आर्य भारत की कविताएं
आर्य भारत |
परिचय के क्रम में बस इतना ही। बलिया का रहने वाला हूँ। कविताएं और राजनीति के बीच अपनी सम्भावनाएं गढ़ रहा। भटकने को अपनी नियति मान एक मात्र स्थायी चीज पढ़ाई है। इसलिए बाबासाहेब अम्बेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी से पी-एच. डी. कर रहा हूँ।
हमारी यह दुनिया आज जो इतनी खुबसूरत दिख रही है इसके पीछे मजदूरों का असमाप्त श्रम है। मजदूरों ने अपने पसीने से पृथ्वी के हरियाली की कहानी लिखी है, अन्न का वैभव रचा है और अपने ओज से ही दुनिया को सतरंगी आभा प्रदान किया है। बिना रुके, बिना थमे मजदूर आज भी अपना पसीना लगातार बहाए जा रहे हैं। उनकी उम्मीद अब भी बरकरार है कि आखिरकार एक दिन सब कुछ बेहतर होगा। दुनिया के साथ साथ-साथ उनका अपना घर परिवार भी खुशहाली की खुशबू से सरोबार होगा। अलग बात है कि मजदूरों की खुशहाली आज भी दूर की कौडी बना हुआ है। मजदूरों को आश्वासन के सपने दिखाए जाते हैं, भरोसे का लालीपाप थमा दिया जाता है, सांत्वना का झांसा दिया जाता है और वे अभावग्रस्त एवम बदहाल जीवन जीने के लिए मजबूर होते रहते हैं। इसके पीछे जिम्मेदार है हमारे तंत्र के वे नियंता, जो खुद को कहते तो जनसेवक हैं लेकिन सेवक का रत्तीभर भाव भी उनके यहाँ नहीं मिलता। ‘कांट्रैक्टर’ या ठेकेदार भी उसी कैटेगरी का जीव है जो मजदूरों के श्रम के दोहन का विशेषज्ञ होता है। कवि आर्य भारत ‘कांट्रैक्टर’ के ‘कांट्रैक्टक’ से भलीभांति वाकिफ हैं। इसी लिए वे लिखते हैं ‘ठेकेदारी की प्रथा के खिलाफ/ एक अर्जी’ और इसे दायर करते हुए कहते हैं कि ‘मैं सृष्टि में एक भी ठेकेदार नहीं चाहता’। इतना खुबसूरत सपना कवि ही देख सकता है जो दुनिया को जोंकों से मुक्त कराना चाहता हो। आर्य भारत अपनी काव्य भाषा से सहज ही आकर्षित करते हैं। विषयों की बहुलता उनकी पहचान है। अर्थछवियो को गढने का हुनर उन्हें और कवियों से अलग करता है। आइए आज पहली बार पर पढते हैं युवा कवि आर्यभारत की कुछ नयी नवेली कविताएं।
आर्य भारत की कविताएं
जिंदगी : वर्ग सेंटीमीटर में
(1)
हड्डियों का कैल्शियम
चूना बन गया है
शरीर का खून कत्था
लगता है यह निचाट अकेलापन
मुझे पान बनाएगा
चबाएगा
और थूक देगा
(2)
सुबह ढहती हुई पीठ की दीवार को
छाती से लगा संभालता हूँ
फेफड़े हरकत करते हैं
दोपहर कंधों से लटकाता हूँ
अपना सर विहीन अस्थि पंजर
फेफड़े हरकत करते हैं
रात दिमाग की नसों में विहंसती
माइग्रेन की मरीचिका को
दिखाता हूँ लौ-लपट-धुंआ
फेफड़े हरकत करते हैं
(3)
एक सन्नाटा है आसपास
जिसे कूलर के पंखे ने हवा दे दी है
बल्ब ने नमूदार कर दिया है
कमरे में लगी झोलों ने स्थिर
मैं उसके प्रभाव को कम करने के लिए
चिल्लाता हूँ, कविताएं पढ़ता हूँ, गीत गाता हूँ
नाचता हूँ, थकता हूँ
थकते ही सन्नाटा मुझ पर
साइलेंसर लगी पिस्तौल से वार करता है
मेंरे शरीर से रिसते पसीने आवाज करते हैं
(4)
कमरे में अपनी मौजूदगी के लिए
अंदर से ताला लगाता हूँ
बाहर जाते वक्त साथ ले जाता हूँ ताला-चाभी
चाहता हूँ कोई आए औ
उठा ले जाए तल्प से मेंरी चादर
जो मेंरी छटपटाहटों के केंचुलो से अटा पड़ा है
वह कलमदान,
जिसकी हरेक कलम की स्याही फट चुकी है
वह कुर्सी,
जो मेंरी रीढ़ की हड्डियों की तरह फंफूदग्रस्त है
मैं चाहता हूँ मेंरे आने से पहले
वह इस कमरे के छत से लटकी सीलिंग फैन
जरूर उतार लें जाए
और जल्दी जल्दी में छोड़ जाए अपने जूते
ताकि मैं उसके पैरों की नाप से समझ सकूं
पृथ्वी पर जिंदगी कितने वर्ग सेंटीमीटर में फैली हुई है..
