कौशल किशोर की कविताएं
कौशल किशोर |
परिचय
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया, उत्तर प्रदेश), 01 जनवरी 1954, स्कूल के प्रमाण पत्र में।
‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन। दैनिक जनसंदेश टाइम्स के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ में संपादन सहयोग (2014 से 2017)।
संप्रति : लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक।
जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में प्रमुख तथा मंच के पहले राष्ट्रीय संगठन सचिव। वर्तमान में उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष।
प्रकाशित कृतियां: दो कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ तथा ‘नयी शुरुआत’। कोरोना काल की कविताओं का संकलन 'दर्द के काफिले' का संपादन। वैचारिक व सांस्कृतिक लेखों का संग्रह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ तथा ‘शहीद भगत सिंह और पाश - अंधियारे का उजाला’ प्रकाशित। कुछ कविताएं काव्य पुस्तकों में संकलित। 2015 के बाद की कविताओं का संकलन ‘उम्मीद चिन्गारी की तरह’ तथा समकालीन कविता पर आलोचना पुस्तक की पाण्डुलिपियां प्रकाशन के लिए तैयार। कुछ कविताओं का अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद।
पहल, उत्तरार्द्ध, युग परिबोध, कथाक्रम, उत्तरगाथा, मुक्तांचल, समकालीन जनमत, कथन, वर्तमान साहित्य, पुरुष, अन्ततः, कविता, हंस, कथादेश, समावर्तन, इसलिए, आइना, चिन्तन दिशा, परिकथा, कृति ओर, गांव के लोग, रविवार, प्रारुप, युवा, शरर, निष्कर्ष, पतहर, लहक, भोर, प्रसंग, कथान्तर, शब्दिता, जनसत्ता, अमृत प्रभात, रविवार, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, दैनिक ट्रिब्यून, हरिभूमि, जनवाणी, आज, जनसंदेश टाइम्स, श्री टाइम्स, दुनिया इन दिनों, राष्ट्रीय सहारा, डेली न्यूज, छपते छपते आदि अनगिनत पत्र-पत्रिकाओ में रचनाएं प्रकाशित।
आपबीती
जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं घटती हैं जिसकी व्यक्ति की निर्मिति में भूमिका होती है। मेरा जीवन भी ऐसी अनेक घटनाओं से भरा हुआ है जिसने मुझे विद्रोही और इस सनातन व्यवस्था का विरोधी बना डाला। मेरा जन्म भले ही बलिया में हुआ हो पर मेरा बचपन बिहार के गढ़हरा, बरौनी में बीता और मोर्चे पर तैनात हुआ उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में। 1975 से लखनऊ ही मेरी कर्मभूमि है।
बात 1965-66 की होगी। हम गढ़हरा की रेलवे कालोनी के जिस क्वार्टर में रहते थे उसके ठीक नीचे वाले क्वार्टर में नवयुवक संघ की ओर से पुस्तकालय शुरू हुआ। बाबूजी उसके इंचार्ज थे। हरेक रविवार यहां साहित्यिक गोष्ठी होती। कॉलोनी में कवियों की अच्छी खासी संख्या थी। निरंजन, लालसा लाल तरंग, रामेश्वर प्रशांत आदि कवि कॉलोनी में रहते थे। इन गोष्ठियों में दूर-दराज से भी कवि आ जाते। वे अपनी रचनाएं सुनाते। मैं भी कवि गोष्ठी में शामिल होता। लोगों को कविता पाठ करते सुनता और जब लौटता तो मेरे अंदर भी कुछ लिखने की लालसा जागृत हो जाती। इन्हीं किसी गोष्ठी में मेरी मुलाकात अरुण प्रकाश से हुई। बाद में हमारी घनिष्ठता बढ़ी। इसी तरह की एक गोष्ठी में प्रभात सरसिज से भेट हुई। मेरे अन्दर एक रचनाकार जन्म लेने लगा था।
