पंखुरी सिन्हा के काव्य संग्रह पर मृत्युंजय पाण्डेय की समीक्षा 'समय का दंश'।
पंखुरी सिन्हा |
पंखुरी सिन्हा का नाम हिन्दी कविता जगत में जाना पहचाना है। अपनी कविताओं में प्राकृतिक चित्रण को अपनी तरह से दर्ज करने वाली पंखुरी सिन्हा का हाल ही में चौथा काव्य संग्रह 'ओसिल सुबहें' प्रकाशित हुआ है। इस कविता संग्रह पर युवा आलोचक मृत्युंजय पाण्डेय ने एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं पंखुरी सिन्हा के काव्य संग्रह पर मृत्युंजय पाण्डेय की समीक्षा 'समय का दंश'।
समय का दंश
(पंखुरी सिन्हा का काव्य-संग्रह ‘ओसिल सुबहें)
मृत्युंजय पाण्डेय
“इस बदलते हुए समय का दंश
उन लड़कियों ने सबसे ज्यादा जाना
जिन्हें एक साथ पब में जाने के
निमंत्रण भी आ रहे थे
देर होने पर एक साथ
लड़के, लड़कियों के झुंड में
कहीं टिक, ठहर जाने का आश्वासन भी
और घर लौटते ही
दोस्तों, घर वालों, शुभेच्छुओं
का आश्वासन
कि कोई दबाव आते ही बताना
इस बदलते समय का दंश
उन लड़कियों ने
जिनसे शादी की वेबसाइटों
पर लड़के कह रहे थे
केवल उन्हीं से बातें करेंगे
उनके घर वालों से नहीं
और घर में अगले दिन आए अतिथि
आगंतुक पूछ रहे थे
क्या घर में पिता या भाई नहीं?”
‘ओसिल सुबहें’ काव्य-संग्रह में ऐसे ही बदलते और दंश भरे समय की कविताएँ हैं। कवयित्री पंखुरी सिन्हा ने इस समय के घाव को, उसके जहरीले डंक को शब्द दिया है। समय के इस जहरीले डंक को ‘सरकारी कला भवन और तलाक़शुदा औरतें’ कविता में भी बहुत बारीकी से दिखाया गया है।
‘ओसिल सुबहें’ कवयित्री पंखुरी सिन्हा का चौथा काव्य-संग्रह है। ये कविता के साथ-साथ कहानियाँ भी लिखती हैं, और बहुत अच्छी कहानियाँ लिखती हैं। लेकिन आज इनके कथा-संग्रह पर नहीं, काव्य-संग्रह पर बातें करनी हैं और वह भी ‘ओसिल सुबहें’ पर। इसमें लगभग 108 कवितायें संकलित हैं। इस संग्रह की सबसे लंबी कविता ‘बोको हराम के सारे अपहरण’ है। यह कविता मन में कई सवाल खड़ा करती है।
इस संग्रह की पहली कविता प्रकृति पर है और अंतिम स्त्री पर। यानी पंखुरी जी ने कविता की शुरुआत और अंत दोनों स्त्री से की है। हम फेसबुक पर भी अक्सर यह देखते रहते हैं कि पंखुरी जी का प्रकृति से बहुत गहरा लगाव है। इन्हें पेड़-पौधे, पशु-पक्षी ज्यादा भाते हैं। पेड़ों से इनका पुराना परिचय है। ये प्रकृति के रहस्य को जानने के पूरी कोशिश करती हैं। उन्हें यह बात बहुत चकित करती है कि अमुक पेड़ का पपीता बहुत अच्छा है, तो अमुक का कच्चा। एक ही साथ दो पेड़ हैं, लेकिन एक का फल मीठा है तो दूसरे का फीका। प्रकृति का यह रहस्य कवयित्री को अचंभा में डाल देता है।
