सुनील कुमार शर्मा की कविताएं।
संक्षिप्त परिचय
सुनील कुमार शर्मा
जन्म : 1975
शिक्षा : बी. ई., एम. टेक. , पी-एच. डी. |
लेखन : कविताएं, कहानी, लेख, नाटक और शोध पत्र।
100 से अधिक रचनाएँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्प्रति : मुख्य रोलिंग स्टॉक इंजीनियर (फ्रेट), दक्षिण पूर्व रेलवे, कोलकाता-43.
हर स्त्री के जीवन में शादी-व्याह एक टर्निंग प्वाईंट की तरह होता है। जहाँ वह ज़िंदगी जी होती है, वह शादी के बाद मायके में तब्दील हो जाता है। जहाँ उसकी ज़िंदगी नये तरह से रोप दी जाती है वह उसकी ससुराल हो जाती है। और फिर वह इन दोनों के बीच आजीवन एक सामंजस्य बनाती रह जाती है। इन दोनों जगहों पर उसका जाना और लौटना वह जाना और लौटना नहीं रह जाता जो शादी व्याह के पहले हुआ करता था। इसी क्रम में वह खुद का अस्तित्व गंवा कर ज़िंदगी के बिरवे रोपती रह जाती है। उसका सुकून छिन जाता है और कवि सुनील कुमार शर्मा के अनुसार बदल जाते हैं उसके सपने भी/ खुद नहीं होती सपनों में/ पर होते हैं धूप के टुकडे/ दूसरों के लिए’ और इसी क्रम में उसके पास बच जाते हैं तो सिर्फ रतजगे। आइए आज पहली बार पर पढते हैं कवि सुनील कुमार शर्मा की कविताएं।
सुनील कुमार शर्मा की कविताएं
'शक्ति'
1
दुनिया बड़ी विचित्र है
धर्म है, अध्यात्म है,
दर्शन है फिर भी
उपस्थित विभिन्न
विस्तृत तंत्रों में
शक्ति ही हो रही सिद्ध
सबसे सफल मंत्र।
जैसे सांप सीढ़ी के खेल में
चल रहे सभी अंधे दांव
और नित खो रहीं
अगणित संभावनाएं,
कौन किस की नज़र में
कितने खाने चढ़ गया
कब कैसे कौन गोद से उतर गया
इस डाह में, दाह में
अनुमानों के अनंत से प्रवाह में
अब अंधेरों की मौज है,
बस अंधेरों की मौज है।
2
अब नहीं हाथ की
रेखाओं पर भरोसा
आज जो रेखा सबसे बड़ी है
वह कल मझोली हो जायेगी
या फिर छोटी!
चक्र, मछली और त्रिभुज
बनते और बिगड़ते रहेंगे।
शक्ति से खींची जाती रही
हथेली पर सफलता की लकीर,
फफक रहा अंतर्द्वंद
स्वयं के प्रति भी स्वयं ही
हिंसक हो रहा
शक्ति कर रही
ऐसे भी आत्म विस्तार ...
मोल-भाव
अघोषित सा सच है
यहाँ हर वस्तु का भाव है
कितनी भी भारी हो, हल्की हो
हर किस्म का माप-तौल है,
समझिए, गुण-दोष के परे
लाइक-ट्रौल के बाज़ार में
कभी भी कहीं भी
कुछ भी ट्रेंड कर सकता है,
जैसे रूप, यौवन, शक्ति, प्रेम, छल
अतृप्तियों के बिम्ब
खालीपन के अनुवाद
जोड़-तोड़ का हुनर
या जरूरतों की परिभाषाओं
के नए ड्राफ्ट ...
जैसे इच्छाओं की तपिश में
धूप का टुकड़ा आँखों के सामने
सूरज की आँख में बदल सकता है।
वैसे तो धूप की अरूप सी
मिठास बताती है
जिसका जितना हत्तुलमकदूर
औसतन वो उतनी दूर चल सकता है ।
लेकिन विराट बेलौस खुलेपन में
अब दूर तलक फैला
बाज़ार ही बाज़ार है
बेफिक्र चलते रहिए यहाँ
सांझ के रंगों की तरह
गुलाटी मारते हुए
आपके पैरों तले कोई
ज़मीन भी ला कर
रख सकता है।
बाज़ार है,
मोल तौल करते रहिए
भाव ही नहीं यहाँ
कोई कभी भी
गिर सकता है!
संशय में हैं कवि
कौन कब कहाँ
कितना गिरेगा!
हँसी के चंद ज़िन्दा बचे टुकड़ों को
खोजते हुए मुस्करा रहें हैं शब्द
मन ही मन
कविताओं के भीतर,
दरअसल अब गिरना,
गिरना है ही नहीं
वरन महज़
एक सापेक्ष घटना है
और कुछ सिरफिरों का खुद से
बेवजह शास्त्रार्थ जारी है ...
बोझ तले
व्यवहारिक लोग बना लेते हैं
नए तर्कों से नई व्यवस्था
और निकाल लेते हैं
जैसे परखनलियों से जांचा-परखा सा
एक नया सच ।
मानों पुराना सच हो जाता है दफ़न,
लगभग उतना ही उग आता है
नया प्रैक्टिकल सच,
बिखरता है शब्दों का जादू
और परदों पर नया
मुकम्मल सा रंग चढ़ जाता है ...
