बतूल हैदरी की कहानी ‘खुर्शीद खानम उठो और जगमगाओ’।
श्रीविलास सिंह |
[बतूल हैदरी काबुल विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान पढ़ाती हैं और अपने पति तथा तीन बच्चों के साथ काबुल में रहती हैं। उनकी कहानियां स्थानीय अखबारों में छपती रही हैं। कुछ कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद भी हुआ है। एक कहानी का फ्रेंच में अनुवाद हुआ है और वह खोजस्ते इब्राहीमी के संग्रह में सम्मिलित है। प्रस्तुत कहानी ‘वर्ड्स विदाउट बॉर्डर्स’ के दिसंबर, 2020 अंक में प्रकाशित हुई थी। वहां सुरक्षा कारणों से लेखिका का नाम नहीं दिया गया था।]
हर पिता की यह दिली इच्छा होती है कि उसकी संतान आगे बढे और अपने साथ-साथ अपने परिवार का नाम भी रोशन करे। लेकिन कट्टरपंथी समाज महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक मानता है जिसे एक महिला होने के नाते वे अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते जो आमतौर पर पुरुषों को प्राप्त होते हैं। अफगानिस्तान ऐसा ही देश है जहाँ की सत्ता हाल ही में वहाँ की कट्टरपंथी तालिबान सरकार ने सम्भाली है। परिवार में, खासतौर पर पति और पत्नी के बीच जब किसी वजह से अलगाव होता है, तो यह त्रासद होता है। स्मृतियां किसी भी वक्त अतीत में खींच ले जाती हैं और काफी मायनो में वे यंत्रणादाई होती हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है बतूल हैदरी की कहानी ‘खुर्शीद खानम उठो और जगमगाओ’। हैदरी की इस कहानी का मूल दारी से अंग्रेजी अनुवाद परवाना फैयाज ने किया है। अंग्रेजी से इसका अनुवाद किया है जाने माने अनुवादक और कवि श्रीविलास सिंह ने।
ख़ुर्शीद ख़ानम, उठो और जगमगाओ
बतूल हैदरी
(दारी से अंग्रेजी अनुवाद : परवाना फैयाज)
हिंदी अनुवाद : श्रीविलास सिंह
उसने फोन मिलाया किन्तु किसी ने उत्तर नहीं दिया। उसने पुनः पुनः नम्बर मिलाया। वह सारे दिन फोन मिलाता रहा किन्तु वह बस बजती हुई घण्टी के अतिरिक्त कुछ न सुन सका। वह स्मरण नहीं कर सका कि कब आखिरी बार वह इतने लम्बे समय के लिए घर से बाहर रही थी। उस ने अनुमान लगाया। हो सकता है ख़ुर्शीद बीमार हो। हो सकता है किसी कारणवश वह उसके फोन का जवाब दे पाने में असमर्थ हो।
आखिर में किसी ने रात के नौ बजे के आसपास फोन का जवाब दिया। वह सांस नहीं ले सका जब उसने उसे "हेलो" कहते हुए सुना।
जब वह काबुल में छात्र था और आलिया से उसकी सगाई हो चुकी थी, वह उसे फोन कर के चुपचाप उसके वार्तालाप शुरू करने की प्रतीक्षा किया करता था। वह उसके हृदय के स्पंदन को सुनना चाहता था। वह अपनी रूटीन हर बार दोहराता, फोन करता और कभी भी पहले न बोलता। आलिया समझ गयी थी, इसलिए हेलो कहने की बजाय वह धीरे धीरे हँसती और पूछती, "सुलेमान, क्या तुम हो?"
