स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी' का आठवां खण्ड
स्वप्निल श्रीवास्तव |
सिनेमा का सौन्दर्य बोध जमाने के साथ-साथ बदलता रहा है। इस क्रम में न केवल सिनेमा का कथानक बदला, बल्कि गीत-संगीत भी बदला है। अभिनय के प्रतिमान और तरीके भी बदले हैं। शेक्सपियर ने कभी कहा था यह जीवन एक रंग मंच है। यहाँ हम आते हैं और अपनी भूमिकाएं निभा कर चले जाते हैं। शेक्सपियर के इस कथन में रंग मंच की जगह सिनेमा कर दिया जाए तो भी बात मुकम्मल हो जाती है। बहरहाल सिनेमाबाज को अपनी नौकरी के दौरान मीठे के साथ साथ कई खट्टे अनुभव भी हुए। अपने बॉस की कई ऊल जुलूल पसन्दगियों का शिकार बनना पड़ा। नौकरी को अच्छी तरह निबाह लेना भी कम दुष्कर कार्य नहीं। यह दुष्करता समय के साथ लगातार बढ़ती ही गयी है। हम सब इससे दो चार होते रहते हैं। माफ़ियाओं ने न केवल राजनीति और समाज को प्रभावित किया बल्कि इसने सिनेमा को भी गहरे तौर पर प्रभावित किया। माफियाओं के जीवन को लेकर कई फिल्में सामने आईं। इसी समय आतंकवाद ने अपने पांव पसारे और इसे केन्द्र में रख कर कई महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाई गईं। इन फिल्मों के सहारे हिंसा और मार धाड़ हिन्दी फिल्मों के अंग बनते चले गए। इसने भी लोगों का स्वाद बदला। अब तो शायद ही ऐसी कोई फ़िल्म बनती हो, जिसमें हिंसा न हो। पहली बार पर सिनेमाबाज का सफर अपने रोचक अंदाज़ में लगातार जारी है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है : एक सिनेमाबाज कहानी का आठवां खण्ड।
एक सिनेमाबाज की कहानी - 8
स्वप्निल श्रीवास्तव
॥छबीस॥
मुम्बई की खुशगवार यादों के साथ जब मैं महराजगंज लौटा तो अवाक रह गया। सहायक ने बताया कि जिस दिन आप मुम्बई के लिए निकले थे, उसके दो दिन बाद उन्होंने आपकी जगह जिले का चार्ज दूसरे अधिकारी ने ले लिया था। यह मेरे साथ बड़ा धोखा था, अभी मुश्किल से मेरे एक साल भी नहीं बीते थे कि वे सज्जन टपक पड़े। जिस मकान को मैं चपरासी के भरोसे छोड़ कर गया था, वे उसी में रह रहे थे। चपरासी के पास मकान की चाबी थी – वह उससे यह कह कर चाबी ले ली कि उससे ज्यादा मकान की रक्षा कौन कर सकता हैं। इससे ज्यादा बेहया और निर्लज्ज आदमी कौन हो सकता था। चोर मेरे घर में ही रह रहा था। मुझे क्या पता था कि मैं छुट्टी पर जाऊंगा और लौटने के बाद, उस पर दूसरे का कब्जा हो जायेगा।
बहरहाल उस समय वे दो दिन की छुट्टी पर थे। मेरा तबादला मिर्जापुर कर दिया गया था। जब मैं प्रभारी के पास पहुंचा तो उन्होंने कहा – छुट्टी बढ़ा लो और तबादला रूकवाने की कोशिश करो। मैं अभी अपनी छुट्टी की यादों का उत्सव मना नहीं पाया था, दोस्तों से उस यात्रा की दास्तान कहीं नहीं थी कि बीच यह हादसा पेश आ गया। जो आदमी मेरी जगह आया था, उसे यह तो सोचना ही था कि अभी मुझे इस जिले में आए हुए साल भर भी नहीं बीते हैं, वह मुझे हटा कर मेरी कुर्सी पर बैठ चुका था। अब इस जिले में लौटना मेरे लिए जीवन–मरण का सवाल बन गया था।
मुझे ख्याल आया कि मुझे उन कारसेवको की मदद लेनी चाहिए जो विधायक और मंत्री बन चुके थे, उसमें से एक विधायक से मिल कर अपनी राम कहानी बयान की, उन्होंने मेरे सामने अपने लेटर–पैड देते हुए कहा - आप मेरी ओर से जो चाहे उसे टाइप करवा लें, मैं दस्तखत कर दूंगा। उनकी यह दरियादिली मुझे बहुत अच्छी लगी। उन्होंने हस्ताक्षर कर दिये और उसे वित्त मंत्री के पास भिजवा दिया और यह भी कहा कि इन्होंने कारसेवको की बड़ी मदद की है। मैं पुन: उस जनपद का इंचार्ज बन गया, वह आदमी अपना सा मुंह ले कर रह गया।
हम सब ऐसे समय में रह रहे थे जिसमें दोस्तों–दुश्मनों की पहचान बहुत मुश्किल हो गयी थी, विभाग में इसका कुरूप चेहरा देखने को मिला। लोग किस तरह दूसरों के कंधों पर चढ़ कर आगे बढ़ जाते थे, इसके कई उदाहरण मेरे सामने थे। प्रमोशन योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि एक नेटवर्किंग के जरिए मिलते थे। लोग अपनी चरित्र पंजिकाओं को उत्कृष्ट लिखवा लेते थे। शासन से ले कर प्रशासन तक उनकी ऊंची पहुंच होती थी, सुबह से ले कर शाम तक वे किसी न किसी फिराक में लगे रहते थे। वे मनचाहे जनपदों में अपनी तैनाती करवा कर ही दम लेते थे। महकमे एक ऐसा संवर्ग था जो इस काम में माहिर था। ऐसे में वरिष्ठता का कोई अर्थ नहीं रह गया था, उसके ऊपर से छलांग लगा दी जाती थी।
एक बार की बात है कि मेरे बैच के एक मित्र की अचानक मृत्यु हो गयी थी, मैं तो सदमें में था लेकिन उसी बैच के एक मित्र इस बात से खुश थे कि उसके न रहने पर अब प्रमोशन में उनका नम्बर आ जायेगा। मैं अपने आप को रोक नहीं पाया, मैंने कहा कि अभी उस आदमी की चिता की राख ठंडी नहीं हुई है और आप अपने प्रमोशन के चक्कर में पड़े हैं, मेरी बात सुन कर वे शरमा गये लेकिन वे अपनी मानसिकता का परिचय दे चुके थे। मैं इन सब बातों से आहत हो जाता था, सोचता था कि क्या दुनिया इतनी संगदिल हो चुकी है कि अपने स्वार्थ के लिए इस हद तक जा सकती है? आज पीछे मुड़ कर देखता हूं तो मुझे ताज्जुब होता है कि किस तरह मैंने अपनी जिंदगी के अनमोल साल इस यंत्रणा में गवां दिये हैं, कोई विकल्प भी मेरे सामने नहीं था। यह केवल मेरे महकमे का हाल नहीं था, अन्य विभागों में भी यही स्थिति थी, सारा सिस्टम ह्र्दयविहीन हो चुका था। जब मैं अन्य विभाग के सम्वेदनशील लोगों से बात करता था तो वे भी मेरी तरह अनुभव करते थे।
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हमारे देखते–देखते यह दुनिया कितनी बदल चुकी थी, मैं अपने आप में अकेला हो गया था जिस विभाग में काम करता था उसमें कोई ऐसा नहीं था जिससे अपनी तकलीफ बाट सकूं। नौकरशाही पहले जैसी नहीं रह गयी थी, सब अपने आपको शासक समझते थे और लोगों को रियाया। मानवीय सम्बंधों की तो कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन कुछ लोग तो ऐसे थे जिनके लिए यह स्वर्ण काल था, वे समुद्र की लहरें गिन कर मुनाफा कमा लेते थे, रेत से तेल निकाल लेते थे। इस मारक व्यवस्था में मेरे जैसे लोगों के लिए जगह नहीं बची थी, मैं पूरी तरह अक्षम और नाकारा था।
॥सत्ताइस॥
बाबरी मस्जिद के शहीद होने के बाद जो घटनाएँ हुई थी, वह हैरान करने वाली थी। इन घटनाओं का केवल राजनीतिक इस्तेमाल नहीं किया गया बल्कि ये फिल्मों के विषय भी बने। 1989 में कश्मीर का संकट शुरू हो गया था, पंजाब अलग से जल रहा था, दोनों जगहों पर उग्रवाद सिर उठा रहा था। यह उग्रवाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बलि ले चुका था, उनके बाद राजीव गांधी उसका सामना कर रहे थे। पंजाबी और हिन्दी में समान रूप से लोकप्रिय कवि पाश की हत्या खालिस्तानियों में 1988 में ही कर दी थी, उनका गुनाह यही था कि वह आतंकवाद के विरूद्ध कविताएँ लिख रहे थे।
कवि पाश |
हिन्दी फिल्मकार इन घटनाओं को केन्द्र में रख कर फिल्में बना रहे थे। उन्हें लग रहा था कि जब इस विषय पर फिल्में बनाई जाएँगी तो वे खूब चलेंगी और उनकी तिजोरियां भर जाएँगी। यह निर्माता–निर्देशकों की मूल प्रवृति थी कि किस तरह से घटना का फिल्मीकरण किया जाय जिससे दर्शक उनकी फिल्मों की तरफ आकर्षित हों, ऐसी फिल्मों में हिंसा और मार-धाड़ के लिए अच्छा स्पेस निकल सकता है। दर्शकों को इन घटनाओं से कुछ लेना-देना नहीं था, उन्हें तो सिर्फ मनोरंजन चाहिए – कहा जाए तो दर्शक हिंसा में ही मनोरंजन खोज लेते थे। अच्छी फिल्म देखने की आदत वे छोड़ चुके थे, वे हिंसा और नग्नता के आदी हो चुके थे। फिल्मों में हिंसा के लम्बे-लम्बे और वीभत्स दृश्य दिखाए जाते थे, स्त्रियों की देह को इस तरह प्रस्तुत किया जाता जिनसे उनके मनोभाव तृप्त हो सके।
