आत्मकथा से आगे बढ़ कर दलित लेखन की धमक अब आलोचना तक पहुंच चुकी है। दलित कविता की आलोचना को शिद्दत से देखने का प्रयास चैन सिंह की आलोचना में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। हाल ही में युवा आलोचक चैन सिंह मीणा की दलित आलोचना पर केंद्रित एक महत्त्वपूर्ण किताब आयी है : 'हिंदी दलित कविता : रचना प्रक्रिया' इस किताब की आलोचनात्मक पड़ताल की है अमरेन्द्र पाण्डेय ने।  आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं अमरेन्द्र पाण्डेय का समीक्षात्मक आलेख 'प्रतिरोधी काव्य चेतना की विवेकवान आलोचना'           

     

 

     प्रतिरोधी काव्य चेतना की विवेकवानआलोचना

      

                                                                 

     अमरेन्द्र पाण्डेय

 

 

 

दलित साहित्य की चेतना एक लंबी अवधि या कहें कि अनेकानेक पूर्वाग्रहों, असमानताओं और पक्षपातों के विरोध से निर्मित हुई है। उल्लेखनीय है कि आज का दलित लेखन बहुत कुछ नया दे रहा है। इससे उम्मीदें जागी हैं, सामाजिक न्याय के लिए चेतना का फ़लक विस्तृत हुआ है। आज के परिदृश्य में दलित साहित्य स्वानुभूति और सहानुभूति तथा दलित ही दलित लेखन कर सकता है जैसी संकीर्ण मानसिकता से बाहर आने के लिए छटपटा रहा है। नामवर सिंह ने कहा था कि साहित्य में आरक्षण जैसी कोई बात नहीं होती इस वक्तव्य को दलित रचनाकारों ने सिरे से ख़ारिज कर दिया था और यह कहा कि दलित जीवन पर दलित द्वारा लिखा गया साहित्य ही केवल दलित साहित्य है। अभी तक यह आरोप लगता रहा है कि दलित लेखन पर समुचित विमर्श नहीं हो रहा है। जो हो रहा है उसके संदर्भ में यह कहा गया कि हिंदी आलोचना की तर्ज पर ही दलित कृतियों की समीक्षाएँ की जा रही हैं जबकि दलित की व्यथा अलग है। यह भी धारणा इधर प्रचलित रही है कि पारंपरिक मानदंड से की गई समीक्षा दलित सौंदर्य शास्त्र को कमतर कर देती है। युवा आलोचक चैन सिंह मीना के द्वारा रचित पुस्तक हिंदी दलित कविता : रचना-प्रक्रिया इन्हीं सवालों को व्यापक धरातल पर उठाती है। यह पुस्तक गंभीर अध्ययन और शोध के बाद लिखी गई है जो इस धारणा को खंडित करती है कि दलित लेखन अभी पर्याप्त मात्रा में नहीं हुआ है, आत्म-कथा से आगे नहीं बढ़ा है, उसका कोई मजबूत वैचारिक आधार नहीं है बल्कि पुस्तक इस बात को जोरदार तरीके से स्थापित करती है कि आज जो भी दलित लेखन किया जा रहा है उसका सैद्धांतिक आधार अंबेडकरवादी विचारधारा के साथ-साथ बुद्ध और फुले की विचारधारा से भी जुड़ी हुई है।

 

 

 

