भैरव प्रसाद गुप्त की कहानी 'हनुमान'

 



हिन्दी साहित्य में कारखानों और मिल मजदूरों को लेकर कम कहानियाँ लिखी गई हैं। भैरव प्रसाद गुप्त, शेखर जोशी, सतीश जमाली, इजरायल जैसे कुछ प्रमुख कहानीकारों ने कारखानों और मिल मजदूरों को ले कर कई बेहतरीन कहानियाँ लिखी हैं। 'हनुमान' भैरव प्रसाद गुप्त की ऐसी ही कहानी है जिसमें वे मालिकों की उस मंशा को सफलतापूर्वक उजागर करते हैं जिसमें मालिक केवल अपने लाभ के चक्कर में रहते हैं और मजदूरों को किसी भी कीमत पर संगठित होने देना नहीं चाहते। पूँजीवाद का यह षड्यंत्र आज भी जारी है। इसी क्रम में समाजवाद को येन केन प्रकारेण गलत ठहराए जाने के उपक्रम भी किए जाते हैं। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं भैरव प्रसाद गुप्त की कहानी 'हनुमान'। यह कहानी हमें धागा व्हाट्सएप समूह और सौरव शाण्डिल्य के मार्फ़त प्राप्त हुई है।


हनुमान 


भैरव प्रसाद गुप्त 


 मैं अभी कुर्सी पर बैठा ही था कि मालिक सामने आकर चीखने लगा, ''देखी आपने उन-सबकी यूनियनबाज़ी?'' उसका 'यूनियनबाज़ी' शब्द मेरे दिमाग़ पर एक हथौड़े की तरह बज उठा। 

भिन्नाकर मैंने उसकी ओर देखा; वह मुझसे भी ज़्यादा भिन्नाया हुआ था। उसकी भौंहें चढ़ी हुई थीं, नथुने फैले हुए थे और होंठ बिदके हुए थे। 

मैंने कहा, ''मैं तो अभी आ रहा हूँ। मुझे क्या मालूम कि क्या हुआ!'' ''आप आइए मेरे कमरे में!'' वह हुक्म दे कर चला गया। 

 मैंने माथे का पसीना पोंछते हुए अपने सहयोगियों की ओर देखा, तो एक सहयोगी बोला, ''आपके आने के थोड़ी ही देर पहले प्रेस में हल्ला हुआ था। मालूम हुआ कि हनुमान ने नये सुपरवाइज़र वर्मा को थप्पड़ मार दिया।'' 


 ''हनुमान ने थप्पड़ मार दिया?'' मैंने आश्चर्य से पूछा। 

 ''यही तो आश्चर्य की बात है। क्या हनुमान किसी को थप्पड़ मार सकता है?'' 


 ''नहीं!'' मेरे मुँह से निकला, ''ऐसा नहीं हो सकता! 

और कुछ मालूम है?'' 


 ''नहीं। वर्कर बौखलाये हुए हैं।'' साहब ने शायद उन्हें डाँटा है। हो सकता है कि हनुमान की पेशी हो। आप जाइए, साहब आपको बुला गये हैं न? 


 मैं मालिक के कमरे में पहुँचा। उस समय वह सिगरेट जला रहा था। उसने पलकें उठा कर मेरी ओर देखा। फिर लाइटर बुझा कर, उसी हाथ से मेरी ओर बैठने का संकेत किया। मैं बैठने लगा, तो उसने जोर से घण्टी की स्विच दबायी। उसके दरवाज़े के बाहर ऊपरी चौखट पर एक नहीं, दो घण्टियाँ लगी हैं। वे ज़ोर से बजाने पर ख़तरे की घण्टी की तरह घनघना उठती हैं और सारा प्रेस चौंक उठता है। चपरासी ने दरवाज़ा खोल कर अभी अपना सिर ही अन्दर किया था कि मालिक चीख उठा, ''वर्मा और हनुमान को तुरन्त बुला लाओ!'' चपरासी उल्टे पाँव चला गया, तो मालिक ने सिगरेट का एक ज़ोर का कश लिया और धुँए को जैसे दाँतों से चबाते हुए चीख़ा, ''मैं यूनियनबाज़ी नहीं चलने दूँगा!'' 


 ''आपने यही कहने को मुझे बुलाया है?'' मैंने धीरे से कहा, ''आपके मुँह से दूसरी बार यह शब्द सुन रहा हूँ! आपके लिए जो यूनियनबाज़ी है, वह हमारे लिए हमारे अस्तित्व का पर्याय है। किसी के अस्तित्व को गाली देने का क्या मतलब होता है, आप जानते हैं? आपके क्षोभ और घृणा को मैं समझता हूँ। लेकिन आप यह क्यों सोचते हैं कि आपके क्षोभ और घृणा की खातिर ही हम अपने अस्तित्व का बलिदान कर देंगे?'' 


 ''नहीं,'' उसने जल्दी-जल्दी दो कश लेकर, अपनी एक रुपये की क़ीमती सिगरेट का आधे से ज़्यादा हिस्सा राखदान में डाल कर कहा, ''लेकिन यूनियन का क्या यह मतलब होता है कि कोई मामूली वर्कर किसी अधिकारी को झापड़ मार दे? आपको मालूम है कि अभी थोड़ी देर पहले प्रेस में क्या हुआ है?'' 


 ''नहीं,'' मैंने कहा, ''लेकिन आप जो बताएँगे, मैं उसी पर विश्वास कर लूँगा, आप यह मत सोचिए। मैं ...'' 