पहली बार कुछ लिखा और संकोच के साथ तरंग जी को दिखलाया। वे बनारस से निकलने वाले दैनिक ‘आज’ के स्थानीय संवाददाता भी थे। उन्होंने उसे दैनिक आज को भेज दिया। वह कविता ‘बाल संसद’ स्तंभ में छपी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। फिर तो पढ़ने-लिखने में मन रमने लगा। क्वार्टर के नीचे ही पुस्तकालय था। मतलब घर में ही पुस्तकालय था और उसमें साहित्यिक पुस्तकों की भरमार थी। दैनिक अखबार से लेकर ‘ब्लीट्ज’, ‘जनयुग’, ‘जनशक्ति’, ‘स्वाधीनता’, ‘अर्जक’ जैसे साप्ताहिक पत्र भी आते। निरंजन जी और प्रशान्त जी का इस बात पर ज्यादा जोर था कि लिखने से अधिक पढ़ने पर जोर हो। वहां वामपंथी साहित्य प्रचुर मात्रा में था। वामपंथी आंदोलन का यह गढ़ इलाका था। साहित्यिक माहौल भी उसी के अनुरूप था। इस तरह बरौनी-बेगूसराय का साहित्यिक माहौल, यहां की वामपंथी आन्दोलन की जमीन और रामेश्वर प्रशान्त जैसे वामंपथ को समर्पित का साथ मुझे गढ़-बना रहा था।
एक प्रसंग आज भी नहीं भूलता। बेगूसराय के जीडी कालेज के प्रांगण में भव्य कवि सम्मेलन का आयोजन था। राष्ट्रकवि दिनकर जी अध्यक्षता कर रहे थे। प्रशान्त जी भी आमंत्रित थे। वे मुझे भी साथ ले गये। सबसे कम उम्र का होने की वजह से कवि सम्मेलन की शुरुआत मेरे कविता-पाठ से हुई। कविता पाठ के बाद दिनकर जी ने पास बुलाया। आशीर्वाद दिया। उन्होंने मेरी पीठ ठोकी। वह मेरे जैसे नवोदित के लिए किसी सम्मान से कम नहीं था। दिनकर जी के हाथों का वह स्पन्दन आज भी महसूस करता हूं।
कौशल किशोर की कविताओं का संग्रह तथा उनके रचनात्मक व एक्टिविस्ट व्यक्तित्व पर लम्बे समय से चर्चा होती रही है। सामाजिक व सांस्कृतिक संघर्षों में अत्यधिक सक्रिय होने की वजह अपने कविता संग्रह प्रकाशन के प्रति उदासीनता दिखती है। यही कारण है कि उनका पहला कविता संग्रह ‘वह औरत नहीं महानद थी’ उम्र के साठ पार कर जाने के बाद आया। यह संग्रह काफी चर्चित भी रहा। इनकी कविताओं पर अनेक आलोचकों और साहित्यकारों ने आलेख लिखे हैं। प्रसिद्ध कवि रामकुमार कृषक की टिप्पणी है ‘ प्रगतिशीलता कौशल किशोर की कविता का केंद्रीय जीवन मूल्य है। सामाजिकता उसकी परिधि, और संप्रेषण उसकी कलाधर्मिता का निकष। कविता के इस गुण-धर्म को युगीन जीवन-जटिलताओं के नाम पर अनदेखा नहीं किया जा सकता। परिवर्तन की आकांक्षा और रूढ़िभंजन इनकी कविता का सहज स्वभाव है। इस बात को हम कवि के रचनात्मक विस्तार में देख सकते हैं। ठहराव वहां नहीं हुआ करता। वह अपने भावबोध के साथ जो यात्रा करता है, वह सिर्फ उसी की नहीं हुआ करती, बल्कि एक व्यापक समाज उसके साथ चलता है।’ जाने-माने कवि-आलोचक सुशील कुमार का कहना है ‘कौशल किशोर के कवि की जनशक्ति के संघर्ष और द्वंद्व की पहचान से कविता की समकालीनता तय होती है। गोकि, जिस कवि में संघर्षशील जन और अपने समय की बुनियादी धड़कनें नहीं होतीं, उसे वर्तमान में रहते हुए भी समकालीन कवि नहीं कहा जा सकता। कवि जितना अधिक समकालिक होगा, वह उतना ही समय से आगे जा कर रचेगा। वह वर्तमान से जुड़ कर भविष्णुता का आख्यान रचेगा। इस दृष्टि से कौशल किशोर आज के एक महत्वपूर्ण कवि हैं। 1970 से, यानी लगभग पचास वर्षों के दीर्घ कविता-काल में उन्होंने अपनी कविताओं में इसी ‘समकाल’ का कथाक्रम रचा है और उसे लोकसौन्दर्य की उन आभाओं से दीप्त किया है, जो धूसर, धवल, काईदार और जीवनसंघर्षों के अनेकवर्णी लोकरंगों में विन्यस्त दिखती है।’
कौशल किशोर की कविताएं
बाबूजी के सपने
बाबूजी कलम घिसते रहे
कागज पर
जिन्दगी भर
और चप्पल जमीन पर
वे रेलवे में किरानी थे
कहलाते थे बड़ा बाबू
उनकी औकात जितनी छोटी थी
सपने उतने ही बड़े थे
और उसमें मैं था, सिर्फ मैं
किसी शिखर पर
इंजीनियर से नीचे की बात
वे सोच ही नहीं पाते थे
ऐसे ही सपने थे बाबूजी के
जिसमें वे जीते थे
लोटते-पोटते थे
पर वे रेल-प्रशासन को
अन्यायी से कम नहीं समझते
उनकी आंखों पर चश्मे का
ग्लास दिन-दिन मोटा होता जाता
पर पगार इतनी पतली
कि जिन्दगी उसी में अड़स जाती
इसीलिए जब भी मजदूरों का आंदोलन होता
पगार बढ़ाने के लिए
हड़ताल होती
‘जिन्दाबाद-मुर्दाबाद’ करते
वे अक्सर देखे जाते
उनके कंधे पर शान से लहराता
यूनियन का झण्डा
लाल झण्डा!
एक वक्त ऐसा भी आया
जब सरकार ने छात्रों की
बेइन्तहां फीस बढ़ा दी
फिर क्या?
फूट पड़ा छात्र आंदोलन
मैं आंदोलनकारी बाप का बेटा
कैसे खामोश रहता
कूद पड़ा
मैं भी करने लगा ‘जिंदाबाद-मुर्दाबाद’
मेरे कंधे पर भी लहरा उठा झण्डा
छात्रों के प्रतिरोध का झण्डा!
बाबूजी की प्रतिक्रिया स्तब्ध कर देने वाली थी
आव न देखा ताव
वे टूट पड़े मेरे कंधे पर लहरा रहे झण्डे पर
चिद्दी चिद्दी कर डाली
वे कांप रहे थे गुस्से में थर-थर
सब पर उतर रहा था
सबसे ज्यादा अम्मा पर
वे बड़बड़ाते रहे और कांपते रहे
वे कांपते रहे और बड़बड़ाते रहे
हमने देखा
उस दिन बाबूजी ने अन्न को हाथ नहीं लगाया
अकेले टहलते रहे छत पर
अपने अकेलेपन से बतियाते रहे
उनकी यह बेचैनी
शिखर से मेरे गिर जाने का था
या उनके अपने सपने के
असमय टूट जाने का था
वह अमावस्या की रात थी
बाबूजी मोतियों की जिस माला को गूंथ रहे थे
वह टूट कर बिखर चुकी थीं
मोतियां गुम हो गई थीं
उस अंधेरे में!
(1972)
लौटना
कवि केदारनाथ सिंह ने कहा -
‘जाना/हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है’
और लौटना ?
जीवन में इस तरह असंगत कि
मैं अपने गांव में खड़ा हूं
या जड़ से उखड़े वृक्ष की तरह
धरती पर पड़ा हूं
लौटा हूं
जैसे लौटती हैं चिड़िया
अपने घोसले में
मैं भी
लौटा हूं
चिड़िया को घोसला न मिले
वह क्या करेगी
पंख फड़फड़ायेगी
ची ची के शोर से आसमान को भर देगी
चोच मारेगी
अपने को लहूलुहान कर देगी
और क्या कर सकती है वह?
