गोपाल प्रधान का आलेख ‘पूंजी’ का यूरोप में प्रसार
पूंजी कार्ल मार्क्स द्वारा लिखा गया युगांतकारी ग्रंथ है। इस ग्रंथ को शुरुआत में आलोचनाओं का सामना करना पडा। प्रतिभा से ईर्ष्या कोई नयी बात नहीं। बहरहाल मार्क्स द्वारा रचित इस ग्रंथ में वह बात थी जिससे शीघ्र ही इस ग्रंथ को लोकप्रियता मिलनी शुरु हो गयी। बैक्स ने तो न केवल यह माना कि ‘पूंजी’ इस ‘सदी की सबसे महत्व की किताबों में से एक है’, बल्कि मार्क्स की शैली की भी प्रशंसा की और उसकी तुलना इसके ‘आकर्षण और उमंग’, इसके ‘हास्य’ और इसकी ‘सर्वाधिक अमूर्त सिद्धांतों की अत्यंत बोधगम्य प्रस्तुति’ के लिए शापेनहावर से की। मार्चेलो मुस्तो की किताब ‘मार्क्स के आखिरी दिन’ का प्रवाहपूर्ण अनुवाद किया है प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक गोपाल प्रधान ने। इस किताब का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर पढते हैं गोपाल प्रधान का आलेख ‘पूंजी का यूरोप में प्रसार’।
गोपाल प्रधान
बुजुर्ग की मकबूलियत
‘पूंजी’ का यूरोप में प्रसार
1881 में मार्क्स अंतर्राष्ट्रीय मजदूर आंदोलन के लिए अब भी वैसे सैद्धांतिक संदर्भ नहीं बने थे जिस तरह का संदर्भ वे बीसवीं सदी में बनने वाले थे। 1848 की क्रांतियों की पराजय के बाद बहुत कम राजनीतिक नेता या बुद्धिजीवी उनसे जुड़े रह गए थे। उसके अगले दशक में भी हालात में कोई खास सुधार नहीं आया था।
कार्ल मार्क्स |
इंटरनेशनल के विकास और पेरिस कम्यून की यूरोपव्यापी अनुगूंज ने तस्वीर बदल दी थी और उनका नाम फैल गया तथा उनके लेखन का ठीक ठाक प्रसार होने लगा। ‘कैपिटल’ का प्रसार जर्मनी में शुरू हुआ (वहां 1873 में एक नया संस्करण छपा था), रूस (जहां 1872 में इसका अनुवाद छपा) और फ़्रांस (जहां 1872 से 1875 के बीच टुकड़ों में इसका प्रकाशन हुआ) में भी इसकी बिक्री होने लगी। बहरहाल इन जगहों पर भी मार्क्स के विचारों को समकालिक अन्य समाजवादियों के विचारों के साथ अल्पमत में रहते हुए होड़ करनी पड़ती थी।
Pierre Joseph Proudhon |
जर्मनी में मार्क्स से जुड़ी सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर’स पार्टी (SDAP) और फ़र्दिनान्द लासाल द्वारा स्थापित जनरल एसोसिएशन आफ़ जर्मन वर्कर्स (ADAV) ने गोथा विलय कांग्रेस के जरिए 1875 में एक ऐसा कार्यक्रम अपनाया जिस पर लासाल के अधिक मजबूत निशान थे। फ़्रांस और बेल्जियम में मजदूर वर्ग के भीतर पियरे-जोसेफ प्रूधों के विचार अधिक प्रभावी थे और मार्क्स के विचारों से प्रेरित समूह संख्या-बल या राजनीतिक पहलकदमी के लिहाजन अगस्त ब्लांकी से प्रभावित समूहों के मुकाबले कुछ खास अधिक न थे। रूस में एक खास जटिलता यह थी कि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति की मार्क्सी आलोचना को पिछड़े समाजार्थिक और राजनीतिक माहौल में पढ़ा और व्याख्यायित किया जा रहा था जो पूंजीवादी विकास के पश्चिम यूरोपीय माडल से खासा अलग था। दूसरी ओर ब्रिटेन में मार्क्स लगभग अज्ञात बने हुए थे[1] तथा इटली, स्पेन और स्विट्ज़रलैंड में उनकी रचनाओं के पाठक मुश्किल से मिलते थे क्योंकि वहां 1870 दशक में मिखाइल बाकुनिन का असर गहरा था। अटलांटिक सागर के दूसरे किनारे अमेरिका में बहुत कम लोगों ने उनके बारे में सुना भी था।
Mikhail Bakunin |
इसका एक और कारण यह था कि ‘कैपिटल’ समेत उनका अधिकांश लेखन अपूर्ण था। 1881 में जब उनसे कार्ल काउत्सकी ने पूछा कि आपकी सम्पूर्ण रचनाओं को छापने का समय आ गया है या नहीं तो उन्होंने व्यंग्य से जवाब दिया कि ‘पहले तो उन्हें लिखा जाना होगा’।
Karl Kautsky |
हालांकि मार्क्स अपने विचारों के विश्वव्यापी प्रसार को देखने के लिए तो जिंदा नहीं रहे लेकिन जीवन के आखिरी सालों के दौरान यूरोप के अनेक हिस्सों में उनके सिद्धांतों, खासकर उनके महान ग्रंथ में रुचि अधिकाधिक बढ़ती गई। इसके चलते परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाओं का जन्म हुआ। 1881 के उत्तरार्ध में कभी एंगेल्स ने एडुआर्ड बर्नस्टाइन (1850-1932) को लिखा कि ‘मार्क्स से ईर्ष्या’ ने भी सिर उठा लिया है। उदाहरण के लिए सोशलिस्ट वर्कर्स’ पार्टी फ़ेडरेशन आफ़ फ़्रांस (FPTSF) के भीतर ही दो धाराओं का टकराव चल रहा था। इस टकराव में एक ओर पूर्व अराजकतावादी पाल ब्रूस (1844-1912) के नेतृत्व में ‘सम्भववादी’ थे तो दूसरी ओर जूल्स गुदे (1845-1922) के नेतृत्व में मार्क्स के विचारों का एक समर्थक समूह था। विभाजन अनिवार्य था जिसके चलते दो नई पार्टियां अस्तित्व में आईं। एक, सुधारवादी सोशलिस्ट वर्कर्स’ फ़ेडरेशन आफ़ फ़्रांस (FTSF) और दूसरी, फ़्रेंच वर्कर्स पार्टी (POF) जो फ़्रांस की पहली ‘मार्क्सवादी’ पार्टी थी। लेकिन इस विभाजन से पहले अंदर ही दोनों समूहों के बीच तीखी वैचारिक लड़ाई होती रही थी। कुछ समय बाद मार्क्स को भी इसमें खींच लिया गया और जून 1880 में गुदे और पाल लाफ़ार्ग के साथ मिल कर उन्होंने फ़्रांस के वाम राजनीतिक मंच, फ़्रेंच वर्कर्स पार्टी का चुनावी कार्यक्रम भी लिखा।
EDWARD BERNSTEIN (1850-1932) |
ऐसे माहौल में ब्रूस और कम्यून के योद्धा तथा समाजवादी लेखक बेनोइत मालों (1841-1893) ने मार्क्स के सिद्धांतों को बदनाम करने के लिए हरेक साधन का सहारा लिया। उनका कड़ा जवाब देते हुए एंगेल्स ने खासकर मालों पर आरोप लगाया जो उनके मुताबिक ‘मार्क्स की खोजों का जनक साबित करने के लिए तमाम (लासाल, शाफ़्ले और असल में द पाएपे!) अन्य पूर्वजों को खोजने या थोपने का परिश्रम कर रहे हैं’ । इसके बाद उन्होंने द प्रोलेतारियन नामक साप्ताहिक के संपादकों की खबर ली जिन्होंने गुदे और लाफ़ार्ग पर मार्क्स का ‘भोंपू’ बजाने और ‘बिस्मार्क के हाथ फ़्रांसिसी मजदूरों को बेचने की चाहत’ का आरोप लगाया था। मालों और ब्रूस की शत्रुता को एंगेल्स ने अंध राष्ट्रवाद का लक्षण माना।
‘अधिकांश फ़्रांसिसी समाजवादियों के लिए यह अभिशाप है कि जिस देश ने दुनिया भर को फ़्रांसिसी विचारों का वरदान दिया उसे----और ज्ञानोदय के केंद्र पेरिस को अब अचानक अपने समाजवादी विचार एक जर्मन व्यक्ति, मार्क्स से तैयारशुदा शक्ल में आयातित करने होंगे। लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता और इससे भी आगे मार्क्स की प्रतिभा, उनके जबर्दस्त वैज्ञानिक परिश्रम और उनके अविश्वसनीय पांडित्य ने उन्हें हम सबसे इतना आगे पहुंचा दिया है कि जो कोई भी उनकी खोजों की आलोचना करने की कोशिश करेगा उसकी उंगली ही सबसे पहले झुलस जाएगी। इस काम को थोड़ा और विकसित युग के लिए छोड़ देना होगा।’
एंगेल्स समझ नहीं सके कि ‘कोई प्रतिभा से कैसे ईर्ष्या’ कर सकता है इसलिए आगे कहा: ‘लेकिन छोटे दिमाग वाले छिद्रान्वेषी, जिनका अन्यथा कोई माने मतलब नहीं फिर भी खुद को बेहद महत्वपूर्ण लगाते हैं, उन्हें खासकर इस बात पर गुस्सा आता है कि अपनी सैद्धांतिक और व्यावहारिक उपलब्धियों के चलते मार्क्स को विभिन्न देशों के समस्त मजदूर आंदोलन के सर्वोत्तम लोगों का सच्चा भरोसा हासिल है। संकट की किसी भी स्थिति में वे उनसे ही सलाह मांगते हैं और आम तौर पर उनकी सलाह सर्वोत्तम साबित होती है। उनको यह भरोसा छोटे छोटे देशों की तो जाने दीजिए, जर्मनी में, फ़्रांस में और रूस तक में हासिल है। इसलिए मार्क्स उन पर अपनी राय, मर्जी का तो सवाल ही नहीं, थोपते नहीं हैं, बजाय इसके ये लोग ही उनके पास स्वेच्छा से आते हैं। और ठीक इसी अर्थ में उनका प्रभाव पड़ता है, आंदोलन के लिए इस प्रभाव का महत्व सबसे अधिक होता है।’
Fridrih Engels |
ब्रूस और उनके समर्थक जैसा समझते थे उसके विपरीत मार्क्स के मन में उनके प्रति कोई खास दुराव नहीं था। एंगेल्स ने स्पष्ट किया कि ‘फ़्रांसीसियों के प्रति मार्क्स का वही रुख (था) जो अन्य देशों के आंदोलनों के प्रति’ था जिनके साथ उनका ‘निरंतर सम्पर्क था—उस हद तक जिस हद तक उसका कोई मूल्य महत्व होता और जिस हद तक अवसर उपलब्ध होता’ था। निष्कर्ष के रूप में एंगेल्स ने जोर दिया कि ‘लोगों की इच्छा के विपरीत उन्हें प्रभावित करने की चेष्टा से हमें नुकसान (ही) होगा (और) इंटरनेशनल के दिनों से कायम पुराना भरोसा टूटेगा’।