 तभी दरवाज़ा खुला और उसका एक पल्ला पकड क़र चपरासी खड़ा हो गया। दूसरा पल्ला आप ही बन्द हो गया। फिर खुले पल्ले से पहले वर्मा और फिर हनुमान अन्दर आ गये, तो चपरासी पल्ला छोड क़र बाहर चला गया और वह पल्ला भी उसके पीछे-पीछे आप ही बन्द हो गया। वे दोनों मालिक के दायें, मेज़ से ज़रा दूर खड़े हो गये। दोनों अधेड़ उम्र के थे। लेकिन दुबला-पतला, पिचके गालों और सफ़ेद बालों वाला वर्मा अपनी उम्र से ज़्यादे का और मोटा-तगड़ा, फूले-फूले गालों और छोटे-छोटे काले बालों वाला हनुमान अपनी उम्र से कम का लगता था। वर्मा मामूली कपड़े की पैण्ट-शर्ट और मामूली सैण्डिल पहने था और हनुमान सिर्फ़ एक फटा-पुराना, मैला-कुचैला जाँघिया पहने था और उसके गन्दे-भद्दे पाँव नंगे थे। वर्मा गेहुएँ रंग का था और हनुमान काला-कलूटा। वर्मा चश्मा लगाये हुए था और हनुमान की छोटी-छोटी आँखें पीली दिखाई देती थीं। वर्मा के सूखे चेहरे पर लानत बरस रही थी और हनुमान का चेहरा एकदम निर्भाव था, लेकिन उसके मोटे-मोटे होंठ कुछ ऐसे बने थे कि लगता था, जैसे वे हमेशा मुस्कुराते रहते हों। वर्मा की बायीं कलाई में घड़ी थी और हनुमान के दोनों हाथों में स्याही पुती थी। वर्मा मालिक की ओर देख रहा था और हनुमान सामने हवा में। 


मालिक ने वर्मा से कहा, ''इनके सामने बताओ, क्या हुआ?'' 


 वर्मा ने सूखे कण्ठ से बताया, ''मैं इनके पास से जा रहा था कि अचानक इन्होंने मेरे मुँह पर एक झापड़ मार दिया।'' 


 ''क्यों?'' मालिक ने भौंहें टेढ़ी कर हनुमान से पूछा, ''तुमने इसे क्यों मारा?'' 


 हनुमान बुत की तरह हवा में ही देखता रहा। वह कुछ नहीं बोला। ''क्यों नहीं बोलता?'' मालिक और भी ज़ोर से चीख़ा, ''मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ?'' हनुमान उसी तरह बुत बना हवा में देखता रहा और उसके होंठ वही प्रकृत मुस्कान बिखेरते रहे। शायद वह मुस्कान देख कर ही मालिक और भी चिढ़ गया। उसने 'हुँ:' कर, मेरी ओर देख कर कहा, ''देखा आपने?'' इसकी चुप्पी का क्या मतलब? 


''कुछ नहीं'', मैंने बताया, ''ये तो मौनी बाबा हैं, कभी-कभी ही अपना मुँह खोलते हैं और तब भी हाँ-ना से ज़्यादा नहीं बोलते।'' ''क्या मतलब?'' चकित हो कर मालिक ने पूछा। 


 ''ये आपके पिता के ज़माने से आपके यहाँ काम करते हैं, क्या आपको इनके स्वभाव के बारे में नहीं मालूम?'' 


 ''हमारे यहाँ तीन सौ से ज़्यादा वर्कर काम करते हैं,'' मालिक ने कहा, ''मैं किस-किसके स्वभाव के बारे में मालूम करता फिरूँगा?'' मैंने उसका जवाब न दे कर वर्मा से पूछा, ''क्यों, भाई वर्मा जी, जब यह घटना घटी, वहाँ और भी कोई था?'' 


 ''बहुत सारे थे,'' वर्मा ने बताया, ''सब देख कर हँसने लगे।'' ''तुम जाओ, वर्मा, अपना काम देखो!'' मालिक ने कहा। वह नहीं चाहता था कि मैं वर्मा से कुछ पूछूँ। 


 वर्मा चला गया, तो मालिक फिर बिगड क़र बोला, ''बोलता क्यों नहीं, बे? तूने वर्मा को क्यों मारा?'' हनुमान के होंठों की मुस्कान ग़ायब हो गयी और नथुने फडक़ उठे। मुझे लगा कि अब कुछ अशोभन घटने ही वाला है। मैंने तत्क्षण उठ कर हनुमान का हाथ पकड क़र कहा, ''आप चलिए।'' ''जाकर गेट पर बैठो!'' 


मालिक चीखा, ''प्रेस के अन्दर मत जाना।'' तुम्हारे खिलाफ़ अनुशासन की कार्रवाई होगी! मैं हनुमान को ले कर बाहर आया। बाहर वर्करों की भीड़ लगी हुई थी। सेक्रेटरी ने मुझसे पूछा, ''क्या हुआ?'' ''हुक्म हुआ है कि ये गेट पर बैठें, इनके खिलाफ़ अनुशासन की कार्रवाई होगी।'' मैंने बता दिया।


 ''अच्छा! तो हम-सब भी गेट पर ही बैठेंगे!'' कई वर्कर एक साथ ही बोल उठे और वे हनुमान को ले कर गेट की ओर चल पड़े। 


 मैं अपनी कुर्सी पर जा बैठा। मेरे उसी सहयोगी ने उत्कण्ठित हो कर मुझसे पूछा, ''क्या हुआ? वर्कर बिफरे हुए हैं।'' मैंने मालिक का हुक्म बता दिया। ''हनुमान कुछ बोले थे?'' ''नहीं।'' ''यह बहुत बुरा हुआ, साहब को शायद नहीं मालूम कि वर्कर हनुमान को कितना मानते हैं।'' ''नहीं मालूम है, तो अब मालूम हो जाएगा!'' तभी गेट पर से नारों की आवाजें आयीं-हमारी यूनियन, जिन्दाबाद! हनुमान, जिन्दाबाद! 


... घण्टी ज़ोर से चीख उठी। चपरासी भागा-भागा गया। दस-बारह मिनट बाद चपरासी ने मेरे पास आ कर बताया, ''साहब ने सिक्योरिटी अफ़सर को बुलाया था। उसे हनुमान के खिलाफ़ रिपोर्ट करने के लिए थाने भेजा है। बाबू जी, क्या हनुमान को पुलिस गिरफ़्तार कर ले जायगी?'' 


