विष्णु खरे की कविताओं पर कुमारमंगलम का आलेख ‘कविता के घर में गद्य की सेंध’।
विष्णु खरे |
विष्णु खरे का व्यक्तित्त्व बहुआयामी था। एक बेहतरीन कवि तो वे थे ही, साथ ही उम्दा अनुवादक, पटकथा लेखक, फिल्म समीक्षक और पत्रकार भी थे। रोजमर्रा की घटनाएं हों या मिथकीय चरित्र, वे काव्य-गद्य में इस तरह ढलते हैं कि हम उन्हें बिना उबे, बिना रुके पढते चले जाते हैं। गद्य को काव्य भाषा बनाने के बावजूद उन्होंने कविता की पारम्परिकता को बचाये रखा है। इस तरह वे अपनी ढंग के बिल्कुल अलहदा कवि कवि हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं कि अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने समकालीन कविता के परिसर को व्यापक किया है। उनकी कविताएँ बहुआयामी हैं, और इनका स्वर समकालीनता की तरह विविध और बहुरंगी हैं। विष्णु खरे की आज पुण्य तिथि है। आज हम युवा कवि कुमारमंगलम के आलेख के जरिए विष्णु खरे की स्मृति को नमन कर रहे हैं। कुमारमंगलम ने विष्णु खरे की कविताओं की पडताल करते हुए एक आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर पढते हैं विष्णु खरे की कविताओं पर कुमारमंगलम का आलेख ‘कविता के घर में गद्य की सेंध’।
कविता के घर में गद्य की सेंध
कुमार मंगलम
समकालीन काव्य परिदृश्य में विष्णु खरे एक ऐसे कवि हैं, जिन्हें पाठक प्यार और नफरत के परिधि पर पढ़ता है। विष्णु खरे के प्रशंसक और आलोचक दोनों सामान मात्रा में मौजूद हैं। किन्हीं के लिए वे अतिशय पूजनीय बन जाते हैं और किन्हीं के लिए अकवि के हद तक जाने वाले रचनाकार। उनकी कविताओं में बीच का रास्ता नहीं है। कविता को गद्य के आकाश तक पहुँचाने वाले कवि विष्णु खरे का मूल्यांकन हिंदी के आलोचकों ने एक खास तौर के पूर्वग्रह के साथ किया है। विष्णु खरे की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे कविता ने गद्य के घरौंदे में सेंध लगाई हो। सातवें दशक के प्रमुख कवि विष्णु खरे ने अपनी कविताओं के माध्यम से एक अलग तरह के सम्प्रेषण की राह को खोजा, जो कई अर्थों में नागरीय होते हुए भी नागरीय नहीं थी और उसके साथ ही लोक तत्वों से बोझिल भी नहीं थी। मिथक, आम शहरी और कस्बाई जीवन के निकट यथार्थ की ये कविताएँ अपने शिल्प और रूप में एक नया रचाव कर रही थी। अपनी परम्परा से संवाद करते हुए भी ये कविताएँ वास्तव में एक तोड़फोड़ साबित हो रही थी। इनकी कविता जटिलता के आयतन में रहते हुए भी सम्वादधर्मी थी। उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार के साथ-साथ ही विष्णु खरे की कविताएँ विकसित हो रही थी। इस वजह से कविता में संप्रेषणीयता और बोधगम्यता के सवाल में एक विपर्यय पैदा होता है क्योंकि कविता उपभोग की वस्तु न होकर संवेदना की विषयवस्तु है। समय के जटिल होते चले जाने के कारण कविता भी जटिल हो रही थी। विष्णु खरे की कविता भी इसी जटिलता की साधना से उत्पन्न हुई कविता है। विष्णु खरे की कविता यथार्थ के परदे में ढके होने से पैदा न हो कर यथार्थ के अति उजागर होने से पैदा हुई है। विष्णु खरे की कविताओं में ‘डोमाजी उस्ताद’ किसी ‘अँधेरे में’ नहीं मिलता बल्कि वह हमारे बीच में हमसब के साथ मिला हुआ चरित्र है। यही वजह है कि यहाँ फैटेसी और बिम्ब एकमेक हो गए। निम्नलिखित कविता में जिस डोमाजी उस्ताद का चित्र उभरता है, वह हमसे ओझल नहीं है, बल्कि हममें से ही कोई एक है। वह हमारे बीच ही रहता है और उचित समय देख कर हमलावर हो जाता है।
“और थर्राते हुए पीछे देखते हैं
तो देखते हैं कि फिर एक साथी यकायक ग़ायब हो गया है
सिर्फ एक गूँजती हुई बर्फ़ीली चीख़ डूबती है
