अमरकान्त जी से मुरलीधर और हिमांशु रंजन की बातचीत
प्रख्यात कथाकार अमरकान्त जी से एक अरसा पहले ज्ञानवाणी के स्टूडियो में एक साक्षात्कार लिया था कहानीकार मुरलीधर और कवि-आलोचक हिमांशु रंजन ने! यह अप्रकाशित बातचीत हमने अनहद में अरसा पहले प्रकाशित किया था। आज अमरकांत जी का जन्मदिन है। अमरकान्त जी को नमन करते हुए हम अनहद में पूर्व प्रकाशित साक्षात्कार को आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। इस विशेष एवम काफी लम्बे साक्षात्कार को हमारे अनुरोध पर अक्षरांकित किया था युवा कथाकार शिवानन्द मिश्र ने। तो आइए आज पहली बार पर पढते हैं मुरलीधर और हिमांशु रंजन द्वारा अमरकांत जी से लिया गया विशेष साक्षात्कार।
अमरकान्त जी से मुरलीधर और हिमांशु रंजन की बातचीत
मुरलीधर - आपको लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली तथा राजनीतिक रुझान और पेशेवर पत्रकारिता में आजीवन लिप्त रहते हुए आपने लेखन कार्य को कैसे साधा?
अमरकान्त – लिखने की हमें प्रेरणा एक तो हमारे पिता जी जो एडवोकेट थे वहाँ बलिया में और वहीँ एक चलता पुस्तकालय था, उनसे मिली। चलता पुस्तकालय वाले साइकिल पर पुस्तकें दे जाते थे। पिता जी को इतनी फुर्सत नहीं थी कि वे किताबें पढ़ें। तो किताबें रखी रहती थीं। मैं ही घर में बड़ा लड़का था, और उस समय गवर्नमेंट हाईस्कूल में पढ़ता था। तीसरे-चौथे क्लास से ही। तो ये किताबें मैं ही पढता था। उसमें हर तरह की किताबें होती थीं। पुरानी और नई भी जो कुछ मिल जाए। बिजली तो थी नहीं, इसलिए लालटेन जला कर इन्हें मैं पढता था। कभी-कभी कुछ पुस्तकें इतनी रोचक होती थीं कि मैं रात-रात भर पढ़ता रहता था। हमारी माँ बार-बार मना करती थीं कि आप इतना मत पढा करो, बीमार पड़ जाओगे। तो पढ़ने की मेरी यह आदत इस तरह से लगी। फिर नौ या दस में हमारे यहाँ एक नये टीचर आये बाबू गणेश प्रसाद। वे नए किस्म के टीचर थे। पहले पुराने किस्म के टीचर पढाते थे। वह संस्कृत स्टाइल से पढ़ाते थे। लेकिन महादेवी वर्मा, पन्त ये लोग आ चुके थे पाठ्यक्रम में। वह इन लोगों को पढ़ाते थे। उनकी खास बात ये थी कि वह चाहते थे कि हमारे बच्चे साहित्य में रुचि रखें। वह साहित्य के बारे में बताते ही थे। मुझे याद है कि उन्होंने मुल्कराज आनन्द की कहानी, ‘लास्ट चाइल्ड’ के बारे में हमें पुनः विस्तार से बताया था। उसका कथानक बताया था। उन्होने बताया कि प्रेमचंद के आगे भी प्रगतिशील कहानियाँ हैं और ये जो प्रवृत्तियाँ हैं कथा साहित्य की उसमें आपको रुचि रखनी चाहिए। वह अपने क्लास में निबन्ध लिखने की जगह पर कहानियाँ लिखने को कहते थे। एक विषय दे देते थे और कहते थे कि आप कहानियाँ लिखिए। तो सारा क्लास कहानी लिख रहा है। उस पर नम्बर दिये जाते थे। उस समय हम आठवीं कक्षा पास कर के नवीं में पहुँचे थे। उन्होंने ये बात कही कि आप चाहें तो अपने मुहल्ले में हस्तलिखित पत्रिका निकालिए। एक सीनियर थे जो आगे की क्लास में पढ़ते थे, उन्हें सम्पादक बनाया गया। सबने उसमें अपनी रचनाएं दीं। मैंने भी एक बचकानी सी कहानी लिखी थी। और लोगों ने भी लिखीं। लेख लिखे, उसको स्टिच किया, किसी ने कवर बनाया उसका। इस प्रकार उन्हीं के कहने से दो बार हम लोगों ने हस्तलिखित पुस्तिका निकाली। फिर उन्होंने अन्ताक्षरी टीम गठित किया जिसमें मैं भी था। वे कविताएँ पुराने तरह की लिख कर दिया करते थे। सवैया, कवित्त वगैरा लिख कर देते थे। तो ये कहिए कि इन सब से प्रेरित हो कर मैंने कहानियाँ लिखनी शुरू की।
मुरलीधर – शरतचन्द्र आपके बहुत प्रिय लेखक थे?
अमरकान्त – शरत चन्द्र को हम बहुत पढ़ते थे। रवीन्द्र नाथ टैगोर, शरत चन्द्र और दूसरे लेखक जो बांग्ला के थे, खास तौर से उनकी अनुदित पुस्तकें मिलती थीं। हमारे मुहल्ले में और भी लड़के थे जो काफी रुचि रखते थे पढ़ने-लिखने में और हम लोग मेम्बर भी थे पुस्तकालय के। लेकिन कोई साफ चीज़ नही थी। क्योंकि जमाना ऐसा था कि उधर स्वतन्त्रता आन्दोलन छिड़ा हुआ था और इधर साहित्य था। राजनीति भी वैसी ही आदर्शवादी राजनीति थी। वह जमाना ही ऐसा था कि नौजवान उस समय आन्दोलनों से प्रभावित होता था। मैं और मेरे साथियों ने मिल कर एक क्रान्तिकारी दल बनाया था। उस पर मैंने अपना उपन्यास लिखा ‘सूखा पत्ता।’ पूरे आन्दोलन का उसमें वर्णन है। वह समय ऐसा था, लोग ऐसे थे कि आन्दोलन हो रहे थे, उसकी चर्चा हो रही थी। कांग्रेस मिनिस्ट्री आ गई थी थी, १९३७ में। लोग छूटे थे। उससे थोड़ा और पुस्तकों पर से प्रतिबन्ध हटे थे। ‘चाँद का फाँसी अंक’, ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ जैसी किताबें पढ़ने को मिली थीं. ‘भारत में अंग्रेजी राज्य’ पं. सुन्दर लाल की बहुत अच्छी किताब थी। उसका बहुत असर हुआ। मेरे पिता जी बहुत अच्छा गाते थे। मेरा भी संगीत की ओर भी रुझान था। कभी संगीत जोर मारता था, तो कभी राजनीति। राजनीति चूँकि काफी ज्वलन्त थी तो मैंने बाद में राजनीति में प्रवेश किया। यानी पढ़ाई बाद में छोड़ी है। इस प्रकार इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद पत्रकार बने हम। फिर इच्छा हुई पढ़ेंगे नहीं आगे। बी. ए. करने के बाद पत्रकार बनेंगे, हिन्दी की सेवा करेंगे। ये भावना थी। संक्षेप में कहें तो इस तरह से लिखने की रुचि हमारे अन्दर पैदा हुई।
मुरलीधर - एक पत्रिका में आत्मकथ्य लिखते हुए आपने जिक्र किया है कि शरत चन्द्र की एक कहानी पढ़ने के बाद आपके भीतर से ये प्रेरणा आयी कि मैं भी लिख सकता हूँ? वह कहानी ध्यान में आती है कि कौन सी कहानी थी?
अमरकान्त - नहीं ये तो अब याद नहीं है हमें। बहुत सी कहानियाँ हैं शरत चन्द्र की। करुणा और प्रेम से भरी हुई उनकी कहानियों का असर लोगों पर होता ही है बार-बार। बाद में वह असर धीरे-धीरे कम होता है, जब आप परिपक्व होते हैं। लेकिन बहुत से लोग अपने बुढ़ापे तक में उनसे प्रभावित रहते हैं। अभी अमृत राय ने एक वक्तव्य दिया था जिसमें उन्होंने शरतचन्द्र का जिक्र किया था कि अब भी मैं शरतचन्द्र की बहुत चीज़ें पढ़ता हूँ तो रो देता हूँ। वह एज ही रोमाण्टिसिज़्म का था। संक्रमण काल था। ग्रामीण समाज परिवर्तित हो रहा था। इसमें अंग्रेजों का भी योगदान है। अपने साथ वे नई व्यवस्थाओं को ले आए थे। रोमाण्टिसिज़्म शरतचन्द्र में तो था ही। इसे आप रवीन्द्रनाथ टैगोर में भी देख सकते हैं। लेकिन और बेहतर कहानियाँ भी लिखी हैं उन्होंने। रवीन्द्रनाथ की कुछ छोटी-छोटी बहुत प्यारी कहानियाँ हैं जैसे ‘होम कमिंग’ या ‘काबुलीवाला’ वगैरह। शरतचन्द्र औपन्यासिक थे, शॉर्ट स्टोरी राईटर नहीं। उनके चरित्र औपन्यासिक होते थे, उनकी कहानियों में भी एक उपन्यास ही होता था। लम्बे-लम्बे प्रसंग। जैसे उनका ‘चरित्रहीन’ है। इस तरह से बहुत सी कहानियाँ हैं। हमने उनके करीब-करीब सारे साहित्य जैसे ‘पथ के दावेदार’ वगैरह पढ़ा हुआ है। चरित्र-चित्रण जिसको डिपिक्सन कहते हैं बहुत अद्भुत है उनका। कहीं से भी कहानी उठा लेते हैं वह और कहीं से भी बुन कर आगे ले जाते हैं।
मुरलीधर - ‘पथ के दावेदार’ का आपने जिक्र किया, इससे ये ध्यान आया आया है कि अपने बिल्कुल फॉर्मेटिव दिनों में, नवयुवावस्था कह लें 18-20 की उम्र में, सम्भवत: आप कम से कम दो राजनैतिक दलों से और उनकी गतिविधियों से जुड़े रहे हैं। आपने सोशलिस्ट पर्टियों की कक्षाओं का भी जिक्र किया है, जिसमें आप जाते थे।
अमरकान्त - हाँ! देखिए मैं उसके बाद राजनीति की तरफ कैसे आया। वह तो भावुक राजनीति थी, हमने क्रान्तिकारी पार्टी बनायी। उसमें कौन से हास्यास्पद कृतित्व रहे ये आप देखेंगे। क्योंकि मानसिकता जब तक परिपक्व नहीं होती है तो हमेशा एक बचकानापन रहता है, चाहे वह बूढ़ा हो गया हो। आप बहुत से बूढ़ों को देखिए कॉलेजिक मनोवृत्ति के। जिनकी कॉलेज के लड़कों जैसी मनोवृत्ति और भावुकता होती है। राजनीति में वैसे ही मेरा अपना मत है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन भी जो था, त्याग तो बहुत किया हमारे क्रान्तिकारियों ने लेकिन उनका जनाधार नहीं था। वे एक पिस्तौल के लिए, कुछ फण्ड्स के लिए डाका हमेशा डालते थे। उनके लिए यही एक रास्ता ही था। और कोई रास्ता भी नहीं था। क्योंकि ब्रिटिश सरकार ये प्रचारित करती थी कि ये क्रान्तिकारी लुटेरे हैं। खाली लूटते हैं, डाका डालते हैं, ये क्या क्रान्ति करते हैं। तो जनता में उन्हें इस तरह से प्रचारित किया जाता था। इसीलिए भगत सिंह ने असेम्बली में जा कर पर्चे फेंके और बम फेंका। उसका मतलब यही था कि लोग जानें भी और गिरफ्तारी भी दी जान-बूझ कर। हमने जब हाईस्कूल किया तो हमारे एक साथी हमें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की क्लास में ले गए। उसमें कांग्रेस का भी मेम्बर होना पड़ता था और सोशलिस्ट पार्टी का भी। क्लासेज दो हुआ करती थीं। कांग्रेस की अलग और कम्युनिस्ट पार्टी की अलग। मैं कच्चा था। मैं तो जानता नहीं था ठोस राजनीति को इस तरह से। हम तो भावुकता की राजनीति, बस जान दे देना, देशभक्ति यही जानता था। डाका-वाका डालना चाहिए और इसी तरह देशभक्ति करना चाहिए। मैंने हाईस्कूल में मन्मथ नाथ गुप्त जी की मोटी किताब पढ़ी थी ‘उत्तर भारत में सशस्त्र क्रांति की चेष्टा’। अलग से भी बहुत सी किताबें पढ़ते थे। ये किताबें दूसरे लोग पहुँचा देते थे। और ऐसी किताबें जिनके पन्ने धुंआए हुए होते थे उनकी फाइल बना के, ‘फाँसी अंक’ जैसे है या यशपाल के ‘विप्लव’ के अंक। इस तरह से हम लोग पढ़ते थे आपस में। हमीं नहीं, हमारे सभी साथी भी पढ़ते थे और उत्साहित होते थे। उसी उत्साह में क्रान्तिकारी पार्टी बनी थी। लेकिन बच्चों की क्रान्तिकारी पार्टी बिना गाइडेंस के अपने मन से बनाना, ये सब हुआ था। तो वे ले गए वह हमको हाईस्कूल करने के बाद क्योंकि हम लोग बलिया शहर में चर्चित हो गए थे। हमारे रिश्तेदार थे एक तो मैं बच गया। लेकिन जो लोग पकड़े गए उन पर मुकदमा चल नहीं पाया। केस प्रूफ नहीं हुआ। लेकिन ये है कि वह पकड़ गए, मार खाए। बहरहाल, उससे चर्चित हो गए। तो ले गए वह हमें जो हमारे क्लासफेलो राजनाथ यादव थे। वहाँ क्लास चलता था सोशलिस्ट पार्टी में। और नर्वदेश्वर चतुर्वेदी, जो आचार्य परशुराम चतुर्वेदी जी के छोटे भाई थे, सोशलिस्ट पार्टी में थे। वह क्लास लेते थे। बहुत ही अच्छा बोलते थे और वह अद्भुत प्रेम से समझाते थे। बड़े ही साहसी आदमी और एक जमाने में पिस्तौल ले कर घूमते थे वह। क्रान्तिकारी दल में वह भी थे। अब सोशलिस्ट हो गए थे। उस समय क्लास चलती थी, विचारधारा की क्लास। उसमें ‘कम्युनिस्ट मैनुफेस्टो’ दिया जाता था। वह जरूर ही दोनो क्लासों में दिया जाता था। ‘वैज्ञानिक मार्क्सवाद’ क्या है? समाजवाद तो जानते हैं लेकिन ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ क्या है? द्वन्द क्या है इसका और उसका ये समझाते थे। बहुत किताबें उपलब्ध नहीं थीं तो ‘कम्युनिस्ट मैनुफेस्टो’ दी जाती थी, यहाँ भी वहाँ भी। आचार्य नरेन्द्रदेव की किताब जो समाजवाद पर है वह दी जाती थी। राहुल जी ने बहुत गुटखा किताबें लिखी हैं, छोटी-छोटी किताबें। किसान आन्दोलन में थे वहाँ बिहार में और सहजानन्द सरस्वती के साथ थे किसान आन्दोलन में। उन्होंने किसानों के लिए छोटे ड्रामा भोजपुरी, खड़ी बोली और इस तरह की भाषाओं में लिखे। राहुल जी की ऐसी बहुत सी किताबें पढ़ने को मिलीं। इस तरह से पहली बार मार्क्सिज्म से परिचय मेरा, वैज्ञानिक मार्क्सिज्म से सोशलिस्ट से हुआ। वही चीज़ें कम्युनिस्ट क्लॉस में रहती थीं। कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पहले संयुक्त मोर्चा था और अब टूट गया था। तो मैं सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी का सक्रिय सदस्य हुआ। मैंने अपना भेष बदल दिया और खद्दर पहनना शुरू किया। ये सब लिखा है मैंने कहीं। ‘इन्हीं हथियारों से’ में भी आप देखेंगे तो पाएंगे। तो इस तरह से राजनीतिक रूप से जुड़ाव हुआ। और बड़े सम्मेलन में मुजफ्फरपुर में डेलिगेट बन कर गया था। मैं और राजनाथ। और एक महान आदमी जिनकी मूँछ-वूँछ उखाड़ ली गयी थी, जेल में। मार पड़ी और नोचनी से मूँछ, दाढ़ी और बाल नोच लिए गए थे, वह बैरिया थाना में। हम लोग बिहार के मुजफ्फरपुर जिला में बेदौल एक जगह है, बेनीपुरी जी का गाँव जहाँ है उसके एकदम ठीक बगल में। अखिल भारतीय किसान संघ का सम्मेलन था। सारा मैदान भरा था किसानों से। किसान बैलगाड़ी पर चढ़-चढ़ कर आए थे। हम लोग देख रहे थे। किसान आते जा रहे थे। उसका उद्घाटन बाबू श्रीकृष्ण सिंह ने किया था।
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अमरकान्त - इस तरह से सक्रिय राजनीति से जुड़ाव हुआ और यही वजह थी कि आगे चल कर जब मैं इंटर में था, यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज इलाहाबाद में, और आठ अगस्त से भारत छोड़ो आन्दोलन छिड़ा तो मैं पढ़ाई छोड़ कर चला गया बलिया। राजनीति सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी उस समय। संगीत और साहित्य भीतर थे लेकिन छूट गया। उस समय का जो ज्वलन्त और महत्वपूर्ण प्रश्न था, राजनीति और देश की राजनीति खासतौर से, उसमें बहुत से लड़के और मैं भी, छोड़ दिये पढ़ाई। इस तरह से प्रवृत्तियाँ हमारे अन्दर चलती रहीं।
मुरलीधर - लेकिन, फिर एक ऐसा भी मोड़ आया और राजनीति से मोहभंग हुआ, उसकी क्या स्थितियाँ थीं?
अमरकान्त - राजनीति से मोहभंग, तो बाद की बात है जब मैं युनिवर्सिटी में था। यहाँ जब हिन्दू बोर्डिंग हाउस में रहता था, इलाहाबाद में। पढ़ाई में मेरा एकदम मन नहीं लगता था। यानी समझिए कि मैंने बी. ए. का इम्तिहान दिया बिना पढ़े हुए। और जो हिस्ट्री मैंने पढ़ी आठवीं तक क्योंकि मैंने नवीं में साइंस ले लिया था, बी. ए. का इम्तिहान दिया उसी आधार पर। मैं पढ़ता था, पढ़ा ही ना जाय। रात-रात भर बैठा रहता था। मैं इतना तनाव में आ गया था कि रोने लगा। मेरे एक साथी ने समझाया मुझे, तुम्हें किसी तरह इम्तिहान में बैठना है। नहीं तो मैं छोड़ने वाला था। बैठ तो गया मैं। मेरा डिवीजन भी खराब हुआ। पढ़ा नहीं मैं तो मैंने कहा कि अब पढूँगा नहीं। हमारी उमर भी अधिक हो गई थी कि मैं तीन-चार साल बाद बी. ए. कर रहा था। पढ़ाई जब छूटी तब मैं बी. ए. कर रहा था। चार साल बाद हमारा छोटा भाई राधेश्याम वर्मा हमसे आगे था। उनकी डेथ हो गई है, तो इस तरह से हम पढ़े। फिर ये हुआ कि हम पत्रकार बनेंगे। एक हमारा साथी था। वह हमसे एक साल आगे था एम. ए. में। वह अपने खाली समय में रात को पत्रकारिता करने जाता था। ‘अमृत बाजार पत्रिका’ यहाँ से शुरू हुई थी, मेरे खयाल से उसमें जाता था। उससे भी मुझे प्रेरणा मिली कि मैं पत्रकारिता ही करुँगा। फिर आगरा में गया वहाँ हमारे अंकिल थे. उनसे हमने कहा कि हम तो पत्रकार बनेंगे। आगरा में ‘सैनिक’ अखबार है। उन्होंने कोई बहस नहीं की और कहा कि तुम चले आओ। गए तो वहाँ ‘सैनिक’ में। ‘अमर उजाला’ शुरू हुआ था वहाँ से। डोरीलाल अग्रवाल थे उसके सम्पादक। और माहेश्वरी जी थे। ये दोनो पार्टनर थे। वहाँ पहले जाने की बात थी। लेकिन मैंने ‘सैनिक’ का नाम सुना था। बाबू श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, वहाँ के संस्थापक सम्पादक थे और यू.पी. कांग्रेस के वे ८ वर्ष तक प्रेसिडेंट रहे। किदवई गुट के खास आदमी थे। बहरहाल, तो वहीं गया मैं। मुझे जगह मिल गई और तीन साल तक रहा। इस तरह से मैं पत्रकारिता में गया। तो राजनीति से मोहभंग इसलिए हुआ कि जिन साथियों के साथ मैंने काम किया राजनीति में जो मेरे अग्रज भी रहे और बहुत से लोग जिनसे मैं आदर्श की आशा करता था, मैंने देखा कि अरे ये कहाँ जा रहे हैं आजादी के बाद? तो बहुतों को देख कर मुझे बड़ा दु:ख हुआ और मैंने कहा कि अब ये दूसरे रास्ते पर जा रहे हैं। तो यह सब छोड़ कर मैं ‘सैनिक’ में चला गया। मैं तब तक प्रगतिशील लेखक संघ या साहित्यिक राजनीति कुछ नहीं जानता था। मैं यहाँ इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में था। प्रकाश चंद्र गुप्त मुझे अंग्रेजी पढ़ाते थे। वे कम्युनिस्ट थे। उनसे बहस तो जरूर होती थी क्योंकि मैं उस समय मार्क्सिज्म से प्रभावित हो के भी कम्युनिस्ट पार्टियों की नीतियों से सहमत इसलिए नहीं था कि 1942 के आन्दोलन को उन्होंने ‘लोक युद्ध’ कह दिया। और हमारे ही जिले के देवली कैंप में जो नजरबन्द थे वे छूट कर आ गये। हालांकि उन्होंने माना नहीं अपनी पार्टी का। विश्वनाथ सिंह मर्दाना नाम था उनका। वहाँ कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक थे। बहरहाल, ये तो जानता हूँ कि कम्युनिस्ट पार्टी बहुत त्याग करती है। बहुत से वर्करों को मैं जानता था। साथी भी उसमें कई थे। लेकिन ये है कि बहुत से लोग ये नहीं मानते थे, उस वजह से। खैर ये तो दूसरा किस्सा है लेकिन ये जो चेंज हुआ आजादी के बाद हमारे साथियों में, हमारे बलिया में, ये था। दूसरा जो शॉक मुझे ये भी लगा कि सोशलिस्ट पार्टी के जयप्रकाश नारायण जी को मार्क्सवादी समझा जाता था। लोहिया को गांधीवादी समझा जाता था, शुरू में ही। लोहिया के साथ मैं डेलीगेट था बिहार में। यूसुफ मेहर अली, लोहिया, ये सब थे। जयप्रकाश नजरबन्द थे। बसावन सिंह जो उस समय फरारी हालत में थे, वह भी आये थे। बहुत ही उत्साहपूर्ण और उत्तेजनापूर्ण सम्मेलन था वह। एकदम सर्वोदय में अचानक चले गये जयप्रकाश जी, और रेलवे मेन्स फेडरेशन के चेयरमैन थे। हड़ताल के बीच में ही आत्मशुद्धि का उपवास किया उन्होंने और सर्वोदय में चले गये। वर्कर्स को आपको एक्सप्लेन करना चहिए कि क्या है क्या नहीं. तो इससे कुछ शॉक लगा हमें कि ये क्या है? तो वर्कर्स कहाँ जाएँ, फॉलोवर्स कहाँ जाएँ? ये भी एक चीज थी। महान आन्दोलनकारी थे, जयप्रकाश नारायण और उन्होंने बहुत ही काम किया है। इतना अच्छा बोलते थे। जब जेल से छूटे और बलिया आये। मैं तो स्वयंसेवक ही था, देखा कि प्रभावती जी उनसे भोजपूरी में बोल रही हैं। हम लोग ये सोचते थे कि कोई तकलीफ हो तो सेवा करें हम उनकी। बलिया में ही है उनका गाँव सिताब दियारा। यह ऐसा गाँव है कि कभी इधर चला जाता है कभी उधर। आधा गाँव नदी में इधर-उधर बंट जाता है। बॉर्डर और नदियों के किनारे के गाँव ऐसे ही होते हैं। यहाँ लड़ाई और मारपीट भी बहुत होती है। फसल कोई बोए, कोई दूसरा काट ले आ कर। इस तरह यहाँ सब चलता है। बहरहाल, बहुत निकट से मैंने इन नेताओं को देखा है। खैर, मैंने राजनीति छोड़ दिया और पत्रकार बन गया। हमें ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ले गये इटावा के रहने वाले विश्वनाथ भटेले। हमारे बहुत ही प्यारे पत्रकार साथी थे, अब नहीं हैं, इस दुनिया में। उन्होंने कहा कि चलो मैं तुमको ले चलता हूँ कहीं। और मैं लिख नहीं रहा था उस समय। हम प्रगतिशील लेखक संघ की उस मीटिंग में गये। मैं नहीं जानता था कि प्रगतिशील लेखक संघ क्या है? वहाँ बड़े-बड़े लोग थे। डॉ. रामविलास शर्मा थे राजेंद्र यादव थे। घनश्याम अस्थाना जो बहुत बड़े कवि थे। ऐसे कई साथी थे राजेंद्र रघुवंशी ड्रामा वाले। उनके पुत्र हैं जितंद्र रघुवंशी। इप्टा वगैरा में बहुत काम किया उन्होंने। एक बहुत अच्छी टीम भी थी वह।
वहाँ उस आदमी ने कह दिया कि ये ग़ज़ल बहुत अच्छा गाते है। राम विलास जी ने मुझे प्रेस किया। मैं कोई कवि तो हूँ नहीं, ना ही उर्दू का शायर हूँ। लेकिन ग़ज़ल की दो चार लाइनें दूसरों की याद हैं वह मैंने वहाँ सुनाया। तो फिर ये हुआ कि जब भी हम उस मीटिंग में आयें तो हमें अन्त में ग़ज़ल सुनाने को कहा जाता। ये मुझे बहुत नागवार गुजरा। मैंने कहा कि ये तो बड़ा ही गड़बड़ है। अब मैंने तय किया कि मैं भी लिखूँगा। मुझे डायरी लिखने की बहुत आदत थी। दिन भर की घटनाओं को मैं लिखता था। एक क्लर्की के इंटरव्यू में मैं भी शामिल हुआ था। उसके पूरे नोट्स हमारे पास थे। बस उसी को मैंने उठाया और मैंने अपनी ‘इण्टरव्यू’ कहानी लिख दी और मीटिंग में ले गया। इससे पहले कि कोई वहाँ मुझसे कहे कि ग़ज़ल सुनाइए, मैंने निकाल लिया कि ये कहानी मैं सुनाउँगा। तो लोग ऐसे चकित हो गये जैसे किसी ने पिस्तौल निकाल लिया हो। लेकिन लोगों ने जब कहानी सुनी तो वह प्रशंसित हुई। फिर मुझे किसी ने कभी ग़ज़ल-वजल सुनाने के लिए नहीं कहा। फिर वहाँ पर मैंने कई कहानियाँ लिखीं। मेरी कई कहानियाँ प्रशंसित हुईं, जैसे, ‘सुन्नर पाण्डे की पतोहू’ मेरा उपन्यास है। उसे वहाँ मैंने कहानी के रूप में सुनायी थी ‘सुहागिन’ शीर्षक से। रामविलास जी बहुत प्रसन्न हुए थे उसे सुन कर। मैंने एक ‘कम्युनिस्ट’ कहानी लिखी थी, वह भी प्रशंसित हुई थी वहाँ पर। ‘बाबा जैसे है;, ‘सवा रुपया’, ‘नौकर’, इस तरह की कहानियाँ मैंने वहाँ पर लिखीं। मुझे वहाँ पर कहानीकार मान लिया गया। विश्वनाथ भटेले तो थे ही राजेंद्र यादव भी बड़े प्यारे साथी थे उस समय हमारे। आजकल हम लोग उतने निकट नहीं हैं लेकिन ये है कि पहले साथी तो हई हैं हमारे साहित्यिक वहाँ के।
मुरलीधर - रांगेय
राघव भी आया करते थे वहाँ पर?