फोन उठाने वाली स्त्री हँसी नहीं। उसने व्यंग से पूछा कि क्या उसके पेट में दर्द है जो वह बात नहीं कर पा रहा है। आँसू उसकी आँखों में सूख गए। उसे स्मरण नहीं हुआ कि आलिया ने कभी इतनी कठोरता से फोन का जवाब दिया था।
उसे याद है कि कुछ समय तक एक 'घोस्ट कालर' उनके घर फोन किया करता था। वह फोन करता लेकिन फोन उठाने पर चुप रहता। सुलेमान उस पर कुछ अवसरों पर चिल्लाया भी, लेकिन वह व्यर्थ सिद्ध हुआ और वह उसकी चुप्पी तोड़ पाने में असफल रहा। आलिया इस विचार की थी कि कभी कोई अपशब्द नहीं कहा जाना चाहिए भले ही फोन करने वाला सैकड़ों बार फोन करे और कुछ न कहे।
इस बार उसने नहीं कोसा। उसने कहा था "क्या तुम्हारे पेट में दर्द है?" जब फोन कट गया तो उसने फिर नम्बर डायल किया। इस बार उसके हाथ नहीं कांप रहे थे। वह कस कर नम्बर दबा रहा था।
फोन पर आई महिला ने जोर से कहा, "हेलो"। एक गहरी सांस लेने के पश्चात उसने पूछा, "क्या आलिया वहाँ है?"
उसे समझ में आ गया कि वह स्त्री आलिया नहीं हो सकती थी। उसने हेलो शब्द को खींच कर बोला था, जोर से बोला था, और आलिया ने दोनों ही बातें कभी नहीं की थी।
उसने राहत की सांस ली जब उस महिला ने कहा,
"नहीं, तुमने गलत नम्बर डायल किया है।"
किन्तु ज्यों ही उसने फोन नीचे रखा, उसने स्वयं से पूछा कि क्या यह बात सही हो सकती थी। नहीं--सवाल ही नहीं था कि उसने गलत नम्बर डायल किया हो। उसे इस बात के लिए स्वयं पर विश्वास महसूस हुआ। उसने फिर फोन मिलाया और इस बार महिला से विस्तार से बात की। उसने अपना परिचय आलिया के दूर के रिश्तेदार के रूप में दिया जो दूर से उससे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे पर बात करने आया था।
जब महिला को विश्वास हो गया कि यह कोई बकवास फोन कॉल नहीं है तो उसने स्पष्ट किया कि उन्होंने मकान को उस परिवार से तीन वर्ष पूर्व खरीदा था। उसने परिवार का नाम पूछा और महिला ने जवाब दिया,
"अकबरी, ज़रगाम अकबरी।"
कोई संदेह न छोड़ कर, उस ने फिर पुष्टि की,
"इंजीनियर अकबरी।"
वह नहीं जान सकती थी कि दूसरे सिरे पर फोन करने वाला बेहोश होने वाला था। उसने 'आलिया के दूर के रिश्तेदार' से बात करना जारी रखा, यह बताते हुए कि यद्यपि वह नहीं जानती कि परिवार ठीक-ठीक कहाँ रहता था लेकिन वह इतना जानती थी कि वे 'चौक-ए-गुल-हा में रहते थे जो कि एक पॉश इलाका था।
सुलेमान ने थूक निगला और महिला से पूछा कि क्या वह निश्चित है कि इंजीनियर अकबरी की पत्नी का नाम आलिया था। महिला ने हँसते हुए पुष्टि की और आलिया की बड़ी बेटी का उल्लेख किया, ख़ुर्शीद।
"बहुत अच्छी लड़की," उसने कहा। "मैं उसे अपनी बहू बनाना चाहती थी, किन्तु भाग्य को मंजूर नहीं था। वह विश्वविद्यालय में पढ़ती थी और मेरा बेटा ऐसी पत्नी नहीं चाहता था जो विश्वविद्यालय में पढ़ती हो।"
सुलेमान को तेजी से पसीना होने लगा जब उसने महिला को गहरी सांस ले कहते हुए सुना, "दुनिया कहाँ पहुँच गई है? एक शहीद की बेटियाँ विश्वविद्यालय जा रहीं हैं…"
वह समझ नहीं सका। उसने कठिनाई से पूछा, "शहीद की बेटी? कौन शहीद?"
