अचिन्त्य मिश्र की कविताएं

 

अचिन्त्य मिश्र

 

 

अचिन्त्य अभी गोरखपुर विश्वविद्यालय के बी.. प्रथम वर्ष के विद्यार्थी हैं। अचिन्त्य के परिवार की पृष्ठभूमि हिंदी और संगीत के क्षेत्र की रही है। ऐसे में इन्हें थोड़ा बहुत लिखने की विरासत प्राप्त है।

 

 

कहाँ, क्या, कौन, कैसे, क्यों, किसलिए यह सोचना मनुष्य की फितरत है। इन फितरतों के चलते ही मनुष्य गल्प की तरफ मुडा और इस तरह मिथकों का आविर्भाव हुआ। चिंतन-मनन को जब वैज्ञानिक रुप मिला तो तर्क को बल मिला। लेकिन कवि की सोच पर कभी कोई लगाम नहीं लगा पाया। वैज्ञानिक सोच से अलग होते हुए, कल्पनात्मक उडान भरते हुए भी कवि के पांव अपनी जमीन और अपने समय के पास होते हैं। अचिंत्य मिश्र नवोदित कवि हैं। इनकी रचनाओं को पढते हुए हम आश्वस्त हो सकते हैं कि भविष्य का एक बेहतरीन कवि इनमें छिपा हुआ है। आइए आज पहली बार पर पढते हैं अचिंत्य मिश्र की कविताएं।

 


 

 

अचिन्त्य मिश्र की कविताएं

 

 

 

सभ्य लोग

 

 

कभी ख्याल किया है

इन पेडों पर

कब सोते हैं ,

कब जगते हैं ,

कैसे बोलते हैं ,

कैसे बड़े होते हैं..

इस नितांत प्रक्रिया पर 

विश्वास करना करना 

 

 

बराबर है 

ऐसा शांत सरल चित्त 

जो हमेशा कुछ देता ही है

बिना भाषा सीखे

बिना स्कूल गए

बिना हमारी तरह सभ्य हुए 

 

 

कभी कभी सोचता हूँ

कुछ सोचना ही बेकार है

क्योंकि गहरी सोच में हमेशा

आदमी सबसे निचले पायदान पर

नजर आता है 

अपनी सोच

इतिहास

और सभ्यता लिए।

 

 


 

सुर का जन्म

 

 

नीले आसमान में

किसी दिन 

पहली बार

ध्यान से सुन लिया होगा

किसी ने चिड़िया को



ऊँचे पहाड़ के सफर पर

सुन लिया होगा किसी ने

जोर से बहते झरने को

 

 

देर रात किसी ने सिर्फ

ध्यान दिया होगा 

अपनी इंद्रियों पर

और कर दिया होगा अपना

दिन उनके नाम 

और लीन हो गया होगा

 

 

तभी सुर ने जन्म लिया होगा।

 

 

 


 

कैसे बदल जाता है!!

 

 

जब जब एकान्त में उतरता हूँ

तो मेरे साथ मस्तिष्क भी चला आता है 

जो दिन भर मुझसे ज्यादा सफर कर लौटता है

मुझसे ज्यादा दुनिया को देख रहा होता है 

ज्यादा सुनता है, हमारे कानों से 

हमारे स्वभाव से कहीं अलग होता है।

 

 

एकान्त हमसे क्या कहता है ?

शांति से आत्मचिंतन करो

या चित्त को शांत करो।

 

 

हमारा एकान्त 

हमे अकेला नहीं छोड़ता 

और फिर यह अवस्था स्वयं 

कविता का रूप ले लेती है 

जो तेज़ नहीं होती सड़क पर चलती गाड़ियों की तरह

जो आवाज़ नहीं करती नाचते पंखे की तरह 

और फिर मैं अकेला नहीं रह जाता

 

 

जैसे भोर का अंधकार धीरे-धीरे 

उजाले में बदलता है 

वैसे ही एकान्त कैसे कविता में 

बदल जाता है !

 

 

 

दिहाड़ी मज़दूर

 

 

और फिर वे मेहनत कर

लौट जाते हैं अपने घर,

दिनचर्या उनकी शताब्दियों से 

ऐसे ही चली रही है,

अंत मुश्किलों की खाई में 

और शुरुआत पहाड़ों की चोटी से गुजरती 

किसी तरह खड़ी है

मैं इन्हें देखता हूँ

और कविता भूल जाता हूँ।

 

 

  (इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)

 

 

सम्पर्क

 

नलिनी निवास

दाऊदपुर, बिलन्दपुर

गोरखपुर 273001

 

फोन : 7565988895

 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं