भरत प्रसाद के लिखे जा रहे उपन्यास का एक अंश 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय अर्थात सायकिल से तीर्थ यात्रा'।

 


 

रचनाशीलता अपने आप में वह सकारात्मकता है जिसके केन्द्र में सामाजिकता होती है। कई रचनाकार बहुमुखी प्रतिभा वाले होते हैं। वे एक साथ कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि के क्षेत्र में लेखन कर लेते हैं। ऐसे में विधाओं के बीच ओवरलैपिंग की संभावनाएं होती हैं। हर विधा को अलग अलग साध पाना मुश्किल होता है। भरत प्रसाद के पास इसे साध लेने का हुनर है। वे हमारे समय के ऐसे ही रचनाकार हैं जो आलोचना के साथ साथ कविता, कहानी और उपन्यास विधाओं में साधिकार लेखन कर रहे हैं। इन दिनों भरत प्रसाद एक उपन्यास लिखने में लगे हुए हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है भरत प्रसाद के लिखे जा रहे उपन्यास का एक अंश 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय अर्थात सायकिल से तीर्थ यात्रा'

                             

                 

उपन्यास अंश    

                                   

इलाहाबाद विश्वविद्यालय अर्थात् सायकिल से तीर्थ यात्रा

 

भरत प्रसाद

 

 

              

अगस्त का नरम, गीला, रसदार और अधखुला महीना जब बारिश अपने शबाब पर होती है। हर तरफ पानी की सत्ता, सड़कों और एकांत मार्गों पर भरभरा कर लोट आयी गदभरी घासें। साँप, गोंजर, बिच्छू, केंचुआ, मेढक, छिपकली, टिड्डा जैसे सैकड़ों रंग-बेरंग, दृश्य-अदृश्य कीड़ों-मकोड़ों के पौ बारह। सुबह और शाम अनंत सुरों में बरसात का महोत्सव। घुप्प अंधकार की नीरवता में आसमान से पारदर्शी छायामय बारिश। अगस्त माह की जादुई-रोमांचक माया का कुछ ओर-अंत नहीं। एक-एक दिन नया, असाधारण, चुनौतीपूर्ण, प्रलय के तेवरों से भरा हुआ। पास के इलाहाबाद विश्वविद्यालय में धवल का एडमीशन हो गया। जून-जुलाई के बीच फार्म भरने, प्रवेश परीक्षा देने से ले कर एडमीशन की सारी प्रक्रिया  संपन्न् हो गयी। गाँव से शहर तक कुल 10 किलोमीटर का रास्ता धवल को बार-बार तय करना पड़ा। एडमीशन फीस को लेकर अचल को कुछ कम माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ी। उनके जमाने में 100 रुपया भी काफी था - एडमीशन-वेडमीशन के लिए। माहवारी फीस मात्र 10 रुपये। अब तो साल भर की फीस एक ही साथ जमा करो, चाहे रो कर या हँस कर। धवल के एडमीशन में खप गए तकरीबन 2000 रुपये। ऊपर से रामचरितमानसनुमा पाठ्यपुस्तकों का सिर दर्द अलग।

 


शहर है
, विश्वविद्यालय का मसला है, हर तरह के मित्र-सहपाठी हैं - सबके बीच इज्जतदार की तरह रहना है, सभ्य, संस्कारी और खाते-पीते परिवार वाला दिखना है। इसीलिए अब फुटपाथी, सेकेण्ड हैण्ड पैंट-शर्ट खरीदने से काम नहीं चलेगा। कम से कम एक सेट तो दुकान से खरीदे गये ब्रांडेड कंपनी का होना ही होना चाहिए। अचल और आस्था भीतर से विचलित हो गये, अचानक पैदा हुए इस झटके के कारण। वे मुगालते में थे कि एक बार एडमीशन हो जाने के बाद फिर गाड़ी सामान्य पटरी पर आ जाएगी। मगर नहीं, इस हजारी झंझझावत के बाद भी फुटकर झटके आए दिन रोज सहने होंगे। प्रति माह कम से कम 500 रुपया धवल के नाम पर। उसे कब, क्या जरूरत आ पड़े। सायकिल से ही सही, शहर रोज जाना ही है। दोनों तरफ मिला कर 20-50 चाहिए कि नहीं ? वह खुल कर न भी मांगे तो ऐसा करना हमारा कर्तव्य बनता है। विश्वविद्यालय में धवल का प्रवेश क्या हुआ, आस्था और अचल ने अपनी जरूरतों पर कैंची चलानी शुरू कर दी। साल में सूती साड़ी ही सही, आस्था के हाथ में दो बार जरूर रखी जाती थी। एक शादी की सालगिरह पर, दूसरे दीपावली के अवसर पर। खुद अचल अपने लिए भी एक जोड़ी कुर्ता-धोती इन दोनों अवसरों पर लेना नहीं भूलते थे। प्राइमरी स्कूल से क्या होता? आखिर थे तो सम्मानित पेशे के इज्जतदार सदस्य ही। कपड़ा-लत्ता ही ढंग का न हुआ, तो कोई क्या कहेगा? हैं - हेडमास्टर साहब, और रहते हैं के माफिक। परन्तु अब? अब पहले की तरह हाथ नहीं खुल पाएंगे। धवल की उच्च शिक्षा ने अचल के हाथ बांध दिए, आस्था की जरूरतों पर, धर्मपत्नी के अधिकार पर रोक लगा दी। हालत यह हो गयी कि वाणी के नाम 1000 रुपया जमा करना भी भारी महसूस होने लगा। एडमीशन के बाद अनिवार्य रूप से हो रहे इन तकलीफदेह परिवर्तनों के बावजूद मजाल क्या कि धवल को भनक तक लग सके। मम्मी, बाऊजी, वाणी सबके सब धवल के यूनिवर्सिटी बाबू बनने पर उत्साहित हैं। इच्छाओं को नये पंख लग गये हैं, उम्मीदें ऊँची हिलोर मारने लगी हैं, सपना नींद से बाहर आ गया है और भविष्य के प्रति विश्वास कई गुना बढ़ गया है।