और भयावह फुसफुसाहटों विक्षिप्त अट्टहास
और खिसकते पैरों की चिपचिपाहट की ध्वनि
गहरी होती जाती है और कुछ देर बाद आती है
छीन-झपट की आवाज़, तिकोने दाँतों से तोड़ी जा रही
गोश्त और खून लगी हड्डियों के तड़खने की आवाज़
हमारे दिलों पर मौत की दस्तक और धैर्यहीन हो जाती है।”[1]
विष्णु खरे की कविताओं से गुजरते हुए किसी खास वैचारिक आग्रह से अधिक मानवीय संवेदना के स्वर अधिक मुखर दिखाई देता है। इसमें विष्णु खरे समकालीन जीवन के त्रासद अनुभव, अकथ या आमतौर पर नहीं कहे जाने वाले विषय को कविता विषय बनाते रहे हैं। इनकी कविताओं में साम्प्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता, फासिस्ट मनोवृतियों के साथ-साथ समकालीन भारतीय राजनीति के पेचीदगी का वृतांत आख्यान रूप में आता है लेकिन एक सजग कवि होने के नाते उसमें भी काव्यात्मकता का पुट मौजूद रहता है। ‘गुंग महल’ कविता में वे जिस कलात्मकता से गद्य के घरौंदे में रहते हुए और बेहद अकथ बिम्ब से अपने सामयिक संवेदना को विष्णु खरे छूते हैं, वे इससे पहले अकविता के दौर में ही संभव था।
“अब बच्चों की आँखें निकल आयी थीं
उनके कँपते बदन ऐंठ रहे थे वे मुँह से झाग निकालने लगे
कुछ ने दहशत में पेशाब और पाख़ाना कर दिया
फिर वे दीवार के सहारे दुबक गये एक कोने में पिल्लों की तरह
और उनके मुँह से ऐसी आवाज़ें निकलने लगीं
जो इनसानों ने कभी इनसान की औलाद से सुनी न थीं।”[2]
विष्णु खरे की कविताओं में विवरण बहुत ही प्रमुखता से मौजूद है। इन कविताओं में विचार पक्ष बोझिल और हावी है। इस शैली की वजह से कई बार कवितापन की हत्या हुई है। कविता में तुरंतेपन का आग्रह भी कई बार कविता को एक घटना के विवरण और अखबारी ख़बर के रूप में तब्दील कर देता है। इन कविताओं में विवरण को एक रचनात्मक टूल्स के रूप में इस्तेमाल किया गया है। इस शैली की वजह से कविताओं से कलापक्ष गौण हुआ है। विवरण की अधिकता में काव्य-रस बाधित होता है। लम्बी गद्य कविता में भी गद्य का आग्रह इनता प्रभावी होता है कि वह कविता छोड़ कर निबंध अथवा अखबारी रिपोर्ट की प्रतीति देने लगता है। इन अखबारी रिपोर्टिंग शैली की कविताएँ विष्णु खरे ने विवरण के आग्रह में लिखी हैं और फिर कविता के अंत में बौद्धिकता का जामा पहनकर उसे कविता में बदलने की शैली वाली कविताओं को अलग से रेखांकित किया जा सकता है। ऐसी ही एक कविता है- ‘जर्मनी में एक भारतीय कंप्यूटर विशेषज्ञ की हत्या पर वह वक्तव्य जो वर्तमान भारत सरकार देना चाहती है पर दे नहीं पा रही।’
“यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कतिपय अज्ञात परस्पर ग़लतफ़हमियों के कारण
जर्मनी सरीखे देश, जहाँ भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन, परंपरा
आदि को विश्व में पहली बार पहचाना गया और
महान आर्य जाति के वैश्विक अंतर्संबंधों को खोजा तथा स्वीकारा गया,
के मूलवंशियों एवं कुछ भारतवंशियों के बीच छिटपुट अप्रिय घटनाएँ घटीं
जहाँ हम पूर्णरूपेण आश्वस्त हैं कि जर्मन सरकार,
जिससे हमारे पारंपरीण मैत्रीपूर्ण संबंध है-”[3]
कविता में विवरण का इस्तेमाल कविता को बहुआयामी और विश्वसनीय बनाती है। अगर वह विवरण कविता में अपने सूचनात्मक रूप को छोड़ कर संवेदनात्मक संरचना में तब्दील हो जाये। फिर वह एकांगी नहीं रह जाता। विष्णु खरे इस मामले में अपनी कविताओं के माध्यम से एक ट्रेंड स्थापित करते हैं। उनकी कविताओं में जो भी विवरण मौजूद हैं वे कम ही संवेदनात्मक संरचना के घेरे में आते हैं अधिकतया वह शब्दों का कसरत अधिक लगता है। वे उन कविताओं में विवरण को संवेदना की कसौटी पर कसते हैं। इस कसौटी पर वे कई बार सफल भी होते हैं और कई बार असफल भी।