कहां हो तुम लोग
गगन घन उगलता अंधकार
इस अमनिशा में
आओ और नहाओ इसमें
कहाँ हो तुम लोग?
इस महान दृश्य से आंखों की चौहद्दी
सेंको और गले की खरास दूर करो
चुप्पियों से विलाप को सम्मानित न करो
मैं खोज रहा तुमको
राम जी के हवाले से चौपाई गाने वाले तुम लोग!
भव्य राम मंदिर की रसीद पा लहालोट तुम लोग!
अपने ज्ञान के मस्तूल पर भगवा पताका फहराने वाले तुम लोग!
अपने प्राचीनतम ललाट पर महानता के त्रिपुंड लगाने वाले तुम लोग!
विश्वगुरु की लंगोट पहन पृथ्वी के
अक्षांश-देशांतर रेखाओं को लांघने वाले तुम लोग!
खोज रहा तुम सबको
किसकी करुणा में आकंठ डूब गए हो?
ज्ञानवापी की खुदाई का समय निकला जा रहा और
तुम लोग अर्थियां उठाने में लगे हो?
सांत्वना देने में लगे हो?
तिमारगिरी में लगे हो?
याद करो नैनम छिन्दन्ति शस्त्राणि....
और मनसा वाचा कर्मणा से
उस मुहिम को धार दो
जिससे काफिरों का गला चाक होता है
इस विलाप के जलसे से निकल
डोमराज के साथ शिरकत करो
शमशान भूमि के नव निर्माण कार्य में।
जीर्णोद्धार में।
मन हल्का न करो
तुमने जिस पुनीत कार्य के लिए
देश का राजदंड सौंपा है जिनको
उन्होंने ही सौंपा है
राम राज्य के विस्तार से पूर्व का
वो चौदह वर्षीय वनवासी जीवन
इकट्ठा कर लो अपने परिजनों के लिए लकड़ियां
बहुत समय है
लंबा समय है
आओ!
आओ!
इससे पहले कि तुम
हे राम में बदल जाओ और
करुणानिधान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम में
परिवर्तित हो कर
पिस्तौल निकाल अंधाधुंध गोलियां चलाने लगे
तुमको नक्सलाइट बता
पूरा देश लहूलुहान कर दे
आओ!
यह पूरी मुस्तैदी से लग कर
विश्व को ललकारने का समय है
पुरुषोत्तम की पादुका को सत्कारने का समय है
आओ!