 

 

 

विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए जाने का पहला दिन। उत्सुकता, घबड़ाहट, सिहरन, बेचैनी, आकर्षण, हताशा, रोमांच, भावुकता - एक साथ न जाने कितने तरह की भावनाएँ दम पर दम धवल में पानी की तरह उमड़-घुमड़ रही हैं। एक पल में उठती हैं, मथती हैं - फिर शान्त। दूसरे पल दूसरी विपरीत भावना। धवल कुछ समझ नहीं पा रहा कि करे क्या? कैसे संभाले खुद को, कैसे लगाम कसे अपने आप पर, ऐसा हो क्यों रहा है? आस्था माँ है, किन्तु धवल को आज तक नहीं समझ पायी। अचल पिता हैं, मर्यादा, पद, उम्र और मान-सम्मान का एक अन्तर दोनों में बना ही रहता है - किन्तु धवल को बखूबी समझते हैं। उन्हें मालूम है कि उनका बेटा किस हवा, पानी, मिट्टी, रोशनी और आग का बना है। वे उसे उस हद तक जानते हैं, जितना धवल खुद अपने आपको नहीं समझता।

 

           

दस बजने के पहले विश्वविद्यालय में कदम रख देना है। अब समय के प्रति लापरवाही अपनी कायरता प्रदर्शित करने के बराबर है। यह कोई अपना देशबन्धु इण्टर कालेज  नहीं, विश्वविद्यालय है विश्वविद्यालय। सुबह सात बजे चारपाई छोड़ देनी है। एक घण्टे कोर्स का रटन-मनन, फिर दातून, कुल्ला, स्नान और पेट-पूजा। अरे हाँ, पेट-पूजा से याद आया - सुबह-सुबह नित्य भगवान की पूजा करनी है। स्नान के ठीक बाद। नंगे पैर, नंगे बदन, सिर्फ तौलिया लपेटे। 10-15 मिनट के लिए ही सही, हाथ जोड़कर चालीसा पाठ करना है, माई दुर्गा, देवी सरस्वती और भगवान श्रीराम का मंत्र जपना है। आज मैं जो भी हूँ, जो कुछ भी हो पाया हूँ - पूज्य देवी-देवताओं के बदौलत। मम्मी, बाऊजी के आशीर्वाद की बदौलत, बुजुर्गों के आशीष के चलते। नौ बजते-बजते धवल निन्यानबे प्रतिशत तैयार हो गया जाने के लिए। सायकिल तीन साल पुरानी है, मगर लगनपूर्वक धवल के हाथों पानी और सरसों का तेल खा कर चमक रही है। विद्यालय जाने में अचल को बिलम्ब हो रहा है, लेकिन आज बेटे को भेज कर ही जाएंगे। सायकिल उठाते ही धवल को याद आया, कोई कीमती चीज भूल रहा है। सायकिल तड़ से स्टैंड पर खड़ी की और ओसारे में व्याकुलता थाम कर खड़ी मम्मी का चरण स्पर्श किया, द्वार पर खड़े बाऊजी के दोनों पैरों को हाथ लगाया और तेजी से सायकिल चला कर गद्दी पर बैठता हुआ, मिनट भर में नजरों से ओझल हो गया।

 

           

