भगत सिंह का आलेख ‘ मैं नास्तिक क्यों हूँ?’
भगत सिंह |
मनुष्य के विकास की प्रक्रिया में प्रकृति को समझने की प्रवृत्ति ने उस गल्प को बढावा दिया जिसने एक लम्बे समय के लिए मानव-मस्तिष्क में जड जमा लिया इस समय के मनुष्य ने सृष्टि के निर्माण के लिए उस अलौकिक शक्ति की परिकल्पना की जिसे ईश्वर कहा गया। आगे चल कर जब मनुष्य में तर्क करने की क्षमता का विकास हुआ तो उसने जीवन और जगत को समझने का प्रयास किया। इसी क्रम में विज्ञान का आविर्भाव हुआ। विज्ञान ने तर्क के जरिए कपोल कल्पनाओं को न केवल हतोत्साहित किया बल्कि वास्तविक सत्य की तरफ चलने के लिए उन्मुख भी किया। विज्ञान ने उस गप्प की भी पोल खोली जो प्रकृति को समझने के क्रम में तत्कालीन मनुष्य ने परिकल्पित किया था। मसलन सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के बारे में राहु और केतु की जो कहानी गढी गयी थी, वह अब मात्र कहानी बन कर रह गई। आज समूची दुनिया सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के पीछे के रहस्य को जानती समझती है। भगत सिंह ऐसे क्रांतिकारी थे जो बहुत कम उम्र में ही वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण हो गए थे। उनके लेख इस बात की गवाही देते हैं। भगत सिंह का एक चर्चित आलेख है ‘ मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ इस आलेख को इसलिए भी पढना चहिए कि ढकोसलों के खिलाफ कैसे तार्किक ढंग से खडा हुआ जा सकता है। आइए आज पहली बार पर पढते हैं भगत सिंह का आलेख ‘ मैं नास्तिक क्यों हूँ?’
मैं नास्तिक क्यों हूं?
भगत सिंह
एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूं? मेरे कुछ दोस्त (शायद ऐसा कह कर, मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूं) मेरे साथ अपने थोड़े से संपर्क में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ ज़रूरत से ज़्यादा आगे जा रहा हूं और मेरे घमंड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिए उकसाया है।
मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूं। मैं एक मनुष्य हूं, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अंदर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कॉमरेडों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहां तक कि मेरे दोस्त श्री बटुकेश्वर कुमार दत्त भी मुझे कभी-कभी ऐसा कहते थे। कई मौक़ों पर स्वेच्छाचारी कह मेरी निंदा भी की गई। कुछ दोस्तों को शिकायत है और गंभीर रूप से है कि मैं अनचाहे ही अपने विचार उन पर थोपता हूं और अपने प्रस्तावों को मनवा लेता हूं। यह बात कुछ हद तक सही है। इससे मैं इनकार नहीं करता। इसे अहंकार कहा जा सकता है। जहां तक अन्य प्रचलित मतों के मुक़ाबले हमारे अपने मत का सवाल है, मुझे निश्चय ही अपने मत पर गर्व है। लेकिन यह व्यक्तिगत नहीं है। ऐसा हो सकता है कि यह केवल अपने विश्वास के प्रति न्यायोचित गर्व हो और इसको घमंड नहीं कहा जा सकता। घमंड तो स्वयं के प्रति अनुचित गर्व की अधिकता है।
क्या यह अनुचित गर्व है, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया? अथवा इस विषय का ख़ूब सावधानी से अध्ययन करने और उस पर ख़ूब विचार करने के बाद मैंने ईश्वर पर अविश्वास किया?मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूं कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है। वास्तव में किसी महान व्यक्ति की महानता को मैं मान्यता न दूं - यह तभी हो सकता है, जब मुझे भी थोड़ा ऐसा यश प्राप्त हो गया हो जिसके या तो मैं योग्य नहीं हूं या मेरे अंदर वे गुण नहीं हैं, जो इसके लिए आवश्यक हैं। यहां तक तो समझ में आता है। लेकिन यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बंद कर दे? दो ही रास्ते संभव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वंद्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनों ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता।
पहली अवस्था में तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी के अस्तित्व को नकारता ही नहीं है। दूसरी अवस्था में भी वह एक ऐसी चेतना के अस्तित्व को मानता है, जो पर्दे के पीछे से प्रकृति की सभी गतिविधियों का संचालन करती है। मैं तो उस सर्वशक्तिमान परम आत्मा के अस्तित्व से ही इनकार करता हूं। यह अहंकार नहीं है, जिसने मुझे नास्तिकता के सिद्धांत को ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। मैं न तो एक प्रतिद्वंद्वी हूं, न ही एक अवतार और न ही स्वयं परमात्मा। इस अभियोग को अस्वीकार करने के लिए आइए तथ्यों पर गौर करें। मेरे इन दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षड्यंत्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूं। मेरा नास्तिकतावाद कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है। मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब मैं एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को नहीं पाल-पोस सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाए। यद्यपि मैं कुछ अध्यापकों का चहेता था तथा कुछ अन्य को मैं अच्छा नहीं लगता था। पर मैं कभी भी बहुत मेहनती अथवा पढ़ाकू विद्यार्थी नहीं रहा। अहंकार जैसी भावना में फंसने का कोई मौक़ा ही न मिल सका। मैं तो एक बहुत लज्जालु स्वभाव का लड़का था, जिसकी भविष्य के बारे में कुछ निराशावादी प्रकृति थी।
मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डी.ए.वी. स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त मैं घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उन दिनों मैं पूरा भक्त था। बाद में मैंने अपने पिता के साथ रहना शुरू किया। जहां तक धार्मिक रूढ़िवादिता का प्रश्न है, वह एक उदारवादी व्यक्ति हैं। उन्हीं की शिक्षा से मुझे स्वतंत्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किंतु वे नास्तिक नहीं हैं। उनका ईश्वर में दृढ़ विश्वास है। वे मुझे प्रतिदिन पूजा-प्रार्थना के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन-पोषण हुआ।
असहयोग आंदोलन के दिनों में राष्ट्रीय कालेज में प्रवेश लिया। यहां आ कर ही मैंने सारी धार्मिक समस्याओं- यहां तक कि ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उदारतापूर्वक सोचना, विचारना तथा उसकी आलोचना करना शुरू किया। पर अभी भी मैं पक्का आस्तिक था। उस समय तक मैं अपने लंबे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी भी सिख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धांतों में विश्वास न हो सका था। किंतु मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रांतिकारी पार्टी से जुड़ा। वहां जिस पहले नेता से मेरा संपर्क हुआ वे तो पक्का विश्वास न होते हुए भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस ही नहीं कर सकते थे। ईश्वर के बारे में मेरे हठपूर्वक पूछते रहने पर वे कहते, ‘जब इच्छा हो, तब पूजा कर लिया करो।’ यह नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है। दूसरे नेता, जिनके मैं संपर्क में आया, पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचींद्र नाथ सान्याल आजकल काकोरी षड्यंत्र केस के सिलसिले में आजीवन कारावास भोग रहे हैं। उनकी पुस्तक ‘बंदी जीवन’ ईश्वर की महिमा का जोर-शोर से गान है। उन्होंने उसमें ईश्वर के ऊपर प्रशंसा के पुष्प रहस्यात्मक वेदांत के कारण बरसाए हैं। 28 जनवरी, 1925 को पूरे भारत में जो ‘दि रिवोल्यूशनरी’ (क्रांतिकारी) पर्चा बांटा गया था, वह उन्हीं के बौद्धिक श्रम का परिणाम है। उसमें सर्वशक्तिमान और उसकी लीला एवं कार्यों की प्रशंसा की गई है।
मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रांतिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। काकोरी के सभी चार शहीदों ने अपने अंतिम दिन भजन-प्रार्थना में गुजारे थे। राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ एक रूढ़िवादी आर्य समाजी थे। समाजवाद तथा साम्यवाद में अपने वृहद अध्ययन के बावजूद राजेन लाहड़ी उपनिषद एवं गीता के श्लोकों के उच्चारण की अपनी अभिलाषा को दबा न सके। मैंने उन सब में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति को देखा, जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहता था, ‘दर्शन शास्त्र मनुष्य की दुर्बलता अथवा ज्ञान के सीमित होने के कारण उत्पन्न होता है।’ वह भी आजीवन निर्वासन की सज़ा भोग रहा है। परंतु उसने भी ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की कभी हिम्मत नहीं की।
इस समय तक मैं केवल एक रोमांटिक आदर्शवादी क्रांतिकारी था। अब तक हम दूसरों का अनुसरण करते थे। अब अपने कंधों पर ज़िम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रांतिकारी जीवन का एक निर्णायक बिंदु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूंज रही थी- विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गंभीर विचारों ने ले ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अंधविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना।
मुझे विश्वक्रांति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का ख़ूब मौक़ा मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किंतु अधिक लेनिन, त्रात्स्की व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रांति लाए थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलंब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अंत तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की।
मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था। मई, 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफसरों ने मुझे बताया कि मैं लखनऊ में था, जब वहां काकोरी दल का मुक़दमा चल रहा था, कि मैंने उन्हें छुड़ाने की किसी योजना पर बात की थी, कि उनकी सहमति पाने के बाद हमने कुछ बम प्राप्त किए थे, कि 1927 में दशहरा के अवसर पर उन बमों में से एक परीक्षण के लिए भीड़ पर फेंका गया, कि यदि मैं क्रांतिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला एक वक्तव्य दे दूं, तो मुझे गिरफ़्तार नहीं किया जाएगा और इसके विपरीत मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किए बग़ैर रिहा कर दिया जाएगा और इनाम दिया जाएगा। मैं इस प्रस्ताव पर हंसा। यह सब बेकार की बात थी। हम लोगों की भांति विचार रखने वाले अपनी निर्दोष जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सुबह सीआईडी के वरिष्ठ अधीक्षक श्री न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो वे मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षड्यंत्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिए मुक़दमा चलाने पर बाध्य होंगे और उनके पास मुझे सज़ा दिलाने व फांसी पर लटकवाने के लिए उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफसरों ने मुझे नियम से दोनों समय ईश्वर की स्तुति करने के लिए फ़ुसलाना शुरू किया। पर अब मैं एक नास्तिक था।
मैं स्वयं के लिए यह बात तय करना चाहता था कि क्या शांति और आनंद के दिनों में ही मैं नास्तिक होने का दंभ भरता हूं या ऐसे कठिन समय में भी मैं उन सिद्धांतों पर अडिग रह सकता हूं। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिए भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूं। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सांत्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। तूफ़ान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की इन घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जाता है और मनुष्य अपने विश्वास को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता। यदि ऐसा करता है, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं वरन कोई अन्य शक्ति है।
आज बिलकुल वैसी ही स्थिति है। निर्णय का पूरा-पूरा पता है। एक सप्ताह के अंदर ही यह घोषित हो जाएगा कि मैं अपना जीवन एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूं। इस विचार के अतिरिक्त और क्या सांत्वना हो सकती है? ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिंदू पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है। एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनंद की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिए पुरस्कार की कल्पना कर सकता है। किंतु मैं क्या आशा करूं? मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा- वह अंतिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएंगे। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी सी जूझती हुई ज़िंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी- यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो। बिना किसी स्वार्थ के यहां या यहां के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतंत्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा। वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्प्रेरित होंगे। इस लिए नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है- यहां या अगले जन्म में या मृत्योपरांत स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शांति स्थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा। क्या वे उस रास्ते पर चलेंगे जो उनके अपने लिए ख़तरनाक किंतु उनकी महान आत्मा के लिए एकमात्र कल्पनीय रास्ता है? क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को अहंकार कह कर उसका गलत अर्थ लगाया जाएगा? कौन इस प्रकार के घृणित विशेषण बोलने का साहस करेगा? या तो वह मूर्ख है या धूर्त। हमें चाहिए कि उसे क्षमा कर दें, क्योंकि वह उस हृदय में उद्वेलित उच्च विचारों, भावनाओं, आवेगों तथा उनकी गहराई को महसूस नहीं कर सकता। उसका हृदय मांस के एक टुकड़े की तरह मृत है। उसकी आंखों पर अन्य स्वार्थों के प्रेतों की छाया पड़ने से वे कमज़ोर हो गई हैं। स्वयं पर भरोसा रखने के गुण को सदैव अहंकार की संज्ञा दी जा सकती है। यह दुखपूर्ण और कष्टप्रद है, पर चारा ही क्या है?