 ''देखो,'' मैंने कह दिया। 

 


 तभी घण्टी फिर चीख उठी। चपरासी भागा कि मालिक खुद मेरे पास आ कर बोला, ''आप सेक्रेटरी के साथ मेरे पास आइए!'' ''आप सेक्रेटरी को बुला लीजिए,'' मैंने बैठे-बैठे ही कह दिया। उसने ज़रा कुछ सोच कर चपरासी से कहा, ''जाओ, सेक्रेटरी को बुला लाओ!'' और अपने कमरे में चला गया। 


 सेक्रेटरी ने मेरे पास आ कर कहा, ''साहब ने मुझे बुलाया है, जाऊँ कि न जाऊँ?'' 


 ''न जाने की क्या बात है?'' मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा, ''चलिए।'' ''लेकिन आपको कुछ मालूम नहीं होगा,'' उन्होंने कहा, ''आपको बताने का मौक़ा ही नहीं मिला। क्या कहेंगे?'' ''जो सच है, वही कहिएगा। फिर मुझे जो कहना होगा, कहूँगा। वर्मा ने हनुमान पर जो इल्ज़ाम लगाया, उस पर मुझे विश्वास नहीं। चलिए।'' हम दोनों मालिक के कमरे में पहुँचे। उसने हमें बैठने के लिए इशारा किया। हम बैठ गये, तो उसने आधी से कम ही जली सिगरेट राखदान में डालकर सेक्रेटरी से पूछा, ''जब हनुमान ने वर्मा को झापड़ मारा, आप वहाँ थे?''


 ''हाँ था,'' सेक्रेटरी बताया।

 ''प्रेस के अन्दर ऐसी वारदात हो गयी और आप लोग हँसते रहे?'' 


''हाँ, जिस वर्कर ने भी देखा, वह हँसे बिना रह ही नहीं सकता था।'' सेक्रेटरी ने कहा। 


 ''सुना आपने?'' मालिक ने मुझसे कहा, ''अब आप ही बताइए, मैंने हनुमान के खिलाफ़ जो कार्रवाई की है, क्या वह ग़लत है?'' 


''हाँ, सरासर ग़लत है!'' मेरे पहले ही सेक्रेटरी बोल पड़े, ''इन्हें मालूम नहीं है कि हनुमान जैसे निपट निरीह आदमी ने वर्मा को झापड़ क्यों मारा?'' 


 ''तो आप ही बता दीजिए,'' मालिक ने अपनी नाक के बाँसे को दाहिने हाथ के अँगूठे पर तर्जनी से दबाते हुए कहा, ''वह भी सुन लूँ।'' यह नाक का बाँसा दबाने की आदत भी मालिक की है। जब वह सामने के आदमी को यह दर्शाना चाहता है कि बड़ी गहराई से सोच कर अपने मुँह से बात निकाल रहा है, तो वह यह हरकत करता है। 


 सेक्रेटरी ने अपने गन्दे पायजामे की जेब से एक फटा हुआ काग़ज़ निकाल कर मालिक को दिखाते हुए कहा, ''वर्मा इस क़ाग़ज़ पर हनुमान से दस्तखत कराना चाहता था।'' ''लेकिन वर्मा तो कहता था ...'' ''आप रुकिए!'' मालिक ने मुझे रोक कर सेक्रेटरी से कहा, ''लाइए, ज़रा मैं देखूँ तो यह काग़ज़।'' ''नहीं,'' सेक्रेटरी ने कहा, ''चूँकि आपने हनुमान के खिलाफ़ कोई जाँच किये बिना ही कार्रवाई शुरू कर दी है, इसलिए मैं यह काग़ज़ आपको नहीं दूँगा। हाँ, आप चाहें तो मैं इस पर जो लिखा है, उसे पढ क़र सुना सकता हूँ।'' 


 फिर नाक का बाँसा दबाते हुए मालिक ने कहा, ''अच्छा तो सुना दीजिए।'' 


 सेक्रेटरी ने दो टुकड़ों में फटे कागज को जोडक़र सुनाया, ''प्रेस के हम निम्नलिखित कर्मचारी प्रेस वर्कर्स यूनियन से इस्तीफ़ा दे कर प्रेस वर्कर्स वेलफ़ेयर यूनियन में शामिल हो रहे हैं। सुरेश वर्मा ... '' 


सुना कर सेक्रेटरी ने कहा, ''दूसरे नम्बर पर वह हनुमान के दस्तख़ त कराना चाहता था।'' ''तो?'' बाँसे को दबाते हुए मालिक ने कहा, 


''आपकी बात मैं मान भी लूँ, तो क्या इसी कारण हनुमान को उसे झापड़ मार देना चाहिए? वह दस्तख़ त न करता, वर्मा उससे कोई ज़बरदस्ती दस्तख़ त तो करा नहीं रहा था। दूसरी बात यह है कि क्या हनुमान पढऩा-लिखना जानता है?''


 ''पढऩा-लिखना तो वे नहीं जानते,'' सेक्रेटरी ने बताया,


 ''लेकिन उन्हें मालूम था कि वर्मा यह हरकत करेगा।''