लेकिन इस भींड़ के बीच ऐसे भी निर्देशक थे जो घटनाओं को यथार्थवादी ढ़ंग से दिखाते थे। मुझे मणिरत्नम की दो फिल्मों की सहज याद आ रही है – पहली फिल्म ‘रोजा’ और दूसरी ‘बाम्बे’ थी। ‘रोजा’ फिल्म आतंकवादी घटना पर आधारित थी, इस फिल्म में आतंकवादियों द्वारा एक इंजीनियर का अपहरण कर लिया जाता है, उसकी पत्नी उसकी खोज में निकल पड़ती है। इस मरहले में उसे तमाम तथ्य मिलते हैं। इस फिल्म में अरविंद स्वामी और मधु ने अनोखा अभिनय किया है। ए. आर. रहमान का संगीत अत्यन्त कर्णप्रिय है, ‘दिल है छोटा सा छोटी सी आशा’ – यादगार गीत है। फिल्म में हसीन वादियां लाजबाब ढंग से फिल्मायी गईं हैं, इस फिल्म को राष्ट्रीय एकता का पुरस्कार मिला हुआ है।
दूसरी फिल्म बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद मुम्बई में हुए दंगों पर आधारित है, यह फिल्म हिंदू लड़के और मुस्लिम लड़की की प्रेमकथा है जो दंगों का शिकार हो जाता है। इसी क्रम में मुम्बई दंगो पर बनी अनुराग कश्यप की फिल्म ‘ब्लैक फ्राइडे’ की याद की जा सकती है। यह फिल्म हुसेन जैदी की किताब – ‘ब्लैक फ्राइडे - द स्टोरी आफ दि बाम्बे ब्लास्ट’ पर बनाई गयी है। इस फिल्म को रिलीज होने के पहले अदालत का सामना करना पड़ा था। यह मुकदमा कुछ लोगों द्वारा कोर्ट में दायर किया गया था, कोर्ट के आदेश के उपरांत यह फिल्म प्रदर्शित की गयी थी। ‘मुम्बई मेरी जान’ फिल्म भी उल्लेखनीय फिल्म थी जिसमें ट्रेन में बम ब्लास्ट के दृश्य दिखाये गये थे।
बिधु विनोद चोपडा की फिल्म ‘मिशन कश्मीर’ अपने समय की चर्चित फिल्म थी जिसमें संजय दत्त ने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई थी और ऋतिक रोशन एक आतंकवादी के रोल में थे। इस फिल्म के अलावा आमिर खान की फिल्म ‘सरफरोश’ को भी याद किया जा सकता है। नसीरुद्दीन शाह की फिल्म ‘वेडनेसडे’ इस मामलें में अच्छी फिल्म थी, वह आतंकवाद पर नये सिरे से रोशनी डालती थी। उसका सम्पादन चुस्त था।
पुराना मुहावरा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, वह अपने समय के इतिहास को दर्ज करता है लेकिन यह कथन सभी फिल्मों पर लागू नहीं होता, इन फिल्मों में कोई सामाजिक समस्या नहीं होती थी। हमारे समय में कोई सत्यजित राय, विमल राय, ऋत्विक घटक जैसे फिल्मकार नहीं रह गये थे। यह ‘अछूत कन्या’ ‘दो बीघा जमीन, दो आंखें बारह हाथ जैसी फिल्में नहीं बनती थी जो हमारे भीतर सामाजिक या राजनीतिक चेतना का प्रसार कर सकें। सत्यजित राय ने प्रेमचंद की कहानी - शतरंज के खिलाड़ी, सदगति जैसी हिन्दी फिल्में बना कर जिस परम्परा की शुरूआत की थी, वह आगे नहीं बढ़ सकी थी, ऋषीकेश मुकर्जी, श्याम बेनेगल, गुलजार जैसे कुछ निर्देशक थे जो अपनें ढ़ंग से काम कर रहे थे लेकिन उनकी फिल्में बाक्स-आफिस पर फ्लाप हो जाती थीं।
सिनेमा के दर्शक बदल चुके थे – उनका अच्छी और कलात्मक फिल्मों से कोई वास्ता नहीं रह गया था – हमारे सामने एक नया दर्शक वर्ग था, उनकी पसन्द और नापसन्द अलग थी। हमारे पिताओं की पीढ़ी, जो अच्छी फिल्मों की रसिया थी, वह बूढ़ी होने लगी थी लेकिन वे आज भी समय मिलने पर पुराने गीत गुनगुनाते थे। उनके आंखों में पुराना वक्त झिलमिलाने लगता था लेकिन नयी पीढ़ी का सौन्दर्य-बोध अलग था – वह तेज संगीत और दिलफरेब मंजर देखने का शौकीन था। वे ऐसे हीरो को देखना चाहते थे जिसके भीतर महानायक के गुण हो – वह असम्भव को सम्भव में बदलने की काबिलियत हो। हीरोइनें हों तो जन्नत की हूरें हों, वे नृत्य में प्रवीण और दिल को लुभाने की कला जानती हों। गोया फिल्में उनके लिए फिल्में नहीं, मसालेदार तीक्ष्ण व्यंजन की दरकार थी।
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विभाग का आला अफसर कोई आई. ए. एस अधिकारी होता था, आई. ए. एस. शासन का ऐसा पुर्जा था जिसे कहीं भी फिट किया जा सकता था, वह महीन काटता था। यह ऐसा संवर्ग था जिसे सर्वज्ञ माना जाता था। भले ही उसे टैक्स के बारे में कोई जानकारी न हो – तकनीकी जानकारी शून्य हो, इसके बावजूद उसे हर तरह से योग्य समझा जाता था। यह प्रजाति शासन पर राज करती थी, वे अनपढ़ और अज्ञानी राजनेताओं के प्रधान सेनापति बने हुए थे। यह नौकरशाही वास्तव में सत्ता का संचालन करती थी। मेरे विभाग में लगभग साल दो साल में कोई न कोई नौकरशाह आता था और महकमें को रौद कर चला जाता था। वे मुझे ऐसे हाथी की तरह लगते थे जो खाते कम और रौंदते ज्यादा थे। वैसे भी उन्हें चारों की कमी नहीं थी – लोग चारा ले कर उनके आस-पास खड़े रहते थे। कुछ ऐसे लोग भी इस महकमें में आए, वे कम्बल ओढ़ कर घी पीते थे। कुछ तो - बगुला भगत की तरह थे – कोई अच्छा शिकार झटक कर राम–राम जपने लगते थे।
अपने कार्यकाल में तीन चार बड़े अधिकारियों के जलवे देख चुका था, वे छोटे–मोटे तानाशाह थे, वे विभाग को ताश के पत्ते की तरह फेंट देते थे और अपना जादू दिखाते थे। उन्हें परपीड़ा में मजा आता था, उनके अपने जासूस थे जिनके जरिए वह लोगों के बारे में जानकारी लेते थे। हमारे बीच के विभीषण हमारी लंका जलाने का फार्मूला बताते थे। हमारे दादा कहते थे कि राम ने नहीं विभीषण ने रावण को मारा था, उसी ने लंका जलाई थी। विभीषण रामभक्त के रूप में स्वीकृत है। लोक-जीवन में उनकी छवि एक ऐसे भाई के रूप में प्रचलित है जो अपने भाई के संहार का कारण बनता हैं।
विभाग की समीक्षा बैठकें बड़ी हंगामेदार होती थीं। जो लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाता था, उस पर दंडात्मक कार्यवाही की जाती थी। जबाब-तलब से ले कर ट्रांसफर और सस्पेंशन तक के अस्त्रों का इस्तेमाल किया जाता था। जब बैठक में मेरी बारी आयी तो उन्होंने कहा, “आपकी लक्ष्यपूर्ति 90% ही क्यों नहीं हुई जब कि शत प्रतिशत होनी चाहिए। मैंने उन्हें तमाम ठोस कारण गिनवाये लेकिन वे सहमत न हुए, उन्होंने मुझे धमकी देते हुए कहा कि अगले महीने 10% बैकलाग पूरा होने के साथ लक्ष्य पूरा होना चाहिए, अगर ऐसा नहीं होगा तो दंड के लिए तैयार रहना। अन्तिम वाक्य उन्होंने क्रूरता के साथ कहा था।
मैं आपके आदेश का पालन करूंगा, लक्ष्य की पूर्ति जरूर होगी। ऐसा कह कर मैं शांत हो गया। जब मीटिंग खत्म हो गयी तो लोगों ने मुझसे कहा कि तुमने गलत वादा कर दिया है, किसी हाल में लक्ष्य की पूर्ति नहीं हो सकती ..।
.... मैं इस हकीकत को जानता हूं कि यह मेरी असम्भव कल्पना है।
... तो फिर तुमने ऐसा क्या सोच कर कहा?.
.. इसका आधार एक लोककथा है सुनिए...
..... एक राजा था वह अपने वजीर की किसी बड़ी गलती पर नाराज हो गया था जिसके लिए उसने उसे सरेआम फांसी की सजा का एलान कर दिया था। फांसी की तिथि निर्धारित की गयी। वह घर के लोगों से अन्तिम विदा लेकर फांसी स्थल पर पहुंचा। उसने राजा से कहा कि मेरे जाने के बाद मेरे साथ घोड़े की उड़ाने की कला चली जाएगी। पूरे राज्य में मैं ही वह कला जानता हूं। राजा को लोभ आ गया कि अगर वह घोड़े उड़ाने की कला सीख जायेगा , तो इस तरह का वह पहला राजा होगा।
राजा ने पूछा कितने दिन घोड़े उड़ाने की कला में लगेंगे?