संग्रह की अंतिम कविता ‘यूजेनिक्स’ है। ‘यूजेनिक्स’ मानव आबादी की आनुवांशिक गुणवत्ता को सुधारने का विश्वास और अभ्यास है। यह वांछित लक्षण वाले लोगों को उच्च प्रजनन को बढ़ावा देने और कम वांछित या अवांछित लक्षण वाले लोगों के प्रजनन को कम करने के माध्यम से मानव आनुवांशिक गुणों में सुधार की वकालत करने वाला एक सामाजिक दर्शन है। प्लेटो ने भी इस selective breeding (चयनात्मक प्रजनन) का समर्थन किया था। वास्तव में ‘यूजेनिक्स’ मनुष्य जाति के लिए बहुत खतरनाक चीज है। यह मानव और सृष्टि विरोधी नियम है। यदि इस पर अमल किया जाए तो यह मनुष्य जाति को खत्म कर देगा। इसे आसान भाषा में कहें तो यदि बीजू आम खत्म हो जाये तो आम की प्रजातियाँ ही खत्म हो जाएगी। कवयित्री कहती हैं—
“वो कविता दरअसल उसके लिए लिखी गई थी
संबोधित भी उसे ही थी
जिसके जन्म से पहले ही एक प्रकार से
उसकी माँ ने उसे
जन्मा मान लिया था
अपने आसपास मौजूद भी
लेकिन उसकी जन्म तिथि
टलती गई और बस
टलती गई
भ्रूण हत्या से फरक की
कुछ बात तहत
जिसमें सरे बाजार
गर्भ गिरवाया जाता है
लड़कियों का
औरतों का
बेमर्जी भी
और कानूनन हत्या नहीं मानी जाती वह
वैज्ञानिक, चिकित्सक, समाजसेवी भी
अब मानने लगे हैं
कि जिंदा तो है
अब अभी पूरा जीवित नहीं
गर्भ में आकार लेता भ्रूण
इसलिए उसकी हत्या
हत्या नहीं
पर ये बात
तो उसकी है
जो जन्मा इसलिए नहीं
कि उसे गर्भ में आने से ही
रोक दिया गया
बतौर भ्रूण भी...”
भ्रूण हत्या कानूनन अपराध है, इसके बावजूद हत्या हो रही है। गर्भ गिरवाया जा रहा है। कवयित्री भ्रूण हत्या के साथ-साथ इस बात से ज्यादा चिंतित है कि ‘यूजेनिक्स’ को हत्या की किस कोटी में रखा जाए! भ्रूण हत्या में भ्रूण बनने के बाद हत्या की जाती है, लेकिन यहाँ तो भ्रूण ही नहीं बनने दिया जाता।
पंखुरी जी औरतों की लड़ाई लड़ती हैं। वे इस जमीन की लड़ाई लड़ती हैं कि ‘बिना सिंदूर की मांग’ और ‘बिना संतान की औरत’ भी मलकाइन हो सकती है। हमारे समाज में विधवा और बाँझ औरत को न तो घर की मालकिन ही माना जाता है और न ही उसे किसी शुभ काम में शामिल किया जाता है। पंखुरी जी इस कुप्रथा का विरोध करती हैं। यह हमारे समाज की सबसे बड़ी बिडम्बना है कि जीवन में स्वाद इन्हीं स्त्रियों की वजह से है, लेकिन यही वर्षों-वर्षों से धरती की तरह सारे पदचाप सुनती-सहती आ रही है।
पंखुरी सिन्हा के यहाँ किसान जीवन की कुछ बेहतरीन कवितायें हैं। ये कवितायें इस बात का प्रमाण हैं कि कवयित्री को खेत-किसान ने बहुत सम्मोहित किया है। गाँव का आँगन, लहलहाते खेत, हल, बैल, गाय, हँसिया आदि इनकी कविता के विषय हैं। ‘फसलों का मालिक’ शीर्षक कविता में कवयित्री बहुत मार्के की बात कहती हैं। खेत के संबंध में वे एक अद्भुत बात कहती हैं। जिस तरह से एक शहर में जा कर हम, एक कमरा किराये पर ले लेते हैं, उसी तरह से किसी अपरिचित गाँव में जा कर हम खेत भी किराये पर नहीं ले सकते। खेती और गाँव का एक अद्भुत रिश्ता है। किराये पर खेत लेने के लिए भी आपको गाँव का होना होगा। अपरिचित लोगों को खेत स्वीकार नहीं करता। इन कविताओं में किसानों का जीवन मुखर हो उठा है। एक कविता देखिए—
“खुली खेत में तैयार खड़ी फसल की तरह
असुरक्षित नहीं होना चाहिए
लड़कियों का बाहर आना जाना
और फसलें भी जितनी तैयार हों
उतनी ज्यादा असुरक्षित होती जाएँ
लेकिन गाँव का माहौल
भी आखिर कोई चीज है ....”