गुदे और लाफ़ार्ग से स्वतंत्र भी अनेक फ़्रांसिसी लड़ाकू मार्क्स के सम्पर्क में थे। 1881 के शुरू में उन्होंने अपने दामाद चार्ल्स लांग्वे (1839-1903) को सूचित किया कि उनसे एक समाजवादी योद्धा और प्रकाशक एडुआर्ड फ़ोर्तिन (1854-1947) ने सम्पर्क किया है।
‘(उन्होंने) मुझे ढेर सारे पत्र ‘मेरे प्यारे स्वामी’ संबोधन के साथ लिखे हैं। उनकी मांग बेहद ‘साधारण’ है। उनका प्रस्ताव है कि ‘पूंजी’ को पढ़ते हुए वे उसका मासिक सार तैयार करेंगे और जिसे अत्यंत उदारता के साथ उन्होंने मुझे हरेक महीने भेजने का वादा किया है। वे यह भी चाहते हैं कि मैं मासिक दर से उन्हें सुधार दूं ताकि अगर किसी विंदु को उन्होंने गलत समझा हो तो वह स्पष्ट हो जाए। इस चुप्पा तरीके से जब वे आखिरी मासिक किस्त भेज दें और मैं सुधार कर वापस भेज दूं तो उनके पास प्रकाशन योग्य ऐसी पांडुलिपि होगी जिससे, उनके मुताबिक, फ़्रांस प्रकाशवर्षा से नहा उठेगा।’
चूंकि वे कुछ और महत्वपूर्ण मामलों में व्यस्त थे इसलिए मार्क्स ने फ़ोर्तिन को सूचित किया कि उनके अनुरोध को स्वीकार करना फिलहाल असम्भव है। लेकिन इस सम्पर्क के चलते एक अन्य बेहतर काम हो गया जब बाद में फ़ोर्तिन ने ‘लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर’ का फ़्रांसिसी अनुवाद किया और इसे 1891 में छपवाया।
1881 में ‘पूंजी’ का एक लोकप्रिय सारांश डच भाषा में प्रकाशित हुआ। 1873 में जोहान मोस्ट (1846-1906) और 1879 में कार्लो काफ़िरो (1846-1892) वाले सारांशों के छपने के बाद यह तीसरा इस किस्म का प्रकाशन था। इसे लिखने वाले फ़र्दिनांद न्यूवेनहुइस ने परिशिष्ट जोड़ा ‘लेखक इस कृति को अत्यंत विनीत श्रद्धा के प्रतीक के रूप में कार्ल मार्क्स को समर्पित करता है जो गहन चिंतक और मजदूरों के अधिकारों के प्रबल योद्धा हैं’। उन्होंने प्रशंसा के भाव से मार्क्स के काम को मान्यता दी जिसका प्रसार अनेक यूरोपीय देशों में शुरू हो चुका था।
फ़रवरी 1881 में आगामी दूसरे संस्करण को ध्यान में रखते हुए मार्क्स ने न्यूवेनहुइस से कहा कि उनकी निगाह में काम बेहतरीन हुआ है और अब वे अपने कुछ सुझाव देना चाहते हैं ‘जिन भी संशोधनों को मैं जरूरी समझ रहा हूं उनका रिश्ता विवरणों से है, प्रमुख चीज, काम की भावना इसमें आ गई है’। इसी पत्र में उन्होंने अपनी एक ऐसी जीवनी का जिक्र किया जो एक उदारपंथी डच पत्रकार आर्नोल्डस केर्दिक (1846-1905) ने ‘मानेन वान बेटीकेनिस’ (हमारे समय के महत्वपूर्ण लोग) नामक एक पुस्तक श्रृंखला के तहत 1879 में छपाई थी। इसके प्रकाशक निकोलस बालसेम (1835-1884) ने उनके जीवन के बारे में सामग्री प्राप्त करने के लिए मार्क्स से सम्पर्क किया था और कहा था कि उनके विचारों से सहमत न होने के बावजूद उनके महत्व को समझता है। मार्क्स ‘ऐसे अनुरोधों को आदतन खारिज कर देते थे’ और बाद में छपे हुए पाठ को पढ़ कर गुस्सा हुए कि उनको ‘जान बूझ कर गलत उद्धृत किया गया’ है। उन्होंने न्यूवेनहुइस को लिखा:
‘एक डच पत्रिका ने अपना कालम मेरे (उत्तर के) लिए खोलने का प्रस्ताव किया लेकिन सिद्धांतत: मैं इस तरह के खोद विनोद का जवाब नहीं देता। लंदन में भी कभी मैंने इस तरह की साहित्यिक बकवास पर कभी तनिक भी ध्यान नहीं दिया। कोई भी दूसरा रास्ता अपनाने का मतलब होता कैलिफ़ोर्निया से ले कर मास्को तक हर जगह सुधार संशोधन करने में अपने जीवन का बेहतरीन हिस्सा गंवा देना। जवानी के दिनों में कभी कभी कुछ डंडे चलाए लेकिन उम्र के साथ समझदारी आई कि कम से कम शक्ति का व्यर्थ अपव्यय नहीं करना चाहिए।’
कुछ साल पहले मार्क्स ने यह उपरोक्त नतीजा निकाला था। 5 जनवरी 1879 को शिकागो ट्रिब्यून में छपे एक साक्षात्कार में उन्होंने चुटकी ली थी ‘मेरे बारे में जो कुछ कहा और लिखा गया है उन सबका खंडन करना हो तो मुझे बीसियों सचिवों की जरूरत होगी’ । उनके इस कड़े रुख से एंगेल्स भी पूरी तरह सहमत थे। जब मार्क्स ने न्यूवेनहुइस को यह लिखा उसके कुछ ही पहले काउत्सकी को लिखे एक पत्र में एंगेल्स ने मार्क्स के लेखन के सिलसिले में जर्मन अर्थशास्त्री अल्बर्ट शाफ़्ले (1831-1903) और अन्य ‘बैठे ठाले’ समाजवादियों द्वारा प्रदर्शित अनगिनत भूलों और गलतियों का जिक्र किया:
‘उदाहरण के लिए अकेले शाफ़्ले ने अपनी मोटी मोटी किताबों में जो भयंकर बकवाद एकत्र कर रखा है उसका खंडन मेरी नजर में समय की बरबादी है। इन सज्जन ने उद्धरण चिन्हों के भीतर पूंजी को ही जितने गलत तरीके से उद्धृत किया है उसे ही सही करने की कोशिश में एक ठीक ठाक किताब तैयार हो जाएगी।’
अंत में दबंग तरीके से लिखा कि ‘अपने सवालों का जवाब मांगने से पहले उन्हें पढ़ना और नकल करना सीखना होगा।’
दुर्व्याख्या और गलत उद्धरण के अतिरिक्त और उनके साथ ही राजनीतिक बहिष्कार की कोशिश के तहत मार्क्स के लेखन को वास्तविक विध्वंस का भी सामना करना पड़ा। फ़रवरी में निकोलाई डेनिएल्सन का ‘हमारे सुधारोत्तर सामाजिक अर्थतंत्र का खाका’ शीर्षक ‘सच्चे अर्थों में मौलिक’ लेख पढ़कर मार्क्स ने उन्हें पत्र लिखा । इसमें उन्होंने बताया : ‘अगर आप चालू चिंतन के जंजाल को तोड़ देते हैं तो सबसे पहले तय है कि आपका “बहिष्कार” किया जाएगा। असल में ढर्रे पर चलने वालों का यही एकमात्र सुरक्षा उपकरण है जिसका इस्तेमाल किंकर्तव्यविमूढ़ होने पर वे करना जानते हैं। सालों साल जर्मनी में मेरा “बहिष्कार” हुआ और इंग्लैंड में अब भी हो रहा है। समय समय पर मेरे विरुद्ध इतना बेतुका और बेवकूफी भरा हमला बिना किसी रूपभेद के होता है कि उस पर सार्वजनिक तौर पर ध्यान देते भी लज्जा आती है।’
बहरहाल जर्मनी में उनके इस विराट ग्रंथ की धीरे धीरे बिक्री हो रही थी। अक्टूबर 1881 में दूसरे संस्करण की प्रतियों के खत्म होने पर प्रकाशक ओट्टो माइजनेर (1819-1902) ने मार्क्स से कहा कि तीसरे संस्करण की तैयारी के लिए जरूरी संशोधन और काट छांट कर दें। दो महीने बाद मार्क्स ने अपने मित्र फ़्रेडरिक जोर्गे (1828-1906) से स्वीकार किया कि ‘यही सबसे सही मौका है’, कुछ ही समय पहले पुत्री जेनी को लिखा था कि वे ‘जितना ही जल्दी फिर से (खुद को) सक्षम महसूस करेंगे, (अपना) सारा समय दूसरे खंड को समाप्त करने में लगाना चाहते हैं’ । डेनिएल्सन से भी यही कहा- ‘जितना जल्दी सम्भव हो---मैं खंड दो खत्म कर देना चाहता हूं’ । साथ ही जोड़ा: अपने संपादक से तय कर लूंगा कि तीसरे संस्करण में अल्पतम सम्भव बदलाव और जोड़ घटाव करूंगा लेकिन वह तीन हजार प्रतियों के प्रकाशन की अपनी इच्छा की बजाए एक हजार प्रतियां ही छापे । जब ये---बिक जाएंगी तो फिर इस समय वांछित बदलाव थोड़ा भिन्न परिस्थितियों में कर लूंगा।’
मार्क्स जिस देश में 1849 से रह रहे थे वहां उनके विचारों का प्रसार अन्य जगहों की अपेक्षा थोड़ी धीमी रफ़्तार से सही लेकिन शुरू हो चुका था। 1881 में हिंडमैन ने ‘इंग्लैंड फ़ार आल’ शीर्षक किताब छापी जिसमें डेमोक्रेटिक फ़ेडरेशन बनाने के पीछे के निर्देशक सिद्धांतों का प्रतिपादन हुआ था। इसके आठ अध्यायों में से दो का शीर्षक ‘श्रम’ और ‘पूंजी’ था। इनमें मार्क्स के ग्रंथ का अनुवाद या व्याख्या थी। असल में हिंडमैन 1880 के उत्तरार्ध से ही मेटलैंड पार्क रोड नियमित रूप से आने लगे थे[2] और मार्क्स के सिद्धांतों का सार तैयार कर रहे थे। अपनी किताब में उन्होंने मार्क्स के नाम या उनके ग्रंथ तक का कोई उल्लेख नहीं किया। उन्होंने केवल लिखा कि ‘दूसरे और तीसरे अध्यायों में मौजूद विचार और अधिकांश सामग्री के लिए मैं एक महान चिंतक और मौलिक लेखक की रचना का आभारी हूं जो यकीनन जल्दी ही हमारे अधिकांश देशवासियों को भी उपलब्ध हो जाएगी’।
मार्क्स को हिंडमैन के पैम्फलेट की जानकारी उसके छपने के बाद ही हो सकी। देखकर वे दुखी और चकित हुए क्योंकि सब कुछ के अतिरिक्त ‘पूंजी’ के हिस्सों को ‘शेष पाठ से उद्धरण चिन्हों के जरिए अलगाया नहीं गया है, इनमें से ज्यादातर सटीक नहीं हैं और इनसे भ्रम भी पैदा होता है’।[3] इसीलिए जुलाई के शुरू में उनको पत्र लिखा: ‘स्वीकार करने दीजिए कि मुझे अचम्भा हुआ जब पता चला कि लंदन में रहते हुए आपने ‘इंग्लैंड फ़ार आल’ अर्थात फ़ेडरेशन के बुनियादी कार्यक्रम पर अपने लेखन के दूसरे और तीसरे अध्याय के बतौर उन्नीसवीं सदी के खारिज लेख को संशोधित कर के छापने की अपनी परिपक्व और कार्यान्वित योजना को मुझसे छिपा कर रखा।’