इलाहाबाद जाने वाली सदर रोड तक पहुँचने के पहले खड़ंजा वाली सड़क की भीषण यात्रा। बन्नीपुर गाँव को मुख्य सड़क से जोड़ने वाला तार मात्र यही कच्ची सड़क है। हड़-खड़-तड़-बड़ की उबाऊ ध्वनियों में सायकिल ठेलता हुआ धवल आखिरकार सदर रोड पर चढ़ ही गया, ब्रेक मार कर मिनट भर के लिए दम लिया, फिर दूर निगाहें फेंकता हुआ - ले उड़ा बाइसिकिल। पन्द्रह मिनट- ये.......... गंगा का दैत्याकार पुल, दस मिनट, ये............ पुल पीछे गया; बीस मिनट, ये शहर की सरहद में बसी हुई बस्तियों का मायाजाल पार। एक घण्टे के भीतर ही विश्वविद्यालय के मेनगेट पर दस्तक। बी. ए. के एडमीशन में तीन विषय चुनने होते हैं। धवल का सबसे प्रिय विषय था - दर्शनशास्त्र। शेष दो विषय थे - राजनीति विज्ञान और अंग्रेजी साहित्य। पहला क्लास अंगे्रजी का था, फिर दर्शन का और अंत में राजनीति विज्ञान का। संयोग कहिए कि अंग्रेजी विभाग की नभचुम्बी इमारत परिसर में दाखिल होने के चन्द मिनटों बाद आ जाती थी। धवल ने झटपट सायकिल खड़ी की, ताला मारा, कुंजी झोले को सुर्पुद की और आते-जाते विद्यार्थियों से पूछपाछ कर दाखिल हो गया क्लास में। सीढ़ीनुमा सीमेंटेड बेंचों पर सैकड़ों छात्र-छात्राएँ हज-हज, कच-कच मचाए हुए थे। किसी भी बेंच पर बित्ता भर भी जगह खाली नहीं। धवल संकोच और झिझक के साथ कक्षा में घुसते ही चला गया सबसे पीछे, जहाँ बेंच की कतारें सबसे ऊँचाई पर विराजमान रहती हैं। देर से आने वाले छात्रों का यही दण्ड है। पीछे वाली बेंच के शुरुआती किनारे पर एक गंभीर चेहरे वाली छात्रा बैठी थी; उसने धवल को दुबक कर खड़े देखा तो आँखों और हाथ के सम्मिलित इशारे से बैठने को आमंत्रित किया। पहले-पहल तो धवल को यकीन न हुआ कि कोई निपट अपरिचित छात्रा उसे पास बैठने को बुला सकती है, मगर नहीं, यह आश्चर्य तो साक्षात् दिखता हुआ सच है, कोई सपना नहीं। धवल आ कर धीरे से बैठ गया। जगह देने वाली छात्रा ने मन ही मन सोचा - कैसा मनहूस लड़का है - थैंक्स भी नहीं बोला। डा. मृत्युंजय प्रभाकर सरनाम थे - अंग्रेजी साहित्य के अध्यापन के लिए। आज, इस समय उन्हीं का क्लास है। हाथ में लम्बा-चौडा मगर पतला रजिस्टर झुलाते हुए आए और कुर्सी पर बैठ गए। जैसे मेन स्विच दबते हुए सैकड़ों बत्तियां जल जायें, डा. मृत्युंजय के प्रवेश करते ही सारे छात्र और छात्राएँ अपनी-अपनी जगह मूर्तिवत् खड़े हो गये। पिन ड्राप साइलेंस। क्लास खाली हो जाने बाद जैसी झनझनाती चुप्पी बोलती है - वैसी। अभी पाँच मिनट पहले हर कोई सिर्फ बोल रहा था और कोई किसी की नहीं सुन रहा था। मगर इस समय एक की उपस्थिति ने सैकड़ों के मुँह पर ताला जड़ दिया। बिना लगाम के लगाम कस उठी जीभ पर। मृत्युंजय प्रभाकर के एक इशारे पर बैठ गये सारे विद्यार्थी। क्लास का आज पहला दिन। अति संक्षेप में प्रत्येक विद्यार्थी का परिचय जानना अघोषित नियम की तरह है। शुरू हुआ सिलसिला। एक नमूना लीजिए - सर, प्रदुम्मन परसाद, (प्रद्युम्न प्रसाद) जिला- सुल्तानपुर के मधईपुर गाँव से आया था...... मधईपुर से आया हूँ सर। एक और नमूना - जी सर, मेरा नाम अनन्त राम है सर। मेरा घर झूंसी के पास है सर! सर, मैं इलाहाबाद में............ बैठ जाऊँ सर?’ हर विद्यार्थी का अलग-थलग अंदाजे बयां, अद्भुत अशुद्धियां, अनोखी हड़बड़, बेहिसाब घबराहट। धवल का भी नम्बर आया, लगभग सबसे अंत में। परिचय देने का इनका भी अंदाज समझ लीजिए। सर जी प्रणाम! मेरा नाम धवल कुमार है। मैं बन्नीपुर गाँव का निवासी हूँ, जो कि इलाहाबाद जिले में पड़ता है। धवल के इस साफ-सुथरे, संक्षिप्त और आत्मविश्वासपूर्ण परिचय से मृत्युंजय प्रभाकर प्रसन्न हो उठे। बोले उठे - वेरी गुड, वेरी गुड, सिडाउन। आधे घण्टे बाद परिचय का सिलसिला खत्म होने के बाद प्रभाकर जी ने कोर्स की जानकारी दी। हिंदी-अंग्रेजी की मिली-जुली भाषण-शैली में, जिसे परसाई ने हिंग्रेजी पुकारा है।

 

           

सुबह-शाम शहर की स्वास्थ्य-विरोधी परिक्रमा से बचने के लिए अचल ने साहसिक फैसला लिया बेटे के लिए। सस्ते से सस्ते किराए वाला एक कमरे का क्वार्टर लिवा दिया। सुबह उठ कर भागना, चार घण्टा क्लास, फिर सायकिल हनकते हुए घर आओ घण्टा भर नींद मारो- लो हो गयी शाम। क्वार्टर रहने से शरीर को आराम मिलेगा। धवल अपने हाथ से खाना नहीं पका पाता, कोई बात नहीं। जब तब बनाना सीखेगा नहीं, तब तक पारंगत कैसे होगा? जब आदमी के सिरे भीगता है, तभी बुद्धि खुलती है।

 

 

बीतते सितम्बर का नरम महीना, जब वर्षा ऋतु नाच-नाच कर पस्त हो चुकने के बाद विश्राम कर रही होती है। जब आकाश दूर-दूर ही मंडराने वाले, पैंतरा बदलने वाले नवसिखुआ बादलों का अखाड़ा नजर आता है। जब नदी अंग-अंग से भरी हुई किसी युवती के अलौकिक सौंदर्य की तरह हतप्रभ करती है। आटा, चावल, दाल, नमक, पिसी हुई हल्दी, लहसुन, और भी न जाने कितने सामानेां को लादे-बांधे धवल एक दिन आ गिरा अपने क्वार्टर पर। अरे हाँ, पीछे कैरियर पर एक बक्सा भी, जिसमें कोर्स की किताबें, कापियां, हनुमान चालीसा, सुन्दरकाण्ड, गीता की गुटिका, बजरंगवली का फोटो, कुछ रंगीन और ब्लैंकड ह्वाट फोटोग्राफ- करीने से, संभाल कर रखे हुए थे। बक्से में सबसे नीचे कुछ अनमोल खजाने छुपा कर रखे गये थे, जिसमें भावनाओं का गाढ़ा रस था, स्मृतियों की गरमाहट थी, जादुई लगाव का चटक रंग था और थी निच्छल बेचैनियों की अन्तध्र्वनियां थीं। क्या अलग से बताने की जरूरत है कि धवल ने बाक्स के अन्दर छिपा कर क्या रखा था?

