शुक्ला चौधुरी की कहानी 'सपने में सुन्दर'
शुक्ला चौधुरी |
परिचय
कवयित्री एवं कथाकार शुक्ला चौधुरी का गत 23 मई 2021 में कोरोना की वजह से निधन हो गया। उनका जन्म 6 जनवरी, 1951 को झगड़ा़खांद (मनेन्द्रगढ़), जिला-सरगुजा, मध्य प्रदेश में हुआ था जो सन् 2000 में छत्तीसगढ़ का कोरिया जिला हो गया। शुक्ला के पिता श्री रवीन्द्र नाथ दास 1948 में नौकरी के सिलसिले में झगड़ाखांद कोलियरी आए थे पर यहाँ आ कर बांग्ला स्कूल के प्रधानाध्यापक बन ये। वे पत्र-पत्रिकाओं के वितरक भी थे। जाहिर है कि उनके यहाँ हिन्दी-अंग्रेज़ी के साथ-साथ बांग्ला की पत्र-पत्रिकाएं भी आती थीं। वे बांग्ला साहित्य के अध्येता थे जिससे उन्होंने बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, रवींद्र नाथ और शरत चंद्र की अधिकांश किताबें मंगा रखी थीं। शुक्ला की प्राथमिक शिक्षा बांग्ला में ही हुई, साथ में हिन्दी की भी एक किताब पढ़ाई जाती थी।
ऐसे वातावरण में बड़ी हो रही शुक्ला में प्रारंभ से ही कविता-कहानी के प्रति रुचि थी। वह बांग्ला पत्रिका 'शुकतारा' व 'नवकल्लोल' पढ़ती थीं। बाद में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान आदि सभी पत्रिकाएं पढती थीं। उनमें सृजन-प्रतिभा शुरु से ही थी। सातवीं कक्षा से ही वे अपने माता-पिता, भाई-बहन या पास-पड़ोस को ले कर कविता-कहानी लिखती थीं जो स्कूल की कापियों में ही दर्ज रह जाती थीं। आठवीं कक्षा में शुक्ला का लिखा एक नाटक स्कूल में खेला भी गया था।
शुक्ला का विवाह कम उम्र में ही हो गया था जिससे उनकी पढ़ाई ज्यादा न हो सकी। बाद में 1983 में स्वाध्यायी के रूप में उन्होंने हायर सेकंडरी की परीक्षा पास की। संगीत में उनकी रुचि थी और उन्होंने विशारद की उपाधि प्राप्त की।
शुक्ला का लेखन औपचारिक रूप से शुरु हुआ 1976 में आकाशवाणी अंबिकापुर की स्थापना के बाद। आकशवाणी के लिए वे नियमित रूप से कविताएँ-कहानियां लिखने लगीं। तभी से उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। शुरु में देशबंधु, नवभारत, दैनिक भास्कर आदि के रविवारीय अंकों में छपती रहीं, बाद में उनकी कविताएं एवं कहानियाँ वागर्थ, साक्षात्कार, पाठ, काव्यम्, परस्पर, अक्षरपर्व, सर्वनाम व दोआबा जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। 'छत्तीसगढ़ के कवि' काव्य संकलन में उनकी कविताएं शामिल की गईं तथा 'कथा मध्यप्रदेश' में कहानी। प्रकाशन में बच्चों के लिए लिखी उनकी काव्य नाटिका 'हमारी धरती' और डायमंड पाकिट बुक्स से उनका एक उपन्यास 'इश्क' प्रकाशित हुआ है। दुख की बात है कि उनके रहते उनका कोई काव्य-संग्रह तथा कहानी संग्रह नहीं निकल सका। अब पांडुलिपि तैयार की जा रही है। उन्होंने बच्चों के लिए भी रचनाएँ लिखी हैं जो बालक, चकमक आदि कई पत्रिकाओं में छपी हैं।
गत सात-आठ वर्षों से वह फेसबुक पर बहुत सक्रिय थीं और प्रबुद्ध पाठक मित्रों ने उनकी रचनाओं को खूब सराहा। अभी उनके लेखन से हमें बहुत उम्मीद थी पर दुर्भाग्य से वे कोरोना की शिकार हो गईं।
उनका वर्तमान पता था –
88- जे पी विहार, मंगला, बिलासपुर (छ.ग.) 495001.
