स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी का पाँचवाँ खण्ड

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

 

...तो इन दिनों हम सिनेमाबाज की कहानी सुन रहे हैं। यह कहानी सिनेमाबाज के साथ-साथ हिन्दी पट्टी के उन असंख्य लोगों की कहानी है जो ठीक इसी देश काल में जी रहे थे। इस देश काल से जुड़ा था समाज, संस्कृति और साहित्य। यह समय उस ऐंग्री यंग मैन का समय था जो महानायक बन कर उभरा था और लोग पागलपन की हद तक उसके दीवाने थे। उसकी फिल्मों के नाम भी कुछ इस तरह के होते जिससे आम आदमी जुड़ाव महसूस करता। दीवार, जंजीर, शोले, लावारिस, सिलसिला, शराबी, कुली ... जैसी फिल्मों की एक लम्बी फेहरिस्त है। लेकिन इसी समय एक वाकया हुआ। कुली फ़िल्म की शूटिंग के दौरान महानायक को संघातक चोट लगी और एकबारगी समूचा देश उसके लिए दुवाएँ करने लगा। यह सिनेमा से जनता का लगाव था। लेकिन इस घटना ने यह सबक भी दिया था कि रील लाईफ और रियल लाइफ में काफी फर्क है। हिन्दी फिल्में हकीकत से कोसों दूर रहते हुए वह रोमांटिसिज्म गढ़ती हैं जो आम जीवन में सम्भव ही नहीं। बहरहाल सिनेमाबाज भी हापुड़, गढ़मुक्तेश्वर होते हुए अब मुरादाबाद पहुँच चुका था जो अनेक प्रतिभाओं को जन्म देने वाली मिट्टी रही है। आइए, आज पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी का पाँचवाँ खण्ड। 

 

 

 

एक सिनेमाबाज की कहानी - 5 

 

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

 

 

॥पंद्रह॥

 

सिनेमा के इतिहास में आठवें दशक का समय महत्वपूर्ण था। आपात काल के   बाद देश की सत्ता में परिवर्तन हुआ। जनता पार्टी की सरकार बनी। यह कई पार्टियों का शामिल बाजा था। लोग अपनी–अपनी धुन बजाने लगे थे और बाद में उनके सुर बिखरने लगे थे। इंदिरा गांधी को केंद्र में रख कर आंधीनाम की फिल्म बनी जिसमें सुचित्रा सेन ने इंदिरा गांधी की भूमिका निभाई थी। इसमें उनके जीवन की छवियों का विलक्षण उपयोग किया गया। इस फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह राजनीति दाम्पत्य जीवन को निरर्थक कर देती है और राजनीति की महत्वाकांक्षा के लिए किस तरह अनैतिक हथकंडों का इस्तेमाल किया जाता है, उसे इस फिल्म के निदेशक गुलजार ने बखूबी दिखाया था। इस फिल्म में फ्लैशबैक का अदभुत इस्तेमाल किया गया था। इस फिल्म के गीत काव्यात्मक थे। फिल्म में तुम आ गये हो नूर आ गया हैया तेरे बिना जिन्दगी से कोई शिकवा नहीं .. इसी तरह किस मोड़ से जाते हैं..जैसे कर्णप्रिय गीत थे। संगीत तैयार किया था आर. डी. बर्मन ने। फिल्म इजाजतमें उन्होंने गुलजार के गीत ..मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है..की धुन भी बर्मन दा ने बनायी थी।

 


 

   

इसी संदर्भ में राजस्थान के सांसद अमृत नहाटा ने 1977 में एक विवास्पद फिल्म किस्सा कुर्सी का’, की याद आ रही है। यह फिल्म इंदिरा गांधी और उनके  बेटे संजय को ध्यान में रख कर निर्मित की गयी थी, जिसे प्रतिबंधित कर दिया था। यह फिल्म नहीं राजनीति का रूपक था। इस फिल्म में बहुत से प्रचलित राजनीतिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया था। इस फिल्म की मुख्य भूमिका मनोहर सिंह और शबाना आजमी ने निभायी थी। इस फिल्म में कई नाटकीय दृश्य थे जिसे कौशल के साथ बुना गया था। यह फिल्म आज के समय में प्रासंगिक है।  

 

  

आपातकाल के बाद राजनीति की संस्कृति में अभूतपूर्व बदलाव देखा गया था। राजनीति अब जनता से जुड़ने का उपक्रम नहीं रह गया था बल्कि वह एक  व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा था। इसी तरह फिल्मों का भी कोई सामाजिक सरोकार नहीं रह गया था, उसका उद्देश्य धन कमाना था। फिल्मों में भव्यता बढ़ रही थी, वे सच्चाई से दूर होती जा रही थीं। इस दौर के सिनेमा  नायक अमिताभ बच्चन थे। वे मुकद्दर का सिकंदर’, ‘शराबी’, ‘लावारिस’, ‘शानजैसी फिल्मों के नायक थे। ये ब्लाकबस्टर फिल्में थीं, जिन्होंने अकूत कमाई की। अमिताभ अपनी फिल्म कुली की शूटिंग के दौरान गम्भीर रूप से घायल हो गए थे और पूरा देश प्रार्थना की मुद्रा में आ गया था। लोग मंदिर, मस्जिद में इबादत करने लगे थे। उन्हें बचाने के लिए यज्ञ आदि किये जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से वे इस मुसीबत से निकल पाये थे। बाद में चल कर अमिताभ बच्चन शताब्दी के महानायक बने। यह महानायकत्व भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद के हिस्से में आया था जो आजादी की जंग में सचमुच के नायक थे। फिल्में हर फिल्म में नया नायक गढ़ती थी और उसे लोग नायक मान लेने की भूल करने लगते थे। इस तरह इतिहास के नायक पृष्ठभूमि में चले जाते थे। लोग उनकी शैली की नकल करते थे।

