स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' का नवां खण्ड।
बदलते समय ने सिनेमा को भी बहुत कुछ बदल दिया है। टूरिंग टॉकीज और सिनेमा हॉल अब पी वी आर में बदल गए हैं। यह पी वी आर काफी महँगा होता है जहाँ सिर्फ अभिजात्य वर्ग के लोग ही जा सकते हैं। टी वी, इण्टरनेट और मोबाइल ने वैसे ही उन सिनेमाहालों की दुर्गति कर दी है, जो पहले से ही दुर्दिनों को झेल रहे हैं। डिजिटल प्रणाली ने सिनेमा रील के प्रिंट सिस्टम को ध्वस्त कर दिया है। आजकल की फिल्में सामाजिक सन्देश नहीं देतीं बल्कि बकौल सिनेमाबाज वे हमारे भीतर के लम्पट और अपराध भाव को जागृत करती हैं। वे येन केन प्रकारेण हमें अमीर बनने के तौर तरीके बताती हैं। सिनेमाबाज की कहानी अब अपने अन्तिम सोपान में है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' का नवां खण्ड।
एक सिनेमाबाज की कहानी - 9
स्वप्निल श्रीवास्तव
॥इकतीस॥
बुंदेलखंड के झांसी परिक्षेत्र झांसी में मेरा तीन साल का प्रवास था, ऐसी पथरीली जगहों पर कोई आना नहीं चाहता था, महकमें में ऐसी जगहों को काला-पानी कहा जाता है। किसी को सजा देनी होती थी तो उसे बुंदेलखंड के इलाके में भेज दिया जाता था। ट्रांसफर होने के बाद कोई उस जगह पर ज्वाइन करने नहीं आता था। बांदा, हमीरपुर, ललितपुर सरकारी कर्मचारियों के लिए किसी यातनास्थल से कम नहीं माने जाते थे। यही वजह थी कि जब मेरा यहाँ से ट्रांसफर हुआ तो मुझे तब तक नहीं अवमुक्त किया गया जब तक मेरे स्थान पर आये हुए अफसर ने चार्ज नहीं लिया। झांसी में मैंने क्या पाया क्या खोया इसे याद करते मेरी नसें तन जाती है।
नयी शताब्दी आसन्न थी मैंने सोचा कि जीवन में कुछ न कुछ जरूर बदलेगा। मेरी तरह बहुत से लोग 21वीं सदी का इंतजार हसरत के साथ कर रहे थे– एक बात तो तय हो चुकी थी कि तारीखों के बदलने से जीवन और परिस्थितियां नहीं बदलतीं। 21वीं शताब्दी के प्रथम वर्ष में कई प्रियजन मुझे छोड़ कर जा चुके थे, मैं अनाथ सा हो चुका था। मैं लम्बी छुट्टी पर चला गया था, वैसे भी बहुत कुछ मेरे पास नहीं था, जो कुछ भी था, वह छिन चुका था। पिता और चाचा गांव पर थे, उनके जाने के बाद गांव का घर उजड़ चुका था। एक दौर था जब घर में सब कुछ भरा-पूरा था। खलिहान अनाज से भर जाते थे - आने-जाने वालों का मेला लगा हुआ था, अब वहां वीरानी का साम्राज्य था।
जब कभी मैं फ्लैश–बैक में जाता तो लगता कि कैसे एक–एक कर के लोग विदा होते गये, मां तो उस उम्र में गयी थी जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते थे, वह मुश्किल से चालीस की भी नहीं हुई थी। यह क्या जाने की उम्र होती हैं, पेड़ के कटने के पहले जैसे परिंदे गायब होते है उसी तरह से परिवार के सदस्य हम से बिछुड़ते गये। मैं सोचता हूं यह जिंदगी एक फिल्म की तरह होती है, जिसमें आकस्मिक घटनाएँ ज्यादा होती हैं, फिल्म अनवरत नहीं चलती, उसकी भी मियाद होती है। फिल्म को एक जगह पर खत्म होना होता है, हम फिल्म के अन्त को जान सकते हैं लेकिन जीवन के अन्त को जानना कठिन होता है। जीवन के दार्शनिक प्रश्नों के जबाब साधारण आदमी के पास नहीं होते।
इन घट्नाओं ने मुझे भयानक डिप्रेशन में डाल दिया था, मैंने कई मनोचिकित्सक बदले लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। ज्यों ज्यों दवा की दर्द बढ़ता ही गया, लोग कहते थे कि इस दर्द का इलाज समय है लेकिन यह नुक्सा मेरी जिंदगी में कभी फलित नहीं हुआ। डाक्टर ने मुझे जरूर बताया कि अब आप छुट्टी से लौट कर काम पर आ जाये और अपने आपको व्यस्त रखने की कोशिश करें - जब आप अपने को थका देंगे तो खूब नींद आएगी। नींद तो मुझसे कोसो दूर थी, आज भी वह मुझ पर मेहरबान नहीं है।
इतिहास अपने आप को दोहराता है, यह संयोग मेरे साथ भी घटित हुआ। पिता ने जीवन-भर देवरिया के एक कस्बें में नौकरी की - वहां मैंने इंटर तक की शिक्षा ली और जब तक पिता उस कस्बे में थे, वहां मेरा आना-जाना बना रहा। जब मेरी पोस्टिंग इस जनपद में हुई तो लगा कि मैं किसी पुरानी जगह पर लौट रहा हूं। मन बहुत उदास था – यहाँ आने के पहले मैंने एक साथ कई विपत्तियों का सामना किया था। अंग्रेजी कवि शेक्सपियर ने अपनी एक कविता में लिखा है कि विपत्तियां अकेले नहीं समूह के साथ आती हैं..। यहाँ एक आश्वासन जरूर था कि यह मेरे लिए अपरिचित जगह नहीं है। यहाँ पिता की स्मृतियां हैं, पिता कभी-कभी जनपद मुख्यालय में सरकारी काम से आते रहते थे और कभी मुझे भी साथ ले जाते थे। उस समय यह धूल-धूसरित जनपद था, अभी अपने देहातीपन से मुक्त नहीं हुआ था। मुझे एक मित्र की कृपा से रहने के लिए मकान मिल गया था। मकान तक पहुंचने के लिए कई गलियों को पार करना पड़ता था, तब यह मकान मिलता था। शाम के समय मैं अपनी बेखुदी में मकान का रास्ता भूल जाता था, यह सब मेरी मानसिक स्थिति के कारण होता था।