दलित रचनाकारों ने आज तक जो विकास यात्रा तय की है वह वर्ण-वर्ग संघर्ष की है। अनुभवों-पीड़ाओं की अधिक है। इन्हीं अनुभूतियों की सशक्त अभिव्यक्ति दलित कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से करने की कोशिश की है। चैन सिंह ने भी अपनी इस पुस्तक के माध्यम से दलित कविता की पहचान को मज़बूती के साथ समझाने का प्रयास किया है। साहित्य जगत का ध्यान दलित कविता की ओर ले जाने का प्रयास अपने बहुत से लेखों के माध्यम से किया है। जिससे पाठकों को दलित कविता के भीतर के दर्द और दर्शन को समझने में आसानी हो। वर्तमान दौर में भी दलित कविता अपनी अभिव्यक्ति में प्रखर और सार्थक बनी हुई है। चैन सिंह पुस्तक के पहले ही लेख में हिंदी दलित कविता की असहमति की परंपरा की व्यापक पड़ताल करते हैं। ऐसे लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह दलित कविता की आलोचना को बहुत गहराई से उभारने में कामयाब पुस्तक है। यहाँ दलित कवियों के द्वारा वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ़ व्यक्त आक्रोश और विद्रोह के स्वरूप का सूक्ष्म विश्लेषण है। वे रेखांकित करते हैं कि इस विरोध या विद्रोह के मूल में सामाजिक स्वतंत्रता और समता की पक्षधरता है। केवल विरोध के लिए विरोध नहीं है। यदि आक्रोश स्वतंत्रता (विशेषतः सामाजिक स्वतंत्रता जो अभी भी दलित समाज के लिए स्वप्न है) के लिए है तो यह कहीं से भी अनुचित नहीं। दरअसल कविता के माध्यम से दलित समाज के पक्ष में दीर्घकालीन संघर्ष जारी है। इस पुस्तक में हिंदी की पहली दलित कविता अछूत की शिकायत से ले कर आज तक की हिंदी दलित काव्य परंपरा और उसके विभिन्न आयामों का विश्लेषण यहाँ है। (भूमिका से) यदि समाज का संघर्ष अलग है तो रचनात्मकता और आलोचना के टूल्स भी अलग होंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में यह पुस्तक समीक्षा के परंपरागत सौंदर्य बोध से अपने को अलग करती है। दलित काव्य की रचनात्मकता में स्मृतियाँ तो हैं लेकिन वे संघर्षरत समुदायों की हैं, पीड़ाओं और दु:खों की अभिव्यक्तियों की अधिक हैं। आदर्शवादी नहीं बल्कि यथार्थवादी हैं। आलोच्य पुस्तक में दलित कविता की विषय वस्तु के चयन से ले कर उस पर हो रही पारंपरिक समीक्षा के पुनर्मूल्यांकन पर बल दिया गया है। दलित कविता में  स्वानुभूत अनुभव का जोर विषयवस्तु के रूप में अधिक है ना कि पौराणिक चरित्रों, महापुरुषों की गाथा के रूप में। अगर कहीं है भी तो पुनर्मूल्यांकन करते हुए। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जो सामाजिक अन्याय दलित समाज के साथ हुआ उसका मुखर विरोध हिंदी दलित काव्य में दर्ज़ है। चैनसिंह बार-बार दलित कवियों के इतिहास बोध के स्वरूप, शोषण की दीर्घ परंपरा के नकार के साहस, परिवर्तन की पक्षधरता आदि पर केंद्रित होते हैं।

 

 

हिंदी दलित कविता : रचना-प्रक्रिया पुस्तक दो स्तरों पर दलित कविता की पड़ताल करती है। पहला, दलित कविता की इतिहास दृष्टि और दूसरा दलित कविता के मूल्यांकन का सौंदर्यशास्त्र की। जब हम इतिहास दृष्टि की बात करते हैं तो अतीत से वर्तमान तक की विकास यात्रा की बात करते हैं। यह देखने की कोशिश करते हैं कि बदलते दौर में सामाजिक ढाँचों में कैसा बदलाव/ परिवर्तन हुआ है। इस पुस्तक में दलित कविता की इसी नए अंदाज में जाँच-पड़ताल की गयी है। ऐतिहासिक चरित्रों और मिथकों को नए अर्थ देने की कोशिश जिस तरह से दलित कवियों के द्वारा की जा रही है, वह परंपरागत काव्य से नितांत भिन्न और अलग है। यह प्रतिरोधी चेतना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि दलित समाज से जुड़े पात्र मुख्य धारा के काव्य में उपेक्षा के पात्र ही बनते रहे। चैन सिंह ने इस महत्त्वपूर्ण विषय का मूल्यांकन वैचारिकी के परिप्रेक्ष्य में किया है। आधुनिक काल में फुले-अंबेडकरवादी विचारधारा ने नायकत्व की तथाकथित परंपरा को ख़ारिज करने का आत्मबल और नैतिक साहस प्रदान किया। यही कारण है कि दलित काव्य धारा के अंतर्गत शंबूक की हत्या वाली परंपरित घटना को विद्रोहऔर नकारके रूप में देखने की कोशिश की है। कंवल भारती की काव्य पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि दलित कवियों ने स्थापित चरित्रों को देखने का नज़रिया बदला है, यह इस काव्यधारा की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है