 


 

हम राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना जैसे नायकों को खारिज नहीं कर रहे हैं, उन्होंने मनोरंजन का विस्तार किया है लेकिन उनकी अपनी सीमाएं थी जिसके आगे वे नहीं बढ़ सकते थे। वे निर्माता–निर्देशक के हाथ की कठपुतलियां थे, उन्हीं की धुन पर नाचते थे। उनका कोई अलग अस्तित्व और प्रतिबद्धता नहीं थी।

  

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सन्‍ 1981 में जब मैंने चंदौसी–मुरादाबाद का चार्ज लिया तो मुरादाबाद का दंगा हो चुका  था, शहर में वीरानगी छायी हुई थी। दोनों समुदायों के चेहरे पर एक दूसरे के प्रति संदेह का भाव साफ दिखाई दे रहा था। मुरादाबाद को पीतल नगरीके रूप में जाना जाता था। किसी गली में पहुंच जाइए वहाँ पर पीतल को नयी शक्ल में ढ़ालने के लिए ठोक–पीट की ध्वनि सुनी जा सकती थी लेकिन जिस समय मैंने मुरादाबाद कचहरी में प्रवेश किया था, वहाँ खामोशी के सिवा कुछ भी नहीं था। बस कुछ बचे हुए संगीन किस्से थे जिसे लोग धीमे स्वर में एक दूसरे को सुनाते थे। दंगों में केवल लोग नहीं मारे जाते, रूहें भी मारी जाती हैं, समाज कई साल पीछे चला जाता है, उसे गम से उबरने में वक्त लगता है।

  

ये सब सियासत के खेल हैं जो हर पार्टी के लोग खेलते है। लोगों को बांट कर सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं। फिरंगियों ने बाटो और राज करो, का जो मंत्र दिया था, उसे आजादी के बाद की राजनीति ने अपना लिया था। दंगों का इतिहास बताता है कि दंगे अचानक नहीं होते हैं। दंगों में आम जनता मारी जाती है, सूत्रधार बच जाते हैं। दंगे, धर्म और जाति के नाम पर किये जाते हैं। फिल्मों में भी दंगे दिखाये जाते हैं, वे बेहद कृत्रिम होते हैं, उनका यथार्थ से कोई वास्ता नहीं होता।

 

कमाल अमरोही

 

मुरादाबाद सिर्फ पीतल के वास्तुशिल्प के रूप में मशहूर नहीं था, वहाँ जिगर मुरादाबादी, जौन औलिया जैसे शायर, पारसी थियेटर के पितामह मास्टर फिदा हुसेन नरसी और कमाल अमरोही जैसे फिल्मकार पैदा हुए थे लेकिन इनके बारे में बहुत कम लोग जानते थे, कुछ लोग तो उनके सिर्फ नाम से परिचित थे। यह केवल मुरादाबाद जैसे शहर की समस्या नहीं थी। लोग अपने शहर के इतिहास और भूगोल से सबसे कम वाकिफ होते है। शहर के बारे में उनकी स्मरण–शक्ति बहुत कमजोर होती हैं, उसकी जगह हम शहर के माफिया, गुंडों और राजनेताओं के कारनामों को ज्यादा जानते हैं।

 

जिगर मुरादाबादी 1960 में इंतकाल फरमा गये थे। उनकी शायरी का मैं मुरीद था। उनका यह बहुत शेर काफी मकबूल था  -

 

है इश्क नहीं आसां, बस इतना समझ लीजै

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

 

मैं अपनी जिंदगी में इस आग के दरिया से गुजर चुका था। जिगर की जिंदगी में इश्क के किस्से कम नहीं थे। उनका पहला इश्क आगरा के एक तवायफ वहीदन से हुआ लेकिन शादी के बाद यह रिश्ता बहुत दिनों तक चल नहीं सका। दूसरा इश्क मैंनपुरी की एक गायिका शीरजन से हुआ, निकाह के बाद उसे भी नाकामी का मुंह देखना पड़ा। बताया यह भी जाता है कि उनके पास बेगम अख्तर का भी शादी के लिए पैगाम आया था लेकिन किन्ही कारणों से उसमें कोई तरक्की नहीं हुई। 

   

शायरों का इश्क अगर नाकाम न हो तो शायरी परवान नहीं चढ़ती। दुनिया के मशहूर अफसानें और नज्में प्रेम की असफल कहानियां ही तो है। जिगर मुरादाबाद भले ही जिंदगी की जंग न जीत पाये हो लेकिन शायरी में उन्होंने बड़ा मुकाम बनाया। उन्हें उनकी किताब आतिश–ए-गुलको 1958 के साहित्य अकादमी के पुरस्कार से नवाजा गया। जिगर को पीने की गहरी लत थी। उन्होंने लिखा है –

 

सबको मारा जिगर के शेरों ने

और जिगर को शराब ने मारा।

 

 

jigar Muradabadi.

