रणेन्द्र जी से प्रमोद मीणा की बातचीत
रणेन्द्र जी |
रणेन्द्र का जन्म 10 फरवरी 1960 को बिहार के नालंदा जिले में एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ। अपनी रचनाधर्मिता के द्वारा रणेन्द्र ने साहित्यिक क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनाई। अपने शब्दों से ग्रामीणों इलाकों की दास्तां बुनने वाले रणेंद्र अपने पहले ही उपन्यास 'ग्लोबल गांव के देवता' से साहित्य जगत में चर्चा में आ गए थे। इसके बाद 'गायब होता देश' से इन्होंने अपनी रचनाधर्मिता का लोहा मनवाया। उपन्यास के अलावा इनके दो कहानी संग्रह 'रात बाकी' और 'छप्पन छुरी बहत्तर पेंच'' भी प्रकाशित हो चुका है। कहानी और उपन्यास के साथ इन्होंने कविताएं भी लिखी हैं। ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ’ आपका कविता संकलन है। ‘कांची’ नामक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन भी इन्होंने कुछ साल किया था। इनका नया उपन्यास ‘गूँगी रुलाई का कोरस’ राजकमल प्रकाशन से अभी-अभी प्रकाशित हुआ है।
रणेन्द्र के लेखन की यह सफलता है कि अपने लेखन के जरिए इन्होंने आदिवासी समाज को देखने समझने का नजरिया ही बदल दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि आदिवासी समुदाय के अंदर हो रहे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों पर इनकी बराबर सूक्ष्म नज़र है। वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ साथ रणेन्द्र जी एक सशक्त रचनाकार भी हैं। इसलिए वे आदिवासियों के जीवन संघर्ष से भलीभांति परिचित हैं, और यह संघर्ष उन्होंने अपनी रचनाओं में सफलतापूर्वक उकेरा है। आदिवासी जीवन के जो भी ज्वलन्त सवाल हैं, मसलन अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, विस्थापन, घुसपैठ, स्त्री-शोषण इनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है रणेन्द्र जी से प्रमोद मीणा की एक बातचीत। रणेन्द्र जी से यह बातचीत बनास जन हेतु प्रमोद मीणा ने किया था।
रणेन्द्र जी से प्रमोद मीणा की बातचीत
प्रमोद : जोहार, सबसे पहले तो साल 2020 के श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफको साहित्य सम्मान के लिए आपको बधाई। वैसे पुरस्कार किसी लेखक के लेखन का मानक नहीं होते और आपको तो पहले से ही विश्वविद्यालयों में पढ़ा जा रहा है और आपके साहित्य पर शोध कार्य हो रहे हैं लेकिन फिर भी पुरस्कार से लेखक की हौंसला अफजाई तो होती ही है।
रणेन्द्र जी : धन्यवाद प्रमोद जी।
प्रमोद : लेखन कहीं शून्य से पैदा नहीं होता। कहा भी गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। अतः अपने बारे में कुछ बताइए कि कैसे आपकी रुचि साहित्य में जगी और कैसे आप आदिवासियों को केन्द्र में रख कर लिखने की ओर प्रवृत्त हुए?
रणेन्द्र जी : प्रमोद जी, बात ऐसी है कि कविताएँ तो मैं लिखता था। पिता जी हिन्दी के प्राध्यापक थे और रचनाकार के रूप में सक्रिय भी रहते थे। घर पर उस वक्त साहित्यिक गोष्ठियाँ हुआ करती थीं। उनमें मुख्यतः कविता पाठ ही हुआ करता था। जब मैं हाईस्कूल में आ गया तो पिता जी और उनके मित्र घर की इन गोष्ठियों में प्रोत्साहित करने लगे कि रणेन्द्र कुछ सुनाओ। इन्हीं गोष्ठियों में पैरोडी के रूप में कविता की शुरुआत की। उस वक्त कुछ राजनीतिक पैरोडियाँ लिखी थीं। पिता जी ने उन्हें प्रकाशित भी करवा दिया और इससे मनोबल भी बढ़ गया। कह सकते हैं कि पिता जी के कारण मुझे एक साहित्यिक परिवेश मिला।
जैसा कि मैंने कहा, पिता जी हिन्दी के प्राध्यापक थे और उस वक्त के लगभग सभी प्राध्यापक थोड़ा अध्यापन-अध्ययन के प्रति गंभीर हुआ करते थे। घर में छोटा-सा पुस्तकालय भी था। धर्मयुग, सारिका और दिनमान - ये सब पत्रिकाएँ आया करती थीं। एक परिवेश निश्चय ही मुझे मिला था। मुझे हाईस्कूल में नंबर तो ज्यादा सोशल साइंस और हिन्दी में ही आते थे किन्तु हिन्दी मुझे पढ़ाई नहीं गई। जैसी हर पिता की इच्छा होती है कि जो वे नहीं बन सके, बच्चों को बनाना चाहते हैं। साइंस पढ़ाना चाहते हैं, इंजीनियर, डॉक्टर बनाना चाहते हैं; ऐसे ही मेरे पिता थे। हर माँ-बाप चाहता ही है कि वह अपने बच्चे का भाग्य गढ़ दे !
बहरहाल परिवेश वहीं से मिला और कविता लिखना शुरु हुआ। फिर जब राम जन्मभूमि का आन्दोलन शुरु हुआ, तो फिर उसके प्रतिकार में कुछ कविताएँ लिखीं। फिर उस वक्त हमारे मध्य बिहार में निजी सेनाओं के द्वारा उस दौर में निरन्तर जनसंहार किया जा रहा था, उस बर्बरता ने भी मेरी कविताएँ को उद्वेलित किया। तो कविताएँ मैं लिखा करता था और नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल, दुष्यन्त, सर्वेश्वर दयाल, सक्सेना आदि मेरे आदर्श थे। एक सही दिशा में कविताएँ जा रही थीं। पिता जी थोड़े से दक्षिणपंथी थे, थोड़े से क्या, पूरी तरह ही थे। लेकिन पिता जी का वह दक्षिणपंथी नजरिया मुझे पसन्द न था। ठीक है कि साहित्यिक परिवेश उन्होंने दिया लेकिन उनकी दिशा और दृष्टि मुझे पसन्द नहीं थी। यह स्वाभाविक भी है, ऐसा होता ही है। हमने किसान आन्दोलन के पक्ष में कार्यक्रम किया, मेरे पुत्र ऋत्विक बोले कि नहीं, उन कानूनों में कुछ चीजें अच्छी हैं। अब लोगों को आजादी है, बोलने और सोचने की। मिथिलेश जी ने फिर फोन पर उनसे बात की कि समझाइए क्या अच्छा है इनमें। कार्यक्रम में आइए और अपने तर्क रखिए। बहरहाल अब हर आदमी को अपने ढंग से सोचने का हक है।
फिर जब स्टेट सर्विस में मैं आ गया, तो पहली पोस्टिंग मेरी रोहतास जिले के चेनारी अंचल में हुई जो एक ब्राह्मण बाहुल्य अंचल था। वहाँ वर्ण व्यवस्था का बहुत ही कटुतम रूप देखने को मिला। इससे सामाजिक यथार्थ को नजदीक से जानने का मौका मिला। नहीं तो, मैं तो एक छोटे से कस्बे में सुविधाजनक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुआ था। पिता जी छोटे से कस्बे में प्राध्यापक थे, विभागाध्यक्ष थे। वहाँ के माहौल में ऐसे ही इतना दुलार मिला कि आप किस जाति के हैं, क्या हैं, यह सब कभी कोई पूछता ही नहीं है। मध्यमवर्गीय शहरी बच्चों-किशोरों को सब अच्छा-अच्छा, सब बड़ा सुन्दर लगता है। किन्तु जैसे ही मैं उस ग्रामीण परिवेश में गया, वहाँ जब मैंने सामाजिक पदानुक्रम के घृणित रूपों को देखा, तो जिसे कल्चरल शॉक कहते हैं, सांस्कृतिक झटका लगना जिसे कहते हैं, वो चीज वहाँ हुई। ‘रात बाकी’ कहानी में मैंने वो सब यथार्थ बातें थोड़ी-सी कल्पना के साथ कही हैं। एक जलाशय परियोजना, उससे विस्थापित होने वाले चेरो, एक जनजाति समुदाय के लोग उस परियोजना के कारण उजड़ रहे थे। उनके गाँव डूबे क्षेत्र में आ रहे थे। विस्थापितों का आन्दोलन प्रस्तुत किया था। एक डॉ. विनयन थे जहानाबाद में भूमि समस्या को ले कर सक्रिय, जिन पर तात्कालिन सत्ता ने नक्सली मान कर जिन्दा या मुर्दा एक लाख का इनाम रख छोड़ा था। वे उस वक्त चेनारी में नाम बदल कर विस्थापितों के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। मैं अंचलाधिकारी के रूप में उन चीजों को देख रहा था। तो पहली ही पोस्टिंग में डॉ. विनयन, विस्थापन और पुनर्वास, पुनर्वास की राजनीति, कथनी और करनी के अन्तर, ब्यूरोक्रेसी के बहुरंगी चेहरे जो देखा, महसूस किया .... ये सारी चीजें उस कहानी में आ गई थीं। सामन्ती और वर्ण व्यवस्था वाला जो वहाँ का समाज था, वहाँ की जो उबड़-खाबड़ जमीन थी, उसके बहुत ही कटु अनुभव थे, उन्होंने बहुत कुछ सिखाया।
चूँकि मैं वर्चस्वशाली लोगों के अनुरूप काम नहीं कर रहा था। उल्टे उलझ रहा था। तो सजा के रूप में इधर जंगल क्षेत्र में पोस्टिंग कर दी गई। 1991 में रांची आ गया। अब एकदम कठोर वर्ण व्यवस्थावादी समाज में जिस उत्पीड़न को देख कर मैं आया था, वहाँ से ऐसे समाज में आ गया था जहाँ कोई वर्ण व्यवस्था नाम की चीज ही नहीं थी। यहाँ आदिवासियों में जन्म के आधार पर भेदभाव की अवधारणा ही नहीं थी। तो एक और कल्चरल शॉक लगा जो सकारात्मक था कि अरे! इस ढंग के लोग, समाज, जगहें भी हो सकती हैं जहाँ जन्मना कोई भेदभाव ही नहीं हो। इसके बाद तो मैं इनके बीच घुल-मिल कर समझने-सीखने और आनंदित होने के अनुभवों में डूब गया। फिर यहाँ से बिशुनपुर गया जहाँ असुर थे, बिरजिया, बिरहोड़, परहैया, नगेशिया, उराँव, खेरवार समुदाय के लोग थे। उनके बीच में रहना, उनका मित्र बनना, उनसे मन मिलना, उनके साथ काम करना। आत्मीयता और हृदय के खुलने-मिलने से बहुत कुछ नया सुना-सीखा। इस तरह जो मैंने देखा, महसूस किया, वही मेरी रचनाओं में आ गया।
प्रमोद : हम विश्वविद्यालय के लोगों के बनिस्बत प्रशासन के जो लोग होते हैं, उनका ज्यादा सीधा सम्पर्क समाज से होता है। निश्चय ही प्रशासन की नौकरी ने आपको एक अवसर दिया आदिवासियों के बीच में जाने का। जैसा आपने बताया कि यथास्थितिवादी लोगों के अनुसार काम न करने के कारण भले ही सजा के रूप में ही आपको जंगली क्षेत्र में भेजा गया हो, किन्तु आपके लिए वह एक मौका साबित हुआ आदिवासियों के साथ सीधे जुड़ने का। इसी से जुड़ा यह सवाल अगर आपसे पूछा जाए कि इतना लम्बा वक्त आपको प्रशासनिक सेवा में हो गया है तो कई बार प्रशासनिक मजबूरियों के कारण क्या ऐसा भी हुआ कि आप चाह कर भी चीजों को उस तरह नहीं रख पाए हों? प्रशासन में रहते हुए पहले और अब में लेखन आपके लिए आसान हुआ है या कठिन ?
