यतीश कुमार का संस्मरण "और कितने करीब"।

 

यतीश कुमार

 

 

ज़िन्दगी अपने आप में एक महाकाव्य या कह लीजिए उपन्यास होती है। हर ज़िन्दगी एक जैसी लगती हुई भी बिल्कुल अलग। अल्हड़पन और अपनी असाधारणता से भरी हुई। रचनाकार इस मायने में विशिष्ट होता है कि वह जीवन की घटनाओं को तरतीबवार शब्दबद्ध कर संस्मरण में ढाल देता है। कवि यतीश कुमार के पास भी अपने जीवन की ढेर सारी ऐसी कहानियाँ हैं जो दरअसल एक समय में हकीकत बन कर गुजरी थी। जीवन का हर पल जैसे रोमांच से भरा हुआ और कुछ कुछ नया कर गुजरने की भावना ने यतीश को कई बार मौत का एक तरह से साक्षात्कार सा करा दिया। यतीश कुमार के इस संस्मरण में वह प्रवहमानता है जिसमें एक पाठक जब गोता लगाता है तो भीग कर ही वापस आता है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं यतीश कुमार का संस्मरण "और कितने करीब"

 

 

"और कितने क़रीब !"

 

 

यतीश कुमार

 

 

रह-रह कर वो मुझे बुलाती है, बोसे लेती है और फिर आलिंगन का वादा दे कर लौट जाती है। वो संभावना मात्र नहीं परम सत्य है फिर यह आँख मिचौली क्यों ? मेरी परीक्षा ली जा रही है या फिर मुझे किसी खास उद्देश्य से अनुभव करवाया जा रहा है ! अनुभव वो भी अंतिम सत्य के साथ संस्पर्श का ! क्या ही संयोग है कि राजेन्द्र यादव जी का लिखा लगभग आत्मकथ्यमुड़- मुड़के देखता हूँका अंश जो दुर्घटनाओं में भी बचा रहता हैपढ़ते-पढ़ते अपना अधूरा लिखा संस्मरण पूरा करने की टेर भीतर से उठी और उसे फिर नए सिरे से लिखने बैठ गया

 

 

बात की शुरुआत उस समय से करते हैं जब मैं : साल का था। माधोपुर, मुंगेर मेरा ननिहाल और उन दिनों ननिहाल मतलब खुशियों की नगरी। लगभग हर पर्व में सारे भाई-बहन इकट्ठा हो जाते। संयुक्त परिवार, नाना जी तीन भाई थे, उन सबके बेटों-बेटियों के बच्चे, कुल मिला कर हम 24-25 बच्चे और उनमें मेरी बड़ी बहन और बड़े भाई भी। रात और दिन में फर्क हो सकता है पर बिताए लम्हों में नहीं। खूब धमाचौकड़ी! समय पुरज़ोर अंगड़ाई लेता और हमें वक्त का पता ही नहीं चलता।  बेकापुर में परिवार का सोना-चाँदी का व्यापार था। हम लोगों को जब भी समोसा या रसगुल्ला खाना होता तो हम शाम को दुकान पर चले जाते। यह जैसे परंपरा सी थी कि शाम को जाने से समोसा मिलेगा ही मिलेगा। कभी-कभी रबड़ी भी मिलती थी या मुंगेर का सबसे प्रसिद्ध सोहन पापड़ी। स्वाद का असर ऐसा है कि आज इतने साल के बाद भी लिखते समय मुँह में पानी रहा है

 

 

दीपावली के दिन दुकान पर पूजा होती, नए बही-खाते की शुरुआत, व्यापारियों के लिए नव वर्ष होता है हम सभी बच्चे वहीं दुकान पर पूजा के बाद कुछ पटाखे वगैरह छोड़ते और फिर बाकी पटाखे लौट कर घर पर छोड़ते।

 

 

एक बार की बात है, छः साल का मैं वहीं दुकान पर फुलझड़ी घुमा रहा था और घुमाते-घुमाते मेरा हाथ अपने आप ही सामने की बजाय खुद की ओर घूमने लगा। बाकी का काम मेरी नायलॉन वाली टी-शर्ट का था सो एक साथ लहलहाने को तैयार, पर बड़े नाना की नतिनी, मिन्नी दी ने आग को जैसे ही मेरे बदन को छूते देखा त्वरित गति से पास में रखा बाल्टी भर पानी मेरे ऊपर उड़ेल दिया। मुझे तो पता भी नहीं चला कि पल भर में क्या से क्या हुआ और क्या होने से टल गया मैं गोलू-मोलू मासूम कद्दू-सा मुँह लिए सबको बस ताक रहा था

 

 

बहरहाल यह शायद उसकी अनसुनी दस्तक थी जो यूँ ही आकर गुज़र गयी या यूँ कहिए कि एक टहल्ला मार गयी। शायद अनजाने उसकी सरसराहट आती रही हो पर उस समय मेरी उमर ऐसी तरंगों को पकड़ने के क़ाबिल नहीं थी। शायद उसे बेख़ौफ़ी बिल्कुल नापसंद है इसलिए रह-रह कर संदेश भेजती रहती है पर हम इतने मशग़ूल-मसरूफ़  रहते हैं अपने आबो-दाने में कि अदीठ हिदायतों की तौहीन करते रहते हैं और इस तरह इशारों का बिंदु अपने चरम की ओर खिसकता रहता है।

 

 

ऐसा ही हुआ जब अगली दीपावली में मैंने अपने हाथ में ही अनार फोड़ लिया और पूरी की पूरी हथेली लगभग जल गयी, जिसके दाग हथेली पर और ज़ेहन में सिहरन आज भी हैं। मुझे लगा कुछ तो सिग्नल है जिसे मैं पकड़ नहीं पा रहा हूँ। माधोपुर, मुंगेर में दुर्गापूजा बहुत धूम-धाम से मनायी जाती है और हमारा परिवार आयोजकों के समूह का अगुआ रहा है। दशहरा में वैसा आनंद अब मुमकिन नहीं  और अब यह सदा के लिए टीस भरा अफसोस भी है। हमारे लिए वे दस दिन मस्ती का चरम हुआ करता था। हम मेला घूमते, झूला झूलते, कँचे खेलते और खूब मस्ती करते। उन दिनों नौ दिनों तक सीने पर कलश लिए सोए आदमी को देखकर आश्चर्य नहीं होता था क्योंकि, सुध नहीं थी पर अब सोचता हूँ कि बिना खाये-पिये लगातार नौ दिन अपने सीने पर कलश स्थापित किए कोई कैसे रह सकता है! ध्यान, योग, विश्वास, और आस्था का संतुलित मिश्रण से ही सम्भव है यह।