महिला जो किसी को बात करने के लिए पा कर आनंदित थी, जारी रही, "तुम किस तरह के पारिवारिक सदस्य हो मेरे भाई, यदि तुम्हें यही नहीं पता है?" उसने कहा।
उसने स्पष्टीकरण देना चाहा लेकिन उसकी आवश्यकता के पूर्व ही महिला ने टोक दिया, "मैं अधिक नहीं जानती। उसके पड़ोसी कहते थे कि वह शहीद की बेटी थी। उसकी माँ ने अपने पति को खो दिया था और दो वर्ष पश्चात उसने अपने पति के एक साथी, एक आर्किटेक्ट से विवाह कर लिया था। अल्लाह ने कृपा कर के उसे एक और बच्चा दिया था। जब हमने मकान खरीदा, तब उसने बच्चे को जन्म दिया ही था। एक खूबसूरत बच्चा जिसका नाम सुलेमान था।"
वह सांस नहीं ले सका। वह भुनभुनाया, "सुलेमान।" फिर उसने फोन काट दिया।
वह भौंचक्का अपने हाथ के फोन को घूरता रहा। वह विश्वास नहीं कर सकता था कि उसकी पत्नी ने दूसरा विवाह कर लिया था। कि नन्ही ख़ुर्शीद विश्वविद्यालय की छात्रा थी। कि उसे शहीद सोचा जाता था। कि उसका मित्र ज़रगाम अब आलिया का पति था। कि उन्होंने अपने बेटे का नाम उसके नाम पर रखा था। उसे अपने गले में पीड़ा की अनुभूति हुई और उसने अपने होंठ भींच लिए।
*
अगले दिन वह बिस्तर से उठा और खिड़की खोल दी। इस बात के छः साल हो गए जब वह पकड़ा गया था। उसने पानी का जग उठाया और उसी से पानी पीने लगा। पानी उसके सीने पर बिखरता रहा। शेष जल उसने अपने सिर पर उड़ेल लिया और फिर से बिस्तर में चला गया। उसने सोचा, काश उसने अपनी जबान बंद रखी होती--और अपनी पत्नी के बारे में ज़रगाम से कभी बात न की होती, कभी उसका वर्णन न किया होता। उसने अपने भूरे होते जा रहे बालों में उंगलियां फिराई। वह खुश था कि वह अपना घर देखने नहीं गया-- सारे पड़ोसी उसे पहचान जाते। उसने अपनी आंखें बंद कर ली, उसके गले में कुछ अटक सा गया। फिर वह खड़ा हुआ और उसने फोन को घूरा। उसने फिर से वही फोन नम्बर डॉयल किया और फिर उसी चीखती सी महिला ने जवाब दिया।
“तुमने फोन काट क्यों दिया था, भाई ?” उसने पूछा। बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये, वह जारी रही, “मैंने अकबरी के पुराने पड़ोसी मिसेज साबरी को फोन किया था यह बताने के लिए कि अकबरी के रिश्तेदार ने फोन किया था। वह भी ठीक ठीक नहीं जानती कि वे कहाँ रहते हैं। बस इतना बताया कि वे चौक गुलहा में रहते हैं, जैसा कि मैंने कहा था। लेकिन उन्होंने बताया कि आलिया हर शुक्रवार शहीदों के कब्रिस्तान जाती है, पहाड़ी पर स्थित अज्ञात शहीदों का कब्रिस्तान।
“उनके साथ एक वृद्ध महिला रहा करती थी। क्या आप जानती हैं कि उनका क्या हुआ --” महिला बीच में ही बोल पड़ी, “ क्या तुम बीबी जान की बात कर रहे हो ? जब मैं उनकी पड़ोसी थी तब वे बीमार रहा करती थीं। वे बोल नहीं सकती थी। पड़ोसी कहा करते थे कि जब उन्होंने अपने बेटे के शहीद होने की खबर सुनी, उन्हें दौरा पड़ गया था। बेचारी एक साल बाद चल बसीं।”