रणेन्द्र जी : आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन है क्या कि हमारे समाज के लोग जब प्रशासन में आते हैं, तो उनका वर्गान्तरण हो जाता है, उनका नजरिया परिवर्तित हो जाता है। ये लोग कट जाते हैं अपने समाज से, अपनी जड़ों से। और फिर पदाधिकारी के तौर पर ही व्यवहार करने लगते हैं। अगर चीजें बदलाव में नहीं दिख रही हैं, बहुत गति से नहीं बदल रही हैं, तो ऐसा नहीं है कि पिछड़ी जातियों से, आदिवासी-दलित समाज से पदाधिकारी नहीं आ रहे हैं, लेकिन प्रशिक्षण के क्रम में और कई चीजों से वर्गीय चरित्र जिसे कहते हैं, वही बदल जाता है। ये लोग फिर एक वर्ग के तौर पर व्यवहार करने लगते हैं। अपने ही लोगों को हेय दृष्टि से देखना, यह सब मुझे बड़ा ही अजीब लगता है। वास्तव में जो प्रशासनिक ढाँचा हमारा है, वह तो ब्रिटिश काल में ही तैयार हुआ था। प्रशासनिक ढाँचे की सारी पद्धतियाँ-तन्त्र तो वही है। और इसकी बड़ी आलोचना भी हुई आजादी की लड़ाई के दौरान। लेकिन 14 अगस्त की रात जो थी 1947 की, उसने ऐसी विभीषिका पैदा कर दी दंगों की और इतनी बड़ी संख्या में लोग जलावतन हो कर, देश निकाला हो कर आए कि उस अराजकता की स्थिति से उबरने में आई सी एस के लागों से मदद लेने के अलावा गृहमन्त्री और प्रधानमन्त्री के सामने कोई चारा ही नहीं था। तो वे आई सी एस ही आई ए एस हो कर रह गए। योजना यह थी कि प्रशासनिक सुधार आयोग जो अनुशंसाएँ करेगा, उसी हिसाब से इस तन्त्र का देशीकरण या लोकतांत्रीकरण हो जाएगा। लेकिन इन आयोगों की आठ सौ-नौ सौ-हजार पृष्ठों की जो अनुशंसाएँ थीं, वे संसद के पुस्तकालय की शोभा बन कर रह गईं। इस सेवा का वर्गीय चरित्र बदल नहीं सका। इस कारण से सैद्धान्तिक तौर पर जो योजनाएँ बहुत खूबसूरत लगती हैं, वे क्रियान्वयन की स्थिति में आ कर उस ढंग से बहुत सुन्दर नहीं रह पाती हैं। कारण कि जो क्रियान्वयन की एजेंसी है, वह नागरिकों के समुदाय से अलगाव महसूस करती है। एक अलग चरित्र उनका विकसित हो जाता है, भले ही उनके पद का नाम कुछ भी हो, व्यवहार वे एक पदाधिकारी के रूप में एलियन जैसा ही करते हैं। चीजें वहाँ बदल जाती हैं। किन्तु यह मेरा सौभाग्य कह लीजिए कि जिन मित्रों से मैं जुड़ा रहा, जिन चीजों ने मुझे ढाला, वह मेरे लिए लाभकारी रहा। कविताओं ने मेरी संवेदनाओं को, मेरे मन की मिट्टी को नम बनाये रखा। झुक कर-निहुर कर लोगों से मिलना-सुनना-सीखना बदस्तूर कायम रहा।
आपने जो 14 से पहले और 14 के बाद की बात उठाई है, तो स्वाभाविक है कि 14 से पहले स्थिति बहुत ही बेहतर थी। मैं प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान, रांची में था - श्रीकृष्ण लोक प्रशासन संस्थान में मेरी पोस्टिंग थी। हर राज्य में एक संस्थान ऐसा होता है, जहाँ स्टेट के राजपत्रित अधिकारियों का या प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का आधारभूत दीर्घ अवधि का और भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों का भी राज्य के जो विशेष एक्ट होते हैं और जो हिस्ट्री होती है, उसके लिए तीन महीने का प्रशिक्षण होता है। मैं लगभग दस साल तक वहाँ पदास्थापित था। उस संस्थान के शैक्षणिक परिवेश में पर्याप्त खुलापन था। नक्सलवाद पर बात होनी है, तो महाश्वेता देवी की रचना पर आधारित ‘हजार चौरासी की माँ’ वहाँ दिखाई जाती थी। नाजियों के खिलाफ जो फिल्में हैं, ‘शिंडलर्स लिस्ट’ वगैरह उन्हें दिखाया जाता था। या भ्रूण हत्या के खिलाफ जो ‘मातृभूमि’ फिल्म थी, उसको दिखाया जाता था। पाँच दिन के लघु प्रशिक्षणों में मानवाधिकार आदि हर विषय पर बात कर ली जाती थी। 14 के बाद सारी चीजें बदल गईं। क्या बात करनी है, क्या नहीं करनी है, नैरेटिव तय होने लगे। बहुत ही कठिनाई हो गई है। कब कौन आ कर आपको टोक देगा ... अब सब बहुत कठिन हो गया। रंजीत वर्मा ने तो एक आन्दोलन भी चलाया था - ‘कविता : 16 मई के बाद’। 2014 में जब सरकार बनी थी, तो उसके बनने के बाद कई राज्यों में कविताओं में आये उसके प्रभाव पर एक आन्दोलन के रूप में इसका आयोजन हुआ था। हिन्दी विभाग, राँची विश्वविद्यालय में उन कविताओं के संकलन का लोकार्पण हम कर रहे थे कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के बच्चों ने आ कर हंगामा कर दिया। यह सब बहुत ही अटपटा था। अपने जीवन में उस ढंग का अनुभव मुझे कभी हुआ ही नहीं था। एक सेंसरशिप आपके दिमाग में बैठा दिया गया है कि आपको क्या बोलना है, क्या नहीं बोलना है। बोलने से पहले अब सोचना पड़ता है। उससे पहले एक आजादी थी बोलने, सोचने और लिखने की। अब बोलना-लिखना तो दूर की बात है, सोचने तक पर एक सेंसरशिप 2014 के बाद बैठा दी गई।
यह बड़ी खतरनाक बात है। यह अलग है कि हमारे यहाँ अब राज्य सरकार बदल गई है, तो फिर से हम उस आजादी को महसूस कर रहे हैं। मेरे लिए तो सबसे ज्यादा सकारात्मक बात इसलिए हुई कि जो मेरा नया उपन्यास है ‘गूँगी रुलाई का कोरस’, वह तो है ही इस विषय पर कि कैसे हमारे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की जो दुनिया है, वह किस ढंग से समावेशी है। वहाँ से आप मुसलमानों को कैसे बाहर निकाल सकते हैं ? वहाँ से आप उन्हें निकाल ही नहीं सकते हैं क्यों कि जैसे ही ध्रुपद वगैरह में जाएँगे आप, तो देवगिरी के गोपाल नायक आते हैं अलाउद्दीन खिलजी के समय में तो अमीर खुसरो भी आते हैं। और दोनों के मिलने से ही, यानी कि भारत की पवित्र नदियाँ और ईरान की खुशबू के मिलने से ही नई धारा शास्त्रीय संगीत की निकलती है। अकबर के दरबार में तानसेन से मिल कर यह जवान होती है, फिर मुहम्मद शाह रंगीला के पास पहुँचती है। ख्याल गायकी आती है, अवध में जा कर ठुमरी आती है। फिर घराने हैं उस्तादों के, आचार्यों के। उन घरानों से, बड़े गुलाम अली खान साहब से, बड़े बाबा अलाद्दीन खान साहब से और बिस्मिल्ला ख़ाँ साहब से आप कैसे हिन्दुस्तानी संगीत को अलग सकते हैं ? सामवेद गायन, मार्गी गायन से सीधे ध्रुपद तक हम आते हैं। ध्रुपद जो मन्दिर का गायन हुआ करता था, वह गायब हो गया था दो-तीन सौ सालों तक। फिर उसका पुनरुद्धार कौन करता है ? वो डागर बन्धु करते हैं, पेरिस में जा कर ध्रुपद एकेडमी की स्थापना उन्होंने की। पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान का शास्त्रीय संगीत ध्रुपद के नाम से छा गया डागर बन्धुओं के प्रयास से। तो यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ से आप संस्कृति के नाम पर मुसलमानों को बाहर नहीं कर सकते हैं। मेरे उपन्यास में अलाउद्दीन खान साहब जैसे ही महताबुद्दीन खान साहब हैं, उनका परिवार है। उनके कई दामाद हैं जो अलग-अलग परिवेश से आए हैं। कनफटा जोगी खुर्शीद हैं, ये भी दामाद हैं। बाउल गाने वाले कमल कबीर कवि भी उस परिवार में दामाद हैं। अयूब खां हैं, महताबुद्दीन खां साहब के बेटे। और इस मॉब लिंचिंग के माहौल में यह परिवार फँस गया है। मैंने दिखाया है कि कैसे एक-एक कर के लोग मारे जा रहे हैं। याद कीजिए कि कोई 22 मॉब लिंचिंग झारखण्ड में हुई हैं। अगर इस समय अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ मानने वाली पार्टी सरकार में होती, तो हम ना उसका लोकार्पण कर पाते, न उस पर बातचीत कर पाते। यह मेरी नियति कहिए या सौभाग्य कि सरकार बदल गई। अब लोकार्पण भी होगा, बातचीत भी होगी। मॉब लिंचिंग की भी बात होगी। अब कोई रुलाई दबा कर गूँगी नहीं बनाई जा सकती।
प्रमोद : निश्चय ही आप जैसे उच्च पदों पर बैठे लोग जब इस चीज को महसूस कर रहे हैं, तो सामान्य लोगों, लेखकों पर तो और भी दबाव है। अगर आदिवासी और उनके साहित्य पर बात करें, तो एक सवाल आता है कि आप जब दलित को, मुसलिम अल्पसंख्यकों को परिभाषित करते हैं तो चाहे दलित, अल्पसंख्यक की आर्थिक हैसियत बेहतर हो जाए, सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी वह ऊपर उठ जाए। दूसरी तरह से कहें तो उसका वर्गांतरण हो जाए, तब भी उसे दलित या अल्पसंख्यक ही कहा जाता है। लेकिन ट्राइबल के सन्दर्भ में सवाल उठाया जाता है कि आर्थिक स्थिति जिन ट्राइबल की बेहतर हो गई है, जो पढ़-लिख कर आधुनिक हो गए हैं, वे ट्राइबल कैसे हो सकते हैं? जय पाल सिंह के आदिवासी प्रतिनिधि होने पर भी संविधान सभा में सवाल किए गए थे। यह लगभग वैसी ही स्थिति है जैसे कुछ किसानों की समृद्धि देख कर उनके किसान होने पर भी आज सवाल किए जा रहे हैं ... पटेल साहब जो आगे चल कर देश के गृहमन्त्री हुए, वे तो संविधान सभा में यहाँ तक बोले कि यह ट्राइबल शब्द ही आजाद भारत में बचेगा नहीं। इसे कलंक तक भारत के लिए बताया गया, हालांकि वे लोग पिछड़ेपन के सन्दर्भ में ये बातें कर रहे थे।