 

 

सबसे ज़्यादा आनंद भसान के समय आता था वैसे तो हर टाली का अपना नंबर बंधा हुआ था पर अंदर से  क्रम तोड़ने की इच्छा सबकी रहती, सबसे पहले बड़ी दुर्गा उठती थीं फिर बाकी सब। हमारा नंबर छत्तीसवां था।

 

 

माधोपुर से घाट तक हम टाली को ठेलते हुए लाउडस्पीकर पर खूब नाचते-झूमते हुए जाते और फिर टाली पर ही थक कर बैठ जाते। लौटते समय जब माँ दुर्गा की प्रतिमा विसर्जित हो चुकी होती तो टाली पहले के बनिस्बत हल्की हो जाती और उसकी गति और भी तेज़। सभी को घर पहुँचने की जल्दी जो रहती। हम बच्चे कभी टाली ठेलते, कभी बैठते और कभी उसी पर लेट भी जाते। इसी बैठने, ठेलने और लेटने के क्रम में एक बार जाने कैसे मुझे झटका लगा और मेरा पैर टाली के चक्के के नीचे गया और लड़खड़ा कर गिरने ही वाला था कि किसी ने मुझे तेजी से टाली से दूर खींच लिया। दरअसल मेरी लड़खड़ाहट टाली के चक्के की ओर हुई थी कि किसी अनजान सहारे ने मुझे बचा लिया। क्यूँकि अगर मैं उस ओर गिरता तो चक्का मेरे सिर के ऊपर से निकल जाता और फिर क्या होता यह भगवान ही जानता है। उस समय मेरी उम्र यही ग्यारह-बारह बरस के बीच की रही होगी।

 

 

इस बार बस उसके दस्तक की बस आहट भर हुई थी! उसने मुझे रह-रह कर टटोलने की कोशिश की, समझाने की भी शायद पर मेरी स्थिति ऐसी थी कि पात्र अगर उल्टा पड़ा हो तो सारा पानी टघर जाए।

 


               

 

ऐसी छोटी-मोटी घटनाओं से भरा बचपन रमना रोड, पटना पहुँच गया। एक बहुत ही छोटे से घर में, जो पहले माले पर था, हम चार लोग रहते थे। माँ-पिता नौकरी पर जाते, हम दो भाई-बहन घर में मस्ती करते। घर में हम दोनों का अकेले होना शैतानियों को दावत देने जैसा था। हम कुछ कुछ करके एक-दूसरे को मूर्ख बनाते रहते और इसमें कोई शक नहीं कि मैं एक नंबर का बेवकूफ हुआ करता था और मेरी दीदी सबसे स्मार्ट। उस जमाने में इलेक्ट्रॉनिक नहीं बल्कि इलेक्ट्रिक कॉल बेल हुआ करती थी। उस घर में जो कॉल बेल लगी थी वह गुलाबी मछली के आकार की बनी हुई थी। एक दिन दीदी ने मुझसे कहा, अगर मैं इस गुलाबी मछली को छू दूँगा तो सुपरमैन बन जाऊँगा, उसने इतने नाटकीय आत्म विश्वास से यह बात कही कि मुझे लगा मैंने इसे छुआ और ये लो सुपरमैन उड़ चला।

 

 

और हुआ भी कुछ वैसा ही। मैंने कॉल बेल की घण्टी के बीच अपनी उँगली घुसेड़ दी और फिर मैं तो नहीं उड़ा मेरे होश उड़ गए। कान से धुआँ निकलना किसे कहते हैं उस दिन अच्छी तरह समझ में गया। आज भी बचपन की उस घटना का ज़िक्र हल्की हँसी के साथ सिहरन लिए हुए आता है।

 

 

उस दिन वो दस्तक, घंटी बजा के चली गयी थी! उस घंटी की गूंज रह-रह कर बजती पर जैसे सड़क किनारे के मकान वाले हॉर्न और घंटी को नजरअंदाज करने के आदी हो जाते हैं, मुझे भी यह सामान्य लगने लगा।

 

 

पटना से माँ का ट्रांसफर लखीसराय हो गया और हम अस्पताल के पीछे एक हॉल में कपड़ों की दीवार के खोले बना कर रहने लगे। बड़े भाई सैनिक स्कूल में पढ़ते थे और छुट्टियों में जब घर आते थे तो हम सब उनकी सारी ख्वाहिशों को पूरा करने में जुट जाते। इस बार भाई की जिद के कारण खस्ताहाली  के बावजूद माँ ने महंगा टेपरिकॉर्डर दिलवा दिया। इसका असर यूँ हुआ कि माँ जब भी अस्पताल जातीं, हम तीनों टेप रिकॉर्डर में ही लगे रहते। खूब गाने सुनते, कभी उसके रील समेटते, कभी टूटे रील जोड़ते। इस काम के लिए रेनॉल्ड का पेन बड़े काम की चीज थी उन दिनों। उसी से हम कैसेट का रील समेटते और अगर रील भीतर ही फंस जाता तब हम पूरे रील को निकाल कर फिर से उसे रोल करते। कैसेट को पेन से यूँ घुमाया जाता मानो सुदर्शन चक्र हो हमारे हाथों में।

 

 

माँ को जल्द ही समझ में गया कि अब पढ़ाई को तिलांजलि दी जाने वाली है और गानों के दिखाए सपनों की उड़ानें अपनी सीमाएँ लाँघ रही हैं। हमें ज़मीन पर लाने के लिए वो टेपरिकॉर्डर के तार बक्से में बंद कर जातीं। बेचैनी में अब हमारा हाल उस चरसी की तरह हो गया था जिससे गाँजा छीन लिया गया हो

 

 

बड़े भाई बोर्डिंग वापस जा चुके थे, दीदी और हम अब नए जुगाड़ में लग गए कि टेपरिकॉर्डर को फिर से कैसे  चलाया जाए। मैंने एक बेवकूफी भरे जुगाड़ पर काम करना शुरू कर दिया। बाहर जो बल्ब टंगा था उसके तार निकाल लिए और उसी से पावर कनेक्शन जोड़ने की कोशिश करने लगा, चूँकि उसका एडाप्टर और पिन अलग होता है इसलिए टेपरिकॉर्डर को भीतर से खोल कर सीधा तार जोड़ दिया। टेपरिकॉर्डर फिर भी नहीं चला तो मुझे लगा कहीं कनेक्शन का लफड़ा है या कुछ छूट रहा है। यही सोच कर, बिना यह जाने कि तार का दूसरा छोर अभी भी बोर्ड से जुड़ा हुआ हैमैंने अपने दाँत से तार को छिलने की कोशिश की और अगले ही पल मेरे पूरे शरीर में जोरदार बिजली कौंधी और मैं लगभग हवा में उछाल दिया गया। बिजली का झटका इतना तेज था कि दाँत बहुत देर तक कटकटाते रहे, लगा खून जम गया है, कानों में सनसनी दिन भर बनी रही। माँ लौटीं तो मेरे मुँह में सूजन देख रो पड़ीं। रोते-रोते मेरी पूरी तरह से सिकाई भी हुई सो अलग।