इस मामले को मार्क्स ने फिर दिसम्बर में जोर्गे को लिखी चिट्ठी में उठाया : ‘जहां तक मेरी बात है उस बेवकूफ ने बहाने भरी तमाम बातें लिखीं मसलन कि ‘अंग्रेजों को विदेशियों की सीख पसंद नहीं आती’, कि ‘मेरे नाम से नफ़रत करते हैं आदि’। इस सबके बावजूद चूंकि उसकी पतली सी किताब में ‘पूंजी’ से चोरी की गई है इसलिए बेहतरीन प्रचार है, हालांकि वह आदमी निहायत ‘कमजोर’ पात्र है और उस धीरज से तो बहुत दूर है, जो कुछ भी सीखने या किसी मामले का गहराई से अध्ययन करने की पहली शर्त होती है’ ।
आपसी संबंध टूट जाने के बाद मार्क्स ने हिंडमैन को उन ‘भद्र मध्यवर्गीय लेखकों में’ शामिल माना ‘(जो) किसी भी संयोगवशात उठी अनुकूल लहर के साथ आए किसी भी नए विचार से तत्काल धन या नाम या राजनीतिक पूंजी बनाने की खुजली से ग्रस्त रहते हैं।’[4] मार्क्स के शब्दों की रुखाई का कारण निश्चय ही नाम के साथ आभार प्रदर्शन के अभाव की निराशा न थी। क्योंकि उनका मानना था ‘कि ‘पूंजी’ और इसके लेखक का नाम देना भारी भूल होती। पार्टी कार्यक्रमों को किसी भी लेखक या किताब पर प्रत्यक्ष निर्भरता से मुक्त रखा जाना चाहिए। इसके साथ लेकिन यह भी कहने की अनुमति दीजिए कि इनमें, जिस तरह आपने ‘पूंजी’ से ले लिया है उस तरह, नए वैज्ञानिक विकासों को पेश करना अनुचित होता है। वे बातें कार्यक्रम पर आपकी टिप्पणी के मेल में एकदम नहीं हैं क्योंकि उसके घोषित लक्ष्य के साथ उनका कोई संबंध नहीं है।[5] उनका प्रवेश किसी ऐसे कार्यक्रम की व्याख्या के लिए पूरी तरह उपयुक्त होता जिसे मजदूर वर्ग की स्वतंत्र और अलग पार्टी की स्थापना के लिए तैयार किया गया होता।’
हिंडमैन की अशिष्टता के साथ ही मार्क्स के क्रोध का मुख्य कारण उनका यह सरोकार था कि ‘पूंजी’ का उपयोग ऐसी किसी परियोजना के लिए नहीं होना चाहिए जो स्पष्ट रूप से उसमें मौजूद विचारों से कतई मेल नहीं खाती। दोनों व्यक्तियों के बीच का अंतर सचमुच गहरा था। हिंडमैन तो इस विचार को कतई नहीं मानते थे कि सत्ता पर क्रांतिकारी कार्यवाही के जरिए कब्जा करना चाहिए; वे ब्रिटिश सुधारवाद के चरित्र के मुताबिक मानते थे कि बदलाव केवल शांतिपूर्ण साधनों से और क्रमश: हासिल करना चाहिए। फ़रवरी 1880 में उन्होंने मार्क्स से कहा था ‘प्रत्येक अंग्रेज के सामने लक्ष्य होना चाहिए कि वह बिना कठिनाई या खतरनाक टकराव के सामाजिक और राजनीतिक गोलबंदी करने में लगे’।
इसके उलट मार्क्स पहले से सोच समझ कर बनाई यांत्रिक योजना का विरोध करते थे। उन्होंने 1880 के उत्तरार्ध में हिंडमैन को जवाब दिया कि उनकी ‘पार्टी इंग्लैंड की क्रांति को अनिवार्य नहीं मानती लेकिन ऐतिहासिक उदाहरणों के मुताबिक सम्भव समझती है।’ सर्वहारा वर्ग के विस्तार ने सामाजिक सवाल के ‘विस्फोट’ को ‘अपरिहार्य’ बना दिया है।
‘अगर (यह विस्फोट) क्रांति में बदल जाता है तो यह न केवल शासक वर्गों की बल्कि मजदूर वर्ग की भी गलती होगी। शासक वर्गों से प्रत्येक शांतिपूर्ण रियायत उन पर “बाहरी दबाव” के चलते हासिल की गई है। उनकी कार्यवाही इस दबाव के अनुरूप चलती रही है। अगर मजदूर वर्ग अधिकाधिक कमजोर होता गया है तो केवल इसलिए कि इंग्लैंड का मजदूर वर्ग नहीं जानता कि कानूनी रूप से उन्हें प्राप्त शक्तियों और स्वतंत्रताओं का वह किस तरह इस्तेमाल करे’।
इस निर्णय के उपरांत उन्होंने जर्मनी की घटनाओं से तुलना की जहां ‘मजदूर वर्ग अपने आंदोलन की शुरुआत से ही इस बात को पूरी तरह जानता था कि बिना क्रांति के आप सैनिक तानाशाही से छुटकारा नहीं पा सकते। साथ ही उन्होंने यह भी समझा कि इस तरह की क्रांति सफल होने पर भी पहले से अगर संगठन न हो, उसने जानकारी न हासिल कर ली हो, प्रचार न चलाया हो तो आखिरकार उनके विरुद्ध हो जाएगी।---इसीलिए उन्होंने कड़ाई से कानूनी सीमाओं के भीतर ही अपना आंदोलन चलाया। कानून के परे सब कुछ सरकार के पक्ष में था जिसने मजदूरों को ही कानून के बाहर घोषित कर दिया। उनके अपराध उनके काम नहीं थे बल्कि वे विचार थे जिन्हें उनके शासक पसंद नहीं करते थे’।
इन बातों से सिद्ध है कि मार्क्स की निगाह में क्रांति महज व्यवस्था का तीव्र उन्मूलन नहीं था बल्कि वह एक लम्बी और जटिल प्रक्रिया थी।[6]
हालांकि मार्क्स के विचारों के चलते तीखी बहसें उठीं और वाद विवाद भी हुए लेकिन इंग्लैंड में भी उनका असर पड़ना शुरू हो गया। इसीलिए 1881 के अंत में मार्क्स ने जोर्गे को लिखे पत्र में बताया कि ‘देर से ही सही अंग्रेजों ने भी ‘पूंजी’ पर थोड़ा ज्यादा ही ध्यान देना शुरू कर दिया है’। अक्टूबर में ‘कनटेम्पोरेरी रिव्यू’ ने ‘कार्ल मार्क्स और युवा हेगेलपंथियों का समाजवाद’ शीर्षक एक लेख छापा जिसे मार्क्स ने ‘बेहद अपर्याप्त (और) भूल से भरा’ कहा लेकिन नई रुचि का संकेतक भी माना। कटुता के साथ उन्होंने आगे लिखा कि यह ‘उचित’ था क्योंकि इसके लेखक जान रे (1845-1915) ‘नहीं मानते कि चालीस साल से अपने घातक सिद्धांतों का प्रसार करने में मैं “खराब” इरादों से प्रेरित रहा हूं। मुझे उनकी “महामनस्कता” की दाद देनी चाहिए।’ कुल के बावजूद मार्क्स ने इस तरह के प्रकाशनों के बारे में अपना अभिमत संक्षेप में दर्ज किया ‘अपनी आलोचना के विषय से कम से कम पर्याप्त परिचित होने का औचित्य कलम के ब्रिटिश हम्मालों के लिए बेहद अनजानी चीज प्रतीत होती है।’
एक अन्य अंग्रेजी पत्रिका ‘माडर्न थाट’ ने मार्क्स के साथ थोड़ा सम्मानजनक बरताव किया और उनके काम के वैज्ञानिक चरित्र को मानने को तैयार हुई । पत्रकार और वकील अर्नेस्ट बेलफ़ोर्ट बैक्स (1854-1925) ने ‘पूंजी’ को ऐसी किताब कहा जिसमें ‘अर्थतंत्र में एक खास सिद्धांत का नियोजन इस तरह साकार हुआ है कि इसके क्रांतिकारी चरित्र और व्यापक महत्व की तुलना खगोलशास्त्र में कोपर्निकसीय व्यवस्था या आम यांत्रिकी में गुरुत्वाकर्षण के नियम से की जा सकती है।’
बैक्स को उम्मीद थी कि इसका अंग्रेजी अनुवाद जल्दी ही आएगा इसलिए उन्होंने न केवल माना कि ‘पूंजी’ इस ‘सदी की सबसे महत्व की किताबों में से एक है’, बल्कि मार्क्स की शैली की भी प्रशंसा की और उसकी तुलना इसके ‘आकर्षण और उमंग’, इसके ‘हास्य’ और इसकी ‘सर्वाधिक अमूर्त सिद्धांतों की अत्यंत बोधगम्य प्रस्तुति’ के लिए शापेनहावर से की।
मार्क्स इस ‘पहले ऐसे अंग्रेजी प्रकाशन’ से खुश हुए ‘जिसमें नए विचारों के प्रति असली उत्साह की व्याप्ति है और यह ब्रिटिश अनपढ़पन के विरोध में मजबूती से खड़ा है’। उन्होंने ध्यान दिया कि ‘मेरे आर्थिक सिद्धांतों की व्याख्या में और (‘पूंजी’ के उद्धरणों के) सही अनुवाद में---बहुत गड़बड़ी और भ्रम हैं’ लेकिन लेखक की कोशिशों के लिए उसकी प्रशंसा की और खुश हुए कि ‘इस लेख के प्रकाशन की घोषणा लंदन के वेस्ट एन्ड की दीवारों पर बड़े अक्षरों में प्लेकार्ड लगा कर की गई थी इसलिए बड़ी उत्तेजना पैदा हुई ।’
मार्क्स के विचारों का व्यापक प्रसार 1870 दशक से ही नजर आने लगा था। नए दशक के आरम्भ में भी यह प्रसार जारी रहा। बहरहाल अब उनका प्रसार अनुयायियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के छोटे घेरे तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि उन्हें व्यापक पाठक समुदाय मिलना शुरू हुआ। मार्क्स में रुचि अब केवल उनके राजनीतिक लेखन, मसलन कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र और इंटरनेशनल के प्रस्तावों तक ही सीमित नहीं रह गई, बल्कि उसका विस्तार उनके प्रमुख सैद्धांतिक योगदान, राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना, तक भी हुआ। ‘पूंजी’ में निहित सिद्धांतों की चर्चा और प्रशंसा विभिन्न यूरोपीय देशों में शुरू हो गई और कुछ ही सालों बाद, आगामी दिनों में मशहूर होने वाले उद्धरण की शब्दावली में, एंगेल्स ने अपने मित्र के इस ग्रंथ को बिना किसी संकोच के ‘मजदूर वर्ग की बाइबल’ कहा। कौन जानता है कि पवित्र ग्रंथों के प्रचंड विरोधी मार्क्स ने इस बात का बुरा न माना होता!