मेरा लौटना उसी की तरह है
अन्तर बस इतना कि
वह सुबह गयी
लौटी शाम में
और मैं लौटा चालीस साल बाद
नदी बहते हुए
अपनी राह आने वाले अवरोध को
कूड़ा कचरा को
लगाती जाती है किनारे
मैं भी लग गया हूं किनारे
न गांव था ऐसा
न मैं रहा वैसा
सब हुआ ऐसा वैसा।
जाना, लौटना और भटकना
एक कवि को
जाना हिन्दी की
सबसे खौफनाक क्रिया लगे
फिर भी उसे जाना पड़े
दूसरे को लौटना
असंगत नजर आये
इस कदर कि
वह अपने गांव में खड़ा हो
इस दुस्वप्न के साथ कि
वह उखड़े वृछ की तरह
धरती पर पड़ा है
तीसरे को कदम कदम पर
चौराहे मिले
सही दिशा लुप्त हो
और भटकना नियति बन जाय
जाना, लौटना और भटकना
त्रिभुज की
सीधी-सरल रेखाएं नहीं
जीवन की
उबड़-खाबड़ क्रियाएं हैं
हमारे समय का
सबसे बड़ा सत्य है।
लोकल-वोकल
कितनी छोटी हो गयी है
हमारी दुनिया
हम तो चहचहाना भी भूल गये हैं
भांय-भांय, सांय-सांय करती काली रात
निर्जन, डरावनी
पत्ता भी खड़के
तो तन-मन सिहर उठता है
कोई नहीं आता, कोई नहीं जाता
जिस अकेलेपन को
हिकारत से देखा
दूर छिटकाता रहा अपने से
वही इन दिनों का
सबसे सच्चा साथी है
मोबाइल है,
इससे बतिया सकता हूं
पर पतिया नहीं सकता
नाउम्मीदी का यह यंत्र भर है
जिसे हम उम्मीद की तरह
सीने से चिपकाये हैं
कहते हैं ग्लोबल हो गयी है दुनिया
पर इसमें
अपना लोकल भी नहीं रहा
तुर्रा यह कि
अब इसी लोकल को वोकल बनाने की बात हो रही है।
गांव वापसी
लॉक डाउन के दिनों में
जब लाखों लोग लौट रहे हैं गांव
मुझे भी बहुत
याद आ रहा अपना गांव
शहर में रहते बरसों बीत गए
यहां अपनी पहचान को
बचा कर रखना
आसान नहीं
उसमें होती है माटी की सुगंध
और होता है अपना लोक
कोशिश यही रही कि
बनूं तो पेड़ बनूं
ठूंठ नहीं
यह जिंदगी की आपाधापी है
बरस पर बरस बीत गये
मैं नहीं जा पाया गांव
भला हो नींद का और सपने का
जहां अक्सर पहुंच जाता हूं गांव
यह भी है बहुत खूब
कि जागते कभी गांव न जा पाया
और सपने में
कभी गांव से लौट न पाया
गांव से आती रहीं खबरें
दुविधा से घेरती रहीं खबरें
जैसे जब मैंने सोचा
जाने को तैयार हुआ
खेत के बिक जाने की
खबर आयी
और पांव वहीं ठिठक गए
जाता तो क्या
यह नहीं समझा जाता
कि मैं पहुंचा हूं अपना हिस्सा लेने
इसी तरह की खबरें आती रही हैं
कभी बाग के बिक जाने की
तो कभी बगीचे के
वह आखिरी खबर थी
कि घर भी
रामपूजन सोनार के हाथ बेच
सभी चले गए शहर
यह खबरों के
सिलसिले का ही नहीं
आस की अन्तिम डोर के
टूटने की खबर थी
मैंने कभी नहीं चाहा
खेत-बघार, बाग-बगीचा
माल-मवेशी, घर-दुआर
उनमें अपना हिस्सा
यही सोचता रहा कि
अपने जांगर से
जो पाया, बना पाया
वही अपना है,
उसी पर अधिकर है मेरा
इससे अधिक कुछ नहीं
क्या पेड़ का धरती से अलग
कोई अस्तित्व हो सकता है
यही रिश्ता है मेरा
वहां मेरा बचपन है, उसकी किलकारियां हैं
मेरी हंसी है, रुलाई है, तरुणाई है
बाबा और दादी का इंतजार है
अम्मा और बाबूजी का प्यार है
वहां एक दुनिया है
जिसने मुझे
कविता की तरह रचा है
अब वहां मेरा कुछ भी नहीं है
बस बचा है मेरे लिए तो सिर्फ गांव का नाम
कोई पूछता भी है
तो बताने से हिचकता हूं, झिझकता हूं
पहचान भी दिन-दिन घिस रही है
वह धुंधली होती जा रही है
यह संकट की घड़ी है
देश लाक डाउन में है
लोग लौट रहे हैं
अपने गांव की ओर
सोचता हूं
इस संकट से
मुझे दो-चार होना पड़ता
लौटने वालों की तरह
मुझे भी लौटना होता
क्या होता मेरा?
न शहर होता, न गांव होता
कहां होता मेरा बसेरा?
ठेंगे से.....