 ''कैसे?'' मालिक ने पूछा। 


 सेक्रेटरी ने मेरी ओर देखा, तो मैंने मालिक को बताया, ''पिछले महीने पहली तारीख़ को जब अचानक आपने वर्मा की तनख़ाह दूनी करके उसे सुपरवाइज़र बना दिया था, तो हमारे कान खड़े हो गये थे। हमने पता लगाया, तो मालूम हुआ कि आपने हमारी यूनियन तोड क़र अपनी यूनियन बनाने के लिए उसके सामने यह चारा डाला था। तब हमने यूनियन की मीटिंग की थी। उसमें हनुमान भी शामिल थे। उन्होंने एक ओर चुपचाप बैठ कर हमारी सारी बातें सुनी थीं। हमने सभी सदस्यों को सावधान किया था कि वे वर्मा पर कड़ी नजर रखें और उसके किसी जाल में न फँसें। आख़िर वर्मा ने आज अपना काम शुरू कर दिया। वह यह काग़ज़ ले कर सबसे पहले हनुमान के पास पहुँचा। उसका ख़याल होगा कि हनुमान एकदम बुद्घू हैं, वे तुरन्त काग़ज़ पर अपने अँगूठे का निशान लगा देंगे। फिर तो, चूँकि हनुमान को सभी वर्कर बहुत मानते हैं, उसका काम आसान हो जाएगा और वर्कर उस काग़ज़ पर अपने दस्तख़ त कर देंगे। लेकिन वर्मा का पासा उलटा पड़ गया। वह काग़ज़ देखते ही हनुमान वैसे ही भडक़ उठे, जैसे साँड़ लाल कपड़ा देख कर भडक़ उठता है और उन्होंने काग़ज़ फाड क़र वर्मा को झापड़ रसीद कर दिया।''


 ''यह तो खूब कहानी गढ़ी है आप लोगों ने!'' मालिक ने नाक के बाँसे पर से उँगलियाँ हटाकर मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा। 


''यह हमारी गढ़ी हुई कहानी नहीं, आपकी जालसाज़ी का कच्चा चिठ्ठा है!'' सेक्रेटरी ने कहा, ''लेकिन आपने यह न सोचा होगा कि आपकी जालसाज़ी का यह अन्त होगा।'' 


 ''अच्छा, पहले वह गेट पर की नारेबाज़ी बन्द करवाइए!'' मालिक ने कहा, ''उनसे कहिए, हम बात कर रहे हैं।'' 


 ''वह नारेबाज़ी नहीं, हमारी जिन्दगी की पुकार है!'' सेक्रेटरी ने कहा, ''आप हनुमान को तुरन्त बहाल कीजिए, वर्ना हम अभी से हड़ताल करने के लिए मजबूर होंगे!'' 


 मालिक की उँगलियाँ फिर नाक के बाँसे पर पहुँच गयीं। वह बोला, ''अभी मैंने उसे गेट पर बैठाया है, कोई चार्जशीट तो दी नहीं है। जब उसे चार्जशीट मिलेगी, आप लोग उसका जवाब दीजिएगा। फिर उस पर विचार किया जाएगा ... ''


 ''रहने दीजिए यह सब!'' सेक्रेटरी ने उठते हुए कहा, ''यह सब हमने बहुत देखा है! आप हमारी यह आख़िरी बात सुन लीजिए! आपने हनुमान को कोई भी नुक़सान पहुँचाया, तो उसका नतीजा आपके लिए बहुत बुरा होगा!'' कह कर सेक्रेटरी ने मेरा हाथ पकड़ा और हम दोनों कमरे से बाहर निकल आये। दरवाजा बन्द हो गया तो सेक्रेटरी ने मुझसे कहा, ''मैं फाटक पर जा रहा हूँ। आप यूनियन की ओर से एक पत्र लिखकर मालिक को दे दें कि जब तक हनुमान को बहाल नहीं किया जाएगा, कोई भी वर्कर काम पर नहीं जाएगा।'' 


''ठीक है,'' मैंने कहा, ''सुना है, मालिक ने सिक्योरिटी अफ़सर को थाने भेजा है। अगर पुलिस आये तो मुझे बताइएगा। यों भी आप लोग सावधान रहें।'' 


 ''बहुत अच्छा,'' कहकर सेक्रेटरी फाटक की ओर चले गये। मैं अपनी कुर्सी पर बैठ कर पत्र लिखने लगा। मेरा वह सहयोगी उत्तेजित था। उसने पूछा, ''क्या हुआ, सभापति जी, साहब नहीं माने क्या?'' 


 ''साहब लोग यों कोई बात थोड़े ही मान लेते हैं!'' मैंने कहा, ''लेकिन वर्करों की एकता मज़बूत बनी रहे, तो उनकी मनमानी नहीं चलती।'' क़रीब चालीस साल पहले की बात है। उन दिनों यह एक मामूली प्रेस था और एक कच्चे मकान में चल रहा था। एक मासिक पत्रिका निकलती थी और साल में दो-तीन छोटी-छोटी किताबें निकल जाती थीं। मैं पत्रिका का काम सँभालता था, और मेरे साथ एक प्रूफरीडर बैठता था। एक क्लर्क था, जो बाबू जी के साथ बैठता था। तीन कम्पोजीटर थे और दो मशीनमैन, जिनमें से एक सिलिण्डर मशीन चलाता था और दूसरा ट्रेडिल मशीन और उनके साथ एक कुली था। एक दिन कम्पोजीटर सुखलाल एक लडक़े का हाथ थामे मेरे पास आया और बोला, ''भैया जी, आप बाबूजी से कह कर इस लडक़े को रखवा दीजिए। दो साल पहले इसका बाप मर गया था। अकेली बेवा माँ मजदूरी करने चली जाती है और यह कोठरी में पड़ा रहता है। न बोलता-चालता है, न हँसता-रोता है। खाने को भी नहीं माँगता। कभी किसी लडक़े के साथ खेलता भी नहीं। माँ परेशान है कि जाने इसे क्या हो गया है। आज उसने इसे मेरे साथ लगा दिया और चिरौरी की कि मैं इसे प्रेस में रखवा दूँ।''  

 


 


लडक़ा एकदम मरियल था, मैला-कुचैला जाँघिया और गंजी पहने था। सूखी देह पर मैल जमी थी। बाल बड़े-बड़े और चीकट थे। आँखें पीली-पीली थीं। कहीं जान थी, तो उसके मोटे-मोटे होंठों में, जिनके बीच में एक अजीब तरह की मुस्कान की रेखा खिंची हुई थी। 


 मैंने कहा, ''यह तो अभी एकदम बच्चा और बहुत कमजोर है। यह यहाँ क्या करेगा?'' 