जीवन का दंगल
जून 1881 के पहले दो हफ़्तों में जेनी फ़ान वेस्टफालेन की सेहत और बुरी हो गई। उनके ‘वजन और ताकत में लगातार और बढ़ती हुई गिरावट’ चिंताजनक थी तथा दवा का कोई असर भी नहीं हो रहा था। डाक्टर द्वोर्किन ने उन्हें लंदन की जलवायु से दूर जाने को प्रेरित किया। उम्मीद थी कि इससे उनकी सेहत इतनी स्थिर हो जाएगी कि पुत्री जेनी तथा प्यारे नाती-नतिनी से पेरिस में मिलने की पूर्वनिर्धारित यात्रा कर सकें। इसलिए मार्क्स और उनकी पत्नी ने कुछ समय समुद्री खाड़ी में ईस्टबोर्न में बिताने का फैसला किया।
Marx-Jenny |
उस समय मार्क्स की सेहत भी ठीक नहीं थी और उम्मीद थी कि कुछ समय के समुद्री संसर्ग के चलते वे न केवल, जैसा चाहते थे, पत्नी के साथ समय गुजारने को मिल जाता बल्कि उनकी सेहत के लिए भी लाभप्रद होता। एंगेल्स ने जेनी लांग्वे को महीने के दूसरे पखवारे में सूचित किया कि ‘यह बदलाव मूर के लिए भी समान रूप से लाभप्रद (होगा)’।[7] ‘वे भी थोड़ी स्फूर्ति चाहते हैं, एक और बात है कि अब रात को उनको उतनी बुरी तरह खांसी नहीं आती और बेहतर नींद सोते हैं।’ मार्क्स ने अपने कष्ट के बारे में जोर्गे को बताया। 20 जून को माना कि वे ‘लगातार 6 महीनों से अधिक समय से खांसी, जुकाम, गले की सूजन और गठिया की तकलीफ उठा रहे हैं। इसके चलते वे शायद ही कभी बाहर निकले हों और समाज से लगभग बाहर रहे हैं।’
महीने के अंत में मार्क्स और उनकी पत्नी ईस्टबोर्न के लिए निकले और वहां लगभग तीन हफ़्ते रहे। इस यात्रा और डाक्टरों की जरूरी सलाह का खर्च एंगेल्स ने उठाया। जुलाई में उन्होंने इस दोस्त को चिंतामुक्त किया ‘आपको सौ से एक सौ बीस पौंड तक मिल सकते हैं। सवाल सिर्फ़ यह है कि ये सारा धन आप एक बार में ही चाहते हैं या कितना वहां भेजूं और कितना यहां के लिए रखूं।’
लौरा और एलीनोर बारी बारी से माता पिता के साथ कुछ समय तक रहे और उनकी सेवा की। लेकिन जेनी फ़ान वेस्टफालेन की सेहत में सुधार नहीं आया। लौरा को उन्होंने लिखा ‘अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद मुझे बेहतर नहीं महसूस हो रहा और---कुर्सी से चिपक कर रह गई हूं। तुम तो जानती हो पैदल चलने में मेरा कोई जोड़ नहीं था इसलिए अपनी ऐसी हालत को कुछ ही महीने पहले तक अपने सम्मान के विपरीत माना होता।’
लौट कर लंदन आने पर जेनी की हालत डाक्टर को कुछ बेहतर महसूस हुई और उन्होंने पांच महीने या उससे भी अधिक समय बाद पहली बार पेरिस जाकर पुत्री और नाती-नतिनियों से मिलने की उनकी इच्छा मंजूर कर ली। मार्क्स ने पांच पौंड पुत्री जेनी को भेजा ताकि ‘नकद चुका कर वह बिस्तर, रजाई आदि भाड़े पर ला सके’। उन्होंने कहा कि अगर हम दोनों को तुम्हारे घर आ कर रहना है तो इतना तो जरूरी होगा। इसके साथ ही लिखा ‘शेष धन आएंगे तो चुका देंगे’।
26 जुलाई को मार्क्स और उनकी पत्नी, हेलेन देमुथ को साथ लेकर फ़्रांस पहुंचे । फ़्रांस पहुंच कर पेरिस के उपनगर अर्जेंत्यूल तक की यात्रा करनी पड़ी जहां जेनी लांग्वे अपने पति के साथ रह रही थी। मार्क्स तत्काल ही पारिवारिक डाक्टर गुस्ताव दाउर्लेन (?) से मिलना चाहते थे जिन्होंने जेनी फ़ान वेस्टफालेन की देखभाल का आश्वासन दिया था। उन्होंने एंगेल्स को लिखा कि मुलाकात के पहले दिन ही ‘छोटे बच्चों ने ठीक ही अपना दावा’ ‘बुजुर्ग निक’ पर ठोंक दिया है। क्रूर निहितार्थ के साथ मार्क्स के लिए यह नाम परिवार में ‘मूर’ के विकल्प के रूप में चल पड़ा था। खासकर अपने जीवन के आखिरी कुछ सालों में वे अक्सर पुत्रियों, एंगेल्स और पाल लाफ़ार्ग को लिखे पत्रों में इस नाम का उपयोग करते और अपने इस यशस्वी समनाम का आनंद और मजा लेते।[8]
फ़्रांस में मार्क्स की वापसी हालांकि नितांत निजी कारणों से हुई थी फिर भी उससे थोड़ी सनसनी फैलनी तय थी। लांग्वे का अनुमान था कि जैसे ही उन्हें इसके बारे में पता चलेगा ‘अराजकतावादी लोग (मार्क्स पर)’ आगामी चुनावों में ‘वोट इधर उधर करने की दुरभि मंशा का आरोप मढ़ (देंगे)’ लेकिन फिर उन्हें अपने मित्र क्लीमेंस्यू से पता चला कि मार्क्स को ‘पुलिस से डरने की कोई जरूरत नहीं है’ । वैसे एलीनोर मार्क्स ने जर्मन सोशल डेमोक्रेटिक प्रेस के पेरिस संवाददाता कार्ल हिर्श (1841-1900) को पहले ही अपने माता पिता के आगमन की सूचना दे दी थी इसलिए ही मार्क्स ने मजाक किया कि उनकी यह उपस्थिति ‘एक खुला रहस्य’ बन कर रह गई।
एंगेल्स एक पखवारे तक बर्लिंगटन, यार्कशायर रहे थे और उनके मित्र ने जो बताया उससे प्रसन्न तथा निश्चिंत हुए। उन्होंने सामान्य चिंता के साथ जवाब दिया- ‘मेरे पास कुछ चेक पड़े हुए हैं। इसलिए भी अगर आपको कोई जरूरत हो तो बिना किसी संकोच के बताइए कि लगभग कितना चाहिए। आपकी पत्नी को किसी चीज का अभाव न तो होना चाहिए, न होने दीजिएगा। इसलिए अगर उन्हें कोई चीज पसंद आए या आपको पता हो कि इससे उनको खुशी होगी तो उनके लिए जरूर ले लीजिएगा।’ साथ ही उन्होंने मार्क्स को अपनी जिंदगी के उत्तम आनंद की भी सूचना दी ‘यहां जर्मन बीयर के बिना भी मजा लिया जा सकता है क्योंकि घाट पर जो छोटा सा कैफ़े है उसमें मिलने वाली कड़वी एल भी जबर्दस्त है और जर्मन बीयर की तरह ही उसमें भी तरंग आती है।’
समुद्र के दूसरे छोर पर मार्क्स का वक्त इतना बेहतरीन नहीं बीत रहा था। उन्होंने मदद के लिए एंगेल्स को धन्यवाद दिया ‘आपके खजाने से इतनी भारी रकम निकालना मेरे लिए बड़ी लज्जा की बात है, लेकिन पिछले दो सालों से घर चलाने के मामले में अराजकता ने बहुत तकलीफ दी है और उसके चलते तमाम तरह का बकाया बढ़ता जा रहा है। यह हालत काफी समय से मेरे लिए उत्पीड़नकारी बनी हुई है’।[9] इसके बाद उन्होंने पत्नी का हालचाल बताया ‘प्रतिदिन हमें चढ़ाव उतार के उसी अनुभव से गुजरना पड़ रहा है जैसा ईस्टबोर्न में हो रहा था। अंतर केवल इतना आया है कि, जैसे कल हुआ, कभी-कभी दर्द के औचक तथा भयानक दौरे पड़ते हैं’। ऐसे मौकों पर डाक्टर दुर्लेन अफीम देने को तैयार रहते। मार्क्स ने अपना भय जाहिर किया ‘सेहत में अस्थायी “सुधारों” से बीमारी की स्वाभाविक गति में कोई रुकावट नहीं आ रही। लेकिन इनसे मेरी पत्नी को धोखा होता है और मेरी फटकार के बावजूद जेनी (लांग्वे) इस विश्वास पर अड़ी हुई है कि अर्जेंत्यूल में हमारे रुकने की अवधि जितना सम्भव हो उतनी लम्बी होनी चाहिए’।
उम्मीद और आशंका के बीच इस तरह लगातार दोलायमान रहना खुद उनकी सेहत के लिए एकदम ठीक नहीं था और उनका आराम हराम होता जा रहा था ‘पिछली रात असल में पहला मौका था जब मुझे ठीक से नींद आई। दिमाग इस कदर निर्जीव और सुस्त हो गया है मानो सिर में मिल की कोई चक्की चल रही हो’। इसीलिए वे अब तक ‘न तो पेरिस जा सके’ और न ही राजधानी के साथियों को बेटी के घर बुलाने के लिए ‘एक लाइन लिख सके’।[10] पहली बार पेरिस शहर के मुख्य भाग में उनका जाना 7 अगस्त को दिन में ही हो सका और जेनी फ़ान वेस्टफालेन को इससे बेहद आनंद आया। मार्क्स तो 1849 के बाद कभी आए ही नहीं थे इसलिए उनको शहर ‘लगातार जारी मेले की तस्वीर’ महसूस हुआ।