सर्वहारा वर्ग निरन्तर श्रम करने के बावजूद अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए बाध्य होता है। महानगरों और बड़े शहरों में ऐसा ही एक तबका घरेलू कार्यों को निबटाने वाली दाइयों का है। ये सम्पन्न वर्ग के लोगों के यहाँ काम करती हैं। यह नवधनाढ्य वर्ग इतना चतुर चालाक होता है कि बतौर पारिश्रमिक दिए जाने वाले धन को वसूलने के चक्कर में दाइयों के अधिकाधिक श्रम का उपयोग कर लेना चाहता है। उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि इन दाइयों का अपना जीवन और घर परिवार है और इनके अपने घरेलू काम भी हैं। कवयित्री और कथाकार शुक्ला चौधरी ने एक बेजोड़ कहानी 'सपने में सुन्दर' लिखी थी। 'थी' इसलिए कि शुक्ला चौधरी का 23 मई 2021 को प्रातः बेला में कोरोना से निधन हो गया। वे हमारे प्रिय कवि भास्कर चौधरी की माँ थीं। यह कहानी हमें भास्कर चौधरी के सौजन्य से ही प्राप्त हुई है। हम यहाँ पर शुक्ला चौधरी का जो परिचय दे रहे हैं उसे लिखा है उनके पति और रचनाकार शीतेन्द्र नाथ चौधुरी ने। यह परिवार ‘रचनाकार परिवार’ कहा जा सकता है। शुक्ला चौधरी को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी एक उम्दा कहानी 'सपने में सुन्दर'।
सपने में सुन्दर
शुक्ला
चौधुरी
नोनी सपने में खोई थी।
सपने में सुन्दर था जो कहता है - ‘‘एई नोनी, मुझसे दोस्ती करेगी?’’
नोनी कहती है - ‘‘नहीं, कभी नहीं’’
‘‘काहे?’’
‘‘तू ड्रेभर है ड्रेभर ! ..........भाग हियाँ से.........’’
सुन्दर हँसता है............। सुन्दर की हँसी में नोनी घुलने लगती है..... कि अम्मा का बर्फीला हाथ नोनी को झकझोरता है.......
‘‘उठ, उठ......... बेर होने को है और तू है कि ..........’’
‘‘और थोड़ा सोने दे न अम्मा.......’’ बिस्तर पर करवट बदलते हुए नोनी कुनमुनाई।
‘‘नाहीं बिटिया, तीन घरों का काम है..........’’
नोनी फिर भी न उठी, कथरी को चारों ओर से लपेटती आँखें मूंद लीं।
‘‘उठ न मरी! खाट पर पड़े-पड़े क्यों जांगर तोड़ रही है....?’’
‘‘सुबह का बखत गाली मत दे अम्मा कहे देती हूँ हाँ........’’ नोनी कथरी सरका कर तड़ाक से उठ बैठी।
बहरी को लगा नोनी एकदम नाग के नानकुन बच्चे की तरह फुँफकार रही है। पता नहीं इस छोरी को भी आजकल क्या हो गया है, उसने मन में सोचा। फिर सम्भलते हुए नर्म लहजे में बोली - ‘‘मत उठ, मुझे क्या ..... अस्कूल नहीं जा पाएगी तो हमें कोसना मती.......’’
नोनी अब खाट से कूद गई।
‘‘दिदिया चली गई अम्मा !’’
‘‘कबके........! पाँच घरों में उसे नास्ता-खाना पकाना होता है, अभी से नहीं जाएगी तो कैसे चलेगा!’’
‘‘हूँ.......’’ नोनी जल्दी-जल्दी हाथों से मुंह पर पानी का छींटा मारने लगी।
बिचारी दिदिया !..........नोनी को अपनी दिदिया पर बड़ा तरस आता है। एक साल पहले भागी थी किसी ड्रेभर के संग। भागी थी तो भागी थी, प्यार करती थी दिलोजान से। यहाँ बात बनी नहीं तो भाग गई, इसमें क्या..... पर, फिर मिली ही क्यों? इतना हंगामा, शोर-शराबा....... कायर! मरा ड्रेभर !......... दिदिया को छुपाने के लिए यही गाँव मिला था दुनिया में! नोनी के मुंह का स्वाद कसैला हो गया। उसने चाय का गिलास परे ढकेल दिया।..........
‘‘का हुआ, जुड़ा गया क्या? ला, गरम कर देती हूँ!’’