चला आऊंगा तुम्हारे पास
मेंरा मन भले रूठ जाए
मेंरे पाँव हमेंशा प्रसन्न रहेंगे
मैं प्रसन्नता के पदचाप छोड़ते हुए चला आऊंगा
तुम्हारे पास
मेंरी थकावटों को पहचाने वाले
अपनी थकावट ले कर
बार-बार आता रहूँगा
सुनाऊंगा तुम्हें सड़को की पीप-पीप
पटरियों की छुक-छुक
बनारस के बारे में बताऊंगा
उस घाट के बारे में भी
जहां तुम मेंरे होंठो पर रखे सिगरेट को
संधा-बाती की तरह सुलगा देती थी
मैं तंबाकू भर प्रकाश के लिए
चला आऊंगा तुम्हारे पास
मैं जर्जर होता जा रहा
मेंरे रक्त में चींटियों ने चहलकदमी शुरू कर दी है
गले की सुरंग में टार भरता जा रहा
फेफड़े अमेंजन की जंगलो की तरह जल रहे
मैं मृत्यु से भयभीत हो कर तुलसी वाली चाय पीने
चला आऊंगा तुम्हारे पास
तुमको तो मालूम है ताज पहने राजा की नहीं
खड़ाऊं पहने सम्राट बनने की सनक थी मुझमें
जो युद्ध में बिना रथ और मुकुट के
लंकाधीश को ललकार सके
लम्बा चलेगा युद्ध तो पहिये की जगह पांव घिसेंगे
मैं घिसे हुए पांव से एक जोड़ी चप्पल की तलाश में
चला आऊंगा तुम्हारे पास..
बिलकिस बानो
तुम्हें इतिहास में किस तरह लिखा जाएगा बिलकिस बानो?
ठीक उसी तरह जैसे वीरांगनाएं लिखी गई?
खून से लथपथ उनकी तलवारों का लोहा लिखा गया?
पसीने से लथपथ उनके कंधे, उनकी छातियां लिखी गई?
भयानक हिनहिनाते हुए युद्धक्षेत्र में तुम्हारे चित्कार का चित्र
नहीं उकेरा जाना चाहिए इतिहास में
मुझे तो ऐसा ही लगता है
तुमको इतिहास में सहारा के बर्फ की तरह लिखा जाना चाहिए
पानी के जंगल की तरह
पहाड़ो के पतझड़ की तरह लिखा जाना चाहिए
फूलों के पत्थर की तरह
हाथों के मक़तल की तरह लिखा जाना चाहिए
बिलकिस बानो!
तुम्हें मुसलमान कवि की प्रेमिका की तरह
हिंदुओ के इतिहास में दर्ज किया जाना चाहिए बिलकिस बानो!
जो इस सभ्यता के प्रेरणा पुरुष हिमालय को
विवश कर दे
अपने हाथों गंगा का गला दबाने के लिए
अन्यथा भगीरथ को भी तुम किसी रोज
सर्वोच्च न्यायालय में खड़ा होने के लिए मजबूर कर दोगी
बिलकिस बानो तुम्हें लिखने वाली ऐतिहासिक कलमें
जब चल कर देखेंगी द्वारिका के मलबे को
उन्हें तुम्हारा अस्तित्व
कृष्ण और बलराम की उपस्थिति में
सबसे मज़बूत बताना पड़ेगा
हीरे की तरह कठोर बताना पड़ेगा
लिखना पड़ेगा की पौराणिक कथाओं की द्वारिका
जब गोधरा में तब्दील हो रही थी
वहां कुछ भी नहीं बचा
सिवाय बिलकिस बानो के
बिलकिस बानो तुम्हें लिखा जाएगा
संघर्ष के आदम शोक के रूप में
कलिंग विजय के बाद बचे अशोक के रूप में
प्रेमिकाओं से बिछुड़े प्रेमी
प्रेमिकाओं से बिछुड़े हुए प्रेमी,
आखिर कहाँ गये?