रणेन्द्र जी : दरअसल यह एक प्रकार की अदृश्य हिंसा है जिसे मैं आजकल समझने की कोशिश कर रहा हूँ। इस पर प्रोजेक्ट भी करवा रहा हूँ। कारण कि दृश्य हिंसा पर तो बातें होती रही हैं। गांधी की डेढ़ सौंवी जयंती थी, तो हिंसा-अहिंसा बहुत बहस में रही थी। लेकिन जो अदृश्य हिंसा है जो सामाजिक संरचना में अन्तर्निहित है, उसमें जो हाइरार्की (पदानुक्रम) बनाई हुई है, जो पिरामिडनुमा संरचना बना दी गई है, उसमें अदृश्य हिंसा एक आवश्यक तत्व है। अधिरचना में ही वह छिपी हुई है। पूरी दुनिया में ही यह है। और अगर हमारे यहाँ के सन्दर्भों में देखें, तो वर्णवादी समाज ने श्रम से जुड़े सारे समाजों को उस पिरामिड में नीचे रखा है। इनके प्रति हर तरह की अदृश्य हिंसा का इस्तेमाल किया है, चाहे वह वाचिक हो, चाहे व्यवहार में हो, चाहे बॉडी लैंग्वेज हो। उनकी परम्परा को गाली देने का काम किया गया है। उनकी छवि नकारात्मक बनाई गई है। प्रेमचंद की कहानियों में, रेणु की कहानियों में ये सारी चीजें आ रही थीं। रेणु की ‘ठेस’ कहानी को लें, तो उसमें जो कलाकार है, सिरचन वह अपनी तरह का आखिरी कलाकार बचा हुआ है। देखिए गाँव के सामन्ती समाज की हैसियत नहीं है कि उसकी मजदूरी उसको दे। जो शिल्पकृतियाँ वह बनाता है, उसके बदले में यह समाज अनाज भी नहीं देना चाहता है। सिर्फ उसके काम करते वक्त उसको खाना भर खिला दिया जाता है। लेकिन उसके बारे में पूरे गाँव में हल्ला है कि चटोर है और मुँहजोर है। अरे आप खेसारी के सत्तू पर भी उससे काम ले रहे हो लेकिन उसके बारे में आप यह फैलाए हुए हैं कि ये मुँहजोर है और चटोर है। ये जो वाचिक हिंसा है, यह अमानवीकरण (डिह्यूमेनाइजेशन) की प्रक्रिया को गतिमान कर रही है। जिसे यह कहानी हमारे सामने रख रही है। प्रेमचन्द की ‘सद्गति’ में जो दुःखी चमार है, उससे वामन देवता गाँठ वाली लकड़ी कटवा रहे हैं। गाँठ जो है, वह वर्ण व्यवस्था की गाँठ है। यहाँ अदृश्य हिंसा साफ दिख रही है कि वह आया है सबेरे-सबेरे बिना खाए-पिए कि पंडित जी फिर निकल जाएँगे जब कि उनसे उसे बेटी की सगाई का शुभ मुहूर्त लेना है। किन्तु वे उससे लकड़ी कटवाने लग गए और ऐसी लकड़ी दे दी है जो कट नहीं रही है। और अन्ततः वह धूप-भूख और प्यास से मर जाता है। इस प्रकार प्रेमचंद बड़ी सूक्ष्मता से अदृश्य हिंसा को प्रत्यक्ष हिंसा में परिवर्त्तित होते दिखाते हैं। इसे समझिए कि कैसे अदृश्य हिंसा जो हमारे व्यवहार में, हमारे बोलने-चालने में है, देखने के नजरिए में है, वह कैसे दृश्य हिंसा बन जाती है। इस सबको हम रोज देख रहे हैं।
स्पष्ट है कि ‘अन्य’ के प्रति अदृश्य हिंसा व्यक्ति समाज के मानस में बहुत गहरे तक धँसी हुई है, इसके स्वरूप को समझने की जरूरत है। मैं एक किताब देख रहा था - डेविड लेविस्टोंन स्मिथ की ‘लेस दैन ह्यूमन’। इसमें वे बताते हैं कि कैसे हर समाज का, समुदाय का एथनोसेंट्रिक स्वभाव होता है कि वह अपने ही समूह के मानव को पूर्ण मानव या इंसान समझता है और अपने से बाहर के समूह के लोगों को थोड़ा-सा कम ह्यूमन, कमतर इंसान समझता है। अगर उनसे संघर्ष की स्थिति हो, नस्ल के आधार पर या जाति, वर्ण, लिंग या भाषा के आधार पर .....या सीधे-सीधे युद्ध की स्थिति हो, तो वह उनको डिह्यूमेनाइज करने लगता है कि वे इंसान ही नहीं हैं। विशेषकर दंगों या युद्ध की स्थिति में ताकि एक इंसान दूसरे इंसान की हत्या करे, बड़ी संख्या में हत्या करे तो अपराध-बोध उसको न हो। झिझक न हो। मनो-व्यथा की स्थिति से उसे गुजरना न पड़े कि एक इंसान की हत्या उससे हो गई है। इसके लिए ‘अन्य’ के अमानवीकरण की प्रक्रिया निरन्तर चलाई जाती है।
उदाहरण के लिए समझिए, प्रमोद जी कि जब पश्चिम के लोग दासों का व्यापार कर रहे थे, तो उनके वैज्ञानिकों ने बजाप्ता यह सिद्धान्त गढ़ा था, झूठा वैज्ञानिक सिद्धान्त गढ़ा था कि डार्विन के विकासवाद के सिद्धान्त के तहत चिंपाजी और मानव के बीच की कड़ी ही अफ्रीका के लोग हैं, वे पूर्ण मानव हैं ही नहीं ! अब पूर्ण मानव नहीं हैं, तो उनका व्यापार जो है, वह बहुत ही स्वाभाविक है, नेचुरल है। और जो मैं कह रहा हूँ, वह सिर्फ डेविड लेविस्टोन स्मिथ की ही किताब में ही नहीं है। मैं अपने एक सीनिसर मित्र डॉ. एस. हक निजामी साहब के पास अपने उपन्यास को दिखवाने गया था। वे पुराने जमाने के, सत्तर के दशक एम. बी. बी. एस., एम. डी. हैं। वे बोले कि जब मैं अपने मेडिकल कालेज के पुस्तकालय में पुराने 1950 के दशक के जर्नल देखता था तो मेरी इस पर नजर पड़ी थी। पुराने जर्नल्स में, यह थ्योरी दिख गई थी कि कैसे अफ्रीका के लोगों का जबड़ा चिम्पाजी से मिलता है, उनकी खोपड़ी कैसे मिलती है।
इसी प्रकार औपनिवेशिक काल में जब इन्होंने साम्राज्यवाद कायम किया पूरी दुनिया में, तो इन्होंने नस्ल का सिद्धान्त गढ़ा। नस्ल का सिद्धान्त भी एक-वैज्ञानिक सिद्धान्त है जो थोपा गया। जिसमें ‘आर्य श्रेष्ठता’ की एथनो-सेन्ट्रिक सोच सम्मिलित थी। सवर्ण-सामन्ती समाज में यह गहरे पैठी हुई है। अब ये जो एशियाटिक सोसाइटी वाले विलियम जोंस है, नव प्राच्यवादी एच. डी. कोलबुक, जॉन लीडिन, कैम्पबेल, कॉल्डवेल आदि ने मिल कर पहले ‘भाषा-परिवारों’ की अवधारणा दी फिर उसे नस्लों से जोड़ दिया। अभय कुमार दुबे ‘प्रतिमान’ के अपने लेख में विस्तार से सप्रमाण इसे बता रहे हैं। अरे जब हम सब लोग होमोसैपियन हैं, जब हम सबके पूर्वज सत्तर हजार साल पहले अफ्रीका से चले थे और अलग-अलग कारणों से, ज्वालामुखी फूटने से या किन्हीं और कारणों से अलग-अलग समयों में आव्रजन के कारण यहाँ इकट्ठा हो गए, तो कहाँ से नस्ल अलग हो गई हम लोगों की? ‘भाषा-परिवार’ को नस्ल से जोड़ कर देखने का पूरा नजरिया ही बदल दिया गया। अब आप उस नजरिए से आदिवासी को देखते हैं कि आप निग्रोनाइट हैं, आप फलाने हैं। मतलब कि एक पूरा विज्ञान, मानविकी, एंथ्रोपोलॉजी इसी झूठी सूडो साइंटिफिक थ्योरी पर चल रही है। आपको हासिल कुछ नहीं हो रहा है। कभी आप प्रूफ नहीं कर सके कि कौन नीग्रो है, कौन चाइनो-तिब्बोतन है, कौन फलां है। लेकिन आप गढ़े जा रहे हैं। और यही नजरिया अदरनेस यानी ‘अन्य’ का बोध पैदा करता है। आप आदिवासियों को ‘अन्य’ की दृष्टि से देखते हैं, आप दलितों को ‘अन्य’ की दृष्टि से देखते हैं क्योंकि आप अपने को झूठे श्रेष्ठता बोध से आर्य मानते हैं। जैसे जर्मन के लोग ने अपने को नॉर्डिक आर्यन माना। उन कथित नॉडिक आर्यों ने क्या किया सुपीरियटी के कॉम्प्लेक्स में ? और सारे ऑरिएंटलिस्ट लोगों ने, सारे प्राच्यवादियों ने इसको बड़ी हवा दी। मैक्स मूलर साहब ने भी बड़ी हवा दी इन चीजों को। हमारे यहाँ के भी उस समय के जो केशव चन्द्र सेन जैसे महापुरुष थे, उन्हें भी अच्छा लग रहा था कि यह तो दो भाइयों का मिलन है, हम भी आर्य हैं और ब्रिटिश भी आर्य हैं।
तो ये जो सूडो साइंटिफिक थ्योरी है, यह कभी अफ्रीका के लोगों को चिंपाजी के बाद की कड़ी कहती है, कभी पूरी दुनिया की जनसंख्या को नस्ल के आधार पर बाँट कर कुछ लोगों को कमतर और मानवेत्तर समझने की कोशिश करती है। ये सब चीजें एक विषमतामूलक नजरिया गढ़ता है और इनको दिक्कत ये है प्रमोद जी, कि आदिवासी समाज के दर्शन में जो समतावादी दर्शन है, वह अद्भुत है। समझिए इस बात को, एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात है यह।
प्रमोद : जी मेरा सवाल भी था आदिवासी दर्शन को ले कर। आपने इस पर एक संगोष्ठी भी आयोजित की थी। शायद पुस्तक के रूप में भी इसे लाने पर आप काम कर रहे हैं?