 ''अभी झाड़-पोंछ करेगा,'' सुखलाल ने कहा, 


''फिर मैं इसे कम्पोज करना सिखा दूँगा। यहाँ इसका मन बहलेगा, तो यह ठीक हो जाएगा।'' मैंने बाबू जी से कह दिया और उन्होंने लडक़े पर तरस खा कर उसे रख लिया। लेकिन लडक़े के आचरण में कोई फ़र्क नहीं पड़ा। सुखलाल ने उसे अक्षर सिखाने की बहुत कोशिश की। लेकिन उसने नहीं सीखा। उसका शरीर तो ठीक हो गया, लेकिन मानसिक विकास जहाँ-का-तहाँ रुका रहा। वह किसी को भी पहचानता नहीं था। किसी का नाम क्या, वह अपना नाम भी नहीं जानता था। किसी से भी कोई बात न करता था। कुछ पूछने पर भी कोई जवाब न देता था। यहाँ तक कि वह सिक्के या नोट को भी न पहचानता था। गिनती भी न जानता था। 


 कैशियर उसे तनखाह देकर कहता, ''गिनकर देख लो, पूरे हैं न?'' वह नोट मुठ्ठी में दबा कर चलने लगता, तो कैशियर हँस कर कहता, ''अच्छा यह नोट भी ले लो, बन्दरराज! तुम्हारे जैसे आदमी के साथ तो बेईमानी भी नहीं की जा सकती!'' 


 उसके क़रीब पन्द्रह साल बाद प्रेस नयी इमारत में आ गया था। वह अब बहुत बड़ा हो गया था। चार-चार नयी मशीनें लग गयी थीं। दो-दो मोनों मशीनें आ गयी थीं। सौ से ऊपर लोग काम करते थे। तीन-तीन पत्रिकाएँ निकलती थीं। सुखलाल बड़ी मेहनत कर।के हनुमान को सिर्फ़ प्रूफ़ उठाना सिखा सका था। हनुमान प्रूफ़ उठाते और प्रूफ़रीडरों या सम्पादकों के पास पहुँचाते। उन्हें यह मालूम न था कि कौन प्रूफ़ किस प्रूफ़रीडर या सम्पादक के पास पहुँचाना चाहिए। वे सारे प्रूफ़ ले जा कर दरवाज़े के पास बैठे प्रूफ़रीडर की मेज पर रख देते। प्रूफ़रीडर उनमें से अपने प्रूफ़ निकाल कर शेष प्रूफ़ उनके हाथ में थमाकर कह देता, ''अब उनके पास ले जाइए।'' दूसरा प्रूफ़रीडर भी उसी प्रकार अपने प्रूफ़ छाँट कर शेष प्रूफ़ उनके हाथ में दे कर कहता, ''इन्हें उनके पास ले जाइए।'' फिर तीसरा प्रूफ़रीडर अपने प्रूफ उनके हाथ में देकर कहता, ''ये फ़ाइनल प्रूफ़ हैं, इन्हें आप सम्पादकीय विभाग में ले जाएँ।'' तब हनुमान सम्पादकीय विभाग में पहुँचते और हाथ के सारे प्रूफ़ दरवाज़े के पास बैठे सम्पादक की मेज पर ही रख देते। यहाँ सम्पादक लोग प्राय: रोज ही उनके साथ कोई-न-कोई परिहास करते। एक दिन शुक्ला जी ने अपने प्रूफ़ निकाल कर उनसे कहा, ''अब इन प्रूफों को आप अग्रवाल जी के पास ले जाइए।'' हनुमान प्रूफ़ लेकर उनका मुँह ताकने लगे, तो शुक्लजी हँस कर बोले, ''आप कैसे हनुमान जी हैं, जो इतने दिन एक साथ काम करते रहने पर भी हममें से किसी को भी नहंी पहचानते, जबकि एक वह हनुमान जी थे, जिन्होंने अशोक-वाटिका में उन सीता जी को तुरन्त पहचान लिया था, जिन्हें उन्होंने एक बार भी न देखा था, और उनके पास राम की मुद्रिका गिरा दी थी!'' ''वे सतयुगी थे, ये कलियुगी हैं!'' अग्रवाल जी बोल पड़े। सब जोर से हँस पड़े, लेकिन हनुमान अप्रभावित चुपचाप खड़े रहे। 


 एक दिन तो सम्पादकीय विभाग में एक अजीब दृश्य उपस्थित हो गया। दोपहर को खाने की छुट्टी होने के दस मिनट पहले हनुमान प्रूफ़ ले कर आये, तो उन्हें देखते ही श्याम जी उठ खड़े हुए और उन्होंने हनुमान के सारे प्रूफ़ ले कर कहा, ''आप जरा हाथ-मुँह धो कर तो आइए!'' हनुमान हाथ-मुँह धो कर चेहरे और हाथों से पानी चुआते आ खड़े हुए, तो श्याम जी ने अपनी कुर्सी की ओर हाथ से इशारा कर कहा, ''इस पर बैठिए।'' हनुमान बैठ गये तो श्याम जी ने झोले से मिठाइयों का एक बड़ा डिब्बा निकाला और उसका ढक्कन खोल कर, उसे उनके सामने रख कर कहा, ''भोग लगाइए!'' हनुमान सिर झुकाकर चुपचाप मिठाई खाने लगे। वे मिठाई तोड क़र नहीं, पूरी-पूरी मिठाई मुँह में डाल रहे थे। 


 हनुमान सम्पादकीय विभाग में मिठाई खा रहे हैं, यह बात जाने कैसे पूरे प्रेस में फैल गयी। फिर क्या था, सभी वर्कर काम छोड़-छोडक़र सम्पादकीय विभाग में आ गये और हनुमान का मिठाई खाना देखने लगे। 


लेकिन हनुमान सिर्फ़ मिठाई की ओर देख रहे थे और खाते जा रहे थे। कई वर्करों ने श्याम जी से पूछा, ''क्या बात है कि आप ... ?'' ''कुछ नहीं, अपनी श्रद्धा है,'' श्यामजी ने कहा, ''लोग पत्थर के हनुमानजी को लड्डू चढ़ाते हैं, मैंने जीवित हनुमान जी को मिठाई चढ़ायी है!'' 


 सारी मिठाइयाँ खा कर हनुमान उठे और बम्बे पर पानी पीने चले गये। बाद में जब सम्पादकों ने बहुत इसरार किया तो आखिर श्याम जी ने बताया, ''एक-के-बाद-एक मेरे तीन बेटियाँ हो चुकी थीं। सारा परिवार बड़ा परेशान था। इस बार मेरी पत्नी गर्भवती हुई, तो जाने मेरे मन में क्या आया कि एक दिन मैं प्रेस में हनुमान के पास जा खड़ा हुआ। वे प्रूफ़ उठा रहे थे। उन्होंने मेरी ओर देखा भी नहीं। मैं उनकी ओर देखता रहा। जब वे सारे प्रूफ़ उठा चुके और उन्हें लेकर चलने को हुए तो मुझे सामने खड़े पाकर ठिठक गये। तभी मैंने उनसे पूछ लिया, ''इस बार तो बेटा होगा? सुन कर उन्होंने अनायास हाँ में सिर हिला दिया और मेरी बग़ल से निकल गये। ... आप लोगों को यह जान कर ख़ुशी होगी कि कल रात मेरी पत्नी ने एक बेटे को जन्म दिया।'' 


 जब यह बात प्रेस में फैली तो वर्कर हनुमान को एक दूसरी ही दृष्टि से देखने लगे। पहले वर्कर उनकी असीम निरीहता पर तरस खा कर उन्हें मानते थे। लेकिन अब तो वे सहसा ही उनके लिए पूज्य बन गये। वे प्रेस में आते तो सबसे पहले उनके पाँव छूते। लेकिन हनुमान में कोई अन्तर न आया। वे दिन-भर भूत की तरह प्रूफ़ उठाते और पहुँचाते रहे। हाँ, अब उन्हें मेज-मेज जाकर प्रूफ़ न देने पड़ते, प्रूफ़रीडर और सम्पादक ख़ुद उठ कर उनके हाथ से प्रूफ़ लेकर अपना-अपना छाँट लेते। बाबूजी भी जब प्रेस में आते हनुमान से ज़रूर उनका समाचार पूछते। 


हनुमान कुछ न बोलते तो बाबूजी कहते, ''धन्य हैं आप! इस संसार में आप क्या करने आये हैं?'' बाबू जी ने अपने जीवन में कष्ट झेले थे और कड़े संघर्ष किये थे। वे कई-कई बार असफल होने के बाद सफल हुए थे। इसीलिए वे वर्करों का सम्मान करते थे और उनके सुख-दुख में बराबर शामिल रहते थे। वे जाड़ों में वर्करों को कपड़े देते थे, त्यौहारों पर बख़्शीश देते थे, ज़रूरत पडऩे पर मदद करते थे। बराबर मजदूरी बढ़ाते रहते थे और हर दीवाली पर बोनस और मिठाई देते थे। वे वर्करों को भाई कहकर सम्बोधित करते थे और कभी भी कोई कड़ी बात मुँह से न निकालते थे। स्वतन्त्रता दिवस पर वे सहभोज का आयोजन करते थे। सारी व्यवस्था ख़ुद वर्कर करते थे और बाबू जी अपने परिवार के साथ उनकी पाँत में बैठकर भोजन करते थे और उनकी गवनई सुनते थे। लगता था, सब एक ही परिवार के सदस्य हैं। लेकिन बाबूजी के भाग्य में अपनी अर्जित सम्पदा का सुख भोगना न लिखा था। प्रेस, कोठी, कार, सब कुछ हो जाने पर एक दिन अचानक हृदय गति रुक जाने से वे चल बसे। 


उनके बाद उनके बड़े बेटे ने उनकी कुर्सी सँभाली। वे उसी साल यूनिवर्सिटी से एल.एल.बी. करके निकले थे। इतनी भारी सम्पदा और पिता के जीवन-बीमा के दस लाख रुपये के मालिक बनते ही वे इतरा गये। उन्होंने हजारों रुपये खर्च कर अपने बैठने के लिए बढ़िया चैम्बर बनवाया। फाटक पर चौकीदार, टाइमकीपर और सिक्योरिटी अफ़सर तैनात किये। हर सेक्शन के लिए सुपरवाइजर नियुक्त किये। पुरानी मशीनें औने-पौने में बेच कर वेब मशीन लगायी। और सबके ऊपर वर्करों के लिए एक ही साथ कई आदेश नोटिस बोर्ड पर चिपकवा दिये। जैसे-हर वर्कर पन्द्रह मिनट पहले अपनी ड्यूटी पर पे्रस में आ जाए, जो वर्कर एक मिनट भी देर से आएगा, उसे गेट के अन्दर घुसने नहीं दिया जाएगा और उसकी एक दिन की मजदूरी काट ली जाएगी। ड्यूटी के दौरान कोई भी वर्कर गेट के बाहर नहीं जाएगा, सख्त ज़रूरत होने पर वह गेट-पास ले कर अधिक-से-अधिक दस मिनट के लिए बाहर जा सकेगा, लेकिन एक मिनट भी देर से लौटेगा, तो उसकी एक दिन की मजदूरी काट ली जाएगी। किसी भी वर्कर को कोई छुट्टी लेनी हो, तो उसकी दरख़ास्त दो दिन पहले आ जानी चाहिए और उसे मालूम कर लेना चाहिए कि उसकी छुट्टी मंज़ूर हुई या नहीं। बिना छुट्टी मंजूर हुए कोई वर्कर ग़ैरहाजि़र रहेगा, तो उसकी मजदूरी काट ली जाएगी और दूसरी अनुशासनात्मक कार्रवाई भी की जाएगी। कोई भी वर्कर प्रेस के अहाते के अन्दर कहीं भी बीड़ी या सिगरेट नहीं पिएगा। हर वर्कर अपनी डायरी में रोज़ का काम भरेगा। हर वर्कर गेट पर तलाशी के समय अपने खाने का डिब्बा या पोटली भी खोल कर दिखाएगा। हर वर्कर मिलने आने वाले से गेट पर चौकीदार के सामने ही बात करेगा और पाँच मिनट से ज़्यादा बात नहीं करेगा। कोई वर्कर ओवरटाइम से इंकार नहीं करेगा, आदि-आदि। ये सब हुक्मनामे देखकर वर्कर एकदम बौखला उठे। उन्हें लगा कि यह साहब का बच्चा तो उनका नातका ही बन्द कर देना चाहता है। 