इस सवाल के जेहन में उतरते ही,
चमकने लगती है ताजमहल की मीनारें,
खनकने लगती है जगजीत सिंह की आवाज,
और दूर कहीं समुद्र के नीचे
तैरने लगती हैं युगंधर की द्वारिका,
मछलियों की तरह मथुरा की खोज में
लेकिन फिर भी इन अभिशापित प्रेमियों का पता नहीं मिलता,
तब मैं इतिहास खंगालता हूँ ,
विश्व युद्ध में मारे गये सैनिकों का इतिहास
क्यूबा में,
घाना में,
वियतनाम में,
फिलिस्तीन में,
नेफा में,
बस्तर में और अक्साई चीन में,
मारे गये सैनिकों का इतिहास,
देखने लगता हूँ साइबेरिया का तापमान,
हिन्द महासागर की विशाल जल राशि,
प्रशांत महासागर का मेंरियाना गर्त
गाजा पट्टी,
अफ्रीका,
कोरिया का भूगोल
पढने लगता हूँ विज्ञान
नाभिकीय विखंडन के सूत्र
जिससे समाप्त गयी हो नागासाकी की नस्लें,
लेकिन इन गुमशुदा प्रेमियों का पता बताने में
सारे के सारे पन्ने नाकाम हो जाते हैं,
लगता हैं अपने बिछुड़ने का किस्से के साथ
ये प्रेमी भी हाकिंस के ब्लैक होल में विलीन हो गये,
या चले गये किसी अनंत दिशा की ओर मंगल से वृहस्पति होते हुए,
आकाश गंगा के बाहर,
धरती पर किसी भी फैक्ट्री में बिना हड़ताल किए हुए,
इनको रोजगार के नाम पर कारतूस देने वालों,
मैं तुमसे पूछता हूँ ,
प्रेमिकाओं से बिछुड़े हुए ये प्रेमी
आखिर कहाँ गये?
अफीम का बेटा
जब भी तुमसे प्यार की दो बात,
करने की लिए,
मैं सोचता हूँ,
याद आता हैं मुझे अपना -
सुनहला गाँव,
बरगद,
नीम,
जामुन,
आम,
महुएं की कतारें,
ताल,
बांगर,
बांध,
पोखर,
और अखाड़े
में सीखे वो दाव सारे,
याद आतें हैं हिरामन जो खड़े मेंरे दुआरे,
दे रहें हैं कल दियारे की नीलामी की कोई अधिसूचना,
याद आता है मेरा स्कूल,
मेरी क्लास,
जिसमें-
"क्या तुम्हारे काम करते हैं पिता जी?"
प्रश्न ये मास्टर जी द्वारा पूछना,
मैं बताता हूँ कि "सर किसान हैं वे"
और मन में फूट पड़ता हैं धुँआ,
चिलम से गांजे का,
बरसने लगते है मेंरे बालपन पर
वो अफीमी आग्नेयास्त्र
जो,
नागासाकी पर गिरने वाली मिसाइलों से जरा भी कम नहीं होते,
मैं तुमको क्या बताऊं
तब यही मैं सोचता हूँ,
काश तेरी जिन्दगी में हम नहीं होते,
तुम्हें मालूम हैं?
मुझको,
मेंरे गाँव में,
कहते बुलाते किस तरह हैं?
सभ्यता के इस सुनहले से शिखर पर विराजे,
मैं अपने बाप को पापा नहीं कहता,
न ही पिता जी कहता हूँ,
न ही बाबू जी,
बस यही सुनता हूँ लोगों से,
अबे ओ मुननवा का बेटा,
और साला मार कर मन,
मान लेता हूँ,
"मैं हूँ अफीम का बेटा"
अफीम क्या होता हैं ?
कैसा रंग होता है?
नहीं मालूम मुझको
बस तुम्हारी आँख में जब झांकता हूँ,
या तुम्हारा हाथ पकड़े,
चाँद-तारे ताकता हूँ,
याद आता हैं मुझे अपना सुनहला गाँव जिसके,
उत्तर में कबीरा वाला ताल हैं,
जिसके दक्खिन में,
पुडियों वाला बिकता 'माल'
है,
उस ताल से इस माल की दूरी
कोई दो-ढाई मील होगी,
और इन्हीं एक फांसलों में
दौड़ती पापा की 'हीरो'
साइकिल होगी,
जो मेंरे ख्वाब की पगडंडियों पर लडखडाती है,
जिसके आने की सुन आहट,
मेंरी माँ की कलाई,
चूड़ियाँ,
सब टूट जाती हैं,
तुम्हें मालूम है अफीम की कीमत?