‘‘नहीं, रहन दे। ये चाय है- न शक्कर, न दूध!’’
नोनी ने मुंह बिचकाया। कोने में चूल्हा सुलग रहा था गन-गन। आँच के पास बैठी अम्मा हाथ-पैरों में तेल चुपड़ रही थी। बाबू की नींद अभी टूटी नहीं थी, वो भी शायद अम्मा के बुलाए के इंतज़ार में था। अम्मा दस बजे तक निकलेगी काम पे। जब से दिदिया घर आई है, फिर से चंगा हो गई है अम्मा। बनाव-सिंगार की भी कोई कमी नहीं। मेमसाहबों का दिया बाली-चूड़ी पहन कर कमर मटकाती चार बजे तक घर लौटती है। खनका ले अम्मा और दो-चार साल ये चूड़ी-पायल, फिर देखूंगी।
नोनी मन ही मन मुस्कुराती हुई आंगन में निकल आई।
अभी पौ पूरी तरह फटी नहीं थी। ठंड की सुबह, छव बजने पर भी घुप अंधेरा। स्वीटी मेम ठीक छव बजे दरवाजा खोल देती है। बड़ी तेवर वाली है स्वीटी मेम। अंग्रेजी स्कूल में मास्टरनी, बड़ी रौब दिखलाती है। अब नोनी के पास एकदम टैम नहीं, वह उड़ने लगी है और पलक झपकते पहुँच गई एक सौ दस यानी स्वीटी मेम के क्वाटर के सामने। गेट खुला हुआ था। अन्दर घुसते ही मेम की तीनों बिल्लियां दौड़ आईं और नोनी के पैरों से लिपटनें लगीं - म्याऊँ.... म्याऊँ....... ऊँ हूँ, दूर हट....... नोनी फुसफुसाई। ...............म्याऊँ.... म्याऊँ...... ढीठ बिल्लियाँ हट नहीं रही थीं...........
‘‘आ गई, नोनी ?’’
‘‘............................’’
‘‘पहले काफी बना फटाफट’’
‘‘............................’’ नोनी किचन में भागी।
‘‘बिल्लियों को दूध दे दे नोनी !’’
नोनी बिल्लियों को परे धकेल कर किचन में दाखिल हुई। कौन सा काम पहले करे, काफी बनाए या बिल्लियों को दूध दे.. .........? उसने गैस जला कर दूध चढ़ाया। सफेद गाढ़ा मलाईदार दूध। नोनी ललचाई। हूँ ..... जानवरों के लिए मलाईदार दूध और मनई के लिए ठेंगा ............ नोनी बुदबुदाई। बिल्लियाँ पैरों से लिपटी जा रही थीं - ‘जा जा भाग ......, अच्छा रुक, पहले तुम तीनों को दूध देती हूँ’ ............... नोनी ने पहले आधा कप कुनकुने दूध में पानी मिला कर एक पतीली में बिल्लियों को पीने के लिए दे दिया।
नोनी मुस्कुराई। अगर जल्दी थी तो बना न लेती अब तक-नोनी मन ही मन बोली।
‘‘शक्कर कम डालना...........’’
नोनी पहले तो एक कप मलाईदार दूध गटक गई, फिर काफी बनाने लगी। एक कप अपने लिए भी, फिर जूठे बर्तनों के बीच छिपा दी और चल पड़ी मेम के पास .......। ‘‘लाई? दे ......... काफी बनाने में इतनी देर क्यों लगी, जैसे यह काफी न हुई बीरबल की खिचड़ी हुई .....।’’
‘‘.................................’’ नोनी जाने लगी।
‘‘नोनी, ........ रुक तो जरा!’’ .................. नोनी रुक गई।
‘‘आटा सान लेना..........’’
‘‘........................................’’
‘‘सब्जी काट कर पानी में भीगो देना, समझी!..........’’
‘‘............................................’’
‘‘अब जा.............’’
‘‘............................................’’
‘‘जा न, खड़ी क्यों है? ........... ज्यादा नखरे मत दिखा, आज बर्तन बहुत कम हैं..............’’
बर्तन कम है का मतलब दूसरा काम मत्थे चढ़ा।
नोनी किचन में आई। छुपाई गई झागदार काफी निकाली, फिर एक घूँट में पी गई।
नोनी बर्तन माँजने लगी ............।
‘‘आवाज मत कर लड़की, कान भन्ना जाता है......’’