 

                    

शंबूक! (हम जानते हैं)

                    

तुम उल्टे होकर तपस्या नहीं कर रहे थे

तुम्हारी तपस्या एक आंदोलन थी

जो व्यवस्था को उलट रही थी। (पृ. 101)

 

 

यह पुस्तक पारंपरिक काव्य मूल्यांकन से अलग विमर्श खड़ा करती है तथा भाषा, मिथक और प्रतीकों को नए संदर्भों में व्यक्त करती है। चैन सिंह अपनी समीक्षा में विचारधारा के स्तर पर भी स्पष्ट हैं। वे अंबेडकर के साथ-साथ महात्मा बुद्ध, संत कबीर, संत रविदास, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले आदि के समन्वित चिंतन की एकरूपता को दलित काव्यधारा का आधार स्तम्भ मानते हैं। पुस्तक के अंतर्गत इसी परिप्रेक्ष्य में विविध वैचारिक आयामों के तहत सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक बदलावों को समग्रता में दिखाने की कोशिश की गई है। आदर्श से परे यथार्थ केंद्रित कविता लेख नए किस्म के सौंदर्य-शास्त्र को रेखांकित करता है। अखिल भारतीय परिवेश की गहन पड़ताल यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में की गई है ना कि आदर्शवादी नजरिए से। वे विमल थोराट के इस कथ्य से लेख की समाप्ति करते हैं कि दलित कविता, दलित जीवन के यथार्थ की कविता है, उसने दलित जीवन के हर क्षण, हर पीड़ा, हर एक वेदना और क्रांति गर्भ संवेदना को साकार किया है। (पृ. 130) ध्यान देने की बात है कि यह युवा आलोचक उन्हीं दलित कविताओं को अपने मूल्यांकन का आधार बनाता है जहाँ वस्तुगत यथार्थ की तस्वीर किसी भावावेश में हो कर नहीं रही है, बल्कि उसका खंडन क्रूर यथार्थ की सच्चाई को बयां करती रही है। उन्हीं उदाहरणों को जगह दी गई है जो दलित जीवन को हाशिये से बाहर निकाल कर उनमें चेतना और जागरूकता का प्रसार करते दिखाई देते हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की पंक्तियाँ इसी तरह की सोच को दर्शाती हैं-

           

 

छूना भी जिन्हें पाप

जाति कही जाए जिनकी नीच

आप बता सकते हैं

यह किस सभ्यता

और संस्कृति की देन है। (पृ. 128)

 

 

यह सच है कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता शरणागत और आथित्य को सबसे बड़ा मूल्य मानती है लेकिन उसकी कोख़ में इस तरह के विचार पल रहे हों तो इसका विरोध होना लाज़िमी है और इस सांस्कृतिक मूल्य संकीर्णता का विरोध दलित कवियों के द्वारा किया गया है। जहाँ उन्हें मुख्य धारा से काट कर देखा जाता रहा, उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार किया गया। इस तरह के व्यवहार के विरोध में दलित कविताएँ अपनी आवाज़ बुलंद करती दिखाई पड़ती हैं। चैन सिंह अपनी आलोचना के माध्यम से उस वर्चस्ववादी संस्कृति और मिथ्या ढोंग को बेनकाब करते हैं जिसके माध्यम से दलितों का सदियों तक शोषण किया जाता रहा।  

 

 

