श्रीविलास सिंह की कविताएँ
श्रीविलास सिंह |
जीवन को अविरल प्रवहित रखने में अहम भूमिका के बावजूद स्त्रियों को दोयम दर्जे का जीवन जीना बिताना पड़ता है। समूची दुनिया में उनकी दिक्कतें लगभग एक जैसी है। वे घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। उन्हें यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। पुरूषों की बेधने वाली नज़रों और फब्तियों का सामना करना तो जैसे उनकी नियति ही होती है। फिर भी स्त्रियाँ हैं कि इस धरती प्यार को कायम रखती हैं। फिर भी स्त्रियाँ हैं कि इस धरती को जीवन से आच्छादित किए हुए हैं। श्रीविलास सिंह ने यौन हिंसा को केन्द्र में रखकर 'देह से देह तक' जैसी उम्दा कविता लिखी है। श्रीविलास सिंह ने अपने उम्दा अनुवाद से हिन्दी समाज को विश्व के आधुनिकतम साहित्य से परिचित कराया है। श्रीविलास सिंह एक उम्दा कवि भी हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्रीविलास सिंह की कविताएँ।
श्रीविलास सिंह की कविताएँ
'देह से देह तक'
एक देह ऐंठती है
हाथ पाँव अकड़ते हैं
एक लहर सी आती है
तमाम अंगों में
पीड़ा दौड़ती है रक्त बन कर
बुझने से पूर्व भभक रही हो ढिबरी जैसे
और फिर सब कुछ तिरोहित
एक गाढ़े स्याह अंधेरे में।
देह पर देह का आक्रमण
जहाँ देह ही है आक्रांत और
देह ही आक्रांता
देह ही हथियार की तरह उतरती है
आत्मा की गहराइयों में
चीरती हुई आत्मसम्मान का वक्ष
और अपमान का समुद्र आप्लावित हो जाता है
सारे अस्तित्व में।
घायल देह पर बचे रहते हैं
पुरुष अहं के उदंड, रक्तपिपासु पंजों के निशान
वेदना आत्मा तक जाती हैं
मन को दग्ध करती, दहकती अंगारों सी
रक्त और वीर्य के बजबजाते नर्क में
कराह रही हैं तमाम स्त्रियाँ
युगों से
और युगों से हम निर्लिप्त
स्वस्तिवाचन में लगे हैं अपनी हृदयहीन वासनाओं की लार में डूबे हुए।
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युद्ध से शांति और
शांति से युद्ध के अंतरालों के बीच
पीड़ा से लिपटी हुई है स्त्री देह
जीवित, चिता में सुलगती
नोच लिए गए हैं जिस्म के लोथड़े
काट दी गई है जिह्वा
तोड़ दी गयी है रीढ़
गुप्तांगों में पैबस्त हैं घृणा की सलाखें
निकाल ली गयी हैं आँखें
अंतड़ियाँ तक हैं क्षत-विक्षत
रात्रि के घटाटोप में चुप जला दी गयी एक देह
स्त्री ही है
तेजाब से पिघलते चेहरों की पीड़ा का हाहाकार
राक्षसी निर्दयता से लहूलुहान कोख
और वह भी जो कोख में ही गला दीं गयी इस धरती पर आने से पूर्व
गर्भ के तरल अंधेरों से ले कर
तुम्हारी लपलपाती वासना की भट्ठियों में दग्ध होती
हर कहीं स्त्री ही है,
सड़ चुका है तुम्हारी सभ्यता का मुख
तुम्हारी निर्लज्ज वासना के कोढ़ से
तुम्हें एक आईने की जरूरत है।
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तरलता
जो तुम्हारे प्राणों में उतरी थी गर्भनाल से हो कर
धरती पर आते ही जिसने सिंचित किया था तुम्हें जीवन रस से
तुम्हारे माथे का टीका बन जिसने सरस किया था तुम्हारा मन
तुम्हारे हृदय को आप्लावित किया था जिसने प्रेम से
वह एक स्त्री थी।
तुम्हें सारे स्नेह और अमरता के बदले
श्रेयस्कर लगी हिंसा और मृत्यु
युगों से संस्कृति और सभ्यता के
तमाम उद्घोषों के बावजूद।
अपनी विजयों के दर्प में
तुम रचते रहे हत्या, ध्वंस और बलात्कारों का रौरव
रौंदते रहे वही वक्ष
जिनका अमृत पी कर तुम्हारे प्राणों में
आयी थी जीवन की ऊर्जा
करते रहे अपमान उसी कुक्षि का
जन्म लेने के लिए जिसकी जरूरत थी
तुम्हारे भगवानों और उनके दूतों को भी।
अपनी माँओं
अपनी बहनों और
अपनी बेटियों को
उस सहचरी को जिसके संग के बिना
जीवन था एक मरुस्थल
तुम ने अपमानित किया है उन सब को
अब वे जान गई हैं
तुम्हारी यह कलंकित विजयगाथा।
और तुम !