कुछ टूटे-बिखरे हुए सवालों
की उनींदी जलन
घुल जाती है हवाओं में,
और कुछ सूनापन उतर आता है
आहों में जब-तब
यादों के गुनाहों के साथ,
जब भूमिका बदलते ही
आदमी बदलता है या कहिए
सच बदल जाता है !
ओस की बूंदों सी टपकती हुईं
दिखाती है प्यास, जादू-धमाल
पर्दा गिरते ही आँखें हो जाती हैं
यहाँ फिर से कंगाल ।
दृश्य बदलता है,
दृष्टिकोण बदल जाता है
गहन गहरे बोध के बोझ तले
लिखावटों की रोशनाई के विस्तार में
समझदार और व्यवहारिक
देखने लग जाते हैं दूसरी तरफ
जहाँ से उगता है नयापन
या उग रही सच की नयी वर्तनी...
‘लौटना’
लौटना मायके में
स्त्री के लिए कभी भी
लौटना हो ही नहीं पाता,
नहीं रह जाता
बहुत कुछ पहले जैसा
पत्नी होने में बहुत कुछ
छूट जाता है
टूटता जाता है।
बदल जाता है
गीतों का गुनगुनाना,
तितलियों का पंख फड़फड़ाना
बारिशें भी नहीं रहती
बारिश की तरह
नहीं भिगो पाती मन,
रिश्तों की आंच में
अक्सर जलाती है हाथ
पर छुपा लेती हैं
फफोले दुनिया से,
आँखों में अक्सर
उन्हें मरासिम मलहम
नहीं मिलता।
उत्तरदायी होने की चाह में
निकल आते है
उसके पांच- छः हाथ
बदल जाते है सपने भी
खुद नहीं होती सपनों में
पर होते हैं धूप के टुकड़े
दूसरों के लिए,
और साथ रहते है
उसके रतजगे
देख लेती है तत्वदर्शी आँखों से
वो भी जो नहीं दिखता-
देह में कैद बुझी हुई आत्माएं
खिलती हुई वासनाएं,
देह ही यहाँ
देह पर क्यों मर रही !
आत्मा के तलघरे से
बाहर निकल खोजती है
बच्चों के साथ थोड़ा बचपन,
बचाती रहती है
कुछ अनहद संभावनाएं।
स्त्रियाँ हो जाती हैं नदी
सींचती जाती हैं जगत,
बह जाती हैं
और अपने आप को
विसर्जित करती जाती हैं
भूलती जाती हैं
अपना अस्तित्व ...
सम्यकपन
1
झाँका भीतर तो
एक नया सा सच
निकल आया।
हाथ अक्सर रुक
गया देते वक्त ...
करुणा भी क्या सिर्फ
महज एक वासना
बन कर सिकुड़ गयी
जो उत्तेजित होती है
अवसर देख कर ...
2
सीख जाते हैं खुद ब खुद
कलियों को बचा लेना
लेकिन कुचल देना
सर्प का मुख
मसल देना
कीड़े मकोड़ो की पूंछ
दुनिया सिर्फ
तितलियों से ही तो
नहीं बनी है ...
नहीं जान पाए
कहकहों, पीड़ा, प्रायश्चित,
दृश्यों और दर्शकों के
अनुवादों के पार भी
दूर तलक फैला है
केनवास जिंदगी का ..
हाँ भजते रहे जरूर
जीववहो अप्पवहो
जीववहो अप्पवहो
3
चेतना तान देती है जब
खुद पर ही सवालों की नोंक
भीतर छुपा ढोंगी- मैं
भागता है दबे पाँव,
टूट जाती है तन्द्रा
मुस्कराते हैं साथ
खड़े हो कर महावीर
फिर तो बस
इतना ही करना है
मूर्त को छोड़
अमूर्त को पूरा पूरा
बचा लेना है
‘थोड़ी अनकही’
1
इस तरह भी गया कोई,
हजारों मील का सफर
बच्ची और बेबस साईकिल।
हौंसला सशक्त होता है,
और भरोसा बहुत सुंदर।
बस इतना ही लिखा
कोरोना से उलझते दिनों में
अनमनी गलियों के अन्दर
बसंत की खोज में भटकते हुए।
वही पढ़ रहा है कोई
बेलते हुए मुझे
अब तक निरंतर
मेरे अन्दर
एक सन्नाटा भी बहुत
दिनों से जगा बैठा है
कविता पूरी होने के
इंतज़ार में ...
2
इन्तज़ार तो था
घर लौटेंगे ।
पर ऐसे लौटेंगे !
और लौट भी आयेंगे ?
अंदाज़ा नहीं था ।
नींद
सोया हुआ है प्रेम
सोयी हैं संभावनाएं
मत जगाना, कह कर
सोयी है योग्यताएं
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क :
फोन - 8902060051
ई-मेल : sunilksharmakol@gmail.com
ये कविताएँ मुझे सत्य के कुछ प्रयोगों के रूप में प्रतीत होती हैं। रूपक में कुछ शाश्वत सत्यों की बात की गई है। ये विचार की अथाह गहराई को प्रकट कर रहे हैं, कभी-कभी उपयुक्त निराशावादी अर्थों के साथ। कवि को हमें उन्हें इतने करीब से पढ़ने का अवसर देने के लिए बधाई। इससे जुड़ी पेंटिंग बेहद खूबसूरत हैं।
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