बुद्धदेव दासगुप्ता की कविताएं
बुद्धदेव दासगुप्ता |
11 फरवरी 1945 को पुरुलिया के एक कस्बे में जन्मे फिल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता बांग्ला के एक प्रतिष्ठित कवि थे जिनका फिल्म निर्देशक का व्यक्तित्व ही भारतीय अंतरराष्ट्रीय फलक पर ज्यादा छाया रहा, जबकि वे एक उत्कृष्ट निर्देशक, पटकथा लेखक के साथ-साथ एक बड़े कवि भी थे। उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हैं जिनमें 'काफिन किंवा सूटकेस' (1972), 'हिमयुग' (1977), 'छाताकाहिनी' (1982) और 'सेबोटेर गान' प्रमुख हैं। इधर की उनकी कविताएं उनके फिल्म सृजन से भी प्रभावित हुई। यह उनकी स्वयं की स्वीकृति है जो उनके ताजा प्रकाशित संग्रह में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। बुद्धदेव दासगुप्ता की इन कविताओं का अनुवाद किया है कवि निशांत ने। यह कविताएं पहल के 77 वे अंक में प्रकाशित हुई थीं। हम पहली बार पर साभार इन कविताओं को प्रकाशित कर रहे हैं। तो आइए आज पढ़ते हैं बुद्धदेव दासगुप्ता की कविताएं।
बुद्धदेव दासगुप्ता की कविताएं
पेड़
तुम्हारे सीने के सामने हाथ फैलाता हूँ
पत्ते झड़ पड़ते हैं
तुम क्या पेड़ों की तरह डैने फड़फड़ाती हो
तारे गिनती हो
ओस कणों से धुलवाती हो अपनी जाँघ
नाखून वाली उंगलियां
पेड़ के तने के सामने हाथ फैलाता हूँ
दूध झड़ पड़ता है।
स्वप्न के सामने आततायी
मोथा घास के ऊपर से वह साँप
बैगन के पेड़ की तरफ दौड़ पड़ा
जहां सो रहा था मेंढक।
उसकी मुंदी हुई अनोखी आंखों की ओर देख
ठिठक कर रुक गया वह
बादल गरजे, वर्षा हुई
पूँछ को पानी से हिलकोरती गहरे पानी की ओर
चल पड़ी मछलियां,
तालाब से सटे बाग में
पपीते से झरता रहा पानी
और शिव बाबू की छोटी बहू ने
दरवाजे को सटाकर
पड़ोसी निकुंज साहा की चिट्ठी निकाल ली
ब्लाउज के भीतर से
शिव बाबू छत पर जा पहुंचे
बनियान उतार
आकाश की तरफ पीठ को पसार दिया,
और हजार हजार घमोरियां
पांव के अंगूठे के पास आकर इकट्ठा हो गईं।
कितने पल - अनुपल बीत चले
हवा चली हवा... हवा... हवा...
बैंगन के पौधों के
छोटे-छोटे बैगनों के नीचे
मेंढक लंबी नींद ले कर
आंखें बंद किए स्वप्न देखे जा रहा है,
करैत देखता रहता है
देखता रहता है...