विष्णु खरे की कविताओं पर मंगलेश डबराल का मानना है कि, “टेबिल पहली कविता है जिसे विष्णु खरे की ‘बदली हुई’ कविता का प्रस्थान-बिंदु माना जा सकता है। यह लम्बी कविता एक सरहद, एक सीमान्त है जिसके बाद उनकी कविता का नया देश और काल आरम्भ हुआ।”[4] मंगलेश जी विष्णु खरे की कविताओं में निबंध सरीखा गद्य शिल्प, सपाटबयानी, गैर-भावुक संवेदना, भाषाई वस्तुपरकता और कहानी और कविता के दायरों के विलयन की प्रक्रिया को विष्णु खरे की कविता की संवेदना और स्वभाव के रूप में देखते हैं। यहाँ उनका मूल्यांकन सटीक है। टेबिल, दोस्त, कार्यकर्ता, मुकाबला, देर से आने वाले लोग, इकबाल, सिंगल विकेट सीरीज, जिल्लत, होनहार इत्यादि कविता में उपरोक्त बातों की पुष्टि होती है। लेकिन लालटेन जलाना जैसी कविताओं में वे बेहद नौस्टैल्जिक हो जाते हैं। हालाँकि उनकी यह बेहद प्रशंसित कविता है। इसे डबराल जी जीवन के रूपक में देखते हैं, लेकिन यह आम जीवन में घटने वाला एक बहुत सामान्य दृश्य है। इस कविता की दार्शनिक व्याख्या कविता पर अतिरिक्त बोझ लादने जैसा ही है। लालटेन जलाना जैसी कविता कस्बाई स्मृति की एक याद भर है, जिसे कविता में संजोया गया है।
“बत्ती ठीक करना और तेल भरना रोज के काम नहीं है
लेकिन जो काम सबसे ज्यादा सलीके मेहनत और निगाह की माँग करता है
वह है शीशे को साफ़ करना
अव्वल तो यह ध्यान रखना पड़ता है
कि कब्जे से निकालते वक्त
उसे गलत तरफ से तिरछा न कर दिया जाये कि वह टूट जाये”[5]
सिंगल विकेट सीरीज हिंदी कविता के क्षितिज पर एक नवाचार प्रयोग है। बेटी, स्त्री, पिता, हिंजड़े आदि पर विष्णु खरे की कविता रेखांकित की जाने वाली कविता है। मध्य वर्ग की मौलिक उद्भावनाओं को अपनी कविता में जिस शिद्दत से विष्णु जी ने जगह दिया है, वह समकालीन कविता संसार को समृद्धि देने वाली कविता है। विष्णु जी की साफगोई और सपाटबयानी कविता में कई बार खलती भी है। अगर शुद्धतावादी नजरिये से न भी देखा जाये तो कुछ क्रिया-व्यापार भद्र व्यक्ति को सामाजिक रूप से नहीं कहना चाहिए। विष्णु जी अपने जीवन और काव्य-संसार दोनों में इसका अतिक्रमण कर जाते हैं। विष्णु जी शब्दों के बेहद सजग उपयोगकर्ता हैं। विष्णु जी की कविताओं के शिल्प की चाहे जितनी आलोचना की जाये, मगर उनके शब्द-संसार और अर्थ-संसार के सानी हिंदी में बहुत कम रचनाकार ही होंगे। विष्णु खरे को चाहे आप प्यार करें या उनकी आलोचना करें लेकिन वे अपनी कविताओं के माध्यम से एक ऐसी लकीर खींच गए हैं, जिनसे आने वाली पीढ़ी हमेशा सीख लेती रहेगी। उनकी रचनाओं में मौजूद जीवद्रव्य हमेशा ही एक ट्रेडमार्क और ट्रेंड की तरह आने वाली पीढ़ी पर फ्लैश करेगी। उन्होंने कविता के पारम्परिकता को बचाते हुए अपनी कविताओं के माध्यम से समकालीन कविता के परिसर को व्यापक किया है। ये कविताएँ मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, चंद्रकांत देवताले की परम्परा की कविताएँ हैं। इन कविताओं में कस्बाई, शहरी आम जनजीवन के सहज चित्र, उसकी आलोचना और मध्यवर्गीय दोमुहेपन की स्पष्ट व्याख्या मौजूद है। विष्णु खरे ने कभी लिखा था कि कविता में आदमी के अस्तित्व और उसके सामने खड़े सारे संकटों को ले कर चिंता और प्रतिबद्धता, मानव होने के रोमांचक मामले में गहरी दिलचस्पी, जीवन और रिश्तों के अनंत वैविध्य के प्रति उत्सुकता और इन सबको अपनी भाषा और शैली में कह पाने की क्षमता होनी चाहिए। विष्णु खरे की कविताओं को पढ़ते हुए इस बात की सनद हमेशा मिलती रही है।