रणेन्द्र जी : जी, हम उस पर काम कर रहे हैं। रूटलेज पब्लिकेशन ने उसमें रुचि ली है क्योंकि पूरी दुनिया में ‘आदिवासी दर्शन’ पर कोई किताब है ही नहीं। इसमें कुछ और आलेख बन रहे हैं। कुछ लिखे जा रहे हैं, कुछ लिख दिए गए हैं। लेकिन हमारी कोशिश एक स्तरीय पुस्तक लाने की है। डॉ. आयशा गौतम, संतोष किड़ो जी हों या चिन्टू दोराईबुरू हों या संजय बसु मल्लिक हों - ये सब उसमें होंगे। हमारी कोशिश है कि ऐसी किताब होनी चाहिए कि उसको एकेडमिक में भी, जो अकादमिक दुनिया है, वहाँ भी दर्शन शास्त्र की विधा के, अनुशासन के जो लोग हैं, वे उसे थोड़ा-सा आदर की दृष्टि से देखें। इसीलिए वह किताब थोड़ा समय ले रही है, लेकिन वह किताब आएगी।
तो मैं कह रहा था कि दर्शन की दुनिया में भी आदिवासियों के यहाँ भिन्नता है। और यह बहुत मौलिक भिन्नता है। इसे बहुत रेखांकित करने की आवश्यकता है कि जितने भी संस्थागत धर्म हैं, उनके यहाँ भी दर्शन के स्तर पर एक हाइरार्की बनी हुई है, एक पदानुक्रम बना हुआ है। गैर बराबरी चिन्तन के स्तर पर भी है। अब इस्लाम और ईसाइयत में जो है कि सबसे नीचे वनस्पति जगत है, उसके ऊपर पशु जगत है, उसके ऊपर इंसान है, फिर देवदूत वगैरह है और उनके ऊपर ईश्वर-अल्लाह-गॉड है। तो सबसे ऊपर गॉड, फिर एन्जिल्स ,इंसान, पशु जगत और वनस्पति हैं। इस प्रकार एक हाइरार्की बनाने की कोशिश की गई है। हिन्दू धर्म में तो चौरासी लाख हजार योनियों में घूम लीजिए। चौरासी लाख योनियों में घूम लेने के बाद अगर पिछले जन्मों में आपका सब कुछ सही है तो फिर जा कर आप मनुष्य बनेंगे। लेकिन यहाँ भी तो चार वर्ण हैं। अब आपने पिछले जन्म में गौ-ब्राह्मण की कितनी सेवा की, इसके आधार पर फिर यहाँ वर्ण तय होगा कि किस वर्ण में आपका जन्म होगा। तो ये तो और भी विशाल पदानुक्रम-सोपान हाइरार्की है। तो यहाँ दर्शन के स्तर पर भी आप समतावादी नहीं हैं। और कह यह रहे हैं कि मानव इसलिए श्रेष्ठतर है वनस्पति और पशु जगत से, क्योंकि वहाँ उसके पास चिन्तन की क्षमता है। वह सोच सकता है, चिन्तन कर सकता है। यह तर्क आप दे रहे हैं। और यहाँ कितने आप आत्ममुग्ध हैं! या एथनोसेंट्रिक हैं कि आपको मालूम ही नहीं है कि जगदीश चन्द्र बसु ने कभी का बता दिया था कि वनस्पतियों में संवेदनशीलता होती है। और अभी जो वैज्ञानिक अनुसंधान सामने आए हैं, वे भी इसे सही साबित करते हैं।
एक किताब है मेरे पास ‘द हिडन लाइफ ऑफ ट्रीज : व्हाट दे फील, हाउ दे कम्यूनिकेट’ जो पीटर वोहलबेन की किताब है। अब समझिए इस बात को कि जो इंसान यह घमण्ड कर रहा है कि हम बहुत चिन्तनशील प्राणी हैं, वह निराधार है। एक सिर्फ उदाहरण दूँगा, बाकि तो उदाहरण उस किताब में भरे पड़े हैं। हम जिस वर्ल्ड वाइड बेव (डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू.) और इंटरनेट की बात कर रहे हैं, उसकी शुरुआत 69 से मानी जाती है और 89-90 से हम सब लोग इसका इस्तेमाल करना शुरु कर देते हैं। इस इंटरनेट से केवल हम सूचनाओं का सम्प्रेषण कर पा रहे हैं, बातचीत कर पा रहे हैं या अभी हम एक-दूसरे को देख पा रहे हैं और कम्यूनिकेट कर पा रहे हैं। लेकिन पीटर वोहलबेन की यह किताब वैज्ञानिक अनुसंधान के बल पर बता रही है कि जंगल में पेड़ों की जड़ों के बीच फंगस का केबल बिछा होता है। पूरे जंगल में पेड़ों की जड़ें उस केबल से जुड़ी होती हैं। इसको ‘वुड वाइड बेव’ कहा गया है। डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू. ये भी है लेकिन यह ‘वुड वाइड बेव’ है। और इस ‘वुड वाइड बेव’ से वृक्ष केवल सूचनाएँ नहीं देते हैं बल्कि अगर कोई पेड़ सूख रहा है या उसको न्यूट्रिएंट कम मिल रहा है, तो दूसरे पेड़ उसे पोषक तत्व भी भेजते हैं, भोजन भी भेजते हैं। कीड़े आ रहे हैं, तो उनके बारे में सूचनाएँ भेजते हैं कि वे लाभप्रद हैं या हानिकारक हैं। कोई कीड़ा किसी पेड़ की पत्ती को चट कर रहा है और उस पेड़ को वह पसन्द नहीं है, तो वे उस पत्ती का केमिकल चेंज कर के उसका स्वाद बदल देते हैं। या फिर इस तरह की गंध छोड़ते हैं कि वह भाग जाए। तब भी अगर नहीं छोड़ा तो वह ऐसी रोशनी छोड़ सकते हैं जो उन कीड़ों को आकर्षित कर सकती हैं जो पहले वालों पर आक्रमण कर सकते हों। तो सम्प्रेषण के अनेक तरीके हैं वृक्षों के पास जबकि हम घमण्ड कर रहे हैं कि हम तो इंटरनेट पर बैठ कर पूरी दुनिया को देख रहे हैं। किन्तु आप सिर्फ सूचना सम्प्रेषण कर रहे हैं मानव महोदय, जबकि वे अपने नेट से पोषक तत्व भी भेज रहे हैं। तो आपको जो यह अहंकार है कि सोचने की क्षमता केवल मनुष्यों में है, वह सिर्फ आपका घमण्ड है। इसलिए देखिए कि आदिवासियों का जो दर्शन है, वह मानव को कोई श्रेष्ठतम प्राणी नहीं मानता है। वह वनस्पति जगत और जीव-जगत के अन्य प्राणियों की जैसे ही अपने को इस सृष्टि की एक इकाई भर मानता है। तो दर्शन के स्तर पर भी वहाँ एक समतावादी चिन्तन है। यह बहुत ही महत्वहपूर्ण है। यह दर्शन की पूरी अधिरचना ही बदल दे रहा है। पूरा आधार ही बदल दे रहा है। यह एक बहुत खूबसूरत चीज है जिसकी ओर लोगों का ध्यान ही नहीं गया।
मान लिया गया है कि आदिवासी एक धर्म विहीन, इतिहास विहीन, संस्कृति विहीन समुदाय है जो पिछड़ा है। जो जंगलों में पड़ा हुआ है, अर्ध मानव की स्थिति में है। ये सारी बातें हमारी उस संविधान सभा में बोली गई हैं। हमारे महापुरुष लोग बोल रहे हैं वहाँ। और उसके अनुवाद में कहीं कबाइली शब्द का प्रयोग हो रहा है, कहीं वनवासी शब्द का, कहीं किसी शब्द का प्रयोग हो रहा है। अर्द्ध मानव तक वहाँ बोल दिया गया। अरे यार, आप जिससे परिचित ही नहीं है, जान-बूझ कर परिचित ही नहीं होना चाहते हैं, जिसके इतिहास को आप जान-बूझ कर जानना ही नहीं चाहते, जिसके धर्म को आप जानते ही नहीं, उसे सब ह्यूमन मान कर चल रहे हैं ... तो स्वाभाविक है कि नस्लीय श्रेष्ठता बोध से आप इन्हें ‘अन्य’ मान कर चल रहे हैं। आप ‘वी द पीपुल्स ऑफ इंडिया’ का हिस्सा इन्हें मान कर नहीं चल रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हिन्दुस्तान की सभ्यता-संस्कृति का प्रतिनिधि होने के बावजूद आज भी वह अन्य बना हुआ है। ऐसे में तो आँखों में अंगुली डाल कर ही बताना होगा कि इनका एक इतिहास है। उसी इतिहास के पौधे से निकला एक फूल भी है जिसे हम संस्कृति कहते हैं। इनकी अपनी एक दर्शन प्रणाली है। अपनी भाषा है, अपनी कविता है। यह सब बहुत जरूरी है। केवल साहित्य लिखने से काम नहीं होना है। हमको इन दिशाओं में सोचना पड़ेगा। वैसे ऐसा भी नहीं है कि लोग काम नहीं कर रहे हैं। कई लोगों का ध्यान इधर गया है। हम लोगों ने राँची में जब आदिवासी दर्शन पर बात की, तो मध्य प्रदेश में, छत्तीसगढ़ में और कई जगहों पर आदिवासी दर्शन पर बात शुरु हुई।
दूसरी बात जो कई लोग भी कह रहे हैं, मैंने भी कहने की कोशिश की है कि आदिवासी इतिहास का मतलब अंग्रेजों के आने के बाद केवल विद्रोहों की श्रृंखला नहीं है। आदिवासियों ने लम्बे समय तक इस हिन्दुस्तान के ऐसे दुर्गम भू-भाग में शासन किया है जहाँ लोग जा भी नहीं सकते थे। कई सौ वर्षों तक राजगोंडों ने शासन किया, चेरों लोगों ने शासन किया, अहोम लोगों ने शासन किया। खरवार लोगों ने शासन किया, महाराष्ट्र में वार्ली और कई दूसरे आदिवासियों ने शासन किया। तो इन शासनों के विवरण क्यों नहीं है इतिहास के पन्नों में? जबर्दस्ती आप इन्हें इतिहास विहीन करने में लगे हुए हैं ताकि उन्हें अन्य मानने में या मानवशास्त्र की केस स्टडी करने में असुविधा न हो। अंग्रेज जो प्रारम्भ कर चले गए, वही अब भी चल रहा है। अंग्रेज तो मान कर चल रहे थे कि वे जहाँ शासन कर रहे हैं, वे सब सैवेज, जंगली और असभ्य लोग हैं। वे तो बोल ही रहे थे कि ये व्हाइट मैन वर्डन हैं ... हम यहाँ इनको सभ्य करने आए हैं। तो ये आन्तरिक साम्राज्यवाद है, या उनके जाने के बाद भी उनकी लीगेसी को ढोने का काम चल रहा है या उनकी छाया से नहीं निकल रहे हैं लोग। वे लोग तो पूरे भारत को या ‘सो काल्डस थर्ड वर्ड’ को असभ्य और सैवेज मान रहे थे। आप आदिवासियों को असभ्य कह रहे हैं, उन्हें जबर्दस्ती जंगली मानने में लगे हुए हैं। चूँकि वो लोग नहीं जानते थे हिन्दुस्तान के बारे में, तो आपको वो असभ्य मान कर चलते थे। और आप जब आदिवासियों के बारे में नहीं जानते तो आप भी वही मान कर चल रहे हैं कि ये असभ्य हैं, पिछड़े हैं, अर्द्ध मानव हैं। बोलने में शर्म नहीं आती है। बिना जाने कुछ भी बोल देते हैं।
प्रमोद : अच्छा, आप पहले कविता भी लिखते थे और आजकल आप शायद कविता नहीं लिख रहे हैं, कथा साहित्य पर ज्यादा केन्द्रित हैं। दूसरी ओर आदिवासी समाज से आने वाले अनुज हों, महादेव टोप्पो हों ... ये लोग मूलतः कविता लिख रहे हैं। हालांकि अब महादेव दा का भी उपन्यास आने वाला है। तो ये जो अन्तर दिखाई देता है, वह क्या अनायास है या इसके पीछे कुछ ठोस कारण है। जब विषय एक है तो विधागत अन्तर क्यों है? कथ्य और रूप के रिश्ते यहाँ क्यों बदल जाते हैं? या यह मात्र संयोग है ?