अर्जेंत्यूल वापस लौटने पर मार्क्स को आशंका हुई कि उनकी पत्नी की सेहत अचानक बिगड़ सकती है इसलिए एंगेल्स को पत्र में बताया कि लंदन लौटने के लिए उन्हें प्रेरित करने की चेष्टा मार्क्स ने की। बहरहाल उनकी मातृसुलभ भावना मजबूत साबित हुई और उन्होंने कहा कि वे अपनी पुत्री जेनी के साथ जब तक सम्भव है रुकना चाहती हैं। इसके लिए उन्होंने पहले ही ‘चालाकी का काम किया---और इतने कपड़े धोने के लिए भेज दिए’ कि वे अब अगले सप्ताह के आरम्भ में ही धुल कर वापस आएंगे।[11] पत्र को खत्म करने से पहले कुछेक पंक्तियों में अपना हाल लिखा ‘विचित्र बात है कि हालांकि रात में बहुत कम सोने को मिलता है और दिन भर चिंता खाए रहती है फिर भी हरेक व्यक्ति कहता रहता है कि मेरी हालत अच्छी है और सचाई भी यही है’।
अंत में एक और दर्दनाक घटना के चलते उन्हें आनन फानन में फ़्रांस छोड़ना पड़ा। 16 अगस्त को उन्हें सूचना मिली कि उनकी तीसरी पुत्री एलिनोर गम्भीर रूप से बीमार है। वे तुरंत लंदन के लिए चल पड़े। थोड़े दिन बाद उनकी पत्नी और हेलेन देमुथ भी आ गए। जल्दी ही साफ हो गया कि टूसी (एलिनोर का घर का नाम) घनघोर अवसाद की हालत में है।[12] चिंतित हो कर कि उसने ‘हफ़्तों से सचमुच कुछ भी नहीं खाया’ और ‘पीली तथा क्षीणकाय दीख’ रही है, मार्क्स ने अपनी दूसरी पुत्री जेनी का रुख किया और उसे सूचित किया कि तुम्हारी बहन ‘लगातार अनिद्रा, हाथों की कंपकंपी, चेहरे पर स्नायविक झटकों आदि’ से पीड़ित है और ‘अगर अधिक देरी की गई’ तो ‘उसको गम्भीर खतरा’ हो सकता है।[13] सौभाग्य की बात थी कि इस संकट में सम्बल देने के लिए कुछ ही समय पहले बीते मधुर सप्ताहों की याद थी। कुल के बावजूद अर्जेंत्यूल में ‘तुम्हारे और प्यारे बच्चों के साथ रहने की खुशी ने इतना भरपूर संतोष प्रदान किया है कि उतना अधिक संतोष मुझे शायद ही कहीं और मिला होता’।
महज दो दिन बाद अर्जेंत्यूल से खबर आई कि ‘लांग्वे और छोटा हैरी’ दोनों ‘बहुत बीमार’ हैं। मार्क्स ने एंगेल्स को बताया ‘इस समय परिवार में और कुछ नहीं दुर्भाग्य टूट पड़ा है’। दुखों और परेशानियों का कोई पार नहीं सूझ रहा था।
पत्नी का देहांत और फिर से इतिहास का अध्ययन
एलिनोर की देखभाल का काम परेशान करने वाला था और इसमें वे शेष आधी गरमी डूबे रहे । साथ ही जेनी फ़ान वेस्टफालेन की बीमारी भी बढ़ रही थी जो ‘दिन प्रतिदिन अपने अंतिम मुकाम की ओर बढ़ रही थी’। इन दोनों चीजों के चलते मार्क्स परिवार सामाजिक रिश्तों से कटा हुआ था। महीने के आरम्भ में उन्होंने पूर्व अभिनेत्री और सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध उपन्यासों की लेखिका मिन्ना काउत्सकी (1837-1912) को पत्र लिख कर माफ़ी मांगी कि वे उन्हें लंदन में घर नहीं बुला सकते क्योंकि उनकी पत्नी की ‘दुखद और (डर है) घातक बीमारी’ ने ‘बाहरी दुनिया के साथ (उनकी) अंत:क्रिया को रोक दिया है’। मिन्ना के पुत्र काउत्सकी को उन्होंने उसी दिन लिखा कि वे ‘बीमार नर्स’ हो गए हैं।
इस दौरान मार्क्स ने गणित का अध्ययन फिर से शुरू किया। पाल लाफ़ार्ग ने बाद में इस विषय के प्रति अपने ससुर के अति विशेष रुख को याद किया : ‘कवियों और उपन्यासकारों को पढ़ने के अलावे मार्क्स का बौद्धिक आराम का एक उल्लेखनीय तरीका, गणित था जिससे उनको खास लगाव था। बीजगणित से भी उनको नैतिक आश्वासन मिलता था और इसमें वे घटनाओं से भरे अपने जीवन के सर्वाधिक तनाव के क्षणों में राहत पाते थे। अपनी पत्नी की अंतिम बीमारी के दौरान वे अपने सामान्य वैज्ञानिक काम करने में परेशानी महसूस करने लगे और पत्नी की तकलीफ़ से पैदा उत्पीड़न को परे करने का एकमात्र रास्ता उन्हें गणित में डूब जाना सूझा। नैतिक पीड़ा के उस दौर में उन्होंने अत्यणुकलन पर एक किताब ही तैयार कर दी।---उच्च गणित में उन्हें द्वंद्वात्मक गति का सबसे तार्किक और उसके साथ ही सरलतम रूप दिखाई पड़ा । उनका विचार था कि विज्ञान तब तक सचमुच विकसित नहीं हो सकता जब तक वह गणित का उपयोग करना सीख नहीं जाता।’
अक्टूबर मध्य में मार्क्स की सेहत, जो पारिवारिक घटनाओं का बोझ महसूस कर रही थी, एक बार फिर से गड़बड़ाई जब ब्रोंकाइटिस के चलते फेफड़ों में गम्भीर रूप से पानी भरने लगा। इस समय एलिनोर हर समय पिता के बिस्तर से लगी रही और न्यूमोनिया के खतरे से दूर रखने में उनकी मदद करती रही। सहायता के लिए अर्जेन्त्यूल से बड़ी बहन आना चाहती थी लेकिन उसे रोक दिया।[14]
चिंताकुल एंगेल्स ने 25 अक्टूबर को बर्नस्टाइन को लिखा ‘पिछले 12 दिनों से वे ब्रोंकाइटिस और तमाम किस्म की दिक्कतों के चलते बिस्तर पर थे लेकिन आवश्यक सावधानियां बरतने के चलते रविवार के बाद से खतरे से बाहर हैं। आपसे बता सकता हूं कि मुझे बड़ी चिंता हो गई थी’।[15] कुछ दिनों बाद दीर्घकालीन कामरेड जोहान्न बेकर (1809-1886) को भी उन्होंने सूचित किया ‘जीवन के इस दौर में और उनकी आम सेहत को देखते हुए (ब्रोंकाइटिस और फेफड़ों की सूजन) काम करना कोई हंसी खेल नहीं है। सौभाग्य से बुरे दिन बीत गए हैं और जहां तक मार्क्स का सवाल है सभी तरह के खतरे फिलहाल दूर हो गए हैं हालांकि दिन के अधिकतर समय वे लेटे रहते हैं और बेहद कमजोर हो गए हैं’।
नवम्बर अंत में एंगेल्स ने फिर से बर्नस्टाइन को सेहत का ताजा हाल लिखा ‘मार्क्स की हालत अब भी बेहद खराब है। उन्हें कमरे से बाहर निकलने या किसी गम्भीर काम को शुरू करने की इजाजत नहीं है। लेकिन उनका वजन बढ़ रहा है’। इसके बावजूद ‘इस बीच अगर किसी एक बाहरी घटना के चलते उनका दिमाग फिर से कमोबेश दुरुस्त होने की ओर है तो वह है चुनाव’। 27 अक्टूबर 1881 को नई जर्मन संसद के चुनाव में सामाजिक जनवादियों ने तीन लाख से अधिक वोट पाये। यूरोप के लिए यह संख्या विस्मयकारी थी।[16]
जेनी फ़ान वेस्टफालेन भी इस नतीजे से बेहद खुश हुईं लेकिन यह उनके जीवन की लगभग आखिरी खुशी थी। आगामी हफ़्तों में उनकी अवस्था भयप्रद होती गई। डाक्टर द्वोर्किन ने कहा कि ‘उनको थोड़ा बदलाव देने के लिए’ एलिनोर और अन्य सहायक ‘उन्हें चादर समेत बिस्तर से उठाएं और कुर्सी पर बिठाएं’ तथा वापस बिस्तर पर लिटा दें। उनको होने वाले भयानक दर्द से थोड़ी राहत देने के लिए उन्हें मार्फीन की सुई लगातर लगाई जा रही थी। एलिनोर ने बाद में याद किया : ‘हमारी मां सामने वाले बड़े कमरे में पड़ी थी, मूर पीछे वाले छोटे कमरे में थे।---वह सुबह मुझे कभी नहीं भूलेगी जब उन्हें इतनी ताकत महसूस हुई कि मां के कमरे में जा सकें। जब दोनों साथ हुए तो जैसे दोनों जवान हो गए। मां प्यारी लड़की में बदल गई, पिता युवा प्रेमी हो गए जो जीवन की दहलीज पर खड़े थे। पिता बीमारी से त्रस्त बूढ़े नहीं रह गए, मां भी मरणासन्न बुढ़िया नहीं रह गईं जिन्हें एक दूसरे से जुदा होना है।’[17]
2 दिसम्बर 1881 को जेनी फ़ान वेस्टफालेन लीवर के कैंसर से मर गईं। वे वह औरत थीं जो मार्क्स के साथ खड़ी रही थीं। उनकी तकलीफों और राजनीतिक आवेगों की साझीदार रही थीं। इस नुकसान की भरपाई सम्भव नहीं थी। सिर्फ़ अठारह साल की उम्र में 1836 में जब वे उनके प्यार में पड़े थे उसके बाद पहली बार उन्होंने खुद को अकेला पाया। उनकी ‘सबसे बड़ी निधि’ छिन गई थी। अब वह ‘चेहरा नहीं रह गया (जो उनके) जीवन की सबसे उदात्त और मधुरतम यादों को फिर से जगा सके’।