जब कोई छुट्टी होती थी तो गोरखपुर के कुछ आत्मीय मित्रों के यहाँ चला जाता था और रात की ट्रेन से देवरिया लौटता था। कई बार तो ऐसा हो जाता था कि आगे के स्टेशन पर पहुंच जाता था। एक बार ट्रेन में नींद आने के कारण लार-रोड पहुंच गया था। ट्रेन अंधेरे में रूकी थी, स्टेशन पर धुप्प अंधेरा था। हवा सांय-सांय चल रही थी, कुल मिला कर यह जासूसी फिल्मों का मंजर था। जाड़े के मौसम में देह पर पर्याप्त कपड़े नहीं थे, कंपकंपी छूट रही थी। मैंने सोचा रात में कोई ट्रेन मिल जायेगी लेकिन पता लगा कि ट्रेन सुबह में मिलेगी। स्टेशन के बाहर अलाव जल रहा था, उसे तापते हुए रात गुजरी। उस रात को मैं नहीं भूल सकता।
सुबह देवरिया रेलवे स्टेशन पर उतरा तो आंख नींद से भरी हुई थी, सोचा ठीक से सो लूं तो दफ्तर चला जाऊंगा, अगर नहीं भी गया तो क्या पहाड़ टूट जायेगा। नींद आएगी इसकी कोई गारन्टी नहीं थी, नींद मेरे साथ बहुत छल करती थी- आज भी उसकी भूमिका बदली नहीं हैं। नहा–धो कर दफ्तर पहुंचा तो फाइल के काम मे उलझ गया। मुझे डाक्टर की ताकीद याद आयी कि मुझे खूब व्यस्त रहिए तभी ठीक से याद आएगी। पांच बजे के बाद दफ्तर में रूका रहा, इसी बीच कुछ लोग आ गये और गप्प गोष्ठी चलती रही, जिससे थोड़ी सी राहत मिली लेकिन कमरे पर पहुंचते ही उदासी में डूब गया।
देवरिया जनपद छोटे–छोटे कस्बों से मिल कर बना था जैसे सलेमपुर, लार रोड, रूद्रपुर, भाटपाररानी, भटनी जैसी जगहें थी, इन जगहों में परतापुर कस्बा बहुत दूर था, वहां बस से जाने-आने में पूरा दिन लग जाता था एक सिनेमाहाल और एक सुगर मिल थी। इसके बाद बिहार शुरू हो जाता था, कभी–कभी बस छूट जाती थी तो बिहार के जीरादेई में पहुंच कर सलेमपुर के लिए बस पकड़ता था। पूर्वी उ. प्र. के लोगों की यहाँ रिश्तेदारियां थी। यह वही जगह थी जहां देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद पैदा हुए थे। बिहार के बसों का हाल गज़ब था, जितने लोग बस के भीतर थे, उतना बस के छत पर सवार थे। बस लहराती हुई चल रही थी, मेरी जान सांसत में थी। जब सलेमपुर आया तो लगा, जैसे नया जीवन मिला हो। देवरिया जनपद की सीमाएँ बिहार से मिली हुई थी – उनकी संस्कृति और रहन-सहन एक जैसा था।
जनपद में बस से यात्रा करने का अनुभव अलग था। बसों में भोजपुरी गीतों के कैसेट खूब बजते थे - उसमें भोलाराम गहमरी का गीत खूब बजता था – कउने खोतवा में लुकइलू अहि रे बालम चिरई, अहि रे बालम चिरई। मुझे अहि रे बालम चिरई का बिम्ब बहुत अच्छा लगता था। कभी–कभी भड़कीले गीत बजते थे जैसे – तू देख चान, हमरा के चान लागे लूं/ मचा देबू कहियो तूफान लागे लूं या कौने कारनवा सहर भागे/ पिया पपिहा के बोलिया जहर लागे। भीड़ से भरे बस में इन गीतों को सुन कर जवान –क्या, बूढ़े भी मूंड़ी हिलाने लगते थे। यह भोजपुरी का केंद्रीय क्षेत्र था, यहाँ भोजपुरी फिल्में खूब चलती थी। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए, यहाँ भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग भी होती थी।
स्त्रियां और शोहदे दर्शक सज–धज कर फिल्में देखने आते थे। वे फिल्म के रोमांटिक दृश्यों पर सीटी बजाते थे और नाचने लगते थे। मुझे अपना बचपन याद आने लगता था – उन दिनों हम नौटंकियों को देख कर इस तरह की हरकतें करते थे। अब हम सभ्य हो चुके थे – कभी–कभी सभ्यता हमारी आदिम आदतों के आड़े आ जाती थी।
भोजपुरी के अत्यंत लोकप्रिय कवि मोती बी. ए. जनपद के बरहज कस्बे के रहने वाले थे- वे फिल्मी दुनिया में अपने गीतों से धूम मचाने वाले मोती बी. ए. से मुझे मेरे मित्र शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने मिलवाया था। शैलेंद्र बरहज के निवासी थे, शैलेंद्र शांतिनिकेतन में हिन्दी के प्रोफेसर थे और ‘सरयूधारा’ नाम की पत्रिका प्रकाशित करते थे। उन्होंने मुझे कई बार प्रकाशित किया है। वे असमय ही हमारे बीच से चले गये- यहाँ राम प्रसाद बिस्मिल का समाधि स्थल है। बरहज सरयू के किनारे बसा हुआ कस्बा और एक जमाने में व्यवसायिक केन्द्र था, पानी के जहाज से व्यापार होते थे। यह बाबा राघव दास की कर्म भूमि थी।
शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी |
जनपद में एक जगह पथरदेवा थी, वहां से कुशीनगर करीब था, जब सिनेमा मालिक मुझे दावत पर आमंत्रित करता था तो मेरी शर्त यह थी कि वह मुझे कुशीनगर जरूर घुमाएँ। वह जबाब देता – सर शाम को कुशीनगर क्या घूमना आप तो कई बार जा चुके है.. और वहां शाम में घूमने का क्या मतलब? मैंने उससे कहा कि इस बारे में आपको क्या जबाब दूं। कुशीनगर ने मुझे डिप्रेशन से बचाया था – मैं वहां जितनी बार जाता था, उतने बार मुझे नये अनुभव मिलते थे। बुद्ध के महापरिनिर्वाण स्थल पर शाम के समय धम्म–पद का गायन होता था, उसे सुन कर मैं अभिमंत्रित हो उठता था, यह मेरे लिए एक थरेपी की तरह था।
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देवरिया–प्रवास में उस लड़की और उसके परिवार को कभी नहीं भूल सकता जिससे मुझे भावानात्मक सम्बल मिला। जीवन की वीरानगी में मुझे ऐसी छांह मिली थी जो मेरी स्मृति का हिस्सा बन गयी थी। प्रकृति जहां मेरे प्रति क्रूर रही है, वही उसने मेरे लिए एक नया द्वार खोल दिया था, जहां से कभी–कभी हवा का ताजा झोका आ जाता था। घर से दूर यह ठिकाना मेरा नया पता था लेकिन इस तरह के पते स्थायी नहीं होते। बाद में उस पते पर चिट्ठियां नहीं पहुंचती, लौट कर अपने पास आ जाती हैं। यह जीवन भी एक खेल की तरह ही है जिसमें खेलों के नियम बदलते रहते हैं। बस केवल त्रासद यादें रह जाती हैं।
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इस जनपद में रहते हुए कुछ माह ही बीते कि भयानक बाढ़ आ गयी थी और मेरी ड्यूटी लगा दी गयी थी, इस तरह की बाढ़ यहाँ वर्षों बाद आयी थी। इस तरह के बाढ़ का दृश्य फिल्म – सत्यम शिवम सुंदरम में दिखाया गया था, वह मंजर मैं रूबरू देख रहा था। इसी बीच मुझे अपने ताऊ जी की मृत्यु की सूचना मिली – यह तीसरी मृत्यु थी जिसने मुझे विचलित कर दिया था। मैं अपनी ड्यूटी छोड़ कर डी. एम. आफिस पहुंचा और एक एप्लीकेशन स्टेनो को दिया और उनसे कहा कि वे उसे स्वीकृत करा लें और मैं घर जाने के इंतजाम में लग गया। मैंने सोचा कि घर जाते समय यह देख लूं कि क्या आवेदन स्वीकृत हुआ कि नहीं। स्टेनो ने बताया कि एप्लीकेशन पर प्लीज डिस्कस, लिखा हुआ है। मैं यह सोच कर सनक गया था कि आखिर हमें किस अवसर पर छुट्टी मिलेगी? मैं अपना प्रार्थना पत्र मेज पर फेंक कर चला गया।
अफसरों की ऐसी बहुत सी तानाशाही मैंने देखी है, वे अपने स्वभाव में मातहतों के प्रति अमानवीय होते हैं, लगता है कि छुट्टियां वे अपनी जेब से दे रहे हों। साल भर में चौदह आकस्मिक अवकाश इसी तरह की आकस्मिकताओं के लिए होते है लेकिन उनके लिए कोताही की जाती है। हमें मनुष्य नहीं समझा जाता है जबकि वे हर तरह की सहूलियतें लेते रहते हैं।
मैंने स्टेनो से कहा कि यह कोई मीटिंग नहीं है कि उस पर डिस्कस किया जाय – यह कह कर मैं दफ्तर से निकल आया।
जब कभी किसी जिले में मन रमने लगता था, उसी के बीच ट्रांसफर का परवाना धमक जाता था फिर हम अपना सामान बांधने लगते थे। लेकिन स्मृतियों को तो नहीं बांध सकते थे। हर जनपद की अपनी–अपनी स्मृतियां थी, उनके रंग भी अलग थी। हर जगह के लोग, उनकी प्रकृति अलग होती है, उनकी भाषा और व्यवहार अलग होते हैं। अगर मैं एक शहर में अपना जीवन गुजार देता तो मुझे इतने विस्तृत अनुभव नहीं मिलते। न जाने कितनी नांवों में कितनी बार आना–जाना पड़ा है। अज्ञेय की इस कविता पंक्ति को मैं बार–बार दोहराता था – यह कविता मेरी जिंदगी का रूपक था।
महराजगंज में रहते हुए मैंने एक मित्र के आग्रह पर फैज़ाबाद में आवास विकास एक मकान किश्तों में ले लिया था। पंद्रह साल तक उसकी किश्तें अदा करता रहा। किराये के मकान में रहते हुए मैं ऊब गया था, सोचा कहीं ठिकाना बना लेना चाहिए। हालांकि यह मेरे पसंद की जगह नहीं थी। मित्र ने कहा कि आप कहीं भी ठिकाना बनाना चाहे तो यह मकान बेच कर आप जा सकते हैं, उनकी यह बात अच्छी लगी। अगर यह मकान न लिया होता तो रिटायरमेंट के बात मकान खरीदने या बनवाने की मेरी कूबत नहीं थी। जीवन में बहुत कुछ अनिश्चित होता है – हम कहां पैदा होंगे, कहां हमारा जीवन निर्मित होगा, कहां हम बसेंगे, इसे हम नहीं जानते।
