सुनील कुमार शर्मा की कविताएं

सुनील कुमार शर्मा

परिचय

 

डॉ सुनील कुमार शर्मा

जन्म : 1975  

शिक्षा : बी.ई., एम. टेक. , पी-एच. डी.

सम्प्रति : मुख्य रोलिंग स्टॉक इंजीनियर (फ्रेट), दक्षिण पूर्व रेलवे, कोलकाता-43.

लेखन :  90 से अधिक रचनाएँ विभिन्न पत्र पत्रिकओं में प्रकाशित।

 

हिंदी के प्रसिद्ध दैनिक समाचार पत्रों यथा दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, सन्मार्ग, प्रभात खबर, देशबंधु, प्रातः खबर, पूर्वांचल प्रहरी, विश्वामित्र, समाज्ञा, लोक राग, जन सन्देश. प्रातः किरण इत्यादि में कविताओं का अनवरत प्रकाशन।

 

हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं यथा ‘वागर्थ’, 'कादम्बिनी', ‘मुक्तांचल’, ‘साहित्य अमृत’, ‘सहचर’, ‘नेहू ज्योति’, ‘चाणक्य वार्ता’ एवं ‘गतिमान’ इत्यादि में कविताएँ प्रकाशित।

 

विभिन्न स्तरों पर आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मंचित किए जाने वाले हिंदी नाटकों यथा मीराबाई, विरहिनी राधा, रानी पद्मिनी, इत्यादि में संवाद लेखन एवं सफल सह-निर्देशन।

 

मनुष्य इस सृष्टि की सबसे अनुपम रचना है। इस रचना ने अपने दम खम पर इस सृष्टि और प्रकृति को मोड़ दिया है। मनुष्य ने अपने लिए एक से बढ़ कर एक अनुपम रचनाएँ खोजी या आविष्कृत कीं। भाषा उसके द्वारा खोजी गई सबसे अनुपम रचना है। इसके जरिए वह उन इशारों और संकेतों के दायरे से बाहर निकलने में कामयाब हुआ, जो जीवधारियों की अब तक की सीमा बनी हुई थी। भाषा का प्रवाह अनूठा है। इसकी बनक अपनी तरह की है। लोगों को यह शब्द से समृद्ध करती है। जनता को यह अभिव्यक्ति का माध्यम प्रदान करती है। भाषा किसी संरक्षण की मोहताज नहीं होती। क्लासिकल कही जाने वाली भाषाएँ गर्त में समा गईं जबकि कई स्थानीय भाषाओं ने अपने बूते अपनी वैश्विक पहचान बनाई। इस भाषा को बनाने संवारने में कवियों और रचनाकारों की भी भूमिका होती है। कवि सुनील कुमार शर्मा अपनी कविता 'भाषाएँ' में उन संकटों की तहकीकात करते हुए सोचते हैं। सोचें भी क्यों न, भाषा ही तो कवि का हथियार होती है। सुनील भाषा के संकट की बात करते हुए लिखते हैं : 'खो जाएँगे बहुत से विचार/ शब्दों के साथ/ सूख जाएँगे आँसू और संवेदनाएं/ इंसान भी कितने इंसान/ बने रह पाएँगे/ इतना कुछ खोने के बाद/ कहना मुश्किल है।' कवि सुनील अपनी कविता में वे बातें कर डालते हैं जो सामान्यता कवियों के कविता का विषय नहीं हुआ करता। यही उनकी ताकत है। इसीलिए कई जगहों पर उनके यहाँ विचार पक्ष उस भाव पक्ष पर हावी हो जाता है जिसे आमतौर पर कविता का प्राण कहा जाता है। बावजूद इसके, वे कविता को कविता के दायरे में रखते हुए अपनी बात बखूबी कह जाते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि सुनील कुमार शर्मा की कविताएँ।

 

 

सुनील कुमार शर्मा की कविताएं

 

 

 

'बाज़ार’

 

बाज़ार जानता है

कविता उठाती है

जो प्रश्न।

उत्तर उन के

अखबारों में

समाचारों में

अक्सर नहीं मिला करते

वैसे पढ़ना सुनना

नितांत निजी विकल्प है ...

 

 

भाषाएं'

 

भाषायें जानती हैं,

नहीं मिलेगा उन्हें अमरत्व

नहीं पी पाई थीं

समुद्र मंथन से निकला अमृत

अहसास है आने वाले संकट का

विलुप्त होने का

अर्थ खोने का।

अवसर भी है दबाब भी

नये रुप धरने का

पर, सहमी हुई हैं

मतलब समझ रही है कि

गज को ही चुरा ले गया कोई,

युधिष्ठिर के कहे से।

अश्वथामा के तले ही

सत्य दब गया।

कोई स्माइली कोई इमोटिकॉन

चुपका कर शब्दों की सांस

ही घोंट गया।

बेजान नहीं हैं,

वे बेचैन हैं

संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन,

औषधि-शास्त्र या विज्ञान

किन्हें सौंपे

यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

कचोटता है प्रश्न उन्हें जब

असुरक्षित महसूस करने लगती हैं,

डर बना हुआ है भीतर

मालूम है उन्हें

तकनीकों और पुरस्कारों की बैसाखियों पर

या संस्थाओं के वेंटीलेटर से ली

उधारी की सांसों पर

बहुत दिन कुलांचें नहीं भर पायेंगी

वे बहती हुई नदियां हैं

स्रोत जल सोखेगा तो

तो सूख जायेंगी

या स्वयं ही ले लेंगी समाधी

हालाँकि फिर संस्कृतियाँ भी

नहीं बच पायेंगी

खो जायेंगे बहुत से विचार

शब्दों के साथ

सूख जायेंगे आंसू और संवेदनाएं।

इंसान भी कितने इंसान

बचे रह पाएंगे

इतना कुछ खोने के बाद

कहना मुश्किल है

रही यदि चंद ही शेष

तो समुंदर की तरह महाकार हो

किस तरह अपनी विश्व सत्ता चलाएंगी।

सोचना है बाकी सब क्या फिर

समुंद्र में विलीन हो जायेंगी

रहस्य की परतें बन कर।

हजारों साल बाद

निकालेंगे गोताखोर भग्नावशेष।

वैसे पुनर्जन्म की संभावना

सुकून के लिए अच्छी बात है  

लेकिन संकटों के साथ बचे रहने

में छुपा है जीवन का सार

खोज पाए तो ठीक वरना

करना होगा इंतजार

अगले समुद्र मंथन का।

 

 

'घर, घर मांगता है’

 

 

घर मुझसे

पलाश की चटख-मटख मांगता है।

सदाबहार की शोख कलियाँ,

खुशियों की वल्लरियाँ,

तितलियाँ का इठलाना मांगता है

ये घर है अजब

वैभव नहीं, उल्लास मांगता है।

 

 

बहुत चतुर है

अलियों की - झींगुर की गुनगुन,

पैजनियों की झुनझुन मांगता है।

अहाता में गीली मिट्टी की जादू

बिखराती गंध मांगता है।

साथ में बातें नहीं

बातों का अंबार मांगता है।

 

 

प्रेम ही नहीं, मेरा दर्द भी मांगता है।

चाँद-तारे नहीं, झील नहीं

उर-सिन्धु की चंचल चपल लहरों

की छेड़छाड़ मांगता है।

मिलने जाओ तो

मुझसे मुस्कराहट मांगता है।

अजब है घर हो कर

मुझसे घर मांगता है।

 

 


 

 

'बाकी है अभी तो'

 

लिखने दो अभी,

मत रोको लेखनी।

अभी तो लिखना बाकी है

बहुत कुछ।

अभी तो मिट्टी को

जल में डुबोया है।

दीपों के जिस्म में प्राणों का

सींचना बाकी है।

 

 

अभी तो बस किरदार दीपक का

लिख कर उठा हूँ।

सुलगते हैं कैसे ग़म,

धड़कता है कैसे दिल

दर्दो का अहसास लिये

दीपों को अभी बताना बाकी है।

 

जिन्दगी के बियाबान में

उठती आंधियों में

अपने भीतर अगन

बचाये रखना।

दीपों में लौ जलाना बाकी है।

इसी लौ से निकलेंगे

कुछ नए किस्से

और नए किरदार

फिर शुरू होगी नई जुस्तजू

 

 

जिनका अभी अंधेरे को

पार कर नये मुकाम तक

पहुंचना बाकी है।

 

 

दीयों को जला कर

स्वयं में चिर जिज्ञासा

जगाना बाकी है

कहाँ रोशनी अंधेरों में

फंस तड़पती है

जानना बाकी है।

जहां नफरतें उगती हैं

जहाँ आस्थाएं भटकती हैं

देखना बाकी है।

थम जाना कुछ देर

अभी दीयों को

टूटे हुए को जोड़ना

सिखाना बाकी है।

 

 

‘अहं चटकता है’  

 

 