 

 

मौत ने इस बार बस मुँह बिचकाया था! इसके बावजूद ज़िंदगी की गति ऐसे इशारों को क़बूल करने के लिए तैयार नहीं थी। यौवन की ओर बढ़ता कदम किसी बंदिश को कहाँ स्वीकारता है। स्वच्छंदता उस समय अपने चरम पर थी। 

              

 

आठवीं कक्षा में गया ही था मैं, हमारे घर के चारों ओर ढ़ेर सारे तालाब थे जो पानीफल से लबालब भरे रहते। इतने खूबसूरत और स्वादिष्ट कमलगट्टे की फली और पानीफल। स्कूल से कई बार जल्दी छुट्टी हो जाती या कई बार हम भाग लेते। गर्मी के दिनों में इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता कि आप पानी में दोनों हाथ-पैर फैलाये उलटे मुँह तैरते रहें और फल-फली खाते रहें। हालाँकि, पोखर मालिक की नज़र से बचना भी एक कला थी, जैसे देखा सट नीचे गोता। वहीं उल्टा तैरता घड़ा घण्टों छुपने का बेहतरीन जुगाड़ भी था जिसके सहारे पानी में कई घण्टे बिताए जा सकते थे। पर जिस दिन उसकी दस्तक होती है आपकी सारी चालाकियाँ काफूर हो जाती हैं और सारा विश्वास धरा का धरा रह जाता है। मस्ती-मस्ती में गोता लगाते ही पैर पानीफल के जाले में फंस गया। ज़्यादा पैर-हाथ चलाने से हाथ में सहारे की शक्ल लिए कमल की डंठी आयी, जो शरीर के साथ ही नीचे हो जाती है। इससे दहशत और बढ़ गई। अचानक दिमाग शून्य और साँस गुम। अंधेरा घोर और पानी छाती में भरने लगा। लगा जैसे इस बार उसने दस्तक के साथ भीतर प्रवेश कर गले पर क़ब्ज़ा कर लिया है !

 

 

साँस की आख़री घूँट बची थी कि तभी किसी ने मेरे बालों को मजबूत बाजू से खींचा और अँधेरे में ही चार थप्पड़ गाल पर जड़ दिए। वो पहरेदार बाबा ही थे जिससे बचे फिरते हम अपने आप को तुर्रम ख़ान समझते थे। आज उन्होंने ही जान बचाई थी। एक बार फिर वो काली जादूगरनी मेरे सामने से सरसराते हुए गुज़र गयी! इस बात का असर काफ़ी दिनों तक रहा स्मृति बढ़ते समय के साथ अपनी परिमिति घटाती रहती है और फिर याद करते ही या यथार्थ की धूप पड़ते ही अचानक केंचुए सा फैल जाती है

               

 

अबकी बार तो वह मुझसे मिलने कई सालों तक नहीं आयी और मुझे लगने लगा बला टली, एक बड़ा अपशकुन था जो कट गया। दसवीं पास कर पटना साइंस कॉलेज में दाखिला ले, वहीं रामानुजन होस्टल में रह रहा था। पास में ही गंगा नदी बहती थी। पानीफल वाली पिछली घटना के बाद पानी से एक अजीब सा डर लगने लगा था मुझे, क्योंकि पुरानी यादें अपनी आयात कम कर रही थी, ख़त्म नहीं। 

 


              

वहाँ होस्टल में हम चार रूममेट हमेशा एक साथ रहते, बाक़ी सभी से बिल्कुल अलग, बिल्कुल जुदा। हमें कुछ हट कर काम करने का एक अलहदा जुनून सवार रहता और इसी क्रम में  एक दिन जोश में हम चारों ने एक साथ बाल मुंडवा लिया। हम रोज़ घण्टों खूब वर्जिश करते। मेस वाले निहायत खराब खाना के लिए मेस के ठेकेदार से लड़ लेते और दो-दो महीने चूड़ा-दही पर ही काट देते। हम चारों स्काउट वाली टोपी को तिरछी कर के पहनते और साइकिल से एक साथ सिनेमा जाते। कभी साथ तो कभी एक दूसरे से छुप कर भी सिनेमा जाया जाता और एक बार तो हद ही हो गई। रुख़सार की फ़िल्म लगी थी "याद रखेगी दुनिया" अमित कुमार के गाने थे। रुख़सार की मासूमियत का जादू हम सभी पर एक सा तारी था और मुझे उसमें अपनी प्रेमिका की झलक दिख रही थी। वैसे तो इस उम्र में हर कोई हर हीरोइन की अदायगी में अपनी प्रेमिका को ही देखता है पर रुख़सार की अदायगी और शक्ल बहुत मिलती थी उससे।

               

 

फ़िल्म, परीक्षा के ठीक पहले रिलीज हुई थी और हम चारों ने क़सम खाई कि परीक्षा खत्म होने से पहले कोई भी फिल्म नहीं देखेगा। हम चारों परीक्षा के दिनों में 15-16 घण्टों तक पढ़ लेते थे पर सिनेमा हमारी कमजोर नब्ज बन गयी थी। 

                 

 

शनिवार की सुबह ही मैंने बहाना बनाया कि मुझे अपने चाचा जी से मिलने जाना है और रात का खाना खा कर ही आऊँगा, जबकि दूसरी तरफ़ मन में मैंने यह तय कर लिया था कि आज नाईट शो देखे बिना नहीं लौटूँगा। 9 बजे से पहले ही वीणा सिनेमा हॉल पहुँच गया तो देखा कि मेरे तीनों दोस्त भी टिकट वाली लाइन में ही खड़े हैं और हम सब एक दूसरे को देख खिलखिला कर हँस पड़े।

                  

 