एक बार जब बात पूरी हो गयी महिला ने फोन रख दिया। सुलेमान अपने पास की किसी चीज पर झुक गया और जोर जोर से रोने लगा।
उस समय सुबह हो चुकी थी जब उसने अपनी ऑंखें खोली।
गुरुवार को वह टहलता हुआ शहर की ओर गया। वह उन सब जगहों पर गया जहाँ पहले वह आलिया और ख़ुर्शीद के साथ गया था। पुरानी स्मृतियों को फिर से जी लेने को वह उन जगहों पर बैठा रहा जहाँ वे कभी एक परिवार के रूप में बैठे थे।
शाम को वह अपनी दाढ़ी साफ करवाने गया। जब नाई ने उसकी गर्दन पर टेढ़े मेढ़े बालों को कटाने के लिए क्लिपर चलाया, उसने अपने को अस्थिर सा महसूस किया। उसे याद आया कि उनकी सगाई के बाद आलिया ने कहा था कि वह नहीं चाहती कि वह अपनी दाढ़ी साफ कराये क्योंकि स्त्री की सुंदरता उसके लम्बे बालों में होती है और पुरुष की सुंदरता और मर्दानगी उनकी दाढ़ी और मूछों में। जब उस ने पहली बार दाढ़ी बढ़ाई थी तो उस ने आलिया की आँखों में एक चमक सी देखी थी। उसने उसकी तारीफ की थी कि दाढ़ी उसे अच्छी लगती थी और वह किसी देवदूत जैसा लगता था।
उसे आलिया का चित्र बनाना याद आया। उन दिनों वह फरिश्तों के चित्र पर काम कर रही थी; वे सभी लम्बे बालों वाले पुरुष थे। उसके याद दिलाने पर कि कई स्त्री देवदूत भी थी, उसने अनसुना कर दिया था। जब चित्र पूरा हो गया, आलिया ने उसे लपेटा और उसको उपहार में दे दिया।
अब सुलेमान की दाढ़ी साफ हो चुकी थी। बस मूछें बची हुई थी। उसने उन्हें छुआ। जब नाई ने कई बार पूछा कि क्या वह मूछें भी साफ कर दे, सुलेमान ने ऊपर देखा और पूछा, “क्या तुम्हारे विचार से मूछें मुझ पर ठीक लगेंगी?” नाई ने कपड़ा हटाया, उसकी पीठ थपथपाई और कहा, “बिना मूछ का आदमी असली आदमी नहीं होता।” सुलेमान हँसा और शीशा देखने के लिए उठ गया। वह अपने आप को ही पहचान नहीं पाया।
*
वह अगली सुबह जल्दी ही कब्रिस्तान के लिए चल पड़ा। सुरक्षा कार्यालय बंद था। कुछ घंटे बीत गए। वह अपने सिर के नीचे एक छोटा झोला रखे विलो के वृक्ष के नीचे, झुकी हुई शाखाओं को देखता, लेटा हुआ था। इस वृक्ष को पाने के लिए उसने काफी खोज की थी।
और अब उसके पास अज्ञात शहीद की कब्र को स्वयं खोजने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। बहुत गहनता से तलाश करने के पश्चात् भी वह अपना नाम नहीं खोज पाया, इसलिए वह कार्यालय के खुलने की प्रतीक्षा करने लगा।