आलोचना और स्वतंत्र विचार एक क्रांतिकारी के दोनों अनिवार्य गुण हैं। क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी परम आत्मा के प्रति विश्वास बना लिया था। अतः कोई भी व्यक्ति जो उस विश्वास की सत्यता या उस परम आत्मा के अस्तित्व को ही चुनौती दे, उसको विधर्मी, विश्वासघाती कहा जाएगा। यदि उसके तर्क इतने अकाट्य हैं कि उनका खंडन वितर्क द्वारा नहीं हो सकता और उसकी आस्था इतनी प्रबल है कि उसे ईश्वर के प्रकोप से होने वाली विपत्तियों का भय दिखा कर दबाया नहीं जा सकता तो उसकी यह कह कर निंदा की जाएगी कि वह वृथाभिमानी है। यह मेरा अहंकार नहीं था जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया। मेरे तर्क का तरीका संतोषप्रद सिद्ध होता है या नहीं इसका निर्णय मेरे पाठकों को करना है, मुझे नहीं। मैं जानता हूं कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यंत शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किंतु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूं। मैं अंतःप्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं। इस ध्येय में मैं सदैव सफल नहीं हुआ हूं।
प्रयास करना मनुष्य का कर्तव्य है। सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है। कोई भी मनुष्य, जिसमें तनिक भी विवेक शक्ति है, वह अपने वातावरण को तार्किक रूप से समझना चाहेगा। जहां सीधा प्रमाण नहीं है, वहां दर्शन शास्त्र का महत्व है। जब हमारे पूर्वजों ने फ़ुर्सत के समय विश्व के रहस्य को, इसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य को, इसके क्यों और कहां से, को समझने का प्रयास किया तो सीधे परिणामों के कठिन अभाव में हर व्यक्ति ने इन प्रश्नों को अपने ढंग से हल किया। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में हमको इतना अंतर मिलता है, जो कभी-कभी वैमनस्य तथा झगड़े का रूप ले लेता है। न केवल पूर्व और पश्चिम के दर्शनों में मतभेद है, बल्कि प्रत्येक गोलार्द्ध के अपने विभिन्न मतों में आपस में अंतर है।
पूर्व के धर्मों में, इस्लाम तथा हिंदू धर्म में जरा भी अनुरूपता नहीं है। भारत में ही बौद्ध तथा जैन धर्म उस ब्राह्मणवाद से बहुत अलग हैं, जिसमें स्वयं आर्य समाज व सनातन धर्म जैसे विरोधी मत पाए जाते हैं। पुराने समय का एक स्वतंत्र विचारक चार्वाक है। उसने ईश्वर को पुराने समय में ही चुनौती दी थी। हर व्यक्ति अपने को सही मानता है। दुर्भाग्य की बात है कि बजाय पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को भविष्य में अज्ञान के विरुद्ध लड़ाई का आधार बनाने के हम आलसियों की तरह, जो हम सिद्ध हो चुके हैं, उनके कथन में अविचल एवं संशयहीन विश्वास की चीख-पुकार करते रहते हैं और इस प्रकार मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं। सिर्फ़ विश्वास और अंधविश्वास ख़तरनाक है। यह मस्तिष्क को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है। जो मनुष्य अपने को यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे समस्त प्राचीन रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी। प्रचलित मतों को तर्क की कसौटी पर कसना होगा। यदि वे तर्क का प्रहार न सह सके, तो टुकड़े-टुकड़े होकर गिर पड़ेंगे। तब नए दर्शन की स्थापना के लिए उनको पूरा धराशायी करके जगह साफ़ करना और पुराने विश्वासों की कुछ बातों का प्रयोग करके पुनर्निर्माण करना। मैं प्राचीन विश्वासों के ठोसपन पर प्रश्न करने के संबंध में आश्वस्त हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन एवं संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और समस्त प्रगतिशील आंदोलन का ध्येय मनुष्य द्वारा अपनी सेवा के लिए प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं। इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है। यही हमारा दर्शन है। हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं। यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की? कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया- असंख्य दुखों के शाश्वत अनंत गठबंधनों से ग्रसित! एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतुष्ट नहीं है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है। कृपा करके यह भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है।