फिर वर्करों में बातें हुईं और पहली बार प्रेस वर्करों की यूनियन बनी और यूनियन की तरफ़ से ये माँगें रखी गयीं-इधर जारी किये गये सभी निर्देश वापस लिये जाएँ, क्योंकि वे सभी प्रेस में चली आ रही पैंतीस वर्षों की परिपाटी के विरुद्घ हैं। बीड़ी-सिगरेट पीने के लिए और दोपहर को खाने के लिए जगह की व्यवस्था की जाए। जब तक इन जगहों की व्यवस्था नहीं होती, वर्कर हमेशा की तरह बम्बे के पास बीड़ी-सिगरेट पीते रहेंगे और जहाँ खाना खाते हैं, वहीं खाते रहेंगे। फैक्टरी ऐक्ट के अनुसार छुट्टियाँ दी जाएँ। आकस्मिक छुट्टी और बीमारी की छुट्टी के लिए दो दिन पहले दरख़ास्त नहीं दी जा सकती, क्योंकि आकस्मिक छुट्टी अचानक जरूरत पडऩे पर ली जाती है और बीमारी की छुट्टी बीमार पडऩे पर। ओवरटाइम करने के लिए किसी भी वर्कर के साथ जबर्दस्ती न की जाए। ओवरटाइम की मजदूरी फैक्टरी ऐक्ट के अनुसार दी जाए। हर वर्कर की मजदूरी का ग्रेड निर्धारित किया जाए और मँहगाई भत्ता इन्डेक्स के अनुसार किया जाए। आदि-आदि। और अन्त में चेतावनी दी गयी कि अगर किसी भी वर्कर के साथ कोई भी ज़्यादती की गयी तो उसके परिणाम की जिम्मेदारी मालिक पर होगी। इस तरह मालिक और वर्करों के बीच संघर्ष शुरू हो गया। उसके बाद प्राय: हर वर्ष मालिक की बेईमानी, ज़्यादती, मनमानी, दुराग्रह तथा अन्याय के विरुद्घ वर्करों को विवश हो कर एक-एक, दो-दो या तीन-तीन बार हड़तालें करनी पड़ीं और लेबर ट्रिब्यूनल में जाना पड़ा। 


जब मालिक को हर बार वर्करों की दृढ़ एकता के सामने मुँह की खानी पड़ी, तो उसने यूनियन को ही तोड़ डालने की ठान ली। मैं अभी पत्र लिख ही रहा था कि चपरासी घबराया हुआ मेरे पास आकर बोला, ''पुलिस आ गयी। दारोग़ा साहब के पास बैठा है और दो कान्स्टेबिल फाटक पर खड़े हैं।'' मैं अधूरा पत्र मेज की दराज में रख कर, भाग कर फाटक पर पहुँचा। फाटक पर कान्स्टेबिल पोज़ीशन ले कर खड़े थे। उनके हाथों में बन्दूकें थीं। सामने की सडक़ के दूसरी ओर के फुटपाथ के किनारे एक बेंच पर फाटक की ओर मुँह किये हनुमान बैठे थे। उनके गले में फूलों की मालाएँ पड़ी थीं। उनकी बगल में खड़े हो कर सेक्रेटरी सामने खड़े वर्करों को सम्बोधित कर रहे थे, ... '' तो इस तरह यूनियन ने आज तक हमारे न्यायपूर्ण अधिकारों की रक्षा की है। मालिक हमारी यूनियन को तोडऩे की तरह-तरह की साजिशें कर रहे हैं। आज प्रेस में जो हुआ है, आप सभी जानते हैं। हमारा ही एक साथी वर्मा प्रलोभन में पड क़र, मालिक के बहकावे का शिकार हो कर यह काग़ज़ लेकर हमारे इन बाबा हनुमान के पास गया। उसका खयाल होगा कि भोले बाबा को तो दीन-दुनिया की कोई खबर रहती नहीं, ये कुछ भी जानते-समझते नहीं, ये तुरन्त काग़ज़ पर अपने अँगूठे का निशान लगा देंगे। फिर वह हमारे पास आएगा और कहेगा, देखो, हनुमान ने यह नयी यूनियन बनाने की स्वीकृति दे दी है, तुम लोग भी इस पर दस्तख़ त कर दो। चूँकि हम हनुमान को देवता की तरह मानते हैं, इसलिए उसका खयाल होगा कि हम हनुमान की मानी हुई बात को अस्वीकार नहीं कर सकेंगे। लेकिन शायद उसे या मालिक को भी इस बात का ज्ञान नहीं कि एक जानवर भी अपना हित-अहित समझता है। हमारे ये भोले बाबा तो, चाहे जो हो, एक इन्सान हैं। इन्होंने वर्मा के हाथ से काग़ज़ ले कर उसके दो टुकड़े कर फेंक दिया और उसे एक झापड़ भी रसीद कर दिया, ताकि वह चेत जाए और ऐसी ग़लत हरकत फिर कभी न करे। लेकिन मालिक तो इस तरह अलफ़ हो उठे हैं, जैसे वह झापड़ वर्मा के नहीं, उन्हीं को लगा हो। उनकी चालबाज़ी नहीं चली, तो वे हमारी यूनियनबाज़ी देख रहे हैं। 