जब अटेंडेंट आया तो सुलेमान ने उसे नाम और उपनाम बताया। अटेंडेंट ने कहा कि वे इस सुलेमान की अंतेष्टि के लिए शहीदों वाले क्षेत्र में एक भू खंड देना चाहते थे लेकिन उसकी बेटी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसका नाम लापता लोगों में लिखा जाये। इसलिए उसके नाम का कोई पत्थर नहीं था। “वह यहाँ हर शुक्रवार आती है - अकेली या फिर अपनी माँ के साथ। वे पहले यहाँ आती हैं फिर शहीदों की कब्रों पर जाती हैं। वह मेरे कार्यालय में भी आती है। वह पूछती है कि क्या कोई उसके अब्बा के सम्बन्ध में पूछ रहा था। वह हमेशा यह सवाल पूछती है। ऐसे परिवारों की कोई कमी नहीं है जो अपने लापता प्रिय जनों के बारे में जानने को उत्सुक हैं, इसलिए उनकी राहत के लिए हम उन्हें किसी जीव की हड्डी सैनिकों, जो वर्षों से लापता हैं, के पार्थिव अवशेष बता कर दे देते हैं।”
सुलेमान के हाथ ठण्डे थे और वह साँस नहीं ले पा रहा था। उसने आँखें बंद की और अपनी कब्र अथवा संभवतः स्वयं की तलाश में जाने से पूर्व उसका धन्यवाद दिया। विलो की घनी पत्तियों के बीच से हो कर ठंडी हवा का एक झोंका तेजी से गुजरा। उसे फिर उसकी लटकी हुई शाखों के मध्य रास्ता मिल गया।
वह वहाँ अपने पांव अपनी छाती से लगाए और अपने घुटनों पर अपनी ठुड्ढी रखे बैठा था। सूरज कब्रों पर से सुबह की परछाइयों को हटाने के लिए ऊपर चढ़ गया था। बारिश की गंध और जंगली बीजों के जलने का धुँआ तथा यदा कदा आती प्रार्थना की आवाज हवा में भरी हुई थी। धीरे धीरे उसके आसपास लोग दिखने लगे थे। उसे वह दिन याद आया जब वे खुर्शीद को अस्पताल से ले कर घर आये थे। बी बी जान निराश सी हो गयी थी जब उन्होंने सुना कि वह लड़की थी। लेकिन सुलेमान बहुत अधिक प्रसन्न था। उसने उसे अपने सीने से लगा लिया और आलिया से पूछा कि उसने उसका क्या नाम रखा था। आलिया ने ना में सिर हिलाया। तब उसने बच्ची के चहरे को चूम लिया और कहा, “मैं खुद इसका नाम रखूँगा। यह अपने पिता की ख़ुर्शीद होगी, अपने पिता का सूरज।”
जब ख़ुर्शीद बड़ी हुई तो वे इतनी जोर जोर से कविताएं पढ़ते कि आलिया को उन्हें चुप रहने को कहना पड़ता। वे एक दूसरे का हाथ पकड़ कर बगीचे में गमलों से घिरे पूल के किनारे टहलते। “ख़ुर्शीद ख़ानम, उठो और जगमगाओ। अपने अब्बा को सुप्रभात कहो, ख़ुर्शीद ख़ानम,” सुलेमान गाता।
*
वह जहाँ खड़ा था वहीं स्थिर खड़ा रहा। उसने अपने हृदय की धड़कनों को धीमा होते महसूस किया। वह अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सकता था। यह वो ही थी - आलिया। वह साँस नहीं ले पाया। वह अविश्वास से पलकें झपकाता रहा। फिर उसने अपने को व्यवस्थित किया। “आखिर तुम आयी ही,” उसने सोचा। वह आलिया थी और उसके साथ उसी की कद काठी की एक लड़की थी, सिर पर हिजाब बांधे मुस्कराती हुई। वह आलिया से कंधे से कन्धा मिला कर चल रही थी। “ये वही हैं, ये वही होनी चाहिए, आलिया और अपने पिता की ख़ुर्शीद ख़ानम,” उसने अपने आप से कहा।
वह पेड़ के तने के पीछे छुप गया और बैग को अपने चहरे के सामने कर लिया ताकि पहचाना न जा सके। “वह बड़ी हो गयी है,” उसने स्वयं से कहा।