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अयोध्या (फैज़ाबाद) से मेरा रिश्ता शुरू से जुड़ा हुआ था, मेरा मुंडन–संस्कार अयोध्या में हुआ था। पिता जब रामचरितमानस का पाठ करते थे तभी से मैंने अयोध्या के बारे में जानना शुरू कर दिया था। राम का चरित्र मुझे बहुत आकर्षित करता था, पिता के बचन की रक्षा के लिए उन्होंने चौदह साल का वनवास काटा था। उन्होंने कोल–भील–संथालों को संगठित किया था। शबरी के जूठे बेर खाये थे। निषादराज केवट को प्रेम दिया था। सुग्रीव को उसका हक दिलाया था। जब रावण ने सीता का अपहरण किया था तो सीता के लिए उनकी विह्वलता हमें मार्मिक बना देती थी। वे साधारण मनुष्य की तरह सीता के लिए व्याकुल थे। एक लम्बे संघर्ष के बाद उन्होंने रावण को पराजित किया था, मानस में ऐसे बहुत से प्रसंग थे जिससे हम बखूबी परिचित थे। उन दिनों मेरे गांव के पास के कस्बे में रामलीला का प्रचलन था। अयोध्या उन्हीं राम की राजधानी थी।
नौकरी में बहुत से दिन बाकी नहीं थे, मेरा वनवास पूरा होने वाला था, इस बीच कई वन–प्रांतर में मुझे भटकना पड़ा। कई तरह की अग्निपरीक्षाएँ देनी पड़ी थी - मुझे कई तरह के मानुष और अमानुष मिले, मनुष्य के चरित्रों का ज्ञान मिला – मैंने देखा कि किस तरह पूंजी मनुष्य के सम्बंधों का निर्धारण करती है। नजदीकी रिश्ते किस तरह धन और लालच के लोभ में नष्ट हो जाते रहे हैं। बड़े से बड़े सिनेमा हालों के मालिकों के बीच भाई–भाई पिता पुत्र के रिश्ते सलीब पर चढ़ गये थे।
जनपद दर जनपद किराये के मकानों में रहते हुए मैं थक सा चुका था – मुझे एक जगह चाहिए था जहां मैं अंगोछा पहन कर निर्बाध घूम सकूं, अपनी मर्जी का काम कर सकूं। दरअसल मुझे एक बंदरगाह चाहिए था जहां मैं अपने लंगर बांध सकूं – जीवन सागर में यात्राएँ करते हुए लहरों के थपेड़े खा चुका था। चैन के एक लमहे के लिए बेचैन रहता था। मैं चाहता था कि फैज़ाबाद या उसके किसी समीपवर्ती जिले में मेरी पोस्टिंग हो जाय ताकि वहां से फैज़ाबाद का आना-जाना बना रहे।
देवरिया से मेरा तबादला गोंडा हो गया था, फैज़ाबाद से गोंडा के लिए बस की सुविधा थी। मैंने सभी साजो–सामान उस अधबने मकान में जमा कर दिया था। ठेकेदारी पर बने हुए मकान का क्या कहना, उसकी उस व्यवस्थाएँ अस्थायी होती हैं। दरवाजे और खिड़कियां बेहद कमजोर लगी हुई थी। दीवार पर कील ठोकने पर पूरा चिप्पड़ उतर जाता था नल की टोटियां जगह–जगह लीक कर रही थीं। इस सब कमियों को विभाग और बैंक से लोन लेने के बाद दुरूस्त करवाना था। यह काम एक सांस में नहीं धीरे–धीरे होना था। बाज लोग एक ही बार में या तो मकान बनवा लेते थे, या खरीद लेते थे – मेरे साथ यह सुविधा नहीं थी।
यह कालोनी अमरूद के बाग को काट कर बनाई गयी थी जिससे हजारों तोतें बेघर हो चुके थे, वे अक्सर अपने झुंड के साथ यहाँ दिखाई देते थे। कालोनी अभी बस ही रही थी, अधिकांश मकान खाली थे। चोरी की घटनाएँ अक्सर होती थी, इसका शिकार मैं भी हो गया था। जब मैं लखनऊ में मीटिंग में गया तो चोरों को मेरे जाने का पता मिल गया, वे रात को आये और मकान को खंगाल डाला। वे मेरी आलमारी तोड़ कर मकान की कई किश्तों के सात हजार रूपये उड़ा ले गये। दूसरे दिन जब मैं मकान पर पहुंचा तो मंजर देख कर दंग रह गये, उन्होंने न केवल मकान को लूटा बल्कि इत्मीनान से चाय बना कर भी पी थी। वे बहुत ढ़ीठ चोर थे। मैं क्या एफ. आई. आर. दर्ज करवाता, बहरहाल दोस्तों के कहने पर मैंने प्राथमिकी दर्ज करा दी थी – यह जानते हुए इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
॥बत्तीस॥
गोंडा अवध प्रदेश का एक इलाका था लेकिन यहाँ की अवधी भिन्न थी। इस भाषा में लंडई शामिल थी। इसकी सीमाएँ नेपाल से लगी हुई थी। यह क्षेत्र घने जंगलों और नदियों से भरा हुआ था। शहर बेतरतीब बसा हुआ था, वहां के राजनेता दबंग थे, वे किसी एक पार्टी में नहीं रहते थे, कुर्सी के लिए अपना पाला बदलते रहते थे। यह सूबे के अत्यंत पिछड़े हुए जिले में एक था, सड़के खस्ताहाल थीं। जब भी बारिश होती जिले को बाढ़ का सामना करना पड़ता थी, यही गति बलरामपुर और बहराइच जैसे पास के जिलों की थी। बाढ़ में हमारी डियूटी लगती थी, बाढ़ के लिए शासन से जो फंड आता था, उसे मिल–बांट कर खा लिया जाता था। मित्र शायर अदम गोंडवी की शायरी में इस तरह के मंजर मिलते है जिसमें उन्होंने निजाम की खूब खबर ली है।..