नहीं न?
मुझे मालुम है,
दो-चार बिस्वा नहीं
पूरे पच्चीस बीघे
माँ के जेवर,
घर के बर्तन
मेज,
कुर्सी,
गद्दे,
गलीचे,
सब अगर बिक जाए तो तय्यार रहता है,
मेरी माँ का सिन्होरा,
और राशन कार्ड से कट जाता है
अफीमची का हरेक ब्यौरा,
पर नहीं कटता,
न ही घटता है,
अफीम का अपना जहर,
अफीमची के बाद भी रहता है मेरे नाम पर उसका असर..
तुम्हारी आँखों के ज्यामितीय बॉक्स में
तुम्हारी आँखों के ज्यामितीय बॉक्स में,
मेंरे जिस्म के जंगल से
तुम्हारी रूह की राजधानी तक के सफर के लिए,
बिछी हैं प्रेम की पटरियाँ
जिस पर सरपट दौड़ने के लिये तय्यार खड़ी है
अपनी जिन्दगी की रेल
मैं साथ लाऊंगा जंगलों से अपना जंगलीपन
जिसको एक सम्बन्धे चार सम्बन्धे तीन के अनुपात में विभाजित कर देना तुम
उछाल देना जरा आसमान में
'चाहत का चांदा'
अपनी आँखों से
जिससे मेरे चीड़ सरीखे लम्बें हाथों को,
सलाम दुआ करने आ जाए,
मेरे शाल सरीखे सीने पर
अपनी पलकों के पेंसिल से
आसुओं का रेखा चित्र अंकित कर देना,
जिसका अनुवाद करने को मेरा जड़-चेतन
परत दर परत पन्नों में तब्दील होने लगे,
मेरी जंगली झील की पुतरी पर
रख देना अपनी कल्पना का कम्पास
जिससे अपनी दृष्टि के अक्ष पर
घूम सकूँ 360
अंश
निकाल सकूं मथ कर
खुद का जीवन वृत्त
ऐसा करते अनायास ही
मेंरे ख़ुर पंजों में
लपलपाती जुबान जीभ में
खाल कपड़े में परिवर्तित हो जाएगा
और जंगली बू-बास
खो जायेगा
तुम्हारी आंखो के ज्यामितीय बाक्स में
क्यों चला हूँ मैं अधर में...
देह पर अब छप रहे है
दाग बन कर के पसीने
क्यों चला हूँ मैं अधर में
एक मुट्ठी आग जीने?
क्या चरण को दे न पाया
ओस से सीझा हुआ पथ?
चल न पाया हाथ में ले
दो घड़ी मैं इंद्र का रथ?
क्या पटल को छू न पाया
मैं उषा को ध्यान में ले?
छुप न पाया दो हथेली
में किसी को वचन दे के?
क्या किसी अज्ञात की मैं
कामना में पड़ गया हूँ?
क्या सभी की पुतलियों में
तीर जैसा गड़ गया हूँ?
फिर ये उठ-उठ गिर रहा क्या
यवनिका सा मेरे सीने?
क्यों चला हूँ मैं अधर में
एक मुट्ठी आग जीने?
वक्त था उठ कर मैं हर दिन
दौड़ आता ग्रह-पथों से
बैठ कर अलकें बनाता
मत्तप्रभंजन के रथों से
वारुणी की धार से धरती का
आतप दुःख मिटाता
रात भर मैं आसमां में
सिगरेटों की कश लगाता
बाटता फिरता सभी को
ग्रह-नक्षत्रों की जमीनें
जिस सभा में खड़ा होता
बदल जाता सनसनी में
पर मेरे अब भाव जिर्णीत
शब्द भी हो चले झीने
क्यों चला हूँ मैं अधर में
एक मुट्ठी आग जीने?