आओ नाचे, गायें
मुंह न लटकायें, कमर हिलायें
डांस करें
वह कहती है
और लगती है गाने कि
आओ डांस करें,
थोड़ा रोमांस करें
मैं कहता हूं
अभी इसका समय नहीं है
वह मुंह बिचकाती है
हूं, समय कभी किसी का
नहीं होता
उसे अपने अनुसार
ढालना होता है, जीना होता है
मैं समझाता हूं
यह लाक डाउन का समय है
सब घरों में बन्द हैं
बंद रहना ही जीवन है
ठेंगे से, मैं तो
सदियों से बन्द रही हूं
नहीं स्वीकारती
यह मेरा जीवन है
चाहे अकेले उड़ूं या तुम्हारे साथ या कोई और हो
या चाहे न उड़ूं
यह भी तो गिरफ्तार होना है
अपने मन के पिंजड़े में
नहीं, नहीं, मुक्त होना है
उस अभिशाप से
जिसे रोज-रोज नये विशेषण से सुसज्जित करते हो
देखता हूं
उसके चेहरे पर खौफ नहीं
न अन्दर का, न बाहर का
उसके डैने खुल गये थे द्य
दोआबा की नदियां
दो नदियों के बीच
बसा है अपना गांव
माझी पुल की दिशा में मुंह हो
तो दाहिने हाथ गंगा है
बांये हाथ सरयू
कहलाता है यह क्षेत्र दोआबा
नदियां कटार भी चलाती हैं
प्यार भी जताती हैं
ये सर्प की तरह फुफकारती हैं
इतनी भूखी कि जो मिले
उसे लील जाती हैं
खेत-बघार, गांव-जवार
माल-मवेशी, खड़ी फसलें
दोआबा का कोई कोना
उनकी मार से न बचे
सबको लहूलुहान कर दे
वहीं, जब प्यार पर आये
तो सारी प्रेम कथाएं
छोटी पड़ जायें
वे खेतों में नयी मिट्टी लाती हैं
फसलें लहलहा उठती हैं
मह-मह कर उठता
घर और दुआर
हर तरफ, जिधर देखो उधर
अनाज ही अनाज
सब लहालोट, बच्चे लोटपोट
दोआबा के लिए
ये नदियां
भक्षणि से ज्यादा जीवनदायिनी हैं
ये कहर बन टूटती हैं
तो सुख से तर कर देती है
आंखों में
खुशी के आंसू भर देती है
दोआबा को
अपनी नदियों पर गर्व है
इन्हीं से पुलकित,
पल्लवित हैं जीवन।
हम दोनों
हम दोनों कलाकार थे
हम दोनों मजदूर थे
उसके हाथ में ब्रश था
और यही उसका औजार था
मेरे हाथ में कलम थी
वह किसी अस्त्र से कम न थी
वह जानता था
रंगों की दुनिया के बारे में
कि किन रंगों के मेल से
कौन सा रंग तैयार होगा
वह जानता था
सामने वाले की पसन्द क्या है
और वह उसे मूर्त कर देता दीवालों पर
रंगों के संयोजन की कला में
वह ऐसा सिद्धस्त था
कि बदरंग दीवालें भी खिल उठती
रंग बोल उठते
मेरी दुनिया शब्दों से बनी
कविता की दुनिया है
जो झंकृत कर दे,
रुला दे और हंसा दे
समय के भाव-विचार में
पंख लगा दे
उमड़ते-घुमड़ते बादलों से
शब्दों की बारिश करा दे
पाठक हो या
श्रोता सभी भींग जाये
वाह वाह कर उठे
उसने रची थी रंगों की दुनिया
जिसके लिए मालिक मकान की प्रंशसा हुई
उनके रंग-बोध, सौदर्य-बोध की चर्चा दूर तक गई
मैंने जो कविता रची थी
साहित्य समाज में
उसकी तारीफ हुई
अखबार में छपी, खूब पढ़ी गयी
किताब में आयी, बेस्ट सेलर बनी
मैं कवि था, वह कलाकार था
हम दोनों मजदूर थे
पर यह दुनिया की नजर थी जिसमें मैं कवि था
समाज में सम्मानित,
संस्थानों द्वारा पुरस्कृत, प्रतिष्ठित हिन्दी का कवि
और वह मजदूर था
दिहाड़ी या ठेके पर काम करने वाला मजदूर
सिर्फ मजदूर.........!