 


   

        

चार बाई चार का कमरा ले कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने वाले धवल जैसे हजारों विद्यार्थी थे। कोई गाजीपुर से, कोई प्रतापगढ़ से, कोई बहराइच तो कोई अलीगढ़ से। उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई जिला बचा हो, जहाँ के नौजवान इस विश्वविद्यालय की शरण में न आए हों। रामरतन यादव - राजनीतिशास्त्र - एम. ए. प्रीवियस, गाँव के निवासी हैं। रामरतन, अभय नाथ पाण्डे जैसे पच्चीसों गंवई योद्धा धवल के बगलगीर हैं। कोई दस साल, कोई पन्द्रह साल तो कोई सत्रह-अठारह वर्ष से नौकरी देवी की साधना कर रहा है। धवल इनमें सबसे छोटा, जूनियर, मुन्ना जैसा। हार-गाढ़े काम आने वाली बाइसकिल धवल के साथ है। क्वार्टर के बाहर बाईं गैलरी में ताला मारक खड़ा करता है सायकिल। पहले गाँव से यूनिवर्सिटी आता था, अब क्वार्टर से आएगा- मगर सूत्रधार होगी यह पहिया रानी। जीवन में पहली बार घर के बाहर रह कर रात काटने का अकेलापन। धवल ने आंटे में बच-बच कर पानी डाला, मगर गीला हो गया, उसे ठोस करने के लिए दो मुट्ठी और आटा झोंका। लोई चौके पर सध नहीं रही। बेलन ऊपर घुमता है तो लोई दाएं-बाएं पसर जाती है, बाएं फैलाव को कंट्रोल करता है तो लोई ऊपर की ओर भाग जाती है। तवे पर रख कर रोटियाँ सेंकते हुए धवल की आँखें झरझरा आती हैं, मोम होने लगता है - बबुआ जैसा दिल। आटा सने हाथों से आंसू पोंछे कैसे? रोटी पकती है- मगर धवल को रूला-रूला कर, रोटी जलती है, धवल के हाथ जला-जला कर तवे से उतरती है वह, धवल को बार-बार हराहरा कर। क्वार्टर की पहली रात। रोटी-चोखा की रात, बर्तन मांजने की रात, गाँव याद आने की घड़ी, माई-बाऊ को सुमिरने की रात, दम-पर-दम आँखों का धैर्य जवाब दे जाने की रात।

 

           

 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अर्थात् छात्र-राजनीति का अखाड़ा, दबंगई का गढ़। जहाँ छात्र-संघ का अध्यक्ष होना, पाँच-छः साल बाद विधानसभा (उत्तर प्रदेश) में एक सीट रिजर्व कर लेना है। जहाँ के छात्र नेता खुद को एस. पी., दरोगा से जौ भर कम नहीं समझते। जहाँ राजनीति में, नीति का निहितार्थ लंठई है और राज का मतलब? कुछ लंठई जैसा शब्द ढूंढ़ लीजिए। धवल ने जीवन में पहली बार छात्र- राजनीति का मतलब समझा। छात्र नेता किराए वाले क्वार्टर में नहीं रहा करते। उनके लिए एक से बढ़ कर एक सुदृढ़ छात्रावास आरक्षित हैं। डायमंड जुबली, हिन्दू, गंगा नाथ झा हास्टल, ताराचन्द्र छात्रावास ऐसे ही मेधावी नेताओं से अंटे पड़े हैं।

 

 