 

 

जिगर हो या मजाज या अदम गोंडवी, ये सब अंगूर की बेटी के हाथों मारे गये। जिगर मिजाज से आशिक और तवियत से हुश्नपरस्त थे, उनकी शायरी इसका सुबूत है।

  

अली सिकंदर के जिगर मुरादाबादी बनने की कथा कम रोचक नहीं है। जिगर असगर गोंडवी के दोस्त थे। उनकी मृत्यु 1960 में गोंडा में हुई थी। वहाँ के तोपखाना नाम के मुहल्ले में उनकी मजार है। एक कालोनी के एक हिस्से का नाम जिगरगंज रखा गया है, उनके नाम से जिगर मेमोरियल इंटर कालेजभी चल रहा है। गोंडा–प्रवास में मुझे वह जगह देखने का फक्र हासिल है।

   

मुरादाबाद की दूसरी शख्सियत मास्टर फिदा हुसेन थे। मुरादाबाद में रहते हुए उनसे मुलाकात नहीं हो पायी थी, उनसे मेरी मुलाकात शाहजहाँपुर में हुई थी। मुझे याद है कि शाह्जहाँपुर में मेरे मित्र चंद्र्मोहन दिनेश ने फिदा हुसेन का कुछ समय पहले इंटरव्यू लिया था, वे उनसे पुन: उनसे किसी पत्रिका के लिए बातचीत करना चाहते थे। उन्होंने कहा – जब मेरी उम्र सौ साल हो जायेगी तब आप मुझसे  बात करिएगा, इंशाअल्लाह मैं इस उम्र तक जरूर पहुंचूगा। उनके भीतर गज़ब का  आत्मविश्वास था। कद में वे छ: फीट से कम नहीं थे। उनका शरीर तना हुआ था, कहीं कोई लोच नहीं थी। आवाज बेहद कड़क थी। जिस समय यह बात हो रही  थी, उस वक्त सम्भवत: उम्र के 96वें पायदान पर थे। वे मुरादाबाद के निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार में 1899 में पैदा हुए थे, जहाँ गाने और नाचने पर मुमानियत थी, वे इस बंदिश को तोड़ना चाहते थे। मुझे यह भी मालूम हुआ कि उनके परिवार को उनकी यह हरकत पसंद नहीं आयी अत: उन्हें खाने में सिंदूर मिला दिया गया ताकि उनकी आवाज फट जाय और वे इस जानिब अपना पांव बढ़ाना छोड़ दे लेकिन वे अपनी आवाज को बचाने की कोशिश में लग गये। उन्हें एक हकीम मिला उन्हें कुछ दवाओं के साथ यह मशवरा दिया कि वे कुएं में उल्टे लटक कर गाने का रियाज करे तो आवाज वापस आ जायेगी। सचमुच आवाज वापस आ गयी। यह किस्सा उन्होंने खुद बयान किया।

 

 

वे कमसिनी में मुम्बई भाग गये थे और रायल अल्फ्रेड कम्पनी में काम करने लगे। वहाँ राधेश्याम कथावाचक उनके जोड़ीदार थे। दोनों ने बारह साल मिल कर काम किया। उसके बाद मूनलाइट कम्पनी में कार्यरत रहे। उन्होंने अपने जीवन के  पचास साल पारसी थियेटर में रहे और 1968 में उन्होंने अवकाश ले लिया। उन्होंने यहूदी की लड़की’, ‘लैला मजनूं’, ‘परमभक्त प्रह्लाद’, ‘वीर अभिमन्यु’, ‘श्रीकृष्ण अवतार जैसे नाटकों में अभिनय किया। शंकराचार्य ने उन्हें नरसीकी पदवी से अलंकृत किया और वे इस तखल्लुस से वे जाने  गये। वे नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से जुड़े हुए थे। यदा–कदा वहाँ वे तालीम देने चले जाते थे।

 

  

सन्‍ 1995 में मेरी उनसे रामपुर में मुलाकात हुई – जहाँ मैं अपने कथाकार मित्र कुमार सम्भव की प्रथम पुण्यतिथि में सम्मिलित होने के लिए आया था। वहाँ हिंदी के कई लेखक और कवि उपस्थित थे। एक हाल में उनका प्रोग्राम हुआ, उनसे अपने किसी नाटक का सम्वाद सुनाने के लिए अनुरोध किया गया। जब वह भक्त प्रह्लाद का सम्वाद सुना रहे थे इसी बीच बिजली चली गयी, माइक शांत हो गया, इसके बावजूद भी उनकी आवाज बुलंद थी, वह पूरे हाल में सुनाई पड़ रही थी। उन्होंने हमें बताया कि सर्दी-जुकाम के कारण उनकी आवाज बैठ गयी है अन्यथा उनकी आवाज इससे ज्यादा बुलंद होती।

