सदानन्द शाही के संग्रह ''माटी पानी' की आशीष मिश्र द्वारा की गई समीक्षा 'माटी पानी की कविता'।

 


                                               

सदानन्द शाही की ख्याति आमतौर पर महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'साखी' के सम्पादक के रूप में है। शाही जी की दूसरी ख्याति एक आलोचक के तौर पर भी है। आलोचना की तीन गम्भीर पुस्तकें उनके नाम हैं। लेकिन शाही जी के व्यक्तित्व से जो भी परिचित है, वह आसानी से यह महसूस कर सकता है कि शाही जी मूलतः एक कवि हैं। भले ही उन्होंने संख्यात्मक रूप से कविताएँ कम लिखी हैं, लेकिन इनकी कविताओं से हो कर गुजरने पर अहसास होता है कि कवि अपनी कविताओं को लेकर कितना संजीदा है। उनका पहला कविता संग्रह 'असीम कुछ भी नहीं' अरसा पहले प्रकाशित हुआ था। करीब दो दशक बाद उनका दूसरा संग्रह 'माटी पानी' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा की है युवा आलोचक आशीष मिश्र ने। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं सदानन्द शाही के संग्रह ''माटी पानी' की आशीष मिश्र द्वारा की गई समीक्षा 'माटी पानी की कविता'

 

 

माटी-पानी की कविता

 

 

आशीष मिश्र

         

 

रावण एक दफ़ा रामजी के पास आया और दौड़कर पाँव पर गिर पड़ादेखिए भगवान, अब हम दोनों में कोई टसल बाक़ी नहीं है; एक सीताजी थीं, वह भी धरती में समा गईं, इसलिए वह मामला तो अब बचा नहीं। रही बात राजकाज की, तो मैं भी अब आप ही की तरह जनता को जीवन समर्पित कर चुका हूँ। आपकी भी उम्र हो चुकी है। पूरी ज़िंदगी सबके लिए मरते-जीते रहे, कुश-कांटा-जंगल-पहाड़ घूमते रहे, दिन को दिन समझा रात को रात, लेकिन कौन हुआ आपका? अब आपको भी आराम चाहिए। आप आराम कीजिए और मुझे भी सुधरने का मौका दीजिए। मैं तन-मन-धन से आपकी ही पॉलिसी लागू करूँगा। अब देखिए, आप तो भक्तों के माई बाप हैं... यही कहकर रावण रामजी का पैर पकड़ कर लगा रोने... लगा रोने..., रामजी ने सोचा कि बात तो ठीक ही कह रहा है, एक बार इसे भी मौका देना चाहिए। रामजी ने कहा देखिए रावण भाई, मैं मौका तो आपको दे रहा हूँ, लेकिन आप किसी शिकायत का मौका मत दीजिएगा। रावण ने राम कसम खाकर कहाकुछ भी गलत हो आपकी जूती मेरा सिर, मैं आपकी ही रीति नीति लागू करूँगा। रामजी को विश्वास हो गया, उन्होंने कहा- अच्छा  लीजिए, राजकाज संभालिए... लेकिन मैं क्या करूँ? रावण छूटते ही बोला आपके लिए पहले से रिसॉर्ट बनवा दिया है, वहीं रहकर आराम से ध्यान-भजन कीजिए। रामजी ने कहा, अच्छा ठीक है। रावण थोड़ा रुककर बोला महराज अपने इस भक्त पर एक और कृपा कीजिए, मैं यह दस सिर को ढोते-ढोते परेशान हो गया हूँ, इससे राजकाज में भी दिक्कत होती है ऊपर से लोग विश्वास भी नहीं करते। आप मेरा यह दसों सिर ले लीजिए और अपना रूप मुझे दे दीजिए। रामजी ने कहा भक्त ही मेरी कमजोरी हैं, और अब जब आप भक्त बन ही गए हैं, तो जो चाहे माँग लीजिए। यही कहकर रामजी अपना रूप रावण को देकर और उसका दस मुँह लेकर दरवाज़े की तरफ बढ़े ही थे कि गड़प से दरबानों ने धर लिया और लेजाकर जेल में पटक दिया। रामजी ने आश्चर्य से पूछा अरे, मुझे तो रिसॉर्ट में जाना था ? दरबानों ने कहा यही रिसॉर्ट है, आदमी की तरह रहिए यहीं चुपचाप। इधर रावण रामजी का चेहरा लगाए शासन करने लगा। सबको लगा कि रामराज्य गया है और लोग जयजयकार करने लगे।