दुःख से इतना त्रस्त हूँ मैं
हर कदम पर अस्त होना
चाहता हूँ चषक-चर्बी-
में समूचा व्यस्त होना
काटता हूँ हर घड़ी जैसे
फसल इस्पात की हो
सोचता हूँ उम्र भर अपनी
कहानी रात की हो
उग के सूरज व्याधि न दे
चमक चंदा की गड़े ना
सुर्ख आंखों पर धवल
बादल का नम आंचल पड़े ना
अब नहीं अवशेष हैं कुछ
कह चुका सब कुछ कवि ने
क्यों चला हूँ मैं अधर में
एक मुट्ठी आग जीने?
कांट्रेक्टर
खारिज करता हूँ मैं
इस दुनिया में मजदूरों को ले कर
रचे गए शब्द-विन्यास की पोथियों को
जहां कोलाहल के कारतूस सांत्वना के फूल से
ढक दिए गए
खारिज करता हूँ मैं
उन तमाम पतलून पहने नायक-नायिकाओं को
जिनकी प्रतिमाओं के सामने हमारे फेफड़े और बाजुओं का प्रयोग
नारों के गुब्बारे उड़ाने के लिए किया गया
खारिज करता हूँ मैं
उन तमाम राग-रागिनियों को
जिनकी धुनों से एक हल्की मरोड़ भी तानाशाहों की आंतों में उमड़ न पाई
खारिज करता हूँ मैं
तर्कों के उन विशालकाय कारखानों को
जिनकी कसौटियों पर हमारे उपभोग के लिए
उत्पादन स्वरूप अंतरिक्ष यान कसे गए
जो हमारी तश्तरियों से उड़े और उड़न तश्तरी बन गए
मैं विज्ञान के विशेष ज्ञान को
स्वरों के सातों आसमान को
नारों में नायक स्थान को
कवियों के समूचे खानदान को
खारिज कर के
ठेकेदारी की प्रथा के खिलाफ
एक अर्जी दायर कर रहा....
मैं सृष्टि में एक भी ठेकेदार नहीं चाहता
मालिक के सर्वेंट
ठर्रा पीकर किये जा रहे जय श्रीराम का चैंट
दोनों हाथ में कट्टा ले कर मालिक के सर्वेंट
मालिक जिसको लाश चाहिए खून चाहिए ताजा
मालिक जिसके जेहन में बजता चंडी का बाजा
मालिक जो गूंगा है पर करता गंगा से कुल्ला
रोरी-भांग-भभूत छाप कर डरा रहा है मुल्ला
सुबह-शाम वर्जिश करता है शाखाओं में जा कर
व्रत की पैरोकारी करता शिशु का अंग चबा कर
वीर्यव्रता का गायन करता डीजे की धड़कन पर
रामलला का सेवन करता हर चुनावी अनशन पर
आंखों में उसके नाजी का नायक इतराता है
होंठो से लेकिन वह गांधी-गौतम को गाता है
उसकी भी अपनी पीड़ा है दंगा तो होगा ही
उसी बेबसी के स्यंदन पर नंगा तो होगा ही
नंगा होगा दंगा होगा क्योंकि वह मालिक है
शुभ्रज्योत्सना के लिलार पे लगा हुआ कालिख है
इस कालिख में रंगे विधायक-अफ़सर सब बाबा है
शीघ्रपतन के दीवारों में चला रहे ढाबा है
तुम भी जाओ खाओ-पियो मालिक के सर्वेंट
भूखे कहीं उतर न जाए डेनिम वाली पैंट
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
लगभग सभी कविताएँ आर्य सुना चुके हैं। आर्य भारत अच्छी कविताएँ लिखते हैं और पढ़ते हैं। बहुत बहुत बधाई...💐
जवाब देंहटाएंआर्य शब्दों के माध्यम से संवेदनाओं को झकझोरने का कार्य करते हैं...बहुत उत्कृष्ट लेखन है आपका।
जवाब देंहटाएंनक्सली की प्रेमिका एक कविता है इनकी वो नहीं है इसमें
जवाब देंहटाएंआर्य भाई बहुत अच्छी कविताएं लिखते हैं और लगभग सब हमने सुनी है और कुछ पढ़ी हुई है उनके अंदर एक आग है जैसे
जवाब देंहटाएंसुंदर कविताएं
जवाब देंहटाएं