अमरकान्त - हाँ! रांगेय राघव
हमारे घर के पास ही रहा करते थे। देखिए, वह प्रगतिशील लेखक संघ के थे लेकिन डॉ राम विलास शर्मा से उनका मतभेद चल रहा था। रामविलास शर्मा ने उनकी बड़ी आलोचना की थी और कुछ मतभेद चल रहा था। तो वह जाते नहीं थे प्रगतिशील लेखक संघ की मीटिंगों में। वे एक अच्छे परिवार के, धार्मिक स्टेट से थे। आन्ध्र प्रदेश की कोई गद्दी
मिली थी उन्हें, राजस्थान में उनके बड़े भाई को। वह लोग उस स्टेट के धार्मिक गुरु थे। उनके परिवार को पैसे की कोई दिक्कत नहीं थी। मैं जहाँ रहता था, स्वदेशी बीमा कम्पनी नगर, आगरा में उसके पास ही सिविल
कोर्ट था, वहाँ दयालबाग के रास्ते में। शाम को हम लोग घूमने निकल जाते थे। हम और रांगेय राघव। कभी हमारे भाई आ जाते थे बलिया से
तो उनके साथ। हम लोग बड़ी लम्बी-लम्बी बातें करते थे। बर्कले सिगरेट पीते थे, खूब धुँआधार। पीते भी थे और पिलाते भी थे। नाश्ता भी अच्छा कराते थे। एक समय में वह छ: उपन्यास लिख
रहे थे। हमने कहा कि आप छ: उपन्यास एक
साथ कैसे लिख लेते हैं? तो उनका ये कहना था कि कोई कहानी या कोई उपन्यास लिखने
के पहले वह एक-एक चैप्टर प्लान कर लेते थे। एक चैप्टर का पहला पैराग्राफ
क्या होगा, उसका पहला वाक्य क्या होगा, ये सब प्लान कर लेते थे। वह कहते थे कि प्लानिंग में
मेरा बहुत समय खर्च होता है। लेकिन लिखने में तो कुछ नहीं है। जब छ: उपन्यास प्लान कर लिया तो
सुबह उठिए। चाय-वाय पी कर लिखना शुरू कीजिए। वह हेमिंग्वे की तरह खड़े हो कर
लिखते थे। वे कहते थे अगर आप का सब कुछ प्लाण्ड है तो पहले उपन्यास का
पहला चैप्टर लिख डालिए। आप आधा घंटा में इसे लिख लेंगे, क्योंकि सब कुछ प्लाण्ड है आपका। तो आपने छ: उपन्यास का लिख
लिया थोड़ा-थोड़ा बीच में रुक के, चाय पी के, गपशप कर के। फिर दूसरा, फिर तीसरा इस तरह से। उनको और कोई काम नहीं था, बस यही था। वह छ: उपन्यास लिख लेते थे एक साथ। वह काफी लिखते थे। बड़े अच्छे चित्रकार भी थे वह। ‘मेघदूत’ का उन्होंने भावानुवाद किया था उन्होंने हिन्दी में। बहुत ग्रन्थ लिखे हैं उन्होंने।
हिमाशु रंजन - जी! लेकिन ये जो स्वातान्त्र्योत्तर हिन्दी कथा परिदृश्य है।
कई स्तरों पर निर्णायक महत्त्व रखता है। आजादी की खुशी और राष्ट्रीय नवनिर्माण के सपनों के बीच आप जैसे
कुछ नये लेखकों ने जरूर कुछ यह महत्वाकांक्षाएँ पाली होंगी और कुछ चुनौतियाँ भी महसूस की होंगी।
यानी देश-समाज के प्रति कुछ जिम्मेदाराना एहसास जगे होंगे।
उन मीठी-कड़वी स्मृतियों पर कुछ रौशनी डालिए।
अमरकान्त - मैं पहले ही बता
चुका हूँ कि जब मैं राजनीति में आया तो देश और समाज के
प्रति कुछ करना चाहिए, मूल भावना यही थी और उसी से जुड़ा साहित्य भी। क्योंकि साहित्य उस समय
आदर्शात्मक स्थिति में था। उस समय के साहित्यिक लोगों के पास क्या था? हिन्दी वालों के पास न मान्यता थी, न कुछ था। हिन्दी वालों और पत्रकारों ने उस
समय जो संघर्ष किया, आप बयान नहीं कर सकते। एक लम्बा किस्सा है और आन्दोलन भी हुए बाद में। तो सबसे पहले मूल देश है। देश से निकला समाज। समाज से अन्तर्राष्ट्रीय
पैमाना जो है समाज का। ये सारी चीज़ें एक दूसरे से
जुड़ी हुई हैं। तो अकेले कोई देश नहीं है। जब राजनीति में आये और समाजवादी
पार्टी और मार्क्सिज्म का थोड़ा-बहुत अध्ययन किया, उससे समाज जुड़ गया। क्योंकि समाज के बिना मार्क्सिज्म भी बेकार है। ये सब चीज़ें धीरे-धीरे आती रहीं और अपना स्वरूप लेती रहीं। लेकिन एक साथ सभी नहीं आयीं। कभी कुछ चीज़ ने जोर किया कभी कुछ चीज ने। लेकिन देश क्या है? समाजवादी पार्टी में आने के बाद समझ में आने लगा कि देश कोई भारत माता नहीं बल्कि वे करोड़ों लोग हैं जो देश में रहते हैं। जवाहर लाल ने अपनी ऑटोबायोग्रॉफी
में लिखा है। देश कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो अस्पष्ट हो। देश के जो करोड़ों लोग हैं
उन्हीं का उत्थान, समृद्धि और उन्ही के बारे में सोचना। क्योंकि, मूल देश यही है। यही चीज़ जवाहर लाल ने भी
लिखी और हमको राजनीति का जो पाठ मिला उसमें भी ये बहुत ही महत्वपूर्ण चीज़ थी। राजनीति में तो ये भी है कि आप कैसी राजनीति चाहते हैं? राजनीति क्या है? राजनीति कोई स्वयं में चीज़ थोड़े है। बल्कि राजनीति का मतलब क्या है? उसका भी मतलब है देश की सेवा
करना, कुछ करना। देश में एक आदमी के लिए भी अगर आप कुछ लिख
सकें तो बहुत है।
मुरलीधर - आपने जिस समय लिखना शुरू किया था उस समय हिन्दी कहानी में कई धाराएँ एक साथ चल रही थीं और संघर्ष था बीच में। एक तरफ प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद वाली जीवन्त परम्परा थी और दूसरी तरफ जैनेन्द्र की दार्शनिकता और इलाचन्द्र जोशी के मनोविश्लेषण सरीखे प्रयोग भी हो चुके थे। ऐसे में नई कहानी की नई जमीन क्या थी? नई कहानी आंदोलन के ठप्पे से परहेज करते हुए भी आप उस दौर के महत्वपूर्ण लेखक हैं। अपनी और अपने समकालीन लेखकों की विशेषताओं को आप कैसे रेखांकित करेंगे?
अमरकान्त - समकालीन लेखक तो
बहुत से थे। किसको अलग बयान करें हम? ये देखिए कि जब लेखक एक
छोटे से कस्बे से चलता है तो सारे लेखकों को
समान दृष्टि से देखता है। सबके प्रति सम्मान की भावना होती है। उसको राजनीति का पता नहीं रहता
है। विचारों, व्यक्ति या अपनी पीढ़ी के आधार पर राजनीति होती रहती है। प्रेमचंद हमारी पीढ़ी के नहीं थे। यह भी बात है कि हम एकदम
आदर्शवादी भी नहीं कह सकते प्रेमचंद को। हाँ, इसे ‘आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद’ या फिर आप जो भी कहिए, लेकिन प्रेमचंद एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने कथा और अन्य साहित्य सम्बन्धी पहले
की जो अवधारणा थी उसमें एकदम आमूल परिवर्तन कर दिया। किसी ने उससे पहले ‘घीसू-माधो’ की कहानी नहीं लिखी थी। हलाकू या इस तरह के जो चरित्र हैं वह पहले आए ही नहीं थे और बहुत से लोग कहते थे कि ये कोई साहित्य के पात्र थोड़े हैं? क्योंकि साहित्य का मतलब पहले शुभ समझा जाता था। अब शुभ-कल्याणकारी क्या चीज़ है? ये भी कोई साफ चीज़ नहीं है। आखिर शुभ और कल्याणकारी किसके लिए है? प्रेमचंद ने ऐसे प्रश्न उठा दिए साहित्य के, कि
साहित्य की धारा एकदम से बदल गयी। प्रेमचंद ने मध्यमवर्गीय बहुत
कम लिखा है। लेकिन उन स्थितियों को कि किस तरह किसान मजदूर बन जाता है, इन सारी समस्याओं को अपनी
कहानियों का विषय बनाया है। ‘पूस की रात’ में किसान का सब
कुछ खतम हो जाता है और वह मजदूर बनने की स्थिति में आ जाता है। ऐसी स्थितियाँ अनेक हैं। दूसरी बात ये है कि पुरोहितवाद जैसी समस्याओं पर अटैक किया है उन्होंने। तो ये सारी चीज़ें थीं। एक व्यापक दृष्टि थी उनकी। साहित्य के साथ-साथ समाज के सम्बन्ध
में भी। इसलिए उन्होंने जब धारा को चेंज कर दिया तो कथा साहित्य में भी एक परिवर्तन
होना स्वाभाविक था। लेकिन ये मेरा अपना खयाल है कि हो सकता है कि इससे मतभेद हो आपका। ये है कि अज्ञेय जी, जैनेन्द्र जी, इलाचन्द्र जोशी या दूसरे लोग भी जो हैं, मैंने उनका साहित्य पढ़ा
है। और मेरे मन में सबके लिए सम्मान था। अज्ञेय की ‘शेखर एक जीवनी’ पढ़ लिया था मैंने उसी आन्दोलन के समय, जब गाँव में घूमते हुए मिल जाती थीं किताबें। जैनेंद्र कुमार का ‘त्यागपत्र’ भी पढ़ लिया था। ‘सन्यासी’ पढ़ लिया था इलाचन्द्र जोशी जी का। इन सारे ट्रेंड्स का मुझे पता
था। उस समय भावुकता का समय
था। उस समय हिन्दी
के एक छोटे-मोटे लेखक का भी बड़ा
सम्मान था। हमारे यहाँ मंजुल जी और सुन्दर जी दो जुड़वा भाई थे, कवि थे छोटे-छोटे, लेकिन उत्साही थे राष्ट्र के प्रति और कविताएँ लिखते थे। तो सबके प्रति लोगों में बड़ा सम्मान था कि कवि हैं।
हिमांशु रंजन- अमरकान्त
जी जब नई कहानी के दौर के आप जैसे लेखक आए उस समय कविता में तो स्पष्ट विभाजन था।
प्रगतिवाद, प्रयोगवाद इस तरह के संघर्ष चला करते थे।
कथा साहित्य में ऐसा प्रगतिवाद, प्रयोगवाद जैसा विभाजन नहीं था। फिर
भी आप प्रगतिशील वामपंथ के प्रतिबद्ध लेखक माने जाते रहे हैं और रहे हैं। प्रगतिशील आन्दोलन योगदान के बारे में, एक भागीदार के रूप
में आप क्या सोचते हैं? खासतौर से विचारधारा और वर्गदृष्टि के प्रश्नों पर आपने अपने
रचनात्मक सरोकार कैसे निर्धारित किये?
अमरकान्त - भई देखिए! खाली
प्रगतिशील धारा ही नहीं बल्कि और भी धाराएँ जो पहले थीं प्रेमचंद के बाद और आज़ादी
के पहले, जैसे यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, ये सारी धाराएँ जिसमें केवल मैं केवल कथा का नाम ले रहा हूँ, मेरा खयाल है कि ये दोनो जो
प्रगतिवादी धारा थी या और दूसरी अन्य जो धाराएँ थीं उस समय, वह एक भावुकताग्रस्त थीं। आप यूँ कह लीजिए कि व्यक्तिवादी भावुकता और प्रगतिवादी भावुकता, दोनो में ही थी। जैसे उस समय हम लोग जब आए, उससे
पहले प्रगतिवादी जो धारा थी, उसमें इतना आक्रोश और जल्दबाजी थी कि वे अन्तिम परिणाम
पर जल्दी पहुँच जाते थे। जैसे लाल सबेरा हो गया। साहित्य में कुछ नहीं है लेकिन
लाल सबेरा हो गया तो उस समय बहुत क्रान्तिकारी चीज़ हो गयी। उस समय का ये भी था कि आलोचना लिखी जा रही है, ‘जैसे कि स्टालिन ने कहा था’, ‘जैसे कि लेनिन ने कहा था’ इस तरह के उद्धरण दिये जाते थे। दूसरी धारा जो थी, वह थी फ्राएड की। दूसरा ये कि यशपाल जी की ही रचना देखिए, उस तरह के रिजल्ट के लिए, जो है। हालाँकि उन्होंने बहुत अच्छी
कहानियाँ लिखी हैं, जैनेन्द्र जी ने बहुत अच्छी कहानियाँ लिखी हैं, लेकिन ये बात नहीं है कि अच्छी नहीं लिखीं। लेकिन ये साहित्य जो था, पहले का जो है दिनकर जी तो ठीक है, वह राष्ट्रीयता में लिखते थे, वह इस तरह से नहीं है। लेकिन इस तरह की जो धाराएँ थीं, प्रगतिवादी और व्यक्तिवादी दोनो
भावुकतापूर्ण थीं। परिणाम जो साहित्य मे होना चाहिए, वह संकेतों द्वारा, पुरसंघर्षों द्वारा या जीवन के अन्तर्विरोधों द्वारा आप अगर परिणाम देना चाहें तो दे सकते हैं, नहीं
भी दे सकते हैं। एक जगह पर छोड़ सकते हैं कि पढ़ने वाला सोचे कि क्या है? लेकिन बीच का अन्तर्विरोध नहीं
है। हर व्यक्ति और समाज में अन्तर्विरोध
है। जो हम चाहते हैं वही नहीं हैं हम। जो दिखाते हैं वही नहीं हैं, या समाज जो प्रगति कर पाता है या होना चाहिए वह नहीं है उतना। उसमें अन्तर्विरोध है। ये सारी चीज़ें अगर आप नहीं दिखाएँगे, तो वह साहित्य में उस तरह से नहीं था। इस तरह से प्रेमचंद दिखा चुके थे। शुरू की कहानियों में तो नहीं, बाद की कहानियों में प्रेमचंद भी सुधारवादी थे। अनेक सुधारवादी कहानियाँ लिखी उन्होंने। वह एकदम से बहुत अच्छी कहानियाँ भी नहीं हैं। लेकिन 20-25 उनकी सुपर
कहानियाँ हैं। उसी से आपकी कीमत समझी जाती है। उसी तरह से जैनेन्द्र ने भी
लिखा है. ‘त्यागपत्र’ उनका उपन्यास है, क्या बात है! लेकिन वही धारा है। हालाँकि, जैनेन्द्र जी की भाषा बड़ी जबर्दस्त है। बहुत छोटे में और बड़ा विस्तार
है उनका। लेकिन यहाँ हम लोगों ने जब लिखना शुरू किया तो ये तो ये प्रॉब्लम था कि आज़ादी मिल गयी है, अब सारा समाज सामने है। जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था, ऐसे अनेक लोग दूसरे रास्ते पर
जा रहे हैं। राष्ट्र में जो अन्तर्विरोध है वह पूरा सामने नज़र आने लगा। और समाज में और फिर साहित्य में भी वह नज़र आने लगा। हमारी भावना यह थी कि हम भीतर के अन्तर्विरोध भी दें। और उन शक्तियों को जो कि समाज को आगे ले जाएँ, उनको मजबूत करें, या कुछ करें। लेकिन इस प्रगतिशील कहानियों के अन्दर भी जिसे ‘नई कहानियाँ’ कहते हैं, आगे चल कर
उसमें अन्तर्विरोध आपस के, देखिए! वैचारिक चीज़! अब उसमें ये हुआ कि शहर की कहानी और गाँव की कहानी! अब ये
दो बड़ी बहस चली, इसी में। शहर की कहानियाँ और गाँव की ये इसी इलाहाबाद शहर में थीं। इन पर बड़ी जबर्दस्त बहसें होती
थीं जिसमें नामवर सिंह, मोहन राकेश और बहुत से लोग शामिल होते थे।
मुरलीधर - आप ही को
कस्बे का कहानीकार कहा गया?