... हुजूर यह बेहद कठिन काम है, इसमें एक वर्ष का समय तो लगेगा।
.. अगर ऐसा नहीं हुआ तो?
.. तो यह गर्दन आपके सामने हाजिर हो जाएगी - आपकी सजा बरकरार रहेगी।
दरबार के लोग आश्चर्यचकित हो गये, यह तो असम्भव काम है। सबसे ज्यादा तो उसके परिवार के लोगों को ताज्जुब हुआ, उन्होंने कहा – यह क्या वादा कर आये, क्या कभी घोड़े उड़ सकते हैं? ..यह तो मैं भी जानता हूं। फिर तुमने ऐसा क्यों किया। उसने कहा कि मैंने राजा से एक साल का समय मांगा है, इस अवधि में राजा का दिमाग बदल सकता है, कोई दूसरा देश राजा पर आक्रमण कर सकता है- कुछ भी मेरे पक्ष में हो सकता है।
राजा ने वजीर के साथ क्या किया – इसका जबाब मेरे पास नहीं था लेकिन अगले महीने बास का ट्रांसफर हो गया। इस तरह की कहानियां, बोध कथाएं और तजुर्बे मुझे जीवन में मदद पहुंचाती रहीं। साहित्य ने भले ही समाज को न बदला हो लेकिन मुझे बदलने का कार्य जरूर किया है, साहित्य ही मेरे जीवन की पहेली सुलझाता रहा है।
॥अट्ठाइस॥
सब दिन होत न एक समाना
एक दिन राजा हरिश्चंद्र गृह कंचन भरे खजाना
एक दिन भरे डोम घर पानी मरघट गहे निसाना
सब दिन होत न एक समाना
यह गीत मैंने अपने गांव के जोगियों को बचपन से गाते हुए सुना था। खझड़ी और सारंगी की धुन पर यह गीत गाते हुए नाचते थे। जब बड़ा हुआ तो इस गीत का मर्म समझ में आया। जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं होता। बुद्ध भी यही कहते थे। जीवन राग–विराग का एक खेल है। कबीर के पद वही याद आते हैं, जहां करघे चलते थे और कपड़े बुने जाते थे। बिना उनके पद गाए सूत साथ नहीं देते। वे संगीत-सिक्त नहीं होते। मैं किसी दिशा से आऊं-जाऊं मगहर बीच में पड़ जाता था। कबीर के करीब आने के लिए मैं दो जगहों का आभारी हूं। पहली जगह है भदोही परिक्षेत्र, दूसरा है जनपद मऊ। यह भी याद आता है कि जब मेरा ट्रांसफर गोपीगंज में हुआ तो बाबा नागार्जुन का पोस्टकार्ड पहुंचा कि गोपीगंज के पास औराई नाम की जगह है, वहाँ कलकत्ता से निकलने वाली पत्रिका ‘शनीचर’ के सम्पादक रहते हैं। औराई रोडवेज का डिपो था, उसी के पास एक गुमनाम कमरे में ललित शर्मा ललित रहते थे। छोटे से कस्बे में उन्हें खोजने में दिक्कत न हुई, वह वहाँ सहज ही मिल गये।
कमरे में सभी चींजें बेतरतीब रखी हुई थीं – कुछ टीन और कांसे के बर्तन, एक लंगड़ा स्टोव, एक दो टुटही चारपाई और विकलांग कुर्सियां थीं। उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा – मैंने उन्हें बताया कि बाबा ने मुझे आपका पता बताया था। वे अत्यन्त प्रसन्न हुए कि एक अनाम जगह में कोई उनसे मिलने आया हैं। मैंने उनसे पूछा – क्या आप यहीं रहते हैं, उन्होंने बताया कि पास में उनका गांव है, मुझे तपेदिक है, इसलिए पृथकवास में रहता हूं ..यह कहते हुए उनके चेहरे पर तकलीफ छलक आयी। उन्होंने कहा कि मैं इस स्थिति में आपको चाय नहीं पिला सकता। उन्होंने मुझे शनीचर के कुछ अंक दिए। मैं सोचता रहा, कहां कोलकाता, कहां औराई – लेकिन यह जीवन आदमी को कौन–कौन से दिन नहीं दिखाता है। मैं उनसे उनके जीवन के बारे में आगे कुछ पूछ नहीं सका – यह उनके तकलीफ का दौर था।
हंस का सम्पादकीय लिखते हुए राजेंद्र यादव ने उल्लिखित किया था कि ललित शर्मा ललित ने उन्हें कलकत्ता के जीवन से परिचित कराया। ललित जी ने अपने जीवन का लम्बा समय कलकत्ता में बिताया, उनसे कई बार मिलना हुआ लेकिन जिस तरह से मिलना चाहिए, वह विभागीय व्यस्तताओं के कारण सम्भव नहीं हुआ।
मैं गोपीगंज में रहता था, प्रणव कुमार वंदोपाध्याय ने गोपीगंज-सम्वाद नाम से एक उपन्यास लिखा था, मैं उनसे इस बारे में पूछ नहीं पाया। वे अमृता भारती के साथ एक अद्वितीय पत्रिका ‘पश्यंती’ का प्रकाशन करते थे। वे विदेश चले गये और अमृता जी पांडुचेरी; फिर उस पत्रिका का प्रकाशन हापुड़ से मेरे मित्र प्रभात मित्तल सम्पादित करते थे। साहित्य के पाठक ‘पश्यंती’ के कविता विशेषांक से परिचित ही होंगे, इस अंक से कवियों की एक पीढ़ी सामने आयी।
गोपीगंज कस्बा बनारस–इलाहाबाद रोड के बीच में अवस्थित है। गोपीगंज–भदोही परिक्षेत्र कारपेट के उत्पादन का केन्द्र रहा है। वहाँ के कारपेट व्यवसायियों की इमारतें देख कर तबियत हैरान हो जाती थी, इस तरह की बिल्डिंगें बनारस तक में नहीं थीं। कारपेट के व्यवसायी अपने अंग्रेजी-दां दोभाषिये के साथ अक्सर विदेश–यात्राएं करते रहते थे, उनकी धज देखते बनती थी। ये व्यवसायी ज्यादा पढ़े–लिखे नहीं होते थे, कुछ तो निरक्षर–भट्टाचार्य थे लेकिन उनके ऊपर लक्ष्मी की अपार कृपा थी। व्यापार में पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है, उसके लिए तिगड़म और नेटवर्किंग की जरूरत होती है।
इस पेशे का एक करूण–पक्ष भी है, कालीन की बुनावट में बाल श्रमिकों और स्त्रियों का ज्यादा शोषण होता था, उन्हें सबसे कम मजदूरी दी जाती थी। जो बाल–श्रमिक अपने कोमल हाथों से कालीन बुनते थे। वे ड्राइंग रूम में क्रूर जूतों की नोक से रौदे जाते थे। बाल–श्रमिक आसानी से मिल जाते थे, उन्हें मजदूरी भी कम देनी पड़ती थी। यह सब संविधान की मूल भावना के प्रतिकूल था, लेकिन यह धंधा सम्बंधित अधिकारियों की मिलीभगत से चलता था। मैंने इस विषय पर एक लम्बी कविता –‘बुनकरों की बस्ती में’ लिखी, इस कविता की शुरूआत गोपीगंज में हुई और पूरी मऊ में हुई।
यहाँ के सिनेमा मालिक की कथा रोचक थी – वह बिहार के एक कस्बे के टूरिंग टाकीज में गेटकीपर का काम करते थे, धीरे-धीरे वे उस टाकीज के मालकिन के सम्पर्क में आये, वे उसके प्रेमजाल में फंस गये और यही से उनकी उन्नति का दरवाजा खुलता गया। उन्होंने गोपीगंज और मिर्जापुर में दो आधुनिक टाकीज बनवाये। उनका व्यक्तित्व आकर्षक और व्यवहार बहुत अच्छा था, वे निःसंतान थे लेकिन भाई के संतानों को अपनी संतान से ज्यादा स्नेह देते थे। यह साम्राज्य उनका ही बनाया हुआ था, टाकीज के कर्मचारी बहुत अच्छे थे, मेरा बहुत आदर करते थे। गेटकीपर गांव से आते थे- वे बारह बजे दिन से रात के दस बजे तक डयूटी करते थे। उनके रूतबे अलग थे। वे किसी को भी फिल्म दिखा सकते थे। कस्बे के लोग उन्हें अदब के साथ देखते थे।
मुझे याद है कि उस समय सदाबहार फिल्म मुगलेआजम लगी हुई थी, वह कई दिनों तक निरंतर हाउसफुल चली। न जाने कहां से दर्शक चले आते थे। इस फिल्म के प्रिंट की रक्षा के लिए एक आपरेटर आता था, फिल्म के कुछ रील रंगीन थी। मधुबाला का गाया हुआ गाना और शीश महल का सेट देखते बनता था। फिल्म में जिस जगह दिलीप कुमार और पृथ्वी राज कपूर की मुठभेड़ होती थी, वह हिन्दी सिनेमा के सबसे यादगार दृश्यों में से एक है।
मुगले-आजम को लेकर बहुत सी कहानियां प्रचलित हैं, इस फिल्म के निदेशक के. आसिफ ने इस फिल्म को बनाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था। यह फिल्म सोलह साल में बनी। इस फिल्म का संगीत नौशाद ने दिया था के. आसिफ चाहते थे कि इस फिल्म में बड़े गुलाम अली का शास्त्रीय गीत शामिल करें लेकिन बड़े गुलाम अली खां किसी तरह से राजी नहीं हुए, वे फिल्मों में अपनी आवाज नहीं देना चाहते थे। किसी ने उन्हें सलाह दी कि के. आसिफ से इतनी रकम मांग ली जाय कि वे मना कर दें। बड़े गुलाम अली खां ने उनसे पच्चीस हजार रूपये का प्रस्ताव रखा। के. आसिफ तैयार हो गये। उन दिनों लता मंगेशकर को एक गाने के लिए पांच सौ का मुआवजा मिलता था।