नोनी हँसी। ‘‘बिना आवाज के भी भला बर्तन माँजा जाता है! खुद माँज कर तो दिखाए!’’ सोचा नोनी ने।
घड़ी में अभी आठ नहीं बजे थे। नोनी का काम खतम। खड़ी हो गई मेम के सामने ......
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘...........................................’’
‘‘तू क्या जादूगरनी है? ......... अभी आठ भी तो नही बजा और सारा काम खत्म कर लिया! मेमसाहब भरपूर अंगड़ाई ले कर उठ बैठी - ‘‘जरा बालों में तेल तो लगा दे....... वो देख फ्रिज के ऊपर रखा है, ले आ...........’’
नोनी तेल ले आई।
‘‘ले लगा, एकदम पोर-पोर में समा जाए ऐसा लगाना!’’
नोनी तेल लगाने बैठी। काले बालों के नीचे कहीं-कहीं पके बाल चाँदी की तरह चमक रहे थे। ये लो, मेम तो बुढ़ा गई !
‘‘तेरी उंगली में जादू है नोनी, मुझे फिर से नींद आने लगी........।’’ -- तो सो जाओ न, किसने मना किया है आलसी कहीं की! - बंद होठों के अंदर नोनी अपने से ही बतियाती है।
फ्रिज के ऊपर तेल की शीशी रख कर नोनी जाने लगी, अभी दो घर और बचे हैं।
‘‘अरे सुन......!’’
‘‘.......................’’ नोनी खड़ी हो गई।
चोर लगती है लड़की। एक नम्बर की घाघ।
पता नहीं किचेन से क्या-क्या मार कर आई है। पर काम अच्छा करती है। ..................... मेम मन ही मन सोच रही थी।
‘‘सुन नोनी...........’’
‘‘फूली कहाँ है री ?’’
‘‘...............................................’’
‘‘सुना है बैचलरों के घर खाना पकाने का काम पकड़ी है ...................!’’
‘‘...............................................’’
‘‘तेरी अम्मा भी न ! ................... जान-बूझ कर लड़की को शेर की मांद में ढकेलती है, फिर बाद में इतना शोर मचायेगी कि कान पर उंगलियाँ रखनी होगी।’’
‘‘...............................................’’
‘‘तेरी अम्मा से कितनी बार कहा कि बहरी, फूली या नोनी को मेरे पास छोड़ दे, जी खा लेगी और क्या, .............. पर बहरी सुने तब न!’’
‘‘...............................................’’
‘‘अच्छा, अब तू जा ................... तुझे तो स्कूल भी जाना है न ! .................. एई नोनी, क्या बनेगी रे पढ़ लिख कर! -- डाक्टरनी ? ................ या तू भी भागेगी फूली की तरह ..............!’’ मेम हँसे जा रही थी।
नोनी अब और खड़ी नहीं रह सकी, भाग आई वहाँ से।
कितना बुरा हँसती है मेम, फूली भागी थी.........! भागी थी तो भागी थी, तुम्हारे बाप का क्या! तुम सब तो बिन भागे ही घर में ऐसे कारनामे करते हो कि क्या बताएँ। वो तो पेट है हमारा जो तुम्हारे दरवज्जे पर आते हैं, छीः .......... उस वक्त तो नानी मर गई थी सब की जब फूली भागी थी, कैसे हाथ-पैर फूल गए थे सबके। चाक-चौबन्द काम था फूली का, अब वैसी काम करने वाली मिलने से रही ...........। अच्छा! तो क्या ज़िन्दगी भर चौका-बर्तन ही करती रहे, शादी न करे! फूली, फूली और फूली, गई पगलाए आपिसर कालोनी के मेम लोग। जब देखो तब खीं-खीं कर हँसती, आँखें मटकाती। पगलाए तो अम्मा भी कम नहीं गई थी, लाख टके की बेटी। प्रण कर बैठी अम्मा जब तक फूली नहीं मिलेगी तब तक बाल नहीं बाँधेगी। वह अम्मा विकराल झोंटा बिखराए डायन की तरह घर-घर घूमती रही। पूरे दो हज्जार पर पानी फिरा था, कैसे संभलती! पर अम्मा तो अम्मा ठहरी, अपना ऐसा परताप दिखलाई कि दो महीने में ही मिल गई दिदिया। और वो ड्रेभर ऊ तो साला ऐसा भागा कि साल भर होने को आया मरा अपना मुंह तक नहीं दिखाया।
नोनी आफिसर कालोनी के दो सौ चालीस नम्बर बंगले के सामने जब पहुँची तो चारों तरफ धूप खिल आई थी। घास पर, दीवार पर, फूल-पत्तों पर सूरज की किरणें चमक रही थीं। धूप के इन नन्हें-नन्हें छौनों के साथ खेलने का बड़ा मन हुआ नोनी को। पर नहीं; यहाँ तो उसे बर्तन माँजना है - सो भी एक-दो नहीं पूरा झौवा भर। लोग कुल चार जने, पर बर्तन ! .............. लगता है जैसे इस घर में दस- पंद्रह आदमी रहते हों। ..............ठीक है चलो बर्तन माँज लिया, अब तो छुट्टी दो ..................नहीं, ये कर ............... वो कर......., धुत् !