  

उन दिनों पारसी थियेटर के लिए आवाज जरूरी होती थी क्योंकि लाउडस्पीकर जैसे साधन उपलब्ध नहीं होते थे। मास्टर फिदा हुसेन 2001 में अपनी उम्र का सौवां साल पूरा कर इस फानी दुनिया से रूखसत हो गए।

 

   

॥सोलह॥

 

 

चंदौसी मुरादाबाद का एक सम्पन्न कस्बा था। वह पूर्वी उ. प्र. के किसी जिले से  कम नहीं था। वहाँ का श्यामसुंदर मेमोरियल पोस्ट ग्रेजुएट कालेज बहुत प्रसिद्ध था जो 1908 में स्थापित हुआ था, 1946 में यह उच्चत्तर शिक्षा का केंद्र बना। वहाँ हिंदी की तमाम हस्तियों ने शिक्षा ग्रहण की थी। प्रसिद्ध आलोचक डा. नगेंद्र, लेखक गज़लगों दुष्यंत कुमार, व्यंगकार रबींद्र नाथ त्यागी, कवि भारत भूषण अग्रवाल ने इस कालेज का नाम रोशन किया। हिंदी ने नामी गीतकार कुंअर बेचैन ने इसी विश्वविद्यालय से दीक्षित हुए थे। इस कालेज के मुकाबले आसपास के जिलों में इस कद का कोई अन्य कालेज नहीं था। चंदौसी में मूलचंद गौतम मेरे मित्र बने जो आलोचक के साथ व्यंगकार भी थे। उनसे मेरे पारिवारिक रिश्ते बन  गये थे, उन्होंने शरतचंद की जीवनी – आवारा मसीहालिखने वाले उपन्यासकार/कथाकार विष्णु प्रभाकर को बुलाया था, उनका अदभुत व्याख्यान मुझे याद है। उन्होंने शरतचंद के और उनके साहित्य बारे में नयी जानकारी दी। वे शरतचंद के जीवन और साहित्य की तलाश में उन जगहों पर गये, जहाँ वे रह चुके थे। वे उनके साहित्य के पात्रों से भी मिले। इसके लिए उन्होंने अपने जीवन के चौदह वर्ष खर्च कर दिये थे। हम जानते हैं कि शरत चन्द के पात्र कोठों पर गायन और विवशता में देह व्यापार करने वाली स्त्रियां थी जिनके भीतर उन्होंने करूणा और मानवीयता को पहचाने की कोशिश की थी। शरतचंद ने देवदास, चरित्रहीन, गृहदाह  परिणीता जैसी महान कृतियों की रचना की। उनके जीवन और साहित्य को जानने  के  लिए उन्होंने बंगला भाषा सीखी ताकि वे शरतचंद को जान सके।

 

विष्णु प्रभाकर

 

      

विष्णु प्रभाकर आर्यसमाजी और विचारधारा से गांधीवादी थे। उनकी सरलता और  सहजता मुझे बहुत अच्छी लगी। उनकी कहानियां में पहले ही पढ़ चुका था और प्रभावित हुआ था। आगे चल कर उन्होंने धरती अब भी घूम रही है, अर्धनारीश्वर जैसे उपन्यास की रचना की, उन्हें मूर्तिदेवी, साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उन्होंने हेमामालिनी को हिंदी सिखायी थी। 

 

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मूलचंद गौतम कथाकार कुमार सम्भव के साथ मिल कर परिवेश नाम की पत्रिका का सम्पादन करते थे। इस पत्रिका के संस्थापक-सम्पादक प्रसिद्ध कथाकार काशी नाथ सिंह थे। कुमार उन दिनों मुरादाबाद में सरकारी मुलाजिम थे। वे लेखक के साथ मस्त तवियत के मालिक थे, उनकी विनोदप्रियता अदभुत थी। परिवेश-9 के अंक में लेखक महेश राही की कहानी – आखिरी जवाबप्रकाशित हुई थी, उस  कहानी के खिलाफ कोर्ट में मुकदमा चला था। इल्जाम यह था कि इस कहानी में दलित महिला के विरूद्ध आपत्तिजनक टिप्पणी की गयी है। इस प्रकरण के बाद इस पत्रिका चर्चा में आ गयी थी। मूलचंद गौतम ने इस पत्रिका के महत्वपूर्ण अंक निकाले जिसमें से साम्प्रदायिकता को केंद्र में रख कर एक विशेष अंक प्रकाशित  हुआ जिसके अतिथि सम्पादक सत्येंद्र कुमार रघुवंशी थे।

 

   

परिवेश के नाम पर परिवेश सम्मान दिया जाता था, यह पुरस्कार ओम प्रकाश बाल्मीकि, हरीचरन प्रकाश, सुधीर विदयार्थी, शिव कुमार पराग को दिया गया था। उसके भव्य आयोजन किए जाते थे, इस सम्मान की विश्वसनीयता थी। कुमार सम्भव की दारूण मृत्यु की याद करते हुए हमारी रूह फना हो जाती है। मूलचंद अकेले हो गये थे। मुश्किल से उसके अंक निकल पाते थे। कुमार सम्भव अक्सर मूलचंद से कहा करता था – मास्टर तुम सामग्री जुटाओ, विज्ञापन जुटाना मेरा काम है। उसकी जिंदादिली जो अब भी रह–रह कर याद आती है लेकिन उसे कमोवेश अच्छी जिंदगी मिली लेकिन उसकी मौत बदसूरत थी।