रणेन्द्र जी : प्रमोद जी, आप सही कह रहे हैं और मैंने भी शुरुआत कविताओं से ही की थी। और है क्या कि जब आप संवेदनशील होते हैं, मन की मिट्टी गीली होती है, तो भाव अभिव्यक्ति का माध्यम खोजता है। और स्वाभाविक तौर पर गीत और कविता मानव मन की पहली अभिव्यक्ति रही हैं। मुझे लगता है कि इतिहास में भी हम देखें तो भावनाएँ पहले गीत-कविता का ही रूप लेती हैं। रोता भी है आदमी तो गाता है। और इस ढंग के गीत आपको मिलेंगे जिनमें बेटी की विदाई के समय या मृत्यु के समय विलाप जो है, वह गीत में ढलता है। श्रम करते वक्त श्रम बोझिल न हों, तो श्रम के गीत भी, रोपनी के गीत भी गाए जाते हैं, जात्रा के गीत भी सुनाई देते हैं। तो हमारी संस्कृति में श्रम को भी मनोरंजन में बदलने के लिए उससे जुड़ी भावना को गीत में ढाल दिया गया है। दुःख-विलाप को गीत में ढाल दिया गया है। तो मन की मिट्टी के गीले होने के बाद जो उद्गार होते हैं, वे हमारे सांस्कृतिक इतिहास में गीत और कविता के तौर पर ही वे बाहर आए हैं, सृजित हुए हैं, ढ़ले हैं। फिर जैसे-जैसे आप चीजों को अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में देखना शुरु करते हैं, तो फिर आप उनके इतिहास में जाते हैं, उनके सामाजिक मनोविज्ञान में जाते हैं, उनके दर्शन और अन्य रूपों में जाते हैं। आज की आर्थिकी जो है, उसके प्रभाव को वहाँ देखने लगते हैं। वैसे अनुज लुगुन की कविताओं में भी आता है कि कैसे शहर के रास्ते में ट्रकों पर लद कर जंगल जा रहे हैं, नदियाँ जा रही हैं, पहाड़ जा रहे। ...ये चीजें और बहुत खूबसूरत ढंग से आती हैं। और बहुत मन को छूती हैं। लेकिन फिर एक समय आने पर लगता है कि हम इस आर्थिकी को, इस इतिहास को, समाजशास्त्र को कविता के फॉर्मेट में लाने में सक्षम नहीं हो रहे हैं ...तो फिर आप अपनी विधा बदलते हैं। यह विधा कथा साहित्य हो सकती है या कथेतर साहित्य भी हो सकती है। किन्तु अपनी भावनाओं, अपनी संवेदनाओं के सम्प्रेषण का पहला आवेग कविता और गीत ही होती है। और फिर आप गद्य की ओर जाते हैं। महादेव दा का भी अब उपन्यास आ ही रहा है। किन्तु एक बार आप जब कविता में, कविता की भाषा में रच-बस जाते हैं, उसे सीख जाते हैं, कविता लेखन के क्रम में भाषा को बरतना आप सीख लेते हैं, तो फिर कथा साहित्य में भी उसकी खूबसूरती आ जाती है। कविता में जो लय होती है, भले ही वह अतुकांत हो किन्तु जो लय का सौन्दर्य होता है, उसे अगर आपने बरत लिया, तो फिर आप गद्य में भी जाएँगे तो वहाँ लय का सौन्दर्य होगा। फिर आप एक अच्छे उपन्यासकार के तौर पर, अच्छे कथाकार के तौर पर उभरेंगे। हमारे कई रचनाकारों में आप देखेंगे कि वे कवि भी हैं और कथाकार भी, जैसे रेणु। राज कुमार चौधरी से ले कर आपको कई और भी मिल जाएँगे। मुक्तिबोध ने कहानियाँ लिखीं, उपन्यास लिखा, इतिहास लिखा और कविताएँ भी लिखीं। बात यही है कि मन के भावों का उद्गार किस विधा में प्रकट होगा - उसकी सघनता कितनी गढ़ी जाएगी, वह कौन-सा आकार ग्रहण करेगी, विधा इसी से तय होती है। किन्तु महत्वपूर्ण है कि मन की मिट्टी गीली रहे, संवेदनाएँ वहाँ जगी रहे। और दूसरों की पीड़ा हम महसूस कर सकें। ‘मैं’ नहीं हो ‘हम’ होना सीखें, यही आदिवासी संस्कृति का मूल उत्स भी है। इस ‘हम’ का अहसास जगा रहना चाहिए। ‘हम’ के साथ जो कुछ हो, हमारे समाज में कहीं भी कोई चोट लगे, तो हृदय में उसका आघात महसूस होना चाहिए। हमारी आँखों से भी आँसू टपकने चाहिए। टपकने के बाद वे आँसू कौन-सा रूप लेंगे, इसे जाने दिया जाए। विधागत भिन्नता से कोई ज्यादा लेना-देना नहीं होना चाहिए। महत्वपूर्ण है इस पीड़ा को, विलाप को, आघात को समझने का प्रयास हो। इसे रूपों में ढालना, विभिन्न रूप देना वह स्वयं तय कर लेगा।
प्रमोद : एक चीज और मैं देख रहा हूँ कि इस समय एक ओर दलित साहित्य है और दूसरी ओर आदिवासी साहित्य है। और ये दोनों ही हिन्दी साहित्य के केन्द्र में धीरे-धीरे आते जा रहे हैं। यद्यपि दलित साहित्य विमर्श के रूप में पहले आता है, किन्तु अब आदिवासी विमर्श भी उसी तरह चर्चा में आ चुका है। किन्तु जब इन दोनों पर एक साथ बात की जाती है, तो बार-बार कहा जाता है कि दलित साहित्य के पास अम्बेडकर हैं जबकि आदिवासी साहित्य के पास उस तरह का पथ प्रदर्शक नहीं है। दलित साहित्य के बारे में एक मुक्कमल सोच होने की बात कही जाती है। लेकिन जब हम भूमण्डलीकरण के सन्दर्भ में दोनों की तुलना करते हैं तो वहाँ पर एक अलग ही स्थिति नजर आती है। दलित साहित्य उस तरह से भूमण्डलीकरण के साथ संवाद नहीं कर पाता या उस तरह पूँजीवादी व्यवस्था की आलोचना नहीं कर पाता जिस तरह से आदिवासी साहित्य वहाँ पर व्यवस्थित ढंग से, एक विकल्प पेश करता नजर आता है। आदिवासियों के पास चाहे अम्बेडकर न हों, लेकिन वे एक विकल्प पेश करते नजर आते हैं। दूसरी ओर वर्तमान व्यवस्था में दलित साहित्य में वैसी साफ समझ निकल कर नहीं आ पा रही है। एक ठहराव सा भी वहाँ महसूस किया जा रहा है। तुलसी राम जी की आत्मकथा के बाद वैसी महत्वपूर्ण रचना भी नहीं आ पाई है। तो भूमण्डलीकरण के सन्दर्भ में आप इन दोनों को कैसे देखते हैं ?
रणेन्द्र जी : प्रमोद जी, आपकी बात से मैं सहमत हूँ। बड़ी रचना बड़े आन्दोलन से जन्म लेती है। जो कॉरपोरेट है, उसका जो विस्तार है, उसका प्रतिरोध जिस ढंग से झारखण्ड में, उड़ीसा आदि में हुआ है, वह अद्भुत है। नियमगिरी के आदिवासियों ने बॉक्साइट खनन के विरोध में एक सफल लड़ाई लड़ी है। हमारे यहाँ भी लड़ाइयाँ लड़ी गईं। हमारे यहाँ सफलताओं की कहानियाँ भी थोड़ी ज्यादा हैं। हमने जो लड़ाइयाँ लड़ी, उनमें सफलताएँ ज्यादा मिलीं। चाहे स्वर्णरेखा परियोजना हो, नेतरहाट फायरिंग रेंज वाला आन्दोलन हो या दयामनी बारला के नेतृत्व में मित्तल के खिलाफ हुआ संघर्ष हो जिसमें उनको खूँटी से गुमला और फिर झारखण्ड से ही बाहर जाना पड़ा हो। तो लड़ाइयाँ यहाँ लड़ी गई हैं और सफलताएँ भी उनमें यहाँ हासिल की गई हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है।
दूसरी बात यह है कि समय बदल रहा है। अम्बेडकर को भी महत्ता बाद में ही मिलनी शुरु हुई। पिछले दो-तीन दशकों से ही अम्बेडकर विमर्शों के केन्द्र में आए हैं। अम्बेडकर और भी चिन्तन-लेखन के केन्द्र में आएँगे। हमारे यहाँ आदिवासी समाज में चिन्तक तो कई हैं, जैसे राम दयाल सिंह मुंडा हैं, मरंङ गोमके जय पाल सिंह से ले कर कार्तिक उरांव तक कोई छोटी संख्या नहीं है यहाँ भी। लेकिन यहाँ ‘मैं’ वाली बात तो है नहीं। यहाँ जब लड़ाई लड़ते हैं तो समुदाय लड़ता है, बातचीत भी करते हैं तो समुदाय करता है। यहाँ चिन्तन-दर्शन-कहन सब मूलतः वाचिक परम्परा में रहे हैं यहाँ। आदिवासी समुदाय के सन्दर्भ में एक सामूहिक स्मृति की बात होती है। यहाँ सामूहिक स्मृति है, वाचिक परम्परा में ही सारी चीजें हैं किन्तु वो अभी लेखन में नहीं आ सकी हैं। अभी कविताएँ आ रही हैं, कहानियाँ आ रही हैं, उपन्यास आ रहे हैं। लेकिन जैसा मैंने कहा कि अभी आदिवासी इतिहास आएगा, आदिवासी राजवंशों की भी कहानियाँ आएँगी। नीचे से ऊपर की ओर यहाँ राज्य-निर्माण की प्रक्रिया चली वह भी आयेगा। आदिवासी-राजवंशों के क्षत्रीयकरण-राजपूतीकरण की प्रक्रिया की भी चर्चा होगी। आप सोचिए कि संथाल लोगों के जो गोत्र हैं, उन गोत्रों का बजाप्ता क्या उनके पूर्वजों को राज्य संचालन में जिम्मेदारियाँ दी गई थी, उससे सम्बन्ध है। किस्कू या रवाज जो टाइटल है, वो शासक वर्ग का टाइटल है। मुर्मू जो है, वो यहाँ पूजा कराने वालों का गोत्र है। हमारे माननीय मुख्यमन्त्री या हमारे दिशोम गुरु शिबू सोरेन का टाइटल सैनिकों का टाइटल हुआ करता था। मरांडी साहब का टाइटल वास्तव में जो सम्पन्न-संभ्रान्त व्यक्ति होते थे, काफी समृद्ध लोग होते थे, उनका गोत्र है। तो ये गोत्र कार्य विभाजन दिखाते हैं। यह कार्य विभाजन कब हुआ होगा? जब कोई स्टेट बना होगा, तभी तो कार्य विभाजन हुआ होगा। शाहाबाद का गजेटियर कहता है कि पाल वंश के अन्ति म शासक को, कुतुबुद्दीन ऐबक का जो सेनापति है, अबु बकर कुछ नाम है उसका, वह हराता है उदंतपुरी में। यह जब आगे बढ़ता है तो हजारी बाग में जो रोकते हैं उसको, वे संथाल शासक हैं। वे कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनापति को रोकते हैं। तो चीजें छिपी हुई हैं या मुख्य धारा को इनमें रुचि नहीं है। यह आत्मुग्धता या एथनोसेंट्रिक वाली चीज है। पटना, इलाहाबाद, दिल्ली और बनारस अपनी ही बात कहने में मगन हैं। इनकी अपनी कहानी ही खत्म नहीं हो रही। ये लोग जब मैं-मैं कर रहे हैं। ये लोग तो अभी अपनी ही बात पूरी तरह से कह नहीं पाए हैं। वे जान ही नहीं रहे हैं हमारे इतिहास, दर्शन और हमारी चीजों को। चीजें अभी आनी हैं। ये अभी वाचिक में हैं, स्मृति में ही हैं। ये अभी लिखी जानी हैं, और लिखी जाएँगी भी। इस कारण से अब इस आत्मुग्धता को टूटना होगा। यह वर्ण व्यवस्था के पदानुक्रम की हिंसा के शिकार लोगों की कहानी नहीं है। यह ऐसे लोगों की कहानी है जो एक स्वतन्त्र, स्वायत्त संस्कृति वाले हैं। यह अपने आप में एक मुक्कमल संस्कृति है जिसका एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। इन्होंने एक बड़े इलाके में लम्बे समय तक शासन किया है। इनकी अपनी एक दार्शनिक दृष्टि है। जिसका समतामूलक स्वरूप है।