पंखुरी सिन्हा के यहाँ सबसे अधिक स्त्री जीवन से संबन्धित कवितायें हैं, जाहिर है जब स्त्री जीवन की कवितायें हैं तो प्रेम की भी कवितायें होंगी! पंखुरी जी प्रेम में हुकुम को नहीं मानतीं। प्रेम में हुकुम मानना सबसे मुश्किल व्यापार होता है और वह यह भी कहती हैं कि यदि प्रेम में बहुत छानबीन की जाए तो प्रेम फीका पड़ जाता है। उसका रंग उतर जाता है। इन प्रेम कविताओं में भी इनके प्रतिरोधी स्वर को सुना जा सकता है। वे लड़कियों को सावधान करते हुए कहती हैं—
“बड़ा नुकीला होता है
बहुत धारदार
ये हँसी वाला हथियार
और बहुत सुलभ भी
एहतियात बरतें
जानते
कब आघात कर रही है हँसी।”
इनकी कविताओं में एक छटपटाहट, एक बेचैनी है। वे अपने प्रबुद्ध कवियों से प्रश्न भी करती हैं। दरअसल यह प्रश्न सिर्फ पंखुरी जी का नहीं है, यह उन तमाम युवा कवयित्रियों का है, जो कविता लिख रही हैं। आप भी इस सामूहिक प्रश्न का सामना कीजिये । कविता का शीर्षक है— ‘इच्छाओं का चिट पुर्जा’ —--
“क्या तुम्हारी बहुत प्रबुध कविता के आगे
जिसमें सबसे ज्यादा स्वर हैं
एक बहुत पुराने, जंग लगे
टाइपराइटर पर
शब्दों के छापने के
मेरी चूड़ी, बिंदी और बारिश की झमाझम वाली कविता
काँच लगी लहटी के प्रतिबिम्बों वाली भी कविता
हवा की साँय साँय में
खिड़कियों के भड़भड़ाने की आवाजों वाली कविता
क्या तुम्हें केवल मेरी इच्छाओं का चिट पुर्जा लगती हैं?
क्या तुम्हें मरुभूमि का विस्तार नहीं दिखता
रेतीली हवाओं में?”