 

वीरेन डंगवाल

 

बरेली में वीरेन डंगवाल उन दिनों सक्रिय थे, वे बरेली कालेज में पढ़ाते थे – साथ ही अमर उजाला के रविवारीय संस्करण का सम्पादन भी करते थे। हम सब मिल कर उस अंक में अपना साहित्यिक योगदान देते थे यानी नौकरी और साहित्य एक साथ चलता रहा। इस संतुलन कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। मैं दोनों के बगैर नहीं  जीवित रह सकता था, जीवन-यापन के लिए नौकरी जरूरी थी और अपने पसंद के शगल के लिए साहित्य आवश्यक था। साहित्य मुझे संवेदनशील बनाता था, मुझे जीवन के तमाम संकटों से बचाता था। विभाग हो या समाज वह मेरे इस शगल की स्वीकृति नहीं देता, उल्टे मेरी आलोचना यह कह कर की जाती थी कि इससे महकमे का काम बाधित होता है। जिस तरह के लोगों से मिल कर विभाग का  समाज बना था, उसमें मेरे लिए कोई जगह नहीं थी, यहाँ तिकड़मी लोगों को काबिल समझा जाता था। सम्वेदनशील लोगों के लिए सरकारी नौकरी करना यंत्रणा से गुजरना था। नौकरी हमारे मिजाज के हिसाब से नहीं मिलती थी। कुछ लोग तो सरकारी नौकरियों के लिए बने होते हैं। वे जहाँ भी जाते हैं, चारागाहों को चर जाते थे फिर भी उनकी भूख का दमन नहीं होता है।

 

 

मैंनें महसूस किया कि जो लोग नौकरी ज्वाइन करते समय जो मासूम दिखते थे, वे कुछ सालों बाद खूंखार हो गये थे, वे मुझे सलाह देने लगे थे कि साहित्य–वाहित्य से जिन्दगी नहीं चलती, बस थोड़ा दुष्ट बन जाओ। दौलत इकट्ठी करो अंत में वही काम आएगी। देखो अमुक ने अपना मकान बनवा लिया है, गाड़ी खरीद ली है – तुम्हारे पास अभी तक कुछ नहीं है। तुम्हें कोई ठीक का स्टेशन नहीं मिला है। मुझे उनकी उन बातों का कोई असर नहीं हुआ था। मैं अपने ढ़ंग की जिंदगी जीना चाहता था और मैं उसकी कीमत देने को तैयार था। यह मेरा चुना हुआ रास्ता था, जिस पर मैं चल रहा था। 

 

  

चन्दौसी में दो सिनेमाहाल थे, वे अलग–अलग ध्रुव पर स्थित थे। दोनों सिनेमाहाल खस्ताहाल थे। उस पर बंदर कूदते रहते थे, इससे दर्शको का ध्यान बाधित होने लगता था। पहला अपने जोगाड़ से नयी फिल्में लगाता था, वह रेलवे–स्टेशन के पास में था। ट्रेन लेट होने के कारण लोग फिल्म देखते थे और ट्रेन की सीटी सुन कर ट्रेन पकड़ते थे। ट्रेन कब आएगी, यह काम वह बुकिंग–क्लर्क को सौप देते थे। वह बचे हुए टिकट का उपयोग कर लेता था। ऐसे कई सिनेमा –पिपासु लड़के सिनेमाहाल के पास मड़राते रहते थे। बुकिंग–क्लर्क बहुत चालू था। टिकट के बाकी पैसे टिकट की पीठ पर लिख देता था और कहता था कि बकाया पैसा इंटरवल में मिलेगा। वह इंटरवल में चाय पीने स्टेशन चला जाता था, लोग टीपते रहते थे। मैनेजर को इसका खामियाजा उठाना पड़ता था।

   

 

दूसरा टाकीज जीर्ण–शीर्ण था, उसके पास पीपल का प्राचीन पेड़ था, उस पर  बंदरों की सेना रहती थी। वे टाकीज के टीन–टप्पर पर उछलते-कूदते थे, इससे सिनेमा–दर्शको को व्यवधान होता था। बदले में वे सिनेमा मालिक को गालियों से नवाजते थे। पीपल के पेड़ पर एक विचित्र बंदर रहता था जो टिकट की खिड़की की भींड़ से बचना चाहते थे, वे उसे पैसे दे कर टिकट हासिल करते थे। इस काम के लिए लोग उसे केले या मूंगफली खिलाते थे। वह बहुत ढ़ीठ बंदर था। कभी मैंनेजर रूम की मेज या कुर्सी पर ठाट से बैठ जाता था जैसे वह सिनेमाहाल का मालिक हो। कभी उछल कर सिनेमा–स्टाफ के कंधे पर बैठ जाता था। सिनेमा के परिसर में एक मजार थी, हर शाम उस पर सिन्नी (प्रसाद) चढ़ाई जाती थी, अगरबत्ती जलाई जाती थी। फिर प्रसाद वितरित किया जाता था जिसे लोग श्रद्धा से ग्रहण करते थे। अगर इसमें कोई चूक हो जाय तो सिनेमा प्रोजक्टर बाधित हो जाता था।  