महीने भर बाद छात्र-संघ का चुनाव होगा। हर नेता की तैयारी पर्चेबाजी, पोस्टर बाजी में एक दूसरे को उखाड़ती-पछाड़ती हुई। चाय-पकौड़ी की दुकानों पर, रेस्टोरेन्ट की दीवारों पर, छात्रावासों के प्रवेश द्वार और चहारदिवारियों पर छात्र नेताओं के याचनावत् चित्र फड़फड़ा रहे हैं। विश्वविद्यालय का मेन गेट, शैक्षणिक, भवन, दीवारें, पानी की टंकी, खंडहर कूड़ाखाना कहाँ-कहाँ नहीं हैं पेास्ट? चित्र जरा गौर से देखिए न! कितने भद्र पुरुष? आँखों में संकल्प की आभा, चौडा माथा सफलता की गारंटी देता हुआ, नपी-तुली अद्भुत, पतली मुस्कान। दोनों हाथ प्रार्थना की शैली में जुटे हुए, मानो फलाने श्रीमान् हाथ जोड़े-जोड़े ही धरती पर अवतरित हुए हों। पद नाम - प्रकाशन मंत्री, शैक्षिक सूचना - एम. ए. प्रीवियस (दर्शनशास्त्र) अपील का मंत्र- मेधावी छात्रों का बहुमुखी विकास।बन्धुवर का नाम है - अखिल प्रकाश पाण्डेय। नेता बनने का चस्का बन्धुवर को ऐसा लगा कि पैंट-शर्ट को तिलांजलि दे कर गांधी आश्रम वाले सूती कुर्ता-पायजामा पर उतर आए। खास एक महीने के लिए, वरना पैंट-शर्ट, जूता-मोजा और टाई कसने में मियाँ को महारत हासिल है। नेतागिरी कुर्ता-पायजामा पर ही फबती है यह और नेताओं की तरह इनके हृदयस्थल में भी समाया हुआ है। छात्र संघ का अध्यक्ष पद पाँच-पाँच वीरबांकुरों के बीच लड़ा जा रहा है। क्रम संख्या - एक- अखण्ड प्रताप सिंह, नम्बर - दो कृष्ण चन्द्र यादव,  तीन - मानवेन्द्र शुक्ल, चौथे नम्बर पर - उत्कर्ष द्विवेदी और अन्तिम नाम - महात्मा उर्फ राजन भइया। इनमें कौन किससे कमतर है, कौन किससे नरम और कौन गरम है, कह पाना बेहद मुश्किल। चार-चार, छः-छः स्कूटर, मोटर सायकिल और बाइक पर बैठकर हास्टल दर हास्टल परिक्रमा करते हुए अपनी-अपनी सीट पक्की करने की फिजा बना रहे हैं। अब जरा उत्कर्ष द्विवेदी के प्रचार की स्टाइल देखिए - बेल की तरह सख्त गोलाकार चेहरे पर हल्की काली दाढी, ओठों पर सद्यः ताम्बूल भंजन का पक्का रंग, दाहिने हाथ में आधा दर्जन देवी-देवताओं के अद्योषित आशीर्वादों का रक्षा सूत्र, जीत की पक्की गांरटी देता हुआ। उत्कर्ष दोनों हाथ हवा में फ्रीस्टाइल लहराते हुए ठीक माथे के ऊपर एक साथ ले जाते हैं, जुड़ते ही जोर से चट्ट की आवाज गूंजती है, सामने वाले अपरिचित मित्र या विद्यार्थी से बस दो लाइन का दबाव बनाते हैं - बन्धू! विसविदालय में सही-सलामत रहना है और अपना अधिकार बरकरार रखना है, तो .......... ध्यान देना, समझ गए न!अन्तिम शब्द बोलते वक्त उत्कर्ष ओठों के कोर से एक रहस्यमय मुस्कान फोड़ते थे। यह मुस्कराहट धमकी है, जबरदस्ती है, लगाव है या साथ देने की प्रार्थना कुछ तय नहीं हो पाता था। संभवतः इन सारे भावों का रसायन घुला-मिला रहता था, उस दबंगाना मुस्कान में। इतना ही नहीं, माथा के तनिक ऊपर जुड़े हुए हाथ, शिकार साधने वाली छिपकली की गरदन की तरह उस वक्त तक हिलते रहते थे, मानो कह रहे हों - बन्धू- ये हाथ सिर्फ प्रार्थना में जुड़ जाना ही नहीं जानते, बल्कि पीछे से? बस समझ जइयो और अपने तक सीमित रखियो।

 

           

अब तनिक अखिल प्रकाश पाण्डेय का अंदाज-ए-प्रचार बूझ लीजिए। आप गांधी के कुछ-कुछ भक्त मालूम पड़ते हैं, नहीं तो सड़क पर पैदल-पैदल चल कर अपने चुनाव का प्रचार क्यों करते भला? वैसे तो श्रीमान् दर्शनशास्त्र के नौजवान हैं, मगर आजकल राजनीति शास्त्र का पाठ सीख रहे हैं - वक्त-वक्त की बात है। समय-समय का फेर। जो समय से ताल-तिकड़म भिड़ा कर नहीं चला उसका गिर पड़ना सुनिश्चित। कुर्ता-पायजामा में अखिल भइया लाल बहादुर शास्त्री का पुनर्जन्म नजर आते हैं। आगे का माथा गोल बर्तन की चमक से होड़ लेता है। इक्का-दुक्का बाल-वीर मैदान में जो टिके हैं, पूरी आशंका है - एक दो साल में सिर से नदारत हो लेंगे। अखिल मियाँ कैसे बोलते हैं, कैसे मुँह खोलते हैं, कैसे सामने वाले को तौलते हैं - यह भी कुछ कम रहस्यमय नहीं है। जरा देखिए तो - और मित्र! (तपाक से हाथ मिलाते हुए) सब ठीक तो है ना?’ जाहिर सी बात है - मित्र को हाँ में हाँ  मिला कर कहना ही है- हाँ मित्र सऽब बढ़िया है।पुनः अखिल जी का जादुई वाक्य - ‘‘आजकल हमारे हास्टल की ओर नहीं आते, किसी दिन आओ कमरे पर बैठकर गप-शप करेंगे। मित्र का यंत्रवत् जवाब - हाँ-हाँ आएंगे-आएंगे।अखिल जी आगे दांव मारने में देरी नहीं करते - चुनाव में मेरा पद याद है न। मित्र का रटा-रटाया उत्तर - आप भी क्या बात करते हैं अखिल भाई (बनावटी हँसी हँसते हुए) आपका ही भूल जाएंगे? यहाँ से निश्चिन्त रहिए। यहाँ चालाकी, समझदारी, वाक्पटुता में कौन किससे चार कदम आगे है - कह पाना मुश्किल। दोनों एक-दूसरे को बूझते हैं - मगर अपनेपन का नाटक ऐसा कि सगा भाई भी फेल हो जाय।

 

           

 