यह फिल्म फिल्मी दुनिया की एक घटना थी, इस फिल्म के निर्माण की कहानी किसी फिल्म से रोचक नहीं है। जहां यह फिल्म लगती थी, तूफान मच जाता था। जब तकनीक विकसित हुई, इस फिल्म को रंगीन बना दिया था। अब इस फिल्म के लिए दर्शक नहीं मिलेगे। इस फिल्म को देखने के लिए जिस सौंदर्य-बोध की जरूरत होती है, वह अब दर्शकों के पास नहीं रह गयी है। जिस फिल्म को देखने के लिए लोग लालायित रहते थे- वह डिब्बे में बंद हो गयी है।
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मऊ का प्रवास कई मायनों में अलग था। मऊ पहले आजमगढ़ की एक तहसील थी – अब उसे एक जिले का रूप दे दिया गया था। यह क्षेत्र साहित्यिक रूप से बहुत समृद्ध था, यहाँ राहुल सांस्कृयायन, सहजानंद सरस्वती, हरिऔध, राही मासूम रजा, कैफी आजमी जैसी विभूतियां पैदा हुई हैं। कैफी आजमी जीवन के अन्तिम दिनों में अपने गांव मिजवा आ गये थे। वे सही मायने में जनता से जुड़े हुए शायर थे – वे प्रलेस और इप्टा जैसे साहित्यिक संगठनों से जुड़े हुए थे।
राहुल ने साहित्य की हर विधा में लेखन किया, उन्होंने दुर्गम क्षेत्रों की यात्राएँ की। तिब्बत से खच्चर की पीठ पर लाद कर बौद्ध साहित्य हमें उपलब्ध कराया, इस क्षेत्र में उनका विलक्षण योगदान था। वे बड़े घुमक्कड़ थे, उनकी किताब घुमक्कड़-शास्त्र घुमक्कड़ों के लिए बाइबिल है। राहुल ने एक साथ कई विधाओं में काम किया और हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। इसी तरह हरिऔध का महाकाव्य प्रिय प्रवास खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य था, वे आजमगढ़ के निजामाबाद में पैदा हुए थे। राही मासूम रजा के उपन्यास‘आधा गांव’ को कौन भूल सकता हैं जिसने बंटवारे के बाद के मुस्लिम समाज के परिवर्तन को शिद्दत से साथ लिखा था। गाजीपुर की स्थानीयता को रजा ने जीवंत कर दिया था।
ऐसी सरजमीन पर पहुंच कर मैं धन्य हो गया था। यह क्षेत्र कम्यूनिस्टों का गढ़ था, चूंकि यह बुनकरों का इलाका था इसलिए आंदोलन होते रहते थे। कल्पनाथ राय एक जमाने में गोरखपुर छात्र संध के अध्यक्ष और विचारों से समाजवादी थे, वे मऊ के निवासी थे। वहाँ के लोगों को उनसे बहुत सी उम्मीदें थीं लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते वे कांग्रेस में शामिल हो गये। इंदिरा गांधी ने कम्युनिस्टों के गढ़ को तोड़ने के लिए उनका इस्तेमाल किया, वे इस मुहिम में कामयाब भी हुए। उन्हें पुरस्कार-स्वरूप मंत्री पद से नवाजा गया। वे इस क्षेत्र के लोकप्रिय नेता बने और शहर के उन्नयन के लिए कई काम किये। शहर के चारो ओर फ्लाईओवर बनवाये – आधुनिक ढ़ंग की कचहरी बनवायी।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने, उनके समय में वे उपेक्षित रहे। धीरे-धीरे उनका राजनीतिक पतन शुरू हुआ, उन्हें एक अपराधिक मामलें में सजा हुई, उनका शीराजा बिखरता गया। यह थी उनकी अर्श से फर्श तक पहुंचने की दारूण–कथा।
मऊ–प्रवास में जय प्रकाश धूमकेतु मेरे अभिन्न मित्र बने, साहित्यिक गतिविधियां शुरू हुई। बाहर से भी कवि गण लोग आते थे और कविता पाठ करते थे। धूमकेतु जी स्थानीय महाविद्यालय में भूगोल के प्रवक्ता/ रीडर थे लेकिन उनका मन इस तरह के आयोजनों में बहुत लगता था। मेरी भी यही स्थिति थी। विभाग की स्थितियां बहुत मारक थीं, हर दूसरे तीसरे दिन जनपद सिनेमाओं का निरीक्षण करना पड़ता था – जिसकी संख्या निर्धारित थी, उसके बाद जनपद और मुख्यालय की मीटिंग और दफ्तर का कामकाज अलग। कभी–कभी तो सांस लेने की फुरसत नहीं मिलती थी। आप कहीं भी किसी व्यवस्था में हों, अगर सही ढ़ंग से काम करने की कोशिश करते हैं, तो उसमें व्यवधान निश्चित हैं। आज के समय में इस तरह के खतरे कम लोग ही उठाते हैं, ऐसे लोग समाज में पसन्द भी नहीं किये जाते। वे व्यवस्था के अनुकूल नहीं होते – उन्हें हर स्तर पर प्रताड़ित किया जाता है। नौकरी किसी भी तरह की हो, उसमें प्रलोभन कम नहीं होते।
नौकरी बड़ी हो या छोटी उसमे आदर्शवाद की जगह नहीं रह गयी है। आई. ए. एस और पी. सी. एस. संवर्गो के कई मित्रों का जीवन देखा है, वे शुरू-शुरू में इस व्यवस्था को बदलने की अहद ले कर प्रवेश करते हैं लेकिन कुछ सालों के बाद यह व्यवस्था उन्हें बदल देती हैं, उनकी सौगंध खंडित हो जाती है। उनके घर में कीमती चींजों की आमद बढ़ने लगती है। भव्य फ्लैट तैयार होने लगते हैं, उसके सामने शानदार कार खड़ी हो जाती है, स्त्रियां गहनों से लद जाती हैं, बच्चे देश के महंगे स्कूलों की बोर्डिंग में भेज दिये जाते हैं।
कौन कम्बख्त इस व्यवस्था में हरिश्चंद्र बनना चाहेगा और जगह-जगह अपने सत्य की परीक्षा देगा। डोम के हाथ बिकना चाहेगा? लोग आसान और सुविधाजनक रास्तों पर चलना चाहते हैं, वह रास्ता पहले से ही तैयार बस आपको उस पर चलना है। कठिनाई उन्हें होती है जो अपने लिए अलग रास्ता बनाते हैं और जीवन भर उसकी कीमत चुकाते रहते हैं, वे किसी के प्रिय नहीं बन पाते। जो इस व्यवस्था के संग-साथ होते हैं, वे उसकी आंखों के तारे होते हैं, हर पार्टी की सरकार में चमकते रहते हैं। उनसे सारी दुनिया खुश रहती हैं, उनसे घर का कोई सदस्य नहीं पूछता कि तुम कहां से इतनी महंगी चीजों को ले कर आ रहे हो जबकि तुम्हारी तनख्वाह इन चीजों की कीमत से बहुत कम है।
॥उन्तीस॥
माफिया शब्द आजकल एक प्रचलित पद बन गया है, इस शब्द का जन्मदाता इटली है। इस शब्द का पूरा अर्थ है ‘मोर्टे अला फ्रांकिया इटैलिना अमेल्ला’ यानी इटली में आये हुए फ्रांसीसियों को मार दो। माफिया के अपराध की कथाओं के लिए अमेरिकी लेखक मारियो पूजो की किताब पढ़ी जा सकती है। अमेरिका में ‘गाडफादर’ सीरियल बहुत मशहूर हुआ था, दुनिया भर की भाषाओं में गाडफादर पर बहुत सी फिल्में और धारावाहिक बने और लोकप्रिय हुए। धीरे-धीरे माफिया हर क्षेत्र में काबिज होते गये – चाहे वह व्यवसाय हो या राजनीति। भू-माफिया, ड्रग माफिया, फिल्म–माफिया। दरअसल माफिया अवैध रूप से काम करने वाले अपराधियों का एक समूह है, उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। पहले माफिया अपने प्रतिनिधियों को बड़ी पंचायत में भेजता था और अपनी मर्जी के हिसाब से काम करवाता था। वह सभी पार्टियों के फंड में चंदा दे कर अपना दबाव बनाता था। अब वह खुद उस जगह पर पहुंच गया हैं, सत्ता में उसकी हिस्सेदारी हैं जिससे उसके धंधे फल–फूल रहे हैं। यह माफिया–संस्कृति हर क्षेत्र में देखी जा सकती है।
माफिया दूसरा नाम बाहुबली था – यह शब्द हनुमान जी या बलिष्ट देवताओं से जुड़ा था। बाहुबली या महाबली आपने–सामने द्वंद युद्ध करते थे और उनके हार -जीत का फैसला होता था। आज के बाहुबली लोगों को धोखे से मारते थे और बहादुरी का खिताब हासिल करते थे। आज के दौर में इस शब्द का सबसे ज्यादा पतन हुआ है। शब्द किस तरह से अपने मूल अर्थ को खो देते है, यह समाज और व्याकरणाचार्यो के लिए चिंता की बात है।
मजा यह है कि इस तरह अच्छे विशेषण गलत सन्दर्भो में प्रयुक्त हो रहे हैं, उसे जनता का समर्थन मिल रहा है। उसकी दबंगई के किस्से गाये जा रहे हैं – समाज के ये विध्वंसक अपने आप को समाज का निर्माता कहने लग गये हैं। यह हमारे समय का कितना बड़ा विरोधाभास है।