हमारे लिए जो काम यूनियन की रक्षा के लिए है, उनके लिए यूनियनबाज़ी है। हम जानते हैं कि उन्हें हमारी यूनियन से कितनी नफ़रत है, लेकिन हम उन्हें बताना चाहते हैं कि हमारी यूनियन हमें अपनी जान से भी प्यारी है और जब तक हमारी जान-में-जान हैं, हम यूनियन का बाल भी बाँका न होने देंगे! आज हमारे हनुमान ने जो किया है, उससे मालिक की आँखें खुल जानी चाहिए! अगर हनुमान जैसे निपट भोले आदमी अपनी यूनियन के लिए ऐसा काम कर सकते हैं, तो हम दूसरे वर्कर जिनमें कुछ चेतना आ गयी है, अपनी यूनियन की सुरक्षा के लिए क्या नहीं कर सकते हैं? अन्त में स्पष्ट शब्दों में मैं यह घोषणा करता हूँ, मालिक कान खोल कर सुन लें, कि जब तक हनुमान को गेट से बाहर रखा जाएगा, हम सभी वर्कर भी उनके साथ गेट के बाहर रहेंगे! ... अब नारे लगाइए ... हमारी यूनियन ...'' ''यूनियन जिन्दाबाद'' के बाद 'हनुमान जिन्दाबाद' के नारे लगे। 


नारों के बाद सेक्रेटरी ने कहा, ''अब यूनियन के सभापति जी से निवेदन कर रहा हूँ कि वे कुछ बोलें।'' मैं हनुमान की बगल में जाकर खड़ा ही हुआ था कि चपरासी दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आकर बोला, ''आपको और सेक्रेटरी साहब को साहब बुला रहे हैं।'' मैंने सेक्रेटरी की ओर देखा तो उन्होंने कहा, ''जैसा आप ठीक समझें।'' मैंने वर्करों से कहा, ''हमें मालिक ने शायद बात करने के लिए बुलाया है। हम जब तक लौटकर न आएँ, आप लोग शान्त रहें।'' 


 हम दोनों मालिक के कमरे में जाकर दारोग़ा के दाहिने कुर्सियों पर बैठ गये, तो मालिक ने दारोग़ा को हमारा परिचय दिया। फिर दारोग़ा ने मुझसे पूछा, ''क्या मामला है? क्यों आप लोगों ने हल्ला-ग़ुल्ला मचा रखा है?'' 


 ''इन्होंने एक वर्कर को गेट के बाहर कर दिया है ...'' 


 ''नहीं!'' बीच में ही मालिक बोल उठा, ''हमने उसे गेट के बाहर नहीं किया है, गेट पर बैठाया है।''  


''लेकिन क्यों?'' दारोग़ा ने पूछा। 


 ''उसने प्रेस में एक पदाधिकारी को झापड़ मारा है।'' ''यह तो बड़ी ग़लत बात है!'' 


दारोग़ा ने कहा, ''आप उस पदाधिकारी को बुलाइए, मैं उसका बयान लूँगा!'' ''वह इन लोगों के डर से घर चला गया।'' ''तब मैं क्या करूँ?'' ''आप इन लोगों से पूछिए। ये सेक्रेटरी साहब तो वारदात के समय प्रेस में थे।'' ''इनसे मैं क्या पूछूँ?''


 दारोग़ा ने कहा, ''मुद्दई के बयान के पहले ही कहीं गवाह का बयान होता है?'' ''लेकिन मैं आपको सब बातें सच-सच बता सकता हूँ,'' सेक्रेटरी ने कहा, ''ये हमारी यूनियन को तोडऩे के लिए ... '' 


''हमारा वक़्त आप जाया न करें!'' दारोग़ा ने कहा और फिर मालिक से पूछा, ''क्या उस वर्कर ने पहले भी किसी को मारा-पीटा था?''

 ''नहीं,'' मालिक ने बताया, ''उसने यह हरकत पहली बार की है।'' 


''तो फिर, मेरी राय से आप ऐसा कीजिए,'' दारोग़ा ने कहा, ''आप इस बार उस वर्कर को चेतावनी दे कर माफ़ कर दीजिए।'' ''हम चाहते हैं कि इन्क्वायरी ...'' 


 ''छोडि़ए वह सब, '' दारोग़ा ने कहा, ''मैं नहीं चाहता कि प्रेस बन्द रहे और आपका नुक़सान हो।''


 ''लेकिन अनुशासन ...'' ''चेतावनी देना भी तो अनुशासन की ही कार्रवाई है,'' कह कर दारोग़ा हमारी ओर मुख़ातिब हुआ, ''जाइए, साहब, आप लोग काम कीजिए।'' 


 ''ये तो अपने मुँह से कहें,'' सेक्रेटरी ने कहा, ''और आप इन्हें भी चेतावनीं दें कि ये हमारी यूनियन को तोडऩे का मंसूबा तर्क कर दें।''  


''ठीक है,'' मालिक दारोग़ा से पहले ही बोल उठा, ''जब आप कहते हैं ...'' मशीनों के चलने की आवाज़ें आने लगीं। तभी चपरासी ने मेरे पास आकर कहा, ''वह चला गया।''


 ''कौन?'' मैंने पूछा। 


 ''दारोग़ा,'' चपरासी ने बताया, ''पाँच सौ रुपये इस बार भी ले गया। साहब ने मुझसे ही कैशियर के पास से मँगाये। उन्होंने मेरे हाथ कैशियर के पास जो चिट भेजी थी, उस पर लिखा था-वर्कर्स वेलफ़ेयर फण्ड से पाँच सौ रुपये। परसों साहब ने अपने बंगले पर जो काकटेल पार्टी की थी, उसके लिए भी वे इसी फण्ड से आठ हज़ार रुपये ले गये थे, आपको मालूम है?'' 


 ''सब मालूम है,''मैंने कहा, ''वे वर्करों के कल्याण के लिए इतना ख़ र्च करते हैं, तभी तो वे हमारी यूनियन को तोड क़र वर्कर्स वेलफ़ेयर यूनियन बनाना चाहते हैं!''

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं