शुक्ला चौधरी की कहानी 'सुनो तो'

 


 

 

रोजमर्रा का रहन सहन ही अन्ततः एक  समूचा जीवन बन जाता है। इस रोजमर्रा के जीवन के हर पल को शिद्दत से जीने वाले लोग जीवन को उत्सव की तरह जीते हैं। छोटा से छोटा पल भी प्यार के साथ जीने का नाम है जिंदगी। इस रोजमर्रा के सामान्य जीवन को ले कर ही शुक्ला चौधरी ने कहानी लिखी 'सुनो तो' यह कहानी हमें भास्कर चौधरी के सौजन्य से ही प्राप्त हुई है। शुक्ला चौधरी को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं शुक्ला चौधरी की कहानी  'सुनो तो'

 

 

सुनो तो

 

 

शुक्ला चौधुरी

 

 

क्या सच है, सच है कि हम दोनों साठ-सत्तर पार की उम्र में भी प्यार में डूबे हुए हैं? मैं तुम्हारे कंधे पर सर रख कर खिलखिला रही हूँ और तुम मुझे मोजे पहनने को कह रहे हो...

"लो चलो उठो, मोजे पहन लो...." 

मैं तूतिया रंग की लेगिंस, उस पर टी-शर्ट लम्बी बाँह की पहन लेती हूँ‍‍ तुम काले रंग का कोट ऊपर से पहना देते हो.... कुछ देर बाद हम दोनों तेज कदमों से चल रहे होते हैं, सुनसान सड़क पर....

 

 

इस बार मस्त ठंड है..." मैं कहती हूँ। तुम मुझे देखते हो, कानों के पास से सरक गया मफलर ठीक कर देते हो। कुछ कहने की होती हूँ मैं, तुम चुप करा देते हो....

"चलते वक्त बोला नहीं करते...

"क्यों ?"  

"फायदा नहीं होता

"

 

 

पर मैं ज़्यादा देर चुप नहीं रह सकती, तुमसे बात करने को मचल उठती हूँ....

एक बात कहूँ?"

फिर! कहा पैदल चलते वक्त चुप रहा करो...

बस एक...." मैं मनुहार कर उठती हूँ।

कहो

मुझसे प्यार करते हो?" 

बहुत...तुम हँसते हो, “पैंतालीस सालों में यह वाक्य कितनी बार दोहराई हो, याद है ?" 

असंख्य बार, फिर भी पेट भरता है मन.... चलो अब चलते हैं

चलो" तुम मोबाइल में समय देखते हो.... अभी तीस मिनट पूरे नहीं हुए हैं” 

कितने हुए?"

बीस मिनट"

अच्छा चलो शाम को पूरे चालीस मिनट चलेंगे

 


 

 

तुम कुछ कदम आगे निकल जाते हो। मैं दौड़ कर पास जाती हूँ। हाँफ रही हूँ....

रुको, साथ-साथ चलते हैं" मैं तुम्हारी कलाई पकड़ लेती हूँ।

वो देखो, लोग देख रहे हैं...

देखने दो

क्या कहेंगे"

कहने दो"

 

 

दिसम्बर के अंतिम पखवाड़े की सुबह, आठ बजे का सूरज अलसाए ठंड से कुड़कुड़ा रहा है... 

चलो एक कप चाए इसे भी पिलाते हैं

किसे”?  

सूरज को, और किसे, देखते नहीं बिचारा-सा दिख रहा है।” 

मैं हँसते हुए तुमसे आगे जाती हूँ एकदम तेज, घर हमारे इंतज़ार में हो जैसे .... हमें अकेला छोड़ कर कहाँ थी इतनी देर...घर पूछ बैठता है।

ये तो गई हूँ बाबा, रोज तुम्हारा एक ही सवाल..."

