बुद्धदेव दास गुप्ता से विनोद दास की बातचीत – ‘मुझे एक बहुलार्थी फ्रेम का संयोजन अधिक सार्थक लगता है’।

 

Buddhadeb Dasgupta

 

प्रख्यात फिल्मकार बुद्धदेव दास गुप्ता का विगत 10 जून 2021 को निधन हो गयाबुद्धदेव दास गुप्ता फिल्म निर्देशक के साथ-साथ एक बेहतरीन कवि भी रहे हैं। उनके फिल्मों पर कविता का प्रभाव स्पष्ट रुप से महसूस किया जा सकता है। काव्यात्मक प्रवाह की वजह से उनकी फिल्में बिल्कुल अलग धरातल पर खडा दिखायी पडती हैं। कवि आलोचक विनोद दास ने एक बार उनसे विस्तृत बातचीत की थी, जो वागर्थ में प्रकाशित भी हुई। आइए आज पहली बार पर पढते हैं बुद्धदेव दास गुप्ता से विनोद दास की बातचीत – मुझे एक बहुलार्थी फ्रेम का संयोजन अधिक सार्थक लगता है  

 

 

 

बुद्धदेव दास गुप्ता से विनोद दास की बातचीत

 

 

मुझे एक बहुलार्थी फ्रेम का संयोजन अधिक सार्थक लगता है

 

 

 

यह कहा जाता है कि फिल्म के प्राण पटकथा में बसते हैं। आप अपनी फिल्म की पटकथा प्रायः स्वयं लिखते रहे हैं। क्या आप पटकथा लिखने की अपनी प्रक्रिया बताना चाहेंगे?

 

   

 

 

उत्तर : सिनेमा मेरे लिए एक खोज या तलाश है। फिल्म बनाने में संबंधित कोई विचार या सूत्र कई बार मुझे मिलते हैं लेकिन उन पर मैं लंबे समय तक कोई काम नहीं करता। मुझे याद है कि 'चराचर' और 'लाल दरजा' फिल्म के सूत्र मुझे काफी पहले मिल गए थे लेकिन इन दोनों फिल्मों को बनाने में मुझे काफी समय लगा। दरअसल 'लाल दरजा' पर मैं लगभग दो दशकों तक सोचता विचारता रहा। अचानक कोई चीज पढ़ कर बौद्धिक उत्तेजना के दबाव में मैं कोई फिल्म नहीं बनाता। मैं धीरे-धीरे उस विषय पर सोचता-विचारता रहता हूँ और इस तरह विषय की ओर बढ़ते हुए मैं उसकी थीम को पूरी तरह से आत्मसात कर लेता हूँ। इस बीच यदि उससे जुड़े सूत्र, प्रसंग, तथ्य और बिम्ब मुझे मिलते हैं तो उन्हें अलग से लिखता हूँ। दरअसल मेरे पास बिम्ब कभी कविता से आते हैं तो कभी जीवन और कभी संगीत से। बचपन के दिनों के भी बिम्ब आते हैं। पटकथा लिखने की प्रक्रिया में यह बिम्ब, उस मूल कथा को फिर नहीं छूता हूँ। मैं यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मेरी पटकथा - मूलकथा की पंक्ति दर पंक्ति से नहीं मिलती है। यह सही है कि फिल्म में कहानी बीज रूप में विद्यमान होती है लेकिन बाकी चीजें मेरी अपनी स्वतंत्र कल्पना और विचार प्रक्रिया का हिस्सा होती हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं कहानी लेखकों का कृतज्ञ नहीं होता। दरअसल जब मैं पटकथा लिखता हूँ तो अपनी लिखने की मेज के करीब मूल कथा या कहानी को नहीं रखता। मूल कथा का पहले किया गया बहु पाठ मेरी पटकथा को तैयार करने के लिए पर्याप्त होता है। मैं अपनी पटकथा में दृश्यों को इस तरह तैयार करता हूँ कि मेरी कल्पना, मेरा दृष्टिकोण और विचार दर्शकों तक प्रभावी ढंग से संप्रेषित हो सके।

 

 

 

आपने अभी कहा कि आपकी फिल्मों के बिम्बों के स्रोत कविता, चित्रकला और संगीत भी हैं। अब फिल्मों में कई दृश्य या फ्रेम पेंटिंग सरीखे लगते हैं। फिल्म माध्यम में गति होती है। लेकिन आप उसे एक स्थिर बिम्ब में परिवर्तित करने की कोशिश करते हैं। यह वही फिल्मकार कर सकता है जिसे चित्रकला से गहरा लगाव हो इस बारे में आप क्या सोचते है?

 

 

आपका यह अनुमान गलत नहीं है कि मेरी रुचि चित्र कला में है। बचपन से ही पेंटिंग देखना मुझे अच्छा लगता रहा है। विद्यार्थी जीवन में भी मैं कला प्रदर्शनियों को उत्सुकता से देखने जाता था। कई चित्रकारों से मेरी मैत्री रही है। जब भी मैं कोई चित्र देखता हूँ तो कैनवास पर अंकित रंग रेखाओं से बाहर जाते बिंबो को पकड़ने की चेष्टा करता हूँ। मुझे महसूस होता है कि चित्र के कई आयाम हैं। कविता में शाब्दिक संकेत होते हैं जो उभरते हैं और मस्तिष्क में विलीन हो जाते हैं। चित्र स्थिर अवस्था में होते हैं लेकिन उनमें इतनी सम्मोहन शक्ति होती है कि वह आपको बहुआयामी संसार में ले जाते हैं। देखने की इस प्रक्रिया के दौरान एक कला चित्र से बहुत सारे बिम्ब प्राप्त होते हैं। चित्र कला में बिम्ब सृजन की यह प्रक्रिया मुझे बहुत मोहक लगती है। मैं अपनी फिल्म में मेरे अस्थिर बिम्ब रचना चाहता हूँ जिन्हें आंखें बंद करने के बाद देखा जा सकता है। चित्र में अंकित घटना या दृश्य बंध नहीं बल्कि कलाकार के रंगों का उपयोग, उसका दृष्टिकोण, प्रकाश और छाया इत्यादि आंख बंद कर के महसूस किया जा सकता है। इसलिए मैं अपने फ्रेमों का संयोजन इस दृष्टि से करता हूँ कि वे न केवल बहुलार्थी बिम्बों का सृजन करें बल्कि दर्शक जब हाल से बाहर निकलें तो उन्हें कई दिशाओं में सोचने के लिए प्रेरित करें। दस एक निष्प्राण और एकायामी फिल्मों के स्थान पर मुझे एक बहुलार्थी फ्रेम का संयोजन अधिक सार्थक लगता है। इससे फिल्म में जहाँ किफायत होती है और चुस्ती आती है, वहीं सृजनात्मक रूप से दर्शकों और मुझे दोनों को ज्यादा रचनात्मक तृप्ति मिलती है। कई बार चित्र कला से प्राप्त बिम्ब जब फिल्म से जनित बिम्बों से किसी बिंदु पर मिलते हैं तो तीसरे तरह का बिम्ब बनता है। यह एक अतिरिक्त उपलब्धि होती है।

 

 

 

आपकी फिल्मों की गति बहुत धीमी होती है। शायद इसलिए भी यह चित्रकला के स्थिर बिम्बों के सदृश्य लगती है। ऐसे समय में जब जीवन की गति बहुत तेज है और दूसरे फिल्मकार तेज गति की फिल्में बना कर नए प्रयोग कर रहे हैं तो धीमी गति की फिल्म बनाने के पीछे आपकी क्या सोच है?

 

समय की धारा हर एक के लिए भिन्न होती है। पश्चिम की समय की धारणा और हमारे समय की धारणा में भी फर्क है। हमारे यहां वृत्ताकार समय की मान्यता है। पश्चिम में समय रैखिक चलता है। हमारे यहाँ एक केंद्र बिंदु होता है जहाँ समय बार-बार लौटता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महानगर में जहाँ तेज गति का महत्व है वही हमारे किसी गांव में इस तेजी का कोई अर्थ नहीं होता। मेरी फिल्मों की गति धीमी होती है ताकि दर्शकों को सोचने समझने के लिए पर्याप्त समय और अवकाश मिल सके।

 

 

 

लेकिन आप संगीत से किस तरह बिम्ब प्राप्त करते हैं? संगीत तो चित्र कला की तरह दृश्य नहीं बल्कि एक अमूर्त दुनिया में हमें ले जाता है।

 

आंख बंद कर के अकेले में जब मैं संगीत सुनता हूँ तो मुझे अनेक बिम्ब मिलते हैं। ये बिम्ब चित्र कला से सृजित बिम्बों से भिन्न होते हैं। संगीत सुनते समय मस्तिष्क में धीरे-धीरे कुछ संरचनाएं हमारे गहरे अवचेतन में कुछ दृश्य और अमूर्त बिम्बों को रखते हैं। मेरी कोशिश होती है कि अमूर्त संरचनाओं को वास्तविक बिम्ब में बदल सकूं। दरअसल संगीत से मेरा गहरा अनुराग रहा है। मेरी मां पियानो बजाती थी। हम सभी भाई-बहन पियानो बजाया करते थे। मां हमें गायन के लिए प्रोत्साहित करती थीं। वह कहा करती थी कि हम संगीत के जरिए भगवान तक पहुंच सकते हैं। मेरे भाई विश्व देव ने संगीत के क्षेत्र में काफी यश अर्जित किया है। वैसे पश्चिम संगीत हम सुनते थे लेकिन रवींद्र संगीत और टैगोर के गीतों में हमें अधिक आनंद मिलता था। टैगोर के बिना दरअसल हर बंगाली अपने आप को अधूरा-अधूरा महसूस करता है। 

 

 


 

आप क्या अपनी फिल्म के किसी ऐसे बिम्ब को याद कर सकते हैं जिसकी प्रेरणा आपको संगीत से मिली हो। दूसरे शब्दों में फिल्म का कोई वास्तविक बिम्ब जो आपने संगीत से अर्जित किया हो

 

आपको मेरी फिल्म 'उत्तरा' का वह दृश्य तो याद होगा जिसमें पेड़ की पत्तियां एक-एक कर के झड़ती हैं। उन पत्तियों के झड़ने में जो लय है, उसका स्रोत संगीत ही है। 'लाल दरजा' फिल्म में नाटक के धुंध में धीरे-धीरे विलीन होने में जो अवरोह है उसकी प्रेरणा भी मुझे संगीत से ही मिली है। 

 

 

 

आप अभिनेताओं का चयन किस तरह करते हैं?

 

सिनेमा में अभिनेता और अभिनेत्री की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। अपनी पटकथा, स्मृति और कल्पना से मैं अपनी फिल्मों के चरित्रों का एक स्पष्ट खाका बनाता हूँ और इसके उपरांत तदनुरूप चेहरा तलाशता हूँ। आपको यह पता होना चाहिए कि कौन सा अभिनेता आपकी पटकथा के चेहरे मोहरे के निकट है। और वह उस पात्र को पर्दे पर अच्छी तरह से निभा पाएगा कि नहीं। यहाँ अच्छे, बड़े अभिनेता या अभिनेत्री को खोजने का प्रश्न नहीं होता है। अभिनेता बड़ा या समर्थ भी हो, लेकिन यदि वह चरित्र के अनुरूप नहीं है तो वह उसके साथ न्याय नहीं कर पाएगा। लेकिन काफी खोजबीन करने के बावजूद भी कई बार अभिनेता अभिनेत्रियां आपकी आशाओं पर खरे नहीं उतरते हैं।

 

 

आपको स्त्रीवादी फिल्मकार कहा जाता है इस विशेषण के पीछे शायद यह कारण है कि आपकी फिल्मों में स्त्री पक्ष को सशक्त ढंग से पेश किया गया है। 

 

यह मेरी पहली फिल्म 'दूरत्व' के प्रदर्शित होते ही मेरे नाम से जुड़ गया है। दिलचस्प है कि मेरी यह कोई सोची-समझी रणनीति नहीं है कि मैं स्त्रीवादी फिल्मकार दिखूँ। मैं ऐसा कोई दावा भी नहीं करता। लेकिन मुझे पता चला कि महिला सरोकारों पर केंद्रित फिल्म महोत्सव में मेरी फिल्में मुझे सूचित किए बिना दिखाई गयी हैं। मैं कभी भी अपनी पटकथा को इस दृष्टिकोण से तैयार नहीं करता कि मुझे स्त्रीवादी सरोकारों को प्रस्तुत करना है लेकिन यदि मेरी फिल्में इन सरोकारों के साथ खड़ी होती हैं तो मुझे आपत्ति के बजाय खुशी ही होती है। दरअसल सिनेमा मेरे लिए अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जहाँ मैं किसी आंदोलन की सीमा के बाहर जा कर अपने विचारों को प्रस्तुत करता हूँ। मेरी कोई ऐसी हार्दिक इच्छा भी नहीं है कि मुझे स्त्रीवादी फिल्मकार कहा जाए लेकिन अपनी फिल्मों में महिला चरित्रों की जिजीविषा और संघर्ष के प्रति मैं हमेशा सजग रहता हूँ। यदि मेरी फिल्मों के चरित्र स्त्रीवादी सरोकारों या विचारों का पक्ष लेते हैं अथवा उनसे असहमति व्यक्त करते हैं तो मैं क्या कर सकता हूँ। ऐसे सरोकारों और दृष्टिकोण से मैं अपने को परे मानता हूँ।

 

 

 

आप की फिल्म और कविताओं, दोनों में फैंटेसी का इस्तेमाल मिलता है आपकी क्या राय है?

 

आप जिसे फैंटेसी कहते हैं उसे मैं जादुई यथार्थ कहना चाहता हूँ। जब आप यथार्थ का विस्तार उत्तरोत्तर करते जाते हैं तो फैंटेसी के तत्व इसमें शामिल होते जाते हैं। वैसे भी यथार्थ बहुत उबाऊ होता है। उसमें दोहराव बहुत होता है और यह प्रिडिक्टेबल होता है लेकिन जिस क्षण यही जादुई बनने लगता है यही यथार्थ और दिलचस्प लगने लगता है। कहना न होगा कि इस जादुई यथार्थ में रहस्य के तत्व भी मिले होते हैं। अतः मेरी कविता एवं फिल्म दोनों हमेशा एक प्रकार से उस यथार्थ से शुरू होते हैं जिनसे मैं परिचित होता हूँ लेकिन इसे आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में एक ऐसा विस्फोट होता है कि वह यथार्थ नहीं रह जाता। इस यथार्थ में स्वप्न, फैंटेसी, जादू के तत्व मिल जाते हैं। अन्ततः यह जादुई यथार्थ के अंग बन जाते हैं।

 

 

दरअसल फिल्म निर्माण में मैं सिर्फ रूपांतरण नहीं करता हूँ। वैसे कहानी की जरूरत होती है क्योंकि फिल्म बनाने के लिए कुछ ऐसा तत्व चाहिए जो यथार्थ जैसा लगे ताकि दर्शकों को थोड़ा विश्वास में ले कर जादुई यथार्थ में ले जाया जा सके। लेकिन शुरू में यदि हम जादुई यथार्थ में चले जाएं तो दर्शक उस फिल्म को देखने के लिए तैयार नहीं होंगे। ऐसा सिर्फ सिनेमा में ही नहीं होता, साहित्य में भी होता है। भारतीय परंपरा में कहानी सुनने की आदत रही है। बिना कथा के दर्शकों की रूचि आगे नहीं बढ़ती। अतः कहानी से ही क्यों न फिल्म शुरू की जाए और धीरे-धीरे अपनी रचनात्मक दुनिया में ले जाया जाए। कहानी सहज ही दर्शकों को अपने विश्वास में ले लेती है। यदि दर्शक या पाठक एक बार आपका विश्वास कर लेते हैं तो आपके साथ जाने के लिए कहीं भी तैयार हो जाते हैं। इसीलिए कविता और फिल्म दोनों में ही मैं इस प्रक्रिया को अपनाता हूँ।

 

 


 

आपके यहां प्रकृति एक चरित्र की तरह भूमिका निभाती है। या इसे यूँ कह सकते हैं कि आपकी फिल्मों में प्रकृति की उपस्थिति अत्यंत जीवक और उत्प्रेरक है। फ़िल्म 'उत्तरा' में पत्तियों का एक-एक कर गिरने का एक एक दृश्य अत्यंत मोहक बन पड़ा है। 