‘‘आ गई ?’’ मेम साहब आंगन में ही टहल रही थी।
‘‘...........................................’’
मोटी थुलथुल, सोएटर के ऊपर एक और गर्म शाल आढ़े हुए थी मेम, नोनी के माथे पे चू आये पसीने को एकटक देखती रही कुछ देर ..................
‘‘तुझे ठंड नहीं लगती ?’’
‘‘........................................’’
‘‘जा एक कुर्सी ला दे .................. जरा धूप में बैठूँ -’’
नोनी भागी-भागी अन्दर गई और कुर्सी ले आई। टैम नहीं है बिल्कुल। जल्दी काम निपटाना है। किचन में बर्तनों का ढेर रख आई है नोनी।
‘‘अरे कहाँ चली? चल, जरा तू भी धूप सेंक ले.....!’’ मेमसाब ने रबरबैंड के भीतर से अपने बालों को आजाद कर पीठ पर फैला दिया - ‘‘ले जरा देख तो, आजकल खुजली हो रही है बहुत ...........! ’’
‘‘..................................’’ नोनी टस से मस नहीं हुई, वैसी ही खड़ी रही। ‘‘क्या हुआ, खड़ी क्यों है? ...................बड़ी ढीठ है तू तो! .................. मुझे सब पता है मास्टरनी के यहाँ तू क्या-क्या करती है। क्या वो ही पैसे देती है, हम नहीं? मैं तो पैसों के अलावा भी बहुत कुछ देती हूँ ................ देती हूँ कि नहीं? बता न! ......................मुंह से बोलती नहीं तो अपना सर ही हिला दे जरा!
‘‘...................................................’’ नोनी बुत बनी खड़ी रही।
‘‘ये जो सूट पहनी है न, जानती है कितने की है ............. और उस दिन जो बेलबाट्स दिए उसका? बहुत महंगे होते हैं ये सब ........................ हुँ: ...................... अच्छा, खड़ी मत रह, जा जा कर काम कर ...............’’
नोनी बर्तनों का ढेर ले कर नल के नीचे बैठ गई। बाल्टी में गिरते पानी की आवाज में वह अपने आँसुओं को छुपाने लगी। उसका मन हुआ कि बदन के सारे कपड़े नोच-नोच कर आंगन में खड़ी मेमसाब के मुंह पर दे मारे। कई जगहों से सिला हुआ पुराना सूट नोनी को मुंह चिढ़ाने लगा था। उसे अपने ‘दरुहा’ बाप पर बड़ा कोफ्त होने लगा। मरा, बाप बना फिरता है! एक चड्डी तक तो खरीद देने की कूबत नहीं है उसकी, और अम्मा ? उसका तो मटकना ही खतम नहीं हुआ अब तक। इस बीच दो-दो बार पेट साफ करा आई। रात उचटती नींद के बीच मिट्टी की दीवार के उस पार से ऐसी आवाजें आती है कि पूछो मत। बेटियों के पैसे से गुलछर्रे उड़ाने में दोनों को शर्म नहीं आती। यह नहीं होता कि अलग से एक कमरा ही निकाल लें।
नोनी का हाथ लगते ही स्टील के बर्तन चाँदी से चमकने लगे। मेमसाब मुस्कुराती हुई चाय ले कर आई और साथ में दो बिस्कुट - ‘‘ले खा ले नोनी, फिर बर्तन माँजना ........’’