पहले से ही अपनी जर्जर अवस्था को और अधिक खराब होने से बचाने के लिए पत्नी के अंतिम संस्कार में शामिल भी न हो सके। दुखी मन से उन्होंने पुत्री जेनी को लिखा ‘डाक्टर की पाबंदी की बात बोलने का कोई फायदा नहीं’। उनकी पत्नी ने मृत्यु से कुछ ही देर पहले किसी औपचारिकता की अनदेखी पर नर्स से जो कहा था, ‘हम लोग ऐसे दिखावटी नहीं’, उन शब्दों के बारे में सोचने लगे। बहरहाल एंगेल्स ताबूत गाड़ने के क्रियाकर्म में शामिल रहे। उनके बारे में एलिनोर ने कहा था कि ‘उनकी सहृदयता और समर्पण बयान से परे है’। कब्र पर अपने वक्तव्य में उन्होंने याद किया ‘अगर कभी कोई स्त्री रही हो जिसकी सबसे बड़ी खुशी दूसरों को खुश रखने में थी तो वह यही स्त्री थी’।
मार्क्स के लिए शारीरिक तकलीफ के चलते इस क्षति का हृदय विदारक कष्ट और बढ़ गया। उनका जो इलाज चल रहा था वह अत्यंत पीड़ादायक था फिर भी उन्होंने थोड़ा उदासीन भाव से उसका सामना किया। अपनी पुत्री जेनी को लिखा : ‘अब भी मुझे छाती, गर्दन आदि पर आयोडीन का लेप लगाना पड़ता है और जब बार-बार ऐसा किया जाता है तो त्वचा थकाऊ और दर्दनाक तरीके से सूज जाती है। यह पूरी कार्यवाही महज इसलिए की जा रही है ताकि आरोग्य लाभ के दौरान बीमारी वापस न लौटे (अब यह सामान्य खांसी से एकदम अलग की चीज हो गई है) और फिलहाल मेरी वास्तविक सेवा कर रही है। मानसिक वेदना का केवल एक प्रभावी प्रतिरोध है और वह है शारीरिक दर्द। किसी भी आदमी की समूची दुनिया लूट लीजिए बस उसे दांत दर्द से छुटकारा दिला दीजिए।’
उनकी सेहत इतनी संकटग्रस्त हो गई थी कि उन्होंने एक समय डैनिएल्सन को लिखा कि वे ‘यह बुरी दुनिया छोड़ने के बहुत करीब आ गए थे’। आगे लिखा ‘डाक्टर मुझे फ़्रांस के दक्षिण या अल्जीरिया तक भेजना चाहते’ हैं। एकाधिक हफ़्तों तक उन्हें बिस्तर पर लेटे रहने को मजबूर होना पड़ा। जोर्गे को एक पत्र में लिखा कि ‘घर में कैद रहना पड़ा’ और ‘समय का कुछ हिस्सा (मेरी) सेहत को दुरुस्त रखने की योजनाओं में चला जाता है’।
बहरहाल इन सबके बावजूद 1881 के वसंत से लेकर 1882 की सर्दियों के बीच का मार्क्स की बौद्धिक ऊर्जा का बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक अध्ययन में बीता। उन्होंने पहली सदी ईसा पूर्व से साल दर साल की समय सारिणी बनानी शुरू की और उसमें प्रमुख घटनाओं को दर्ज करने के साथ उनके कारणों और मुख्य विशेषताओं को संक्षेप में लिखना शुरू किया। यह वही पद्धति थी जिसका इस्तेमाल उन्होंने 1879 के वसंत और 1880 की गर्मियों के बीच में ‘नोट्स आन इंडियन हिस्ट्री (664-1858)’ को तैयार करने में आजमाया था। यह काम उन्होंने राबर्ट सीवेल (1845-1925) की किताब ‘द एनालीटिकल हिस्ट्री आफ़ इंडिया’ के आधार पर किया था। इस बार भी उनका मकसद मनुष्यता के वास्तविक अतीत के परिप्रेक्ष्य में अपने विचारों की गुणवत्ता की परीक्षा करना था। इसमें उन्होंने केवल उत्पादन में होने वाले बदलावों पर ही ध्यान नहीं दिया, बल्कि किसी भी आर्थिक निर्धारणवाद के परे आधुनिक राज्य के विकास के बेहद जरूरी सवाल पर गहराई से ध्यान दिया।[18]
इन नोटों में कुछ बेहद मामूली स्रोतों का उल्लेख नहीं किया गया है। उनके अलावे दो प्रमुख किताबों का सहारा इस नई अनुक्रमणिका में लिया गया है। इनमें पहली थी इतालवी इतिहासकार कार्लो बोत्ता (1766-1835) की ‘हिस्ट्री आफ़ द पीपुल’स आफ़ इटली’ (1825) जो मूल रूप से तीन खंडों में फ़्रांसिसी भाषा में छपी थी क्योंकि लेखक को 1814 में सेवोयार्द सरकार के उत्पीड़न से बचने के लिए तूरिन छोड़ कर भागना पड़ा था (नेपोलियन बोनापर्त की पराजय के बाद ही वे पीदमांट लौट सके थे)। दूसरी थी फ़्रेडरिक श्लोजेर (1776-1861) की बहुपठित और प्रशंसित ‘वर्ल्ड हिस्ट्री फ़ार द जर्मन पीपुल’। इन दोनों किताबों के आधार पर मार्क्स ने चार नोटबुकें भर डालीं। उन्होंने जर्मन, अंग्रेजी और फ़्रांसिसी में सार लिखे और कभी-कभी संक्षिप्त आलोचनात्मक टिप्पणियां भी दर्ज कीं।[19]
इनमें से पहली नोटबुक में उन्होंने कालानुक्रमिक तरीके से कुल 143 लिखित पृष्ठों में 91 ईसा पूर्व से ले कर 1370 ईसवी तक घटी कुछ प्रमुख घटनाओं की सूची बनाई । प्राचीन रोम से शुरू कर के आगे रोमन साम्राज्य के पतन पर उन्होंने विचार किया, शार्लमान (742-814) के ऐतिहासिक महत्व पर ध्यान दिया, बैजंतिया और इटली के समुद्री गणतंत्रों की भूमिका को उजागर किया, सामंतवाद के विकास, क्रूसेडों (धर्मयुद्धों) तथा बगदाद और मोसुल के खिलाफ़तों का उल्लेख किया। दूसरी नोटबुक के 145 पृष्ठों में 1308 से ले कर 1469 ईसवी तक के कालखंड पर नोट हैं। इसके मुख्य विषय इटली की आर्थिक प्रगति तथा चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दियों में जर्मनी की आर्थिक और राजनीतिक स्थिति हैं। तीसरी नोटबुक के 141 पृष्ठों में 1470 से लेकर 1580 ईसवी तक के समय को दर्ज किया गया है। इसमें फ़्रांस और स्पेन के बीच की लड़ाई, जिरोलामो सावोनारोला (1452-1498) के समय के फ़्लोरेंस के गणतंत्र तथा मार्टिन लूथर (1483-1546) के प्रोटेस्टैन्ट सुधार पर विचार किया गया है। आखिरी चौथी नोटबुक के 117 पृष्ठों में यूरोप के 1577 से 1648 ईसवी तक के असंख्य धार्मिक टकरावों को दर्ज किया गया है।
बोत्ता और श्लोजेर की किताबों के उद्धरणों से भरी चार नोटबुकों के अलावा मार्क्स ने एक और नोटबुक तैयार की। उसमें अपने समय की घटनाओं को दर्ज किया गया था और उद्धरण भी समकालीनों के थे। जिनो कपोनी (1792-1876) की ‘हिस्ट्री आफ़ द रिपब्लिक आफ़ फ़्लोरेन्स’ (1875) के नोटों में 1135 से 1433 तक का प्रकरण था जबकि 449 से 1485 तक का कालखंड एक नए हिस्से के बतौर तैयार किया गया जिसका आधार जान ग्रीन (1837-1883) की किताब ‘हिस्ट्री आफ़ द इंग्लिश पीपुल’ (1877) थी। सेहत में आने वाले उतार चढ़ाव ने उन्हें इसके बाद का काम करने की इजाजत नहीं दी। उनके नोट पीस आफ़ वेस्टफालिया, जिससे 1648 में तीस साला लड़ाई का अंत हुआ था, के विवरण के साथ समाप्त हो जाते हैं।
जब मार्क्स की चिकित्सकीय अवस्था में सुधार आया तो जरूरत थी कि वे ‘वापसी के खतरे’ को दूर रखने की हर सम्भव कोशिश करें। अपनी पुत्री एलिनोर के साथ वे 29 दिसम्बर 1881 को वाइट द्वीप पर, जहां पहले भी एकाध बार वे गए थे और जहां फिर से जाने की सलाह दी जा रही थी वहीं वेंटनोर चले गए। उम्मीद थी कि ‘गर्म जलवायु और शुष्क हवा से उनकी अवस्था में सुधार तेजी से’ पूरा होगा। वहां जाने से पहले उन्होंने जेनी को लिखा ‘मेरी प्यारी बच्ची, इस समय मेरी सबसे बेहतर जो सेवा तुम कर सकती हो वह यह कि हौसला बनाए रखो! मुझे आशा है कि तुम्हारे साथ और भी खुशनुमा दिन गुजार सकूंगा और नाना की जिम्मेदारियों को योग्यतापूर्वक निभाऊंगा’।