अमरकान्त - हमारे बारे में तो
बहुत सी चीज़ें कही गयीं। हमको सब कहते थे कि आप तो भूख की बहुत लिखते हैं। मैंने ‘दोपहर का भोजन’ लिख दिया था, तो भूख की कहानी! नया लेखक है
तो कहा जाता है लेकिन ये चीज़ें जो हैं कि गाँव की कहानी, शहर की कहानी। मोहन राकेश और कमलेश्वर एक साथ
नज़र आए शहर की कहानियों के पक्ष में। और मार्कण्डेय और भैरव प्रसाद गुप्त वगैरह सब गाँव की कहानियों के साथ थे। हम लोग बीच में बचे तो हम लोग गायब ही हो गए एक तरह से। तो ये जो है, सब चीज़ें बहसों में ही चलती थीं। डेमॉक्रेटिक तरीके से चलती थीं। कोई विरोध नहीं था, सब साथी ही
थे। अब खासतौर से प्रगतिशील खेमे से जो
जुड़े थे वह मार्कण्डेय थे, भैरव प्रसाद, शेखर जोशी, मैं, कमलेश्वर, इस तरह से लोग थे। लेकिन कमलेश्वर उधर शहर में चले गए। हालाँकि एक साहित्य सम्मेलन में उन्होंने कहा कि मैं कस्बे का हूँ। मैंने कभी नहीं कहा कि मैं क्या हूँ और क्या नहीं। लोगों ने कहा कि मध्यमवर्गीय
प्रवृत्तियों का लेखक है, वगैरा-वगैरा। आपका मध्यमवर्गीय परिवेश और अनुभव
है तो आप वही लिखते हैं। सवाल यह है कि किस दृष्टि से लिखते हैं आप? एक तो मध्यमवर्गीय कुंठाएँ हैं आप उसको पुष्ट करें। दूसरे ये है कि मध्यम वर्ग की आलोचना करके आप उसे आम जनता से जोड़ें। ये दो चीज़ें होती हैं। इसमें भी फ़र्क है कि मध्यमवर्गीय क्या है या निम्न मध्यमवर्गीय क्या है? तो उसके लेखन की दृष्टि यही है कि या तो मध्यम वर्ग का जो कैरेक्टर है, उसकी जो मूल कमजोरी समझी जाती है उसको आप पुष्ट करें। नहीं तो मध्यम वर्ग में बहुत
अच्छाइयाँ भी हैं। यह आन्दोलनों का आगे बढ़
कर नेतृत्व भी करता है। तो ये है कि उन कमज़ोरियों को भी मजबूत करके दिखाएँ। तो आपका जुड़ाव दूसरी जगह हो
जाता है। आप हमारी कहानी पढ़िए, हमने मध्यम वर्ग को कभी पुष्ट नहीं किया। यहाँ मध्यम वर्ग में भी मतभेद
है लोगों के। आपका अनुभव नहीं है किसान और मजदूर का तो आप जबरदस्ती क्यों लिखेंगे, बताइए? हाँ! जहाँ आपका अनुभव है वहाँ लिखिए। ऐसा नहीं है कि मैंने गाँव का नहीं लिखा है। लेकिन ये है कि मैंने उस पर जोर इसलिए नहीं दिया कि मैंने बचपन में ही गाँव छोड़ दिया था और कस्बे में आ गया था। वह कस्बा, बलिया गाँव ही टाइप का है। ‘डिप्टी कलक्टरी’ या ‘ज़िंदगी और जोंक’ वगैरा जो कहानियाँ हैं, उसमें क्या है? गाँव का ही पिछड़ा आदमी शहर में
आ कर भुगत रहा है। खैर, ये बहस होती है और हुई। ये हुआ कि कौन नई कहानियाँ हैं? तो नामवर सिंह ने कह दिया कि ‘परिंदे’ नई कहानियाँ है।
मुरलीधर - ‘परिंदे’
का ज़िक्र हम फिर करेंगे! लेकिन अभी जो चर्चा चल रही थी कि अधिकतर ये आरोप भी लगता है नई कहानी के लेखकों पर
कि निम्न मध्यम वर्ग और खास तौर से वह नगर की कहानियाँ वह कहते रहे हैं।
आपको ऐसा नहीं लगता कि ये जो प्रवृत्ति है नगर की कहानियाँ कहने
की या नगर के निम्न मध्यम वर्ग की कहानियाँ कहने की, इससे वृहत्तर भारतीय
समाज कहीं ना कहीं उपेक्षित या विखण्डित हुआ है?
अमरकान्त – दरअसल यह आपके अनुभव
और परिवेश, जिससे आप परिचित हैं, उस पर लिखने का सवाल है। आप किस दृष्टि से लिखते हैं ये
अहम सवाल है। आप शहर पर भी लिख सकते हैं, एक बृहत्तर परिवेश पर भी लिख सकते हैं। बहुत लोगों ने लिखा भी है। लेकिन इस तरह का प्रश्न जो है, ये कोई उठाने का तुक नहीं है। आप ग़ाँव की कहानी लिखें और वह
प्रभावहीन हो तो आप इसे क्या कहेंगे। मान लीजिए कि आपका अनुभव नहीं
है तो आप वहाँ जाइए और अध्ययन कीजिए। हिन्दी का कथाकार बहुत अभावों
में जीता है। उसकी ऐसी स्थिति नहीं रहती कि वह कई चीज़ों को छोड़ कर, नौकरी छोड़ कर चला जाय वहाँ और
ये करे। यह एक बहुत बड़ा ड्राबैक है। इस ड्राबैक को फेस करते हुए जब
एक लेखक लिख रहा है तो किस दृष्टि से लिख रहा है, ये इम्पॉर्टेंट है। दृष्टि से मतलब है आम आदमी से जुड़ा हुआ, मानवता से जुड़ा हुआ।
हिमांशु रंजन – राम विलास जी ने अपने एक इंटरव्यू में बहुत जोर दे कर कहा
है, कि हम मध्यमवर्गीय लेखकों को भी ये लगातार कोशिश करनी चाहिए
कि किसान-मजदूर के जीवन को प्रमुखता से चित्रित करें।
इसमें वह अपनी जगह हैं। लेकिन ये जो आप कह रहे हैं या आपका मानना है कि सर्वहारा दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है हम किसी भी मध्यवर्गीय विषयवस्तु
को किस दृष्टिकोण से लिखते हैं। लेकिन
सीधी दखलंदाजी उन जीवनानुभवों की नहीं हुई तब ये दृष्टिकोण भी संकुचित होता जाएगा, हमारे खयाल से?
मुरलीधर- यथार्थ का एक बहुत बड़ा हिस्सा इससे उपेक्षित नहीं रह जाता क्या? जो भारतीय जीवन है, जनता के जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा छूट जाता है अगर निम्न मध्यमवर्गीय या नगरीय मध्यमवर्गीय कहानियाँ ही कही जाँय? लेकिन व्यावहारिक कठिनाइयाँ तो हैं हीं।
अमरकान्त - देखिए! उस पर लिखना
जो है, लिख सकता है आदमी। जन्म लेना वगैरा जो उपन्यास लिखा
गया है, योरप में। उसमें जा कर अध्ययन किया गया
कोयले के खान में और इसमें....
हिमांशु रंजन - अपने यहाँ अमृत लाल नागर जी ने बहुत काम किये हैं इस तरह के।
अमरकान्त - अमृतलाल नागर एक बहुत बड़े
कथाकार थे। ‘बूँद और समुद्र’ में जो बहुत ही जबर्दस्त
कैरेक्टर है उनका, लेकिन मानववाद पर जो अन्त किया है, सज्जन कुमार या क्या नाम था उस कैरेक्टर का, वह कनविंसिंग नहीं लगता है, बल्कि थोपा हुआ लगता है, वह मुझे। उसी तरह से सूरदास भी है। ये उनकी काल्पनिक दृष्टि है। सूरदास के प्रति उनकी श्रद्धा की
भावना, वगैरा-वगैरा। ये सब उन्होंने ‘मानस के हंस’, फलान-ठेकान
लिखा है। उनका सशक्त उपन्यास तो वही है, ‘बूँद और समुद्र’! वह इसलिए कि उन्होंने शहर के
गलियों की जो भाषा है, ताई कैरेक्टर में, वह तो जबरदस्त है। बहुत अच्छा कैरेक्टर है वह। लेकिन वह बहुत डेडिकेटेट लेखक थे। बहुत ही मेहनत करके लिखते थे। उनका अनुभव नहीं था लेकिन वह जा-जा कर उन चीज़ों को करीब से देखते थे। ये बहुत से लेखक करते हैं। यशपाल जी का सारा ये सब ’झूठा-सच’ क्या है? क्या वह गए थे वहाँ पर? क्या वह थे वहाँ? जितने शरणार्थी हैं या किस्सा या कहानियाँ सुन
कर उन्होंने लिखा है। और इतना अच्छा उपन्यास भी लिखा है। लोगों ने बहुत क्रिटिसाइज भी
किया है लेकिन बहुत अच्छा उपन्यास है यह। खासतौर से हिन्दू-मुस्लिम
प्रॉब्लम का उन्होंने शुरू में जो वर्णन किया है, उनका अनुभव बहुत ही पठनीय है। बाद में दूसरा हिस्सा जो है, जब शरणार्थी आते हैं तो उसमें सरकार विरोधी कुछ चीज़ें हैं। ये कुछ जमा नहीं लेकिन शुरू में जो पहला हिस्सा है, ‘झूठा सच’ का वह बहुत अच्छा है। यशपाल जी यही करते थे। वह अध्ययन कर के ही लिखते थे। यशपाल जी क्रान्तिकारी रहे, जेलों में रहे। उनको इतना मौका नहीं मिला, लेकिन वह दूसरों से सुन कर, कहानियाँ सुन कर.... अपने-अपने
तरीके से सभी लेखक ऐसा करते हैं। वह दूसरे से सुन
कर भी करता है। लेकिन वह अपने अनुभव-परिवेश
में करता है। अपने अनुभव की चीज़ जो आप चाहते हैं देना, अगर आप जा सकें मजदूरों के यहाँ तो ये बहुत अच्छा है। आप गाँव में जा सकें तो बहुत
अच्छा है। बहुत से लोग करते हैं। लेकिन आप बहुत से गाँव की कहानियाँ पढ़िए, वह प्रभावहीन हैं। कोई इम्पैक्ट जैसे रेणू ने जो
छोड़ा, अब आप इम्पैक्ट को लीजिए, आजादी के बाद रेणू का उपन्यास
एक दस्तावेज है। और जिस तरह का इम्पैक्ट है उसका, जिस तरह से लिखा गया है, हालांकि, सतीनाथ भादुड़ी के स्टाइल की नकल की है, अनुसरण किया है। देख लीजिए आप। पढ़िए आप, सतीनाथ भादुड़ी का। एकदम उसी स्टाइल में। लेकिन उससे क्या है? स्टाइल से नहीं मैटर से मतलब है, इतना अच्छा चित्रण है कि पहले
मुझको बलिया में मिला था 56-57 में पढ़्ने को और ऊपर कवर-वभर कुछ नहीं था। उसकी एक प्रति मिली थी। मैं लेखक से परिचित नहीं था लेकिन
मैंने इतना इंज्वाय किया मैंने वहाँ पढ़ के। मैं अपना पहला इम्प्रेशन बता
रहा हूँ। मैंने देखा यहाँ इलाहाबाद में पूछने वाला नहीं कोई उसको।
हिमांशु रंजन - हाँ, ‘मैला आँचल’ बहुत बाद में यहाँ पर चर्चित हुआ।
अमरकान्त - प्रगतिशील और परिमल वाले दोनो
एंटी थे उसके। मैला आँचल! कुछ तो भाषा की वजह से। भाषा तो पश्चिम वालों को या
किसी को बहुत समझ में नहीं आती। अब हम लोग अधिक जानते हैं। यानी कुछ अधिक समझ में आता था। आजादी के बाद का और बीच के पीरियड
का जो संक्रमण काल है उसका बड़ा ही अद्भुत चित्रण है। लिखा बहुत लोगों ने, लेकिन उस तरह का गाँव का चित्रण
नहीं मिलता। आप गाँव पर लिखिए। कहीं पर भी लिखिए अगर आप प्रभावशाली लिखेंगे, तो
उस तरह से देखना चाहिए। आप उस ऐंगल से देखेंगे कि प्रेमचंद ने लिखा है
तो आप भी प्रेमचंद बनिए। प्रेमचंद बनना कोई आसान काम तो है नहीं।
हिमांशु रंजन - आसान नहीं है और जरूरी भी नहीं है।
अमरकान्त - जरूरी भी नहीं है। जैसे प्रेमचंद का ‘कफन’ है, ‘पूस की रात’
है इस तरह की कहानियाँ जो हैं, ‘सदगति’ है। एक बिम्ब का रूपान्तरण है ये। लेखक एक बिम्ब के रूप में
सोचता है फिर उसका रूपान्तरण करता है अपने विधा के अनुसार। तो प्रेमचंद की सशक्त कहानियाँ इसलिए हैं कि ये बिम्बात्मक अवधारणा है जो उन्होंने
लिखा है। बहुत लोगों ने ‘कफन’ को कहा है कि ये अमानवीयता है। लेकिन वह बहुत बड़ा आक्रोश और
भंगिमा है, इस समाज व्यवस्था के खिलाफ। इस तरह से अच्छे लोगों ने नहीं देखा है। अलग-अलग तरह की व्याख्या की है। ये आपके समझने पर भी डिपेंड करता है कि आप क्या समझते हैं? ये भी है कि आलोचना क्या करती
है। लेखन जो है, वह रोशनी की
कौंध भर है। जिस तरह रैक्शन के द्वारा सातों रंग देखे जाते हैं, विरले आलोचक होते हैं जो सातों रंग देख सकते हैं। कोई कुछ रंग देखता है, कोई कुछ। बड़ा मुश्किल है कि पूरे रंग देख लिया जाय। इस पर भी डिपेंड करता है कि साहित्य को समझने की आपकी क्या दृष्टि है? किस तरह से व्याख्या करते हैं? आलोचक या जो भी कहता है, वह खुद
उस परिवेश से कितना जुड़ा है? कितना सहृदय है? कितनी व्यापक दृष्टि है? ये सारी चीज़ें डिपेंड करती हैं? प्रेमचंद की व्याख्या करके उसकी
और भी आलोचना होनी चाहिए। अभी तक अच्छी आलोचना लिखी कहाँ गई है उनकी? उनकी और भी अच्छी आलोचना लिखी जा सकती है। और लिखी जाएगी आगे चल कर, हमारा खयाल है। साहित्य कोई फाइनल चीज़ तो है नहीं।
मुरलीधर - उसके पुनर्पाठ होते ही रहेंगे।
अमरकान्त - हमेशा होते हैं और
जमाना बदलता है। आगे आने वाले जमाने के साथ संगत बैठा लें और उसमें
नई व्याख्या प्राप्त करें, वह रचनाएँ हैं! प्रेमचंद की ऐसी रचनाएँ हैं। बहुत से और रचनाकार हैं जिनकी
रचनाएँ उस तरह की हैं। जैसे जैनेन्द्र जी का ‘त्यागपत्र’
है, क्या बात है? यशपाल जी की ‘परदा’ कहानी! या
और भी उपन्यास या बहुत सी चीज़ें। तो आप नहीं कह सकते कि ये लेखक
ऐसा है और वह लेखक वैसा है। ये सब आलोचक और बहसों का मामला है। तो ठीक है, बहस होना चाहिए। बहुत सी चीज़ें साफ होती हैं।
मुरलीधर- क्या अपने आपको नई कहानी आन्दोलन का लेखक मानते हैं?
अमरकान्त- हमारा अपना ये मानना है कि आन्दोलन शुरू होता है। जैसे ‘समान्तर आन्दोलन।‘ पहले ‘समान्तर’ नाम दिया फिर आन्दोलन शुरू हुआ इस तरह का। होता यही है कि कुछ लोग मिलें, कुछ स्थापनाएँ करें। कुछ अपनी आइडियोलॉजी घोषित करें। उसके आधार पर आन्दोलन चले। जैसे ‘सचेतन कहानी’ का आन्दोलन जिसे महेश सिंह और रामदरश मिश्र ने चलाया। हालांकि बहुत नहीं चला वह आन्दोलन। ‘नयी कहानी आन्दोलन’ नाम बाद में दिया गया। उसके प्रवर्तक तीन आदमी रखे गये राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर। क्योंकि उन्होंने ही इसकी व्याख्या नए तरह से की। इस तरह से बहस हुई नई कहानी की। नामवर सिंह ने कहा कि ‘परिंदे’ नई कहानी है और इन लोगों की कहानियाँ कुछ नहीं हैं, इस तरह की बहस हो रही थी। गाँव और शहर की कहानी के बहस में ही ये बात आयी। उन लोगों ने व्याख्या की और वही प्रचलित हो गयी। आप कहीं भी पढ़िएगा आलोचना के इतिहास में तो ये आएगा कि नई कहानी जैसा कि कमलेश्वर ने कहा, राजेन्द्र यादव ने कहा या मोहन राकेश ने कहा। तो ये चीज़ें हैं। जैसे ‘नई कहानी’ का नाम दिया गया है उसी तरह से ‘नई कविता’ का नाम दिया गया।
हिमांशु
रंजन – उसी तर्ज पर एक तरह से दिया गया था।
अमरकान्त - उस तरह से नहीं आयी, क्योंकि उतने मतभेद न उठते बाद में। उसके पीछे ये आइडियोलॉजी जरूर थी कि वह भावुकता के क्षण बीत चुके हैं और अब नयी स्थितियाँ हैं जिससे कि हम अपनी अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनो देख रहे हैं और उसका जायजा लेना साहित्य में जरूरी है, अधिक से अधिक। हालाँकि साठ की पीढ़ी ने नई कहानियों पर भी भावुकता का आरोप लगाया। ये एक वास्तविक समस्या थी आजादी के बाद। क्योंकि बड़ा डिफरेंस हो गया पहले के एटीट्यूड में और आज के एटीट्यूड में। जमाना बदलता है तो एटीट्यूड बदलते ही हैं। खासतौर से प्रगतिवादी साहित्य। हम लोग जो साहित्य लिख रहे थे, हमारे सामने प्रगतिवादी साहित्य था क्योंकि हम लोग प्रगतिशील लेखक संघ में थे। प्रगतिशील लेखक संघ में जो बहसें होती थीं अगर आप देखते तो कहते। कहानी मैंने एक लिखी थी थोड़ी भावुकता वाली ही थी, ‘कम्युनिस्ट’ और यहाँ पर बहस हुई। वहाँ तो बहुत प्रशंसित थी, आगरा में। लेकिन यहाँ जो बहुत बड़ी मीटिंग में बहस हुई उसमें बड़ी आलोचना हुई। ‘डागमैटिज्म’ और इस तरह के कई आरोप लगे।
मुरलीधर- लेकिन रामविलास जी ने आपका काफी बचाव किया था उस कहानी पर।
अमरकान्त – वह तो वहाँ आगरा की बात थी, यहाँ की बात कहाँ है? बाद में रामविलास जी हमसे दूर होते गए और वह सम्पर्क नहीं रहा। लेकिन वहाँ उन्होंने प्रशंसा की थी। और उनके भाई रामशरण मुंसी वॉल पेपर अपने यहाँ रखते थे। उनकी ससुराल बहुत धनी ससुराल है। वहीं रुकते थे। उन्होंने ‘कम्युनिस्ट’ कहानी अपने यहाँ वॉल पर लगायी थी और पन्द्रह बीस दिन तक डिस्कसन चला। जो आता था उसको पढ़ायी जाती थी। बड़ी रूचि वाले लोग थे वह लोग। बड़ा काम किया है उन लोगों ने साहित्य और सांस्कृतिक क्षेत्र में। जब बंगाल का अकाल पड़ा था सन ४३ में तो उसमें प्रगतिशील लेखक संघ का एक प्रतिनिधिमंडल गया था वहाँ, जिसमें रांगेय राघव भी थे।
रांगेय राघव ने बड़े अच्छे रिपोर्ताज लिखे हैं बंगाल के अकाल पर। ‘विशाल
भारत’ में निकले थे ये रिपोर्ताज। लोग मर रहे थे कलकत्ता की सड़कों पर। जितने सेकेण्ड
वर्ल्ड वॉर में लोग मरे उससे अधिक बंगाल के अकाल में मर गए। ये होर्डिंग, ब्रिटिश सरकार और सेठ, सब होर्डिंग कर रहे थे अनाज की, और अन्न पहुँचाए नहीं
गए। आज़ाद होने में और गुलाम रहने में ये फ़र्क है। आज अगर कहीं भूखमरी
होती है तो वहाँ अनाज पहुँच जाता है एक जगह से दूसरी जगह। बाहर से भी आयात करते हैं।
ये ब्रिटिश सरकार उस समय इतनी पावरफुल थी कि मरने दिया इतने लोगों को? तीस लाख से ऊपर
लोग मरे वहाँ पर देखते-देखते। और यहाँ हो रहा था यज्ञ विश्व शान्ति के लिए। हमको याद है सब क्योंकि
उस समय मैं बड़ा था और इसे देखा और अनुभव किया था। हमीं नहीं, हमारे जितने साथी
थे आन्दोलनकारी, वह सभी गुस्से में थे। तो साहित्य में तो बहसें तो होती ही रहनी चाहिए।
मुरलीधर
– क्या एक लेखक के लिये राजनीतिक प्रतिबद्धता अपरिहार्य है और क्या
खासतौर से वामपंथी या मार्क्सवादी प्रतिबद्धता ही अपरिहार्य है?
अमरकान्त- ये तो कहीं लिखा नहीं है कि एक लेखक के लिए राजनीतिक प्रतिबद्धता अपरिहार्य है। और खासतौर से वामपन्थी या मार्क्सवादी प्रतिबद्धता ही अपरिहार्य है। ये तो आपकी फ्री विल पर है। आप लेखक हैं। आप एक स्वतन्त्र देश में रहते हैं। एक जनतान्त्रिक समाज में रहते हैं। अगर आप रहते हैं तो। आप कुछ भी रखिए। और भी दूसरे लोग दूसरी पार्टी में प्रतिबद्धता रखते हैं।
मुरलीधर – जब मैंने कहा वामपन्थी या मार्क्सवादी प्रतिबद्धता तो सिर्फ एक राजनीतिक दल नहीं था मेरे मन में। वह जो एक सामाजिक विचार है वह एक जो वर्गीय अवधारणा है। तो क्या और कोई ऐसी राजनीतिक अवधारणा या राजनीतिक विचार है जिससे एक लेखक प्रतिश्रुत हो सके? एक प्रतिज्ञा क्या कोई भी और विचार देता है?
अमरकान्त – प्रतिबद्धता
का ये मतलब नहीं कि आप अपने को प्रतिबद्ध कहें और मान लिया जाय कि आप प्रतिबद्ध हैं। प्रतिबद्धता के
लिए कुछ शर्तें हैं, कुछ काम करना होता है। किसी भी सिद्धान्त
का सबसे न्यायपूर्ण प्रयोग तब होता है जब आप उसे व्यवहार में लाते
हैं। आप कहिए कि मैं मार्क्सवादी हूँ, सोशलिस्ट हूँ या कांग्रेसी हूँ या कुछ भी कहिए। अगर आप उन सिद्धान्तों को व्यवहार में नहीं लाते, उन पर खुद
आचरण नहीं करते तो वह एक क्राइसिस है। आजकल हमारे राजनीति में ये क्राइसिस बहुत बड़ी है। मार्क्सवादी
पार्टियों और भी दूसरी पार्टियों का प्रभाव इतना क्षीण क्यों होता जा रहा है, या हो गया है? किसका प्रभाव बढ़
रहा है? कहाँ फेल हैं सब?
मुरलीधर – विचार और काम में जो फांक पड़ गयी है।
अमरकान्त – यह हमेशा
एक समस्या रहती है कि विचार के अनुरूप आप आचरण कर पाते हैं कि नहीं? उसको स्वयं इंप्लिमेंट करते हैं कि नहीं और
करवा सकते हैं कि नहीं? जैसा कि गाँधी जी ने कहा था कि लोकसेवक समाज के रूप में इस कांग्रेस को रूपान्तरित कर दीजिए। उसका मतलब था कि आप गाँवों में
जा कर काम कीजिए। लोगों की सेवा करिए, उनके दुःख-सुख में भाग लीजिए। इसके लिए
जरूरी है कि आप प्रशिक्षित हों, हर इशू पर। जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है तो जनसंख्या बढ़ने से रोकने के फ्रंट
पर आप कितना काम कर रहे हैं? जातिवाद बहुत खराब
है तो उसको रोकने के लिए आप क्या कर रहे हैं? गाँधी जी का आन्दोलन तो अहिंसा पर था। आप देखिए कि हिंसा कितनी बढ़ी जा रही है। हर
जगह बम, पिस्तौल और ये सब कुछ क्यों हो रहा है? इसके लिए आप क्या कर
रहे हैं? आप राजधानी से घोषणा तो कर रहे हैं, लेकिन उसका व्यवहार में
चरितार्थ होना जरूरी है। चाहे वह मार्क्सवादी हो या कोई भी हो, दोनों मानते हैं कि
विचार और व्यवहार में समानता होनी चाहिए। तालमेल होना चाहिए। हमारे यहाँ की परम्परा में राजनीति को तो सेवा का ही माध्यम समझा
जाता है। राजनीति के द्वारा सेवक होना चाहिए ना कि शासक होना चाहिए।
इतनी तनख्वाह बढ़ती जा रही है लोगों की। ये नहीं जानते कि आपके आम आदमी, आपके लेखक और बहुत से लोग किस तरह से
रहते हैं? कुछ पता है? लेखक तो अपना दर्द
तो नहीं कहने जाता। ये एक बहुत बड़ी समस्या है। इससे यहाँ असंगति पैदा हो जाती है अगर ये चीज़ें नहीं रहती हैं तो।
हिटलर भी आया तो उसने उसे चरितार्थ भी किया। (हँसते हुए) उसका सिद्धान्त क्या था? मारा, तबाह कर दिया यहूदियों को। वह भी सिद्धान्त है उसका, नाजीज़्म, फासीज्म ये क्या है?
हिमांशु रंजन – साठ के दशक के शुरुआत से ही आज़ादी के प्रति मोहभंग की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जो कि भारत-चीन युद्ध और फिर नक्सलवाड़ी तक आते-आते और गहरी हो जाती है। आपकी ‘हत्यारे’ कहानी को इस सन्दर्भ में, आलोचकों ने चिन्हित भी किया है। इस पूरी परिघटना पर थोड़ी रौशनी डालें। इस संक्रमण से साठोत्तरी के तार भी जुड़े हुए हैं। वह लोग भी इस संक्रमण से अपने आप को जोड़ कर देखते हैं कि हम लोग नई कहानी के लोगों से अलग आए। तो इस परवर्ती कथा धारा को लेकर आप क्या सोचते हैं? एक तो ये मोहभंग वाला प्रसंग और दूसरे तो ये कि साठोत्तरी कहानी आती है इसके बाद, वह इसी जमीन पर अपने आप को अलग भी स्थापित करती है या करना चाहती है। आप एक पूर्ववर्ती लेखक के रूप में इस पूरी परिघटना को कैसे देखते हैं?
अमरकान्त – मैं तो इस रूप में अपने आप को नहीं देखता कि मैं नयी कहानी का पीरियड का एक कहानीकार हूँ। मैं अपने को इस तरह से नहीं देखता कि मैं उस पीढ़ी को नहीं रिप्रेजेंट करता हूँ या इस पीढ़ी को रिप्रेजेंट करता हूँ। स्थितियाँ जो समाज की बदलती रही हैं, सामाजिक स्थितियाँ या राजनैतिक स्थितियाँ, उसमें नक्सलवाड़ी से मतलब क्या है आपका? साठोत्तरी कहानियाँ तो नक्सलवाड़ी कहानियाँ हैं नहीं!
