बसन्त त्रिपाठी की कविताएँ

 


 

अप्रैल मई 2021 में आयी कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई, उसके जख्म आज भी हरे हैं। हर तरफ एक विवशता दिखायी पड़ी और हम अपने प्रियजनों, परिजनों के मौत का अबाध सिलसिला देखने के लिए जैसे बाध्य थे। कोरोना महामारी ने मनुष्य जीवन के हर पक्ष को बुरी तरह दुष्प्रभावित किया। सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य ही प्रभावित नहीं हुए बल्कि इसका असर साहित्य पर भी पड़ा। कवि मनुष्यता का पक्षधर होता है। इसी क्रम में वह उस सर्वहारा के पक्ष में खड़ा होता है जो फटेहाल जीवन जीने के लिए अभिशप्त होता है। हिन्दी के सुपरिचित कवि बसन्त त्रिपाठी ने अपनी कविताओं में इस कोरोना काल को उसके उसी त्रासद रूप में 'बदहवास तारीखों' के रूप में दर्ज किया है जिसे हम सबने देखा और महसूस किया है। इसी क्रम में तारीखें ही कविता का शीर्षक बन गई हैं। तारीखों का शीर्षक बनना, सामान्यतया नहीं होता। लेकिन इन तारीखों के जरिए कवि अपने उस बीते हालिया अतीत में जाता है, जिसे याद कर आज भी सिहरन होती है। यह कवि की कामयाबी है कि उसने बिना एक भी शब्द अतिरिक्त कहे, अपनी बातें पुख़्तगी के साथ रख दी हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कवि बसन्त त्रिपाठी की कविताएँ 'बदहवास तारीखें'

 

 

बसन्त त्रिपाठी की कविताएँ

 

 

बदहवास तारीखें

 

 

8-04-2020

 

घड़ी की सुइयाँ

घूमती रहती हैं

वर्त्तुलाकार घेरे में

 

 

घड़ियों को नहीं पता

जो समय वे बजा रही हैं

वह इतिहास के माथे का घिनौना दाग होगा

या कोई चमकदार आख्यान  

 

 

आपकी घड़ी में जो समय बजा है 

वह आपका समय है 

आपके दुख या आपके उल्लास का समय

मेरी घड़ी में इस वक्त 

दुनिया का ख़ौफ़ बज रहा है

आसन्न मौत की दुष्कर छायाएँ 

इस दुनिया को घेर रही हैं

 

 

मुक्ति की जानी-पहचानी राहों पर

कुछ अंतराल में ही 

भयावह तबाही मच गई है

 

पर घड़ी की सुइयाँ हैं 

कि चुपचाप चल रही हैं 

टिक् टिक्... टिक् टिक्... टिक् टिक्...

 

 

   

22-04-2020

 

वे उस तरह नहीं लौट रहे 

जिस तरह कविगण लौटते हैं 

अक्सर अपनी कविताओं में गाँव

 

 

उनकी बिवाइयाँ, उनकी तड़प

और रास्तों में दम तोड़ चुके लोगों की याद 

इसकी गवाह हैं

 

 

शहरों को उन्होंने गढ़ा  

अब छोड़ कर जा रहे हैं हमारे वास्ते

कि रहो अपने ख़्वाबगाह में अकेले और सुरक्षित

अपनी घृणा को लिहाफ़ की तरह ओढ़ कर

यश के जयकारे गाओ

 

      

हमारी तो इतनी भी औकात नहीं

कि रोक लें उन्हें

 

 

कभी इतना जुड़ा नहीं

कि उसे सिर पर ढो कर निकल पाएँ

सरकारें और उनके सिपहसालार

चीख चीख कर उन्हें छेक रहे हैं

फेंक रहे हैं प्रलोभन का चारा  

लेकिन वे रुकेंगे नहीं.

 


 

 

6-05-2020

 

उन रास्तों को याद रखना 

जिसमें तुम्हारे लौटते हुए पाँवों के निशान हैं

असंख्य पत्थरों की ठोकर

और काँटों की चुभन है

थक कर कुछ समय सुस्ताने की यादें

और गुस्सा जो तुम्हारी छातियों से निकल कर  

चितकबरी छाँह में घुल गया था

 

 

याद रखना कि तुम हारे हुए नहीं 

जीवन की तलाश में भटकते सैनिकों की तरह लौटे थे

समय भले उन पर विस्मृति की धूल डाल दे 

लेकिन तुम

कुछ भी मत भूलना

 

 

एक दिन दूसरे लोग भी जान जाएँगे  

कि ये वही रास्ते हैं 

जिनमें तुम्हारी थकान की परछाइयाँ 

सदा के लिए ठिठक गई थीं 

और तुम हर बार नई परछाइयों के साथ 

चलते हुए लौटे थे अपने देस!! 

 

 

8-05-2020

 

गतिहीनता ही सुरक्षा थी

चमकदार नागरिकों की ऊब में 

प्रधानमंत्री का उदास मुखौटा चमकता था

वे ही उनकी ऊब को बहलाने का ज़रिया थे 

बात बेबात उछलते राजनीतिज्ञ 

घरों में दुबके हुए थे 

पहिए थम गए थे 

हवा को चीरने वाले जहाजों के डैनों को 

लकवा मार गया था

लेकिन जो पाँवों से ज़मीन चूमते थे 

जिन्हें अपने हाथों पर 

किसी भी सरकार से अधिक भरोसा था 

वे     केवल वे ही

दिखाई दे रहे थे सड़कों पर

और वे भी

जो इनसे दिखावे का नहीं

सचमुच का प्रेम करते थे.

   

 

9-05-2020

 

ये रेल की पटरियाँ हमने नहीं बनाई 

हम तो इनके सहारे चलते चलते

पहुँच जाना चाहते थे गाँव

 

 

रात भर चले थे

सो थोड़ा सुस्ताने की गरज से 

इन्हें सिरहाना बना कर लेट गए थे

आप तो जानते ही होंगे

थके शरीर को कैसे फाँसती है
सुबह की नींद

 

 

हम नींद में बेसुध थे

हमारे सपनों में मिट्टी की खुशबू तैर रही थी 

ठीक तभी हमारी देह

लौह पहियों से कुचल गई

 

 

ये पटरियां हमने नहीं बनाई

पटरियाँ बनाने के लिए हमने खदानें भी नहीं खोदी

लेकिन इन पटरियों पर हमारे खून के धब्बे हैं

 

 

अब इस दुनिया से मुक्त हो गए प्रेत हैं हम

पर याद रखना

हम तुम्हारी नींद में भटकते रहेंगे

उत्पात मचाएँगे
बार-बार सवालों के सामने

धकिया कर तुम्हें खड़ा करेंगे
कि हमारा कसूर क्या था?

कि गाँधी ने रेल का विरोध

क्या हमें ही ध्यान में रख कर किया था?

 


 

 

10-05-2020

 

हमें किसने कुचला ?

 

पैरों में इकट्ठा थकान ने 

 

कोलतार और सीमेंट की सड़कों पर दौड़ते-दौड़ते

झुग्गियों में सिमट कर सोते-सोते

हम भूल गए थे जंगल और खेतों की खुशबू

उन्हीं आवारा खुशबुओं ने हमें कुचला

खुले आसमान में टिमटिमाते तारों और चाँद ने शायद

 

 

हमें उन संभावनाओं के छद्म ने कुचला

जिसके बुलावे पर हम गए थे नगर

हमें संपन्न शहरातियों के स्वार्थ ने कुचला

उन नाकामियों ने भी 

जो सरकारों की थी

लेकिन भुगतान केवल हमने किया 

 

 

रेल ने तो केवल मुहर लगाई.

   

 

12-05-2020

 

मैंने उन्हें नहीं कुचला 

 

भला सोते हुए लोगों पर

कैसे कोई चढ़ा सकता है लोहे की गाड़ी?