आजादी के बाद के राजनेता अकेले कहीं भी अपने क्षेत्र या सार्वजनिक समारोहों में आराम से आते–जाते थे, अब स्थिति बदल गयी है, अदना सा एक राजनेता कहीं भी अकेले नहीं जाता, उसके साथ दर्जनों हथियारबंद लोग होते हैं। उनके साथ महंगी– महंगी हुई गाड़ियां रेंगते हुए चलती रहती है। इसका अनुकरण हमारे आला–अफसर शान से करते हैं। नौकरी में ऐसे माफिया – महानुभावों से पाला पड़ा है, सिनेमा उनका मुख्य व्यवसाय नहीं था बल्कि यह शो विजनेस था, उनके प्रधान–व्यापार अलग थे। मऊ–प्रवास में मुझे ऐसे एक माफिया का सामना करना पड़ा – वह बड़ा ठेकेदार था। बाढ़ के समय वह नदियों के बोर्डर गिराता था, विवादास्पद मकानों को खरीदने और बेचने का काम करता था। वह कई सिनेमा हालों का मालिक था – जब मैंने उसका करापवंचन पकड़ा तो उसके लोग मेरी टीम पर हमलावर हो गए। हमें खासी चोट लगी लेकिन वे जेल के भीतर चले गये, मुश्किल से उसे जमानत मिली। उन्होंने हरिजन एक्ट के अन्तर्गत मेरे खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। इस मामले में जिला प्रशासन मेरे विरूद्ध हो गया, वह आदमी यह समझाने में सफल हो गया कि उससे हमारी टीम ने पैसे की मांग की थी, न पूरी करने पर यह कार्यवाही की गयी। उसके बचाव वे पूर्व सांसद भी आ गये जिनके प्रति मेरी कम आस्था नहीं थी।
मुख्यालय ने मुझे लम्बी तकरीर दी कि तुम्हें काम करना नहीं आता, जनपद के लोग तुम्हारे विरूद्ध है। इस घटना से मुझे सबक मिला कि इस तरह की लड़ाइयों में कोई साथ नहीं देता – यहाँ तक कि कोई सहानुभूति के साथ विचार नहीं करता। विभाग के लोग दूर से डूबते हुए को देखते रहते हैं। वह मेरे मित्र जय प्रकाश धूमकेतु ही थे कि अन्त तक मेरे साथ खड़े रहे, वे उस पार्टी के दूर के रिश्तेदार थे लेकिन इस रिश्ते को नजरंदाज करते हुए मुझे हर तरह का सहयोग दिया।
मऊ में हम लोगों ने मिल कर एक पत्रिका निकालने का सपना देखा था, मुझे संतोष था कि धूमकेतु ने मेरे सपने को जीवित रखा। ‘अभिनव कदम’ हमारे समय की प्रसिद्ध पत्रिका बन गयी है। इस पत्रिका ने राहुल सांस्कृत्यायन राही मासूम रजा, कैफी आजमी और सहजानंद सरस्वती पर विशेषांक प्रकाशित किये। प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव की हैसियत से संगठन के लिए प्रभावी भूमिका का निर्वाह किया। अब इस संगठन से अलग रह स्वतन्त्र लेखन कर रहे हैं। उन्होंने सांकृत्यायन सृजन पीठ की स्थापना की है, और रचनात्मक कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं।
मऊ में मेरा रहना कठिन हो गया था, या तो मैं सिनेमा मालिक की शर्तों पर काम करता या वहाँ से हट जाता। विभाग और जनपद के स्तर पर मुझे किसी तरह की मदद सम्भव नहीं थी, पूरे तालाब का पानी गंदा हो गया था। सिनेमा मालिक एक छोटा–मोटा माफिया था, उसके सम्पर्क हर तरफ फैले हुए थे - वह जनपद के हर महकमों को कृतार्थ करता रहता था। उसके पास अकूत दौलत थी। जिस पूर्व सांसद ने मेरा विरोध किया था, उसे वह चुनाव के समय चंदा दिया करता था। ऐसे में मेरी क्या हैसियत थी - कहावत है कि बैल खूंटे के बल पर कूदता है लेकिन मैं जिस महकमे का मुलाजिम था, वह मेरे प्रति उदासीन था। मेरे भीतर एक गम्भीर असुरक्षा का भाव पैदा हो गया था।
मेरे तबादले के बाद जो अधिकारी मेरी जगह पर तैनात हुए उन्होंने सब कुछ साध लिया था। जिले प्रशासन से ले कर मुख्यालय तक उनसे संतुष्ट था। सिनेमा मालिक प्रसन्नचित्त थे, उनके साथ उन्होंने चोली–दामन का प्रगाढ़ सम्बन्ध बना लिया था। मुझे शांति-पाठ की यह प्रार्थना याद आयी – सर्वे भवंतु सुखिन सर्वे संतु निरामयाः – सर्वे भद्राणि पश्यंतु मां काश्चित दुख भाग भवेतु।
सता का पहिया इस तरह मिल जुल कर चलता है जो इस क्रिया में बाधा पहुंचाता है, उसे नुकसान उठाना पड़ता है – वह धोबी के कुत्ते की तरह न घर का होता है न घाट का।
॥तीस॥
इस जनपद से तबादले के लिए मुझे एक नर्क से गुजरना पड़ा। मैं चाहता कि मेरा ट्रांसफर ग़ृह जनपद के आसपास हो, घर से दूर रहते हुए उकता गया था। मुझे इस काम में सफलता मिल गयी थी लेकिन नाटकीय घटनाक्र्म में सुदूर झांसी फेंक दिया गया, कुछ दिनों तक मैं अफनाता रहा फिर सोचा, अब यही मेरी नियति है जो कुछ भी सोचूंगा ठीक उसका उल्टा ही घटित होगा। जिंदगी में कहां किसी को पसन्द की जगहें मिलती हैं, हमें तो रेगिस्तान में गुल खिलाने पड़ते हैं और प्रतिकूल स्थितियों के बीच रहना पड़ता है। हमें समय के भयानक नदी में उतार दिया जाता है और उसी में तैरने सीखते हैं, अगर तैरने लायक नहीं रहते हैं तो डूब जाते हैं। मैंने हमेशा तैरने की कोशिश की है। मैंने कहीं पढ़ा थी कि बाज पक्षियों की एक प्रजाति अपने बच्चों एक खास तरह से उड़ना सिखाती है।
जब बच्चे उड़ने लायक हो जाते हैं, वह बच्चों को घाटी के किनारे ले जाती है और उसे सुनसान घाटी में ढ़केल देती है, जिन बच्चों में उड़ने की क्षमता होती है, वे उड़ना सीख जाते हैं, बाकी काल-कवलित हो जाते हैं। हमें जीवन में इस तरह की अग्निपरीक्षाएँ देनी पड़ती हैं, अग्निपरीक्षाओं के बगैर हम दीक्षित नहीं हो पाते। झांसी मेरे लिए अग्निपरीक्षा का स्थल था। वहाँ भी मऊ से कम चुनौतियां नहीं थीं, एक बिगडैल सिनेमा मालिक से पाला पड़ा – मैं जिस मुसीबत से बचने के लिए इस जगह पर आया था, वह वहाँ दूसरे रूप में मौजूद था। मैंने सोचा जगह बदलने से विपत्तियां साथ नहीं छोड़ती है, बस वे अपना चोला जरूर बदल लेती हैं। मैंने विपरीत स्थितियों में जीना सीख लिया था – इस ट्रेजेडी को कमेडी बना लिया था। कभी अपने पर कभी विपत्तियों पर दिल खोल कर हंसता था।
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झांसी एक पहाड़ी जगह थी, धूप में दिन खूब तपता था लेकिन रात खुशगवार हो जाती थी – जिधर भी जाइए उधर छोटी-छोटी पहाड़ियां थी, जंगल की हरियाली थी, गर्मियों में पलास के चटख फूल खिलते थे। मुझे हैरत होती थी इतनी धूप और गर्मी में पलास के फूल कितने आवेग के साथ खिलते थे। जनपद में बहुत सारे बांध थे, वहाँ पानी रोक कर बिजली पैदा की जाती थी लेकिन वहाँ सुदूर गांव में रहने वालों के लिए पानी की गम्भीर समस्या थी। औरतें दूर से पानी लाती थी। गर्मी में पानी के स्रोत सूख जाते थे – फसलें सूख जाती थी। उनका जीवन कठिन हो जाता था, वे पलायन के लिए मजबूर हो जाते थे।
Jhansi-Fort-The-historic-fort-of-Rani-Lakshmi-Bai
झांसी के नाम से झांसी की रानी का अचानक ध्यान आता है, उनके बिना इस नगर की कल्पना नहीं हो सकती है। लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में हुआ था, उनका नाम मणिकर्णिका था, वह मनु के नाम से भी जानी जाती थी, उनका विवाह झांसी के बुंदेल राजा गंगाधर राव के साथ हुआ था और वहाँ उनका नया नाम लक्ष्मी बाई हुआ। वह इतिहास की अद्वितीय योद्धा थी, अंग्रेजों के विरूद्ध लड़ते हुए वे 1858 में शहीद हो गयी थी। झांसी का यह किला बंगरा नाम की पहाड़ी पर स्थित है। इसे बुंदेला राजा बीरसिंह जूदेव ने बनवाया था, इस किले पर पच्चीस साल तक राज किया था, बाद में मुगलों, मराठों और फिरंगियों ने राज किया था लेकिन इस किले को अमरता रानी लक्ष्मी बाई ने दिलवायी। लक्ष्मी बाई ने उनतीस साल की उम्र में इतिहास में जो मुकाम हासिल किया, वह बड़े-बड़े सूरमाओं को नसीब नहीं हुआ था।