अगली सुबह महेंद्रू घाट पर नहाते हुए हमने एकाएक निर्णय लिया कि आज गंगा को तैर कर पार किया जाए। हम चारों तैराक थे पर मैं उनके मुकाबले थोड़ा कमजोर तैराक था, हालांकि उलट कर आसमान ताकते हुए मैं उनसे बेहतर तैरता था। हम चारों गंगा में कूद पड़े। उत्सुकता और जोश भी उफान पर था और उन्हीं से लबरेज़ हम काफ़ी आगे निकल आये थे। हमने लगभग आधी गंगा पार कर ली थी। मैं बार-बार तैरते-तैरते स्वभाववश पलट जाता और आसमान ताकते हुए साँस लेने लगता। बीच गंगा में बहाव इतनी ज़्यादा तेज थी कि मेरी दूरी बाक़ी लोगों से बढ़ती जा रही थी। यह शायद उल्टा तैरने के कारण भी हो रहा हो, ख़ैर धीरे-धीरे इतनी दूरी बढ़ गयी कि अब मेरी आवाज़ उन तक नहीं पहुँच पा रही थी। बस हाथ चलाती सब की छोटी-छोटी आकृतियाँ ही दिख रही थीं।  

                 

 

सूरज भी अब सिर चढ़ चुका था और धूप मेरे चेहरे पर सीधे पड़ रही थी। पानी में मैं बारी-बारी से ठंडा-गरम महसूस कर पा रहा था कि तभी मैंने अपने आप को तीन-चार, मुझसे भी बड़ी मछलियों के बीच घिरा पाया, शायद डर का आकार ख़ुद बढ़ जाता है। मछलियों का आकार डर-सा ही था और उस डर ने मेरे शरीर को अचानक स्थिर कर दिया। बीचों-बीच, इतने बहाव में मेरा स्थिर हो जाना, एक बड़ी मुसीबत को आमंत्रण देने से कम नहीं था। मछलियाँ सामान्य थीं पर मेरा दिमाग़ शून्य हो गया था। मुझे लगा अब मैं पानी पीने लगा हूँ, शरीर भारी होने लगा है, मछलियाँ नज़दीक आती जा रही हैं, तपता सूरज मद्धम होने लगा है, बादल काले-घने गहरा रहे हैं कि तभी एक मछली मेरे शरीर को छूती निकल गयी और मेरी मद्धम चेतना में ऊर्जा संचारित होने लगी।  

 

 

वो मछलियाँ दरअसल डॉल्फिन थीं पर मेरे डर ने उन सुंदर मछलियों को विकराल और विकृत कर दिया था जो चेतना की वापसी के साथ सुंदर दिख रही थीं। दूर तीनों मित्र उस पार पहुँच कर हाथ हिला रहे थे।

 

 

उसने इस बार एक अद्वितीय स्पर्श किया था। विधि और विधान को समझने के लिए हर बार उम्र कम पड़ जाती है या शायद शारीरिक व्यवस्था से ज़्यादा मानसिक चेतना की परिपक्वता की अहमियत है। कभी- कभी मन करता उससे गुफ़्तगू करने लगूँ ,पर उससे बातें करने से पहले खुद से बातें करना ज़रूरी है और मैं था कि किताबी बातें करने में लगा पड़ा था।

                 

 

कई साल बीत चुके थे, मैं उसे भूल चुका था पर वो, उसकी स्मृति तो अनंता है। अब मैं रेल अधिकारी था, जमालपुर रेल कारख़ाने में पोस्टिंग, क्लब मेरे हाथ में, होली का दिन और व्यवस्था में नशा। सभी सदस्य सपरिवार क्लब में जम कर डांस कर रहे थे। ठंडाई और भांग का जाम चल रहा था। नाश्ता ले कर क्लब बॉयज टहल रहे थे।  मैंने एक पकोड़ा उठाया, उसके पहले काट से मुझे पता चला कि यह एक बड़े मिर्च का टुकड़ा है और अगले ही क्षण मिर्च का एक बिया सीधे मेरे कंठ में चिपक गया। उसकी चुभन इतनी तीव्र थी कि लगा जैसे गला बिना दबाए ही चोक कर दिया गया हो। मेरी आवाज़ नहीं निकल रही थी और कोई मेरी ओर देख भी नहीं रहा था। मुझे लगा पता नहीं क्यों मैं नाक से साँस लेना भूल गया हूँ और समय सच में काला धुआँ बन मेरे सामने खड़ा है। मैं शायद स्वर्ग या नरक के चौखट पर, शोर अब शून्य में तब्दील हो रहा था। पत्नी, माँ, बच्चे, सबका चेहरा बारी-बारी सामने रहा था कि अचानक अंतिम साँस के पहले पत्नी स्मिता का हाथ पानी का एक गिलास लिए खड़ा दिखा और मैं एक ही साँस में पूरा गिलास गटकने के बाद पसीने से तर-बतर वहीं गिर पड़ा।

 

 

उसने इस बार मिर्च के बिये का रूप धर कर हलक तक आने की चेष्टा की थी। एक हठी माशूका की तरह वो वापस मुझसे लिपट पड़ी थीं और मैं सिहर गया था। ये क्यों होता है मेरे साथ? क्या वो वही है जिसे माया कहते हैं या उसकी काली साया। क्या ये याद दिलाने के लिए कि सब माया है, सब छाया है, सब मिथ्या है!

 

 

वो एक नदी है ,अनजाने मुझे लगता है वो कभी भी छलाँग मार कर मुहाना तोड़ती हुई मुझसे मिलने, मुझे अपने साथ लिवाने आएगी, पर वो किनारे से लौट जाती है अपना दायरा समेटते लेकिन मेरा मन कहता है नदी को समंदर बनते देर नहीं लगेगी। नदी के इस पार प्रतीक्षा है  जो एक पहाड़ सा इंतज़ार लिए सजग खड़ी है और मैं इस इंतज़ार में हूँ कि दोनों का मिलन कब हो और मैं बस उस पहाड़ को लीलते हुए विलय के दृश्य में समाहित हो पाऊं। यह घटना उनींदे अचानक घट जाए बस इस बात का डर बना रहता है। मुझे कुछ नहीं होगा' का आत्मविश्वास कब चकनाचूर हो जाये पता नहीं, पर इससे पहले उसे मैं जी भर कर देख लूँगा यह कशमकश, उधेड़बुन की शक्ल इख्तियार कर रहा है।

 

 