         

 

यह सदानंद शाही की एक भोजपुरी कविता का खड़ी बोली में उल्था है। शायद कविता का उल्था कहना सटीक नहीं है, कथ्य का उल्था कहिए, क्योंकि इस कविता की जान उसकी कहन और नाटकीय भंगिमा में है, जिसे खड़ी में उतार पाना संभव नहीं है। अगर यह बताना पड़े कि कब का और कौन-सा रामराज्य है तो यह एक पाठक के तौर पर आपके लिए शर्मिंदगी की बात है। कारण कि आप स्वयं उसी समय में जी रहे हैं जिसमें यह कविता लिखी जा रही है। यह कविता शाही जी के नये संकलन माटी पानी में पीछे की तरफ संकलित बारह भोजपुरी कविताओं में से एक है। कोई यह भी सोच सकता है कि मैं पीछे से क्यों शुरू कर रहा हूँ! वह इसलिए कि मुझे अध्यापकों, संबंधियों और मित्रों की किताबों पर संशय में रहता है। लगता है मज़बूरी में पढ़ रहा हूँ। इसलिए सामान्यतः पढ़ता नहीं या फिर बेमन से पलटकर बधाई संदेश लिख देता हूँ। इस किताब को भी बेमन से फ़ारसी समझकर पलटना शुरू किया था, उधर ही यह कविता मिल गई। फिर इस कविता के प्रभाव में पूरा संग्रह पढ़ गया।

         

 

प्रो. सदानंद शाही मेरे अध्यापक रहे हैं, लेकिन उनसे कभी कोई लगछुआव नहीं रहा। चार साल पहले जब उन्हें बिलासपुर विश्वविद्यालय का कुलपति बनाए जाने की घोषणा हुई तो मेरे मन में आया कि शाही जी बदलती सरकारों के साथ जगह बदलने वाले, गोरखपुरिया समाजवादी होंगे, लेकिन इस संग्रह के बाद मैं अपनी धारणा को निराधार पा रहा हूँ। बल्कि यह भी समझ पा रहा हूँ कि संघबद्ध लोगों ने उनकी नियुक्ति पर इतना बवाल क्यों मचाया होगा। शाही जी को रोकने के लिए तथ्य चाहे जो दिया गया हो, लेकिन वास्तविक कारण विचारधारात्मक ही था। मैं समझता हूँ कि जो लोग प्रगतिशील होने के नाते उनकी नियुक्ति का विरोध कर रहे थे उनके पास तथ्यों की कमी नहीं पड़ी होगी। मैं तो विरोधियों को लेखों की जगह दलील में उनका यह कविता संग्रह रखने की सलाह देता। लेखों का क्या है, उसमें तो छल-छद्म की अपार गुंजाइश रहती है, कविता आत्मा का दर्पण है। लेकिन कविताओं को समझाता कौन? समझाने के लिए भी शाही-जैसे किसी की जरूरत पड़ती।    

         

 

लंबे समय तक रस्सी आने-जाने से पत्थर पर निसान पड़ता है, ठीक बात है, लेकिन निसान डालने में जाने कितनी रस्सियाँ घिस कर टूट जाती हैं। एक तरफ़ जड़मति पहाड़, दूसरी तरफ़ कपिल, महावीर, बुद्ध, गोरख, कबीर, रैदास, मीरां... सब घिसते-घिसते घिस गए, लेकिन पहाड़ नहीं घिसा। नये समय में तो पत्थरपूजा नई ऊँचाइयाँ छू रहा है, अब वह आत्मरक्षा से आगे आक्रामक है, रस्सियों को खोज-खोजकर घिस रहा है। शाही जी भी उसी में रगड़ गये। आज जिस व्यक्ति में संशय, आत्मपरीक्षण, आत्मस्वीकार, आत्मालोचना का नैतिक बल हो उस आत्मलिप्त निष्क्रियता को पत्थर कोटि में ही रखना चाहिए। दूसरी तरफ़ शाही हैं, जिनकी आत्मालोचना उन्हें सामयिक राजनीति की आलोचना तक ले जाती है   

 

 

मैं गांधी से नजरें बचा कर

निकल जाना चाहता था

कि कहीं पूछ बैठें-

'गोड्से की प्रतिमा क्यों लगवायी

ऐन दो अक्टूबर के दिन'

फिर मैं क्या जवाब दूँगा?”

 

 

अब देखिए, अगर किसी व्यक्ति में यह आत्मसंशय और अपराधबोध मौजूद है तो वह हिंसक राष्ट्रवाद का थलचर कैसे बन सकता है? जिसमें भी मनुष्यता सच्ची भारतीयता के ये सब लक्षण मौजूद हैं, उसमें किसी भी समय संशय पैदा होकर सब चौपट कर सकता है। संशय आत्मपरीक्षण का यही वह लक्षण है जो 'देशद्रोह' और 'देशप्रेम' की परिभाषाओं तक बढ़ रहा है

 

 

हरसिंगार देशद्रोह है

गुलाब देशद्रोह है

पलाश देशद्रोह है

जूही, चंपा, चमेली वगैरह

सब देशद्रोह है।

हरा रंग देशद्रोह है

लालरंग देशद्रोह है

सफेद, नीला, पीला, गुलाबी वगैरह

सब देशद्रोह है।

 

 

यह तो थी देशद्रोह का वर्णन। अब देशप्रेम की परिभाषा सुनिए

 

 

भेड़ चाल चलना

सीटी बजते ही हुआँ-हुआँ करना

कोमल और सुंदर पर

टूट पड़ना...

 

 

पिछले कुछ वर्षों किस-किस चीज़ को देशद्रोह नहीं बना दिया गया; हरा रंग देशद्रोही हो गया, सरकार की आलोचना देशद्रोह है, मुस्लिमों से लगाव देहद्रोह है, मज़ार जाना, कव्वाली सुनना देशद्रोह! कोई कार्टून के लिए, कोई गाने के लिए, कोई खाने के लिए... किसिम-किसिम के देशद्रोही बने हैं पिछले दिनों। इसी तरह देशप्रेम की भी बाढ़ आई हुई है; बलात्कारी के पक्ष में नारे वाले देशभक्त, भीड़ में पीट कर मार डालने वाले देशभक्त, कश्मीरी बेटियों को बहू बनाने की हशरत वाले देशभक्त बने! मतलब एक ही साथ देशद्रोही और देशप्रेमी, दोनों में उछाल दर्ज़ किया जा रहा है।  

         

 

सदानन्द शाही

 

 

कविता विवेक की तरफ़ ले जाती है। आस्था विवेक-विसर्जन की तरफ़। कविता सीधा करके सुलझाती है। आस्था उलटा करके चीजों को उलझा देती है। दीवार पर एक नारा देखा गोहत्यारों को फाँसी दो! एक बारगी तो इसपर ध्यान नहीं दिया फिर समझ में आया कि यह तो पशु के लिए आदमी को फांसी देने की मांग है! लेकिन वह साम्प्रदायिक उन्माद क्या जो आदमी और पशु का क्रम बदल दे। कविता इसीलिए हमेशा उन्माद और आस्था के बरक्स खड़ी होकर उसे पुनर्परिभाषित करती आई है। पीछे की भोजपुरी कविताओं में कहते हैं-

 

 

माई से माई के तरे मिलिहs

गाई से गाई के तरे मिलिहs

यही में भलाई बा।

 

 