नीरो ने बस एक रोम जलाया था। उसने बहुत थोड़ी संख्या में लोगों की हत्या की थी। उसने तो बहुत थोड़ा दुख पैदा किया, अपने पूर्ण मनोरंजन के लिए। और उसका इतिहास में क्या स्थान है? उसे इतिहासकार किस नाम से बुलाते हैं? सभी विषैले विशेषण उस पर बरसाए जाते हैं। पन्ने उसकी निंदा के वाक्यों से काले पुते हैं, भर्त्सना करते हैं- नीरो एक हृदयहीन, निर्दयी, दुष्ट। एक चंगेज खां ने अपने आनंद के लिए कुछ हज़ार जानें ले लीं और आज हम उसके नाम से घृणा करते हैं। तब किस प्रकार तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो? उस शाश्वत नीरो को, जो हर दिन, हर घंटे ओर हर मिनट असंख्य दुख देता रहा, और अभी भी दे रहा है। फिर तुम कैसे उसके दुष्कर्मों का पक्ष लेने की सोचते हो, जो चंगेज खां से प्रत्येक क्षण अधिक है? क्या यह सब बाद में इन निर्दोष कष्ट सहने वालों को पुरस्कार और ग़लती करने वालों को दंड देने के लिए हो रहा है? ठीक है, ठीक है।
तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव करने का साहस इसलिए करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगाएगा? ग्लैडिएटर संस्था के व्यवस्थापक कहां तक उचित करते थे कि एक भूखे खूंखार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो कि यदि वह उससे जान बचा लेता है, तो उसकी ख़ूब देखभाल की जाएगी? इसलिए मैं पूछता हूं कि उस चेतन परम आत्मा ने इस विश्व और उसमें मनुष्यों की रचना क्यों की? आनंद लूटने के लिए? तब उसमें और नीरो में क्या फ़र्क़ है?
तुम मुसलमानों और ईसाइयों! तुम तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। तुम तो हिंदुओं की तरह यह तर्क पेश नहीं कर सकते कि प्रत्यक्षतः निर्दोष व्यक्तियों के कष्ट उनके पूर्वजन्मों के कर्मों का फल हैं। मैं तुमसे पूछता हूं कि उस सर्वशक्तिशाली ने शब्द द्वारा विश्व की उत्पत्ति के लिए छह दिन तक क्यों परिश्रम किया? और प्रत्येक दिन वह क्यों कहता है कि सब ठीक है? बुलाओ उसे आज। उसे पिछला इतिहास दिखाओ। उसे आज की परिस्थितियों का अध्ययन करने दो। हम देखेंगे कि क्या वह कहने का साहस करता है कि सब ठीक है? कारावास की काल-कोठरियों से ले कर झोपड़ियों की बस्तियों तक, भूख से तड़पते लाखों इंसानों से ले कर, उन शोषित मज़दूरों से लेकर जो पूंजीवादी पिशाच द्वारा ख़ून चूसने की क्रिया को धैर्यपूर्वक निरुत्साह से देख रहे हैं तथा उस मानव शक्ति की बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देख कर कोई भी व्यक्ति, जिसे तनिक भी सहज ज्ञान है, भय से सिहर उठेगा और अधिक उत्पादन को ज़रूरतमंद लोगों में बांटने के बजाय समुद्र में फ़ेंक देना बेहतर समझने से ले कर राजाओं के उन महलों तक जिनकी नींव मानव की हड्डियों पर पड़ी है- उसको यह सब देखने दो और फिर कहे- सब कुछ ठीक है! क्यों और कहां से? यही मेरा प्रश्न है। तुम चुप हो। ठीक है, तो मैं आगे चलता हूं।