 

दरअसल मैं अपना कैमरा शहर से बाहर ले जाना चाहता हूँ और इस प्रक्रिया में प्रकृति मेरी फिल्मों के बहुत करीब आ जाती है। दूसरे मेरा बचपन प्रकृति के निकट बीता है। ऐसा नहीं है कि मैंने नगरीय पृष्ठभूमि की फिल्में नहीं बनाई हैं। मेरी कई फिल्में नगरीय पृष्ठभूमि पर भी हैं। यह इस बात पर निर्भर करता है कि फिल्मकार किस थीम पर काम कर रहा है। मेरी फिल्मों में प्रकृति का कोई अलग अस्तित्व नहीं होता बल्कि यह फिल्म में केवल एक पृष्ठभूमि की भूमिका निभाता है। पृष्ठभूमि हमेशा तटस्थ रहती है अर्थात यह किसी का भी पक्ष नहीं लेती है। मैं प्रकृति की इस तटस्थ भूमिका पर चमत्कृत रहता हूँ। आपको याद होगा कि 'उत्तरा' फिल्म में जिस समय चर्च धू धू करके जलता है उसी समय दूसरी ओर इससे तटस्थ हो कर पेड़ से एक-एक करके पत्तियां झड़ रही होती हैं। इससे लगता है कि प्रकृति फिल्म में आए चरित्रों के संबंधों, दुखों और संघर्षों में हिस्सा नहीं लेती। मेरी कभी ऐसी इच्छा भी नहीं रही है कि मैं अलग से स्वतंत्र रूप में प्रकृति को एक यथार्थ के रूप में प्रस्तुत करूँ।

 

 

 

आपकी फिल्मों में स्वप्न के तत्व विद्यमान रहते हैं। कई बार यह स्वप्न आपके चरित्र देखते हैं और कई बार लगता है कि यह फिल्मकार का सपना है, स्वप्न है।

 

मुझे लगता है कि स्वप्न के बिना किसी मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं होता। स्वप्न हमेशा आपके साथ रहते हैं। जीवन की भागमभाग में सहसा वे हमारे भीतर प्रवेश करते हैं और एक अदृश्य साथी की तरह हमारे साथ बने रहते हैं। मेरी कोशिश जागृत अवस्था में देखे गए सपनों को रूपायित करने की होती है। नींद में देखे गए सपने के लिए मेरी फिल्मों में जगह नहीं होती। अपनी फिल्मों में भी अन्य फिल्मकारों की तरह फिल्म दृश्य बंध को अलग से रेखांकित करते हुए नहीं प्रस्तुत करता हूँ। अक्सर फिल्मकार इस तरह दिखाते हैं कि देखो यह एक स्वप्न दृश्य है और फिर संकेत करते हैं कि अब यह स्वप्न पूरा हो गया है और अब हम आगे जो दिखाएंगे वह यथार्थ है। मुझे ऐसी प्रक्रिया अरचनात्मक लगती है। मैं ऐसे किसी विभाजन के विरुद्ध हूँ। मेरी फिल्मों में यथार्थ और स्वप्न को अलग-अलग कटघरों में नहीं बांटा जा सकता है। मैं इन दोनों को एक साथ ऐसे गूँथता हूँ जहाँ यथार्थ स्वप्न सा लगने लगता है और स्वप्न यथार्थ सा। आप कह सकते हैं कि स्वप्न और यथार्थ एक दूसरे में पूरी तरह घुल मिल जाते हैं।

 

 

 

आपकी फिल्मों में लोक संगीत और लोक कलाओं का उपयोग प्रायः मिलता है। लोक कलाओं के प्रति आपके इस अनुराग का क्या कारण है

 

बचपन से ही लोक कलाओं को जानने-समझने का अवसर मिलता रहा है। पिताजी रेलवे में डॉक्टर थे और उनका तबादला होता रहता था। चूंकि मेरा बचपन बड़े शहर से दूर उन छोटी जगहों पर बीता, जहाँ पर लोक जीवन से जुड़े अनेक कलाकार रहते थे और  वे जनता का मनोरंजन अपनी कलाओं के माध्यम से करते थे। बचपन में ऐसे कलाकारों को देखने, जानने-समझने के कारण लोक कलाएं मेरी संवेदना का हिस्सा बन गई हैं। आपको याद होगा कि 'लाल दरजा' फिल्म में एक छोटा बच्चा एक कीड़े से खेलते हुए एक गीत गाता है -