1882 के पहले दो हफ़्ते उन्होंने वेंटनोर में गुजारे। बिना किसी खास दिक्कत के टहलने के लिए और ‘मौसम की मनमानी पर कम निर्भर रहने के लिए’ उन्हें ‘औचक की जरूरत के लिए’ एक कृत्रिम श्वास नलिका पहननी पड़ती थी जो बहुत कुछ ‘थूथन’ की तरह दिखाई देती थी। इन कठिन परिस्थितियों में भी मार्क्स कभी अपना विडम्बना वाला भाव नहीं भूले और लौरा को लिखा कि ‘जिस उत्साह के साथ जर्मनी में बुर्जुआ अखबारों ने या तो (मेरे) निधन या फिर उसकी आसन्न अनिवार्यता की घोषणा की’ उससे ‘(मुझे) काफी गुदगुदी हुई’।
मार्क्स ने एलिनोर के साथ जो दिन गुजारे वे बहुत आसान नहीं थे। अपनी आस्तित्विक समस्याओं में डूबी होने के कारण वह अब भी गहरे अस्थिर थी। सो नहीं पाती थी और डरी रहती थी कि उसका स्नायविक संकट अचानक बढ़ जा सकता है। उनके बीच आपसी लगाव जितना भी मजबूत महसूस होता रहा हो आपस में संवाद बहुत मुश्किल हो गया था। मार्क्स ‘गुस्से और चिंता से भरे’ थे तथा एलिनोर को ‘अप्रिय और असंतुष्ट’ समझते थे।[20]
मार्क्स अब भी समकालीन प्रमुख राजनीतिक घटनाओं से बाखबर बने हुए थे। जब जर्मनी के चांसलर संसद में बोलते हुए सरकारी नीति के प्रति जर्मन मजदूरों में मौजूद भारी अविश्वास की उपेक्षा नहीं कर सके तो उन्होंने एंगेल्स को लिखा ‘मैं इसे बड़ी जीत मानता हूं, न केवल जर्मनी के लिए बल्कि उसके बरक्स व्यापक बाहरी दुनिया के लिए कि बिस्मार्क ने राइखस्टाग में माना कि उनके राजकीय समाजवाद के प्रति कुछ हद तक जर्मन मजदूरों ने “नाकामयाबी का इजहार किया” है’।
मार्क्स का ब्रोंकाइटिस असाध्य होता जा रहा था। बहरहाल उनकी लंदन वापसी के बाद डाक्टर द्वोर्किन के साथ परिवार के सदस्यों ने विस्तार से उनकी बेहतरी के लिए सर्वाधिक मुफ़ीद मौसम को ले कर सलाह मशविरा किया। पूरी तरह से ठीक होने के लिए गरम इलाके में आराम उचित लग रहा था लेकिन वाइट द्वीप से कोई फायदा हुआ नहीं था। जिब्राल्टर का विकल्प खारिज हो गया क्योंकि उस इलाके में प्रवेश के लिए मार्क्स को पासपोर्ट की जरूरत पड़ती। राज्यविहीन मनुष्य होने के नाते उनके पास पासपोर्ट नहीं था। बिस्मार्की साम्राज्य बर्फ से ढका हुआ था और वैसे भी उनके लिए वह प्रतिबंधित था। इटली का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि जैसा एंगेल्स ने बताया ‘शुभेच्छुओं के मन में पहली चिंता यह थी कि पुलिस की ओर से कोई उत्पीड़न नहीं होना चाहिए’।
डाक्टर द्वोर्किन और मार्क्स के दामाद पाल लाफ़ार्ग की मदद से एंगेल्स ने मार्क्स को अल्जीयर्स जाने के लिए राजी कर लिया। उस समय अंग्रेजों में उस जगह की प्रतिष्ठा यह थी कि अगर धन हो तो ठंड की दिक्कतों से बचने के लिए वहां जाना सही है। मार्क्स की पुत्री एलिनोर ने बाद में याद किया कि मार्क्स को यह असामान्य यात्रा करने के लिए ‘पूंजी’ को पूरा करने के उनके पुराने सपने ने मजबूर कर दिया।
‘उनकी सामान्य अवस्था खराब होती जा रही थी। अगर उनके भीतर थोड़ा अधिक अहं होता तो उन्होंने चीजों को उनकी स्वाभाविक गति से जाने दिया होता। लेकिन उनके लिए एक चीज सब कुछ के ऊपर थी और वह थी लक्ष्य के प्रति समर्पण। वे अपने इस विशाल ग्रंथ को समाप्त करना चाहते थे और इसीलिए सेहत में सुधार हेतु एक और यात्रा करने को राजी हो गए।’
9 फ़रवरी को मार्क्स भूमध्य सागर की ओर चले। रास्ते में अर्जेंत्यूल में रुके। यह पेरिस का एक उपनगर था जहां उनकी सबसे बड़ी बेटी जेनी रहती थी। जब उनकी सेहत में सुधार नहीं आया तो मुश्किल से एक हफ़्ते बाद ही अकेले मार्सेलीज जाने का फैसला किया। एलिनोर को समझा दिया कि उसका साथ आना जरूरी नहीं है। एंगेल्स को राज बताया ‘दुनिया में चाहे जो कुछ हो जाए मैं उस लड़की को यह सोचने नहीं दूंगा कि परिवार की बलिवेदी पर एक बूढ़े आदमी की “नर्स” के रूप में उसे अपना जीवन होम करना है’।
समूचे फ़्रांस को ट्रेन से पार करने के बाद वे 17 फ़रवरी को प्रोवेन्साल के विशाल बंदरगाह पर पहुंचे। तुरंत उन्होंने अफ़्रीका जाने वाले पहले जहाज का टिकट हासिल किया। दूसरे ही दिन ठंडी तेज हवा में शाम को जहाज पर चढ़ने के लिए बंदरगाह पर अन्य यात्रियों के साथ कतार में लग लिए। उनके पास कुछेक सूटकेस थे जिनमें ठूंस कर भारी कपड़े, किताबें और दवाइयां भरी थीं। 5 बजे शाम को ‘सइद’ नामक स्टीमर अल्जीरिया के लिए चल पड़ा। वहां मार्क्स को 72 दिन ठहरना था। जीवन में केवल एक बार ही यूरोप के बाहर उनको यह समय बिताना था।
[1] हेनरी हिंडमैन ने बाद में बताया है कि ‘1880 में यह कहना शायद मुश्किल ही था कि अंग्रेज जनता के लिए क्रांति के खतरनाक और उन्मादी वकील के अतिरिक्त किसी और रूप में मार्क्स जाने जाते थे। इंटरनेशनल का उनका संगठन भयावह पेरिस कम्यून का कारण बताया जाता था। उसके नाम से सभ्य और सम्मानित लोग कांपते थे और डर कर बात करते थे’।
[2] मार्क्स के पत्रों में हिंडमैन का संबंधों के खत्म होने से पहले और उसके बाद एकाधिक बार जिक्र आया है। इनसे पता चलता है कि उनके प्रति मार्क्स का रुख हमेशा ही आलोचनात्मक रहा । 11 अप्रैल 1881 को उन्होंने जेनी लांग्वे को लिखा ‘परसों ही---हम पर हिंडमैन और उनकी पत्नी का हमला हुआ । उन दोनों में ही धैर्य बहुत है। मुझे उनकी पत्नी खासा पसंद आईं क्योंकि उनके सोचने और बोलने का तरीका अशिष्ट, विद्रोही और निश्चयी था । लेकिन सबसे मजेदार यह देखना था कि वे अपने आत्मतुष्ट बड़बोले पति के होठों से प्रशंसापूर्वक लगी जा रही थीं’ । अंतिम आपसी लड़ाई के कुछ महीने बाद 15 दिसम्बर 1881 को उन्होंने जोर्गे को लिखा ‘इस आदमी ने मुझे बाहर ले जाने और आसानी से सीखने के नाम पर ढेर सारी शामें लूट लीं’।
[3] हेनरी हिंडमैन को कार्ल मार्क्स का 2 जुलाई 1881 का पत्र । इस पत्र के मसौदे को मार्क्स ने अपने कागजों में संभालकर रखा था । हिंडमैन ने मनुष्य के बतौर अपने छिछलेपन और बचकाने स्वभाव का सबूत देते हुए कहा कि उसने ‘दुर्भाग्य से झगड़े के बाद मार्क्स के अधिकतर पत्रों को जला दिया’। जेनी फ़ान वेस्टफालेन को सब कुछ का अनुमान था । उन्होंने 2 जुलाई 1881 को ईस्टबोर्न से अपनी पुत्री लौरा लाफ़ार्ग को लिखा ‘शनिवार को पीली आंखों वाले उस हिंडमैन के सिर पर मुक्का पड़ा है। शायद वह चश्मे के सामने भी इस पत्र को नहीं रख सकेगा हालांकि अपनी कुल कटुता के बावजूद उसे इतना मनोरंजक शब्दों में पिरोया गया है कि क्रोध मुश्किल से प्रकट होता है। मुझे लगता है मूर अपनी रचना से प्रसन्न हैं’।
[4] बाद में हिंडमैन ने एंगेल्स से भी सम्पर्क किया। एंगेल्स ने लिखा ‘आपसे निजी रूप से मिलकर मुझे बड़ी खुशी होगी, बस आप मेरे मित्र मार्क्स के साथ मामला सुलटा लीजिए क्योंकि मुझे नजर आ रहा है कि अब तो आप उन्हें उद्धृत भी करने लगे हैं’। मार्क्स ने टिप्पणी की ‘बच्चे को आपने सही सीख दी है। आपके पत्र से उसे गुस्सा आया होगा। मेरे साथ तो वह यह सब इसलिए कर लेता है क्योंकि उसे “बदनामी के डर से” सार्वजनिक रूप से झगड़ा करने की मेरी अक्षमता पर भरोसा है’।
[5] एमिली बोतिगेली का कहना है ‘इस झगड़े का कारण व्यक्तिगत या किसी कुंठित लेखक की आकांक्षा से जुड़ा हुआ नहीं था।---यह सैद्धांतिक मामला था जिसमें मार्क्स ने डेमोक्रेटिक फ़ेडरेशन और उनके एक प्रमुख संस्थापक को घोषित किया कि उनका इस पहलकदमी से कोई लेना देना नहीं है’।