इनके देवी-देवताओं से मुख्य धारा के लोग बहुत प्रभावित रहे हैं। इनके प्रभामण्डल के कारण आप वहाँ से उन्हें उठा-उठा कर लाते रहे हैं अपने यहाँ। उन पर पुराण लिख कर, उन्हें अवतार की कहानियों में शामिल कर के उनका ब्राह्मणीकरण करते रहे हैं। चाहे महादेव-शंकर हों, गणेश हों, कार्तिकेय हों, हनुमान हों, या फिर वो कामाख्या देवी का मन्दिर हो, या फिर वो पुरी के शबर लोगों के देवता जगन्नाथ जी हों, या तिरुपति में वहाँ के आदिवासियों के देवता हों। और हमारे समय में डॉ. रामदयाल मुण्डा बाबा के गाँव की जो देवड़ी माँ हैं, उनका दुर्गाकरण करने में लगे हुए हैं लोग। मतलब कि हमारे देवी-देवताओं का प्रभामण्डल, उनकी लोकप्रियता आपको आकर्षित करती है लेकिन आपके वर्णवादी समाज को हमारे समतावादी समाज की जो खूबसूरती है, वह आकर्षित नहीं करती है। अपने यहाँ के पदानुक्रम को छोड़ने को आप तैयार नहीं होते। वर्चस्व की जो ललक है, उसे छोड़ने को आप तैयार नहीं हैं। अपने उन विषमतामूलक संस्कारों को छोड़ने को आप तैयार नहीं हैं, लेकिन हमारे देवी-देवताओं का ब्राह्मणीकरण हजारों सालों से आप करते आ रहे हैं।
प्रमोद : जी, राम शरण जोशी ने भी अपनी पुस्तक ‘यादों का लाल गलियारा’ में इन चीजों का जिक्र किया है। महाराणा प्रताप का जिक्र किया है कि किस तरह से महाराणा प्रताप को राजस्थान से उठा कर वहाँ आदिवासियों के बीच में ले आया जाता है।
रणेन्द्र जी : हाँ, उसमें उन्होंने कई चीजें स्पष्ट करने की कोशिश की हैं। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने लोकायत में कई चीजों को स्पष्ट करने की कोशिश की है। गण और गणपति को ले कर चीजें स्पष्ट करनी चाही हैं। कौसाम्बी ने अपनी पुस्तक ‘मिथक और यथार्थ’ में इस बारे में लिखा है। सुवीरा जायसवाल ने इस पर काम किया है। तद्भव में कार्तिकेय वगैरह को ले कर उनका एक लेख आया था। कुमार सुरेश सिंह का भी इस पर एक लेख है। किन्तु इस पर काम करने की जरूरत है कि कैसे आदिवासी देवी-देवताओं का हिन्दूकरण या ब्राह्मणीकरण किया गया है। लेकिन मुक्कमल काम होना चाहिए।
राम शरण शर्मा जिस वैदिक काल की बात कर रहे हैं, उसमें वे इस बात को कहते हैं कि ऋग्वेद में भी उन परिषदों का जिक्र है, जो असुर परिषद हैं, जो आर्येतर हैं। एक और किताब है बंगाल की एक महिला दार्शनिक सुकुमारी भट्टाचार्जी की। किताब है- ‘द इंडियन थियोगॅनि’। इसमें वे कहती हैं कि वैदिक काल में पुरुष देवताओं की ही प्रधानता है। प्रकृति का जो दैवीकरण किया गया है, उसमें पुरुष देवता हैं - इन्द्र, वरुण, अग्नि हैं ....तो पुरुष देवता ही वहाँ ज्यादा हैं। ठीक है कि उषा भी आती हैं, अदिति भी आती हैं, किन्तु वैदिक कालीन देवियाँ गौण रूप में ही आती हैं। प्रधानता वहाँ इन्द्र की ही है। सबसे ज्या दा ऋचाएँ वहाँ इन्द्र की ही गढ़ी गई हैं। लेकिन जैसे ही यज्ञ पर आधारित वैदिक पूजा परम्परा का थोड़ा सा पतन होता है, तो फिर वैदिक पूर्व की जो देवियाँ हैं, जो लोक देवियाँ हैं, वे उभर कर सामने आती हैं। चाहे वो पार्वती हों, चाहे वो काली हों। यह ठीक है कि उनमें से कई को आप अपने यहाँ पुरुष देवताओं की पत्नी के रूप में देव लोक में शामिल कर दे रहे हैं। लेकिन यह विजय है उन लोक देवियों की या आदिवासी देवियों की कि आप उन्हें स्वीकार कर रहे हैं अपने यहाँ। तो एक दीर्घ काल में चीजें बदलती हैं, पूरी पूजा पद्धति ही इन लोगों की बदल जाती है। यज्ञ करना, हवन करना और पशु बलि देना, ये सब धीरे-धीरे खत्म हो कर आप प्रतीकों पर आ जाते हैं, जैसा आदिवासी करते रहे हैं। पत्र-पुष्प से अपनी श्रद्धा व्यक्त करना .... वही अक्षत, वही दूब, वही आम का पत्ता। तो पहले आप यज्ञ कर रहे थे, पशु बलि कर रहे थे, अश्वमेध और क्या-क्या मेध कर रहे थे। किन्तु अब दूध, अक्षत और आम का पत्ता वाली आदिवासी पूजा-पद्धति आपके यहाँ कैसे शामिल हो गई? तो इस प्रकार हमारे यहाँ की जो आदिवासी संस्कृति है, उसको वर्चस्वशाली समाज भी ग्रहण कर रहा है। यह बात और है कि इसे वह स्वीकार नहीं करता, इस पर बात नहीं करता कि हम इसको वहाँ से ले कर आए हैं। ये बातें सामने आनी हैं। अभी बहुत कुछ लिखने-पढ़ने का क्षेत्र बाकी है।
प्रमोद : जी, कल्याण राव जो तेलगु साहित्यकार हैं, उन्होंने भी ‘अन्तरानि वसंतम्’ उपन्यास में चर्चा की थी कि कैसे पार्वती मूलतः एक अछूत देवी थी। पर्वतम्मा उनका नाम है वहाँ। तो जो आप कह रहे हैं, वही चीज वहाँ भी हैं।
ये जो कोरोना महामारी चल रही है, उसके सन्दर्भ में इस तरह की बातें भी हुई हैं कि ये चीनी लोग, ये पूर्वोत्तर के आदिवासी लोग पता नहीं, क्या-क्या खा लेते हैं जिससे इस तरह की बीमारी फैलती है। पूर्वोत्तर के आदिवासियों के साथ बदतमीजी की भी खबरें मीडिया में आई थीं कि इन्हीं लोगों के कारण इस तरह की महामारी फैली है। कहा गया कि ये उस तरह की सामिष चीजें खाते हैं जो नहीं खानी चाहिए। किन्तु इसके दूसरे पहलू पर बात नहीं होती कि आप आदिवासी समाज पर आरोप लगा रहे हैं किन्तु ये नहीं देख रहे कि जल-जंगल-जमीन के साथ हस्तक्षेप तो मुख्यधारा के समाज ने ही किया है। अतः कोरोना जैसी महामारी की जबावदेही अगर किसी पर बनती है, तो वह मुख्यधारा का ही समाज है। वैसे तो अभी इस पर शोध होना है कि कहाँ से इसका उत्स है। किन्तु गैर आदिवासी मुख्यधारा के समाज को अपने गिरेबान में तो झाँकना ही चाहिए कि कहीं न कहीं उन्हीं की नीतियाँ इस तरह की संक्रामक महामारियों के लिए ज्यादा जबावदेह हैं। अगर आप आदिवासी समाज और उनकी पारिस्थितिकी में हस्तक्षेप न करे, तो संभव है कि इस तरह की महामारियाँ ही न फैलें। इस पर कुछ लेखादि आए भी हैं।
रणेन्द्र जी : हाँ, आप ठीक कह रहे हैं प्रमोद जी। मैंने अभी आदिवासी दर्शन के सन्दर्भ बात कही थी कि आदिवासी का दर्शन भी समतामूलक है। और वह वनस्पति जगत और जीव जगत के साथ एक आत्मीयता महसूस करता है। वह उनकी एक इकाई के तौर पर अपने को महसूस करता है। अपने को कोई श्रेष्ठतम प्राणी या वर्चस्वशील प्राणी के रूप में नहीं देखता। ठीक यही बात विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू. एच. ओ.) की चीफ साइंटिस्ट और डिप्टी डायरेक्टर जनरल सौम्या स्वामीनाथन बोलती हैं। वे कहती हैं कि जब तक आप वनस्पति जगत और पशु जगत के साथ एकात्मकता में नहीं जिएंगे तब तक इस वैश्विक महामारी जैसी चीजें आती रहेंगी। यह पशु-पक्षियों से मानव में स्थान्तरित होने वाली ‘जूनोटिक’ महामारियाँ कई दशक पूर्व से हो रही हैं। कयासनूर फोरेस्ट डिज़ीज़ (के. एफ. डी.) जिसे मंकी फीवर भी कहा जाता है, उसका सीधा सम्बन्ध प्राकृतिक वनों के विनाश की प्रक्रिया से रहा है और यह कोरोना से कहीं ज्यादा घातक साबित हुआ है। पचास के दशक के उत्तरार्द्ध में पहली बार कर्नाटक राज्य के सिमोगा जिले में इसका पता चला और यह अब केरल, महाराष्ट्र और गोवा राज्यों तक में फैल चुका है। अफ्रीका का इबोला इसी के तुल्य है जिसका भी कारण है प्राकृतिक जंगल से जुड़ी छोटे स्तर की कृषि वानिकी की जगह व्यापक स्तर की औद्योगिक वानिकी का लगाया जाना। इस प्रकार वनों के प्रारूप में किए जाने वाले बदलाव और बाज़ारोन्मुख वनोन्मूलन ने इन ज़ूनोसिस बीमारियों के सम्पर्क में मनुष्य को लाने में महत्ती भूमिका निभाई है। तो आप जैसे-जैसे जंगल काटेंगे या जंगलों को काट कर उनका व्यावसायिक इस्तेमाल शुरु करेंगे - पॉम ऑयल के पेड़ लगा कर, व्यावसायिक उपयोग के फलाना-ढिकाना के पेड़ लगा कर ... और जैसे ही चमगादड़ आदि जंगल के जीव आपके सम्पर्क में आएँगे, तो फिर इस तरह की चीजें आएंगी। कई तरह के वायरस इस ढंग से वर्षों से आ रहे हैं, लेकिन हम समझने को तैयार नहीं हैं। वर्चस्व और पूँजी की चाह में आपको लग रहा है कि हम पूरी पृथ्वी का लैंडस्केप बदल देंगे। पहाड़ यहाँ से वहाँ हटा देंगे, नदी का रास्ता बदल देंगे, जंगल यहाँ से हटा कर वहाँ लगा देंगे। यह जो अहंकार है आपका, यह अहंकार कल के दिन पूरी मानव जाति के विनाश का कारण बनने वाला है। एच. आई. वी., एस. आई. आर. एस., जीका, निपाह, इबोला - ये सारे रोग जंगलों के पशुओं से ही मानव में आए हैं। और कारण यही है कि आप बड़े पैमाने पर खनिजों के लिए, बाँधों के लिए जंगल काट रहे हैं या फिर आप इनका कॉमर्सियल प्लांटेशन कर रहे हैं। अगर इसको नहीं समझेंगे, तो जो आरोप लगाना है, लगाते रहिए। झूठी-सच्चीं बातें करते रहिए। लेकिन सच्चाई यही है कि ज़ूनोसिस डिज़िजेज जो हैं, जो वायरस वगैरह चमगादड़ों, बन्दरों आदि से आ रहे हैं, उनका एक बड़ा कारण है कि आप उनके क्षेत्र में घुस रहे हैं। जहाँ उनको रहना चाहिए, वहाँ आप जाने की कोशिश कर रहे हैं। कारण सिर्फ लालच है और कुछ भी नहीं। लालच किस चीज की? ज्यादा से ज्यादा मुनाफा और वर्चस्व की लालच।
प्रमोद : जिस तरह कोरोना बीमारी आज की कटु सच्चाई है और घर-घर में उसकी चर्चा हो रही है, वैसे ही झारखण्ड के सन्दर्भ में बात करें तो वहाँ सरना धर्म कोड के मुद्दे की काफी चर्चा है, यह मसला गर्माया हुआ है। निश्चित रूप से यह मसला आदिवासियों की पहचान, उनकी धार्मिक पहचान से जुड़ा हुआ है। लेकिन इसके दो खतरे भी मुझे नजर आते हैं। इसके कारण एक खाई कहीं न कहीं आदिवासी समाज में वहाँ पर पैदा हो सकती है - ईसाई आदिवासी और सरना धर्म वाले आदिवासियों के बीच में। दूसरी ओर यह आशंका भी जाहिर की जा रही है कि विस्थापन, शोषण जैसे बुनियादी सवाल कहीं गौण न होने लगें, कमजोर न पड़ने लगें। धर्म की अंधी सुरंग जो होती है, उसमें कहीं ये सारा मामला न चला जाए क्योंकि साम्प्रदायिक ताकतें जो हैं, वे राजनीतिक स्वार्थों के लिए अपने ढंग से इसका गलत इस्तेमाल कर सकती हैं। ये सिर्फ मेरी आशंकाएँ नहीं हैं, और लोगों ने भी इनकी तरफ इशारा किया है। चूँकि यह बहुत ही जटिल मुद्दा है और किसी प्रकार का सरलीकरण इस सन्दर्भ में नहीं किया जा सकता, तो इसको हमें किस तरह से देखना चाहिए ?