बचपन से मेरी आदत है, होली के दिन भांग खाने की! कभी किसी होली में यह सिलिसिला नागा नहीं हुआ। साल 2012 में सियालदह चुका था और वह सियालदह की दूसरी होली थी। पहली में जो भाँग मंगवाई गयी थी उससे कुछ बात नहीं बनी थी और मैं बहुत निराश और नाराज़ भी हुआ था। इस बार क्लब बॉय को पहले से ही हिदायत मिल गयी थी कि मेरा विशेष ख़्याल रखा जाए, खास कर भांग के परिप्रेक्ष्य में! होली के रंग में सराबोर हम, कभी सड़क पर ड्रम बजाते, कभी लाउडस्पीकर बजा कर डांस करते और फिर अंत में स्विमिंग पूल में ऐसे कूद जाते जैसे खुद का विसर्जन कर रहे हों। पानी के भीतर शांति मेरा इंतज़ार करती जैसे जमाने से कट कर साधना और समाधि वाली स्थिति हो जो भीड़ में विलग होना एकांत एकांकी भाँग के जादू का असर के साथ ही संभव है।

 

 

सियालदह की होली बाक़ी सभी रेलवे कॉलोनियों की होली से भिन्न थी और मुझे बहुत ही प्रिय भी। उस दिन जब थक-हार कर घास पर बैठ गया तब भाँग ठंडाई के रूप में दी गयी। मुझ तक आते-आते बर्तन में बची हुयी वो ठंडाई पहुँची, जो काफ़ी गाढ़ी थी। थोड़ी आशंका के बावजूद मैं पूरा गिलास गटक गया और फिर एक और गिलास। नशा धीमे से दबे पाँव तारी था क्योंकि भाँग धीमे-धीमे मुझे अपने कब्जे में ले रही थी। थोड़ी देर तक सब ठीक रहा पर अगले ही पल मुझे यह समझ आने लगा कि भीतरी घुटन गले में जमा हो रही है। इससे पहले की होश बेहोशी में बदले, संज्ञा शून्य हो जाये, मेरे पाँव घर की ओर सायास बढ़ चुके थे। संयोग से घर क्लब के ठीक सामने था।

 

 

मैं कैसे घर पहुँचा कुछ भी याद नहीं। एकबारगी होश आया तो खुद को बिस्तर पर गिरा पाया। पत्नी की आवाज़ रही थी - "इन्हें छोड़ दो, कोई डिस्टर्ब मत करो। नींद से उठेंगे तो शाम तक सामान्य हो जाएँगे।" ऐसी स्थिति हर होली की थी, जिसकी वो आदी हो चुकी थी। बिस्तर पर मेरी स्थिति बहुत भयावह हुए जा रही थी। लग रहा था मस्तिष्क पिघल कर गले में उतर रहा है और उदर से भी एक उफान गले तक पहुँचने की कोशिश में है और गला चोक होता जा रहा है। शरीर सोया हुआ था पर दिमाग़ के एक कोने की बत्ती अभी भी जल रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई काली पोशाक मेरे पूरे शरीर पर केंचुली की तरह कसी जा रही है और मैं निष्प्राण सब कुछ ऐसे देख रहा हूँ जैसे अभी अपने भीतर से आत्मा की जलती लौ को निकलते देखता रह जाऊँगा। मौत की दिव्यता देखना भी तो अलौकिक चमत्कार से कम नहीं। 

          

 

मेरी चेतना एक डिबिया की लौ की तरह भकभका रही थी पर बुझी नहीं थी। उस चेतना की लौ ने मुझे चिल्लाने का संकेत दिया और मैंने  जोर से चिल्लाने की कोशिश भी की। गले पर अदृश्य जाला सा बन गया था जैसे सघन निर्वात में अंदर की आवाज विलुप्त हो रही हो। कुछ गों-गों की आवाज दबी कुचली सी निकली और शायद बंद दरवाज़े तक जा कर दम तोड़ गई। मेरी छटपटाहट भीतर ही भीतर उद्वेलित-आंदोलित होने की लड़ाई लड़ रही थी और पत्नी की, बच्चों को दी जा रही हिदायत मेरे कानों में घुले शीशे का काम कर रही थी। वो यही कहे जा रही थी कि पापा को कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा। ऐसा लग रहा है थोड़ी ज़्यादा पी ली है। जब मैं शुरुआती बेहोशी में रहा होऊँगा तब बीच में मुझे कुछ खट्टा, निम्बू या इमली का पानी पिलाने की कोशिश भी की गई थी। शायद अपने प्रयास में वो विफल रही होगी। उसने होली में हर बार मेरा ऐसा रूप देखा था और वह मुझे झेलने की आदी भी हो चुकी थी। पिछली बार तो नशे में बच्चों ने कितने प्रश्न किये और मैंने जो उत्तर दिए उसका वीडियो उतारा और उसे देख अभी भी पूरा परिवार हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता है। उन सभी प्रश्नों में एक प्रश्न का उत्तर हमेशा सही रहता कि मैं किसको सबसे ज्यादा प्रेम करता हूँ? ख़ैर अभी मेरी जो स्थिति थी वो हर साल वाली नहीं थी। भयावह थी, भीतर बवंडर उठ रहा था और उस काले साये की आहट सुनाई पड़ रही थी। ऐसा नहीं है कि भाँग खाने या पीने पर सभी को ऐसा लगता है। उस समय 40 साल का था मैं और पिछले 25 सालों से होली में भाँग पीता आया था। मुझे अच्छी तरह पता था इसबार कुछ भयानक और अक्षम्य गलती मुझसे हुई है। वो गिलास बची हुई ठंडाई का था, जिसमें जमी हुई हरी भाँग को मैं पूरा पी गया था। मुझे पता था हीरोपंती तो मैं कर ही चुका हूँ और अब लड़ाई ज़िन्दगी की है। बहरहाल मेरी आवाज़ निकल नहीं पा रही थी और घिंघियाती हुई निकल भी रही थी तो किसी तक पहुँच नहीं पा रही थी। 

                   

 

मौत लगभग निश्चित हो चुकी थी, पर अर्ध-चेतना में भी मैं अपने आराध्य शिव त्रयंबकम को स्मरण करता जा रहा था, उन्हें बेतहाशा पुकार रहा था। अवचेतना की आवाज़ अपनी चरम पर ही होगी कि तभी दिमाग़ के जिस कोने में एक लौ भुकभुका रही थी वो फफक कर जल पड़ी जैसे कुप्पी उलटने पर पूरा तेल बिखर जाता है और एकबारगी लौ आग की लपट बन जाती है। मेरी अवचेतना जागृत हो मेरे शरीर को कमरे से सटे वाश बेसिन तक लेकर गई और मेरे हाथों ने कृत्रिम तरीक़े से मेरे मुँह में उँगली डाल दिया। उंगलियों का कंठ तक पहुँचना था कि गाढ़ा पित्त सा उल्टियों का रेला बाहर निकला और तब तक निकलता रहा जब तक पेट पूरी तरह खाली हो गया। विष ही था वह जो निकला तो  मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी जिसमें खुशी, चिड़चिड़ाहट, दर्द, पश्चाताप और शायद कुछ-कुछ निर्वाण सा मिश्रित रहा होगा।