अखिल प्रकाश पाण्डेय चूंकि द्विज समाज के वर्तमान और भविष्य हैं, इसलिए बनियान के नीचे कंधे से कमर तक तिरछा जनेऊ सदैव धारण करते हैं। उसे ब्राह्मणत्व का झण्डा मानते हैं और संस्कार-च्युत होने का भय दिखा कर अन्य समवर्णी मित्रों को जनेऊ से चिपके रहने की चेतावनी देते हैं। बैचलर आफ आर्टकी डिग्री अभी महाशय को हासिल नहीं हुई है- मगर एक-एक कर सिर के बाल विलुप्त होते जा रहे हैं। सहज ढंग से न बोलना, न डोलना, न चलना, न बैठना, न खाना, न पीना मतलब हर अदा में श्रेष्ठता का भारीपन। आज अपने 15-20 चेलों को साथ-साथ हांकते, ले जाते हुए प्रचार कर रहे हैं तो उनकी चाल-ढाल में शेरत्व अनायास ही टपकने लगता है। खादी ग्रामोद्योग का खास कुर्ता-पायजामा, भूरे कलर के चमड़े वाला सैंडिल। यकीनन ये भविष्य के चीफ मिनिस्टर का लुक दे रहे हैं। टाई मारा हुआ पैंट-शर्ट वे शादी-वादी या छात्राओं से सजी हुई पार्टीज के मौके पर ही पहनते हैं, वरना तो कुर्ता-पायजामा जिन्दाबाद।

 

           

विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव का दिन अर्थात् भारत की लोकसभा और विधानसभा का हसीन सपना देखने का दिन। कैम्पस में अपनी पालिटिक्स चटकाने का दिन, नेतागिरी जमाने का दिन और प्रत्येक प्रशासनिक काम के लिए दादाटाइप हथकंडा अपनाने का दिन। कैम्पस के कोने-कोने का माहौल गरम है, सुलग रहा है, अशान्त है या मचल रहा है- कुछ तय कर पाना मुश्किल। अध्यक्ष पद के पंचवीर फिलहाल इस वक्त लट्टू बन उठे हैं। चप्पे-चप्पे पर धमकियाना मुस्कान के साथ हाथ जोड़े पोस्टरों का पहरा है। यूनिवर्सिटी यकीनन पोस्टर विश्वविद्यालय कही जा सकती है। भारत की सरजमीं पर किसी भी चुनाव-फुनाव का अस्तित्व जाति, वर्ग, क्षेत्र, धर्म के बिना संभव ही नहीं है। यहाँ के चुनाव में जीत का फार्मूला है धन, जीत का मंत्र है - जातीय बहुमत, जीत की शर्त है- मतदाता को विकास और सुधार के लालीपाप दिखाते रहना। भारत के प्रत्येक छात्र संघ चुनाव में धन के अलावा बाकी सारे जहरीले तत्व बढ़-चढ़ कर पाए जा सकते हैं। अखण्ड प्रताप सिंह ने महीने भर पहिले से बी. ए., एम. ए., पी-एच. डी. करने वाले समस्त सिहों की एक लिस्ट बना रखी है और सबसे तीन-चार बार भाइयाना हाथ जोड़ चुके हैं। कृष्ण चन्द्र यादव, यादव विद्यार्थियों की जातीय चेतना जगाने में पीछे क्यों रहें? वो भी गाँव-गिराँव, कस्बे, बस्ती से आए हुए बबुआनुमा यादव भाईयों का वोट हथियाने की सारी साधना कर चुके हैं। इस मामले में अखिल प्रकाश पाण्डेय का सुर कुछ अलग ही है। वे खोज-खोज कर पाण्डेयों को क्वार्टर दिलवा रहे हैं, बाइक पर बिठा रहे हैं, हास्टल के कमरे कब्जिया रहे हैं, और एक-एक पाण्डेय बबुआ से हालचाल पूछ कर खास गार्जियन की भूमिका निभा रहे हैं।

 


 

 

जातीय दलदल के इस चुनाव में प्रगतिशील सोच वालों का कोई पुछत्तर नहीं। ये तो वही मार्क्सवाद का राग रोते हैं, जाति-व्यवस्था के खिलाफ मुट्ठी तानते हैं, भारत के महान संस्कार को उसकी प्राचीन संस्कृति को ढंग से समझते ही नहीं। जब देखो, तब समाजवाद का भजन, जब देखो तब जातिविहीन, धर्ममुक्त भारत की सनक। इसीलिए अखिल प्रकाश हों या राजन भइया इन मार्क्ससिस्ट मूर्तियों को दूर से सलाम करते हैं, क्योंकि जानते हैं - यहाँ माथा फोड़ने से कुछ हासिल नहीं होने वाला। हम मांगेगे वोट तो ये खांची भर नसीहत दे डालेंगे सामाजिक न्याय की, साम्यवाद की। इन सपनार्थियों को कौन समझाए कि भारत युगों-युगों से धर्मप्राण, कर्मकाण्ड प्रधान, परम्परावादी, रूढ़िजीवी, चमत्कार भक्त और आध्यात्मिकता का अगुआ देश रहा है और आगे भी न जाने कितनी शताब्दियों तक रहेगा। इसलिए कैम्पस के .0005 प्रतिशत मार्क्सवादी स्कालर अखण्ड प्रताप और कृष्ण चन्द्र की लिस्ट से बाहर हैं।

 

           

 