...देखता ही रहता है।
भूल जाते हैं
अभी पहाड़ों की दसों दिशाओं से मेघ और कुहासा जा कर
कोरे कागज में समा जाते हैं
और कोरे कागज के भीतर से निकल आता है नवीन
नवीन की पत्नी
नवीन का बेटा
वे सर झुकाए चुपचाप बैठे रहते हैं
जब मैं सिगरेट से सुलगाता हूँ
जब मैं चाय पीता हूँ
या जब जगे-जगे झपकी लेना शुरू करता हूँ
वे भयंकर दुश्चिंताओं से घिरे
आशा से मेरी तरफ टकटकी बांधे बैठे रहते हैं
शाम के समय बुझ जाती है बत्ती
ठंड से सिसकारी भरते काँपते हुए आते हैं मेरे लोग
हम लोग खुद फुसफुसाते हुए बतियाते हैं
दांतो को किटकिटाते हुए बतियाते हैं
फिर नवीन, नवीन की पत्नी और नवीन के बेटे को
हम ले जाते हैं एक भयंकर पहाड़ की चोटी पर
और धक्के दे कर गिरा देते हैं नीचे
फिर बादलों के भीतर से
कुहासे के भीतर से
उनके लुढ़क कर नीचे गिरने की तस्वीर खींच लेते हैं
और उन्हें अखबारों में छपने देते हैं
अखबार पैसा देता है
हमारे नाम छपता है
हम शराब पीते हैं
फिर भूल जाते हैं नवीन लोगों को
अन्य ग्रह
विमला सोच ही नहीं सकी
कि किसी दिन विमल उसे प्यार करेगा
अमला सोच ही नहीं सकी
कि किसी दिन अमल उसे प्यार करेगा
कमला सोच ही नहीं सकी
कि किसी दिन कमल उसे प्यार करेगा
एक दिन विमल अखबार पढ़ रहा था
विमला झपट्टे से अखबार छीन अचानक पूछ बैठी
'अच्छा, प्यार मतलब क्या है?'
विमल ने कहा यही, एक साथ रहना
यानी एक साथ सिनेमा देखने जाना
यानी साथ साथ सोना... यानी...
एक दिन अमला के साथ प्यार कर रहा था अमल
अचानक अमला पूछ बैठी
'अच्छा प्यार मतलब क्या?'
अमल ने कहा - यही, यह सब करना
बच्चे पैदा करना, उन्हें बड़ा करना
बैंक में पैसे जमा करना
ताकि बुढ़ापे में खा सको, पहन सको...
एक दिन कमल टीवी देख रहा था
कमला पास आ कर बैठी
टीवी में तब ऋतुपर्णा1 का इंटरव्यू ले रही थी था ऋतुपर्ण2
"... मान लें
यदि एक साथ दस लड़के तुमसे शादी करना चाहें
तू क्या करेगी?"
कमला हटात टीवी बंद कर पूछ बैठी -
'अच्छा प्यार मतलब क्या?'
कमल बोला - 'प्यार मतलब, जब तब चूम लेना
जब तब चले जाना समुद्र के किनारे
जब तब साड़ी ब्लाउज खोल कर...'
हो... हो... हो...
फिर एक और दिन जब विमल अमल कमल सो रहे थे
विमला, अमला, कमला एक दूसरे ग्रह में प्रवेश कर गई
वे स्वयं एक दूसरे को प्यार करने लगीं
शरीर की जरूरत महसूस होने पर
वे सीख गई स्वयं एक दूसरे के शरीर का उपयोग करना
और उन्होंने एक केंचुए का नाम रखा विमल
एक छिपकली का नाम रखा अमल
एक मकड़े का नाम रखा कमल।
1.रितुपर्णा : बांग्ला फिल्मों की मशहूर अभिनेत्री
2. ऋतुपर्ण : बांग्ला फिल्मों की मशहूर निर्देशिका
रात
गहरी नींद सो गया है निखिल
निखिल की पत्नी खिड़की खोल उड़ गई है तारों के पास
तारों ने चकित हो जानना चाहा "कि नाम ?"