कामनाओं की घुड़दौड़

का खेल है सब,

खेल की भागदौड़ में

सब मगन है।

सबकी हथेलियों पर

रखी छोटी बड़ी अगन है,

मगन हो पकड़ रहे

भ्रांतियों की,

आकांक्षाओं की छायाएं,

संभव तो नहीं,

जो कभी पकड़ी जायेंगी।

पीछे जब जितना भागे

दूर उतनी चली जायेंगी।

हाँ घुड़दौड़ छोड़ना तो संभव है,

यदि छोड़ पाए तो

भीतर छुपे केवली को

देखना भी ना असंभव है।

यहाँ पर कोई कहाँ सामान्य है

चल रहा है जो

असामान्य हो जाने का

नाटकीय सोपान है, 

शक्ति और सौन्दर्य

दोनों ही यहाँ सूत्रधार हैं

शक्ति और सौन्दर्य का रचा

नाटक यहाँ खूब चल जाता है

दूर तलक चलता ही चला जाता है

नाटक चलता है भीतर में

रिश्तों में

परिवारों और समाजों में।

 

 

नाटक की अपनी भाषा है

मानुष की उसने गढ़ी है

अलग परिभाषा।

आदम इच्छाओं के

करीब से दौड़ते हुए

नाटक ढूँढता है

नई कहानी एक नए कल की’

और गढ़ लेता है नए किरदार।

फिर वासनाएं मांगती हैं

नए कल’ से अपनी तकदीर,

पर तस्वीर नहीं बदलती, 

वृत्तान्त वहीं खड़ा रह जाता है 

कल नहीं आता

और मन ‘ये सच’ नहीं मान पाता।

चेतना भी पदार्थों के

मायाजाल में फंस छटपटाती है।

उम्र हाथ से फिसलते फिसलते

अक्सर फिसल ही जाती है

दौड़ते भागते जब

कभी किन्तु किसी क्षण

ज्ञान जग जाता है

जान जाता है क्या है गति

कहाँ ले जा रही मति,

ना बचता कोई बताने वाला

और ना जानने वाला

रह जाता परिदृश्य में बस जानना

ना शेष कोई आग्रह

छूट जाता है परिग्रह,

और स्वयं ही स्वयं में

उतरता जाता है।

चटकता है अहं,

और बंधनों से मुक्त

भीतर में तब

महावीर सा एक सिद्ध

जनम जाता है।

 


 

 

'सतरंगी पतझड़

 

अनुभूति में अनुभव और

अनुभव में अनुभूति

बहुत दूर तक

चली जाती है।

मिले पथ पर

सतरंगी पतझड़ या वृद्ध बसंत,

बिना अनुराग के

सहेजती जाती है,

परखती है और कठोरता की

निरर्थकता पहचान जाती है।

जागृति सघन हो जाती है।

पीड़ा, उदासी और रुआँसी के परे

सोई हुई संवेदना जग जाती है।

पकड़ कामनाओं के ओर-छोर

दृष्टि परिपूर्ण हो जाती है।

फिर तो उठाती है प्रश्न,

सुन कर जश्न

हो जाता है आधा सुन्न।

कहती है देखा,

जोड़ कर पूरा संसार

कुछ भी यहाँ सार नहीं,

पथ पर रोती बिलखती

कुरुक्षेत्र की बेवाओं की तरह कोई

दिखता लाचार नहीं,

मिट गए सब योद्धा

सब रिश्ते नाते

पर कहते हैं युद्ध बेकार नहीं।

प्राप्तियों की बांहों में

फिसले थे फैसले जो

क्या वो कदाचार नहीं!

फिर भी तो कविताओं

को आया बुखार नहीं।

मन की ऋतुओं

के वर्तुल में घूम रहे लगातार,

क्षण भर को थमा जो

एक भी बार नहीं।

चलती हैं, चलती ही रहती हैं

जिज्ञासाओं की यात्राओं का कोई

रविवार नहीं।

देखो तो भी

दिखता आर पार नहीं

खुद का खुद पर

भी एतबार नहीं।

सच, सच में

झटका मार जाता है

बर्बरीक का कटा

शीश तो अलग किस्सा

कह जाता है।

कथानक युद्ध का

अचानक से बदल जाता है

युद्ध मानो थम सा जाता है

हार जाती है उर्वशी

और हो जाती है अर्थहीन

यशोधरा की नीरव निश्चल

मधुर सुंदरता!