रणेन्द्र जी : इस सन्दर्भ में देखिए कि फरवरी, 2020 में हमने आदिवासी दर्शन पर एक जो कार्यक्रम करवाया था, वह सिर्फ एकेडमिक कार्यक्रम नहीं था। उसकी तैयारी के क्रम में भी हमने एक बात कही थी कि इसका निहितार्थ राजनीतिक भी है। जनगणना में जो कॉलम-52 तक आदिवासियों के लिए आ रहा था, उस कॉलम को हटाया जाना अपने आप में दुर्भाग्यपूर्ण था। अगर हम भारत के लोग हैं, तो एक कॉलम हमारा उसमें होना चाहिए। चूँकि अगर आप हमें धर्म विहीन मान कर चलते हैं, तो यह आपकी मूढ़ता है। हमारा धर्म है, हमारा दर्शन है। हम हैं तो हमें जगह भी चाहिए वहाँ पर। लोकतन्त्र तो यही है और उसी को सैद्धान्तिक रूप देने के लिए, आधार देने के लिए, एक दार्शनिक अधिरचना खड़ी करने के लिए वह आयोजन हमने किया था। यह हमने पहले से तय किया हुआ था। लेकिन उसमें भी दर्शनशास्त्र के एक ऐसे विद्वान थे, जिन्होंने मंच से ही घोषणा कर दी कि अगर आप आदिवासी हैं तो आपका दर्शन नहीं हो सकता है, अगर आपका दर्शन है तो आप आदिवासी नहीं हैं। कई तरह की धमकियाँ भी आई थीं। हम भारतीय हैं, और जनगणना में हमारे धर्म के लिए एक कॉलम चाहिए ही चाहिए। लोकतन्त्र तो यही है। अब आन्दोलनों में अन्दरुनी राजनीति चलती रहती है। वह तो कांग्रेस के अन्दर भी रहती थी, गांधी जी के अन्दर भी थी कि किसको आगे बढ़ाना है, किसको गिराना है। हर आन्दोलन की ये आन्तरिक समस्याएँ रहती हैं। किन्तु आन्दोलन इनसे उबर भी जाता है। उसके अन्दर भी प्रक्रिया चलती रहती है कि वह इनसे उबर आए। उद्देश्य सिर्फ यही है कि 2021 की जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासियों के लिए अपना एक कॉलम हो, जहाँ वे कह सके कि हाँ, ये हमारा अपना कॉलम है। लेकिन नाम क्या होगा, सरना होगा या कुछ और होगा, इस पर हम एकेडमिक जगत के लोगों को टिप्पणी नहीं करनी चाहिए। पूरे हिन्दुस्तान के आदिवासी समाज को जो स्वीकार्य हो, वह हो जाए। अथवा-अथवा करके भी हो सकता है -सरना धर्म/गोंडी धर्म ...जो मन हो रख लें किन्तु आप एक कॉलम तो दें। उद्देश्य सिर्फ यही है। और यह महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि जनगणना में हम नहीं हैं, हमें मजबूरी में कहीं और टिक लगाना पड़ रहा है। यह अच्छी बात नहीं है। आप हमारी नागरिकता पर ही प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं। हमारे होने पर ही आप सवाल उठा रहे हैं। यह एक भावनात्मक मुद्दा तो है ही किन्तु यह बहुत ही सही आन्दोलन भी है। उस आन्दोलन की जो सैद्धान्तिकी है, उसे गढ़ने में हमारे उस अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार ने भूमिका निभाई। बाकी जो चीजें हैं, जो लड़ाइयाँ हैं, वे तो चलती ही रहेंगी।
फिर जो दूसरी मूल समस्याएँ हैं, उन पर भी बात करेंगे हम लोग। वंचना में तो आदिवासी हैं ही। विकास की जो पूँजीवादी परिभाषा है, उसमें इन्हें इनके भौतिक संसाधनों से वंचित करके ही विकास किया जा रहा है। तो लड़ाई बन्द होनी ही नहीं है। आप हमें वंचित कहें और वंचित करने में भूमिका भी निभाए, तो यह तो नहीं चलेगा।
प्रमोद : एक सवाल मैं कलाओं के सन्दर्भ में पूछना चाहूँगा। एक-दो सवाल और ...दूसरी कलाओं की जैसे ही आदिवासी कलाओं का अपना एक इतिहास रहा है। अपने परिवेश के साथ इनका निकटता से जुड़ाव रहा है। रहन-सहन, खान-पान, आजीविका - इन सबके साथ इनका सम्बन्ध रहा है। अब धीरे-धीरे न चाहते हुए भी समय के दबाव के साथ बदलाव आदिवासी समाज में भी आ रहे हैं, जैसे कुछ आदिवासी पक्के मकान बना कर रहने लगे हैं, कुछ पढ़-लिख भी गए हैं, सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में भी काम करने लगे हैं, भाषा के स्तर पर भी हिन्दी, अंग्रेजी या क्षेत्रीय भाषाएँ जो हैं, उनका प्रभाव पड़ा है। तो अपने परिवेश के साथ आदिवासी कलाओं का जो सम्बन्ध रहा है, वह कहीं न कहीं कमजोर हुआ है। इस बदलते समय में हम आदिवासी कलाओं को किस प्रकार से बचा सकते हैं ? इनका संरक्षण हम किस तरह से करें ? एक तरीका तो वही है, सरकारी प्रयासों वाला। किन्तु मुझे लगता है कि यह ज्यादा सफल नहीं हो सकता। इनमें कहीं न कहीं एक कृत्रिमता, ऊपर से थोपने वाली बात आ जाती है। अतः अपनी ही परिस्थितियों के सन्दर्भ में किस तरह के प्रयास हो सकते हैं कि आदिवासी कलाओं को हम आगे बढ़ा सकें, उन्हें जीवित रख सकें ?
रणेन्द्र जी : देखिए, वार्ली चित्रकला पर हमको दो किताबें मेघनाथ जी और बिज्जू टोप्पो ने दी जो खुद कलाकार-फिल्मकार हैं - ‘विज़्डम फ्रॉम द विल्डर्नेस’ और ‘द मिस्टिक वर्ल्ड ऑफ वार्लीज’। वार्ली चित्रकला हमें बड़ा सरल दिखती है, कुछ ज्यामितीय आकारों वाली। विज्ञापन जगत ने भी इसकी सरलता का लाभ उठाया है। कहीं भी इसका इस्तेमाल वे लोग कर लेते हैं। लेकिन जब मैं पढ़ रहा था, तो मुझे मालूम हुआ कि ये इतनी सरल चीजें नहीं हैं, बल्कि कई सैद्धान्तिकी उन चित्रकथाओं की पृष्ठभूमि में है। और उन सिद्धान्तों और परम्पराओं के आधार पर ही ये चित्र बनते हैं। वार्ली चित्रों में एक कहनकार होता है जो कहानी कहता है और दूसरा एक अहनकार होता है जो कहानी सुनता है। और जो कहानियाँ इन चित्रों के माध्यम से कही जाती हैं, वे पाँच-छह तरीके की ही होती हैं। एक तो वैवाहिक अनुष्ठानों की कथा होती है। यहाँ कोई पुजारिन या उसकी सहायिका जो धावलेरिन या सुवासिन कहलाती है, वह वैवाहिक अनुष्ठान की कहानी सुनाती है। तो एक चित्र तो इस ढंग से बनता है। दूसरे ‘दाक्या’ होते हैं जो वहाँ भगत होते हैं, जो वार्ली के धार्मिक चित्रकार होते हैं। ये मृत्यु के अनुष्ठान और पितरों तथा गृह देवताओं के स्थान, इंसानों का उन पितरों के साथ जो सम्बन्ध है, उसकी चित्र कथा कहते हैं। ‘थालवला’ भी वहाँ होता है, जो समुदाय का मौखिक इतिहासकार होता है, जैसे गोंडों में परधान लोग होते हैं। गोंड चित्रकार जनगढ़ सिंह श्याम परधान समुदाय के थे। मैं इन पर बाद में आऊँगा। अगर थालवला के माध्यम से चित्र बनेंगे, तो पूरा वार्ली समुदाय का इतिहास वहाँ आएगा। वार्ली समुदाय के इतिहास पर हार्डिमैन ने बताया है कि एक ही समय में वे ‘नोमेडिक ट्राइब’ हैं मतलब शिफ्ट कल्टिवेशन कर रहे हैं, समुदाय का दूसरा हिस्सा स्थायी खेती कर रहा है और महाराष्ट्र के पश्चिमी हिस्से में वार्ली समुदाय का एक हिस्सा शासन भी कर रहे हैं। तो एक ही समुदाय के कई स्तर हो सकते हैं। एक हिस्सा शासक हो सकता है, एक हिस्सा अस्थाई कृषक हो सकता है जो पहाड़ों में रहते हुए शिफ्टिंग कल्टिवेशन भी कर सकता है। यह अलग है कि एंथ्रोपोलोजिस्ट की रुचि शिफ्ट कल्टिवेशन वाले के साथ ही रहेगी। वह उसी को प्रतिनिधि के तौर पर लेगा। तो थालवला जो हैं, वो इतिहास सुनाते हैं। और थोंड जो हैं, वे ओरल नैरेटिव - नाना-नानी की कहानियाँ, दादा-दादी की कहानियाँ जो होती हैं, उनको चित्रों के माध्यम से सुनाते हैं। कुछ कहानियाँ चित्रों के माध्यम से डू और डू नॉट के तौर पर अर्थात समुदाय के लोगों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इसे बताती हैं। इन कहानियों के माध्यम से दिशा-निर्देश देने की कोशिश की जाती है। और कुछ तो ऐसी भी कहानियाँ वार्ली पेंटिग में चित्रों के माध्यम से आती हैं जो पितृसत्ता के खिलाफ महिलाओं द्वारा किए गए प्रतिकार की स्मृति के रूप में होती हैं।
किन्तु हमें तो बड़ी सरल दिखती है वार्ली चित्रकला क्योंकि हम अज्ञानी हैं, हम तो उनके भीतर की चीजों को जानते नहीं हैं, हमें लगता है कि ऐसे ही कुछ आयताकार ज्यामितीय रेखांकनों को सजाया जा रहा है जबकि बजाप्ता उसकी एक सैद्धान्तिकी है। इसके आधार पर क्या कहानियाँ कहनी है, कौन क्या कहेगा, यह सब निर्धारित है वहाँ पर। और वो चीजें आ रही हैं। जिस नई पीढ़ी की बात आपने की, उस पीढ़ी के बच्चे अब पढ़ कर शहरों में बस रहे हैं किन्तु इससे उनकी संस्कृति, उनकी आदिवासियत तो नहीं गुम हो जाएगी? अगर वो अपनी परम्परा में रहेंगे, अपनी भाषा से जुड़े रहेंगे, अपनी कहानियों से, अपनी पेंटिग्स से जुड़े रहेंगे तो वह आदिवासीयत भी बची रहेगी। आप सोचिए कि गोंड पेंटिग्स की तो धूम है, जनगढ़ सिंह श्याम ने जिसे एक अलग व्याकरण ही दे दिया है। वे जिस समुदाय से थे, वह गोंड समाज का परधान समुदाय था। गुप्त काल से ले कर ब्रिटिश पीरियड तक राजगोंडो का शासन हुआ करता था, चार राजवंश जिसमें हुए, महाराष्ट्र और आंध्र तक जिनका शासन व्याप्त था। छत्तीसगढ़ जैसे जो गढ़ थे, वे राज्य को प्रशासनिक दृष्टि से बाँटी गई इकाइयाँ थीं। 86 गढ़, 82 गढ़, 36 गढ़ जैसे गढ़ों में राज्य की प्रशासनिक इकाइयाँ गढ़ी जाती थी। वहाँ अपने सगे-संबंधियों को ही प्रशासक के तौर पर शासन करने के लिए भेजा जाता था। ठीक है कि बाद में सबने अपना क्षत्रियकरण कर लिया, कोई नागवंश से जुड़ गया, कोई सूर्यवंश से जुड़ गया। सब क्षत्रिय हो गए। लेकिन ये परधान जो थे, वे उन दरबारों में जाते थे और वहाँ उनके इतिहास को गा कर सुनाते थे। जब सारे राज-रजवाड़े खत्म हो गए, तो परधानों के पास तो कोई काम ही नहीं बचा रह गया। तो उनमें से ही कुछ जनगढ़ सिंह जैसे लोग थे, जो दीवारों पर कुछ-कुछ चित्रांकित करने लगे। और भोपाल, भारत भवन से जुड़े हुए जे. स्वामीनाथन जैसे चित्रकार ने अपने शिष्यों को भेजा कि जा कर देखो कि यहाँ मध्य प्रदेश की लोक चित्रकला में क्या-क्या है। तो फिर जनगढ़ सिंह आए भारत भवन में। और उनके पुरखे पूरे इतिहास को जो गा-गा कर सुनाया करते थे, जो ओरल हिस्ट्री थी, उसे कैनवास पर उतारना शुरु किया। इससे एक अलग तरह की परिघटना घटी, एक चमत्कार सा हो गया। हिन्दुस्तानी चित्रकला की दुनिया में जनगढ़ सिंह श्याम का आना और उनके द्वारा अपनी परम्परा, अपनी ट्रेडिशन, अपनी ओरल हिस्ट्री को कैनवास पर उतारना हिन्दुस्तानी चित्रकला की दुनिया में एक बड़ी परिघटना थी। एक आदिवासी चित्रकार इस परिघटना को जन्म दे रहा था। ये हमारा दुर्भाग्य है, भारतीय कला जगत का दुर्भाग्य है कि वे जापान गए और वहाँ न जाने एक-डेढ़ महीने उनके साथ क्या हुआ कि उन्होंने वहीं आत्महत्या कर ली। यह तो एक अलग विषाद का बिन्दु है। लेकिन उनकी परम्परा को उनके परिवार के लोग और आज के जो गोंड चित्रकार हैं, वे आगे बढ़ा रहे हैं।