15 अगस्त और 26 जनवरी के सरकारी समारोह इसी किले में आयोजित किये जाते थे। मुझे याद है कि इस अवसर पर एक स्वतन्त्रता–सेनानी को उनके गांव से लाया गया था लेकिन जब यह समारोह सम्पन्न हुआ किसी को उन्हें पहुंचाने का होश नहीं रहा। उन्होंने अपने भाषण में शासन की आलोचना कर दी थी। सारे लोग चले गये, वे किले की दीवार से सट कर बैठे हुए थे। उनका चेहरा गमजदा था, उन्होंने पूरा किस्सा बयान किया कि उन्हें उनके गांव से तहसीलदार इस शर्त पर लाया था कि समारोह के बाद वे उन्हें गांव पहुंचा देंगे। चूंकि उन्होंने सरकार की आलोचना कर दी थी – इससे डी. एम. भी खफा हो गये कि कैसे आदमी को पकड़ कर ले आये हो, यह तो मेरी गोद में बैठ कर मेरी दाढ़ी नोच रहा था।
मैंने उन्हें बस स्टेशन पर उनके गांव जाने वाली बस पर बैठाया था, मेरे सामने वे बिलख–बिलख कर रोने लगे और कहा – क्या इस तरह की आजादी के लिए हम लड़े थे? अब ये लवंडे मुझे बतायेगे कि मुझे क्या बोलना है। ये सब देश को लूट कर खा रहे हैं – ये तो अंग्रेजों से बड़े दुश्मन हैं।
बांगला की मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी का प्रथम शोधपूर्ण उपन्यास लक्ष्मीबाई के जीवन और संघर्ष पर आधारित था। लक्ष्मीबाई का कुल जीवन उत्तीस साल का रहा लेकिन इस उम्र में उन्होंने बड़े कारनामे किये। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता पुस्तक – झांसी की रानी मिडिल स्कूल में पढ़ी थी तब क्या पता था कि एक दिन झांसी को देखूंगा और उन्हें याद करूंगा। लोकजीवन की कथाओं में झांसी की रानी की अदभुत व्याप्ति हैं। उस किताब की बहुत सी पंक्तियां मुझे याद हैं -
बुंदेलों हरबोलो के मुंह हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी ..।
ओरछा झांसी से 15 कि. मी. दूर एक ऐतिहासिक नगर था, यह बेतवा तट पर बसा था यह नगर बुंदेला राजाओं द्वारा बनवाया गया था। यहाँ का जहांगीर महल मुगल स्थापत्य का अदभुत नमूना है, चतुर्भुज मंदिर या राजा राम का मंदिर यहाँ की प्रमुख स्थान है। राजा राम का मंदिर यहाँ का प्रमुख आकर्षण है, यहाँ राम की पूजा राजा की तरह की जाती है, उनके स्वर्ण आभूषणों की रक्षा के लिए सैनिक तैनात रहते हैं। यह बात मुझे बहुत अटपटी लगी थी – क्या ईश्वर स्वयम अपनी रक्षा करने में असमर्थ रहते हैं? अयोध्या का कनक भवन यहाँ के राजा द्वारा बनवाया गया था – फर्क यह था कि ओरछा में राम को राजाराम के नाम पर जाना जाता था और अयोध्या में वे साक्षात ईश्वर के अवतार थे।
राय प्रवीन की कथा अत्यन्त रोचक है - वह कवि केशव दास की शिष्या थी। केशव दास के पास वह जब कवित्त सीखने गयी तो उन्होंने कहा तुम अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दो। राय प्रवीन ने यह दोहा कहा –
ऊंचे होय सुर बस कियो, सम होय नर बस कीन्ह
अब पाताल बस करन को ढरिक पयोनो लीन्ह।
वक्ष सौंदर्य के बारे में विलक्षण दोहा सुन कर कवि केशव दास विस्मित थे। धीरे-धीरे राय प्रवीन की कीर्ति राज दरबार तक पहुंची और वह तत्कालीन राजा इंद्र देव के दरबार की जीनत बनी।
राय प्रवीन काव्य में नहीं, गायन और नृत्यकला में प्रवीण थी। राजा उसके प्रेम में बिद्ध हो गये, उन्होंने उसके राय प्रवीन महल बनवाया, जिसमें प्रवीन के विभिन्न मुद्राओं के चित्र बने हुए हैं, जो ठीक उनके महल के सामने था – वे उसे अपने महल के गवाक्षों से उसे निहारा करते थे। जो कवित्त और संगीत में प्रवीण थी। राय प्रवीन के हुश्न और हुनर के किस्से जब अकबर के दिल्ली दरबार में पहुंचे तो उन्होंने अपने दरबार में भेजने के लिए राजा इंद्र देव को हुक्म दिया और कहा कि अगर हुक्म की तामील नहीं की गयी तो हमले से गुरेज नहीं किया जाएगा। जब राय प्रवीन को इस बात का पता चला तो राय प्रवीन ने अकबर बादशाह को यह दोहा भेजा –
बिनती राय प्रवीन की सुनिये चतुर सुजान।
जूठी पातर भखत है बारी, वायस, श्वान।।
यह दोहा सुन कर बादशाह हुजूर का सौंदर्य बोध गड़बड़ा गया और उन्होंने अपनी योजना को मुल्तवी कर दिया था। यह था राय प्रवीन के कवित्त का चमत्कार। राजमहलों में केवल युद्ध की भयावह कथाएँ नहीं होती, वहाँ प्रेम के झरने भी बहते रहते है।
ओरछा में हर वर्ष पहली अप्रेल को केशव जयन्ती मनाई जाती थी जिसमें देश के विद्वान लेखक कवि एकत्रित होते थे, यह आयोजन रीवा महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के जरिये आयोजित किया जाता था। यही मेरी मुलाकात हिन्दी के प्रिय गीतकार नईम से हुई, विश्वनाथ त्रिपाठी, आग्नेय, कमला प्रसाद, दिनेश कुशवाह से मेरी यादगार मुलाकातें हैं। दिनेश इस जयंती के सूत्रधार थे – कवि के साथ अपने स्वभाव में मस्तमौला थे। वे लोकगीत मनोयोग के साथ गाते थे। केशव–जयंती समारोह में अपने जमाने के गीतकार नईम से यादगार मुलाकात याद आती है। छात्र जीवन से ही उनकी गीतों का दीवाना था, उनके गीत धर्मयुग और हिंदुस्तान में मुतवातिर प्रकाशित होते रहते थे। देवास उनके नाम का पर्याय था – केशव पर व्याख्यान देने के बाद जब वह अपनी बेगम के साथ बेतवा नदी के पुल पर तफरीह कर रहे थे मैंने भाभी जी से कहा कि नईम भाई को एक दो घंटे के लिए उधार दे दीजिए।
भाभी मुस्कराईं – क्या तुम लोग शाम में कोई बदमाशी करने वाले हो, तो ले जाओ, बस हद में रहना। बेतवा नदी का तट और कुछ आत्मीय मित्र थे – बेतवा के प्रवाह में हम भी बह रहे थे। वह तो न भूलने वाली शाम थी। नईम साहब ने कहा – मियां क्या तुम अपने घर नहीं ले चलोगे – जबाब में मैंने कहा – कल सुबह आप दोनों को ले चलूंगा।
कितने प्यारे लोग थे वे दोनों, प्रेम और आत्मीयता से भरे हुए थे। बेटी बहुत छोटी थी – भाभी जी ने पर्स से सौ रूपये का नोट निकाला और उसे देने लगीं। मैंने मना किया तो उन्होंने कहा – स्वप्निल इसे हमारी दुआ समझो। उनसे पत्र-व्यवहार चलता रहा, उनकी लिखावट बहुत सुघड़ थी। कुछ साल बाद उनका इंतकाल हो गया और वे हमारी स्मृति का स्थायी हिस्सा बन गये थे।
तीन साल के झांसी प्रवास के बहुत से प्रसंग याद आते हैं लेकिन मऊरानीपुर के कटघरे उपन्यास के रचयिता बल्लभ सिद्धार्थ जी विलक्षण लेखक थे। आपात काल में उनकी कहानी ब्लैक आउट बहुत मशहूर और विवादस्पद हुई थी। वे हिन्दी के विरल लेखक होने के साथ विश्व साहित्य के मर्मज्ञ थे, विश्व साहित्य के ऐसे किसी जानकार को मैं नहीं जानता हूं। उनके जीवन के प्रेम–प्रसंग अदभुत थे। उन्होंने विश्व साहित्य की अनेक कृतियों का अनुवाद किया है, रूसी साहित्य के वे विशेषज्ञ थे। उन्होंने दोस्तोवस्की की आत्मकथा और उनके उपन्यास अन्ना केरिनिना का अनुवाद किया। पूश्किन की जीवनी (हेनरी त्रोहन) के अनुवाद के साथ काफ्फ्का की तीन लम्बी कहानियों का अनुवाद दंडदीप शीर्षक से किया है।