 

छोटी मोटी पिपरा बोटी

तेरा मामा लड्डू लाया 

लाल दरजा खोल दें

 

यह गीत लोक जीवन से उठाया है। 

 

 

 

आपने अभी बचपन का जिक्र किया। आप अपने बचपन के बारे कुछ बताइए

 

मेरा बचपन बेहद दिलचस्प और रोमांचक था। किसी शहर में हम तीन-चार वर्ष से अधिक नहीं रह पाते थे। परिवार बड़ा था। हम नौ भाई बहन थे। मैं तीसरी संतान था। बार-बार जगह बदलने से मेरे पक्के गहरे दोस्त बचपन में कम बने। लेकिन भिन्न वर्गों और पृष्ठभूमियों से जुड़े लोगों और साथियों के संपर्क से मेरी दृष्टि और सोच में विविधता और व्यापकता आई। मेरे पिताजी गांधी जी के आदर्शों के पक्षधर थे। मुझे अभी याद है कि कितने भरे गले से मेरे पिताजी ने गाँधी जी की हत्या की खबर हमें सुनाई थी। पिताजी स्वयं त्याग और परोपकार की साकार मूर्ति थे। गरीब मरीज की दवाइयों के पैसे भी कई बार अपने जेब से दे देते थे। मेरी नानी मां पुराणों की कहानियां सुनाया करती थी। पिता जी से मेरा रिश्ता मित्रवत था। उपनिषद और गीता के अंशों को बांग्ला में अनुदित कर के हमें सुनाते थे। टैगोर, बंकिम चंद्र, शरद चंद्र, सुकुमार राय, उपेंद्र किशोर की रचनाओं को मैं बहुत रुचि से पढ़ता था। हाँ, टैगोर के निबंध और व्याख्यान मुझे भारी और बोझिल लगते थे। 

 

 


 

फिल्मों के प्रति आकर्षण किस तरह शुरू हुआ

 

बचपन में फिल्मों की ओर तब आकृष्ट हुआ जब मैं अपने परिवार के साथ हावड़ा रहता था। मैं हायर सेकेंडरी का छात्र था। निकट के सिनेमा हॉल में हर रविवार को सुबह विदेशी फिल्म का शो होता था। वहाँ महीने या दो महीने में एक बार मुझे और मेरे भाई जयदेव को फिल्म देखने का मौका मिलता था। जहाँ तक मुझे याद है मैंने पहली फिल्म 'टार्जन' देखी थी। चैप्लिन की 'गोल्ड रश' भी मैंने वहीं देखी। 

 

 

 

फिल्म सृजन की ओर किस तरह झुकाव हुआ?

 

15 वर्ष की उम्र से ही मैं कविताएं लिखने लगा था। कह सकते हैं कि शब्दों के माध्यम से बिम्ब रचने की प्रक्रिया से जुड़ गया। मैंने उन्हीं दिनों चैप्लिन की फिल्मों का पुनरावलोकन देखा। 1967 ईस्वी में फेडरेशन आफ फिल्म सोसाइटी ने एक फिल्म लेखन पटकथा प्रतियोगिता आयोजित की। इसमें मैंने भाग लिया। यहां यह याद कर के अच्छा लग रहा है कि मेरी पटकथा को सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखन का पुरस्कार मिला। इस प्रतियोगिता के निर्णायकों में सत्यजीत राय और मृणाल सेन भी थे। प्रतियोगिता के नियमानुसार इस पटकथा पर फिल्म बनती थी लेकिन केवल दो दिन शूटिंग हुई और बाद में आर्थिक कारणों से फिल्म पूरी नहीं हो सकी। सही अर्थों में मेरा फिल्म प्रशिक्षण टॉलीगंज से आरंभ हुआ। मैं वहाँ फिल्मकारों को काम करते हुए देखता था और उनसे सीखता था। देवजी भाई एक बेहतरीन कैमरामैन थे। उन्होंने मुझे एक पुराना कैमरा, कुछ लेंस, कुछ बची खुची फिल्में दीं। कैमरे का इस्तेमाल कैसे करें, यह भी उन्होंने सिखाया। वहाँ सबसे महत्वपूर्ण बातें उन्होंने सिखाया कि किस तरह अभिनेताओं और तकनीकी व्यक्तियों से काम लिया जाए।