निखिल की पत्नी बोली - "तारा"।
सुबह-सुबह निखिल बाजार की तरफ दौड़ा
दौड़ा ऑफिस की तरफ
ट्यूशन और नाटक की रिहर्सल की ओर,
फिर बिस्तर की ओर भागा खा पी कर।
आधी रात को अचानक टूट गई निखिल की नींद
उसके चेहरे गालों पर पड़ रही थी पानी की फुहारे
और जाने कब उड़ कर आ कर सो गई थी तारा उसके सीने पर
तारा के शरीर को घेरे घने बादल
पानी बन झड़ रहे थे अविराम।
चांद सौदागर की कथा
भद्र लोगों को देख कर
सारी रात आकाश की ओर देखते खड़े रहे
वणिक और वणिक पत्नी
आसमान का चांद झट से उतर आया
पत्नी के बटन टूटे ब्लाउज के नीचे।
जगमगा उठी चारों दिशाएं
फिर सचमुच उनकी आंखों के सामने
एक-एक कर तारे टूट कर गिरते रहे।
अल सुबह चटाई पर
हजारों तारों के बिस्तर पर वे सो गए।
भद्र लोग समाचार पा बीवियों के साथ पहुंचे,
सारी रात वे भी ताकते रहे
लेकिन एक बाल भी नहीं गिरा किसी भी चीज से।
वणिक पत्नी की साड़ी घुटनों से ऊपर उठ गई है
और वणिक की लूंगी लगभग माथे तक,
तारों ने घेर रखा है उन्हें
फुसफुसाकर बतिया रहे हैं वे खुद के साथ
ताकि टूट न जाए वणिक और वणिक पत्नी की नींद।
एक दिन
कितने दिन हो गए मैंने तुम्हें नहीं देखा,
तुम्हारे सीने का तिल
तुम्हारे पैरों की छोटी-छोटी उंगलियों के
शान्त सफेद नाखून
मैंने नहीं देखे बहुत दिनों से।
कितने दिन हुए
ठीक से नहीं पी पाया शराब
फोड़कर शराब की बोतल घोंप नहीं सका
उन सूअर के बच्चों के पेट में
जो खरीद ले गए हैं सारी स्त्रियां, शराब, कवि और कोलकाता।
एक दिन मैंने देखा खिड़की से बाहर
सर्र सर्र करते उड़े जा रहे हैं
मेरे लिखने के कागज, टेबल, पेन
रुलाई
उड़ा जा रहा है मेरा प्रिय शहर
उड़ी जा रही है कवि की पत्नी
कवि के दोनों हाथों में काम है
और मैं छोटा हो
और छोटा होते होते
फिर से मां के पेट के गहन अंधेरे में प्रवेश कर गया हूं।
प्रेम - 1
पत्नी के कानों में अब सोया पड़ा है 'राणा'।
सारी रात दारू पी कर, चिल्ला चिल्ला कर, गा कर, नाच कर
पेशाब की धार से दीवाल पर लिखकर अपना नाम
एकदम भिनसारे पत्नी की कान की बाली पकड़ कर झूल गया था राणा,
फिर जबरदस्ती उसके कानों के भीतर जाकर
लुढ़क लुढ़क कर नीचे उतर गया था।
बिस्तर सो रहा है
खिड़की सो रही है
घास पर गए तारे सो रहे हैं
नींद में लुढ़कते लुढ़कते एक कान से घुस कर
राणा सुबह-सुबह दूसरे कान से बाहर निकल आया है।
दाढ़ी बना कर नहा कर
अब ऑफिस जाएगा राणा।
अपनी पत्नी को प्यार करता है राणा
शराब पीकर नाचकर गाकर
राणा अपनी पत्नी को जताता है
अपना प्यार
पत्नी रो पड़ती है कभी-कभी
उन आंसुओं को जीभ से चाट लेता है राणा
और भी कितना प्रेम है जिसमें पत्नी नहीं है
और भी कितनी पत्नियां जगी हुई हैं और लोगों से प्रेम करती हुई
प्रेम - 2
आज भी सामंत बाबू
आखिरी ट्रेन से बारीपदा से लौटे हैं