गोंडा की याद आते ही अदम गोंडवी की याद आ जाती है, उनसे मेरा परिचय प्रगतिशील लेखक संघ के स्वर्ण जयंती समारोह 1986 में लखनऊ में हुआ था। वहां के मुशायरे में उन्होंने अपनी धाक जमा ली थी, जब वे अपनी गज़ल पढ़ने के लिए मंच पर उतरे तो उनकी देहाती वेश-भूषा को देख कर लखनऊ के नफीस दर्शक व्यंग में ताली बजाने लगे थे लेकिन जैसे ही उन्होंने अपनी गज़ल का पहला शेर –
जितने हरामखोर थे कुर्वे – जवार में
प्रधान बन कर आ गये अगली कतार में –
पढ़ा, फिजा उनके पक्ष में हो गयी।
अदम गोंडवी ऐसे शायरों में थे जिन्होंने अपनी गज़लों के लिए नयी भाषा का आविष्कार किया था, उनकी गज़लों में लोकभाषा के बिंब और तंज थे। वे सीधे मर्म पर आघात करते थे कि आदमी तिलमिला कर रह जाए, उनकी गज़लों का निशाना वे राजनेता थे जो लूट के कारोबार में मुब्तिला थे। उन्होंने लिखा था –
जो डलहौजी न कर सका वह हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देगे
या
काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज्य विधायक निवास में ..
गोंडा के दो साल के प्रवास में अदम जी से हर हफ्ते मुलाकात होती थी, खासकर शनीचर का दिन लगभग नियत ही था। वे रंग–तरंग में अपनी गज़लें हमें सुनाते थे साथ ही कवि सम्मेलनों के अदभुत संस्मरण सुनाते थे। उर्दू और अवधी का आसव उनकी बातचीत में नजर आता था। आज उनकी शायरी पहले से ज्यादा प्रासंगिक है। जैसे-जैसे सत्ता की क्रूरता बढ़ेगी उनकी शायरी याद आएगी। अभी उन्हें हमारे लिए जीना था लेकिन असमय ही वे हमारे बीच से चले गये।
गोंडा की सरजमीं बहुत जरखेज रही है, यहाँ असगर गोंडवी जैसे शायर पैदा हुए थे जो जिगर मुरादाबादी के हमनवां थे। गोंडा में जिगर की मजार बनी हुई है, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि यह जमीन हास्य–लेखक सम्राट जी. पी. श्रीवास्तव की भी कर्मभूमि रही है जिसका उल्लेख हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने किया है। समीपवर्ती जनपद बलरामपुर उर्दू के मशहूर शायर और अफसानानिगार सरदार जाफरी के पैदाइश की जगह है जिसके बिना उर्दू अदब की तारीख पूरी नहीं होती। वे प्रलेस और आंदोलनों से जुड़े हुए लेखक थे।
सरदार जाफरी |
गोंडा, अम्बेडकर नगर और फैज़ाबाद को मिला कर मेरे नौकरी के आठ साल बीत गये थे। गोंडा और अम्बेडकरनगर मैं बस से आवाजाही करता था। बस नहीं मिलती तो जीप पर लद कर आता जाता था – जीप के ड्राइवर भूसे की तरह सवारी भरते थे। लोग एक दूसरे के ऊपर लदे हुए रहते थे – एक दो धक्कों के बाद लोग व्यवस्थित हो जाते थे। उस समय की सड़के बहुत रद्दी थीं, कमर दोहरी हो जाती थी। नौकरी के हिसाब से मुझे उन जगहों पर रहना था लेकिन मैं रात में फैज़ाबाद चला आता था, आला–अफसर अगर मुझे खोजते तो मैं दौरे का बहाना बना देता था। कभी–कभी झूठ बोल कर बच जाता था। अम्बेडकरनगर के डी. एम. ने मुझे जबाब-तलब करते हुए कहा कि आप स्टेशन पर नहीं रहते, फैज़ाबाद चले जाते हैं। अपना जबाब लिख कर जब उनसे मिलने गया और अपनी सफाई पेश की तो जा कर उनका पारा उतरा। उन्होंने कहा – क्या तुम वीडियो-लाइब्रेरी भी चेक करते हो, उत्तर में मैंने कहा – जी हां। क्या तुम बैन फिल्में भी पकड़ते हो। तो बताओ तुम्हें कौन सी फिल्में मिलीं? – सर आपको कौन सी फिल्म चाहिए मैं ले आऊंगा।
मैं समझ रहा था कि वे कहां निशाना साध रहे हैं। लेकिन मैं चाहता था कि वह खुद कबूल करें। झुंझला कर उन्होंने कहा – क्या तुम ब्लू फिल्में ला सकते हो, उत्तर में मैंने सहर्ष हां कह दिया। मेरे हां कहते उनका चेहरा खिल उठा। उन्होंने ताकीद की कि मैं आठ बजे रात के बाद मैं सामान को लाऊं फिर देख कर लौटा दिया जाएगा। .. सर लौटाने की कोई जरूरत नहीं है, आप अपने पास रखे रहे।
मैं उनकी मांग पूरा करता रहा और वे मुझसे खुश होते रहे। इस घटना के बाद उनसे मेरे सम्बन्ध मधुर होते गये, मैं उनका प्रिय बन गया।
अम्बेडकर नगर का मूल नाम अकबरपुर था, मुख्यमंत्री मायावती ने इस जिले का नामकरण अम्बेडकरनगर किया जब कि अम्बेडकर का इस जिले से कोई सम्बन्ध नहीं था। हां, यहाँ लोहिया जरूर पैदा हुए थे जिन्होने अपनी राजनीति से राजनीतिक चिंतन को गहरे प्रभावित किया। वे लगातार नेहरू के विचारों का विरोध करते रहे, संसद में वे अचूक तर्क रखते थे। नेहरू की नीतियों के विरोध के बावजूद उनके सम्बन्ध नेहरू से बहुत अच्छे थे। याद आता है कि जब लोहिया गम्भीर रूप से बीमार पड़े तो नेहरू ने उनका हालचाल जानने के लिए इंदिरा गांधी को भेजा था। आज की राजनीति में इस तरह की मिसाल कम मिलती है – जो विचारों का विरोध करता है, उसे कट्टर दुश्मन मान लिया जाता है। अब उस कद के नेता नहीं रहे।