अब भी नहीं हो लज्जित
अपने आप से।
'मौका'
इतना भी नहीं है
बस में मौत के
कि वह दे सके मोहलत
किसी को
सलीके से मरने की।
कि वह तैयार कर सके
अपनी चिता और
अपनी समाधि पर चढ़ाने के लिए
फूलों का कर सके
इंतजाम
इत्मिनान से।
किसी ग़ुलाम की तरह
मौत को तो बस
हुक्म बजाना है
अपने अज्ञात आका का।
अपने काम की भी
उसे नहीं कोई तमीज़
नहीं तो उसके हर शिकार में
न दिखती
पहली बार शिकार कर रहे
शिकारी की सी हड़बड़ी।
काश वह किसी को
इतना भी वक्त दे पाती
कि वह जी भर देख पाता
अपनी प्रेयसी का मुख
चूम पाता
सो रही अपनी मासूम
बेटी का माथा
फिरा पाता
अपने बेटे की पीठ पर
स्नेह भरा हाथ।
पर शायद हत्यारों को भी डर है
कि प्रेम की ओस
कहीं कर न दे मुलायम
उनके हृदय पाषाण और
उनका क्रूर तिलिस्म टूट न जाए
कविता की पहली दस्तक से ही।
शायद इसीलिए
मौत
किसी को भी
नहीं देती मौक़ा
लिखने का
एक आखिरी कविता।
'प्रोटोकॉल'
प्रोटोकॉल
राजनय की धुरी
सत्ता की गरिमा, गर्व, अकड़ और भ्रम को
बनाये रखने का जरूरी औजार
नहीं टूटने चाहिए सत्ता के प्रोटोकॉल
भले ही मालूम होने से रह जाये जनता को
वह जरूरी बात जो जुड़ी थी
उसके जीवन और मृत्यु से
भले ही हो जाये न्याय का स्खलन
भले ही जनकल्याण के नाम पर
बनने वाली सरकारों की असलियत
छुपी रह जाये जनता की नजरों से
छुपा रह जाये उनका जनविरोधी,
क्रूर और असंवेदनशील चेहरा
प्रोटोकॉल का पालन होना चाहिए
जनता न आ जाये जनसेवकों और
जनप्रतिनिधियों के रास्ते में
भले ही रुकी रह जाएं एम्बुलेंस और शवयात्राएं
निर्बाध राह देने को महामहिमों को
नहीं रुकने चाहिए उनके अश्वमेध के काफिले
भले ही टूट जाये जीवन की डोर
भले ही सच कुचल जाए व्यवस्था की चौखट पर
भले ही गूंगी हो जाये जनता की आवाज
प्रोटोकॉल का होना चाहिए पालन
किसी भी कीमत पर
ध्यान रखें यहाँ सिर्फ सत्ता के प्रोटोकॉल की हो रही है बात
नहीं होता कोई प्रोटोकॉल जनता का
या फिर यदि होता है तो
नहीं जरूरी उसे पालन करना
जनता को मिले सुरक्षा, संरक्षा, सुशासन
न्याय और व्यवस्था, जीवन का अधिकार
और जीवन की गरिमा का अधिकार
नहीं होते इन बकवास बातों के प्रोटोकॉल
वे तो होते हैं
सिर्फ लैंड रोवर और मर्सिडीज में सवार महाप्रभुओं के
और नहीं होना चाहिए उल्लंघन उनका
किसी भी कीमत पर
हाँ, बस प्रोटोकॉल के उल्लंघन का सत्ता का अधिकार
परे है किसी भी चुनौती से
तमाम महाप्रभु याद रखें
दुर्भाग्य से होता है एक प्रोटोकॉल
इतिहास के कूड़ेदान का भी।
गुलमोहर
मेरी आँखों के आगे
जलता है गुलमोहर हर वैशाख
पीते हुए उजाले का लाल रंग
जब जल चुके होते हैं
भोर की ओस के सारे मोती
और जब सूरज के मुख की सिंदूरी आभा
बदल कर अग्निचक्र में
किसी दर्पण सी दिप दिप कर रही होती है
धूप सुस्ता रही होती है
किसी पेड़ की हरियाली में।
जब लोग भूल चुके होते हैं
रात के तारों की टिमटिमाती कहानियाँ
और चाँद का सारा सोना
उजाले की रजत धारा में घुल गया होता है
जब आग सी बरस रही होती है आकाश से
धरती के आँचल पर,
तब गेंहूँ की फसल काटती होती हैं
वे लड़कियाँ
जिनकी हँसी में होते हैं
झरने प्रतिध्वनित और
जिनकी आँखों से उलझती रहती हैं
तितलियाँ, फूलों के भ्रम में
अभावों के महाकाव्य के बीच
उनके गीतों से फूटता है
जीवन की श्रेष्ठता का संगीत
धूप में जलते गुलमोहर से चेहरों वाली
वे पसीने से अभिसिंचित अपनी मुस्कराहटों में
छिपाए होती हैं
अपनी अपनी प्रेम कहानियाँ
जो जवान होती हैं
गुलमोहर के अग्निवर्णी फूलों की भांति
बिना हवा तक को खबर हुए
और उसी के साथ
धूप भी हो गयी होती है
थोड़ी मुलायम।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स
वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
श्रीविलास सिंह
E- mail : sbsinghirs@gmail.com
Mobile : 8851054620
अदभुत और मन को सुकून देने वाली पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंबहुत सुंदर
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