हिमांशु रंजन – नहीं, नक्सलवाड़ी, ऐतिहासिक रूप से एक घटना हुई। जैसे भारत-चीन युद्ध हुआ तो एक सामाजिक राजनैतिक घटनाओं के रूप में मैंने उसका जिक्र किया। सोचने का और लेखकीय मानस का नज़रिया बदला या नए आन्दोलन की जरूरत महसूस हुई होगी, जैसा कि वह लोग कहते हैं कि नई कहानी वाले बड़े भावुक थे। वे नेहरूवादी आदर्श में पगे हुए थे। हम लोग उस मोहभंग को रिप्रेजेंट करते हैं।
अमरकान्त – वह जो रोमांस
की स्थितियाँ थीं संक्रमण काल में, पहले से ही शुरू हो गयीं थीं। फिर छायावादी
काव्य वगैरा जो आया,
वह रोमानी प्रवृत्तियाँ ही
थीं। उसका इंटरप्रेटेशन ही था वह जिसमें रहस्यवाद और उसका पक्ष उठाया
गया था। तो ये चीज़ें आगे बढ़ती रहीं और राष्ट्र अपने को रिवील जो करता है, हमेशा आगे चल के, वह परिपक्वता से, तर्क से और कार्य से। इन तीनों के तालमेल से राष्ट्र अपने को उद्घाटित करता है, अपने को अभिव्यक्त
करता है। तो हिन्दुस्तान जिस तरह से बदल रहा है। यहाँ बड़ी गरीबी, बड़ी जहालत, बड़ी अशिक्षा अब भी
है। राष्ट्र जब आगे बढ़ रहा है तो अपने को अभिव्यक्त करने के लिए छटपटाहट उसमें है। ये सारे
आन्दोलन इसी रूप में देखे जाते हैं। लेकिन सवाल है कि इस तरह के आन्दोलन
जब आप करते हैं तो आप अपने विचारों और एक्शन में किस तरह तालमेल करते हैं? क्योंकि
आपके विचार का जब संगतपूर्ण कार्यान्वयन नहीं हो रहा है तो
आप उग्र हो सकते हैं, इधर-उधर हो सकते हैं। इस तरह से राष्ट्र अपने को अभिव्यक्त करता है। नक्सलवाड़ी आन्दोलन
आया। साहित्य उस तरह से जुड़ा नहीं है। नक्सलवाड़ी आन्दोलन के फलस्वरूप वह आन्दोलन
साहित्यिक आन्दोलन था। ‘जन संस्कृति मंच’ के अन्तर्गत बिहार में तो बहुत
लिखा गया नक्सलवाड़ी आन्दोलन से प्रभावित हो कर। मुझे खूब याद है, यहाँ के भी लेखक खूब लिखे। मदनमोहन और इस तरह से बहुत
से लोग। विजयकांत,
उधर। लेकिन वह लेखन
एक उबाल जैसा था, लेकिन दब गया। वह कोई इम्पैक्ट नहीं छोड़ पाया। जिस तरह से नई
कहानी या साठ की कहानियाँ, ज्ञानरंजन वगैरा ने अपना इम्पैक्ट छोड़ा, ये कहानियाँ अपना वह इम्पैक्ट क्यों
नहीं छोड़ पायीं?
हिमांशु
रंजन ()बीच में टोकते हुए - नहीं, ये जो ज्ञानरंजन वगैरह की कहानियाँ जो हैं
अपनी कहानियों को ये लोग आप लोगों की कहानियों से अलग मानते हैं।
अमरकान्त – देखिए
हर नौजवान पीढ़ी को पूर्वोत्तर पीढ़ी से अलग रखना ही चाहिए और चैलेंज करना ही चाहिए। सब
चैलेंज करते हैं। लेकिन ये है कि आप अपने रचना द्वारा स्थापित हों। अपना एक ट्रेंड परिभाषित करें और कहें कि क्या खास
बात है आपकी कहानियों में। उन्होंने तो वही बातें कहीं जो कि हमने कही थी, लगभग। नक्सलवाड़ी आन्दोलन
का दूसरा है वह। ज्ञानरंजन भी नहीं भी जुड़े हैं और कोई भी नहीं जुड़ा है उससे।
हिमांशु
रंजन – नहीं (टोकते हुए), राजकमल चौधरी वगैरा द्वारा...
अमरकान्त -
कहाँ? वह भी नक्सलवाद से कितना जुड़े थे, क्या थे? एक बार मुझसे मिले थे। उन्होंने कुछ अच्छी चीज़ें जरुर लिखी हैं। यहाँ एक सम्मेलन हुआ था, ‘जन संस्कृति मंच’
का। मैनेजर पाण्डे और बहुत से लोग थे। मैंने उसमें ये कहा कि, रचनाएँ आपके अनुकूल हैं या आपके पार्टी के
लोगों ने लिखी हैं, इस तरह से न देखिए। बल्कि बढ़िया रचनाओं
का चुनाव करिए। आप जब व्यवहार में जनता के पास जाते हैं तो
उन रचनाओं की जो कीमत है, वह जनता को समझाइए। तब जनता ठीक से समझ भी पाएँगी और आपका अपनी पार्टी का काम करने का तरीका
होगा। इसी तरह दूसरी धारा की भी रचनाओं को भी उनके मूल्य
जो हैं, जो अच्छाइयाँ हैं, जैसे
कि शैलेश मटियानी की कुछ अच्छी कहानियाँ हैं। तो आप इन कहानियों को भी ले जा सकते हैं। ले कर आप समझा सकते हैं।
ड्रामा के रूप में पेश कर सकते हैं। साहित्य के प्रति कट्टरता का
या इस तरह की सोच नहीं डेवलप करना चाहिए। साहित्य को इसी रूप में लिखना चाहिए, क्योंकि एक
आदमी सब कुछ नहीं कर सकता है। अपनी पीढ़ी का जो एक आदमी है जितना कर ले जाता है, उसका जो सर्वोत्तम है उसका
आप उपयोग करें। क्योंकि उसने मना नहीं किया है कि हमारा उपयोग न हो। आपके ऊपर
डिपेंड करता है कि आप पंत जी, निराला जी यशपाल जी या जैनेन्द्र जी के साहित्य को कैसे
आप जनता के बीच ले जा सकते हैं क्योंकि वह अधिक समझ लेंगे। क्योंकि जनता जो है, जितना आप समझते हैं उससे
अधिक समझ लेगी जितना कि आप समझाएंगे। तो बड़े रिसेप्टिव और समझने वाले
होते हैं। क्योंकि जिस बात को हम जनता को लम्बे तरीके से समझाएंगे वह एक या
दो वाक्य में समझा देते हैं। उनके मुहावरे ऐसे होते हैं। और आप जो है
पूरा तामझाम कर रहे हैं। इसीलिए मैंने इसे वहाँ कहा था। उसको किसी ने
पसन्द नहीं किया जो मैंने कहा। सवाल ये है कि जब आप तर्कसंगत जनतान्त्रिक एट्टीच्युड
नहीं रखेंगे तो आप आन्दोलन कैसे बिल्ड करेंगे? आप जो इस तरह से कट कर रहेंगे या आप उनको काट देंगे
या आप खुदे कट जाएंगे। आप जिसको उपयोग कर सकते हैं जिनको अपने में ले
सकते हैं उनको लीजिए। पी सी जोशी कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी थे। उनमें
यही खूबी थी। उन्होंने एक डेमोक्रेटिक आन्दोलन बिल्ड किया हर
फ्रंट पर। पीस का फ्रंट था उनका सांस्कृतिक था, संगीतकारों का था
किसान मजदूरों का तो था ही। और दुनिया भर के जो क्षेत्र हैं सबमें अपने
उन्होंने एक डेमोक्रेटिक मूवमेंट अपने जमाने में किया था। ये एक खूबी थी
उनमें। जो कि आजकल लोग नहीं कर पाते। कम्युनिस्ट पार्टी ही नहीं हर पार्टी में ये
होना चाहिए। सवाल है कि आपके मूवमेंट का कांस्ट्रक्टिव चीज़ हर सेक्टर में जाना चाहिए। तब आप एक पूरे
राष्ट्र को व्यक्त करेंगे। लेकिन यह नहीं होता है। तो इसीलिए लेखक के बारे में आपका
एट्टीच्यूड जो है इस तरह के आप निर्णय करें,
ऐसा मेरा खयाल है
कि उचित नहीं है। क्योंकि ये आलोचना का मामला है, पार्टी का मामला है। आप चाहें तो एक पार्टी भी चाहे तो इस्तेमाल उसका कर
सकती है।
मुरलीधर - हम चर्चा करेंगे, दो ऐसे मुद्दों की जो एक लम्बे समय तक बड़ी ही गहराई तक हमारे देश और समाज को मथते रहे हैं. मुद्दे हैं- देश का विभाजन और साम्प्रदायिकता की। अद्भुत बात है कि हिन्दी कथा साहित्य में विभाजन की त्रासदी का चित्रण लगभग सिरे से ग़ायब है। आपकी पीढ़ी के लेखकों ने इतने महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सन्दर्भ की अनदेखी क्यों की? हिन्दी में ‘उदास नस्लें’ सरीखा एक भी मुकम्मल उपन्यास क्यों नहीं है?
अमरकान्त - (हँसते हुए) भई, ये तो बहुत ही दूसरा प्रश्न है। खासतौर से हम लोग जो हैं उससे प्रभावित तो बहुत हैं, पूरे राष्ट्र का विभाजन हुआ, कैसे हुआ, किस तरह से हुआ। मूलत: ये समझना कि विभाजन क्यों हुआ, कैसे हुआ? इस पर कोई व्याख्या बहुत अच्छी नहीं है।
पहले तो वैचारिक धरातल पर ये कि किसने विभाजन किया, क्यों हुआ, कैसे हुआ इसकी व्याख्या मिलती तो है, पर आंशिक रूप से। पूरी तस्वीर, वैचारिक, राजनैतिक रूप से मुझे तो पढ़ने को नहीं मिला है। एक तो इस अवधारणा की बात है। लिखी जा रही हैं किताबें अपने तरीके से। अभी प्रियम्बद ने कोई किताब लिखी है। हमने पढ़ी नहीं है। लेकिन उनका एट्टीच्यूड क्या है ये देखना है। 57 के गदर के बारे में, क्रान्ति के बारे में उन्होंने लिखा है। 1857 के बारे में बहुत लोगों ने लिखा है कि अगर वह जीत जाते हिन्दुस्तानी, तो पहले जैसे ही सामन्तवाद लागू हो जाता। ये सब विभाजन से जुड़े हुए सवाल हैं, प्रकारान्तर से। अंग्रेज जीत गये तो आपको उनकी एक व्यवस्था मिली। वह एक बेहतर व्यवस्था इसलिए थी कि पूँजीवादी समाज आया था, ग्रामीण सामन्तवाद के बाद। सामन्तवाद मे जो चीज़ें थी उससे बेहतर पूँजीवादी समाज में होता है। जैसे पूँजीवादी समाज में व्यक्ति आया। व्यक्ति का ‘व्यक्ति स्वातन्त्र्य’ आया। इसके साथ समता, भाईचारा और इस तरह की चीज़ें आयीं, डेमोक्रेटिक तरीके से। लेकिन ये पूँजीवादी बगावत थी इंडस्ट्रियल रिवहल्यूशन और फ्रेंच रिवहल्यूशन। इसके द्वारा ये चीज़ें आयी हैं। व्यक्ति जब आ गया तो बहुत सी चीज़ें खुल गयीं। व्यक्ति स्वातन्त्र्य हो गया। अब सामन्त नीचे आ गये। अब व्यक्ति कारखानेदार के रूप में लार्ज इंडस्ट्री खोल सकता है। और इतना सम्पत्ति कर लिया कि सामन्त के पास कहाँ से आएगा। वह बहुत ही बड़ा सामन्त हो गया। पूँजीवाद व्यक्ति को लाया। ये चेंज ब्रिटिश सरकार के द्वारा यहाँ पर आया। यहाँ जो कुछ भी आप वैचारिक परिवर्तन देखते हैं, राजा राममोहन राय या और दूसरे लोग, ये एक विचार आया। लेकिन अंग्रेजों की नीयत बहुत खराब थी। शोषण करना, दोहन करना। यही तो करते रहे वह। ठीक है, कुछ तो पढ़ गए। जैसे अम्बेडकर वहीं के पढ़े हैं। गाँधी जी वहीं पढ़े। जवाहरलाल भी पढ़े। ये सब लोग पढ़े। लेकिन सवाल ये है कि साम्राज्यवाद कितना नुकसान कर गया। अब ये देखना चाहिए कि क्या विभाजन अंग्रेजों की दुरभिसन्धि द्वारा हुआ या अपने हिन्दू-मुसलमान के बीच का था? तो क्यों इतना मुसलमान रह गये यहाँ पर? दूसरा ये कि 1867 में ये दोनो मिले हुए थे। अब ये कहना कि हिन्दू मुसलमान दो स्टेट हैं, ये मुस्लिम लीग की थियरी थी कि दो राष्ट्र हैं हिन्दू मुसलमान। पड़ोसी मुसलमान है, उससे हमारे अच्छे सम्बन्ध हैं लेकिन राष्ट्र अलग हैं, ये था नहीं, ये भी मान लिया जाय तो कैसे इसको साल्व करेंगे? पंजाब और बंगाल के कुछ हिस्से उनको दे दिये गये। तो बंगाल भी उनसे अब अलग हो गया। अब ये वैचारिक धरातल पर साफ हुआ। मंटो जैसे डेडिकेटेड आदमी, विभाजन के एकदम खिलाफ थे। उन्होंने कहानियों द्वारा व्यक्त किया है। और भी कहानियाँ लिखी गयी हैं। ‘मलबे का मालिक’ और यशपाल जी ने उपन्यास लिखा है विभाजन के दंगे पर और भीष्म साहनी ने ‘तमस’ लिखा। रामानन्द सागर ने ‘और इंसान मर गया’। तो इस तरह से रचनाएँ हिन्दी में लिखी गयी हैं। लेकिन ये उतनी इफेक्टिव नहीं हैं जितनी कि ‘उदास नस्लें’। ये चीज़ें लिखी तो गयी हैं लेकिन आप यू.पी. के लेखक से ये आशा नहीं कर सकते। ‘उदास नस्लें’ पंजाब मे लिखी गयी है। ये थोड़ा बहुत फर्क करना चाहिए। लिखना जरूर चाहिए लेकिन अनुभव का होना बहुत जरूरी है। वहाँ का अनुभव तो हम लोग नहीं कर सकते। प्रॉब्लम को उठाया है हम लोगों ने, दूसरे तरीके से। लेकिन वह प्रॉब्लम है नहीं। उस तरह से लिखना जो है, वह अब भी लिखा जा सकता है।
हिमांशु रंजन - नहीं, इसी सन्दर्भ में आपका जो उपन्यास आया है ‘इन्ही हथियारों से’, ये 1942 के आन्दोलन पर केन्द्रित है। जैसा कि आप कहते हैं खासकर बलिया क्षेत्र का। लेकिन उसमें भी आश्चर्यजनक रूप से विभाजन की अन्तर्व्यथा गायब है। जबकि विभाजनकारी आन्दोलन का भी निर्णायक दौर वही था। उस दौर के आन्दोलन को अगर आप केन्द्र में रख कर बात करते हैं तो एक अन्तर्धारा ये भी तो चलती है, विभाजन वाली? जैसे मान लीजिए दो राष्ट्रों की बात थी, दो स्टेट्स, ये बहुत बड़ी परिघटना थी। इससे अप्रभावित कैसे रह सकता है कोई लेखक?
अमरकांत- देखिए विभाजन जो है, एक ऐसा ब्लैक एण्ड ह्वाइट में कोई सॉल्यूशन नहीं था। आप ये समझ लीजिए, विभाजन जो आया कोई इस तरह से नहीं आया। जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का आप जानते है रोल क्या है? आपने देखा नहीं है?