Ram-Manohar-Lohiya |
लोहिया ने बर्लिन विश्वविद्यालय से प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. बर्नर जेम्वार्ट के मार्ग निर्देशन में शोधकार्य किया और महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। उन्होंने स्त्रियों के पक्ष में बहुत से लेख लिखे। जाबाल और द्रोपदी के भूमिका की प्रशंसा की, वे स्त्री की स्वाधीनता के पक्षधर थे। मिथकों की नवीन व्याख्या की, उन्होंने बताया कि भारत देश में किवदंतियों का अपना महत्त्व है, उनका जीवन में उपयोग किया जाना चाहिए ।
उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय योगदान दिया। संसद में तीन आना बनाम पंद्रह आना की बहस बहुत प्रसिद्ध रही, उनका बहुप्रचलित वाक्य था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराने के लिए संघर्ष किया। अपने छोटे से जीवन में बड़े काम किये, चित्रकूट में रामायण मेले की शुरूआत की। मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसेन जो अपनी पेंटिंग से अमीरों घर की दीवारों पर चित्र उकेरते थे, उन्हें रामायण के चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया। लोहिया के जीवन के खाते में बहुत से काम जमा हैं।
लोहिया समाजवादी विचारों के प्रवर्तक थे, उनका जीवन बेहद सहज और सरल था। उनका सबसे ज्यादा प्रभाव साहित्य में परिलक्षित होता है। लोहिया बुद्धिजीवी राजनेता थे, वे लेखकों के बीच ज्यादा रहते थे। उन्होंने अपना घर नहीं बनाया न सम्पत्ति ही अर्जित की। जब मैंने अकबरपुर में उनका टुटहा मकान देखा तो चौक गया। यहाँ तो मामूली विधायक होने के बाद लोग रातो-रात अमीर हो जाते हैं, हर शहर में इमारतें खड़ी हो जाती हैं, उनकी लकीर पर चलने की कोशिश करने वाले मुलायम सिंह यादव इसके अन्यत्तम उदाहरण हैं।
बंशी नाई उनके बाल–सखा थे, मां की मृत्यु के बाद बंशी नाई की दादी ने उन्हें दूध पिला कर बड़ा किया था। बंशी नाई जब तक जिंदा थे, अकबरपुर में बनी उनकी मूर्ति को रोज धोते थे, उस पर माला चढ़ाते थे। जब लोहिया के अनुयायी की सरकार आयी तो लोगों ने कहा कि वह उनसे मिल कर अपनी बात कहें लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया। उनकी राह पर चलने वाले समाजवादी उन्हें लगातार भूलते गये, उनकी विचारधारा का सत्यानाश करने में बहुत योगदान दिया।
लोहिया के बारे में पत्रकार राज किशोर ने लिखा था –आज की राजनीति में लोहिया का नाम लेना कुछ वैसा ही है, जैसे वेश्याओं की गली में गीता-पाठ किया जा रहा हो।
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ध्रुव जायसवाल इस जिले की दूसरी हस्ती थे, उनकी कहानियां मैं छात्र जीवन से पढ़ता रहता था – पते के नीचे सिर्फ ध्रुव जायसवाल टांडा दर्ज रहता था, उसके नीचे जिले का नाम नहीं होता था। मैंने सोचा कि शायद यह बंगाल के किसी कस्बे का नाम हो लेकिन मुझे बाद में पता चला कि यह अकबरपुर जनपद का समृद्ध कस्बा है जहां बुनकरों की बड़ी आबादी है। यह मुस्लिम बहुल इलाका था – ध्रुव जायसवाल कस्बे में बहुत मशहूर थे। जब मैंने सिनेमा मालिक से उनका पता पूछा तो उसने कहा कि वह उन्हें जानता है। जब मैं उनसे मिला तो वे मुझे बहुत स्नेहिल लगे – उन्होंने मुझे बताया कि वह पहले कलकत्ता रहते थे फिर जब कुछ छोड़–छाड़ कर टांडा आ गये। उनकी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन और उसके त्रासद विवरण खूब मिलते थे, मैं उनसे मिल कर धन्य हो गया था।
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21वीं शताब्दी में तकनीक में एक लम्बी छलांग लगायी। वी. सी. आर. की जगह वी. सी. डी. का चलन हुआ। सस्ते किराये पर फिल्में मिलने लगीं, ये कैसेट वीडियो- कैसेट की तरह भारी नहीं होते थे, एकदम पतले होते थे – उसमें एक साथ कई फिल्में दर्ज होती थीं। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने नये क्षितिज खोलें , इंटरनेट के साथ सोशल मीडिया का आगमन हुआ जिसने मानव–मूल्यों को बदलना शुरू कर दिया था। लोगों के बीच भौतिक संवाद खत्म हो गये थे, डेस्क टाप और लैपटाप की उपयोगिता सीमित हो गयी थी, सब कुछ स्मार्ट मोबाइल में केद्रित हो गया था। पहले लोग सफर में लैपटाप ले कर चलते थे, अब उसकी जगह मोबाइल आ गया था। गूगल, यू ट्यूब और ह्वाटसएप का प्रचलन बढ़ गया था। मोबाइल करोड़ो लोगों के हाथ में पहुंच चुका था, युवा पीढ़ी के लिए यह नशे की तरह था। आउटडोर गेम खत्म हो गये थे, पार्को में भीड़ कम होने लगी थी, बच्चे अपने घरों के कोनों में मोबाइल के जरिये वीडियो-गेम खेल रहे थे।
हिन्दी सिनेमा में दो बड़े परिवर्तन हुए। सिनेमा डिजिटल हो गया था, उसके लिए आपरेटर मशीन की जरूरत नहीं रह गयी थी। अब हार्ड ड्राइव में फिल्में लोड कर दी जाती थी, उसकी आसानी से हजारों डिस बनाई जा सकती थी। इस प्रणाली का सर्वप्रथम उपयोग न्यूयार्क और लास एंजिल्स में किया गया और स्टार वार एपिसोड, दि फैटम मिनेंस का प्रदर्शन किया गया, उसके बाद यह तकनीक अन्य देशों में प्रचलित होने लगी। यह प्रणाली का मुख्य माध्यम सेटेलाइट और इंटरनेट था। फिल्म के प्रिंट सीमित संख्या में बनते थे और लम्बे क्षेत्र में प्रदर्शित नहीं हो पाते थे। इस तकनीक से व्यापक परिक्षेत्र में फिल्में दिखाई जा सकती थी।
भारत में इस माध्यम से मणिरत्नम की फिल्म गुरू से की गयी थी। अमेरिका के शहर ने फिल्म के प्रिंट सिस्टम को खत्म कर दिया था, हजारों फिल्मों के प्रिंट आग के हवाले कर दिये गये थे। प्रिंट को एक शहर से दूसरे शहर जाने-आने की असुविधा खत्म हो गयी थी। इस माध्यम से फिल्में चलाने के लिए सिर्फ एक आदमी की जरूरत थी, इस तरह सिनेमा हालों से आपरेटरों की विदाई हो गयी, वे बेरोजगार हो गये थे। मैंने उन्हें रोते हुए देखा था।
डिजिटल तकनीक के विस्तार के लिए यू.एफ.ओ. (यूनाइटेड फिल्म आर्गनाइजेशन) नाम का एक संगठन बनाया गया जिसमें चोटी के फिल्म–निर्माता और निर्देशक शामिल थे, वे फिल्मों को सिनेमाघरों में इस नयी विधि से प्रदर्शित करते थे। इस माध्यम से साउंड और लाइट का सिस्टम बहुत अच्छा हो गया था।
इस तरह यह तकनीक वैश्विक हो गयी थी, उनका प्रदर्शन उम्दा हो गया था। फिल्मों के प्रिंट चलाते समय जो व्यवधान होता था, वह नहीं रह गया था। इस तकनीक से दुनिया भर के हर देशों में फिल्में प्रदर्शित करने का काम आसान हो गया था। फिल्मों के टिकट रेट बढ़ा दिये गये थे, वह सामान्य दर्शकों के पहुंच से बाहर हो गये थे। पहले इस तकनीक का उपयोग शहरों में किया गया, फिर कस्बों की बारी आयी – वे इस महंगी व्यवस्था के बोझ को उठा नहीं सकते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत नयी फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता था, पुरानी फिल्में इस विधि से नहीं दिखाई जाती थी। छोटे शहरों और कस्बों के सिनेमा मालिक पुरानी फिल्में रियायती दर पर दिखाते थे, अब यह सहूलियत खत्म हो गयी थी। नयी से नयी फिल्में आधुनिक सिनेमा हालों में एक–दो हफ्ते चलती थी – इसी अवधि में वे अच्छा व्यवसाय कर जाती थी। उसके बाद वे टी वी चैनलों पर चलती थी।
सिनेमा व्यवसाय पर कुछ बड़े निर्माताओं का एकाधिकार हो गया था। छोटे शहरों के सिनेमा हाल लगातार बंद होते गये, वे सिनेमा मालिक बरबाद हो गये जिनके पास सिनेमा चलाने के अलावा कोई धंधा नहीं था। जो छोटे शहर और कस्बे सिनेमाहाल के कारण गुलजार रहते थे, वहां वीरानगी दिखाई देने लगी – चहल–पहल खत्म होने लगी।
सिनेमाहाल केवल मनोरंजन के साधन नहीं थे, वे संस्कृति के भी केन्द्र होते थे। वे अकेले और उदास आदमी के पनाहगाह थे जहां जा कर आदमी अपने गम भुला देता था। सिनेमाहाल आदमी की एकरसता में हस्तक्षेप करते थे। जैसे–जैसे सिनेमाहाल बंद होते गये शहरों की धड़कनें बंद होती गईं – हालांकि टी. वी. और वी. सी. डी. जरूर उसका विकल्प बनी लेकिन सिनेमाहाल में फिल्म देखने का मजा कुछ और होता था। अन्य साधन से फिल्म देखने में एकाग्रता नहीं होती लेकिन जब हम सिनेमाहाल में फिल्म देखते है तो एक–एक दृश्य को अपने भीतर जज्ब करते रहते हैं। जब कभी मैं अपने पुराने शहरों में जाता था तो सिनेमा हालों को बुत की तरह देख कर सिहर जाता था। मुझे पुराना गीत याद आने लगता था –
वक्त ने किये क्या हसीं सितम
तुम रहे न तुम हम रहे न हम।
सबसे पहले छोटे शहरों के सिनेमाहाल बंद हो गये फिर बड़े शहरों के सिनेमा हालों के बंद होने का नम्बर आया, सिर्फ बड़े सिनेमाहाल चलते रहे लेकिन वे भी अन्तत: बंद होने लगे- उन्हें या तो मैरेज–हाल या शोरूम में तब्दील कर दिया गया या उन्हें मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल में परिवर्तित कर दिया गया।
॥तैतीस॥
डिजिटल तकनीक छोटा डायनासोर थी लेकिन पी. वी. आर. और मल्टिप्लेक्स सिनेमा बड़ा डायनासोर था, वह बचे हुए सिनेमा हालों को निगल गया था। इसी के साथ मल्टीप्लेक्स सिनेमा की शुरूआत हुई जिसमें एक साथ एक ही परिसर में तीन सिनेमाहाल होते थे। परिसर में सिनेमाहाल के अतिरिक्त कई तरह के शोरूम और शाप होते थे जिसमें आधुनिक जीवन से साजो-सामान बिकते थे। उनके टिकट दर 300 से 500 के होते थे, उनकी बुकिंग इंटरनेट के माध्यम से होती थी। यह उस वर्ग का सिनेमा था जिसके पास धन की कोई समस्या नहीं थी। इस वर्ग के दर्शक कार से आते और अपने परिवार पर आसानी से दो–तीन हजार खर्च करते, सिनेमा के परिसर में लंच लेते और इठलाते हुए घर वापस चले जाते थे। इस तरह आम आदमी के लिए सिनेमा दूर होता गया। कभी नौजवान लड़के पैसा–वैसा इकट्ठा करके फिल्में देख लेते थे लेकिन उस तरह फिल्में नहीं देख पाते थे जैसी इस तकनीक के पहले देखते थे। इस तरह सिनेमा पर पूंजीपति और कारपोरेट का एकाधिकार होता गया।