मेमसाब के जाते ही नोनी ने चाय-बिस्कुट को नाली में फेंक कर पानी डाल दिया। आज उसका मिजाज बेतरह चढ़ा हुआ था।
नोनी दो सौ चौबीस नम्बर का काम खतम कर जब बाहर आई तब लान के ऊपर से धूप गायब हो चुकी थी। अभी एक घर और जहाँ उसे कपड़े धोना है। वहाँ बड़ी-बड़ी दो लड़कियाँ हैं, पर वे अपनी चड्डी तक नहीं धोती। अब घिन आए या उबकाई नोनी को तो काम करना ही करना है। सो करती है चुपचाप। अंगूठे में चड्डियों को फँसाकर ब्रश मारती है खरर खरर। चैन यहाँ पर भी कहाँ, सर पर खड़ी रहती है घोष आंटी - ‘‘एई नोनी, कोपड़ा ठीक से धोबी, तीन बार पानी बदलबी ठीक हाय, साबान का एकटु भी गंधो नहीं रहना चाई, बुझली!’’
नोनी को क्या ! तीन क्या, चार-पाँच बाल्टी पानी से कपड़ों को धोती। हरर-हरर पानी बहता नाली में। वो जानती है अगले दिन आते ही घोष आंटी कहेगी - ‘पूरा टैंक ही खाली कोर दिया कल तुम, हम चार बजे उल्टी टाइम तक चान किये बिना बोइठा रहा, ............. बदमायेश कोथाकार!’
घोष आंटी के यहाँ कपड़ा धोने के बाद जब नोनी घर आई तो उसके पास समय का एक कतरा भी नहीं बचा था जो उसका अपना हो। वह उढ़के हुए दरवाजे के बाहर देहरी पर बैठ कर चंद लम्हों के लिए सुस्ताने लगी।
बाबू दूर से हिलते-डुलते आते दिखे। ‘देसी दारू की कई बोतलें चढ़ाई होगी’ - नोनी के मुंह में थूक भर आया जिसे फेंकना जरूरी था। उसे कै सी आने लगी यह सोच कर कि रोज की तरह आज भी एक बासी बू उसके नथूनों में घुस आएगी और इसे बर्दाश्त कर सारा काम उसे आधे घंटे में निपटाना होगा। फिर किसी तरह आधा बाल्टी पानी में नहा कर चूल्हे के पास तोप कर रखा बासी खाना, जिसे अम्मा कलेवा कहती है (न जाने किन बड़े घरों से सीख कर आई है यह शब्द), उसे खाना है। नोनी मन मार कर बैठी रहती है। अब कब जाएगी वह स्कूल और कब करेगी घर के काम!
बाबू दारू के नशे में रास्ते पर ही गिर पड़ा। सचमुच सुन्दर ठीक कहता है - ये दोनों तेरी या तेरी दिदिया की कभी शादी नहीं करेंगे देख लेना! तुम दोनों कमाओगी और ये बैठे-बैठे रोटी तोड़ेंगे!................ ‘भाड़ में जाए स्कूल!’ - वह उठी और आंगन में पड़ी झिलंगी खटिया उठा कर नीम तरे ले आई। यहाँ धूप-छाँव का खेल! एक कौआ काँव-काँव करते उड़ गया। डगाल की टहनियाँ कुछ देर तक हिलती रहीं।
नोनी ओढ़नी से मुंह ढांप कर लेट गई। इस वक्त उसे एक बेफिक्र नींद की सख्त जरूरत थी, और एक शानदार सपने की जिसमें सुन्दर का हाथ पकड़े वह ट्रक पे चढ़ रही है और वह ट्रक को फर्राटे से भगा ले जा रहा है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)
सच आसान जिंदगी नहीं होती मुफलिसी की
जवाब देंहटाएंलड़कियां आज भी भेड़ बकरी से कम नहीं रहती हैं, ऐसे घर जहाँ बाप दारुड़ा हो और माँ मटकन परी वहां बच्चियों को नरक में जीना ही पड़ता है और वे सपने देखते रहते हैं अपने लिए आंख बंद किये लेकिन खुलने पर फिर वही
मर्मस्पर्शी कथा
दुःख हुआ इतनी सुघड़ कथाकार व कवयित्री शुक्ला चौधुरी जी के निधन सुनकर
सटीक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
हटाएंसुन्दर कथा
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