जब मैंने मऊरानीपुर के कई सिनामा मालिकों से उनके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके सामने मेरी कोई हैसियत नहीं हैं, वे बड़े जमींदार हैं। लेकिन वे अत्यन्त साधारण जीवन जीते थे। जब भी मेरे दफ्तर आते थे तो यह भान नहीं होने देते थे कि वे इतने समृद्ध परिवार से आते हैं। अदभुत थी उनकी सादगी, कंधे पर एक झोला और सिर पर बंधा हुआ अंगोछा। दूसरे थे ओम शंकर असर, वे बहुत बड़े शायर होने के साथ झांसी के इतिहास के विशेषज्ञ थे। वे बहुत खूबसूरत ढ़ंग से बात करते थे, वे झांसी में मेरे अभिभावक थे, बल्लभ जी उन्हें झांसी जिले का हीरा कहते थे। वे झांसी के इतिहास के विशेषज्ञ माने जाते थे – उन्हें विश्व-साहित्य का ज्ञान था – साथ ही साथ वे पेंटर और गज़लगों थे। वे एक प्रसिद्ध दैनिक अखबार में लम्बे अरसे तक – मैं भी मुंह में जुबान रखता हूं – कालम लिखा था।
झांसी के सरजमीन पर वृन्दावनलाल वर्मा हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यास लेखक थे, उन्होंने गढ़ कुन्डार, मृगनयनी, विराट की पद्मिनी और झांसी की रानी जैसे उपन्यासों की रचना की है। जनपद के चिरगांव कस्बे में हिन्दी के कवि मैथिली शरण गुप्त का जन्म हुआ था, उन्होंने साकेत, भारत भारती, यशोधरा जैसी कृतियों की रचना की थी। वे खड़ी बोली के पितामह थे। ये सब लेखक बुंदेलखंड के रत्न थे, हिन्दी साहित्य की समृद्ध करने में इनका बड़ा योगदान था।
Maithilisharan-Gupt |
मैंने जीवन में बहुत सी नदियां देखी है लेकिन बेतवा जैसी पहाड़ी नदी का कोई जबाब नहीं है, अदभुत है उस नदी का खिलद्दड़पन, उसके बहने में संगीत की एक आवाज है। यह नदी छोटी-छोटी पहाड़ियों से भरी हुई है, सुबह इसके बहने की ध्वनि अलग होती है, दोपहर में वह दूसरे ढ़ंग से प्रवाहित होती है लेकिन शाम की खामोशी में उसकी आवाज जलतरंग की तरह हो जाती है। बेतवा नदी झांसी की जीवन–रेखा थी, उस पर बड़े बांध बने हुए थे – जिसमें राजघाट, माताटीला और परीछा बांध प्रमुख थे, यहाँ बिजली का उत्पादन होता था। ये जगहें झांसी जनपद के पर्यटक स्थल थे।
इसी तरह झांसी से 15 कि. मी. दूर दतिया नाम की जगह थी – जहां पीताम्बरा पीठ अवस्थित थी, इसकी स्थापना किन्ही महराज जी द्वारा की गयी थी। यह बंगुलामुखी मंदिर भी है जहां तन्त्र की साधना होती है। देश के प्रमुख राजनेता यहाँ अपने राजनीतिक उद्धार के लिए आते-जाते रहते है, इसे सिद्ध पीठ का दर्जा प्राप्त है।
झांसी की दास्तान में अगर दो जगहों का जिक्र न हो तो किस्सा अधूरा रह जाएगा। ओरछा के बाद बरूआ सागर और गढ कुण्डार का किला मेरी मनपसन्द जगहें थीं। बरूआसागर में टूरिंग टाकीज चलता था। बरूआ सागर में इसी नाम की एक झील थी जब बारिश के दिनों में यह झील पानी से भर जाती थी तो पत्थर के चट्टानों से पानी के झरने उतरते थे। यह जगह मेरे प्रिय गीतकार इंदीवर की जन्मभूमि थी, उनका असली नाम श्याम लाल बाबू राय था – इंदीवर उनका कवि नाम था। मुझे सिनेमा मालिक ने उनके भाई से मिलवाया था, उन्होंने मुझे बताया कि अनोखी रात का गीत –
ताल मिले नदी के जल में
नदी मिले सागर में
सागर मिले कौन से जल में –
गीत इंदीवर नें इसी झरने के किनारे बैठ कर लिखा था। यह मेरा प्रिय दार्शनिक गीत था। इंदीवर के साहित्यिक गीत मुझे बहुत पसन्द थे – जैसे- कसमें-वादे प्यार वफा सब, बातें हैं बातों का क्या...। प्रेम गीतों में उन्हें महारत हासिल थी – चंदन सा वदन चंचल चितवन, कोई जब तुम्हारा ह्र्दय तोड़ दे, तड़पता हुआ जब तुम्हें छोड़ दे, जिन्दगी का सफर है यह कैसा सफर जैसे गीतों के वे रचनाकार थे। इंदीवर ने कई रंग के गीत लिखे हैं जिसमें नादिया हसन का गीत – आप जैसा कोई मेरी जिंदगी में आये, तो बात बन जाये । यह गीत उस जमाने के युवाओं का प्रिय गीत था, इस गीत को सुन कर मस्ती में पांव हिलने लगते हैं।
गढ़ कुण्डार के किले की तरह जाने का रास्ता बरूआसागर से हो कर जाता है। यह किला एक मजबूत पहाड़ी पर स्थित था, यहाँ आसपास में कोई आबादी नहीं थी। यह भव्य और रहस्यमय किला था। जब मैंने इस किले को देखने की योजना बनाई तो लोगों ने बहुत मना किया, किसी ने कहा कि यह भुतहा और अभिशप्त किला है, उसे देखना अशुभ होता है, वहाँ दिन में भी डाकू रहते हैं। सबसे ज्यादा विरोध तो दफ्तर के सहकर्मियों ने किया, वे हमारी इस तरह घूमने की आदत से त्रस्त रहते थे लेकिन मेरी जिद्द के कारण उन्हें मेरी बात माननी पड़ती थी। लोग कहते इस तरह का पागल अधिकारी इस जनपद में कोई नहीं आया जिसे दुर्गम जगहों पर घूमने की ऐसी आदत हो। इस तरह की राय हर जनपद में प्रकट की जाती थी।
जैसे हम कार से किले की ओर बढ़ने लगे, लोग चकित होकर देखने लगे, कुछ लोगों ने मना किया। मैंने बहुत से किले देखे थे लेकिन यह किला डरावना था, किले को देख कर यह लग गया था कि यहाँ कोई आता जाता नहीं था। यहाँ एक निर्जन भयावहता थी, यहाँ तक कि हवा की सरसराहट साफ सुनाई पड़ रही थी। इस किले में कई तल थे – लम्बे-लम्बे हाल थे – कुछ में कबूतरों की कालोनी बसी हुई थी, दूसरों में चगादड़ों की आबादी थी। हम लोगों का आहट सुनते ही वे झुंड में उड़ने लगे।
किले के एक हिस्से में जलती हुई आग दिखाई दी, बताया जाता है कि रात में यहाँ डाकू अपना डेरा डालते थे और लूटे हुए सामान और पैसों का बटवारा करते थे। किले का शिल्प–विधान बहुत खूबसूरत था, धीरे–धीरे यह किला जर्जर हो रहा था। यह किला ग्यारहवी शताब्दी में बना था और कई युद्धों का साक्षी रहा है। सन् 1257 से 1539 तक इस किले पर बुंदेलों का आधिपत्य था, सन् 1665 में ओरछा के राजा बीर सिंह जूदेव ने इस किले का जीर्णोद्धार कराया था।
झांसी शहर पहाडियों से घिरा हुआ शहर था, बारिश के बाद उसकी खूबसूरती निखर जाती थी। बारिश पहाड़ों को धुल देती थी, उनके ऊपर हरी–भरी वनस्पतियां उग आती थी। ठंडी हवाएँ चलती थी और हमें हिल–स्टेशन का सुख मिलता था। बांध पानी से लबालब भर जाते थे। झांसी में स्टोन क्रेशर माफिया भी सक्रिय था – जनपद और उसके आसपास कई दर्जन स्टोन क्रेशर माफिया थे जो खूबसूरत क्रेसर पहाड़ियों को विनष्ट कर रहे थे। वे पहाडियों के पास दैत्याकार खड़े रहते थे, उन्हें देख कर डर लगता था। अगर यही स्थिति रही तो पहाड़ियां नंगी हो जाएंगी – माफिया से कौन बच सकता था, वे ताकतवर लोग थे। सत्ता तक उनकी पहुंच थी। उन्हें लाइसेंस स्वीकृत किये जाने में पर्यावरण के मापदंडों की धज्जियां उड़ायी जाती थी। जिन पहाड़ियों की निर्मिति में हजारों-लाखों साल खर्च हो गये, उसके पीछे हत्यारे पड़ गये थे।
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दफ्तर के कामकाज के साथ आवारगी बद्स्तूर जारी थी, वही मेरी प्राण-वायु थी, उसकी कहानियां सुनाने बैठूंगा तो ये दिलचस्प विवरण छूट जाएंगे। जनपद के उस गुस्ताख अधिकारी की बात जरूर करूंगा जो अपने आपको जिले का सामंत समझता था। उसके पास उसी तरह का बिगडैल कुत्ता था जो दफ्तर के फाइलों के ढ़ेर में विचरण करता रहता था और उस पर टांग उठाकर पेशाब कर देता था, जब भी मैं वहाँ जाता था, उसकी इस बदत्तमीजी पर बहुत गुस्सा आता था। मैंने उनके स्टाफ से शिकायत की तो लोगों ने कहा कि उसकी आदतें मालिक से मिलती हैं। गोया सब लोग उसकी इस आदत से खफा थे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि वह यह बात कहे । कभी ए. डी. एम. स्तर के एक अधिकारी ने यह साहस किया लेकिन उन्हें जो डाट मिली कि वे तड़प कर रह गये।