रुपांतरण चलता है

सहज-सहज और चलता

रहता है अनवरत

फिर घटता है यकायक

और बदलाव

घट जाता है।

सिद्धार्थ में

सोया हुआ

बुद्ध जग जाता है।

 


 

 

'टीस का जल'

 

 

रचते रचते रचना

अधूरी रह गयी।

बचती यदि,

झिलमिलाती, तारों की तरह

पर टूट कर

बिखर गयी।

चाहते थे जो

रचना की प्रकृति

अपनी चाहत जैसा

उन चाहतों की भेंट चढ़ गयी।

वो गर्भस्थ आत्मा

अनंत के बीज में

वापस सिमट गई।

काँच के इस पार

की मछलियों

को टीस के जल में

उछलता छोड़ गयी।

 

             

 

‘पुल बनाते हैं’

 

वस्तुओं को, घटनाओं को, घटना क्रम को,

परिणाम को, प्रक्रिया को, परिवर्तन को,

शब्द ही तो बना चित्र, वर्णित कर जाते हैं।

गुण-दोष को, भाव और भंगिमाओं को,

कुंठाओं को, प्रवृत्ति को,

शब्द ही तो बताते हैं।

विशाल की लघुता को,

लघु में छिपे विशाल को

शब्द ही तो सुनाते हैं।

धर्म को, दर्शन को,

इतिहास को, राजनीति को,

संस्कृति को, संवेदनाओं को,

बन साहित्य एक दूसरे से

शब्द ही मिलाते हैं।

सृजन की पीड़ा को,

सृजकों की व्यथा को,

साहित्य के सिकुड़ते आधार को,

उद्देश्य से भटकाव को, साहित्य में

छटपटाहट बन शब्द ही दिखाते हैं।

देह से मन में

भीतर उतर कर देखिए

इस पार से उस पार,

शब्द ही तो पुल बनाते हैं।

जिस पर हो कर कभी जाते तो नहीं

पर उतर सकते हैं कभी मौन में

शब्दों के पार।

जा भी सकते हैं कभी

तृष्णा के भी पार।

 

 


 

 

'अनिश्चतता की गाँठे'

 

बड़ा रोचक, बड़ा मजेदार खेल है अनिश्चतता।

है यदि कुछ निश्चित तो, वो है अनिश्चतता।

है इस पल बहुत कुछ यहाँ अभी।

और उस पल कहीं कुछ भी नहीं।

इसी से तो हैरान है ज़िन्दगी।

अनुमानों का, उम्मीदों का

भाव गणित उलझायेगा।

चाहे हो योगी, बैरागी,

या हो त्यागी या अनुरागी

अपने-अपने ढंग से

अनिश्चतता की गाँठे सुलझायेगा।

कोई भविष्य बतलायेगा, कुछ पढ़ेगे चेहरा

तो कोई लकीरों के खेल में उलझ जायेगा।

फिर भी क्या मालूम

किस क्षण क्या घटित हो जायेगा।

इसी में तो उलझी है ज़िन्दगी।

मन तो ललचायेगा, कुछ भी

कर के निश्चितता खरीद कर लायेगा

साम, दाम, दंड, भेद सब अपनायेगा।

पथ-परिणाम के तर्क को झुठलायेगा।

शकुनी मामा से सीख कर पासा चलवायेगा।

इसी से तो परेशां है ज़िन्दगी।

द्वैत, अद्वैत, योग, तप,

अध्यात्म का टिमटिमाता दीया

एकला चलने की राह दिखलायेगा।

उदारता और सिद्धांत के पथ पर

मन अकेलेपन से घबरायेगा

ज़मीर संत बन कर कहता नज़र आएगा।

माया है सिर्फ माया है।

इसी से तो भ्रमित है ज़िन्दगी।

 

 

सारणी

 

अंधी सी भागमभाग में

अनवरत चल रही

समय और पूँजी की गुणा भाग में

सारणियों की तरह

विभाजित हो जाते हैं लोग,

ऑफिस, घर, बाज़ार

फिर रिश्तों में भी जहाँ तहाँ चल रहा

भावनाओं का व्यापार।

आगे पीछे ऊपर नीचे सब तरफ  

खानों में बंटे जाते हैं लोग।

माँ-बाप का हिस्सा

प्रेम- घृणा का किस्सा

सारणी के किस खाने में छिपाएं

पति-पत्नी और बच्चे बड़े अहम,

कुछ बड़े खाने उन के लिए बचाएं।

खोजना पड़ता है दोस्तों के लिए

एक शाम का हिस्सा

किस कोने से बाहर लाएं।

खाने होते हैं अलग-अलग

जैसे कुछ पुण्य के, कुछ पाप के

कुछ यथार्थ और स्वार्थ के।

है वाजिब, मन की बात –

जरूरत के हिसाब से

किसको कितने खाने दिखाएं,

कब किस खाने में बैठ आंसू बहा

आगे बढ़ जाएं।

चलते चलते अपनी नज़र में खुद

एक सारणी बन जाते हैं लोग।

एक अबूझ सी पहेली की तरह

स्वयं को हल

करते रहते हैं उमर भर,

लेकिन कुछ पहेलियों के उत्तर

पहेलियों में छुपे नहीं होते ...

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

 

                                           

सम्पर्क

 

मोबाईल : 8902060051

 

 

 

 

 

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