                 

 

लड़खड़ाते हुए जा कर उसी हालत में स्मिता से लिपट गया। शायद मेरी गीली आँखों ने कहने की ज़रूरत को भी ख़त्म कर दिया, बच्चों ने माँ के साथ मुझ पर जमकर ठहाके लगाए और मैं अपने आराध्य शिव को कोटि-कोटि स्मरण किये जा रहा था।

 

 

उसने इसबार मुझे एक बारगी कस कर धर दबोचा था! मुझसे इतना प्यार क्यों है तुम्हें।मुझे बार- बार स्वदेश दीपक की याद रही थी। सात साल उस जादुई प्रतिबिम्ब के साथ जीने की व्याख्या में संस्मरण की पूरी किताब रच दिया उन्होंने। मैं उसके ट्रांस में टहलता हूँ और वो मुझे अब स्वप्न में मिलती है। अब इन दिनों सवेरे तीसरे पहर की लालिमा ज्यादा देखने लगा हूँ। अचानक साहित्य के प्रति मेरा रुझान बड़ी तेजी से हो चला है। यह क्या उससे छुपने की जगह पर है। क्या मेरी पनाहगीर ये किताबें हैं और लेखनी से की सुरंगे मुझे इस दुनिया से दूर सहेज कर रख रही हैं ...

 


 

 

लगभग चार साल तक मैंने होली के दिन भी भाँग को हाथ नहीं लगाया। एक भयानक डर काबिज़ हो चुका था जो मुझे ऐसा कुछ भी करने से रोकता रहा पर आदमी भूलता बहुत जल्दी है। स्मृतियाँ पड़ी-पड़ी धूमिल होती जाती हैं। बात नवम्बर, 2020 कोरोना काल की है, उस घटना के पाँच साल बीत चुके थे और मैं अब अपने ममेरे भाई की शादी में सपरिवार जा रहा था। 

 

 

लोग घर में पड़े-पड़े उकता चुके थे। यह शादी अप्रैल में होनी थी, अचानक आई महामारी ने उथल-पुथल मचा रखा था। वातावरण थोड़ा सामान्य हुआ नहीं कि मामा जी ने 100 बहुत नजदीकी रिश्तेदारों को बुलावा भेजा ताकि शादी इस अनिश्चितता के माहौल में शांति से संपन्न हो जाए। अपनी कार से पहली बार हम मिया-बीवी बच्चों सहित कोलकाता से वाराणसी और फिर गोपीगंज पहुँचे। पूरा परिवार एक साथ इकट्ठा होने का मतलब है हंगामा, वो भी सारी रात। कोरोना काल में घर में अस्सी-नब्बे लोग इक्कठे हों तो ग़दर मचनी तय है। हमने खूब खाया, खूब नाचा, खूब गप-सडक्का और मस्ती की। हम लोग एक सप्ताह पहले पहुँचे थे और छह दिन पलक झपकते ही कैसे बीत गए पता ही नहीं चला और सातवें दिन शादी गयी। जिस ममेरे भाई की शादी थी उसे गोद में खेलाया था, इसलिए उससे विशेष प्रेम है। हमारे घर ही जन्मा था। उसे जन्मते ही हाथों में लिया था। हम सभी इस प्रेम-विवाह में शरीक हो कर बेहद खुश थे। शादी के दिन दोपहर में तिलक चढ़ाई की रश्म थी जिसे होते-होते चार बज गए और लंच में भी देर हो गयी। शादी में जैसा होता है, कोई भी काम अपने नियत समय से नहीं हो सकता। टांग अड़ाने वालों की महफ़िल होती है। 

 

 

शाम को एक तरफ दिन का खाना और दूसरी तरफ रात के जयमाल की तैयारी शुरू हो गयी। बनारस से कोई फेमस पान वाला बुलाया गया था, जिसे देख मेरी पुरानी बीमारी कुलांचे भरने लगी। अभी उसने पूरी तरह अपनी दुकान सजाई भी नहीं थी कि मैंने कहा भैया बढ़िया भाँग खिलाओगे। पान वाले भैया क्या बोले हमको समझ नहीं आया। समझ में बस इतना आया कि- "अभी आधा घंटा बाद आना, सरवा दुकान तो सजने दो।" मैं निरा बेवकूफ, आधे घंटे में फिर उसके सामने खड़ा अब शाम के साढ़े पाँच बज रहे थे। उसने कहा भाँग नहीं है पर आप पान खाइए, मस्त हो जाइएगा। सच पूछिए मैं दुखी हो गया कि बाबा भोला ने पाँच साल बाद भाँग की तलब जगाई और फिर भी खाली हाथ। मेरे लटके मुँह को देख उसने सोचा मैं कोई बहुत बड़ा नशेड़ी हूँ और उसने फिर से मुझसे बनारसी अंदाज में आग्रह किया- "रौरा के एताना मस्त पान खियाइब कि रौरा गमगमा जाइब महाराज ! एक ठौ खा के तो देखौ महाराज! फिर भाँग सरवा के भूला जाइब।" पता नहीं क्या बेवकूफी समाई हम पूरा पान खा गए और खाते ही इस बार जैसे करंट लग गया। बिल्कुल साँप डसने जैसा। उस महाराज ने इस नाचीज़ को नशेड़ी समझ कर शुरती वाला पान, वो भी चार गुना ज़्यादा डाल कर खिलाया था। सोचा होगा ये तो खिलाड़ी आदमी है मस्त हो जाएगा, जबकि हुआ बिल्कुल उल्टा। मैंने ज़िन्दगी में मीठा पान छोड़ कभी ज़र्दा पान नहीं खाया, वो भी गुलकंद इत्मीनान से डलवा कर और यहाँ इस बेवकूफ पनवाड़ी ने मुझे सामान्य से चार गुना अधिक सुरती डाल कर पान खिलाया था। सुरती ऐसे डंक मारेगी सोचा नहीं था। मुझे लगता है मैं पान खाने के बाद पाँच से दस सेकंड भी खड़ा नहीं रह पाया होउँगा, वहीं पास पड़ी कुर्सी पर गिर गया। बड़ी मुश्किल से बैठ सका। मैं पसीने से एकदम तर-बतर हो चुका था कि दीदी की नज़र पड़ी और तब तक पान वाले की समझ में भी चुका था कि उससे बड़ी गलती हो चुकी है। वो पानी का ग्लास लिए दौड़ता हुआ आयादीदी ने पानी में ढ़ेर सारा निम्बू निचोड़ कर मुझे गटका दिया और फिर आठ दस उल्टियों ने थोड़ी राहत दी। उसके बावजूद मैं एक कमरे में तीन-चार घंटे बेसुध पड़ा रहा। मेरी इस हरकत से लोगों का अच्छा खासा मनोरंजन हुआ। शादी के कार्यक्रम चलते रहे और मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। मैं बिस्तर पर पड़ा रहा। वो दस सेकेंड, भाँग वाली पिछली घटना से कहीं ज्यादा भयावह थी।