आकर तुम्हारी नाक की नथनी पर
बैठ गए हैं मक्खी का रूप धर कर।
बीच-बीच में भिन-भिन करते उड़ कर
आ कर तुम्हारे बालों में घुस कर
झपकी लेने लगते हैं अकेले-अकेले।
रविवार को सामंत
तुम्हारी बगल में बैठ कर
तुम्हारा मछली काटना देखता है,
फरसे से छलक पड़ता है गुस्सा, फरसे से चमकता प्यार
सामंत के होठों से टकराता है।
खदकते चावल की गंध से
भर उठती है दोपहर,
सामंत तुम्हारे खुले सीने पर
टूट कर गिरे नक्षत्रों की गिनती करता है।
इसके बाद रात आने पर ही
चांद से झरने लगती चांदनी
सीधा-साधा पेड़ झुक कर
पड़ोसी पेड़ को उठा लेता है आकाश में।
अपनी रुलाई की आवाज से स्वयं के स्वप्न से जाग कर तुम
सामंत की झूलती जेब में जाकर सो जाती हो।
सामंत सुबह-सुबह चला जाएगा,
फिर वापस आएगा हजारों वर्ष बाद
उसी शनिवार की रात को,
तुम्हें अपनी जेब में लिए हुए।
नंदन मेला
मिट्टी खोदो और बाहर निकालो खोपड़ियाँ
मिट्टी खोदो और बाहर निकालो सीने के पंजर
हाथ और पांव की हड्डियां
मिट्टी खोदो
और और और गहरे उतर जाओ
मिलेंगी हड्डियां, खूनी लड़ाईयों के निशान
झर रहा है समय
झर रही हैं पत्तियां
आसमान में घुमड़े बादल झर रहे हैं
झर रहा है शफीकुल अमीना के सीने पर
अमीना के स्तनों में आज भी वह
खोज लेता है आम की गंध।
अब जिधर भी देखो
खाली सर, हल्की हवा, गंजे पेड़, फटे हुए मैदान
गुनगुना आकाश
आकाश के नीचे झर रहा है लालच
थूक चाट कर फिर से चेयर पर जा बैठा है लालच,
कह रहा है मित्रों...
मायकोवस्की वमन कर रहे हैं
काफ्का वमन कर रहे हैं
मिग्वेल लिटिन वमन कर रहे हैं
गांधी वमन कर रहे हैं
हनुमान का सीना चीर
दौड़कर रास्ते पर
उकड़ू होकर वमन कर रहे हैं
राम लक्ष्मण सीता...।
और दौड़ रहा है शफीकुल,
शफीकुल समझ ही नहीं पा रहा
अचानक सभी क्यों उसकी मांग कर रहे हैं
अचानक 'आप' 'आप' कह रहे हैं
कहने लगे हैं - 'घर छाने के लिए घास-फूस देंगे'
चूतड़ ढकने के लिए कपड़े देंगे
पेट भरने के लिए चावल देंगे
शफीकुल कुछ नहीं सुन पा रहा है,
शफीकुल दौड़ रहा है
पीछे ढाल की तरह पेट लिए दौड़ रही है अमीना
कि फिर जाल में न फंसना पड़े
लेकिन जाल में फंसने के लिए
बहुत से आम आदमी
यहीं पर मौजूद है,
बहुत सारे लालच है उनके।
पुरुलिया के अस्पताल में
जमीन पर मरीज के साथ लेटे हुए हैं कुत्ते
चार महीने से वेतन नहीं मिला इसलिए
ब्लैक बोर्ड पर पेशाब कर रहे है हारू मास्टर
बशीरहाट का निर्मल
एम. ए. पास करने के सात साल बाद भी नौकरी न मिलने से
गले में रस्सी डाल कर खिसक गया है
मुर्शिदाबाद में सात दिनों से सीने तक पानी में खड़ा है शफीकुल
उसके बगल में है दिशाहारा सांप,
बाढ़ में बह गया है अमीना का शव।
गांव जप्त हो रहे हैं
बेदखल हो रहे हैं
फिर फिर जप्त हो रहे हैं
पतितुंडू का सिर
एक ही झटके में अलग कर डालता है लालमोहन कुंडू...