कनेरी की आंखें
हमारे पास ही नहीं
पहाड़ों के पास भी होती हैं आंखें
कनेरी की चोटी पर जो गुम्बद है
उसी से वह देखती है
हजार बागों के इस शहर को
जहां बचे हैं बस कुछ ही बाग
वह देखती है
हरे-भरे खेतों को सिमटते
उन पर उगते जंगल को
जो न चूसता है
अपनी हरियाली के लिए
कार्बन डाई आक्साइड
और न ही जीवन के लिए
उत्सर्जित करता है आक्सीजन
हम देख सकें तो देखें
कनेरी की आंखों से देखें
हमें नजर आयेगा उनमें
अपना अतीत ही नहीं
वर्तमान और भविष्य भी।
वह लौटेगी
वह होगी
यही कहीं होगी
जाएगी कहां
गई होगी जंगल की ओर
गोरू-गाय तो है नहीं
कि बांध कर रखी जाय
अब्बू-अम्मी की फिक्रमंद आंखें
तलाश रही है उसे
वह होगी
घर के पिछवाड़े
पेड़ के नीचे सखी-सहेलियों के साथ
वह खेल रही होगी गुड्डे-गुड़ियों का खेल
सजा रही होगी उनकी बारात
साथ उनके बुन रही होगी
अपने सपने
वह अब्बू के कंधे के पीछे
लटकी होगी
झूले की तरह झूल रही होगी और
कर रही होगी जिद्द भोली-भाली, कुछ नई फरमाइशें
अम्मी पुकार रही होगी,
झिड़क भी रही होगी
फकत पास तो आ
काम में हाथ बटा
पर वह अलमस्त
जैसे जानती है अपना काम
भेड़ों को हाक रही होगी
जंगल से घोड़े पर
लाद चूल्हे के लिए
वह ला रही होगी लकड़ियां
वह तितलियों की तरह
उड़ रही होगी बाग में
एक फूल से दूसरे
वह चहक रही होगी
चिड़ियों की तरह
मुड़ेरों पर या छत पर बैठती होगी
और फुर्र से उड़ जाती होगी
वह दिखी
इंडिया गेट पर हाथ में
मोमबत्तियां लिए
एक नहीं, वह अनेक थी
और अनेक में वह एक थी
वह दिखी
इंसाफ रैली में पोस्टर थामे
पुलिस बल से भिड़ती हुई
वह दिख नहीं रही थी
पर उनमें वह थी
अम्मी और अब्बू की आंखें में थी
हमारे-आपके दिलों में थी
देश के लहूलुहान नक्शे पर
उसका जिस्म नहीं
वहां पसरा था खण्डित इंसाफ
जिसे धुना गया था
और धुना जा रहा था
रूई की तरह
उससे बहती लहू की धार से
ललकार की तरह उठती
वह एक आवाज थी
‘हिम्मत है तो लड़ो सिस्टम से’
जिन्दा हो कर भी जो मरे हैं
या सोये पड़े है
उनके बीच
वह मर कर भी जिन्दा थी
लोगों ने उसे परी कहा
वह उड़ रही थी आकाश में
और धरती पर हुजूम था
न टूटने वाली श्रृंखला
परी के हाथ हिल रहे थे
विदा के लिए नहीं
नए संकेतों से भरे
वे हाथ हिल रहे थे
कुंवर जी ने कहा था
कि अबकी बार लौटा
तो वृहतर लौटूंगा
परी भी लौटेगी, वृहतर लौटेगी
लघुत्तम से वह महत्तम लौटेगी
अकेले नहीं संगी-साथियों के साथ
दरिन्दगी पर बोलते हल्ला
वह पूर्णत्तर लौटेगी।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
सम्पर्क
एफ - 3144, राजाजीपुरम,
लखनऊ – 226017
मो - 8400208031
शुक्रिया संतोष चतुर्वेदी जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा चयन है। आपकी कविताओं में बहुत ही सादा लगने वाले अनुभव बहुत ही गहरी संवेदना लिए होते हैं और सशक्त जनतांत्रिक दृष्टि से अभिव्यक्ति पाते हैं। आपकी सहज-सशक्त भाषा गहरा प्रभाव छोड़ती है।
जवाब देंहटाएंशानदार कविताएं। बधाई कौशल किशोर जी।
जवाब देंहटाएं