 

 

धूप थी हल्की-हल्की पूरब दिशा की खिड़की के पल्लों पर हौले-हौले दस्तक देते हुई।

आती हूँ ज़रा ठहर, पूरब दिशा की बंद खिड़की, आओ तुम्हें भी खोल देती हूँ।” 

खिड़की खोलते ही धूप नन्ही बिल्ली की तरह झप से फर्श पर कूदती है।

 

 

नर्म मखमली धूप, मैं कॉपी पेन निकाल लेती हूँ।

क्या लिख रही हो?”

कुछ नहीं, ऐसे ही। चलो चाए बनाते हैं..." मैं गैस ऑन करती हूँ, तुम फ्रिज से दूध ले आते हो। चाय-पत्ती ?” तुम पूछते।

"ये रही..." मैं डब्बा बढ़ा देती हूँ।

 

 

चाय पी कर हम दोनों कुर्सियाँ उठा कर बाहर निकल आते हैं बरामदे में। तुम 'हंस' का दिसम्बर का अंक खोलकर बैठ जाते हो। मैं गुलाब की क्यारियों के बीच उड़ती तितलियों के झुंड को देखने लगी एकटक, मन कहीं खो-सा गया। आजकल ऐसे दृश्य कितने कम दिखाई देने लगे हैं, जाने कहाँ गुम हो गए ये सब!

तुम्हारे ज़ोरदार ठहाके से मैं चौंक उठती हूँ।

क्या हुआ?" "सम्पादकीय पढ़ रहे हो लगता है”"

हाँ"

बेचारा!

"लाटरी नहीं खुल रही है" 

तुम्हारा कारगर नुस्खा इन्हें क्या पता” 

बता दूँ, फोन नं. तो है

नहीं-नहीं ऐसी गलती मत करना"

क्यों?"

तुम अपने सारे नुस्खे मेरे ही ऊपर आजमाओ तो ठीक है, बाकियों को बख्श दो

पर नुस्खा है बड़ा मजेदार, हफ्ते में दो बार पीयो, पेट क्लीयर.... नहीं?"

 


 

 

आज खिड़की-दरवाजे के सारे पर्दे धोने हैं। गुलाबी रंग पर गर्द बहुत जल्दी जमने लगती है। मैं अंदर जाती हूँ। पीछे-पीछे तुम भी... आज हंस को पूरा पढ़ ही लूंगा

रहने दो, ऐसा रोज ही कहते हो"

पहले से स्पीड ठोड़ी कम हो गई है पढ़ने की

कोई बात नहीं, चलो अंदर चलते हैं....मैं पर्दे खोलने लगती हूँ।"

अरे रे रे.... क्या कर रही हो?"

तुम्हें खोल रही हूँ"

अभी पंद्रह दिन भी तो नहीं हुए हमें धुले हुए

देखो काले-काले डस्ट में तुम्हारे रंग कैसे छुप से गए हैं

मैं सारे पर्दों को अपनी गोद में उठा कर टब में डालने चल देती हूँ।

ठंडे पानी में मत डालना

नहीं रे बाबा

ज्यादा जोर-जोर से रगड़ना मत"

ऊँ हूँ, बिल्कुल नहीं, ज्यादा रगड़ने से तुम्हारा गुलाबी रंग झर नहीं जाएगा!" मैं मुस्कुराती हूँ जैसे ये पर्दे नहीं मेरे बच्चे हों।

 

 

 

उफ वो भी क्या दिन थे हवा में सवार भागते हुए, महज़ बाईस की उम्र, मैं और तीन-तीन बेटों की माँ... एक को पकड़ूँ तो एक छूट जाए और एक गोद में। किसे संभालूँ... तुम्हें आवाज देती इसके पहले ही तुम मुझे पुकारते जरा आना तो" तुम काम पर जाने को तैयार, मैं तुम्हें ऊपर से नीचे तक देखतीशर्ट के बटन सही जगह से नदारद, फुलपैंट का भी वही हाल। अब क्या करूँ बच्चे को नीचे उतार तुम्हें सुलझाती। तुम्हारे होंठ अनायास मेरे गाल तक झुक आते। तुम्हेँ ऑ़फिस जाते हुए देखती, रोज एक ही शर्ट एक ही फुलपैंट में। पर मुझे तुम जैसा कोई और नहीं लगता, एकदम अलग एकदम ज़ुदा।

 

 

क्या सोचने लगी?" मैं चौंक गई, तुम मुझे पीछे से बाहों में जकड़ लेते हो, “क्या बनेगा आज ?" 