 


 

 

 

यह पुस्तक दलित साहित्य में परिवर्तनशीलता के पक्ष को भी रेखांकित करती है। दलित चेतना की परिणति : नकार और विद्रोह’, दलित चेतना और अस्मिता की पड़ताल’, दलित अंतर्विरोध का चित्रण’, स्त्री जीवन : संवेदना और सरोकार’, युवा स्वर : नए समाज का स्वप्न आदि लेख दलित जीवन के संघर्ष और बदलते हुए यथार्थ अनुभवों को बड़े ही विश्वास के साथ उद्घाटित करते हैं। पारंपरिक साहित्य से अलग जिस वस्तु की तलाश दलित रचनाकार करता है उसको युवा आलोचक चैन सिंह मीना नए सौंदर्यशास्त्र के रूप में देखते हैं। इस सौंदर्यशास्त्र में परिवर्तनशीलता शामिल है चाहे वह विसंगति को दिखाने के साथ हो या सामान्य स्थितियों, यथार्थ को ले कर के हो। वे उसका नग्न यथार्थ चित्रण करने के पक्ष में नहीं है बल्कि उनके मूल्यांकन का आधार वही चिंतन या कविता बन रही है जिन्होंने उत्पीड़न शोषण के खिलाफ़ मोर्चा खोला है। उनका विश्लेषण पक्ष परिवर्तन की बात करता है ना कि उन कवियों की कविता का जो कल्पना, मिथकों, शैली और चमत्कार को महत्त्व देते हैं, विश्लेषित करते हैं।

 

 

दलित रचनाकारों का आरोप है कि जाति हमारे जन्म के साथ ही चस्पा कर दी जाती है। जातियों के आधार पर उनका मानसिक शोषण होता रहा है। शिक्षा और चेतना के प्रसार से नई पीढ़ी जाति के अपमान को अब बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। दलित समुदाय ने गाँव, शहर, स्कूल, कॉलेज आदि जगहों पर जाति का दंश झेला है। यह पुस्तक जाति के क्रूर सवालों को बखूबी उठाती है। चैन सिंह लिखते हैं- जाति दलित जीवन की सबसे बड़ी समस्या है। यही दलित शोषण की धुरी भी है। जाति के नाम पर ही सारे शोषण इजाफा पाते हैं। अतः दलित कवियों ने जाति आधारित शोषण को व्यापक फ़लक पर उकेरा है। (पृ. 105) जाति दलित जीवन की स्मृतियों में रची-बसी थी। लेकिन अब दलित समुदाय में जाग्रत हो रही प्रतिरोध की चेतना की वजह से वह कम हुई है। आज की स्थिति में जाति के संदर्भ को चैन सिंह मुख्य धारा और दलित समाज के बीच द्वंद से आगे अंतर्द्वंद की स्थिति तक पहुँचते हुए देख रहे हैं। ओम प्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित फंदा शीर्षक कविता के माध्यम से वे बदली हुई परिस्थितियों को स्पष्ट करते हैं-

              

 

जाने किस हरामजादे ने

तुम्हारे गले में

डाल दिया है जाति का फंदा

जो तुम्हें जीने देता है

हमें। (पृ. 105)

 

 

स्त्री जीवन : संवेदना और सरोकार’, और हिंदी दलित कविता का निकष : रजनी तिलक की कविताएँ इस पुस्तक के महत्त्वपूर्ण लेखों में हैं जिन्हें ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए। ये लेख दलित स्त्री रचनाकारों उनके दृष्टिकोण पर भी बल देते हैं। ये लेख इस बात की पुष्टि करते हैं कि सदियों से प्रताड़ित स्त्री जीवन और उसकी पीड़ाओं को यहाँ बड़ी ही बेबाकी से व्यक्त किया गया है। दलित लेखिकाओं की रचनाओं का आगमन देर से ही सही, एक क्रांतिकारी कदम है। इस पुस्तक में रजनी तिलक, सुशीला टाँकभौरे, रजत रानी मीनू’, अनीता भारती, कौशल पँवार, पूनम तुषामड़, रजनी अनुरागी जैसी महत्त्वपूर्ण कवयित्रियों की रचनाओं को विविध आयामों में उद्धृत किया गया है। ये कवयित्रियाँ अपनी रचनाओं के माध्यम से शोषण से मुक्त नारी की कामना करती हैं। उदाहरणस्वरूप रजनी तिलक व्यापक परिप्रेक्ष्य में औरत को महत्त्व देती हैं ना कि उन्हें जाति, वर्ग, वर्ण में विभाजित मान कर वर्गीकरण करती हैं। वे लिखती हैं-