मल्टीपलेक्स और डिजिटल तकनीक ने सिनेमा की दुनिया में एक क्रांति पैदा कर दी थी लेकिन यह क्रांति आम दर्शकों की बेहतरी के लिए नहीं था बल्कि उच्च वर्ग के आनंद के लिए था। यह महंगी प्रणाली में टिकट दर भी उच्च थी।
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इस मल्टीपलेक्स की दुनिया में पी. वी. आर. का आगमन हुआ जिसने देखते ही देखते देश में एक श्र्ंखला ही बना डाली । पी. वी. आर. का नाम ही बहुत क्लासिक था यानी प्रिया विलेज रोड शो–नाम देसी और काम विदेशी। हमारे देश में संस्कृति की शुरूआत ऐसे ही होती है – किस तरह अभिजात दुनिया के लोग अपना शीर्षक चुनते हैं – लोकसंस्कृति में थोड़ा फेर बदल कर उसे आधुनिक रूप दे देते है। वह लोकगीत याद करिए – जब से सिपाही से भइले हवलदार हो, नथुनिया पे गोली मारे, यह बेहद प्रचलित लोकगीत है। इसे तब्दील कर के जो गीत बनाया गया है, उसने इस गीत का सौंदर्य ही नष्ट कर दिया है – देखे अपने दीवाने का कर दे बुरा हाल रे – कि अंखियों से गोली मारे। इसी तरह एक लोकगीत की भौड़ी नकल की गयी है- सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे/ जाड़े में बलमा प्यारे लगे। सैया हुए कोतवाल नथुनियों पर गोली मारे। ऐसे बहुत से उदाहरण फिल्मी दुनिया में मिलेंगे जिसमें लोकगीतों और लोक-परिधानों का इस्तेमाल मिल सकता है, कभी–कभी मजाक उड़ाने की प्रवृति भी दिखाई देती है। अब शैलेंद्र जैसे गीतकार नहीं रह गये है जिन्होनें अपने गीतों में लोक-बिम्बों का अदभुत प्रयोग किया है। अधिकांश गीतकार तो नकलची बंदर हैं – उनके भीतर कोई मौलिकता नहीं है। फिल्मों में न गीत अच्छे है और न संगीत की कोई समझ है।
पी. वी. आर. बहुत बड़ी कम्पनियों का समूह था, इसकी शुरूआत दिल्ली के प्रिया सिनेमा से हुई थी। अब तक देश के विभिन्न 69 शहरों इस कम्पनी के 845 मल्टिप्लेक्स हैं। पड़ोसी मुल्क लंका में 172 केन्द्र हैं, उनकी संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। इन मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों के अर्थशास्त्र समझने के साथ उसकी संस्कृति को जानना आवश्यक है। इन सिनेमा घरों में दिखाये जाने वाले नायक आम आदमी के प्रतिनिधि नहीं हैं – वे डान और माफिया के संवर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। उनकी जीवन शैली बहुत मायावी है – वे हवाई जहाज से दुनिया भर की सैर करते हैं। खूबसूरत स्त्रियों से इश्क लड़ाते हैं। वे खुला और विलासितापूर्ण जीवन जीने के हिमायती हैं। पी. वी. आर. में केवल पूंजीपतियों के नहीं, राजनेताओं के भी निवेश होते थे इसलिए ऐसे सिनेमा हालों को पांच वर्ष की कर में छूट दी गयी थी।
ये जिस संस्कृति के लोग थे, उसी संस्कृति को बढ़ाने का काम करते थे अत: फिल्में उनके वर्ग और हित को पोषित करती थी। इन फिल्मों ने नैतिकता के तमाम मापदंड तोड़ दिये थे। चुम्बन, आलिंगन और सहवास के दृश्य प्रतीकों के माध्यम से नहीं खुलेआम दिखाये जाते थे। सेंसर बोर्ड उनके लिए उदार था, एडल्ट फिल्मों को यू सर्टिफिकेट आसानी से मिल जाते थे। डिजिटल प्रणाली के नाते हजारों प्रिंट दुनिया के सिनेमाहालों के लिए उपलब्ध थी। फिल्मों की शूटिंग उस जगहों पर होती थी, जहां प्रवासियों की संख्या ज्यादा होती थी। इस तरह की फिल्में अन्तरराष्ट्रीय दर्शको को ध्यान में रख कर बनायी जाती थीं। डिजिटल प्रणाली होने के नाते पूरी दुनिया में एक साथ फिल्में रिलीज की जाती थीं।
फिल्मों की सफलता उस फिल्म की अच्छी या बुरी होने से नहीं मापी जाती थी बल्कि उसने कितने करोड़ का व्यवसाय किया, इससे मापी जाती थी। जो फिल्में सौ करोड़ का आकड़ा पार कर जाती थीं, उसे सफलतम माना जाता था। ऐसी फिल्मों में दंगल, थ्री इडियट, किक, टाइगर जिंदा है, पी. के., रईस, चेन्नई एक्सप्रेस, धूम, बाहुबली, प्रेमतरतन धन पायो, सुल्तान, बाजीराव मस्तानी जैसी फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। ये फिल्में हमें किसी तरह का सामाजिक संदेश नहीं देतीं, वे हमें ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जिसमें कृत्रिम भव्यता है। वे हमारे भीतर के लम्पट और अपराध भाव को जागृत करती हैं। वे हमे अमीर बनने के तौर- तरीके बताती हैं।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल – 9415332326
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