 

  

अपनी चाकरी के दौरान मैंने देखा है कि प्राय: सिनेमाहालों के पास ऐसे मजार होते थे, उनके पीछे बहुत सी कहानियां होती हैं। सिनेमाहाल में कत्ल की घटनाये भी  होती थी, मृतक भूत बन जाते थे, उन्हें शांत करने के लिए ये कर्मकांड किये जाते थे। अफवाहें कहानियों में बदल जाती थी फिर वे लोकजीवन में चली जाती थी।  

   

 

चंदौसी का एक किस्सा मुझे अक्सर याद आता है। एक बार एक राबिनहुड की तरह दिखने वाला आदमी मैंनेजर रूम में आया उसने मैंनेजर से पूंछा कि आप के  यहाँ कोई कैसे फिल्म देखता है, मैंनेजर ने कहा कि पहली श्रेणी के लोग टिकट खिड़की से टिकट लेते है और सिनेमाहाल में प्रवेश करते है। जिनसे जान–पहचान होती है उन्हें कम्पलीमेंटरी टिकट दिये जाते हैं, जो दवंग होते हैं उन्हें मुफ्त में हाल में जगह दी जाती है। आप बताये कि आप किस तरह टिकट लेना चाहते है? उस आदमी ने जेब से पिस्तौल निकाल कर हवाई फायर किया, मैंनेजर ने कहा - हुजूर आप बाल्कनी में बैठिए – नाश्ता आपके पीछे जा रहा है..। 

 

     

मधुबाला

 

 

॥सत्तरह॥

  

मेरा अधिकार-क्षेत्र चंदौसी था लेकिन यदा–कदा क्षेत्राधिकारी के अवकाश पर जाने पर जनपद के अन्य क्षेत्रों का मुआयने का अधिकार मिल जाता था। जब मुझे कुछ  दिनों के लिए अमरोहा का चार्ज मिला तो शहर में पहुंच कर कमाल अमरोही की याद आयी। उनकी फिल्म महलका मैं मुरीद था। वे इस फिल्म के लेखक और निर्देशक थे। इस फिल्म में अशोक कुमार और मधुबाला की मुख्य भूमिका थी। इस फिल्म ने नया कीर्तिमान स्थापित किया था। इस फिल्म का संगीत खेमराज ने तैयार किया था। यह फिल्म 1949 में रिलीज हुई थी। आएगा आएगा आने वाला आएगा..’, ‘मुश्किल है बहुत मुश्किल इस दिल को बहलानाजैसे  कर्णप्रिय गीत अब भी पुराने दर्शको के कानों में गूंजते हैं। पुरानी फिल्मों के गाने मुझे बहुत पसंद थे क्योंकि उनका आधार शास्त्रीय होता था। वे शाहजहाँ’, ‘दिल अपना प्रीत परायीके अलावा मुगले आजम के संवाद लेखकों मे एक थे। लेकिन उनकी सबसे ज्यादा चर्चा मीना कुमारी से शादी और फिल्म पाकीजा से हुई। मीना कुमारी कमाल अमरोही की जिंदगी की तीसरी औरत थी, यह एक इमोशनल  रिश्ता था लेकिन बहुत दिनों तक जिंदा नहीं रह सका।

 

Meena Kumari

    

फिल्म पाकीजाकी कल्पना 1953 में की गयी थी, 1964 में वे एक दूसरे से  अलग हुए थे। 1968 में कमाल अमरोही ने मीना कुमारी से इस फिल्म में काम करने के लिए अनुरोध किया। यह फिल्म 1972 में रिलीज हुई और यही साल मीना कुमारी का इस दुनिया से रूखसत होने का समय था। मीना कुमारी को ट्रेजिडी–क्वीन का खिताब दिया गया था। ट्रेजिडी का तत्व उनके जीवन और फिल्मों में बराबर व्याप्त था। मीना कुमारी के साथ मधुबाला का नाम लिया जा सकता है। दोनों इस दुनिया में 35-38 साल तक रही लेकिन आज भी लोग उनके जीवन और अभिनय को शिद्दत से याद करते हैं। मीना कुमारी की शायरी में बेशुमार दर्द है, उन्होंने लिखा है-

 

चांद तन्हा है आसमां तन्हा

दिल मिला है कहाँ–कहाँ तन्हा 

राह देखा करेगा सदियों तक 

छोड़ जाएंगे यह जहाँ तन्हा ..।

 

 

अमरोहा में घूमते हुए मुझे कमाल अमरोही की फिल्में और मीना कुमारी की  नज्में याद आती रही। सम्भवत: रजिया-सुल्तान उनकी आखिरी फिल्म थी। फिल्मकारों की जिंदगी किसी फिल्मी-कथा से कम रोचक नहीं होती, वहाँ रिश्ते स्थायी नहीं होते, कमाल अमरोही इसके अपवाद नहीं थे। केवल फिल्मों में ही नहीं उनकी जिंदगी में दूसरी औरतें होती हैं। फिल्मी दुनिया में खंडित दाम्पत्य सम्बंधों की अनेक दारूण कहानियां हैं जो फिल्मी पत्रिकाओं की जीनत बनती हैं।

 

शायर न एलिया

 

 

अमरोहा प्यारे शायर जौन एलिया की सरजमीन है, विभाजन के बाद वे पाकिस्तान चले गये। वे कमाल अमरोही के कजिन थे। उनकी शायरी में जिंदगी की तल्ख हकीकते, रोमानियत और फलसफा है। वे लिखते हैं..