[6] 1879 के शुरू में मोंटस्टुअर्ट एलफिंस्टन की एक मुलाकात मार्क्स से हुई। अंग्रेज महोदय ने उनसे एक भड़काऊ सवाल पूछा ‘मैंने कहा, मान लीजिए आपकी वाली क्रांति हो जाती है और आपकी वाली गणतांत्रिक सरकार भी बन जाती है। तब भी आपके और हमारे दोस्तों के खास विचारों को साकार करने की राह में काफी लम्बा चलना होगा । उन्होंने जवाब दिया कि निश्चय ही सभी बड़े आंदोलनों की रफ़्तार धीमी होती है। बेहतर चीजों की ओर सिर्फ़ यह एक कदम होगा जैसे 1688 की आपकी क्रांति राह पर एक चरण ही तो थी’।
[7] मार्क्स को परिवार और नजदीकी दोस्तों में ‘मूर’ के नाम से पुकारा जाता था । एंगेल्स ने बताया कि ‘उनको कभी मार्क्स या कार्ल भी कह कर नहीं बुलाया जाता था । बस मूर ही कहा जाता वैसे ही जैसे हम सब उनको पुकारने के नाम से बुलाते। असल में जब पुकारने का नाम खत्म हो जाता है तो उसके साथ नजदीकी भी चली जाती है। विश्वविद्यालय के दिनों से ही उनका पुकारने का नाम मूर था और न्यू राइनिशे जाइटुंग में भी उन्हें हमेशा मूर कहा जाता। अगर मैं उनको किसी भी अन्य तरीके से संबोधित करता तो उन्हें लगता कि कुछ गड़बड़ हो गई है जिसे दुरुस्त करने की जरूरत है’। इसी तरह अगस्त बेबेल ने भी बाद में लिखा ‘मार्क्स को हमेशा उनकी पत्नी और पुत्रियां “मूर” कहती थीं मानो उनका कोई और नाम न हो। पुकारने का यह नाम उनको आबनूसी काले बालों और दाढ़ी के कारण मिला था जो उनकी मूछों के विपरीत सफेद हो गए थे’। बर्नस्टाइन को भी याद था ‘मैं विदा बोल कर जाना चाहता था लेकिन एंगेल्स बोले “ना, ना, मेरे साथ मूर के पास चलो”। मैंने पूछा “मूर के पास? ये मूर कौन है?” एंगेल्स ने जवाब दिया “मार्क्स, और कौन” मानो पूछने वाले को जानना चाहिए कि वे किसकी बात कर रहे हैं’।
[8] इस नाम से पहली बार उन्होंने ‘पूंजी’ के छपने के साल पत्र पर दस्तखत किया था । मार्क्स के बारे में जो तमाम ओछी बातें बोली गईं उनमें अधिकतर सामी विरोध या नस्लवाद का तड़का है। उनमें सबसे खराब बात में कहा गया कि ‘दुनिया के बारे में उनका नजरिया शैतानी था, उनका अंहकार भी शैतानी था । कभी कभी लगता है वे जानते थे कि वे उसका पापकर्म पूरा कर रहे हैं’ । मार्क्स ने अपना ‘बुजुर्ग’ नाम थोड़ा मजाहिया अंदाज में रखा था । उदाहरण के लिए उन्होंने लौरा लाफ़ार्ग को लिखा ‘मुझे दुख है कि मैं अपनी प्यारी पुतली का जन्मदिन घर पर नहीं मना पाऊंगा लेकिन इस बुजुर्ग का मन तुम्हारे पास लगा हुआ है। तुम तो मेरे दिल में बसे हुए हो’ । लौरा ने जब पुत्र को जन्म दिया तो उन्होंने पाल लाफ़ार्ग को लिखा ‘छोटे बुतरू को मेरी ओर से गले लगाना और कहना कि यह बुजुर्ग अपने दो वारिसों को पाकर खुश है’।
[9] हमेशा की तरह उदारता के साथ एंगेल्स ने तत्काल जवाब दिया ‘जहां तक इस तीस पौंड का सवाल है तो इस पर अपने बाल सफेद न कीजिए ।----बहरहाल अगर और जरूरत हो तो बताइए, चेक की यह रकम बढ़ा दी जाएगी’।
[10] मार्क्स ने उनको जीवन के संकेत कुछ दिन बाद ही दिए ‘लगभग एक पखवारे से मैं यहां पड़ा हुआ हूं। न तो पेरिस और न ही किसी परिचित के पास गया । मेरी पत्नी की हालत ने तो मुझे न यह करने दिया न वह’।
[11] मार्क्स ने यही बात लौरा को लंदन में लिखी ‘बढ़ती कमजोरी के कारण मां की हालत गम्भीर है। इसलिए मेरा इरादा था (क्योंकि हम इस बार आराम से ही यात्रा कर सकेंगे) कि हफ़्ते के अंत तक किसी भी हाल में निकल चला जाए और बीमार को भी यह बता दिया था। बहरहाल कल धोने के लिए कपड़े भेजकर उन्होंने मेरी योजना पर पानी फेर दिया’।
[12] एलिनोर की जीवनी लेखिका योने काप का कहना है कि एलिनोर की ‘समस्या दोहरी और विकट थी’। वह लिसागरी के साथ अपना गोपनीय संबंध तोड़ना चाहती थी जिन्हें परिवार ने कभी स्वीकार नहीं किया और उसी समय ‘नाटकों के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहती थी’।
[13] एंगेल्स को उन्होंने लिखा कि डाक्टर डोंकिन को ‘अचरज है---कि इस तरह का झमेला पहले क्यों नहीं हुआ’।
[14] ‘तुम्हें बच्चों को नहीं छोड़ना चाहिए। यह सीधे पागलपन होगा और पापा को तुम्हारे मौजूद होने से जितनी खुशी या आराम होगा उससे अधिक चिंता होगी। वैसे हम सब चाहते तो हैं कि तुम यहां रहो’।
[15] मार्क्स ने खुद बेकर को दिसम्बर में लिखा ‘फेफड़ों की सूजन के साथ मिलकर ब्रोंकाइटिस ने मुझे ऐसा जकड़ा कि एक समय बहुत दिनों तक डाक्टरों को इससे मेरे पार पाने में संदेह रहा’।
[16] एंगेल्स भी खुश थे ‘सर्वहारा ने कभी अपने आपको इतने शानदार तरीके से प्रकट नहीं किया था। इंग्लैंड में 1848 की पराजय के बाद उदासीनता का आलम छा गया था और आखिरकार बुर्जुआ शोषण के समक्ष इस प्रावधान के साथ कि ट्रेड यूनियनें ऊंचे वेतन के लिए व्यक्तिगत लड़ाई लड़ेंगी, समर्पण कर दिया गया था’।
[17] मार्क्स ने बाद में डैनिएल्सन को लिखा कि कितनी बुरी बात थी कि ‘पत्नी के जीवन के आखिरी छह हफ़्तों में से तीन हफ़्तों के दौरान’ वे उन्हें देख भी नहीं सके थे’ हालांकि वे ‘एक दूसरे से सटे हुए कमरों में ही थे’ ।
[18] माइकेल क्राट्के का कहना है कि मार्क्स इस प्रक्रिया को ‘व्यापार, कृषि, खनन उद्योग, टैक्स प्रणाली और अधिसंरचना की समग्र विकास प्रक्रिया’ के बतौर समझते थे। उनके अनुसार मार्क्स ने ये नोट इस दीर्घकालीन यकीन के साथ एकत्र किये कि ‘राजनीतिक दर्शन की जगह वे समाजवादी आंदोलन के लिए ठोस सामाजिक-वैज्ञानिक बुनियाद तैयार कर रहे हैं’।
[19] मार्क्स की चिट्ठी पत्री में इस अध्ययन का कोई उल्लेख नहीं मिलता इसलिए इनकी तिथि निश्चित करना बेहद मुश्किल है। समग्र लेखन के संपादकों ने अस्थायी रूप से इन उद्धरणों को ‘1881 के उत्तरार्ध से 1882 के उत्तरार्ध तक’ का माना है जबकि मैक्समिलियन रूबल के मुताबिक ‘बिना शक’ वे 1881 के उत्तरार्ध के बाद के हैं। पहली परिकल्पना कुछ ज्यादा ही सामान्य है जबकि दूसरी वाली सही नहीं लगती क्योंकि मार्क्स ने अधिकतर काम 1881 में किया लेकिन ज्यादा सम्भावना है कि इस काम को वे 1882 तक भी खींच ले गये थे। इसे हम पांडुलिपियों को भिन्न किस्म से रेखांकित किये जाने के सहारे समझ सकते हैं और 23 दिसम्बर 1882 को अपनी पुत्री एलिनोर को लिखे उनके पत्र से भी। इसलिए कहा जा सकता है कि ये नोटबुकें उनके जीवन के आखिरी अठारह महीनों में उनकी बौद्धिक गतिविधि के दो दौरों से जुड़ी हुई हैं जब वे लंदन और वाइट द्वीप के बीच आते जाते रहे थे अर्थात 1881 के पतझड़ से 9 फ़रवरी 1882 तक और अक्टूबर 1882 के आरम्भ से 12 जनवरी 1883 तक । एक बात तय है कि इस ऐतिहासिक कालानुक्रम पर वे 1882 के आठ महीनों में काम नहीं कर सके थे जब वे फ़्रांस, अल्जीरिया और स्विट्ज़रलैंड में थे।
[20] 4 जनवरी 1882 को मार्क्स ने लौरा को लिखा ‘मेरी संगिनी कुछ भी नहीं खा रही हैं, स्नायविक तनाव से बुरी तरह परेशान हैं तथा दिन भर पढ़ती-लिखती रहती हैं।---लगता है वे मेरे साथ केवल आत्मोत्सर्ग करने वाले शहीद की तरह कर्तव्य भावना से जीवित बची हुई हैं’।
गोपाल प्रधान |
सम्पर्क –
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कार्ल मार्क्स के जीवन के बारे में बहुत महत्वपूर्ण जानकारी
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