कवयित्री पंखुरी सिन्हा की कविताओं का अपना एक सौन्दर्य है, भाव है, आकर्षण है, शक्ल है, रंगरूप है और एक बानावट है। इनकी कवितायें स्त्री-पुरुष, प्रकृति, पशु-पक्षी, खेत-खलिहान, गाँव-शहर, पर्वत-पठार, नदी-नाले से होते हुए राजनीति के गलियारे में सफर करती है। ये भ्रष्टाचार की भी पोल खोलती हैं और न्याय व्यवस्था को भी प्रश्नांकित करती हैं। भारतीय समाज में भद्र लोक के लिए न्याय की मांग एक जटिल प्रक्रिया है। इनके यहाँ रिश्तों की खास अहमियत है। रिश्तों की पहचान ‘स्वेटर पहन लेने’ या ‘साड़ी लपेट लेने’ भर से नहीं होती। रिश्ता इंद्रियों के द्वारा अनुभव और महसूस करने की चीज है। लेकिन कुछ लोगों के लिए रिश्ता महसूसने की नहीं, पहनने की चीज है। जैसे— स्वेटर, साड़ी, जेवर आदि। पंखुरी जी की प्रायः हर कविता में एक ‘बगावत की खुशबू’ शामिल है। और यह खुशबू पाठक के मन पर छा जाती है। खुशबू के साथ-साथ इस बगावत में ‘टूटे हुये लोगों के ज़िंदगियों के बुरादें’ बिखरी पड़ी हैं। कवयित्री इन दर्द के बुरादों को चुनती-बिनती रहती हैं। पंखुरी सिन्हा की कवितायें उन तमाम लोगों का बयान है, जो इस समय के दंश को झेल रहे हैं। उससे जूझ रहे हैं।
पंखुरी सिन्हा की कविताओं में एक मिठास है और यह मिठास धूल की खाक छानने के बाद आया है। धूल की खाक छानने के बाद शब्द चमकीले हो जाते हैं और उन चमकीले शब्दों से धूल में सनी बातें ही कही गई हैं।
(पंखुरी सिन्हा बिहार की युवा लेखिका हैं। दो हिंदी कथा संग्रह ज्ञानपीठ से, 5 हिंदी कविता संग्रह, दो अंग्रेजी कविता संग्रह। कई किताबें प्रकाशनाधीन। कई संग्रहों में रचनाएं संकलित हैं, कई पुरस्कार जीत चुकी है--कविता के लिए राजस्थान पत्रिका का 2016 का पहला पुरस्कार, कुमुद टिक्कू कथा पुरस्कार 2020, मथुरा कुमार गुंजन स्मृति पुरस्कार 2019, प्रतिलिपि कविता सम्मान 2018, राजीव गाँधी एक्सीलेंस अवार्ड 2013, पहले कहानी संग्रह, 'कोई भी दिन' , को 2007 का चित्रा कुमार शैलेश मटियानी सम्मान, 'कोबरा: गॉड ऐट मर्सी', डाक्यूमेंट्री का स्क्रिप्ट लेखन, जिसे 1998-99 के यू जी सी, फिल्म महोत्सव में, सर्व श्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला, 'एक नया मौन, एक नया उद्घोष', कविता पर,1995 का गिरिजा कुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, 1993 में, CBSE बोर्ड, कक्षा बारहवीं में, हिंदी में सर्वोच्च अंक पाने के लिए, भारत गौरव सम्मान. अंग्रेजी लेखन के लिए रूस, रोमानिया, इटली और नाइजीरिया द्वारा सम्मानित। अभी अभी, इटली की एक कविता प्रतियोगिता में चौथे कविता संग्रह 'ओसिल सुबहें' की एक कविता द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित. कविताओं का देश और दुनिया की चौबीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.)
सम्पर्क –
ई मेल : pmrityunjayasha@gmail.com
सम्वेदना और विचार अपने कथ्य में पठनीय,प्रभावक हों तो उन्हें गद्य जैसे पढ़ने के आनन्द से वंचित क्यों रहूं.आज की कविता को ,जो अधिकाधिक ऐसी ही लिखी-पढ़ी,सराही जा रही है,मैँ ऐसे ही पढ़ना औऱ खुद लिखना भी चुनने को स्वतंत्र हूं. ज्यादातर लिख मारी जाती हैं ऐसी कवितायें,जो निरा आलेख होती हैं. पंखुरी उन कवियों से निहायत विलग सम्वेदनात्मकता के आलोक से जगमगाती,अपनी स्वानुभूति के साथ प्रकृति के तमाम रूपों को स्वाभाविक तौर पर आत्मसात करती हैं. छंद वसे बाहर की ऐसी कविताई को स्वीकारना इस समय और जीवन का लयहीन सच है.लय को सियासती जुमलों और पैरोडिकार लतीफ़ेबाजों ने जब अपहृत कर लिया हो तब नवगीत के साथ हमकदम होती छंदमुक्त कविता की भी अपनी जरूरत है.अच्छी और सच्ची भावोनुभूतियों का सम्मान हो ,विधा के झमेले से परे .....
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