बाबा और नेता मिल कर सिखा रहे हैं कि मां को गाय की तरह मानो और गाय को मां की तरह। उसी उलटबांसी पर तो उनका जीवन टिका है। लेकिन कविता का जीवन मानवीय संवेदना और प्रेम है। उसे गाय से भी लगाव है, लेकिन माँ की तरह नहीं, गाय की तरह। इसलिए कविता गाय के लिए माँ की फांसी नहीं मांग सकती। उलटी खोपड़ी के लोग अपनी मूर्खता की रक्षा के लिए संस्कृति का तर्क देंगे। आदमी पर गाय की प्राथमिकता साबित करने के लिए भारतीय संस्कृति का हवाला देंगे। उनसे पूछिए संस्कृति क्या है तो कहेंगे कि

 

संस्कृति प्राचीन होती है

भारत एक प्राचीन देश है

इसलिए जो प्राचीन है वही भारतीय संस्कृति है।

 

...लेकिन किन्तु परन्तु की कोई गुंजाइश नहीं

जो मैं कहूँ वही संस्कृति है।

 

 

यह 'संस्कृति क्या है?' शीर्षक कविता का ही अंश है। देखिए कि शाही जी की मनुष्यता उन्हें कहाँ-कहाँ ले जा रही है। एक संवीदनशील मानवीय हृदय कितने प्रपंच और क्षद्म को भेदने की क्षमता रखती है।

         

 

यह समय विज्ञापन का समय है, बाजार से लेकर सरकार तक, सब विज्ञापन के दम पर चल रहे हैं। इसी से आदमी का चित्त विजय किया जाता है। वरना यह कैसे संभव है कि आदमी अपनी और अपने बच्चों की भूख मिटाने के बजाय अपने भगवान को लड्डू और दूसरे धर्म के लिए भाला खोजते घूमे! चाहे बाजार में हिमगंगे तेल बेचने वाला बाजार का नायक हो। या राजनीति के नए महानायक,

 

वे मां को बदल सकते हैं एवरेस्ट मसाले में

एवरेस्ट को बंदर छाप दंतमंजन में

वे प्रेम को नवरतन तेल में बदल सकते हैं

ममता को बोतल में बंद करके

बेंच सकते हैं

सात समंदर पार

वे हमारे समय के महानायक हैं।

 

कविता को अगर हर बात के लिए संज्ञा का प्रयोग करना पड़े तो यह उसकी असफ़लता है। और पाठक में इतनी क्षमता तो होनी ही चाहिए कि वह उस टेक्स्ट में समय के संकेतों को पल्लवित कर सके। इस आवाज़ के पीछे एक समझ है। भाषा में फूल भी उगाया जा सकता है और बारूद भी भरा जा सकता है। कई बार ऐसी सत्ताएं आती हैं जो भाषा में बारूद भर देना चाहती हैं ताकि सदियों तक कई पीढ़ियाँ आत्मघाती बम्बर बन जाएँ और सत्ताएँ मजा लूटती रहें। लेकिन कवि भाषा में बाग़वानी करने आता है। भाषा में कांटे और नाखून उगाने वाला आदमी कभी कवि नहीं हो सकता। और भाषा में उगे नाखून धीरे-धीरे

 

"उग आते हैं

हमारे विचारों में

और धीरे धीरे सरक आते हैं

हमारी क्रियाओं में।"

 

यह दृष्टि तात्कालिक नहीं है। इसके पीछे भाषा, चेतना, चिंतन और क्रिया के अंतर्संबंधों की बहुत गहरी समझ है।

         

 