 

अब जुनूं कब किसी के बस में है

उसकी खुशबू नफस–नफस में है

हाल उस सैद काका सुनाइए क्या

जिसका सैयाद खुद कफस में है..। 

 

 

चन्दौसी की सैर करते हुए एक अजीम शख्सियत को भूल ही गया था, जबकि उन्हें पहले ही याद किया जाना चाहिए था – वह है प्रसिद्ध निर्माता निर्देशक शाहिद लतीफ (11 जून 1913 - 16 अप्रेल 1967) वे चंदौसी के पास एक गांव में जमींदार परिवार में पैदा हुए थे। उनकी स्कूली तालीम चंदौसी में हुई, वहाँ से वे उच्च शिक्षा के अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की ओर रूख किया। वहाँ उनकी मुलाकात सहादत हुसेन मंटो और इस्मत चुगताई से हुई। वे लखनऊ में पत्रकारिता करते रहे। गांधी की सलाह पर उन्होंने हिंदुस्तानी डिक्शनरी का सम्पादन किया। उनकी शोहरत दूर-दूर तक गयी।

    

बाम्बे‌-टाकीज की मालकिन देविका रानी ने उन्हें फिल्मी लेखन के लिए बम्बई बुलाया। देविका रानी अपने पति हिमांशु राय के साथ फिल्म निर्माण की संस्था बाम्बे–टाकीज का संचालन कर रही थी। उन्होंने अपने समय की नयी प्रतिभाओं को अवसर दिये, यूसुफ खान को दिलीप कुमार बनाया। शाहिद लतीफ ने 1948 में जिद्दीफिल्म बनाई, यह देवानंद की पहली फिल्म थी। इसी तरह से फिल्म आरजू(1950) फिल्म से दिलीप कुमार, कामिनी कौशल का फिल्मी सफर शुरू हुआ। फिल्म बुजदिल(1951) से कैफी आजमी को गीत लिखने का मौका मिला। शाहिद लतीफ के जीवन वृत में – बहारे फिर भी आयेगी’, ‘जबाब आयेगा’, ‘सोने की चिडियाजैसे मकबूल फिल्में दर्ज हैं। उन्होंने सन्‍ 1941 में उर्दू की नामचीन अफसानानिगार इस्मत चुगताई से निकाह किया।

     

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सन्‍ 1980 में मुरादाबाद में भीषण दंगा हुआ था, 1982 में फिल्म गांधीप्रदर्शित हुई। मुरादाबाद के दंगे का असर शहर से कम नहीं हुआ था, उसकी राख में आग  सुलग रही थी। लोगों के चेहरों पर उसकी परछाइयां मौजूद थी। ऐसे माहौल में फिल्म गांधी देखना मेरे लिए नया अनुभव था। इस फिल्म के निर्देशक रिचर्ड एटिनवरो ने यह फिल्म लुइस फिशर की किताब – दी लाइफ आफ महात्मा के आधार पर बनाई थी। लुइस अमेरिकन पत्रकार थे, इस किताब को लिखने के लिए उन्होंने गहन शोध किया था। इस फिल्म में गांधी की भूमिका बेन किग्सले ने निभाई थी। इस फिल्म के प्रदर्शित होते ही गांधी पर नये सिरे से चर्चा होने लगी थी। गांधी अहिंसा के महानायक थे। 15 अगस्त 1947 में जब दिल्ली में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, उस समय गांधी के अलावा देश के बड़े नेता उस समारोह में शामिल थे, गांधी नोआखाली का दंगा थम जाने के बाद दोनों समुदायों के बीच भाई–चारे का संदेश दे रहे थे। 

 

Richard Attenborough

 
 

इस फिल्म में गांधी के जीवन के महत्वपूर्ण और अनछुए प्रसंगों को शामिल किया गया था। गांधी का जीवन ही संदेश था। इस फिल्म में दक्षिण अफ्रीका में उनकी निर्मिति से देश की आजादी की लड़ाई को विस्तार से चित्रित किया गया था। डोमिनीक लापियर और लैरी कालिंस की पुस्तक – फ्रीडम एट मिडनाइट पहले ही पढ़ चुका था। इस किताब के विवरण बहुत मार्मिक और काव्यात्मक हैं। एक जगह माउंटबेटन कहते हैं – यह आदमी छोटी सी चिडिया सा लगता है, मेरी आरामकुर्सी पर बैठी हुई प्यारी सी उदास गौरैया ..।

 

    

आजादी और वंचितों के बेहतर जीवन के लिए उड़ान भरने वाला परिंदा अपने ही लोगों के हाथों मारा गया, यह एक बड़ी ट्रेजिडी थी। गांधीफिल्म को देखते हुए गांधी के जीवन के अनेक प्रसंग और किताबे याद आती रही और उनके प्रभाव से घिरा रहा। गांधी एक आम आदमी की तरह का जीवन जीते थे और जरूरत भर के कपड़े पहनते थे। यह था साधारण का असाधारणत्व। इस फिल्म को देखने के बाद मेरी भव्य चीजों के प्रति मोह खत्म हो गया था। साधारण के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता गया था। गांधी यह भी कहते थे कि जो अपने हिस्से का काम नहीं करता, वह चोर है।   

 

बेन किग्सले

 

 

गांधी की हत्या के समय मैं पैदा नहीं हुआ था लेकिन जब मैं बी. ए. का छात्र था तो मेरे अंग्रेजी के अध्यापक ने जार्ज बर्नाड शा को पढ़ाते हुए बताया था कि गांधी की हत्या के बाद शा ने कहा था कितना खतरनाक होता है एक बर्बर समय में पैदा होना(हाऊ इट इस डेंजरस टू बी बार्न इस दिस बारबेरियन एज)। आइस्टीन ने कहा था – गांधी ने अपने कर्म से यह बता दिया था कि बिना हिंसा का सहारा लिए हम आदर्श की प्राप्ति कर सकते हैं। लार्ड माउंटबेटन का वाक्य था – इतिहास में गांधी का नाम उसी श्रद्धा के साथ लिया जायेगा जैसे ईसा मसीह और बुद्ध का नाम लिया जाता है।हमने कहीं पढ़ा था कि इस फिल्म में गांधी का अभिनय करने वाले बेन किंग्सले का जीवन पूरी तरह बदल गया था।

    


 

 

गांधी का प्रभाव किसी एक देश में नहीं पूरी दुनिया में दिखाई पड़ता है। उनके जीवन और दर्शन को ले कर हजारों किताबें लिखी गयी है जो आज के हिंसक समय में दुनिया को रास्ता दिखा सकती हैं।

    

जब मैं इस फिल्म को मुरादाबाद से देख कर चंदौसी लौट रहा था तो पहले जैसा नहीं रह गया था।

  

चंदौसी का प्रवास तीन साल का रहा। महकमे की दृष्टि से इसे अच्छा स्टेशन नहीं माना जाता था, इस तरह की जगहे मेरे जैसे नाकाबिल लोगो के लिए आरक्षित रहता थी लेकिन मैं उन्हें अपने अनुरूप बना लेता था। सिनेमा मालिकों से मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं रहते थे लेकिन मैं वहाँ साहित्यसुरूचि सम्पन्न लोगों को खोज लेता था। चंदौसी में मूलचंद गौतम जैसे मित्र मिल गये थे। कुमार सम्भव मुरादाबाद/ रामपुर में रहता था, जब भी आता था, तूफान की तरह आता था। उसके पास जिंदगी के तमाम किस्से थे जिसमें अधिकांश की कथावस्तु प्रेम होता था। पहली पत्नी के होते हुए दूसरा प्रेम–विवाह किया था, इसके बावजूद वह नये प्रेम की खोज में लगा रहता था। उसके जीवन में बहुत से अंतरविरोध थे, फिर भी मैं उसके जिंदादिली का कायल था। हमारे चंदौसी के डेरे पर भारत यायावर, अनिल जनविजय, वाचस्पति कई  बार आ  चुके थे। खूब गर्मजोश बहसे होती थी।

  

गाजियाबाद जिले से चंदौसी मैं अकेले नहीं सुमन सुकुमारी के साथ आया था। हमारे भीतर प्रेम का खुमार था, वह प्रकट भी होता रहता था। प्रेम–विवाह के  शुरूआती दिन कमाल के होते हैं, बात–बेबात प्रेम छलक आया करता है। बहुत सालों बाद मित्र मूलचंद ने बताया कि किस तरह हम दोनों को ले कर एक फिल्मी गाने की तर्ज बनायी गयी थी। वह फिल्म प्रेमगीत का गाना था –

 

आओ मिल जाए हम सुगन्ध और सुमन की तरह

एक हो जाये चलो जान और बदन की तरह ..।   

 

इस गीत में सुगंध की जगह स्वप्निल रख दिया गया था। यह गीत इस तरह बन गया था।  ..

 

आओ मिल जाय हम स्वप्निल और सुमन की तरह 

एक हो जाय चलो जान और बदन की तरह ..।

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सम्पर्क

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

510, अवधपुरी कालोनी -  अमानीगंज

फैज़ाबाद – 224001

 

मोबाइल -09415332326

 

टिप्पणियाँ

  1. बारीक रेशों की पहचान करता हुआ आपका महत्वपूर्ण संस्मरण पहले की तरह आनंदित कर गया।
    तमाम ऐसे संदर्भ और तथ्य इसमें आए हैं जो बहुत से लोगों को नहीं मालूम होंगे।

    जवाब देंहटाएं

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