छात्र नेताओं के नाम पर मुहर लगने आरंभ हो गये हैं। डेलीगेसी और छात्रावास के निवासी बन्धुओं का रेला उमड़ता आ रहा है, मचलते झुण्ड के मानिंद। झक्क सफेद कुर्ता-पायजामा पर कोट चढ़ाए छात्र नेता लपक-लपक कर हर किसी के गले मिलते, हाथ मिलाते और बात फूंकते हैं - कान में। अपना नाम और चुनाव-चिह्न न भूलने का अनुरोध करते हैं, फिर अगले समूह को रिझाने-ब्रेनवाश करने लपक चलते हैं। ऐन दोपहर के वक्त परिसर में कर्णभेदी धमाका हुआ, इसमें कुछ भी अप्रत्याशित या आश्चर्यजनक नहीं। छात्र संघ चुनाव की पूर्णाहुति यहाँ बम फोड़ने से होती है। यही छात्र नेताओं की पहचान है, शोभा है, डिग्री है। बम फूटा तो चारों ओर भगदड़ का सजीव चित्र दिखने लगा। सोटा थामे पुलिस-मूर्तियां लगभग दौड़ ही पड़ीं - घटनास्थल की ओर। किसने फोड़ा? जाहिर सी बात है। पुलिस को अपनी ताकत दिखानी थी और कानून का शासन प्रदर्शित करना था, सो दो-चार छात्र नेताओं को धर दबोचा। थाने ले गये, चाय-पानी कराते हुए मित्रवत् भाव से पूछताछ की और शाम होने के घण्टा पहले अपने पर्दा बन्द टोयोटा गाड़ी से हास्टल छोड़ दिया।

 

           

इधर देर रात आया चुनाव का परिणाम। अखण्ड प्रताप सिंह अध्यक्ष पद छीनने में सफल रहे। जीते तो अखिल प्रकाश पाण्डेय भी, मगर 209 वोटों के चुटकी भर अन्तर के साथ। देर रात सारे परिणाम आ जाने के बाद पुनः धमाके हुए - मगर बम के नहीं - पटाखों के। हनुमान मन्दिर के खास बूंदी वाले लड्डू बांटे गए और अगले दिन मुर्गाबेला में अपना-अपना विजय जुलूस निकाला गया। गाजे-बाजे के साथ, विद्यार्थी-नृत्य के साथ हाथ में तख्तियों की लहर के साथ। लीजिए न थोड़ा सा नमूना - हमारा नेता कैसा हो?’ ‘अखण्ड प्रताप जैसा हो।’ ‘जीत गया भई जीत गया - अखिल प्रकाश जीत गया। आवाज दो ऽऽऽऽ............. हम ए ऽऽऽऽऽ क हैं।

 

           

 

15 अगस्त और 26 जनवरी की प्रभात फेरी से बढ़-चढ़ कर निकलने वाले इस जुलूस को धवल ने भी फटी, खुली, छितरायी आँखों से देखा। देखा कि विजयी छात्र नेता अपनी चाल-ढाल में कैसे बाघ, भेड़िया या चीता को पीछे छोड़ दे रहे हैं, देखा कि सैकड़ों छात्र सुबह-सुबह आँखें मूंद कर चिल्लाने वाले प्राणी बन गये हैं। धवल खुद को भी उल्लू जैसा महसूस कर रहा था, जो एक जगह ढेला की तरह पड़ा टुकुर-टुकुर ताकता रहता है, सब कुछ देखते हुए भी कुछ समझ नहीं पाता और अपने उल्लूपन की बेफिक्री में उलझा रहता है। वोट पड़ने के  दौरान विश्वविद्यालय परिसर में जब बम की हड्डी चीर देने वाली आवाज फटी, तो धवल वहीं था। याद कर रहा था - इस वक्त कि वह कैसे लल्लू बच्चों की तरह जान छोड़ कर पैदल भगा था। उसने बाद में यह भी सुना कि दो गुटों अर्थात् ब्राह्मण-क्षत्री पार्टी के बीच गोली चली थी, जिसमें दो छात्र घायल भी हुए थे। कुछ तूफान-बवंडर, चक्रवात सा उठा धवल के कलेजे में। विश्वविद्यालय......... ज्ञान का मंदिर..... विद्यार्थी ........... गोली........... बम.............. नेतागिरी............ दबंगबाजी...........। सच क्या है, क्या होना चाहिए। दिखता चेहरा- दर मुखौटा है, नकली ढक्कन है या असली चमड़ी - असमंजस में पड़ गया धवल। याद आया अपने क्षेत्र का वह दाढ़ी, तिलक और चुल्लाधारी विधायक जो पान खाने जाता तो चार-चार महेन्द्रा गाड़ियाँ घेर कर चलती थीं। जिसके पायजामा-कुर्ते पर कई निदोष हत्याओं, लूट, अपहरण, रंगबाजी के दाग लगे हुए थे। ये छात्र नेता कहीं इसी विधायकी का सपना तो नहीं देख रहे ? इस वक्त दोनों में कई समानताएं देख कर धवल विलक्षण आशंका, भय और विद्युत की तरह नसों में दौड़ते विद्रोह से भर उठा। कुर्ता-पायजामा दोनों का चूड़ीदार, दोनों का कपड़ा शुद्ध खादी। दोनों के पैरों में चमड़े वाला मंहगा सैंडिल। ललाट के बीचोंबीच दोनों हाथ ले जा कर प्रणाम ठोंकने का अंदाज दोनों का एक जैसा। बिफर कर चलते कदमों का दबंगाना अंदाज दोनों का हूबहू। इस निष्कर्ष पर पहुँचते ही धवल काठ हो गया कि उनके झकाझक सफेद कुर्ते पर लाल-लाल छींटे भरे पड़े हैं।