 

 

 

फिल्मकार के साथ आप एक अच्छे कवि भी हैं। आपके कविता संग्रह चर्चित भी रहे हैं। पिछले दिनों आपका एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ काफिन किम्बा। आपके अन्य कविता संग्रह सूटकेस, हिमयुग’, छाता’, कहानी रोबेतर गान हुआ भी हैं। आपकी कविता का स्वभाव समकालीन बांग्ला कविता से भिन्न है। समकालीन बांग्ला कविता में भावुकता और ब्यौरे अधिक होते हैं। आपके यहां दोनों कम है। आपकी कविताओं का नैरेटिव भी कुछ अलग सा है और तार्किकता और स्वैर कल्पना इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं।

 

 

मैं पिछले 35 वर्षों से कविताएं लिख रहा हूँ। शुरू से ही मेरी कविता में नैरेशन के तत्व रहे हैं। यह सही है कि मेरी कविताओं के नैरेशन में विवरणात्मकता कम है। लेकिन पिछले पाँच वर्षों में मेरे नैरेटिव स्ट्रक्चर में परिवर्तन आया है। यहाँ वस्तुएं अपनी कहानियां कहती हैं। कंप्यूटर कहानी कहता है। टेलीविजन कहानी कहता है। लेकिन मेरे नैरेटिव स्ट्रक्चर में आपको यथार्थ मिलेगा। कुछ जादुई यथार्थ जैसा। उसी तरह का जादुई यथार्थ जिस तरह मैंने आपको अपनी फिल्मों के बारे में बताया है। मैं यह भी स्वीकार करना चाहता हूँ कि इधर की मेरी कविता मेरे फ़िल्म सृजन से भी प्रभावित हुई है। लेकिन फिल्म माध्यम की तुलना में मैं कविता में ज्यादा स्वतंत्र महसूस करता हूँ। फिल्म में लाखों की नजर में परीक्षा से गुजरना पड़ता है। दूसरे फिल्म महंगा माध्यम है। यहाँ यह भी दायित्व रहता है कि फिल्म में लगी पूंजी डूबने ना पाए। कविता में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती। इसलिए मैं यहां ज्यादा स्वाभाविक रूप में होता हूँ। फिल्म में मुझे लोकप्रियता अधिक मिलती है। दर्शक अधिक होते हैं। फिल्म दर्शकों से आधे भी यदि मेरी कविता के पाठक मुझे मिल जाए तो मुझे गहरा संतोष होगा।

 

 

 

आपकी कविताओं में वस्तुओं के मानवीयकरण की प्रवृत्ति खासतौर से देखने को मिलती है। दूसरे शब्दों में, अजीवित वस्तुएं चाहे वह मेज हो या छाता, आप उन्हें जीवित इकाई के रूप में देखते हैं। जीव जन्तु भी आपकी कविताओं में मनुष्य की तरह सोचते और सपने देखते हैं।

 

हां, यह सही है। मेरी कविताओं में यह इसलिए होता है क्योंकि मुझे दूसरी दुनिया से प्रतिक्रिया करना अच्छा लगता है। अपने आसपास की दुनिया मुझे रहस्यविहीन, एकायामी और सपाट लगती है। नहीं, ऐसा नहीं है। मैं अपनी दुनिया से भागता नहीं हूँ। मैं अपने जीवन से बहुत सारी चीजें लेता हूँ। ये सभी वस्तुएं और जीव-जंतु इसी दुनिया के हैं लेकिन मैं इन्हें दूसरी दुनिया में ले जाना चाहता हूँ। दूसरी दुनिया का अर्थ और महत्व मुझे अधिक रचनात्मक लगता है। मुझे यह भी अच्छा लगता है कि दूसरी दुनिया में हमारी पहली दुनिया के नियम और कानून लागू नहीं होते।

 

 

 

विनोद दास

 

सम्पर्क

 

मोबाईल – 09867448697

 

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