बहुत दूर के ग्रह कोलकाता में
झामापुकुर लेन में
चेहरे पर पाउडर मल रहा है गिरधारी,
तीन घंटे बाद नंदन मेले में
पाँच सौ पन्द्रह लोग पढ़ेंगे आज कविताएं
पाँच बजे से शुरू होगा कविता पाठ,
गिरधारी की पत्नी
बाथरूम से चिल्ला कर कहती है-
सुन रहे हो, नंदन मेले में दोनों
दो-दो कविताएं पढ़ेंगे या दो सौ-दो सौ
वही आंखें
सफेद पन्ने पर
कलम रखते ही
निकल आया खून।
डर कर टेलीविजन चालू कर दिया निखिल ने,
वहां से भी निकल आया खून।
ठीक तभी टेलीफोन बज उठा,
रिसीवर उठाते ही आवाज के बदले निकल आया खून।
कुछ नहीं देखना-सुनना है सोच कर
चित हो जैसे ही निखिल अखबार से ढकता है अपना चेहरा
खून सने सारे अक्षर झरने लगते हैं सारे शरीर पर।
दीवार की फटी हुई जगह से
आईने के दोनों तरफ दरके हुए स्थानों से
किताबों की अलमारी से
बाथरूम के नल से
निकलता है खून
खून खून खून।
निखिल समझ गया
कि अब भागना पड़ेगा
कुछ भी लेने लायक नहीं है
स्मृतियों के एल्बम के अलावा
सब कुछ डूब रहा है खून में।
भागते भागते, भागते भागते
सात नदी और तेरह समुद्र पार कर निखिल रुका,
स्मृतियों के एल्बम के अलावा
अब और कुछ भी नहीं है उसके पास।
एल्बम के खोलते ही
पहले पृष्ठ पर थी नीरा
नीरा की कोमल आंखें निहार रही थीं उसे,
कुछ ही पल में
उन आंखों से भी झरने लगा खून
निखिल समझ गया
हजारों प्रेम कविताएं लिखी गई है
नीरा को ले कर
फिर भी उसे बचाया न जा सका खून सनी पृथ्वी से।
बंकिम, बंकिम
टेबल पर पड़ा हुआ है शून्य करुण हाथ
बिस्तर पर एक जोड़े पैर और पायजामा
सिर कर रहा है बाजार
ऑफिस की चेयर पर तोंद और पंजर बैठे हैं।
सुबह की ट्रेन
गंगा की बगल से दौड़ती है गंगोत्री की ओर
रात में चांद की हँसी के बाँध को तोड़ कर
तीन चमगादड़ फुसफुसाकर
छत पर बल्लाल सेन की बातें करते हैं
उसे सुनकर हाड़काटा लेन में
मोहन डकैत अकेले रम पीते पीते
रमा रमा पुकारता रोने लगता है।
रमा तो बहुत पहले ही
ढीली पड़ गई है बिस्तर पर
हाड़काटा लेन में
अब बरेली बाजार खोल कर बैठ गई है रमाएँ।
शून्य करुण हाथ
पैर और पजामे को उठा कर
तोंद और पंजर को जोड़
सिर बगल में लिए चल पड़ते हैं
कुछ नहीं देखा है सिर ने
राजनैतिक चुप्पी...असहमति पर हुंकार...
नींद उतर जाती है उसकी आंखों में।
आधी रात सुजलाम सुफलाम कहते भागे जाते हैं बंकिम
बंगाल के नदी नाले मैदानों की ओर।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विनोद शाही जी की है)
संपर्क
Dr.Bijay kumar shaw. (nishant)
Dept.of hindi, vidyacharcha bhawan,
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kalla bypass more, po.kalla c.h.,
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सुंदर
जवाब देंहटाएंबुद्धदेव जी का यह रूप नहीं पता था .. बहुत ही पैनी नज़र और नुकीली कलम ...
जवाब देंहटाएंसभी अद्भुत 👌
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