खुर्शीद ने अपने बैग से कुछ निकाला - खजूर का एक पैकेट। उसके बाल उसके हरे हिजाब के नीचे से दिखाई पड़ रहे थे। वह आने जाने वालों को मीठे खजूर बाँट रही थी। वह अस्वाभाविक रूप से आलिया से मिलती जुलती थी। उसे देख कर उसे उसकी माँ की याद आ गयी जब वे पहली बार मिले थे।
ख़ुर्शीद एकाएक रुक गयी मानों किसी ने उसका नाम पुकारा हो। एक आदमी और एक छोटा लड़का उसकी ओर आ रहे थे। आलिया ने लड़के को पुरुष की बांहों से ले लिया। जरगाम पहले से बूढ़ा हो गया था, एक पुरुष जैसा कि वह कहा करता था। उसके बाल भूरे हो गए थे।
सुलेमान का दिल टूट गया था और वह जोर जोर से सांसें ले रहा था। आलिया उस आदमी के साथ चली गयी। ख़ुर्शीद भी चली गयी। सुलेमान ने महसूस किया मानों वह छिन्न-भिन्न हो रहा था। वह जमीन पर गिर पड़ा। उसने विलो के पेड़ के नीचे की मुलायम मिट्टी में अपना चेहरा छुपा लिया और जोर से विलाप करने लगा। उसने अपनी मुट्ठियों में मिट्टी भर ली और चीखा। वह चाहता था कि उसकी सांसें वहीं तत्काल थम जाएँ। वह चाहता था कि उसका ह्रदय उसकी धमनियों में रक्त संचार तत्काल बंद कर दे। आँसुओं का सैलाब उसकी आँखों से होता उसके बिना दाढ़ी के झुर्रीदर चेहरे पर बह रहा था। वह अपना चेहरा उठा कर बार बार जमीन पर मारता रहा। वह उन्हें नहीं खो सकता था।
उसके घुटने उसके आँसुओं से भीग गए थे। आलिया जा चुकी थी। जरगाम और छोटा बालक भी जा चुके थे। कोई जो आलिया जैसी दिखती थी, अटेंडेंट के कार्यालय की ओर जाती हुई सी लगी। हवा उसका स्कर्ट उड़ा रही थी। वह कितनी तेज चल रही थी। यह निश्चय ही ख़ुर्शीद होनी चाहिए। वह अटेंडेंट से सवाल पूछेगी - वही पुराना सवाल।
सुलेमान तुरंत खड़ा हो गया। उसने अपना बैग उठाया, अपनी मुट्ठियां भींची और अटेंडेंट के कार्यालय की ओर चल पड़ा। उसके कदम सुस्त थे और पैर कांप रहे थे। वह सोच रहा था जैसे वह उन सब को अपने पीछे घसीट रहा था। ख़ुर्शीद खड़ी थी। कार्यालय वाला आदमी फोन पर व्यस्त था। ख़ुर्शीद ने अभी अपना सवाल नहीं पूछा था। सुलेमान भी वहीं था और आश्चर्य से सोच रहा था कि वह उसे खो सकता था अथवा नहीं। आँसुओं ने उसका पूरा चेहरा धो दिया था। वह ख़ुर्शीद को नहीं खो सकता था, और ऐसा नहीं चाहता था। वह तेज चलने लगा और अब लड़की के पास पहुँच गया था। वह ठीक उसके पीछे था, धीरे धीरे साँस लेता हुआ। अटेंडेंट की फोन पर बात समाप्त हो गयी और उसने ऊपर देखा। लड़की ने अटेंडेंट से पूछा, “एक्सक्यूज मी, अंकल क्या कोई मेरे अब्बा की कब्र के बारे में पूछने आया था?” जब उसने लड़की के प्रश्न का उत्तर देना शुरू किया, उसकी दृष्टि सुलेमान पर टिकी हुई थी।
*****
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
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