 

 

औरत औरत होती है

उसका कोई धर्म

कोई जात होती है। (पृ. 240)

 

 

दलित स्त्रियों के जीवन और उनके अधिकारों के संदर्भ में इन लेखों के अंतर्गत बड़ी गहराई से पड़ताल की गई है। यह मेरे विचार में स्त्री जीवन की पड़ताल का मौलिक पक्ष है जो दलित आलोचना की पुस्तकों में कम दिखाई देता है। यह पुस्तक इस मायने में भी खास है कि इसमें एक साथ पुरानी और नयी पीढ़ी की रचनात्मकता और उसकी विविध आयामों में आलोचना मौजूद है। दलित साहित्यकारों ने इतिहास और सामाजिक व्यवस्था पर गंभीर चिंतन करते हुए अपनी रचनात्मक सक्रियता को कविता, कहानी, उपन्यास और आत्मकथाओं के माध्यम से सम्मुख रखा है। चैन सिंह अपने कई लेखों में इसे तर्कपूर्ण ढंग से विश्लेषित करते हैं। युवा स्वर : नए समाज का स्वप्न लेख नवोदित दलित रचनाकारों के चिंतन और दर्शन को बखूबी व्यक्त करता है। किसी भी आयाम में मूल्यांकन का प्रश्न हो यह आलोचक बुद्धिजीवी सतर्कता का दामन नहीं छोड़ता। इसी बौद्धिक सतर्कता तार्किकता के साथ दलित रचनात्मकता की उर्वर भावभूमि को रेखांकित करता है। चैन सिंह यह स्थापित करते हैं कि दलित साहित्यकारों की रचनात्मकता सीमित नहीं बल्कि विभिन्न विधाओं तक व्याप्त है। वे अपने प्रतीक और बिंब स्वयं गढ़ रहे हैं। सूरज बड़त्या की कविता कविराज को उद्धृत करते हुए यह बताने में सफल हैं कि पारंपरिक प्रतीकों की बजाए ये नए रचनाकार नए प्रतीक के लिए दृढ़ संकल्पित हैं-

 

           

दलितों के पसीने की महक पर

तुम क्यों नहीं ठसके कविराज?

राधा के चेहरे की पीड़ा

तुम्हें क्यों नहीं दिखी कविराज? (पृ. 186)

 

 

हालाँकि इस पुस्तक में उदाहरण के तौर पर ऐसे कवियों उद्धृत किया गया है जो शायद कुछ वर्षों के बाद उनकी दलित साहित्य के परिप्रेक्ष्य से ओझल हो जाएँ। इसका कारण है कविताओं में आक्रोश और तत्कालीन परिवेश पर ही अधिक केंद्रित होना। आक्रोश स्वाभाविक है लेकिन उसके एवज में विकल्प कहाँ है? इतिहास बोध और भविष्य की रूपरेखा का गाम्भीर्य कहाँ है? नहीं भूलना चाहिए कि ये दोनों स्थितियों के प्रति सचेत होकर दलित समाज तत्कालीन परिवेश की क्रूरता का शिकार होता रहा है। ऐसे में कवियों के चयन में आलोचक को सावधानी बरतनी चाहिए। अब दलित साहित्य की परिस्थितियाँ बदल गयी हैं। हिंदी में दलित साहित्य का अध्ययन और शोध काफी मात्रा में हो रहा है। शुरुआती दौर में यह साहित्य जैसा भी माना गया लेकिन आज- दलित साहित्य क्रांतिकारी साहित्य है। मिमियाने या घिघियाने वाला नहीं हैं। दलित साहित्य दया या करुणा का नहीं तेजस्वी साहित्य है। (नामवर सिंह ने पंकज श्रीवास्तव को दिए अपने इंटरव्यू में यह बात कही) इस पुस्तक में ऐसा कोई सैद्धांतिक पक्ष नहीं जिसका चैन सिंह ने शोधपूर्ण दृष्टि से विश्लेषण नहीं किया हो। दलित समाज और साहित्यिक जगत में व्याप्त दलित अंतर्विरोध पर भी चैनसिंह खुल कर लिखते हैं। एकता के मूल बिन्दुओं की पहचान पर भी केंद्रित होते देखा जा सकता है। ऐसे में मुझे लगता है कि यह पुस्तक दलित कविता के मूल्यांकन के स्तर पर अब तक की मुकम्मल पुस्तक है। इस पुस्तक के संदर्भ में बतौर जितेंद्र श्रीवास्तव- इस पुस्तक के अलग-अलग अध्यायों में चैन सिंह ने गहरी अंतर्दृष्टि से परिश्रमपूर्वक दलित काव्य के लगभग सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों का उदघाटन किया है। एक पूरा अध्याय दलित कविता से संबंधित प्रश्नों के मूल्यांकन का है। इसी प्रकार एक अन्य अध्याय में हीरा डोम की भोजपुरी में लिखी प्रसिद्ध कविता अछूत की शिकायत का तीक्ष्ण विश्लेषण है। (फ्लैप से)

 

 

इस पुस्तक में प्रो. जितेंद्र श्रीवास्तव के साथ चैन सिंह मीना के द्वारा लिया गया एक साक्षात्कार संकलित है जो दलित साहित्य के बहुरंगी स्वर को उभारने में सहायक है। दलित समाज ने जिन दोहरे सांस्कृतिक मूल्यों की पीड़ाओं को झेला है उनसे यह साक्षात्कार बखूबी परिचय कराता है। निश्चित तौर पर दलित साहित्य की जमीन अब बदल रही है। सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक विसंगतियों को ले कर केवल आक्रोश ही नहीं बल्कि बदलाव की आहट दलित साहित्यकारों की चिंतन भूमि का हिस्सा बन रही है। दलित साहित्य को अपने अलग सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता क्यों पड़ी? जैसे अहम और बुनियादी सवालों को यह पुस्तक बार-बार उठाती है। अपनी आलोचना में चैन सिंह दलित साहित्य के उद्गम की पड़ताल करते दिखाई देते हैं, वर्तमान पर केंद्रित होते हैं, भविष्य की संभावनाओं पर भी कुछ सूत्र सामने रखते हैं। कुल मिला कर युवा आलोचक चैन सिंह मीना की आलोचकीय दृष्टि समाजशास्त्रीय और नवइतिहासवादी अधिक है। यही कारण है कि इस आलोच्य पुस्तक में दलित विचारधारा और उसकी साहित्यिक बहुलार्थकता के संबंधों पर अधिक ज़ोर है। इतिहास और समाज के परंपरावादी मानदंडों पर भी सवाल हैं। कोई बात अकारण नहीं है, संदर्भों के साथ है। अंततः यह कहने में कोई संकोच नहीं कि युवा आलोचक चैन सिंह मीना ने अपनी पहली पुस्तक से ही अनेक संभावनाओं को जन्म दिया है। संभवतः दलित आलोचना की दूसरी परंपरा यहाँ से विकसित होगी।

 

 

समीक्ष्य पुस्तक : हिंदी दलित कविता : रचना प्रक्रिया’, डॉ. चैनसिंह मीना, भावना प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, मूल्य : ₹ 750

 

 

 

 

 


 

 

 

 सम्पर्क


डॉ. अमरेंद्र पांडेय
खालसा कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
 
मोबाईल : +919871940171


 

 

 

 

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