 

 

इस बार उसने मुझे सधी हुई चेतावनी दी थी और मैं सजगता से उसके ओज को महसूसने की कोशिश करने लगा। साहित्य मेरे और करीब आती जा रही है और लगता है कुछ सालों में उसके और साहित्य के बीच का सैंडविच बनना लिखा है। किसके हाथ मरूंगा सोचता हूँ और फिर स्वदेश कहते हैं प्रेयसी डाकिनी नहीं होती। उसका आना बोसे लेना यह सब दोनों की मिली भगत है। तुम चुप-चाप इसे जीते जाओ और एक दिन मेरी तरह गुमनाम हो जाना फिर कोई तुम्हारी तारीख मुकर्रर नहीं कर सकता। कहीं तुम्हारी लिखी कविताओं, स्तंभों में तुम्हारे मृत्यु की तारीख अंकित नहीं होगी। मैं उन्हें चुपचाप सुन रहा हूँ और भीतर कुछ ऐसा ही गुन रहा हूँ। एक जीवित मुस्कराहट जीत के छल्ले पहनती हैपर नियति तो  शिव की महिमा है।

 


 

 

कोरोना के दूसरे भँवर चक्र की शुरुआत मार्च 2021 के अंत तक हो चुकी थी। हम ठहरे ठेठ देहाती अभी तक कोई रोकथाम की दवा नहीं ली थी। सोचा बिहारी आदमी मिट्टी से बना है, मुझे क्या हो सकता है! कई लोगों ने वैक्सीन लगाने की सलाह भी दी पर अंदर यह डर था कि जाने इस नयी दवाई का क्या अप्रत्याशित असर मेरे शरीर पर होगा! यही सोच कर कि मुझे कुछ नहीं होगा, मैं अपनी ही धुन में आराम से पूरे साल भारत भ्रमण करता रहा कि अचानक 7 अप्रैल को मुझे गले में ख़राश-सी लगी, मन में आया जाँच कराने में क्या जाता है, सो कराई गयी! पर जाँच में आशा के विपरीत कोरोना पॉजिटिव पाया गया। अभी तक मेरी अकड़ ढीली नहीं पड़ी थी। दोस्तों से दवाइयों की सलाहियत मिलने लगी और मैंने अपने आपको इलाज के साथ एक कमरे में बंद कर लिया। अगले दिन बुख़ार 104 डिग्री और गला सूखने जैसा, दवाई लो तो दो घण्टे उतरे, फिर कुंडली मार कर बैठ जाए! दूसरे दिन दिन भर बुख़ार नहीं उतरा पर भूख या सुगंध सामान्य रहा। यह पहला बुख़ार था जिसमें भूख हमेशा बनी रहती, इस प्रकार मन में एक संतुष्टि भी रहती कि भूख लग रही है तो सब ठीक हो जाएगा। अभी तक पढ़ने में भी चाव बना हुआ था और आनंद रहा था कि इतना वक़्त तो मिलता नहीं, जितने उपन्यास नहीं पढ़े पढ़ डालो, अभी तक लिखने में भी कोई कमी नहीं आयी थी। 

 

 

मुझे याद है कि सीरज सक्सेना से राकेश श्रीमाल की बात-चीत पर आधारित किताबमिट्टी की तरह मिट्टीको उन्हीं दो दिनों में पढ़ गया था और उसकी समीक्षा भी बुख़ार के तीसरे दिन लिखी गयी थी जो बाद में पहली बार ब्लॉग पर प्रकाशित हुई और काफ़ी सराही गयी। यह किताब किसी साधारण रोचक कहानी या उपन्यास नहीं थी बल्कि बहुत सारी संवेदनाओं से लिपटी गुफ़्तगू थी, जिसमें जीवन दर्शन कूट-कूट कर भरा हुआ था। इस बात से इतना तो पता चलता है कि तीन दिनों तक 104 डिग्री बुख़ार ने कहीं से भी मेरी मानसिक स्थिति पर तब तक कोई अवांछित असर नहीं डाला था। चौथे दिन से थोड़ा बलग़म भी आने लगा जिसे मैंने यूँ लिया की शायद दवाई के असर से मेरे सीने में जमा बलगम निकल रहा है और मैं जल्द ही ठीक हो जाऊँगा। अभी तक किताब पढ़ने में या लिखने की रुचि में कोई कमी नहीं आयी थी। 

 

 

चौथे दिन भी बुख़ार गिरने का नाम नहीं ले रहा था और अब मेरा सिर भी थोड़ा घूमने लगा था। अचानक बिस्तर से उठने की बजाय बैठ गया, फिर एक डॉक्टर मित्र को फ़ोन लगाया, जैसे ही उसने मेरी आवाज़ सुनी मुझे आदेशात्मक अंदाज में कहा - "आप अविलंब अस्पताल जाएँ" और मैं अगले पंद्रह मिनट में अस्पताल में था। मुझे एक अलग रूम मिला, डॉक्टर के साथ समर्पित टीम थी। जो भी जाँच हुए उनके परिणाम उनकी नज़र में ख़तरे की सीमा के काफ़ी अंदर थे। वह रात मेरी साँस की तक़लीफ़ बढ़ने की रात थी। सामान्य साँस का दसवाँ हिस्सा लेने में भी बेहद तकलीफ हो रही थी। मेरे शरीर से मेरा नियंत्रण छूटता जा रहा था। एक नीम बेहोशी सुध को निगले जा रही थी। आत्मविश्वास अचानक चरमरा कर निढाल पड़ गया था। मुझे सच में कुछ समझ में नहीं रहा था। मन के कहीं बहुत भीतर से निकलता काला धुआँ मेरे ख़ून के सहज बहाव पर अनचाहा बाँध बना रहा था। जो व्यक्ति अभी दो दिन पहले समीक्षा लिख रहा था वो टघरी रोशनाई बन गया था। 

 

 