और तुम हिंदुओं, तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, ये पूर्वजन्म के पापी हैं और आज के उत्पीड़क पिछले जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः वे सत्ता का आनंद लूट रहे हैं। मुझे यह मानना पड़ता है कि आपके पूर्वज बहुत चालाक व्यक्ति थे। उन्होंने ऐसे सिद्धांत गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के सभी प्रयासों को विफल करने की काफ़ी ताक़त है। न्यायशास्त्र के अनुसार दंड को अपराधी पर पड़ने वाले असर के आधार पर केवल तीन कारणों से उचित ठहराया जा सकता है। वे हैं- प्रतिकार, भय तथा सुधार। आज सभी प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार के सिद्धांत की निंदा की जाती है। भयभीत करने के सिद्धांत का भी अंत वहीं है। सुधार करने का सिद्धांत ही केवल आवश्यक है और मानवता की प्रगति के लिए अनिवार्य है। इसका ध्येय अपराधी को योग्य और शांतिप्रिय नागरिक के रूप में समाज को लौटाना है। किंतु यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान भी लें, तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिए गए दंड की क्या प्रकृति है? तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बना कर पैदा करता है। तुम ऐसे 84 लाख दंडों को गिनाते हो। मैं पूछता हूं कि मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है? तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधे के रूप में पैदा हुए थे? एक भी नहीं?
अपने पुराणों से उदाहरण न दो। मेरे पास तुम्हारी पौराणिक कथाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। और फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप ग़रीब होना है? ग़रीबी एक अभिशाप है। यह एक दंड है। मैं पूछता हूं कि दंड प्रक्रिया की कहां तक प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः मनुष्य को और अधिक अपराध करने को बाध्य करे? क्या तुम्हारे ईश्वर ने यह नहीं सोचा था या उसको भी ये सारी बातें मानवता द्वारा अकथनीय कष्टों के झेलने की क़ीमत पर अनुभव से सीखनी थीं? तुम क्या सोचते हो, किसी ग़रीब या अनपढ़ परिवार, जैसे एक चमार या मेहतर के यहां पैदा होने पर इंसान का क्या भाग्य होगा? चूंकि वह ग़रीब है, इसलिए पढ़ाई नहीं कर सकता। वह अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊंची जाति में पैदा होने के कारण अपने को ऊंचा समझते हैं। उसका अज्ञान, उसकी ग़रीबी तथा उससे किया गया व्यवहार उसके हृदय को समाज के प्रति निष्ठुर बना देते हैं। यदि वह कोई पाप करता है तो उसका फल कौन भोगेगा? ईश्वर, वह स्वयं या समाज के मनीषी? और उन लोगों के दंड के बारे में क्या होगा, जिन्हें दंभी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाए रखा तथा जिनको तुम्हारी ज्ञान की पवित्र पुस्तकों- वेदों के कुछ वाक्य सुन लेने के कारण कान में पिघले सीसे की धारा सहन करने की सज़ा भुगतनी पड़ती थी? यदि वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिए कौन ज़िम्मेदार होगा? और उनका प्रहार कौन सहेगा? मेरे प्रिय दोस्तों! ये सिद्धांत विशेषाधिकार युक्त लोगों के आविष्कार हैं। ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धांतों के आधार पर सही ठहराते हैं।
अप्टन सिंक्लेयर ने लिखा था कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो और उसके बाद उसकी सारी संपत्ति लूट लो। वह बगैर बड़बड़ाए इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा। धर्म के उपदेशकों और सत्ता के स्वामियों के गठबंधन से ही जेल, फांसी, कोड़े और ये सिद्धांत उपजते हैं। मैं पूछता हूं तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर हर व्यक्ति को क्यों नहीं उस समय रोकता है जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है? यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है। उसने क्यों नहीं लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया और इस प्रकार विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से उसे बचाया? उसने अंग्रेजों के मस्तिष्क में भारत को मुक्त कर देने की भावना क्यों नहीं पैदा की? वह क्यों नहीं पूंजीपतियों के हृदय में यह परोपकारी उत्साह भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार त्याग दें और इस प्रकार न केवल संपूर्ण श्रमिक समुदाय, वरन समस्त मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें?
आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं। मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर छोड़ देता हूं कि वह लागू करे। जहां तक सामान्य भलाई की बात है, लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं। वे इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर इसका विरोध करते हैं। परमात्मा को आने दो और वह चीज़ को सही तरीक़े से कर दे।अंग्रेज़ों की हुक़ूमत यहां इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए कि उनके पास ताक़त है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बंदूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे। यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निंदनीय अपराध- एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण- सफलतापूर्वक कर रहे हैं। कहां है ईश्वर? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है? एक नीरो, एक चंगेज, उसका नाश हो!
क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूं? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूं। चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़ो। यह एक प्रकृति की घटना है। विभिन्न पदार्थों के, निहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी। कब? इतिहास देखो। इसी प्रकार की घटना से जंतु पैदा हुए और एक लंबे दौर में मानव। डार्विन की ‘जीव की उत्पत्ति’ पढ़ो। और तदुपरांत सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ। यह इस घटना की संभवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है।
तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अंधा या लंगड़ा पैदा होता है। क्या यह उसके पूर्वजन्म में किए गए कार्यों का फल नहीं है? जीव विज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है। अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो। यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे? मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है। जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे। अंतर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है और दर्शन अत्यंत विकसित। इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के अस्तित्व का उपदेश दे कर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे तथा उनसे अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे। सभी धर्म, संप्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अंत में निर्दयी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों तथा वर्गों की समर्थक हो जाती हैं। राजा के विरुद्ध हर विद्रोह हर धर्म में सदैव पाप ही रहा है।
मनुष्य की सीमाओं को पहचानने पर, उसकी दुर्बलता व दोष को समझने के बाद परीक्षा की घड़ियों में मनुष्य को बहादुरी से सामना करने के लिए उत्साहित करने, सभी ख़तरों को पुरुषत्व के साथ झेलने तथा संपन्नता एवं ऐश्वर्य में उसके विस्फोट को बांधने के लिए ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई। अपने व्यक्तिगत नियमों तथा अभिभावकीय उदारता से पूर्ण ईश्वर की बढ़ा-चढ़ा कर कल्पना एवं चित्रण किया गया। जब उसकी उग्रता तथा व्यक्तिगत नियमों की चर्चा होती है, तो उसका उपयोग एक भय दिखाने वाले के रूप में किया जाता है। ताकि कोई मनुष्य समाज के लिए ख़तरा न बन जाए। जब उसके अभिभावक गुणों की व्याख्या होती है तो उसका उपयोग एक पिता, माता, भाई, बहन, दोस्त तथा सहायक की तरह किया जाता है। जब मनुष्य अपने सभी दोस्तों द्वारा विश्वासघात तथा त्याग देने से अत्यंत क्लेश में हो, तब उसे इस विचार से सांत्वना मिल सकती है कि एक सदा सच्चा दोस्त उसकी सहायता करने को है, उसको सहारा देगा तथा वह सर्वशक्तिमान है और कुछ भी कर सकता है। वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिए उपयोगी था।
पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिए ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है। समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियां उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीक़ा है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिए सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूं। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अतः मैं भी एक पुरुष की भांति फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं। हमें देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूं। मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा। जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बताई तो उसने कहा, ‘अपने अंतिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे।’ मैंने कहा, ‘नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा। मैं इसे अपने लिए अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझता हूं। स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूंगा।’ पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है? अगर है तो मैं स्वीकार करता हूं।
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