देखिए, गलत जगह से बात शुरू करने में यही दिक़्क़त है। मैं इस संग्रह की सबसे अच्छी कविताओं का ज़िक्र करने के बजाय जवाब देने पर लगा गया। यह शाही जी का दूसरा संग्रह है। पहला संग्रह आज से दो दशक पहले आया था। और हिंदी में जिस तेजी से पीढ़ियों की गड़ना होती है उस हिसाब से कोई कहना चाहे तो कह ले कि दूसरा संग्रह दो पीढ़ी बाद आया। इसका कारण यही है कि शाही जी कविता की दुनिया के स्थायी नागरिक नहीं हैं। उनके लिए यह कोई किला नहीं है जिसे जीतने के लिए बेचैन हों, तफ़रीह में आते हैं यहां। इसके बाहर जीवन के अनगिनत मोर्चों पर लड़ते हुए यहाँ मन हल्का करने आते हैं। और फिर यहां से ताकत लेकर फिर उन्हीं मोर्चों पर लौट जाते हैं। इसलिए ये कविताएँ बहुत सहज और निर्भार हैं। जो लोग सिर्फ़ कविता के निवासी हैं वे अपनी ऊब और गैस से पाठकों का दम भी घुटा देते हैं। उनमें जीवन का पता ही नहीं चलता। कविता ही जीवन का जगह ले लेती है।

         

 

शाही जी के यहां यह साफ दिखाई पड़ता है कि यह जीवन के समानांतर एक प्रतिजीवन है; जीवन का नैतिक और सौन्दर्यसम्पन्न प्रति-जीवन, एक प्रति-संसार। एकदम उन्मुक्त और हर तरफ से खुला हुआ। जब कविता की जमीन से जीवन को देखने वाली आत्मबद्धता जाती है तब कविता वायुरुद्ध हो कर अपनी आवश्यता, प्राथमिकता भूलकर गुत्थी बन जाती है। जब उसे जीवन की जमीन से देखा जाता है और जीवन का ही विस्तार समझा जाता है तो वह जीवन का हल बन जाती है। उसमें सहजता, कौतुक और उन्मुक्तता और जीवनशक्ति होती है। यह वही विवेक है जहाँ से एक कविता में यह प्रश्न पैदा हुआ है कि जब सारी दुनिया अपना काम कर रही है तुम क्या करते हो कवि? एक बेहद खूबसूरत कविता है कविताएँ आसमान से उतर रही हैं ऐसा लगता है कि दूब की नोक पर ओस की तरह, फेंकी हुई गुठलियों से अमोले की तरह, महुए की तरह टपक रही है,  नदियों में लहर रही है, धान की बालियों से झर रही है... ऐसा लगता है सौंदर्य का कोई आसमानी सोता फुट पड़ा हो। यह पूरा उदात्त सौन्दर्यानुभूति और व्यंजक हो उठता है जब वे लिखते हैं,

 

है कोई

शंकर

जो इन्हें सहेजे

अगर चली गईं पाताल में

तो

गजब हो जाएगा!"

 

अगर मनुष्य की यह सौन्दर्यनुभूति खत्म हो जाए तो यह दुनिया किसी धोख या धूल-मिट्टी के ढेर से ज्यादा रह जाएगी। यह उनकी सौन्दर्यनुभूति ही है जो इसे इतना मोहक बना देती है। बहुत छोटी छोटी चीजों में यह सौंदर्य पकड़ते हैं। जैसे एक कविता हैभटनी जंक्शन। पंडब्बा, जगन्नाथ भाई, आवाजें आदि ऐसी ही कविताएँ हैं।

         

 

इस संग्रह की कविताएँ किसी अपूर्व सत्य की उपलब्धि या विशिष्ट अनुभूतियों की कविता नहीं है। जीवन की प्रक्रिया में कुछ सामान्य अनुभूतियों, सूझ, समझ की कविताएँ हैं। और यह सब शाही जी के मन में इतना स्पष्ट उभरता है कि अभिव्यक्ति में कहीं कोई उलझाव नहीं है। उलझाव को सुलझाने के लिए मुहावरों, पारम्परिक लय, सूक्तियों, आदि के प्रयोग इसे और संप्रेषणीय बना देता है। आप इस संग्रह को एक बार पढ़ना शुरू करेंगे तो पूरा पढ़ कर ही रखेंगे और बहुत सारी बातें आपके दिल-दिमाग में छूट जाएँगी।

 

 

संग्रह- माटी-पानी

प्रकाशन- लोकायत

मूल्य- 125 रुपये

 

 


 

 

 

सम्पर्क

 

मो – 9990668780

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी समीक्षा
    मुझे साही जी के लेखन की जानकारी नही थी

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