हिमांशु रंजन - आत्मनिर्णय के आधार पर इसका समर्थन किया था।
अमरकान्त - हाँ! और दूसरा ये देखा कि मुसलमान जो है डेमॉक्रेटिक है। कांग्रेस उसके विरोध में है तो डेमॉक्रेटिक यहाँ प्रभाव हमारा अधिक है। तो जैसे रूस मे था, जो अलग-अलग सोविएट्स थे उन्हें आत्मनिर्णय का अधिकार दिया गया था। जैसे, फिनलैण्ड, रूस में था लेकिन ऑफ क्राउड कर दिया, बॉर्डर पर था। लेकिन भीतर का अगर कोई चाहे तो उसको नहीं दे सकते थे। वह राइट जो था यहाँ पर, उसी से प्रभावित हो कर मेरे खयाल से उन्होंने आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार किया होगा? ये कोई थोड़े जानता था कि फिजिकली फोर्स रूप में विभाजन अलग हो जाएगा। दूसरी बात ये कि सी. राजगोपालाचारी पाकिस्तान के पक्ष में थे, कांग्रेस में रहते हुए। वह भी इसलिए कि, आत्मनिर्णय का अधिकार ही समझते होंगे। मेरा जहाँ तक खयाल है। तो ये कॉन्सेप्ट क्लियर नहीं था। हमारी कम्युनिस्ट पार्टी विभाजन के पक्ष में थी। पाकिस्तान के पक्ष में थी। आत्मनिर्णय के अधिकार के रूप में। अजब ये देखिए कि उसी आन्दोलन में, मैंने ‘इन्हीं हथियारों से’, में लिखा है कि कम्युनिस्ट पार्टी और मुस्लिम लीग दोनों का झंडा उठा कर एक साथ जुलूस निकला है, बलिया में। और जगह तो निकला होगा ही।
हिमांशु रंजन - अन्तर्विरोधी स्थिति तो थी ही।
अमरकान्त - अंग्रेजों ने युद्ध खत्म होने के बाद ये आश्वासन दिया था कि यहाँ पर स्वशासन देंगे, आज़ादी देंगे। आश्वासन आते गये, कैबिनेट मिशन पहले आया, उसके बाद लॉर्ड बॉवेल आये। वह एक लूज कंफेडरेशन की योजना लेकर आए। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जो है, उसी के आधार पर 1946 का पूरा चुनाव हुआ। जो कि कंस्टिचुएंट एसेम्बली हो गयी, बाद में। उसमें ये हुआ कि जो अन्तरिम सरकार बनी, उसमें इक्वलिटी के आधार पर कांग्रेस पार्टी ने समझौता किया। पाँच मन्त्री इनके तो पाँच मन्त्री उनके। लियाकत अली खां को वित्त मंत्रालय मिला। पटेल साहब को होम मिनिस्ट्री मिली। ये आजाद का लिखा हुआ है, ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में। और अगर होम मिनिस्ट्री एक वर्दी के लिए भी ग्रांट देता है तो लियाकत अली खाँ के यहाँ जाएगा, वित्त मंत्रालय के यहाँ। वहाँ वह पास ही नहीं होता था। तो वहाँ डेड लॉक होता था। फिर प्रधानमन्त्री नेहरू, अब पूरी कैबिनेट की मीटिंग बुलाते थे। लियाकत अली खाँ अपनी अलग मीटिंग बुलाते थे, अपनी मुस्लिम लीग की और एक दलित मंडल की। वैचारिक रूप से और शासन के ऊपर दो स्टेट यहीं पर हो गए। पार्टी का कोई सवाल नहीं था। जो चुनाव हुए थे, कांग्रेस मिजॉरिटी ऑफ द स्टेट में विजयी हुई थी। तो अब किस पर दोष दिया जाय विभाजन का? देखिए आप अंग्रेजों का मूवमेंट। अब इनके साथ हमारा कोई समझौता नहीं, ये मनोवृत्ति ले कर पटेल निकले। रिजाइन-विजाइन कर दिया लोगों ने कि अनवर्क रिवूल है। और मुस्लिम लीग ने बड़ा भारी बंगाल में, 16 अगस्त को डिमॉन्स्ट्रेशन किया, डायरेक्ट ऐक्शन। और शासन उस समय मुस्लिम लीग का या किसी और का था। उसका सहयोग उसको मिला। दोनो ओर से भयंकर कार्नेज हुआ। यहीं से टर्न है, यहाँ पर। और इतनी बड़ी ब्रिटिश सेना थी और लड़ रही थी, उसने इंटर्वीन उस तरह से नहीं किया, वह दिखावटी इंटर्वेंशन था। तो आप किसे दोष देंगे? हिन्दू मुस्लिम का तो दोष था ही लेकिन 1857 में वे एक साथ लड़े भी तो थे।
हिमांशु रंजन - एक उनकी एकता की भी परम्परा थी।
अमरकान्त - अगर आप राजनैतिक रूप से इन चीज़ों पर ठीक तरह से सोचें तो चाहे वह 1857 हो या विभाजन हो, दोनो लिंक्ड भी हैं और अगर आप ठीक से सोचें तो आपको लगेगा कि उसमें सभी दोषी हैं, लगभग। लेकिन मेन रोल किसका था? और विभाजन भी हुआ तो, अंग्रेजों का ये था कि तीन स्टेट्स थे, प्रिविंसिस स्टेट्स जिन्हे ये ऑप्सन मिला था कि विलय पत्र पर चाहे वह इनके पक्ष में या उनके पक्ष में, हस्ताक्षर कर दें। ये तो सरदार पटेल जैसा डिप्लोमेटिक आदमी था कि बुलवा-बुलवा कर साइन करवाया सबसे। चाहे कश्मीर चाहे हैदराबाद। हैदराबाद को तो स्वतन्त्रता देने का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि इंडिया के बीच में था। तो भी ‘डायरेक्ट ऐक्शन’ बाद में हुआ उसके खिलाफ। और कश्मीर का जो मुद्दा था, यू.एन.ओ. में भेज दिया। ये भी विभाजन की ही कथाएँ हैं, ठीक है कि हिन्दी में रचनाएँ उस तरह से नहीं लिखी गयीं लेकिन उर्दू में, जो हिन्दी की ही एक सहोदर भाषा है, उसमें मण्टो जैसा टावरिंग पर्सनाल्टी वाला लेखक है, छोटी उमर में मरने वाला, 40-45 वर्ष में और क्या उसने विरोध किया उसने अपने ‘टोबाटेक सिंह में! अरे, इतना जबरदस्त विरोध हो ही नहीं सकता! वैचारिक विरोध! क्या जबर्दस्त कहानी है वह? और भी कहानियाँ हैं उनकी अच्छी, कई।
हिमांशु रंजन - इस उपन्यास में (इन्ही हथियारों से) एक पक्ष की तरफ और ध्यान जाता है कि गाँधीवाद पर आज पुनर्विचार की जो स्थिति है, आप गहराई से उन हथियारों को या उन गाँधीवादी हथियारों को केंद्र में रखते हैं, अपने कथावस्तु में.... ।
अमरकान्त - (हँसते हुए) ये गाँधीवाद हमारे रखने का सवाल नहीं है, ये तो था ही आन्दोलन ऐसे। मैं तो शामिल हुआ हूँ उसमें। बैरिया थाने में ऊपर गोली ले कर तैयार हैं, थानेदार और सिपाही और माब कहें कि खोलिए आप उनको। बहस कर रहे हैं बड़े ही डेमोक्रेटिकली, उनसे, कि वह झंडा आपने ही ने लगवाया था और आपने ही क्यों उखड़वा दिया? आप जवाब दीजिए। आप हट जाइए, इस तरह से। ये आन्दोलन ऐसा था कि साधारण आदमी भी जाता था और बड़े-बड़े लोग भी जाते थे। लेकिन इन लोगों ने अपनी तरफ से कभी हिंसा नहीं किया। इतना बड़ा आन्दोलन हुआ बलिया में। सैकड़ों मरे गोली कांडों में और इसमें। लेकिन अपनी ओर से एक आदमी नहीं मारा। ढेला-ओला जरूर चले, किसी को मारा नहीं। और सबको जाने दिया जब थाना और तहसील पर कब्जा हुआ। कहा कि दरोगा जी और तहसीलदार साहब आप लोग अपनी-अपनी फेमिली लेकर जाइए। उनका कुछ छीना नहीं ना कुछ किया और जो पैसे जो मिले, तहसील से या और भी, उसको जनता में बाँट दिया गया वहाँ। ये जो एक डेमॉक्रेटिक टेंडेसी जो थी तो ड्रॉबैक भी थे। आप ध्यान से पढ़िए जब अन्त में वहाँ पर आते हैं और चरना कुछ पूछता है प्रश्न वगैरा। और किस तरह से गाँधीवादी लोग फौज आने पर पलायन कर जाते हैं, स्वतन्त्रता सेनानी लोग, उनका ख़ौफ पहले से ही था। पटरी उखाड़ी गयी थी, उसको जोड़ते हुए पूरी सेना आयी थी। रात में आई दो बजे। मैं बाहर सोया हुआ था और तड़-तड़-तड़ गोली चलने लगी। आते ही उन्होंने फायर किया। हमारी माँ आयी और कही, ये क्या हो रहा है? तुम चलो भीतर, वगैरा-वगैरा। हम लोग तो बदनाम थे ही उसमें। तो आप ये समझिए कि उसमें भी इधर से कोई हिंसा नहीं हुई। थाना जो है, जब मॉब आई थी वहाँ पर। वह नारे लग रहे हैं और उसकी प्रतिध्वनि हो रही है ऊपर आकाश से। विष्णु चन्द्र शर्मा ने लिखा है कि आपने तो ऐसा लिखा है कि हमको याद आ गया उस समय का। आपने देखा ही नहीं है कि जनता किस तरह से अहिंसा के द्वारा इस लड़ाई को लड़ रही है। क्योंकि और कोई अस्त्र नहीं था आपके पास। क्रान्तिकारियों के पास होती थी पिस्तौल दो-एक। क्रान्तिकारी भी शामिल होते थे उसमें लेकिन ऐसा कोई श्रेय नहीं था उनका। उनका नेतृत्व कोई स्वीकार नहीं करता था। नेतृत्व कांग्रेस का था उस समय। कांग्रेस ने आगे बढ़ाया उसको। हथियार यही थे उस समय के। यही नहीं था, अहिंसा के अलावा अछूतोद्धार, नशाबंदी भी था। हम लोगों ने नशाबन्दी के लिए अभियान किया। गाँजा, भाँग, शराब की दुकानों की पिकेटिंग होती थी। उसको बन्द कराया जाता था। लेकिन किसी को मारा-पीटा नहीं जाता था। जैसे हमसे पूछते हैं कि आप शराब क्यों नहीं पीते हैं? सवाल ये है कि इन सब चीज़ों का असर पड़ता है। इन सारी चीज़ों को देखना पड़ेगा। हमने विभाजन का विरोध भी दूसरे तरीके से किया है, ‘इन्ही हथियारों से’ में प्रेमिका कहती है कि कितने टुकड़े करोगे तुम? आप प्रकारान्तर से सोचिए कि जब महत्वाकाँक्षा पैदा हो जाती है तो विभाजन होता ही होता है। इसमें इस तरह की भी चीज़ें हैं अगर आप पढ़ना चाहें तो, समझना चाहें तो। और न समझना चाहें तो कोई बात ही नहीं है, तो कुछ है ही नहीं है। देखने की आलोचक की अपनी एक दृष्टि होती है।
हिमांशु रंजन - मैंने इसलिए कहा कि गाँधीवाद पर अब जा कर खुले मन से विचार हो रहा है।
अमरकान्त - दुनिया में एक ही गाँधी था। दूसरे बनते लोग बहुत हैं, लेकिन गाँधी कोई नहीं बन सकता। क्योंकि उनके ‘माई एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ, आत्मकथा है, वह हमेशा एक्सपेरिमेंट करते हुए इतनी दूरी तक आए। उनमे क्या खासियत थी और क्या नहीं थी, क्या इफेक्ट्स थे? इसका अध्ययन करना चाहिए। कोई अध्ययन नहीं करता क्योंकि वह पॉजिटिव ही नहीं देखता। जो एंटी गाँधीवादी लोग हैं। हमारे बहुत से प्रगतिशील लोग गाँधीवाद के खिलाफ थे। अब बहुत लोग पक्ष में बोल रहे हैं।
हिमांशु रंजन – वही, मैं कह रहा हूँ कि पुनर्विचार की स्थिति हो रही है। अब सब लोग महसूस कर रहे हैं। अब नये सिरे से उनका अध्ययन हो रहा है।
अमरकान्त – मेरे ऊपर पहला विशेषांक, जो कालिया जी ने निकाला था, ‘वर्ष-एक’ नाम से। उसमें मैंने पहले ही, आत्मकथ्य में, सन 70 में ये कहा था कि गाँधी आग उगल रहे थे। गाँधी के बारे में मैंने उसमें लिखा है, उसे आप पढ़िए। तो सब लोग आश्चर्य कर रहे थे कि गाँधी?
हिमांशु रंजन – नहीं, इस उपन्यास के रूप में तो आपने इस चीज़ को आगे बढ़ाया है।
अमरकान्त - जो रियलिटी है मैंने वही कहा, वह चीज नहीं होती तो हम न कहते। उसमें जो फाँक है उसे भी मैंने प्रकट कर दिया है किसी तरह से। और विभाजन को उस रूप में प्रकट किया है, जिस रूप में मैंने अभी आपको बताया। नीलेश जैसा कैरेक्टर और इतना डेडिकेटेड प्रेमिका के प्रति, लेकिन किस तरह से उसने टुकड़े किए।
मुरलीधर - आपका पिछले वर्ष एक और महत्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुआ है, ‘विदा की रात।’ साम्प्रदायिकता की जटिल समस्या से अलग इसमें साम्प्रदायिक सद्भाव की अनुशंसा अधिक दिखायी पड़ती है। बहुसंख्यक नजरिये से इसे अल्पसंख्यक तुष्टिकरण भी करार दिया जा सकता है। क्या आपकी दृष्टि में, भारत में धर्मनिरपेक्षता सर्वधर्मसमभाव से आगे नहीं जा सकती?