विष्णु खरे की कविताओं में प्रयुक्त मिथक को अति विशिष्ट नज़र से देखा जाना चाहिए। प्रयोगवाद और नयी कविता के कवियों ने मिथकों को अपना काव्य-विषय बनाया, बनाया पर उनका स्वर कहीं न कहीं मिथकों के कथा-सूत्र से सहमति और प्रशंसात्मक ही रहा, लेकिन विष्णु खरे के यहाँ ये मिथक सूक्ष्म आलोचनात्मक दृष्टि के साथ अभिव्यक्ति पाते हैं। इस तरह की कविताओं में साम्बवती, अग्निरथोवाच, वृन्दावन की विधवाएं, महाभारत युद्ध के बाद लापता हुए 24165 लोग, सत्य, जनमेजय का सर्पसत्र इत्यादि कविता को रखा जा सकता है। ‘द्रौपदी के विषय में कृष्ण’ शीर्षक कविता में महाभारत के मिथक की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करती है और विष्णु खरे के काव्य-वैभव को विस्तार देती है।
“हर बार जब लौटा तो जानता था कि जो कुछ तुमने कहा
उसे लोग स्तुति या पुकार कह कर निस्सार कर देंगे
तुम पाँच योद्धा पतियों की साध्वी पत्नी
मैं सहस्त्र गोपियों तथा पटरानियों का संदिग्ध भोक्ता
राधा के मुग्ध प्रेम की अनेक कथाओं का नायक
जिसका उल्लेख-मात्र मुझे बाद में संकोच और झुंझलाहट से भर देता था”[6]
इसी कविता में जब वे महाभारत के प्रसंगों में मस्तिष्क के सैकड़ों टुकड़े कर देने वाले कथन की बात करते हैं तो महाभारत के बहाने अपने समय के महाभारत का पीछा करते हैं। वे महाभारत के बहाने अपने समय को देखते हैं। उनके लिए आज का रामराज रामराज के भेस में महाभारत की पृष्ठभूमि तैयार करने वाला राज्य है, जहाँ दो परिवारों, दो समाजों अथवा दो विचारों का द्वंद्व युद्ध होना निश्चित है। वे कौरव और पांडवों के हवाले दो के बायनरी में विभाजित हुए समाज को देखते हैं। आप चाहें तो इस दो की बायनरी को हिन्दू-मुस्लिम के बायनरी में व्याख्या कर सकते हैं। बकौल ज्ञानेन्द्रपति, “आचार्य क्षेमेन्द्र ने व्यास को भुवनोपजीव्य और वाल्मीकि को सर्वोपजीव्य कवि कहा है, जिनके पास रचानोत्सुक हथेली फैलाये निस्संकोच जाया जा सकता है।”[7] ऐसे में विष्णु खरे महाभारत की पीठिका में समकालीनता के रकबे में कविता को सम्भव बनाते हैं, जो सर्वथा उचित और अनुकरणीय है। महाभारत से सम्बंधित इन कविताओं में आचार्य क्षेमेन्द्र की इस भुवनोपजीव्यता की प्रतीति है जो विष्णु खरे की काव्य-विविधता है।
विष्णु खरे की कविता में जीवन के सभी राग-रंग मौजूद है। ये कविताएँ बहुआयामी हैं, इनका स्वर समकालीनता की तरह विविध और बहुरंगी हैं। विष्णु खरे की कविता में जीवन के पुनर्वास के रंग मौजूद है। गहरी जिजीविषा और जीवन को कविता में देखने के ललक में कई बार गद्य का स्वर यहाँ आता है, लेकिन उस गद्य के आग्रह में भी कवितापन को जिलाए रखने वाले कवि हैं।
संदर्भ
[1] खरे विष्णु, सेतु समग्र : विष्णु खरे, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ सं. 46.
[2] खरे विष्णु, सेतु समग्र : विष्णु खरे, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ सं. 160.
[3] खरे विष्णु, सेतु समग्र : विष्णु खरे, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ सं. 187.
[4] खरे विष्णु, सेतु समग्र : विष्णु खरे, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, भूमिका से.
[5] खरे विष्णु, सेतु समग्र : विष्णु खरे, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ सं. 415.
[6] खरे विष्णु, सेतु समग्र : विष्णु खरे, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृष्ठ सं. 267.
[7] ज्ञानेन्द्रपति, एकचक्रानगरी, सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021, भूमिका से.
सम्पर्क
शोधार्थी, हिंदी विभाग
इग्नू, मैदानगढी, नई दिल्ली
मोबाइल : 8840649310
बहुत सुन्दर
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