 

           

 

इधर कुछ दिनों से वह डिस्टर्ब चल रहा है। छात्र राजनीति की असलियत ने उसके मन-मस्तिष्क को बुरी तरह हिला कर रखा है। शासन, सत्ता, राजनीति, नेता, चुनाव जैसे शब्द उसके भीतर अजीबोगरीब कड़वाहट, दर्द और खीझ भर देते हैं। राजनीति मेरे ही देश में सत्य-विरोधी क्यों? वह क्यों इतनी घटिया, मूल्यहीन और शतरंजी है? क्या मेरे देश की राजनीति का उद्धार असंभव है? क्या इसे दिशा देने वाले भारतीयों की उम्मीद खत्म हो चुकी है? धवल की शरीर से बवंडर की तरह इतने सवाल उठते हैं, जितने शायद बदन में रोएं भी न हों। उत्तर एक का भी नहीं मिल पा रहा। उत्तर पाने को मस्तिष्क कुछ दूर दौड़ता है, परन्तु उलझ-पुलझ जाता है और आगे दिशाएं अन्धकार में लापता लगने लगती हैं। अर्धशिक्षित और लम्पट होकर भी नेता सर्वश्रेष्ठता की हैसियत कैसे और क्यों प्राप्त कर लेते हैं ? इन्हें क्यों राजनीति के अयोग्य घोषित नहीं किया जाता? ब्राह्मण और क्षत्रिय को श्रेष्ठ कहलाने का क्या अधिकार है? समाज में, राजनीति में, शिक्षा और व्यवस्था में घृणा, उपेक्षा, भेद और ईर्ष्या का वातावरण इन दोनों जातियों के कारण बना हुआ है। विश्वविद्यालय हो या ग्रामविद्यालय सब जगह इन्हीं की चलती है। माहौल पर दबदबा इन्हीं दोनों का दिखता है। बात इन्हीं की होती है, यही सब जगह सुने जाते हैं, पूजे जाते हैं, ऐसा क्या है इनमें ? किसी के सीने में जब सवालों के झोंके उठने लगें और उत्तर ढंग से एक का भी न मिले तो अपसेट रहना स्वाभाविक है। इन मुद्दों पर बहस करने के लिए वह किसी न किसी को ढूंढता रहता है, मगर भाई, मित्र, भईया वाली उम्र के जितने भी छात्र हैं, उनमें से विरले ही हैं - जिन्हें इन सारे सवालों में माथा फोड़ने की रुचि है। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं, जो अपने देश के राष्ट्रपति का नाम नहीं जानते। अपने क्षेत्र का विधायक उन्हें नहीं पता। हाँ - उन्हें तवे पर रोटियाँ घुमा कर गेंद की तरह फुलाना बड़े ढंग से मालूम है।

 


 

           

पूरे हो गये तीन माह। वह धवल जो आज तक कभी तीन दिन घर-परिवार-गाँव-गिराँव से दूर नहीं रहा, उसे तीस बरस की तरह भारी पड़ गए ये कठिन महीने। माई-बाबूजी की यादों ने उसकी आँखों से कितनी बार आँसू बहवाए, कितनी बार अपने बाग-बगीचे, यार-गोइयां से मिलने के सपने दिखाए, कितनी बार विस्मृति की अन्धमय भूलभुलैया में खोती जा रहीं भूमिका, धन्वा, नयनी को जी भर देखने की अहक मची, कौन जानता है? कौन जान सकता है? धवल ने जबसे समझने-बूझने और महसूस करने वाली आँखें खोलीं, चारों ओर गाँव, खेतीबारी, ताल-पोखर-सीवान, बगइचा, गली-पगडंडी और पुरूवा-पछुआ हवाओं की छुअन में जीता हुआ पाया। उसे कहाँ पता था कि कच्चे आमों से लदा पेड़ आज उसकी आँखों को गीला कर देगा, उसे क्या मालूम था कि बगीचे की छाया में सोते हुए स्वर्ग-सुख लूटने की आदत आज अंग-अंग में मोह की तड़प मचा देगी। दिन-रात साथ रहने, साथ चलने, साथ-साथ जीने, साथ-साथ बीतने का बंधन कितना अटूट, अलौकिक, प्रगाढ़ और अजेय होता चला जाता है। इसका अंदाजा धवल को आज पहली बार हुआ। रोवां-रोवां अचरज से भर उठा जब सीवान की मौन-शांत दिशाएं उससे संवाद करने लगीं, अब झोपड़ियों के बीच में बहने वाली दुर्बल गलियां उसे पुकारने लगीं। यहाँ शहर के कैदखाने में आँसू बहाता हुआ धवल उड़ना, उड़ना और सिर्फ उड़ जाना चाहता था। फिर से निहार लेना चाहता था - अपने धूल भरे रास्ते। चार लेन की पसरी हुई सड़क उसे खेत की पगडंडी के सामने नाचीज लगने लगी। अगस्त-सितम्बर-अक्टूबर क्या तीन दिन की तरह क्या नहीं बीत सकते? दिन-रात क्या पंख लगा कर नहीं उड़ सकते? सूरज क्या जल्दी-जल्दी नहीं उग सकता? एक ओर धवल का मोह समुद्री चक्रवात की तरह घूमने-गरजने और उमड़ने लगा था और दूसरी ओर कोर्स की पढ़ाई अपने चरम पर पहुँच रही थी।

 

 

 (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

 

 

सम्पर्क 

 

प्रोफेसर, हिंदी विभाग

पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय

शिलांग -२२

                        

 

मो. 09774125265


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