यह सौभाग्य हमें मिला कि पिछली जनवरी में हमने पूरे देश के आदिवासी और लोक चित्रकारों को, केरल से ले कर लद्दाख तक के चित्रकारों को हमने नेतरहाट में जमा किया था। और उनके बीच में बैठ कर उनकी चित्रकला शैली और उनके बारे में जानने की कोशिश की थी। तो जो चीजें दीवारों पर थीं, अब कैनवास पर आ रही हैं। वे किताबों में आ रही हैं। लेकिन परम्परा वही है, जो एक सशक्त परम्परा है। यह समतावादी दृष्टि की परम्परा है। यह प्रकृति के जीव जगत और वनस्पति जगत के साथ एकात्मकता की परम्परा है। हृदय का आयतन इतना बड़ा है कि सोहराय पर्व घर के पशुओं के प्रति सम्मान और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने की परम्परा रही है। यह परम्परा जहाँ भी जीवित रहेगी, वहाँ आदिवासियत भी जीवित रहेगी। चाहे यह दीवार पर रहे, चाहे कैनवास पर आ जाए। इन चित्रकला की पेंटिग्स पर किताबें आ रही हैं। वार्ली पेंटिग्स पर मैंने दो किताबों का जिक्र किया ही है। जनगढ़ सिंह श्याम की पेंटिग्स पर भी मैंने कई किताबें मंगा कर रखी हुई हैं। तो चीजें आ रही हैं और इसका सकारात्मक पहलू भी है कि इसी बहाने हमारी परम्परा की चीजों का दस्तावेजीकरण हो रहा है और ये नई पीढ़ी के लिए सुरक्षित हो रही हैं।
इस साल तो हम कुछ नहीं कर सके किन्तु हमारी तो इच्छा थी कि हमारे छऊ नृत्य को शास्त्रीय जामा पहनाया जाए क्योंकि अभी तक इसे क्लासिकल नृत्य का दर्जा नहीं मिल पाया है। अभी इसको ऐसी ट्रेनिंग नहीं मिल सकी है कि इसे क्लासिकल डांस के रूप में भी याद किया जाए। अभी तो इसे लोक नृत्य के ही तौर पर याद किया जाता है। नृत्य के कई बड़े जानकारों से हम बात कर रहे थे। छऊ नृत्य के जो युवा और किशोर हैं, उन्हें हम मणिपुरी या ओडिसी जैसे शास्त्रीय नृत्य के व्याकरण से परिचित कराना चाह रहे थे। हम चाह रहे थे कि छऊ में और प्रयोग हों और वह धीरे-धीरे लोक-अर्द्धशास्त्रीय से शास्त्रीय की ओर विकसित हो। ओडिसी भी तो लोक नृत्य ही था। फिर केलुचरण महापात्र जैसे कई गुरुओं ने अपना जीवन लगा दिया, उसे व्याकरण दिया और आज वह शास्त्रीय नृत्य के तौर पर स्थापित हो गया है। तो अलग-अलग चित्र कलाओं और नृत्यों में, स्वामिनाथन ने जैसे कलात्मक हस्तक्षेप किया, उस ढंग के सकारात्मक हस्तक्षेप की जरूरत है। इनका दस्तावेजीकरण हो और इनके व्याकरण को और सम्पन्न किया जाए। ये चीजें और बेहतर रूप में हमारे सामने आएँ। हम कोशिश कर भी रहे हैं कि जैसे मधुबनी पेंटिग्स में राम कथा, सीता की कथा और बुद्ध की कथा आ रही है, वैसे ही हमारे यहाँ जो तीन तरह की पेंटिग्स हैं, सोहराय और कोहबर पेंटिग्स हैं, संथाल परगना की जादोपटिया है या पेटकर जो घाटशिला में है, उनमें बिरसा की कहानी या सिदो-कानू की कहानी या वीर बुधु भगत की कहानी आए। ये सब इन चित्रकलाओं में, हमारी भित्ति-चित्रकलाओं में ढल कर आए ताकि इनकी गतिशीलता आगे बढ़े। इससे चीजें बेहतर होंगी, चीजें नष्ट नहीं होंगी।
प्रमोद : काफी समय मैंने आपका ले लिया ...वैसे तो सवाल और भी हैं किन्तु मैं अभी अन्त में यह जानना चाह रहा हूँ कि साहित्य के अलावा और कौन से क्षेत्र हैं जिनमें खाली वक्त में आपकी रुचि रहती है ? आपकी रुचि के दूसरे क्षेत्र कौन से हैं ?
रणेन्द्र जी : प्रमोद जी, 2018 से मैं बहुत ही प्रतिष्ठित संस्थान - जनजातीय कल्याण शोध संस्थान से जुड़ा हुआ हूँ। अब तो हमारे बाबा डॉ. राम दयाल मुंडा जी के नाम पर इसका नामकरण हो गया है। 1953 में नेहरू जी ने इसको स्थापित किया था। जनजातीय विषयों को ले कर यह देश का दूसरा शोध संस्थान था। पहले की स्थापना उड़ीसा में 1952 में हुई थी, 1953 में इसकी हुई और फिर 1954-55 में मध्य प्रदेश वाले की हुई। अगर आप हमारे निदेशकों की सूची देखें, तो बहुत ही प्रतिष्ठित मानवशास्त्री जो हैं, वे निदेशक के तौर पर वहाँ रहे हैं। डॉ० सच्चिदा नंद और गुहा साहब से ले कर नर्मदेश्वर प्रसाद और एस. पी. गुप्ता तक वहाँ रहे हैं। लेकिन जैसा कि मैंने अपनी बातचीत के क्रम में कहा, ब्रिटिश हुकूमत के कारण या उसकी लीगेसी के कारण आदिवासियों को केवल मानवशास्त्र की केस हिस्ट्री के तौर पर देखने का, अन्य प्राणियों के तौर पर देखने का नजरिया रहा है। यह देखा जाता रहा कि इनका टोटम क्या है, ये लोग जन्म-मरण में क्या करते हैं ...तो यही सब घूम-फिर कर रहा, एथनोग्राफी की स्टडी का विषय ही वे रहे।
इससे आगे बढ़ कर हम लोगों ने एक थिंक टैंक बनाया है जिसमें सेवानिवृत प्राध्यापक-पदाधिकारी-चिन्तक-लेखक-एक्टिविस्ट और आप सब हैं। इसमें आदिवासी बुद्धिजीवी के साथ-साथ वे भी हैं जो चाहे आदिवासी नहीं हैं किन्तु आदिवासियत है जिनमें। तो एक थिंक टैंक पचास-साठ लोगों का हमने बना रखा है। अब हमलोग आदिवासी दर्शन पर बात कर रहे हैं। आदिवासी इतिहास पर बात कर रहे हैं। ब्रिटिश पूर्व के इतिहास पर शोध शुरु हुआ है। इसी प्रकार मनोविज्ञान पर भी काम शुरु हो रहा है। गाँव से हमारे आदिवासी बच्चे जैसे ही शहर के कॉलेज और हाई स्कूल में आते हैं, तो उनके हेजिटेशन का कम्यूनिकेशन स्किल्स पर प्रभाव पड़ता है। झिझक उनकी बढ़ जाती है। हीनभावना की ग्रन्थि बढ़ जाती है। इन चीजों पर भी शोध करना शुरु किया है हम लोगों ने। जमीन के लालच में दूसरी पत्नियों के रूप में आदिवासी स्त्रियों से लोग विवाह जो करते हैं, ऐसे विवाहों का उन स्त्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर भी शोध हो रहा है। आदिवासी समुदायों की सामाजिकता, उनकी सांस्कृतिक बुनियाद, उनकी आर्थिकी पर शोध करना है। स्पोर्टस ने, खासकर हॉकी और तीरंदाजी ने झारखण्ड की बेटियों को बहुत ऊँचे आकाश तक पहुँचाया है। तो सशक्तिकरण में भी एक भूमिका खेल निभा रहा है। मैं इस विभाग का भी निदेशक रहा था ... तो यह भी एक अध्ययन का विषय है कि कैसे यह सशक्त कर रहा है। बहुत सुदूर से सिमडेगा के गाँव की एक बच्ची हॉकी खेलने आती है। पहले हमारे डे बोर्डिंग में रहती है, फिर वह आवासीय सेंटर में आती है, फिर वह नेशनल लेबल पर खेलती है, फिर एशियाड में जाती है ... और कैसे उसके व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन होता चला जाता है। जैसे ही नेशनल खेलती है, तो कोई न कोई विभाग रेलवे या पुलिस उसे आफॅर दे देता है और वहाँ वह नौकरी भी पा जाती है ... तो एक तरह से वो सब इंस्पेक्टर के तौर पर, डीएसपी के तौर पर नौकरी में आ जाती है। अतः स्पोर्टस भी एम्पावरमेंट दे रहा है। तो यह भी एक अध्ययन का विषय है। इस प्रकार अध्ययन के सैंकड़ों विषय हैं जो जनजातीय समाज के अध्ययन को बहुआयाम (मल्टीडाइमेंशन) दे रहे हैं। और यह मेरा सौभाग्य है कि वहाँ बैठ कर मैं इन चीजों को देखता हूँ। न चाहते हुए या शौक से पढ़ता हूँ। रोज नई चीज सीखता हूँ। अगर मैं यहाँ नहीं आता तो फिर वही साहित्य, उपन्यास, कविता तक ही सीमित रह जाता। आदिवासी दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान - इन चीजों से भेंट ही नहीं हो पाती। हमारा संस्थान भी इन चीजों से वंचित रह जाता। हम सबके प्रयास से ही इस दिशा में वहाँ अध्ययन आगे बढ़ पाया है। आदिवासी दर्शन पर वहाँ कुछ काम हुआ है। आदिवासी वाचिक परम्परा में जो चीजें हैं, उसको कैसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में फिर से लिखा जाए, इस पर प्रयास किया गया है। विजयदान देथा या नॉर्थ ईस्ट के कुछ आदिवासी उपन्यासकारों ने जैसा किया है, वैसा काम। पहली बार बातचीत में चीजें खुल कर नहीं आ पाई किन्तु अगली बार बातचीत करेंगे तो और आएँगी। लगता है कि इस दिशा में अगले पाँच-दस साल में शायद कुछ ठोस निकल कर आएगा। वाचिक की अकूत सम्पदा से चीजें नई रचनाओं में, नए उपन्यासों में, नए परिप्रेक्ष्य में आनी चाहिए। तो कई डाइमेंशन हैं जिनमें सीखने की कोशिश मैं कर रहा हूँ। प्रमोद जी, रोज कुछ सीखता हूँ।
सिद्धों के बारे में ऐसे ही कुछ पढ़ रहा था, तो मालूम हुआ कि सरहपा जो अर्धमागधी के पहले कवि हैं, वे ब्राह्मण कुल के थे। राहुलभद्र कुछ उनका नाम था। किन्तु जब वे मंत्रयान और वज्रयान की ओर आकर्षित हुए, तो एक आदिवासी युवती को उन्होंने योगिनी बनाया, वही बाद में उनकी पत्नी हुई। उसने जो सहज जीवन जीने की शैली सरहपा को सिखाई, उससे जो सहज चीजें निकलीं, वही उनकी कविताओं का उत्स है और वह उद्वेलित करता है। तो सरहपा को भी आदिवासी संस्कृति ने काफी कुछ दिया ... असल में ये चीजें विस्मृति में हैं, लोग रेखांकित नहीं कर रहे हैं।
सम्पर्क
रणेन्द्र – 09431114935
प्रमोद मीणा – 7320920958
काफी विस्तार में लिए गए रणेंद्र जी के साक्षात्कार के जरिए उन्हें जानने समझने का मौका मिला ।प्रमोद मीणा जी का हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन साक्षात्कार के लिए आपको बधाई | सार्थक और विचारणीय सवालों के जवाब विस्तार से देने के लिए रणेन्द्र जी
जवाब देंहटाएंका हार्दिक धन्यवाद | ज्ञानवान और सुचिंतित विश्लेषण के लिए पुनः आप दोनों का आभार |