अमरकान्त - हमारे समझ में ये नहीं आता कि सर्वधर्मसमभाव क्या है और धर्मनिरपेक्षता जो शब्द था संविधान में, उसको भी डॉ लक्ष्मी मल सिंघवी ने चेंज़ करके पंथनिरपेक्षता कर दिया। अब पंथनिरपेक्षता क्या है और धर्मनिरपेक्षता क्या है, हम तो नहीं जानते। वही लोग जानें विद्वान लोग। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुझे तो ये लगता है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। धर्म जो है, इसका सवाल कुछ दूसरा टाइप का है, अभी हाल में ही स्वयं प्रकाश जी ने परसाई जी का जिक्र किया था। उन्होंने नास्तिकता का जिक्र किया था कि नास्तिकता हमको इतना लाभ पहुँचाती है, दूसरों को क्यों नहीं लाभ पहुँचा सकती? तो परसाई जी तो अपने डेथ बेड पर थे, उन्होंने ये कहा कि आप धर्म से नहीं लड़ सकते। धर्म तो एक दूसरी चीज़ है। उसमें उनके बहुत से नियम और बहुत से आदर्श होते हैं और उनका पालन होना चाहिए। और साधारण आदमी तो धार्मिक होता ही है। तो आप चलेंगे नास्तिकता का प्रचार करने लोगों में? मार्क्सवाद जो दर्शन है, वह भौतिकवादी दर्शन हई है। वह इसी दुनिया में विश्वास करता है। और जो आध्यात्म है, स्पिरिट भावना जो है, आत्मा है, ये सब इसी दुनिया से पैदा हुई है। वह इसमें विश्वास करता है। मार्क्सवादियों को कहना चाहिए कि मैं मार्क्सवादी हूँ, भौतिकवादी हूँ, मैं ईश्वर को नहीं मानता। हिन्दुस्तान में बौद्ध धर्म, जैन धर्म और प्रकृति से पैदा होने का सिद्धान्त, धुर नास्तिक रहे हैं। ये तो अलग विषय है। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का ये मतलब है कि राजनीति में धर्म का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। क्योंकि धर्म का जब राजनीतिक रूप से इस्तेमाल हो जाता है तो वह साम्प्रदायिकता हो जाती है। तो धर्म अलग है और साम्प्रदायिकता अलग है। ये दो चीज़ का लोग विभाजन नहीं कर पाते। और साम्प्रदायिकता का विरोध छोड़ कर वह धर्म का विरोध करने लगते हैं। क्योंकि मार्क्स ने कहा था कि धर्म एक अफीम है।
हिमांशु रंजन - वह भी आधी बात ही कोट करते हैं लोग।
अमरकांत- धर्म को ले कर लड़ाइयाँ हुई हैं योरप में। थर्टी इयर्स वॉर, हण्ड्रेड इयर्स वॉर, ये धार्मिक लड़ाइयाँ वहाँ पर हुई हैं, योरप की हिस्ट्री देखिए आप धर्म को लेकर। लेकिन धर्म में कोई खराबी नहीं है। वह उनके पालन करने वालों में तुच्छताएँ होती हैं, भावनाएँ होती हैं। वह उसको इंटरप्रिटेट नहीं कर पाते। उससे लड़ाइयाँ होती हैं, अपने वर्चस्व को लिए, अपने धर्म के लिए, इस तरह की। यहाँ पर हर धर्म और हर जाति और वर्ग के लोग हैं। हमको इस चीज़ को इस तरह से देखना चाहिए कि राजनीति में इसका दुरुपयोग न हो सके। ‘विदा की रात’ में आपने पूछा। ‘विदा की रात’, साम्प्रदायिकता पर नहीं है। मेरा कहने का तो ये मतलब है कि बड़े-बड़े लोग तो, चाहे वह हिन्दू हो चाहे मुस्लिम हों, नेता या बड़े लोग, लेकिन साधारण हिन्दू-मुस्लिम का आपस का इतना ये मेलजोल है। मुस्लिमों की और क्या समस्याएँ हैं, अशिक्षा वगैरा को लेकर। खासतौर पर गोरखपुर की ये सही कथा है। ये कोई काल्पनिक कथा नहीं है। बहुत पहले अब्दुल विस्मिल्लाह को मैंने बताया भी था कि मैं लिखना चाहता हूँ। अब लिखना हुआ। पहले भी ट्राई किया, नहीं लिख पाया। इसमें ये है कि हिन्दू भी मुसलमान के लिए करते हैं और मुसलमान भी हिन्दू के लिए सहयोगी रहता है। दूसरे धर्म के लड़के का पालन कर लेना, अपने अल्लाह के सिद्धान्त का पालन करते हुए। तो धर्म ये है। और अल्लाह से कहा उसने, वादा किया था तो उसका पालन किया। ये देखिए, कि उसके पास ये बहुत था कि इसको मुसलमान बनने दो तुमको क्या? ये चीज़ें जो ऊपर-ऊपर हैं वह जनता के लिए ऊपर नहीं हैं। मतभेद दूसरे लोग जा कर पैदा करते हैं। अगर उसमें रीड करते हैं तो। उसमें कहा नहीं गया था।
हिमांशु रंजन - ‘सुन्नर पाण्डे की पतोहू’ जो आपका उपन्यास है, है तो वह बहुत ही छोटा लेकिन मेरे लिए बड़ी ही प्रिय कृति है वह। और आपने बताया भी कि ‘सुहागिन’ नाम की कोई कहानी लिखी थी आपने। एक बहुत ही अच्छी चीज़ जो मुझे आकर्षित करती है वह ये कि आम तौर पर मध्य वर्ग के बारे में तमाम तरह की बातें होती हैं लेकिन ये जो उदात्तिकरण का पक्ष जो है, बहुत ही अद्भुत चरित्र है उस महिला का, वह बताएँ आप?
अमरकान्त - देखिए, हिन्दुस्तान का अध्ययन करें आप, तो इस तरह की औरतें बहुत मिली हैं। मेरी चाची ने एक इसे कहानी के रूप में बताया था बहुत पहले। मैंने इसे एक कहानी के रूप में आगरा में ही लिखा था। कथा वही है, उसको उपन्यास के रूप में मैंने फैलाया और 1995 के करीब मैंने इसे लिख कर पूरा किया था। और नागपुर के एक पत्र में यह सिरियलाइज हुआ था। हमारा ये मतलब था कि वह औरत जिन्दगी भर सिन्दूर के पीछे, यहाँ तक कि अपने पति के प्रति डेडिकेटेड रहती है। यहाँ तक कि अन्त समय में वह अपने पति की शक्ल-वक्ल भी भूल गयी रहती है कि कौन था, क्या था? उसके सारे आदर्शों की ट्रेजेडी और तमाम समाज व्यवस्था उसमें सब कुछ आ जाता है। अन्तिम समय में वह कहती है कि गोश्त खाऊँगी, ये देखिए! अब ये गोश्त खाना क्या है? गोश्त खाना जीवन के प्रति वह ललक है क्योंकि वंचित रही सारी जिन्दगी। गोश्त खाना है, लेकिन जब वह आता है तो मुँह फेर लेती है। मुझे हांट किया था ये। कितने लोग घर छोड़ जाते हैं, अपनी पत्नियों को। गाँव का तो आप जानते ही हैं, आप गाँव में रहे हैं। अनन्त कथाएँ हैं इस पर। एक कथा नहीं है ये। हमारे ही यहाँ रहती थी एक। उसका ही एक कैरेक्टर लिया है मैंने। कहानी तो आप अपने ही अनुभवों में ढूँढते हैं।
मुरलीधर - आम लोगों में साहित्य का जो हस्तक्षेप है, जो जगह है आम लोगों में साहित्य की वह कम होती जा रही है। उसकी वजह बाजारवाद का विकास ही है या उसके बरक्स एक सकारात्मक आन्दोलन का अभाव भी, एक कारण हो सकता है?
अमरकान्त - राजनीतिक आन्दोलन जब तेज होता है, तो सांस्कृतिक आन्दोलन भी तेज होता है। राजनीतिक आन्दोलन में अगर वह चीज़ नहीं रहती तो उसका सांस्कृतिक पक्ष भी बहुत कमज़ोर हो जाता है। हर जगह देख लीजिए, ये बात। ये बहुत इम्पार्टेंट है कि राजनीतिक आन्दोलन....हर चीज़ की राजनीति नहीं, वैचारिक राजनीति, जैसे कांग्रेस का भी आन्दोलन था। आप देख लीजिए कि स्वतन्त्रता के लिए कांग्रेस का आन्दोलन था तो कितने लेखक जुड़े थे? माखन लाल चतुर्वेदी और दिनकर और कई अनेक लोग। सब लोग किसी ना किसी रूप में उससे जुड़े थे। तब सांस्कृतिक पक्ष भी मजबूत होता है। और अवसरवादी आन्दोलन हो तो सांस्कृतिक आंदोलन भी कमज़ोर पड़ता है, खो जाता है। आप देखिए कि हर संस्था के प्रति नौजवान, नया खून नहीं आ रहा है। ये क्राइसिस है जन संस्कृति मंच, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, परिमल वगैरा तो खतमे हो गया सब जो है। कोई वैसा आन्दोलन भी नहीं है इस समय। इसलिए कि राजनैतिक रूप से चारों तरफ भ्रम छाया हुआ है। तो सांस्कृतिक पक्ष भी उतना मजबूत नहीं हो रहा है। और यहाँ जिस तरह की संस्कृति डेवलप कर रही है, धन की संस्कृति और इसकी संस्कृति तो उसी तरह से हर जगह धुंध फैलती जा रही है। ऐसे में ये जरूरी है कि एक आदर्शात्मक राजनीतिक आन्दोलन हो। क्योंकि राजनीति के बिना आप चल नहीं सकते। तो जनतान्त्रिक आन्दोलन हो, कोई भी आन्दोलन हो। वह आदर्शात्मक हो, व्यवहार्य हो तो उसका असर होता है। तो सांस्कृतिक पक्ष और नये नौजवान सभी आपसे जुड़ते हैं। जहाँ नये नौजवान नहीं जुड़ रहे तो ये बड़ी क्राइसिस है। चाहे राजनीतिक पार्टियों से, जो भी नौजवान जुड़ते हैं तो अवसरवाद की भावना से कि हमको ये लाभ होगा, वह लाभ होगा। तो वह उस तरह का कि हम लोगों ने आज़ादी के आन्दोलन में पढ़ाई ही छोड़ दी। चार साल पढ़ाई बर्बाद हुई। चार साल के बाद मैंने बी.ए. ज्वाइन किया। हमारे भाई निकाले गए अपने स्कूल से। हमारा एक भाई जो है, दो जगह पकड़ा गया है। बलिया में भी और बाद में पढ़ने गया बनारस तो वहाँ भी पकड़ लिया गया, मार खाया बहुत ही। ये नुकसान आप देख लीजिए, आप क्या-क्या होता है। लेकिन लोग स्वेच्छा से, स्वत: जाते हैं। सेक्रिफाइसेज करते हैं, जितना कर सकते हैं। जो लोग आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सा लेते थे उनका पारिवारिक रूप से कितना नुकसान होता था आप कल्पना नहीं कर सकते। उनके बच्चे पीछे हो जाते थे। पढ़ नहीं पाते थे। धनिकों की बात नहीं करता। लेकिन जो साधारण वर्कर्स हैं उनको हम जानते हैं। बाद में वह चले गये लाभ के लिए, लेकिन उन्होंने बड़ा सफर भी किया है। उनके बच्चे पीटे गये, परिवार पिछड़ गया। आर्थिक संकटों से गुजरे। उधारी से कुछ लोग चन्दे-वन्दे दे देते थे। तो इन सारी चीज़ों को सोचना चाहिए कि जब आदर्शात्मक स्थिति जब होती है किसी समाज की तो सांस्कृतिक पक्ष भी बहुत मजबूत होता है उसका।
मुरलीधर - एक बहुत ही महत्वपूर्ण ऐंगल है आपके पूरे लेखन का, उसकी चर्चा कम हुई है, वह है आपकी भाषा। आपकी भाषा में लोक जीवन और लोक भाषा की अद्भुत भंगिमाएँ हैं, उसके स्रोत क्या हैं?
अमरकान्त - (हँसते हुए) उसके स्रोत क्या हो सकते हैं? भाई कल्पना से तो आप कहानी लिख सकते हैं लेकिन भाषा आप कल्पना से कहाँ ले आएँगे?
मुरलीधर - लेकिन आपको कस्बे का कथाकार तक कहा गया और जो ग्रामीण और नागर कथाकारों की उनका जो विभाजन था उसमें आप ग्रामीण कथाकारों में भी नहीं आते थे फिर भी आपमें जो लोकभाषा की जो भंगिमाएँ हैं जो आपकी समृद्धि है।
अमरकान्त - हमारा अपना मानना है कि भाषा अगर आपको सीखना हो तो आप लोगों के पास जाइए। अगर आप शहर मे रहते हों तो शहर के जो लोग जिन्हें, असली जनता कहते हैं, उनके पास आप जाइए। बड़े वर्ग में उच्च मध्य वर्ग में या मध्य वर्ग में जो धनी या बड़े कहे जाते हैं उनके पास भाषा नहीं है। वह बहुत लच्छेदार बातें करते हैं। लेकिन एक देहाती या एक जनसमाज का आदमी, वह मुहावरों में बातें करता है। अब जैसे कि मैंने ‘डिप्टी कलेक्टरी’ में कहा कि ‘सब्र की सौ धार।’ अब आप इसको एक्सप्लेन करेंगे। इसको सोचिए, सोचते जाइए आप क्योंकि देखने में तो ये भी वैसे ही लगता है। ये विवेक है, ज्ञान है उनका। पहली भूख-प्यास का लड़का! ये भी मैंने लिखा है। जब कोई ऐसा मुहावरा मुझे मिल जाता है तो मैं अपने को सम्पन्न समझता हूँ! और जब मुहावरे नहीं मिल पाते या नहीं कर पाता हूँ तो मुझे सूना-सूना सा लगता है। आप मुहावरेदानी देख लीजिए ग़ालिब की, ये हो ही नहीं सकता कि वह जनसम्पर्क में न हों। प्रेमचंद की मुहावरों से भरी हुई भाषा है। आप प्रेमचंद की खूबी देखिए कि लोग जिस तरह से बोलते हैं, अभिव्यक्त करते हैं लोग अपने को, प्रेमचंद उसी भाषा में लिखते हैं। तो आपको शुरू से ही उनकी भाषा रोचक और मज़ेदार लगेगी। तो ये भाषा की खूबी है। आप अभागे हैं अगर आप लोगों से दूर हैं और लिख रहे हैं। ये मेरा अपना मानना है। वैसे लोग हैं जो इस तरह से नहीं करते हैं दूसरे तरीके से करते हैं, लेकिन ये मेरा अपना अनुभव है कि आप भाषा वहीं से सीख सकते हैं। वहाँ संक्षेप में किस तरह से चीज़ों को किस तरह से बयान करना चाहिए आप सीख सकते हैं। अब वह पूछेंगे, ‘समाचार है न?’ अब इसमें देखिए आप अभिव्यक्ति! अगर कोई भी पूछेगा देहात में। अब इस तरह से दूसरा कोई नहीं बोल सकता है। तो कहेगा कि कहो भाई क्या हाल है? इस तरह से आदर के साथ साथ और भी कई चीज़ें हैं इसमें। इस तरह से भाषा का महत्व है।
कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को छूता हुआ साक्षात्कार
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