मुझे नहीं पता कि डॉक्टर मित्र और उनकी समर्पित टीम मेरे शरीर के साथ क्या कर रही थी। कुछ बातें जो मैं सिर्फ़ सुन पा रहा था वो ये कि कुछ ज़रूरी दवाई अस्पताल में नहीं है और मेरी पत्नी उसके इंतज़ाम में लगी हैं। मुझे उस हालत में खाना बना कर भेजने और खिलवाने की व्यवस्था कर रही हैं। मेरी संस्था के कुछ लोग संक्रमित होने से नहीं डरे। वे मेरी केबिन में ही बैठे रहे, साथ में वो तीन नेक लोग शिफ़्ट में रह रहे हैं जिन्होंने कभी सालों पहले मेरे साथ काम किया था। मैं बेहोशी में बुदबुदा रहा था और सबको कहे जा रहा था- "भाग जाओ मेरे पास मत आओ, तुम सब संक्रमित हो जाओगे" पर उनमें से कोई मेरी बात नहीं सुन रहा था। मेरी आँखों के कोर से कुछ नमकीन रिस रहा था और मन में ये चिंताएँ घुमड़ने लगीं कि अभी तो ज़िंदगी के कितने सारे इम्तिहान बाक़ी हैं, अब उन परीक्षाओं के लिए बचूँगा या नहीं पता नहीं।

 

 

किसी मित्र ने पत्नी के कहने पर ब्लैक मार्केट से दवाइयाँ मँगवायीं, कुछ दवाइयाँ अहमदाबाद से फ़्लाइट से आईं। पत्नी को पता नहीं क्यों लगता था मैं बच जाऊँगा जबकि मुझे अब यक़ीन हो चला है किवो लड़का’’ मेरी अंतिम कहानी होगी। मेरी पत्नी के विश्वास से लदा जद्दोजहद अपनी चरम पर था। कई मित्रों ने मुझे फ़ोन किया मैंने उन्हें क्या जवाब दिया कुछ पता नहीं। उस ओर से बस आशा की एक डोर, दुआओं की गूँज बन रही थी और दूसरी ओर मैं लगातार एक अंधी गुफा में जमे पानी में डूबता जा रहा था। 

                    

 

एक दिन अचानक वहाँ चिड़िया चहचहाती है, कोई गीत गुनगुनाता है, कोई कविता मंत्र में बदल कर मिलती है और मैं अस्पताल से पैदल घर की ओर निकल पड़ता हूँ

 

मौत  ने अभी-अभी मुझे चूमा है …!

 

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेन्द्र जी की हैं।)

 

 

सम्पर्क

मोबाइल : 8420637209  

टिप्पणियाँ

  1. ओह!...रूह कांप गई पढ़ते हुए,लगा जैसे सब देख रही हूँ आँखों से।
    बस बहुत हुआ भगवान जी,खूब खेल ली डाकिनी ने आँख-मिचौली अब उसे कहो दूर रहे भाई से।
    आपके लिखे हुए संस्मरण का इसलिए इंतज़ार रहता है भाई,एकदम जीवंत होते हैं ये शब्द-शब्द । खूब रचिये खूब लिखिये ये दुआ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. दी आप इतना स्नेह रखती हैं अपने भाई से तो कुछ भी नहीं होना तय है बाकी तो समय का खेल

      हटाएं
  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. पहले लगा, साहित्य को आप नशे का विकल्प बना रहे हैं या नशे की हद तक साहित्य में डूब रहे हैं तो अच्छा लगा लेकिन आख़िर में इस कोरोना कथा ने तो डरा ही दिया। न जाने कितने हालिया वाकयात याद आ गए। स्वस्थ बने रहें और अच्छा-अच्छा लिखते रहें!

    जवाब देंहटाएं
  4. अपने दुःख सुख को इतने रोचक ढंग से बाँचा है आपने । अंतिम तो आतंकित कर देने वाला । ऐसे ही लिखते रहें ।

    जवाब देंहटाएं
  5. यह संस्मरण ...हम पढ़ रहे थे या देख रहे थे सिनेमा की तरह !? मौत को माशूक़ा के जैसे लेने वाले की जीवटता संभवतः मौत को भी अचंभित कर जाती होगी । बहरहाल हम चकित हैं "मौत से साक्षात्कार "की श्रृंखला की लम्बाई देखकर ।
    ईश्वर आपको शतायु करें ! यतीश जी,कृपया अपना ख़याल रखें !

    जवाब देंहटाएं
  6. ये पढ़कर अच्छा लगा कि आप भांग खाते हैं। मैं बहुत दिनों तक इसकी गिरफ्त में रहा। खैर कभी हुआ तो लिखा जाएगा। आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं। ईद रफ्तार को बनाये रखें।
    मेरी शुभकामनाएं रहीं।

    जवाब देंहटाएं
  7. लेखन कि दिव्यता इससे पता चलता है कि जीवन के कठीन क्षणों को कितने सहज एवं रोचक रूप में प्रस्तुत किया गया है।पठन के दौरान आगे नया क्या घटना घटित हुई होगी के प्रति मस्तिष्क स्वतः जिज्ञासु हो गया। मंगलकामना है आप के स्वस्थ एवं लम्बी जीवन की।

    जवाब देंहटाएं
  8. कई दिनों से कोशिश कर रहे थे कि एक साँस में पढ़ जायें मगर किसी न किसी बात पर ठहर जाते रहे और एक ख़यालों के सफ़र पर निकल जाते. वापस आते तो फिर बाक़ी का संस्मरण अगले दिन के लिए छोड़ देते. आज हिम्मत करके पूरा पढ़ा. आपको अगर न जानते होते तो सिर्फ़ साहित्यिक ख़ूबियों पर नज़र डालते मगर ऐसा न था और इसीलिए हर घटना पर दिल बैठने को हो जाता मगर फिर होश आता कि इस कहानी का अंत बुरा नहीं हो सकता. ये कहानी लिखी गयी यही इस बात का प्रमाण है कि अंत भला हुआ. मगर क्या सिर्फ़ अंत भला हो तो दूसरे दुःख कम हो जाते हैं या उनका महत्त्व कम हो जाता है? हरगिज़ नहीं.

    ख़ूब लिखते रहें, बेहद ख़याल रखें. दुआएँ और नेक-ख़ाहिशात!

    जवाब देंहटाएं
  9. संभावनाशील रचना है. दोन किहोते की शैली है, 100इयर्स का शुरूआती अध्याय, जहाँ पहली बार गांव, जादू, सर्कस उतरता है-कर्नल की खब्त में...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'