 

 

मैंने जब उन्हें देखा

बहुत पास जा चुका था

गाड़ी रोक पाना मेरे बस में नहीं था

मैं हड़बड़ी में लगातार हॉर्न बजाता रहा

 

 

वे अकबका कर उठे भी

जैसे बच्चे झिंझोड़ने से उठ जाते हैं

इससे पहले कि वे कुछ समझ पाते

मेरे देखने की सीमा से बाहर हो गए

खून के छींटों में डूबे झुटपुटे अँधेरे को

मैं पीछे छोड़ आया   

 

 

मैं क्लॉड इथरली नहीं हूँ

कि लोगों की नींद

और नींद में तैरते सपनों पर 

मौत का स्याह फेर दूँ

 

 

लेकिन अब मेरी रातें 

अधिकांश रातें उनींदी गुज़रती हैं

गति से मुझे डर लगता है

मुझे हर चीज़ से डर लगता है

 

 

हालाँकि मृत्यु कहीं से आ कर

घेर सकती है किसी को भी

पर नाकारा सरकारें

इस गति को और तेज़ कर देती हैं.  

 

 

13-05-2020

 

पाँव लग कर चल रहे जब

सब कुछ ठहरा क्यों लगता है 

पानी सूख चुका आँखों का 

फिर बरस रहा क्या दिल के भीतर

 

सुबह की आँख से लहू चू रहा

वीरान दोपहर     और वीरान हो गई

समय दमकल-सा

सायरन बजा कर निकला

हाँ, यहीं आग लगी  यहीं गोली चली 

यहीं लहास गिरी   

 

 

पर हाय! गिनती में शामिल हुई.
   


 

 

14-05-2020 

 

वे सभ्यता की नींद से छिटक गए सपने हैं

वे फलों को पकाने में इस्तेमाल कार्बाइड हैं 

वे जर्जर जूतों के तल्ले ठुँकी कील हैं

वे नागर परियोजना में अनामंत्रित अनिवार्य हैं

 

 

22-05-2020

 

हाँफती हुई 

चमकदार आवरणों से ढँकी सभ्यता का चेहरा 

उघड़ गया है 

भीतर का शालीन हत्यारा तक

खुल कर खेलने लगा है अपना खेल

खुद को बचाने के इस राष्ट्रीय महालाप में

अपनी ही घृणा के वमन से लिथड़ गया है

लेकिन उसे वह घिसा हुआ चंदन समझ रहा है

 

प्रधानसेवक के लयकारी हाथों को

लकवा मार गया है

दंगों की सूची में मृतकों की न्यून संख्या को ले कर

रूठे हुए गृहसेवक ने खुद को बंद कर लिया है घर के भीतर

छोटे छोटे सिपहसालार बल्लियों उछल रहे हैं 

 

 

लोग गा रहे हैं, खाना बना रहे हैं, तस्वीरें भेज रहे हैं

सामाजिक दूरी के शब्दार्थ को

तमगे की तरह जख्मी सीने में धारण किए हुए 

गर्वोक्तियों से भरे हैं 

 

 

वे मरते हुए लोगों को देख कर आश्चर्यचकित हैं 

कि इतने छोटे कारणों के लिए भी कोई मर सकता है भला! 

जैसे मरने के लिए बड़े कारणों के आने पर

वे सचमुच ही जान दे देंगे!!

   

 

30-05-2020

 

मैं बहुत मुश्किल से नींद में पड़ता हूँ

यदि पड़ा भी तो

सपनों की पथरीली ज़मीन पर

लकड़ी की गेंद सा लुढ़कता रहता हूँ

खड़बड़ खड़बड़ खड़बड़

खड़क खड़क... 

अंततः खटाक से कमरे के अंधेरे में

उठ जाता हूँ

 

 

चचा ग़ालिब

मौत की फिक्र नहीं मुझे

फिर ये साली नींद  ढंग से

क्यों नहीं आती  

रात भर??

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

 

 

सम्पर्क

मोबाईल -   09850313062

 

टिप्पणियाँ

  1. के बारे में यह बतातीं हैं कि वह कितने संवेदनशील व्यक्ति हैं।

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  2. इस त्रासदी की तस्वीरे आप की कविताओं में साफ दिखाई दे रही हैं ।

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  3. तत्कालीन समय का सजीव चित्रण। कविता की एक-एक शब्द संवेदनाओं से भरा हुआ है। बहुत बढ़िया कविता!🙏🙏🙏

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  4. ये कविताएँ आंखों में चुभती हैं तो चुभती ही चली जाती हैं. ये कविताएँ ये दृश्य एक असहनीय कसक की तरह भीतर बने रहेंगे.

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