मैं जब भी जाता था, उसे घूरता रहता था लेकिन वह उसी तरह ढ़ीठ की तरह मेरी ओर ताकता रहता था, यह अजब किस्म की जुगलबंदी थी। कोई किसी से हारना नहीं चाहता था। चूंकि वह आला अधिकारी का कुत्ता था इसलिए मनबढ हो गया था। एक दिन वह दफ्तर में नहीं था इसलिए मैंने चैन की सांस ली लेकिन जैसे स्कूटर से बाहर निकल रहा था उसने मुझे दौड़ा लिया। कुत्तों के बारे में यह कहा जाता है कि अगर वह पीछा करे तो रूक जाना चाहिए। इससे संकट टल जायेगा, लेकिन यह कुत्ता स्वयम में एक संकट था, उसने हबक कर मुझे काट लिया। मैं उल्टे दफ्तर पहुंचा तो वहाँ के स्टाफ ने मुझे डाक्टर के पास भेजा, जैसे घर पहुंचा बास का फोन आया – बिल्कुल न घबड़ाना उसे इंजेक्शन लगते हैं, उसके काटे का कोई असर नहीं होगा। उनकी सलाह को नजरंदाज करते हुए सूई का पूरा कोर्स पूरा किया – जब भी सूई लगती थी, मेरी जुबान से उनके लिए एक भद्दी सी गाली निकल आती थी। मुझे बाद में पता चला कि मैं उस कुत्ते का पहला शिकार नहीं था, बल्कि करीब आधा दर्जन अधिकारी पहले ही उसके शिकार बन चुके थे।
एक दिन जब मैं डी. एम. आफिस गया तो जनपद के तमाम डाक्टर वहाँ इकट्ठा हो गये थे। मुझे पता चला कि कुत्ते ने खुद उनको काट खाया था। हमें उन्होंने जो सलाह दी कि परेशान न होना उसे हर माह एंटी रैबी इंजेक्शन लगता है इसलिए किसी तरह की दवा न लेना – तुम जल्दी ही ठीक हो जाओगे लेकिन मैंने उनकी सलाह को नहीं आजमाया, चुपचाप दवा करता रहा। पर उपदेश कुशल बहु तेरे की कहावत मुझे याद आयी। उनको ले कर मेरे पास अनंत किस्से हैं, यह तो बस एक छोटा सा उदाहरण है।
शहर में आधा दर्जन से ज्यादा सिनेमा हाल थे, अधिकांश में नयी फिल्में लगती थीं – उन फिल्मों में कहो न प्यार है, फिल्म की याद आती है, उसकी शूटिंग मारीशस हुई थी। उसमें समुंदर तट के मोहक दृश्य थे। मारीशस की सुंदरता के बारे में अंग्रेजी के कवि मार्क ट्वेन ने लिखा था कि ईश्वर ने पहले मारीशस को बनाया फिर जन्नत का सृजन किया। यह राकेश रोशन और अमीषा पटेल की पहली फिल्म थी। आतंकवादी घटना पर आधारित ‘दिल से’ फिल्म ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। ‘प्यार तो होना ही था’ – अजय देवगन और काजोल की यादगार फिल्म थी, यह एक मनोहर प्रेम कथा थी। फिल्मों की भीड़ में कुछ फिल्में बन जाती है और हमें लम्बे समय तक याद रहती हैं – जब इन फिल्मों की याद आती है तो झांसी की याद आती है।
एक फिल्म ‘बार्डर’ भी उसी वक्त आयी थी जो मल्टी–स्टार फिल्म थी। यह फिल्म वायुसेना की पृष्ठभूमि पर आधारित थी। यह फिल्म दिल्ली के उपहार सिनेमा में चल रही थी,अचानक उसमें आग लग गयी थी। इस अग्निकांड में 59 लोगों की जान गयी थी और सैकड़ों लोग घायल हो गये थे। सिनेमाहाल में अग्निशामक यंत्रों की समुचित व्यवस्था नहीं थी। सिनेमा घर के ट्रांसफार्मर रूम में आग लग गयी थी। यह भयानक त्रासदपूर्ण घटना थी जो हमें अमेरिकन फिल्म टावरिंग इंफर्नो की याद दिलाती थी। इस अग्निकांड के बाद जनपद में सर्कुलर जारी किया गया था कि सिनेमाहालों में अग्निशामक यंत्रों की समुचित जांच कर ली जाए।
हर एक फिल्म की स्मृति शहरों और सन्दर्भो से जुडी होती है – जैसे भोजपुरी फिल्म बिदेशिया गीत- हंसि हंसि पनवा खिअवले बेईमनवा कि अपने बसेला परदेस - का ध्यान आते ही रामकोला की याद आती है, तीसरी कसम और आनन्द गोरखपुर की स्मृति से – सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है – या जिंदगी कैसी है पहेली जैसे गीतों से बावस्ता हैं। फिल्म रंगीला का तन्हा तन्हा यहाँ पे जीना, गीत मुझे मऊ जनपद की स्मृतियों से जोड़ता है। तुम आये तो आया मुझे याद कि गली में कोई चांद निकला-जख्म फिल्म के गीत से उस खिलद्दड़ लड़की की याद आती है जो कभी अपनी गली से हो कर मेरी गली में आ जाती थी और मेरा एलबम देखने लग जाती थी। वह मेरे जीवन के बहुत से सवाल पूछती थी जिसके जबाब मेरे पास नहीं होते थे। जब कहीं कोई मनपसन्द गीत बजता तो पुराने दिनों की याद आ जाती थी। किसी न किसी फिल्म की रील चलने लगती थी।
बुंदेलखंड के झांसी परिक्षेत्र झांसी में मेरा तीन साल का प्रवास था, ऐसी पथरीली जगहों पर कोई आना नहीं चाहता था, महकमें में ऐसी जगहों को काला-पानी कहा जाता है। किसी को सजा देनी होती थी तो उसे बुंदेलखंड के इलाके में भेज दिया जाता था। ट्रांसफर होने के बाद कोई उस जगह पर ज्वाइन करने नहीं आता था। बांदा, हमीरपुर, ललितपुर सरकारी कर्मचारियों के लिए किसी यातनास्थल से कम नहीं माने जाते थे। यही वजह थी कि जब मेरा यहाँ से ट्रांसफर हुआ तो मुझे तब तक नहीं अवमुक्त किया गया जब तक मेरे स्थान पर आये हुए अफसर ने चार्ज नहीं ले लिया। झांसी में मैंने क्या पाया क्या खोया इसे याद करते मेरी नसें तन जाती हैं।
नयी शताब्दी आसन्न थी। मैंने सोचा कि जीवन में कुछ न कुछ जरूर बदलेगा। मेरी तरह बहुत से लोग 21वीं सदी का इंतजार हसरत के साथ कर रहे थे – एक बात तो तय हो चुकी थी कि तारीखों के बदलने से जीवन और परिस्थितियां नहीं बदलतीं। 21वीं शताब्दी के प्रथम वर्ष में कई प्रियजन मुझे छोड़ कर जा चुके थे, मैं अनाथ सा हो चुका था। मैं लम्बी छुट्टी पर चला गया था, वैसे भी बहुत कुछ मेरे पास नहीं था, जो कुछ भी था, वह छिन चुका था। पिता और चाचा गांव पर थे, उनके जाने के बाद गांव का घर उजड़ चुका था। एक दौर था जब घर में सब कुछ भरा-पूरा था। खलिहान अनाज से भर जाते थे। आने-जाने वालों का मेला लगा हुआ था। अब वहाँ वीरानी का साम्राज्य था।
जब कभी मैं फ्लैश–बैक में जाता तो लगता कि कैसे एक–एक कर के लोग विदा होते गये, मां तो उस उम्र में गयी थी जिसकी हम कल्पना नहीं कर सकते थे, वह मुश्किल से चालीस की भी नहीं हुई थी। यह क्या जाने की कोई उम्र होती हैं, पेड़ के कटने के पहले जैसे परिंदे गायब होते है उसी तरह से परिवार के सदस्य हमसे बिछुड़ते गये। मैं सोचता हूं यह जिंदगी एक फिल्म की तरह होती है, जिसमें आकस्मिक घटनाएँ ज्यादा होती हैं, फिल्म अनवरत नहीं चलती, उसकी भी मियाद होती है। फिल्म को एक जगह पर खत्म होना होता है, हम फिल्म के अन्त को जान सकते हैं लेकिन जीवन के अन्त को जानना कठिन होता हैं। जीवन के दार्शनिक प्रश्नों के जबाब साधारण आदमी के पास नहीं होते।
इन घटनाओं ने मुझे भयानक डिप्रेशन में डाल दिया था, मैंने कई मनोचिकित्सक बदले लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। ज्यों ज्यों दवा की, दर्द बढ़ता ही गया, लोग कहते थे कि इस दर्द का इलाज समय है लेकिन यह नुक्सा मेरी जिंदगी में कभी फलित नहीं हुआ। डाक्टर ने मुझे जरूर बताया कि अब आप छुट्टी से लौट कर काम पर आ जाएं और अपने आपको व्यस्त रखने की कोशिश करें - जब आप अपने को थका देंगे तो खूब नींद आएगी। नींद तो मुझसे कोसो दूर थी, आज भी वह मुझ पर मेहरबान नहीं है।
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स्वप्निल श्रीवास्तव
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इस अंक में आपने सिनेमा, सिनेमा मालिकों और उन जनपदों का उल्लेख किया है जहां जहां आप रहे। हर जिले के मिजाज का बखूबी बखान किया है। यह सही है कि कुछ गीतों से जिलों की याद जुड़ती जाती है। विभागीय मामलों पर कलम कम चली। आपके इस लेखन में मैं विभागीय अधिकारियों, सिनेमा मालिकों, स्टाफ से जुड़े संस्मरण एवं आपके ख़ास तरह के विष्लेषण की ज्यादा उम्मीद रखता हूं, जिसने मुझे पूर्व के अंकों की भांति संतुष्ट नहीं किया है, आस रहेगी।
जवाब देंहटाएंश्रीप्रकाश