पत्ता गोभी

काट दूँ"

हूँ ऊँ... ऊँ...

तुम चॉपर से पत्ता गोभी काट रहे हो बारीक, बिलकुल प्रोफेशनल शैफ की तरह। कट-कट की मधुर आवाज पहुँच रही है, मैं आंगन में हूँ। यही तो है वह जगह जहाँ मैं घंटों बिता सकती हूँ। आंगन मेरी सखी-सहेली, माँ-बाप, बहुएँ, भाई-बहन। इन्हें मैं अपनी इच्छा  के अनुसार यहाँ-वहाँ बिठा कर बातें करती रहती हूँ। इनकी उंगली पकड़ कर बहुत दूर चली जाती हूँ। मेरा पोता मनु, दोनों पोतियाँ रूपी, दीपी तो मेरे चारों ओर तितलियों की तरह मंडराती रहती हैं। कभी मैं उनके पास, कभी वे मेरे पास। तीनों बेटों के फोन नियम से आते रहते हैं। मज़ाल है जो मोबाइल को अपने से अलग कर दूँ। वो मेरे गले में झूलता ही रहता है यों.... यों....

 


 

 

कैसी हो माँ?"

अच्छी हूँ

बाबा कैसे हैं?"

अच्छे हैं"

क्या कर रहे हैं?”

बिजली का बिल भरने गए हैं, आते ही होंगे..." मैं आगे कहती हूँ – "साक्षात्कार में मेरी कविता छपी है रे, मैंने इन दिनों बच्चों के लिए कई गीत भी लिखे हैं, धुनें भी दी हैं, हारमोनियम में निकाल लेती हूँ, तेरी बिटिया को सुनाऊंगी...." "तू सुन रहा है ! हैलो... हैलो..." शायद फोन कट गया है।

 

 

सुबह-शाम मिला कर हम दोनों कई बार सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हैं। इससे दुरुस्त रहेंगे घुटनेतुम कहते हो सोचती हूँ चाहे कुछ भी हो जाए छत पर जाना हमसे छूटे। घर की और चीजों की तरह यह भी कम प्यार नहीं करती हमें। उजियारी रात हो या अंधियारी, गर्मी की शाम हो या ठंड की दोपहरी, छत के साथ हमारी महफिल खूब जमती। जब हम किसी भी विषय पर बात करते या मोबाइल पर भूले-बिसरे गीत सुनते तो एक अद्भुत समा छत पर बंध जाता जिसमें हम दोनों कई घंटों तक गोते खाते रहते।

 

 

आज भी जब हम दोनों छत पर आए तो आसमान से शीत टपक रही थी। पूर्णिमा का गोल चाँद हँस रहा था। वह हमें ऐसे देख रहा था मानों कह रहा था देर करो और एक सुंदर सी कविता लिख डालो। चाँदनी हमें देख ठुमक उठी और छत के चारों कोने एक साथ बोल पड़े... इधर मेरे पास, मेरे पास...पर मैंने देखा आज पहली बार छत का बीच वाला हिस्सा हमें पुकार रहा था... प्लीज... मेरे पास आओ...आओ ...हम दोनों वहीं जा कर खड़े हो गए मेरा शाल बायें कंधे से ढुलक गया था जिसे तुम ठीक करने लगे। फिर से, फिर से एक बार मेरे अंदर वही प्रश्न, वही वाक्य हलचल मचाने लगा और एक पूरा दिन समाप्त होने से पहले एक सुंदर और माकूल समय पर मैंने तुमसे पूछ ही लिया – “"सुनो... क्या तुम मुझसे प्यार करते हो?"

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

 

 

सम्पर्क

भास्कर चौधरी 09098400682

 

 

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